टैक्स पेयर के पैसे का सांप्रदायिकरण

इसी साल फरवरी के महीने में सहारनपुर के देवबंद में तमाम उलेमा जुटे थे। आतंकवाद की निंदा करने। जो मुसलमान आतंकवाद की वकालत करता है वो इस्लाम का दुश्मन है। इससे मिलते जुलते हर नारे पर तालियां बज रही थीं। तब दो सवाल मुझे परेशान कर रहे थे। कहीं यह सबूत देने के लिए तो नहीं कि मुसलमान आतंकवादी नहीं है। अगर ऐसा है तो यह किसी भी देश के लिए यह शर्मनाक स्थिति है। इससे पहले भी पंजाब में आतंकवाद के दौर में सिखों को सबूत देना पड़ता था। लेकिन आतंकवाद के खात्मे और मुख्यधारा में खुले दिल से स्वागत करने का नतीजा यह है कि प्रधानमंत्री की कुर्सी पर मनमोहन सिंह बैठे हैं। किसी को शक नहीं होता बल्कि गर्व होता। यही सोचते सोचते ख्याल आया कि एक दिन तो ऐसा आएगा जब मुसलमानों को भी नहीं कहना पड़ेगा कि हम आतंकवाद का समर्थन नहीं करते हैं। विश्वास का माहौल दोनों तरफ से बनता है।

फर्क सिर्फ इतना है कि सिखों के साथ वक्त कम लगा लेकिन मुसलमानों के साथ इंतज़ार लंबा होता जा रहा है। दिल्ली में सिखों को हिंदुओं(दूसरी पार्टी के हिंदू) ने घरों से निकाल निकाल कर मारा,तो एक राजनीति कांग्रेस के खिलाफ सामने आई। उसने कांग्रेस को घेरा लेकिन हिंदुओं की इस असहिष्णुता पर सवाल खड़े नहीं किये। आज इसी कौम की एक राजनीतिक धारा के लोग( बजरंग दल) उड़ीसा और कर्नाटक में मार रहे हैं। हिंसा से मुसलमान और हिंदू दोनों जूझ रहे हैं। लेकिन बदनाम सिर्फ मुसलमान है।

बहरहाल, देवबंद की उस सुबह जो दूसरा सवाल परेशान कर रहा था, वो यह कि उलेमा कहीं इस बात से तो परेशान नहीं कि आतंकवाद उनके बीच पहुंच चुका है। कहीं वो उस निराश मानसिकता को झकझोर तो नहीं रहे थे कि बाबरी और गुजरात के बाद भी यकीन के हज़ारों तार अब भी कायम है। अब भी आतंकवाद का रास्ता मुनासिब नहीं है। तब एक मौलाना ने कहा कि उलेमा इसलिए जमा हुए हैं ताकि समाज में यह संदेश जाए कि मज़हबी नेता आतंकवाद के खिलाफ है और दूसरों को कहने का मौका न मिले कि इस्लाम आतंकवाद का समर्थन करता है।

उसके ठीक एक महीने बाद गुजरात के चुनावों के दौरान अहमदाबाद की एक मस्जिद। मौलाना जुम्मे की नमाज़ से पहले तकरीर कर रहे थे। बोल रहे थे कि बच्चों को अंग्रेज़ी पढ़ाओ। जब तक वो पढेंगे नहीं हालात नहीं बदलेंगे। खुतबा पढ़ने वाले मौलवी साहब ने अपने बच्चे को मदरसे से हटाकर पब्लिक स्कूल में डाल दिया था। उसी से ठीक पच्चीस किमी दूर एक मौलवी ने मस्जिद का काम छोड़ दिया। अरुणाचल से आया यह मौलवी अपनी बेटी को बीए कराना चाहता था। आस पास के लोग ताने देने लगे थे कि मौलवी हो कर अंग्रेजी तालीम दिला रहा है। बेटी बेपर्दा हो जाएगी। इस कहानी ने मुझे देवबंद के उस जुलूस की याद दिला दी।

इन दोनों घटनाओं के बीच जुलाई २००७ का वो हादसा गुज़र चुका था। लंदन के ग्लासगो धमाके में मोहम्म कफील, मोहम्मद सबील का नाम आया था। सबील ने बंगलूरु में अपने पिता को ई मेल किया था कि ग्लोबल वार्मिंग पर काम कर रहा हूं। बाद में आस्ट्रेलिया में पढ़ रहे रिश्ते के एक और भाई मोहम्मद हनीफ को भी गिरफ्तार कर लिया गया। हनीफ अब सभी आरोपों से मुक्त है। यह घटना बता रही थी कि आतंकवाद अब अनपढ़ों की बस्ती में नहीं पनप सकता। कंप्यूटर से लेकर सर्किट बनाना अनपढ़ों के बस की बात नहीं रही।

