विज्ञापन का अंडरवियर काल

लक्स,डॉलर,रूपा,स्वागत। ये वो ब्रांड हैं जो ब्रेक में टीवी पर सेक्स,क्राइम और क्रिकेट के कार्यक्रम ख़त्म होते ही उनकी कमी पूरी कर देते हैं। इन दिनों टीवी पर ऐसे विज्ञापनों की भरमार हैं। देख कर तो लगता नहीं कि इनके स्लोगन किसी प्रसून जोशी या पियूष पांडे जैसे विज्ञापन विप्रों ने लिखी हो।

इन विज्ञापनों को बहुत करीब से देखने की ज़रूरत भी नहीं। देख सकते हैं क्या? देखना चाहिए। हर विज्ञापन में मर्द अपनी लुंगी तौलिया उतार कर बताता है कि अंडरवियर पहनने की जगह कौन सी है। क्या पता इस देश में लोग गंजी की जगह अंडरवियर पहन लेते हों। इसीलिए डायरेक्टर साहब ठीक से कैमरे को वहां टिकाते हैं। उक्त जगह पर अंडरवियर देखते ही युवती चौंक जाती है। डर जाती है। फिर सहज और जिज्ञासु हो जाती है। मर्दानगी,सेक्सुअलिटी और अंडरवियर का पुराना रिश्ता रहा है।


हमने वेस्ट से नकल की है। ईस्ट इंडिया कंपनी के भारत आने के बाद से ही पश्चिम मुखी भारतीयों ने अंडरवियर को स्वीकार किया होगा। पहला खेप मैनचेस्टर से उतरा होगा बाद में अपने कानपुर में बनने लगा होगा। इसमें किसी को शक हो तो एक भी विज्ञापन ऐसा दिखा दे जिसमें लंगोट के मर्दानापन की दाद देते हुए उसके टिकाऊ होने का स्लोगन रचा गया हो। भारतीय संस्कृति के प्रवर्तकों के बाद समर्थकों के इस युग में कोई भी ऐसा नहीं मिलेगा जो लंगोट को भारतीय मर्दानगी का प्रतीक बनाने के लिए कंपनी बनाये,टीवी पर विज्ञापन दे। कहे-लंगोट- चोट न खोट। सब के सब इस पाश्चात्य अंडरवियर काल में बिना प्रतिरोध किये जी रहे हैं।

आप चाहे जितना कमज़ोर हों होज़ियरी के अंडरवियर बनियान को पहनते ही ताकतवर हो जाते हैं। विज्ञापनों में अंडरवियर प्रदर्शन के स्थान का भी आंकलन कीजिए। पता चलेगा कि अंडरवियर पहनने या उसे प्रदर्शित करने की जगह बाथरुम,बेडरुम या स्वीमिंग पूल ही है।अभी तक किसी विज्ञापन में अंडरवियर पहनन कर कारपोरेट रूम में आइडिया देते हुए शाहरूख़ ख़ान को नहीं दिखाया गया है।अंडरवियर के विज्ञापनों में कोई बड़ा माडल नहीं दिखता। नाकाम और अनजान चेहरों की भीड़ होती है। सनी देओल जैसे बड़े हीरो सिर्फ गंजी या बनियान के विज्ञापन में ही नज़र आते हैं।

कोई नहीं कहता कि अंडरवियर अश्लील है।यह बात अभी तक समझ नहीं आई है कि अंडरवियर के विज्ञापन में अचानक युवती कहां से आ जाती है।वो स्वाभाविक रुप से वहीं क्यों देखती है जिसके देखते ही आप रिमोट उठा लेते हैं कि ड्राइंग रूम में कोई और तो नहीं देख रहा।यही बात है तो कॉलेज के दिनों में लड़के ली की जीन्स और वुडलैंड की कमीज़ पर पैसा न बहाएं। सौ रुपया अंडरवियर पर लगाए और यही पहन कर घूमा करें। लड़कियां आकर्षित हो जाएंगी।एक सर्वे यह हो सकता है कि लड़कियां लड़कों में क्या खोजती है? अंडरवियर या विहेवियर। डॉलर का एक विज्ञापन है।लड़का समुद्र से अंडरवियर पहने निकलता है। पास में बालीवॉल खेल रहीं लड़कियों की उस पर नज़र पड़ती है।देखते ही वो अपना बॉल फेंक देती हैं। पहले अंडरवियर देखती हैं फिर नज़र पड़ती है ब्रांड के लेबल। अच्छे ब्रांड से सुनिश्चित हो लड़कियां अंडरवियर युक्त मर्द को घेर लेती हैं। अंत में एक आवाज़ आती है- मिडास- जिस पर सब फ़िदा। एक विज्ञापन में एक महिला का कुत्ता भाग जाता है। वो कुत्ते को पकड़ते हुए दौड़ने लगती हैं। तभी कुत्ते को पकड़ने वाले एक सज्जन का तौलिया उतर जाता है। सामने आता है अंडरवियर और उसका ब्रांड। युवती फ़िदा हो जाती है। इसी तरह अब लड़कियों के लिए भी विज्ञापन आने लगता है। एक विज्ञापन में टीवी फिल्म की मशहूर अदाकारा(नाम नहीं याद आ रहा) अचानक उठती हैं और लड़कियों को गाली देने लगती है कि तुम सब ठेले से क्यों खरीदती हो। उन्हें ललकार उठती हैं। यह ललकार उनकी क्लास रूम से बाहर जाती है। पूछती है कि जब लड़के पहन रहे हैं,तो आप लोग क्या कर रही हैं। दूसरी तरफ लड़कियों के उत्पादों में लड़के नहीं आते। वहां या तो एक लड़की होती है या कई लड़कियां। उन्हें पहनता देख या पहना हुआ देख कोई मर्द खीचा चला नहीं आता। यह विज्ञापन जगत का अपना लिंग आधारित इंसाफ है। अवमानना से बचने के लिए चुप रहूंगा।