लेकिन हम सब भूल गए कि आतंकवाद ने रास्ता बना लिया है। पाकिस्तान में बैठे आकाओं के झांसे में पढ़े लिखे नौजवान आ गए हैं। देवबंद के उलेमा इसलिए एलान कर रहे थे कि कोई मौलवी को आतंकवादी या आतंकवाद का समर्थक न समझे। उन्हें भी अंदाज़ा नहीं होगा कि आतंकवाद ने मस्जिदों की आड़ लेना बंद कर दिया है। वो उन्हें ढूंढ रहा है जिन्हें बताया जा सके कि बाबरी मस्जिद या फिर गुजरात दंगों के बाद किस तरह की नाइंसाफी हुई। किसी को सज़ा नहीं मिली। गोधरा का ज़िक्र कर बाकी मुसलमानों को मारने का लाइसेंस दे दिया गया। राजनीति दोनों तरह की हिंसा के खिलाफ खड़ी हो सकती थी लेकिन एक को छोड़ दूसरे का साथ देने में उसका अपना फायदा था। इसलिए राजनीति ने अपना फायदा सोचा। मासूम ज़िंदगी और मुल्क के मुस्तकबिल का फायदा नहीं।

बाबरी मस्जिद की घटना और गुजरात के दंगों ने मुस्लिम समाज को दो बार बदला। बाबरी की घटना के बाद वे राष्ट्रीय राजनीति की धारा ( कांग्रेस) को छोड़ क्षेत्रिय दलों के साथ हो लिये। राजनीति में उनकी राष्ट्रीय पहचान खत्म हो गई। वोट बैंक बन गए। गुजरात के दंगों ने मुसलमानों को तालीम की तरफ धकेला। बड़ी संख्या में मुस्लिम इलाकों में पब्लिक स्कूल खुले। हैदराबाद के अखबार सियासत ने मुस्लिम लड़कियों और लड़कों को साफ्टवेयर की ट्रेनिंग देनी शुरु कर दी। आईटी क्षेत्र में मुस्लिम नौजवानों की संख्या धीरे धीरे बढ़ने लगी। मुसलमान मुख्यधारा से जुड़ रहा था। वो सच्चर कमेटी का इंतज़ार नहीं कर रहा था।

दिल्ली धमाकों ने मुस्लिम समाज के सामने एक नई चुनौती खड़ी कर दी। पढ़ाई के ज़रिये आगे बढ़ने की उनकी कोशिशों पर आतंकवाद की नज़र लग गई। एक बार फिर मुस्लिम समाज का भविष्य दांव पर लग गया है। शायद इसीलिए वो दिल्ली के जामियानगर के एक मकान में मारे गए आतंकवादी और उसके बाद पकड़े गए लड़कों को लेकर परेशान है। यकीन करना मुश्किल हो रहा है कि जिस पढ़ाई को मुस्तबिल बनाया वो आतंक के रास्ते पर कैसे चला गया।


लेकिन इस बार भी मुसलमानों के इस प्रारंभिक अविश्वास का गलत इस्तमाल किया जा रहा है। एक बार फिर से उनकी चिंता को आतंकवाद के समर्थन में देखने की नापाक कोशिश की जा रही है। आस्ट्रेलिया में मोहम्मद हनीफ भी तो बेकसूर छूट गया। उसे भी तो पहले आतंकवादी बताया गया था। तो क्या किसी को इतना भी हक नहीं कि वो इस शक को जगह दे सके। क्या पता इतनी बड़ी संख्या में पकड़े गए लड़कों में से कोई एक मोहम्मद हनीफ की तरह बेकसूर भी हो सकता है। लेकिन इतनी सी बात को ऐसे पेश किया जा रहा है कि पूरा मुस्लिम समाज आतंकवाक का समर्थन कर रहा है। दिल्ली पुलिस दावा कर रही है कि इस बार उसने सही लोगों को मारा है और पकड़ा है। अगर पुलिस को इतना यकीन है तो यह उसके लिए भी अच्छा मौका है। अपनी साख हासिल करने का कि इस बार सही लोग पकड़े गए हैं। जब ऐसी बात है तो फिर किसी को इसमें क्या एतराज़ कि सैफ के लिए वकील होना चाहिए या नहीं। सैफ के वकील भी देख लेंगे। लेकिन अदालत में जिरह से पहले वकील करने वाले पर शक बता रहा है कि हम सबने फैसला कर लिया है।

कुछ दलील यह दी जा रही है कि मोहन चंद शर्मा की शहादत न होती तो एनकाउंटर को फर्ज़ी बता दिया जाता। यह एक बकवास तर्क है। क्या अब तक हुए एनकाउंटरों को इसी आधार पर फर्ज़ी करार दिया जाता रहा है। आखिर ऐसा कैसे हो गया कि एनकाउंटर करने वाले( मोहन चंद शर्मा को छोड़ कर) राजबीर से लेकर मुंबई पुलिस के सुपर कॉप( नाम याद नहीं आ रहा) तक या तो आपसी रंजिश में मार दिये गए या फिर सस्पेंड कर दिये गए। मोहन चंद शर्मा अपवाद हो सकते हैं। क्या राजबीर सिंह भी अपवाद थे? अपवाद थे तो क्यों पुलिस के अफसर उनकी चिता पर आग देने नहीं गए। ज़ाहिर है एनकाउंटर करने वाली टीम में सारे दूघ के धुले अफसर नहीं होते। जिस दिल्ली पुलिस का इतना हाई प्रोफाइल अफसर राजबीर सिंह प्रोपर्टी डीलर के ठेके पर मार दिया जाए उस पुलिस के किसी काम पर सवाल ही उठा दिया गया तो क्या बवाल। अतीत में पुलिस की यही करतूत रही है। सवाल पर परेशानी इसलिए है कि हम आतंकवाद के मुद्दे का सांप्रदायिकरण कर रहे हैं। मोहन चंद शर्मा की शहादत( मैं सवाल नहीं उठा रहा) सिर्फ आतंकवाद के खिलाफ ही नहीं, उस पुलिस और पोलिटिकल सिस्टम के खिलाफ भी समझी जानी चाहिए जिसकी करनी की प्रतिक्रिया में आतंकवाद फैलता है।


एक और दलील दी जा रही है। टैक्स पेयर के पैसे से जामिया या दिल्ली अल्पसंख्यक आयोग वकील कैसे कर सकते हैं? इनके फैसले से एतराज़ हो सकता है लेकिन टैक्स पेयर को लेकर सवाल? क्या टैक्स पेयर सिर्फ हिंदू है? जेटली अपनी इस दलील से क्या यह कहना चाहते हैं कि टैक्स पेयर हिंदू है। पहली बार टैक्स पेयर का सांप्रदायिकरण हो रहा है। यह बेतुकी दलील और आगे बढ़ती है। अदालत आरोपियों को वकील देती है। तो क्या इस वकील का खर्चा टैक्स पेयर के पैसे से नहीं आएगा?


बात दोषी या निर्दोष का नहीं...बात है सांप्रदायिक पूर्वाग्रहों को ऐसी दलीलों से मांजने की। तराशने की। तथाकथित पुलिस और तथाकथित चश्मदीद के दावे सच की तरह पेश किये जा रहे हैं। यह समस्या है। दोनों के बीच के ग्रे एरिया की बात करें तो सांप्रदायिक राजनीति मोहन चंद शर्मा को आगे कर अपना काम करने लगती है।


तब भी जिनके बच्चे पकड़े गए हैं उन्होनें पुलिस मुर्दाबाद के नारे नहीं लगाए। जामियानगर के कुछ लोगों ने लगाए। मुंबई में तौकीर की मां और आज़मगढ़ में सैफ के पिता ने साफ साफ कहा है कि अगर मेरा बेटा दोषी है तो गोली मार दी जाए। देवबंद के उलेमा और इन मां बाप की आवाज़ एक ही है। अफसोस इतना कि राजनीति की आवाज़ अलग अलग है।

बाढ़ पर स्पेशल रिपोर्ट ख़बर डॉट कॉम पर

बाढ़ के गुनहगार स्पेशल रिपोर्ट इस वक्त ख़बर डॉट कॉम पर अपलोड कर दिया गया है। आप वीडियो सेक्शन में देख सकते हैं।
वीडियो सेक्‍शन पहुंचने और स्‍पेशल रिपोर्ट देखने के लिए क्लिक करें http://khabar.ndtv.com/MoreVideos