मर्दानगी की सीमा कहां से शुरू होती है और कहां ख़त्म अंडरवियर कंपनी को मालूम होगा। इतने सारे विज्ञापन क्या बता रहे हैं? क्या अंडरवियर कंपनियों में यह विश्वास आ गया है कि वो अब टीवी पर भी विज्ञापन दे सकते हैं। हाईवे और हाट तक सीमित नहीं रहे। अंग्रेज़ी न्यूज़ चैनलों पर इस तरह के विज्ञापन का आक्रमण कम है।कहीं ऐसा तो नहीं कि हिंदी प्रदेशों के उपभोक्ताओं का अंडरवेयर पहनने का प्रशिक्षण किया जा रहा है।प्रिंट में तो इस तरह के गुप्त वस्त्रों का विज्ञापन आता रहता है। लेकिन टीवी पर संवाद और संगीत के साथ इतनी बड़ी मात्रा में सार्वजनिक होता देख विश्लेषण करने का जी चाहा।


यह भी भेद बताना चाहिए कि गंजी के विज्ञापन की मर्दानगी अलग क्यों होती है। क्यों सनी देओल गंजी पहन कर गुंडो को मार मार कर अधमरा कर देता है। जबकि उसी कंपनी का गुमनाम मॉडल जब अंडरवियर पहनता है तो उसकी मर्दानगी दूसरी किस्म की हो जाती है। वो किसी को मारता तो नहीं लेकिन कोई उस पर मर मिटती है। ख़ैर इस बाढ़ से परेशानी हो रही है। मुझे मालूम है कि देश को स्कूलों में सेक्स शिक्षा से एतराज़ है। अंडरवियरों के विज्ञापन में सेक्सुअलिटी के प्रदर्शन से किसी को एतराज़ नहीं। इसका मतलब यह नहीं कि कल कोई मानवाधिकार आयोग चला जाए। यहां मामला इसलिए उठ रहा है कि इसे समझने की ज़रूरत है। इतने सारे विज्ञापनों का अचानक आ जाना संदेह पैदा करता है। इनका कैमरा एंगल बदलना चाहिए। हर उत्पाद का विज्ञापन होना चाहिए। उत्पादों को सेक्सुअलिटी के साथ मिक्स किया जाता रहा है। बस इसमें फर्क इतना है कि मामला विभत्स हो जाता है। बहरहाल न्यूज़ चैनलों को गरियाने के इस काल में उस विज्ञापन को गरियाया जाना चाहिए। कुछ हो न हो थोड़ी देर के लिए न्यूज़ चैनलों को आराम मिल जाए। वैसे भी एक अंडरवियर का विज्ञापन यही तो कहता रहा कई साल तक-जब लाइफ़ में हों आराम तो आइडिया आते हैं। लक्स अंडरवियर का विज्ञापन कहता है कि अपना लक पहन कर चलो।

हम भारत के सीरीयस लोग

अख़बार का एक पुराना कतरन मिल गया। मनोहर श्याम जोशी का एक बयान छपा था। गंभीर लेखन से व्यंग्य को नुकसान पहुंच रहा है। पता नहीं इस कतरन को क्यों मैं दस साल से संभाल कर रखा हुआ था। मेरे भीतर कभी कभी गंभीरता की पैकेजिंग को लेकर चिढ़ मचती रही है,हो सकता है इस कारण से मैंने कतरन संभाल रखा हो। अक्सर हम यह समझते हैं कि गंभीरता से समाज का भला हो रहा है, साहित्य का भला हो रहा है। लेकिन बकौल जोशी जी गंभीर लेखन ने तो व्यंग्य लेखन में डेंट मार दिया है। जबकि गंभीर युक्त साहित्य रचने वाले लोग यह समझते हैं कि उनकी गंभीरता से विचारोत्तेजक( कामोत्तेजक नहीं) विचारवासना पनपती है जिससे समाज में सुधार पैदा होता है। गंभीरता के हर आकार प्रकार का विरोध होना चाहिए। है ऐसा कोई माई का कार यानी साहित्यकार जो बिना चेतना के रच दे। वह रचना में चेतना चाहता है। वाह,मंगल की बजाय साहित्य में लाइफ़ की तलाश। दिलचस्प है। अंबेडकर को भी संविधान साहित्य का पहला वाक्य यही लिखना चाहिए था- हम भारत के सीरीयस लोग।