वीरेंद्र कुमार बरनवाल से मुलाकात

इन दिनों पत्रकार साहित्यकारों से कम मिलते हैं। ऐसे ही एक बेशकीमती वक्त में आज सुबह बीरेंद्र कुमार बरनवाल जी से मुलाकात हो गई। कृष्णमोहन झा हमारे घर आए थे जाते वक्त हमें भी साथ ले गए। बहुत बातें हो गईं। पंडित रामनरेश त्रिपाठी का संकलन ग्रामगीत मेज़ पर रखा था। बरनवाल जी ने कहा कि हिंदी कविता के आदि पुरुष हैं पंडित रामनरेश त्रिपाठी। गांधीजी से भी उनका संवाद हुआ करता था। हिंदी के साहित्यकारों की एक उदारता बेमिसाल है। उनकी किताब भले ही प्रकाशक लाइब्रेरी की कालकोठरी में डाल दें और दुनिया के बाज़ार से गायब कर दें लेकिन हिंदी का साहित्यकार अपनी किताब मुफ्त में भेंट कर देता है। बिना मुझसे पूछे,बरनवाल जी ने जिन्ना एक पुनर्दृष्ठि भेंट कर दी और इसी के साथ अश्वेत साहित्यकार और नोबेल पुरस्कार विजेता नाइजीरिया के कवि वोले शोयिंका की किताब भी दी। कहा अश्वेत साहित्य के बारे में बहुत कुछ पता चलेगा। अंग्रेजी के कुछ साहित्यकारों व लेखकों से मिलना हो जाता है। वो कभी अपनी किताब मुफ्त में भेंट नहीं करते। अक्सर दुकान का पता बताते हैं। कहते हैं ज़रूर खरीदों। इससे एक लेखक की ज़िंदगी जुड़ी है। बहरहाल मुफ्त की किताब मेरे लिए बेशकीमती हो गई है।

जिन्ना एक पुनर्दृष्टि काफी चर्चित रचना है। हंस से लेकर किताब में ढलने के बाद भी इसकी अहमियत है। किताब की भूमिका के कुछ अंश दे रहा हूं।

जिन्ना सच्चे तत्वों से बनें हैं। सांप्रदायिक पूर्वाग्रह से मुक्त वह हिंदू-मुस्लिम एकता के सर्वश्रेष्ठ राजदूत हैं। गोपाल कृष्ण गोखले।

जिन्ना मुझे उस शख्स की याद दिलाते हैं, जो अपने मां-बाप दोनों को कत्ल कर अदालत से इस बिना पर माफी चाहता है, कि वह यतीम है। जवाहर लाल नेहरू

इतिहास सामान्यत ग्लेशियर की अदृश्य मन्थर गति से रेंगता हुआ चलता है, पर कभी-कभी उसमें प्रपात का आवेश-भरा वेग भी आ जाता है। कुछ ऐसा ही अप्रतिम वेग भारतीय उपमहाद्वीप के इतिहास की धारा में सन १९३७ से लेकर १९४७ के दौरान आया, जिसने विश्व के लगभग पांचवें हिस्से की नियति को बड़ी गहराई से प्रभावित किया।

इसी भूमिका में बरनवाल जी अपनी मां की कथरी पर लिखी दो पंक्तियों की एक कविता का भी ज़िक्र करते हैं।

हम ग़रीबों के गले का हार वन्दे मातरम
छीन सकती है नहीं सरकार वन्दे मातरम।

बरनवाल जी से मुलाकात अच्छी रही। कृष्णमोहन झा ने कविता संग्रह भेंट की। मैथिली में आई है यह कविता संग्रह। एक टा हेरायल दुनिया। अंतिका प्रकाशन का कारनामा है।

बाढ़ का एक महीना और आज रात स्पेशल रिपोर्ट

दोस्तों, आज बिहार में आई बाढ़ का एक महीना हो गया। बाढ़ के लिए कौन कसूरवार है यह जानने में छह महीना लगेगा। क्योंकि बिहार सरकार ने जो जांच कमेटी बनाई है वो छह महीने में अपनी रिपोर्ट देगी। मैंने बाढ़ के गुनहगार पर एक स्पेशल रिपोर्ट तैयार की है। आप सभी कोसी में आई बाढ़ को लेकर चिंतित रहे हैं। मेरी गुज़ारिश है कि आप इसे देखें। पिछले शनिवार को दिल्ली धमाके के कारण नहीं प्रसारित हो सका था। आज रात साढ़े नौ बजे किया जा रहा है। एनडीटीवी इंडिया पर।

धमाकों के बाद सामान्य होती ज़िंदगी

२९ अक्तूबर २००५ की शाम थी। हमने पत्रकारों ने धमाके के बाद चीखना शुरू कर दिया था। यहां धमाका वहां धमाका। पहाड़गंज से लेकर सरोजिनी नगर तक। ६७ लोगों की मौत। सैंकड़ो घायल। मैं सफदरजंग अस्पताल की खिड़की पर खड़ा था। अंदर झांक रहा था। लाशों को गिनने के लिए। संख्या बढ़ती जा रही थी। हर लाश किसी न किसी कैमरे के फ्रेम में कैद हो रहा था। चमकते फ्लैश के बीच ज़िंदगी का अंधेरा गुम हो रहा था। लाइव फोनो है। देखिये हमने देखा है कि अभी यहां पच्चीस लाशें हैं। नहीं रुकिये। दो और शव आ चुके हैं। संख्या सत्ताईस हो चुकी है। अफरातफरी, धमाका, आतंक ये सारे शब्द किसी टेलीप्रिंटर से होते हुए मेरी ज़बान पर और फिर दर्शकों के घर में पहुंच रहे थे। पूरी रात इस घर से लेकर उस घर तक। हम कुछ ढूंढने की कोशिश कर रहे थे। लाश और ख़बर के बीच की कोई चीज़ थी।

सरोजिनी नगर का जूस कार्नर। ठीक उसके सामने फ्रीज कवर बेचने वाले न जाने कितनी बार टोका होगा। तब भी जब फ्रिज नहीं था और तब भी जब फ्रिज आ चुका था। वहीं से जली हुई प्लास्टिक की गंध आ रही थी। वो वक्त था जब आतंक की हर घटना के बाद मीडिया शहर के जज़्बे को ढूंढ रहा था। सलाम दिल्ली की कहानी। हम यही समझते रहे कि आतंकवाद हिंदू और मुस्लिम को बांटने की साज़िश है। हम भूलते रहे कि बंटे हुए हिंदू मुस्लिम समाज की ज़मीन पर आतंकवाद पनपता है। २००५ की शाम से तीन साल पहले गोधरा और गुजरात में जो जला उसका धुंआ इन तमाम धमाकों के विश्लेषण में आता रहा। धमाके के बाद कहीं कोई नहीं बंटा। भारत की अखंडता तमाम ऐसे हमलों से बची रह गई है। बंटे हुए समाज और बांटने वाली राजनीति के साथ भारत की अखंडता भी एडजस्ट हो चुकी है।

ख़बरों में अगली सुबह की ज़िंदगी सामान्य हो जाया करती थी। २९ अक्तूबर के अगले दिन दीवाली थी। खिड़की से हवा में उड़ती फूलझड़ियां रंग बिखेर रही थीं। मीडिया कह रहा था कि नहीं टूटा दिल्ली का हौसला।

ज़िंदगी किसी सिनेमाई हौसले से नहीं चलती। रोज़मर्रा की ज़िंदगी ज़िंदा बचे लोगों को चलाती रहती है अपने आप। उसमें धमाके के बाद की अगली सुबह कोई नई ऊर्जा नहीं भरती। अब आतंकवाद सिर्फ एक ख़बर है। मरने वालों की संख्या और घायलों की स्थिति की ख़बर। सारे विश्लेषण बेकार होते हुए सरकार पर आकर ठहर गए हैं। पहाड़गंज का वो घर अच्छी तरह याद है। चाट दुकान के ठीक सामने का एक घर। शीशे टूटे हुए थे और सुबह सुबह घर का मालिक अपने उजड़े हुए सामानों के बीच अखबार लिये नीचे झांक रहा था। यह एक सामान्य सा दृश्य था। लेकिन मीडिया ने इसमें भी कहानी खोज लिया। सामान्य होती ज़िंदगी की कहानी।

तीन साल बाद सितंबर के महीने में धमाका हुआ है। कोई दिन का संयोग मिला रहा था तो कोई टाईमर और अमोनियम का संयोग। बम किसी फोटोस्टेट मशीन पर नहीं छपा करते। आतंकवाद के हमले के बाद की ख़बरें अब सड़ने लगी हैं। शोर करने लगी हैं। उन सवालों को छोड़ने लगी हैं जिनसे हो कर आतंकवाद के पनपने की कहानी बनती है। तीन साल बाद दिल्ली दहली तो अगली सुबह कनाट प्लेस के सेट्रल पार्क में लोग ट्रैक सूट पहन कर जॉगिंग कर रहे थे। मेरी ज़बान लड़खड़ा गई। मैं समझ गया। ये सामान्य ज़िंदगी के लक्षण नहीं हैं। बल्कि उस ज़िंदगी के लक्षण हैं जो सामान्य ही है। जिसे न सवाल समझ में आते हैं न समाज का पता है।