ग़लती हमारी भी कम नहीं। हम गंभीर लेखन को इतना सीरियसली लेते क्यों हैं? नहीं लेते हैं। गंभीर पाठक पढ़ने के बाद उसका छिछालेदर कर देते हैं। दो चार दोस्त न हों तो गंभीर लेखन के समर्थन में टिकना मुश्किल हो जाए। मेरी राय में गंभीर लेखन को भी व्यंग्य की गंभीर विधा के रूप में देखा जाना चाहिए। पढ़ कर हंस दिया जाए कि भाई अपना दुनिया बदलना चाहता है। मुफ्त में बिना कुछ किये धरे चाहता है कि वो जैसा चाहता है वैसी हो जाए दुनिया। जबकि उसे यह पता ही नहीं होता कि आखिर दुनिया वैसी हो ही गई तो वो कैसे रिएक्ट करेगा। कभी आप गंभीर लेखकों ने सोचा है कि अगर दुनिया आपकी तरफ हो गई तो आप क्या करेंगे? सन्यास लेंगे क्या? भई अपना तो काम हो गया। दुनिया बदल गई। मेरा आइडिया चल गया। अब हरिद्वार जाकर वहां फ्लैट खरीद कर ईश्वर के बुलावे का इंतज़ार करूंगा। जोशी जी इस बात को नहीं समझ सके।

दोस्तों भगवान लोग भी यह नहीं समझ सके। कितने ऐसे प्रसंग है जब असुरों ने तप करना शुरू किया तो गॉड लोग डर गए। टेंशन में आ गए कि भई ये राक्षस क्यों तप कर रहा है? क्या इरादा है इसका? आय मीन इंटेशन। फिर क्या होता है? देवतागण या कहें तो गॉडगन राक्षसों की तपस्या भंग करने लगते हैं। क्यों भई? आप तो यही चाहते थे कि दुनिया तप करे, सत करे। फिर क्यों टेशन भई। एक बार कुछ ऐसा ही हुआ इंद्रलोक में। ( कहीं ग़ाज़ियाबाद वाला आज का इंदिरापुरम तो नहीं) । असुर तप कर रहे थे। इंद्र और अन्य देवता शिव से रिक्वेस्ट करने पहुंच गए। कहा कि आप एक ऐसे जीव की रचना कीजिए जो दैवी. शक्तियों का अनुचित प्रयोग करने वालों की राह में रोड़े अटकाए। और शिव ने गणेश की रचना की। बताइये भला। कल रात ही गणेश की कथा पढ़ रहा था। समझने के लिए क्यों मेरे दफ्तर की लड़कियां गणेश को क्यूट कहती हैं,सोसायटी के बच्चे लिटिल गणेशा का नाम सुनते ही झूमने लगते हैं। देखा भगवान ने गणेश की रचना की सीरियस काम के लिए। और हमने इस्तमाल कर लिया फन या मज़े के लिए। ऐसा नहीं भक्ति पर असर पड़ा। भक्ति तो गंभीर रूप में भी वही थी और व्यंग्य रूप में भी वही है। गणेश रेलवेन्ट बने हुए हैं।

क्या हम ऐसा नहीं कर सकते। हम गंभीरता को लेकर इतना लोड क्यों लेते हैं? गंभीरता ही व्यंग्य है यार। पढ़ो और हंसो। मैं आज कल कई गंभीर लोगों से टकरा जाता हूं। देश का इतना लो़ड ले रखा है कि मिलते ही घबराहट होने लगती है। सोचता हूं जब इसको इतना टेंशन है तो मनमोहन सिंह को केतना होगा रे। तभी कहूं कि गंभीर लोग निश्चिंत क्यों लगते हैं? मनमोहन सिंह की तरह बाहर से। भीतर से तो बेचैन होते ही है। नहीं होते

संसद के बाहर एक दिन

कर्नाटक में बदलती सत्ता से बेख़बर
कैमरामैन के फेंकी हुए चाय की प्याली में
घुस कर चुटरपुटर चाट रही थी गिलहरी
रिपोर्टर की बोरियत भरी बक बक को छोड़
बची हुई चाय की चुस्की में तर हो रही थी

कौआ बैठा रहा वहीं डाल पर बेख़ौफ़
स्टुडियों के सवालों का जवाब जान कर
कौए ने बंद कर दिया अपना कांव कांव
सदियों से सनातन रहा यह कागा अपना
जानता है यहां सांसद पत्रकार आते रहते हैं
आता तो माली भी है मेरठ से हर दिन
कम से कम पेड़ पौधों को हरा भरा कर जाता है

बाज भी निहत्था हो कर अपने पंजों से
फव्वारे की बची बूंदों में नहा रहा था
शिकार करने की आदत तब से छूट गई
जब से वह ख़ुद शिकार होने लगा शहरों में

कौआ, बाज और गिलहरी इन तीनों को पता है
संसद में बारी बारी से आते सब को देखा जाना है
रिपोर्टरों की चीखती आवाज़ से बेसमझ ये तीनों
संसद के बाहर की दुनिया को आबाद कर रहे हैं
जहां जीवन है, उसका नियम है और धीरज है
सवालों जवाबों में उलझे पत्रकारों की तरह बेचैन
नौकरी में बोलने की चिंता ही बहुत है जिनमें
यही जान कर तीनों ने एक फ़ैसला कर रखा था
सत्ता तो कब से बदल रही है इस मुल्क में
इसी ल्युटियन की बड़ी बड़ी इमारतों के भीतर
कोई तेज़ रिपोर्टर इतना भी भला न जान पाया
हर साल हर चुनाव के बाद लगता है वही कैमरा
सवाल वही, जवाब वही, बहस और करने वाले वही
जब सब वही का वही है, नया कुछ भी नहीं है
तो क्यों न बाकी बची हुई चाय पी जाए
रिपोर्टरों को देख उड़ने से मना कर दिया जाए
और कैमरा ऑन हो तब भी वही पर नहाया जाए

मुंबई मुझे बुलाती रहती है

मुंबई मुझे बुलाती रहती है
राजेश खन्ना के ठहरे संवादों में
किशोर दा के झूमते गानों में
रफी चचा की खुलती तान में
पसरती जाती है मेरे भीतर
आज भी बांबे वाली मुंबई

समंदर के किनारे की मचलती हवा
जब भी मेरी खिड़की से आती है
उसके तेज़ झोकें से उड़ती जाती है
आशा पारेख की वो बेरहम ज़ुल्फें
ख़्वाबों की इस बेमुरव्वत दुनिया में
इस शहर की क्यूं याद आती है
मुंबई मुझे बुलाती रहती है

मैं गुम हो जाना चाहता हूं
नामवर शोहरतमंदों के बीच
खो जाने का इससे मुकम्मल
कोई शहर कोई ठिकाना नहीं
क्या मतलब पत्थर सी पहचान का
बारिश की बूंदे रेत पर लिखे नाम को
समंदर में हौले हौले बहाती रहती हैं
मुंबई मुझे बुलाती रहती है

आनंद बख्शी की कविताओं ने
मेरे सपनों को शब्द दिये हैं
गुलज़ार के देसी देहाती छंदो से
अपने महल की छत ढलती जाती है
मुंबई मुझे बुलाती रहती है

मोतिहारी.पटना और दिल्ली की गलियां
घर बनाकर घर ढूंढता रहता हूं फिर भी
स्थायी पते की तलाश जारी है मुंबई में
वीटी स्टेशन से वीरार की गलियों में
छोटी सी खोली की खिड़की से झांकते
अधूरे सपने बिखरे पड़े हैं उन बेटों के
जिनकी मांएं आज भी हर दिन
ख़त लिख कर गांव बुलाती है
मुंबई मुझे बुलाती रहती है


मुझे उस शहर में जाने दो यारों
बेपता हो कर मरने से पहले
मदन मोहन की बची हुई धुनों को
पूरा कर दूंगा लता-आशा के साथ मैं
बहुत कुछ अधूरा अब भी है मुंबई में
जिसके पूरे हो जाने के लिए आज तक
मुंबई मुझे बुलाती रहती है

कुत्ते को गाली देने वाले दोस्तों

कुत्ते को लेकर हमारे समाज की सोच अजब गजब रही है। हमने कुत्ते को लेकर गालियां बनाईं, मुहावरे बनाए और अपने बच्चे की तरह घरों में पाला भी है। मुझे नहीं मालूम कि इंसानों के सबसे विश्वासी दोस्त जानवर के लिए गाली कैसे बन गई। अक्सर कोई तैश में कह देता है कि साला कुत्ता है। साला एक नंबर का कुत्ता है। कुत्ता हरामी। कुत्ता कमीना। कुत्ते की औलाद। इस तरह की गालियां मुझे परेशान करती है। आखिर बेचारा कुत्ता ऐसा क्या करता है कि सभ्य इंसान उसे इतनी गालियां देता है।

कुत्ता होने का क्या मतलब है? क्या गाली या फिर एक ऐसा रिश्तेदार जो रातों को जाग कर हमारे लिए पहरेदार का काम करता है। हम अजीब लोग हैं। विश्वास भी करते हैं और गाली भी देते हैं।

जब भी यह सुनता हूं कि धोबी का कुत्ता न घर का न घाट का। तब बहुत दुख होता है। किसी का बेघर होना गाली कैसे हो सकती है। क्या हमें मज़ा आता है ऐसे बेघर कुत्तों को देख कर? आप उस कुत्ते के बारे में क्या कहेंगे जिसका एक घर होता है जहां वह बच्चे की तरह पाला जाता है। परिवार के सदस्यों के साथ उसकी तस्वीर होती है। उसका एक नाम होता है।