आतंकवाद किसी को नहीं बांटता। वो चंद लोगों को मार देता है बस। मार कर दूसरे शहर की योजना बनाने में व्यस्त हो जाता है। मीडिया के लिए ज़िंदगी सामान्य हो जाती है। मोदी मसीहा बनने लगते हैं और शिवराज मर्सिया पढ़ने लगते हैं। १३ सितंबर की शाम धमाके के बाद तेज कार चलाता हुआ दफ्तर की तरफ भाग रहा था। कार भी वही थी और वही रास्ता जब २९ अक्तूबर २००५ की शाम दफ्तर की तरफ भाग रहा था। एफएम रेडियो स्टेशनों पर गाने चल रहे थे। धमाके की ख़बर आ कर जा रही थी। बचे हए लोग घर जा रहे थे मीडिया की ख़बरें सुनने।

इस बार ज़िंदगी धमाके की शाम ही सामान्य हो चुकी थी। अगली सुबह के इंतज़ार करने की रवायत ख़त्म हो चुकी है। जिनके यहां मौत होती है वो कभी सामान्य नहीं होते। सरोजिनी नगर के जूस कार्नर में जिसकी मौत हुई थी उसकी पत्नी से मिला था अगले दिन। तभी कहा था कि कोई अपने को नहीं भूल पाता। हमें पता नहीं कि यह आखिरी धमाका है। जब धमाके होंगे हमें हमारे हसबैंड याद आते रहेंगे। कनाट प्लेस पर अगली सुबह यानी रविवार को उनकी बात याद आ रही थी। फिर घूमने लगे चेहरे, अहमदाबाद, हैदराबाद, मालेगांव और जयपुर के मारे गए लोगों के परिवारवालों के। सिहरने लगा कि इन घरों में सारी रात कोई नहीं सोया होगा। पत्थर हो गए होंगे। मौत की हर गिनती की ख़बरों में अपनों को भी गिन रहे होंगे।

बाढ़ पर स्पेशल रिपोर्ट आज रात साढ़े नौ बजे

एनडीटीवी इंडिया पर देख सकते हैं। आपकी प्रतिक्रिया का इंतज़ार रहेगा।

हमारे लायक कोई सेवा....





















यह तस्वीर महेशखूंट की है। यहीं से बायें की तरफ एक रास्ता मुड़ता है जिससे आप सहरसा पहुंचते हैं। राजनीति में यह नया नुस्खा लगता है। आप से ही पूछ रहे हैं कि कोई हो तो बता दीजिए। इनके पास झूठे वादे करने के लिए कोई काम नहीं है।

वैसे आलोक ने बताया है कि अनिता बिहारी मशहूर गायक और गीतकार छैला बिहारी की पत्नी हैं। छैला बिहारी मनोज तिवारी के टक्कर के गायक हैं। मुंबई में रहते हैं और ठाठ से अंगिका और भोजपुरी में गाते हैं। यह पोस्टर उस जगह पर लगा है जहां बाढ़ नहीं है और यह बाढ़ से पहले लगा है।

जनमानस की कल्पना में कोसी





















यह तस्वीर सुपौल के किसी जगह पर ली थी। रिक्शे पर कोशी प्रोजेक्ट लिखा देखा तो रहा न गया। जिस प्रोजेक्ट ने सब कुछ छिन लिया वो किसी की कल्पना का सुंदर चित्र भी हो सकता है यकीन नहीं हुआ। उसके बाद नज़र अपने आप वहां जाने लगी जहां कोसी से जुड़ा कुछ भी लिखा होता था। न्यू कोसी जनरल स्टोर,होटल कोसी निवास,कोसी ट्रैवल्स,कोसी मेडिकोज़ आदि आदि। बाढ़ से इस तस्वीर का बहुत गहरा रिश्ता है।

अमरीकी मीडिया का फुटनोट्स- इंडिया का इतिहास

जिस वक्त टीवी चैनलों पर परमाणु करार की ख़बरें खुद ही ऐतिहासिक ऐलान करती हूईं छलक रही थीं, अमरीकी मीडिया प्रमुख सीएनएन पर अफगानिस्तान पर अच्छी रिपोर्ट आ रही थी। नीचे कुछ स्क्राल चल रहे थे। एशिया की तरफ से एक ही खबर थी कि ज़रदारी पाकिस्तान के राष्ट्रपति बन गए। बीबीसी का भी यही हाल था। उसके बाद भारतीय समय के अनुसार साढ़े पांच बजे सीएनएन और बीबीसी की खबरें शुरू हुईं। पाकिस्तान के राष्ट्रपति बनने की खबर पहली हेडलाइन थी लेकिन भारत में इतिहास बना उसकी चर्चा तक नहीं।