मैं बताता हूं। हम ऐसे कुत्ते को भी गाली देते हैं जिसका घर होता है। बल्कि इस मामले उसके मालिक को भी गाली देते हैं। हम कह देते हैं कि अमीरों का शौक है। जबकि कुत्ता पालने वाला या उससे प्रेम करने वाला हर कोई अमीर नहीं होता।
हम मालिक का वर्ग यानी क्लास का पता करने लगते हैं। आलोचक कहता रहता है कि इंसानों के पास खाने के लिए दो रोटी नहीं लेकिन कुत्ते को अमरीकी बिस्कुट खिला रहे हैं। यह है इंसान की जानवर से वफादारी। खुद तो चाहता है कि कुत्ता उसका वफादार बना रहे लेकिन जब कुत्ता खा रहा होता है तो वह भूखे इंसानों की तरफदारी करने लगता है। तभी उसे भूखे इंसानों की याद आती है।

लगता है हमें इस बात से खुशी होती है कि कुत्ते का कोई घर नहीं। कोई घाट नहीं। गली का कुत्ता कहने में हम राहत महसूस करते हैं। एक बेचारे जानवर को जाने हम किस किस नज़र से देखते हैं।

अक्सर हाईवे पर देखता हूं। एक ही जानवर इंसानों की गाड़ी से कुचला दिखता है। कुत्ता। लगता है कि गाड़ी चलाने वाले को कुचलने के बाद अफसोस भी नहीं हुआ होगा। संतोष होता होगा कि कुत्ते को मारा है। एक बार एक प्रेस कांफ्रेस में समाजवादी पार्टी के नेता अमर सिंह ने कह दिया कि सड़क पर वही कुत्ता मारा जाता है जो कंफ्यूज़ होता है। जो तय नहीं कर पाता कि आगे जाएं या पीछे और तब तक कुचला जाता है। मुझे बहुत दुख हुआ था। बजाए इसके कि इंसान शर्म करता या अफसोस ज़ाहिर करता कि उसकी वजह से एक कुत्ता मारा गया है वो कुत्ते को ही गाली देता है।

कहने का मतलब यह है कि इंसानों ने कुत्ते की वफादारी का ईनाम नहीं दिया। वो सिर्फ दुत्कारता है। और इससे भी जी नहीं भरता तो कुत्ते को पुचकारने वाले इंसान को ही दुत्कारने लगता है।

मुझे कुत्ते से डर लगता है लेकिन गाली देने में शर्म आती है।कभी कभी ज़बान से निकलती है तो उन दोस्तों का चेहरा याद आ जाता है जिनके घरों में वह आदर के साथ पलता बढ़ता है। एक दोस्त की तरह। जहां जाने पर वह करीब आकर पुचकारता है, खेलता है और डरा कर चला जाता है। कभी अनुशासन नहीं तोड़ता। मालिक की हर बात मानता है। वहां से लौट कर हर बार सोचता हूं आखिर कुत्ता ऐसा क्या करता है कि हम उसे गाली देते हैं। उसके नाम से इंसानों को गाली देते हैं। क्या आप भी ऐसा करते हैं?

घंटी कौन बजाता है?

बड़ी हसरत से घंटी लगवाई थी। नया घर खरीदा तो लगा कि स्थाई पता हो गया है अब स्थायी और अस्थायी मित्र आया करेंगे और घंटी बजाया करेंगे। दोपहर में जब गहरी नींद में रहूंगा तो कितनी देर तक कोई दरवाज़ा पीटेगा। नहीं सुनाई दिया तो बेचारा लौट न जाए। इसलिए अच्छी घंटी लगाई। बैटरी वाली घंटी ताकि बिजली नहीं रहने पर भी घंटी बजती रहे।

घंटी बजी ही नहीं। चार साल में कोई आया ही नहीं। जो भी आया बुलाने पर और तय वक्त से दस मिनट आगे पीछे ही आया। ऐसे लोग बिना घंटी बजाए ही अंदर आ गए क्योंकि उनके आने के वक्त निगाह दरवाज़े पर ही रही। इस बड़े शहर में पार्टी के बिना कोई आता भी नहीं। पुराने शहर पटना में एक मोहल्ला था। आस पास के लोग बीस साल से एक दूसरे के साथ रहते चले आए थे। कभी भी किसी भी वक्त कोई आ जाता था। नींद से जागकर बातें होने लगती थीं। चाय बनने लगती थी। सिर्फ चाय। इतने के लिए ही लोगों का आना जाना रहता था। अब तो शराब,मांस और पकवान की मांग होती है फिर भी आधे लोग नहीं आते।

ऐसा नहीं है कि कोई नहीं आता। वो नहीं आते जिनके आने का इंतज़ार रहता है। दोस्त अब एसएमएस ही करते हैं। दफ्तर वाले ही दोस्त बच गए हैं। जिनके ईमान बदल जाने की संभावना हर वक्त बनी रहती है। एक ही जगह तेरह साल नौकरी में कई बार लोगों का ईमान बदलते देखा है। इसलिए वहां कोई दोस्त न हुआ। एकाध दोस्त हैं भी तो लोग इस बात से परेशान रहते हैं कि दोस्त क्यों हैं। बहुत कुछ दांव पर लगा कर दोस्ती बचानी पड़ रही है। लिहाज़ा ज़्यादातर से राजनयिक संबंध अच्छे ज़रूर हैं। जिनसे हुई मुलाकात के तुरंत बाद झूठी मुस्कुराहट के कारण फैले जबड़े का दर्द गहरा हो जाता है। जिंदगी के जो पहले के दोस्त थे वो अब नहीं आते।

कोई पड़ोसी ऐसा न हुआ जो वक्त बेवक्त आ जाए। खुद कोशिश की,अचानक घर में घुस जाने की तो पड़ोसी औऱ उसकी पत्नी अलबला जाते थे। क्योंकि सभी को एक खास अंदाज़ में लोगों के सामने खुद को पेश करने की आदत लग गई है। पटना के मोहल्ले में लुंगी गंजी में चाचा जी चले आते थे। कहते थे अरे आज का पेपर देना। पीछे वाले घर की चाची आ कर बीस रुपया पकड़ा देती और फरमान जारी कर देती थीं कि ज़रा अंटा घाट से पांच किलो पालक ला देना। हम सायकिल से चले भी जाते थे। अब तो कोई कुछ कहता भी नहीं। कहने से पहले सौरी और नहीं करने पर भी सौरी।

इतनी शिकायतें इसलिए की क्योंकि मेरे घर की घंटी नहीं बजती है। भला हो पेपरवाले का,केबल वाले का,कूड़ा वाले का,दूध वाले का और होम डिलिवरी वाले का। ये न होते तो घर की घंटी ही न बजती। दरअसल अब मेरी ज़िंदगी में यही वो लोग हैं जो मेरे घर आते हैं। बाकी लोगों को हम बुलाते हैं। आने और बुलाने का फर्क गहरा हो गया है। घंटी बेकार ही टंगी हुई है। बहुत साल तक किसी को घर नहीं बुलाया कि अगर बुलाने पर लोग आएंगे तो इस बेचारी घंटी का क्या होगा। कौन बजाएगा इसे? लेकिन घंटी तभी नहीं बजी। सुबह से लेकर रात तक हर वक्त ऐसा लगता है जैसे दोपहर का वक्त हो। कोई नहीं आएगा इसका घोर आश्वासन रहता है। आने वाले वक्त में घरों से घंटियां उतार कर नाले में बची गंगा में प्रवाहित कर दी जाएंगी। और लोग एक घर का कर्ज चुकाने के बाद शहर के किसी माल में एक कमरा किराये पर लिया करेंगे। दुकान के लिए नहीं,ड्राइंग रूम के लिए। ताकि बाज़ार आया दोस्त मुलाकात तो करता जाए। आखिर यह क्यों ज़रूरी हो कि किसी घर के सारे कमरे एक ही जगह पर गुच्छे की तरह मौजूद हों। ऐसा होगा तभी तो घर वाला एक कमरे से दूसरे कमरे में जाने के लिए घंटी बजाया
करेगा। बाहरवाला तो कभी आएगा नहीं।

ये क्या माजरा

रोटी भी गोल
धरती भी गोल
ज़रूर कोई चक्कर है

मैं गीतकार बनना चाहता हूं

रात गुज़रती है तपती दुपहरी में
दिन निकला है रात चांदनी में
कुछ ठंडी आहें मुझे सुला रही हैं
कुछ जलती आहे मुझे जगा रही हैं

अधूरे ख़्वाबों का हमने महल बनाया
पूरे ख़्वाबों का उसमें पर्दा लगाया
इश्क की छोटी छोटी खिड़की से
उसकी कड़ियां खनक रही हैं
कई बार वो आकर चली गई
छत पर आहट टहल रही

इस शहर की आपाधापी में
कुछ यार भी थे कुछ दुश्मन भी
सब छूट गए जो मिलते थे
जो नहीं मिले वो याद आते हैं

रात गुजरती है तपती दुपहरी में
दिन निकला है रात चांदनी में
हो जाने दो जब ऐसा होता है
ऐसा अक्सर कब होता है
सूरज की चांदनी रौशनी में
तपती दोपहरी नहा रही है
चांद की तपती रौशनी में
ठंडी हवा अलसाती है

इश्क की इस धरती पर
दिन रात भी खूब बदलते हैं
कभी चांद को गरमी आती है
कभी सूरज भी आहे भरता है

रात गुजरती है तपती दुपहरी में.....