इतिहास अब तत्काल बनने लगा है। यही हाल रहा तो कुछ दिनों बाद इतिहासकार की ज़रूरत नहीं पड़ेगी। कोई कह देगा कि आप २०५० में परमाणु करार को ऐतिहासिक बता रहे हैं वो तो उसी दिन टीवी चैनलों ने ऐतिहासिक बता कर फ्लैश कर दिया था। चलिये भागिये यहां से। इतिहास लिखने आए हैं।

ठीक है कि हर मुल्क अपने नज़रिये से अपना इतिहास तय करता है। करना भी चाहिए। मगर इतिहास का पैमाना नहीं बदल सकता। अगर बदलेगा तो वर्तमान किसे कहेंगे। भविष्य को क्या कहेंगे। सीएनएन और बीबीसी के लिए न्यूक्लियर डील जैसी हाई प्रोफाइल खबर बड़ी खबर क्यों नहीं है खासकर जब एनएसजी में अमरीका, चीन और फ्रांस जैसे देश शामिल हैं। किसने और किस आधार पर तय किया है कि यह डील ऐतिहासिक है। ऐतिहासिक होना अजीब हो गया है। ब्रेकिंग न्यूज़ में जो फ्लैश नहीं होगा वो इतिहास नहीं बनेगा। अच्छा हुआ शाहजहां ताजमहल बना कर कब के चले गए। आज बनाते तो उनके ठेकेदारों का नाम हो जाता। बेचारे शाहजहां को प्रेसकांफ्रेस कर ख़बर ब्रेक करनी पड़ती कि इसे मुगल सल्तनत ने बनवाया है, ताज कंस्ट्रक्शन कंपनी ने नहीं और यह इमारत ऐतिहासिक है।

कोसी ढूंढ रही है सबको

( दोस्तों,सहरसा,सुपौल और मधेपुरा से लौट आया हूं । मेरा अब भी मानना है कि बाढ़ प्राकृतिक नहीं है। ऐसे तर्को से सावधान रहने की ज़रूरत है कि कोई भी सरकार इतनी बड़ी तबाही में क्या कर सकती है। इस तर्क से दोषियों को चेहरा छुपाने के लिए पर्दा मिल जाता है। नितांत भाग्यवादी तर्कों से बचा जाना चाहिए। भ्रष्ट लोगों की वजह से बाढ़ आई है। इसलिए इस आपदा में कारण बड़ी खबर है राहत नहीं। मानवीय खबरें बड़ी खबर नहीं है न ही बचाव में लगे किसी नायक की खोज। बल्कि बड़ी ख़बर सिर्फ यही है कि जिनकी वजह से बाढ़ आई वो कहां हैं। मुझे जो कुछ भी दिखा, लगा मैं यहां आपके सामने रखूंगा। यह मेरा पहला लेख है।)


माइक और कैमरा बंद कर दिया है। अब आप सच बताइये। कहते ही कुशहा में तैनात इंजीनियर के चेहरे पर भय की रेखाएं निकल आईं। सच। हां,कैमरे पर कही गई बहुत बातें पर्दे में ही होती हैं। मैं ये अपने लिए जानना चाहता हूं। किसी को बताने के लिए नहीं। आपके बाल बच्चे होंगे। घर होगा। ईमान भी होगा। बता दीजिए कि कुशहा में जहां आप तटबंध का कटाव रोक रहे हैं वो काम पंद्रह दिन पहले हो सकता था या नहीं। इंजीनियर अब सच बोलना चाहता था। मुझे अकेले में ले गया। पत्रकार साहब,लोगों के शरीर में कीड़े पड़ेंगे। यहां जब हम आए तो लगा ही नहीं कि कुछ भी युद्ध स्तर पर किया जा रहा था। अगर बचाये जाने की कोशिश होती तो बचाया जा सकता था। कोई बड़ी बात नहीं थी। विभाग और सरकार से पाप हुआ है। लेकिन मेरा नाम मत छापियेगा। मेरी नौकरी चली जाएगी। मैं तो चौबीस तारीख के बाद पटना से आया हूं। मेरा कोई कसूर नहीं है। वो सच बोल चुका था। लेकिन बोलने के बाद भी उसका मन हल्का नहीं हुआ। क्योंकि उसके ठीक सामने से कोशी पूर्वी किनारे को तोड़ उन अधिकारियों,नेताओं और ठेकेदारों को ढूंढने पूर्णिया,सहरसा,अररिया,मधेपुरा,सुपौल तक जा चुकी थी। वो खेतो में,सड़कों पर,गांवों में,घरों की छत पर,हर तरफ ढूंढ रही थी।