( आज दोपहर आनंद बख्शी मेरे सपने में आए। उन्होंने कहा कि तुम दिल्ली छोड़ मरीना बीच पर लिट्टी चोखा बेचा करो, एक दिन गीतकार बनोगे, मैंने कहा मैं हीरो बनना चाहता हूं तो आनंद बख्शी ने डांट दिया कहा सुनो, एक फार्मूला बताता हूं, बालीवुड में हीरो के बिना भी फिल्में बन जाएंगी लेकिन गाने के बिना हर्गिज़ नहीं। हम गीतकार अजर अमर हैं। जब लोग फिल्म को भुला चुके होते हैं तब भी दुनिया हमारे गाने को सुनती है)

आश्रम जाम का राष्ट्रवाद-7

(दोस्तों,आश्राम जाम पर मेरा यह ब्लाग धारावाहिक अब रवानगी में लौट रहा है। आप पाठक ही बतायेंगे कि कहानी आगे बढ़ रही है या नहीं। मैं किसी छप चुके उपन्यास की तरह पाठकों पर बोझ नहीं बनना चाहता। जहां लगे कि कहानी में टिव्स्ट नहीं है बता दीजिए, हम नए मोड़ की तरफ मुड़ जाएंगे)

आश्रम जाम लंबा होने लगा था। इतना लंबा की आक्षम की लंबाई एयरपोर्ट से लेकर नोएडा तक नापी जाने लगी। जाम युग में यह आश्रम का विस्तार था।आश्रम अपने आप में एक शहर,उसके बाद राज्य बनने लगा।मूलचंद,साउथ एक्स,एम्स सब उसके ज़िले लगने लगे। आश्रम जाम को स्थाई रूप देने की सभी प्रशासनिक तैयारियां पूरी कर ली गईं थी। सोमदत्त शर्मा को उसी दिन रिटायर होना पड़ रहा था। बर्फी बांटी जा रही थी। शर्मा जी को मलाल था कि एक्ज़िक्यूटिव इंजीनियर के पद पर रहते हुए वो एक ऐसा नक्शा न बना सके जिससे आश्रम को जाम से मुक्ति मिलती। उनके हर नक्शे पर एक नया फ्लाईओवर बन जाता और जाम से मुक्ति का सपना अधूरा रह जाता।

उस शाम बर्फी के साथ बीयर भी ख़ूब पी ली शर्मा जी ने। वो खुल कर कहना चाहते थे। नीतियों से लेकर नीयत तक पर गालियों का महाकाव्य रचने लगे। चिल्लाने लगे अरे तुम नहीं जानते। आश्रम को जाम से मुक्त किया जा सकता था। मैं कहता रहा इस मुख्यमंत्री को, उस मुख्यमंत्री को, ये जाम अगर इसी तरह बढ़ता रहा तो लोग इन रास्तों पर अपना घर बना लेंगे। धीरे धीरे शहर से एक राज्य बन जाएगा। राष्ट्र भी बन सकता है। जाम एक विस्तारवादी योजना है। इसे उसी तरह रोकना चाहिए जैसे गांधी ने अंग्रेजों की विस्तारवादी नीति को रोका था।

शर्मा जी की बाते सुनकर उनकी जगह पर नियुक्त हुए ईश्वरचंद बहल भयभीत हो गए। क्या कहते हैं शर्मा जी,क्या जाम से मुक्ति मिल सकती थी? बहल साहब के इस जवाब पर शर्मा जी ने आंखे दिखा दी। एक लार्ज बीयर गटकने के बाद बोले, मिलती अगर हम संघर्ष करते। लेकिन हम तो विदेशी सहायता की मानिंद फ्लाईओवर बनाते रहे। बहल साहब जून की तपती दोपहरी में कांप रहे थे। पसीने को पोंछने के लिए जिस अखबार को उठाया उसमें मुख्यमंत्री का बयान देख घबरा गए। सीएम ने प्रेस से कहा था कि आश्रम में लगने वाले जाम से बसे शहर को मिटा दिया जाएगा। जिन कारों में लोगों ने अपने घर बसा लिये हैं उनके पुनर्वास की योजना बनाई जाएगी।

बहल साहब रोने लगे। कहने लगे शर्मा जी मेरे साथ घोखा हुआ है। मैंने कभी सुना ही नहीं कि जाम से परेशान लोगों ने कार में अपना घर बसा लिया है। वो लंबी कारों में अकेले ड्राइविंग से उकता गए थे। बाद में फैमिली रखने लगे। बीबी बच्चे भी उनके साथ कार में ही रहते थे। तभी तो रियल इस्टेट वाले प्रोपर्टी का कारोबार छोड़ ओटोमोबिल डीलर बनने लगे हैं। शर्मा जी ने कहा बहल अभी तो पेशा बदल रहा है। कल को जाम में फंसे ये लोग ख़ुद को हिंदुस्तान से आज़ाद होने का एलान कर दें तो क्या करोगे। जानते हो इन्हें जो कुछ भी मिल रहा है उसमें हिंदुस्तान का कुछ नहीं। इनकी कारें जर्मनी की हैं। तेल अरब देशों से आता है। इन्होंने अरब देशों से आश्रम जाम में फंसे लोगों के लिए सस्ता तेल आयात किया है। पहली बार किसी मुल्क ने इस तरह के मुल्क से राजनयिक और व्यापारिक करार किये हैं। संयुक्त राष्ट्र महासभा में इस बात पर बहस चल रही है कि सड़क पर बने एक मोबाइल मुल्क को मान्यता दे या नहीं।इस बीच आश्रम जाम के कारनागरिकों ने अमरीका से पैक्ड फूड का आयात शुरू कर दिया है। वो ईंधन बचाना चाहते हैं। जब से सड़क पर उनका घर बना है उन्हें घर जाने की जल्दी ही नहीं रही।