कोसी का गुस्सा बढ़ता जा रहा था। वो उस समाज को भी ढूंढने लगी जिसने ऐसी चोर व्यवस्था चुनी है। उस मतदाता को भी ढूंढने लगी जो भ्रष्ट राजनेता चुनती है,उस नागरिक को भी ढूंढने लगी जिसके बेखबर होने से अफसरशाही भ्रष्ट होती है। कोसी इन्हीं को लोगों को ढूंढते ढूंढते बर्बादी ला रही थी। कोसी ने चालीस पचास निकम्मे और चोर नेताओं और अफसरों की सजा उन लाखों लोगों को भी दी है जिनकी एक उंगली इन्हें चुनती है। कोशी को समाज की सड़न या उसकी मजबूरियों से मतलब नहीं था। वो इन मजबूरियों को तटबंध से निकल कर ढहा देना चाह रही है। कोशी ने लाखों मासूम लोगों को मासूम बने रहने की सज़ा दी है। इंजीनियर सच बोलकर भी हल्का नहीं हुआ तो सिर्फ इसीलिए क्योंकि वह कोसी के इरादे को जान गया था।

बिहार सरकार और नीतीश कुमार रात दिन झूठ बोल रहे हैं। चेहरा गंभीर होता है लेकिन झूठ बोलते हैं। वे बाढ़ और राहत कार्य में व्यस्त होने के बहाने कारण पर बात नहीं करना चाहते। वे जानते हैं कि कारण पर चर्चा की तो गर्दन उनकी भी फंस जाएगी और कोशी ने जिन लाखों लोगों को उजाड़ा है वे कोसी का गुस्सा नीतीश कुमार पर उतार देंगे। हर मुख्यमंत्री राहत काम में व्यस्त होता है लेकिन किसकी वजह से टूटा ये क्या वो चार साल बाद बतायेगा। १७ अगस्त को कोसी प्रोजेक्ट के चीफ इंजीनियर का तबादला किया जाता है। चीफ इंजीनियर एक बड़ा अफसर होता है। इसकी तैनाती या तबादला बिना मुख्यमंत्री की जानकारी या दस्तखत के नहीं होता। अगर जलसंसाधन मंत्री की कलम से भी होता है तो साफ हो जाता है कि बिजेंद्र यादव एक रुटीन तबादले में व्यस्त थे। वैसे चीफ इंजीनियर के तबादले की फाइल कैबिनेट में जाती है और मुख्यमंत्री मंजूरी देते हैं। ध्यान रहे कि चीफ इंजीनियर को किसी लापरवाही के चलते नहीं हटाया गया था बल्कि कोई और कारण रहे होंगे। साफ है कि किसी को मालूम नहीं था।

मालूम इसलिए नहीं था क्योंकि जिस जगह पर तटबंध टूटा है वहां जाकर साफ हो गया कि आने जाने का रास्ता ही नहीं है। जंगल देखकर और बुरी तरह से टूटे रास्ते से पता चल गया कि यहां कोई आया ही नहीं होगा। रास्ते की हालत बता रही थी कि यहां किसी भी प्रयास से युद्ध स्तर के प्रयास हो ही नहीं सकते थे।

किसी ने पूछा है कि निराशाजनक कहानी के बीच में कोई तो होगा जो अच्छा काम कर रहा होगा। ऐसे बहुत लोग है। लेकिन ये बाद की कहानी है। उनके अच्छा काम करने से से बाढ़ ग्रस्त इलाके की हकीकत में कोई बदलाव नहीं होता। जो अपने घरों में बैठे टीवी देख रहे हैं उन्हें शायद पोज़िटीव स्टोरी से राहत मिले लेकिन क्या जिनके घर उजड़ गए हैं उन्हें ह्यूमन या मानवीय या सकारात्मक स्टोरी से राहत मिलेगी। और इस जानकारी का क्या महत्व है। इस पर बहस अगले लेख में करूंगा।

मेरी राय में कोसी को पटना तक आना चाहिए। इस सड़े हुए प्रदेश को सिरे से उजाड़ देना चाहिए। किसी को बिहार की ऐसी छवि से परेशानी हो सकती है लेकिन कोसी जानती है कि बिहार को एक दिन नई छवि बनानी होगी तब तक के लिए वो तटबंधों को तोड़ ऐसे भ्रष्ट समाज और सरकार को ढूंढने के लिए तबाही लाती रहेगी।