बहल साहब चिल्लाने लगे। मुझे लार्ज बीयर दो। यह तो अलगाव वाद है।एक तरह का नक्सलवाद है। गृहमंत्री को ख़त लिखूंगा। शर्मा जी आपने एक्ज़िक्यूटिव इंजनीयर के पद पर रहते हुए भारत सरकार को नहीं लिखा। शर्मा जी गुस्से में आ गए। बोले मिस्टर बहल हज़ार बार लिखा लेकिन दिल्ली सरकार को। और यह सरकार वोट की खातिर आश्रम जाम पर चुप्पी साधती रही। दिल्ली को नहीं बताने के लिए मेरा मुंह बंद किया गया। मेरा तबादला बुराड़ी करने की धमकी दी जाती थी। जहां न पब्लिक थी न पब्लिक स्कूल। क्या मैं अपने बच्चों को सरकारी स्कूल में पढ़ाता। साउथ दिल्ली के स्कूलों के कारण मैंने राज्य सरकार की हर बात मानी। लेकिन मैं भूल गया कि मैं अपने मुल्क के साथ गद्दारी कर रहा हूं। बहल कहने लगे..हां हां शर्मा तुमने गद्दारी की है।

शर्मा जी रोने लगे। सच कहता हूं बहल मैं बुज़दिल हो गया था। कभी नहीं सोचा कि एक दिन जाम से उकताए लोग कारों में अपना घर बसा लेंगे और फिर एक दिन शहर और राज्य। मुझे नहीं मालूम था कि वो अलगाववादी रास्ते पर जा सकते हैं। मुझसे ग़लती हो गई। अच्छा हुआ मैं रिटायर हो रहा हूं। भगत सिंह की आत्मा मुझे माफ करे और तुम्हें ताकत दे कि तुम जाम में फंसे इस शहर के खिलाफ मोर्चा खोल सको। भारत सरकार की मदद कर सको।

बहल ने एक पत्रकार को फोन किया। बताने के लिए कि आप ही इस ख़बर को कर सकते हैं। फोन उठाते ही बहल का पहला सवाल था कि आप कहां हैं? अभी आइये? जवाब था हम तो आपके दफ्तर के पास ही हैं। यहीं रहते हैं और यहां से कहीं जाते नहीं। मैं अपने राज्य को छोड़ कर नहीं जाता। बहल को लगा कि पत्रकार भविष्य कुमार मज़ाक कर रहा है।शायद अब वह बीस साल दिल्ली में रहने के बाद इस शहर से अपनी वफादारी निभा रहा है। लेकिन भविष्य कुमार ने भी गुस्से में कह दिया, मिस्टर बहल,मैं अपने राज्य,जो जल्दी ही एक मुल्क बनने वाला है,का ज़िम्मेदार नागरिक हूं। जिसका नाम है आश्रम जाम। इससे पहले न तो दिल्ली न तो भारत सरकार ने हमारे दुखों को समझा। झूठे वादे करते रहे। सरकारों को लगा कि अलगाववाद सिर्फ कम सुविधा संपन्न इलाकों और लोगों के बीच पनपता है,लेकिन वो ग़लत निकले। इस बार अलगाववाद का रास्ता उन लोगों ने इख्तियार किया है जो आश्रम जाम में फंसे रहने से उकता गए थे,जो सुविधा संपन्न थे,जो गाढ़ी कमाई से टैक्स देते थे,जिनके पास बड़ी बड़ी कारें थीं,लेकिन घर पहुंचने का रास्ता नहीं था। अब हमारा राष्ट्र बनेगा तो इस जाम से मुक्ति मिलेगी। हम इस रास्ते को अपना राष्ट्र बना देंगे। दिल्ली को दिखा देंगे कि आश्रम जाम में फंसे रहने वाले लोग शर्मा और बहल की तरह बुज़दिल नहीं हैं। बहल अब फोन काट दो। मेरे स्वयंभू वित्तमंत्री का फोन आ रहा है। मैं अपने कैबिनेट का मुखिया हूं। लेकिन एक फर्क है। दिल्ली की तरह लोग मुझे प्रधानमंत्री नहीं कहते, बल्कि मैं जामपति कहलाता हूं। आश्रम जाम के इस नए राष्ट्रवाद से डरो बहल, इसकी आंधी में तुम्हारे सारे फ़र्ज़ी फ्लाईओवर उड़ जाएंगे।

मिस्टर बहल लार्ज बीयर का एक और पैग लगा कर अपनी मेज़ पर लुढ़क चुके थे। रिटायर शर्मा जी को कर्मचारियों ने आटो में डालकर डिफेन्स कालोनी के रास्ते विनय मार्ग होते हुए मुनिरका पहुंचा दिया था।

धमाके में मारे गए लोगों का वर्ग

बहुत कम एंकर थे जो शांत और धीर अंदाज़ में बताने की कोशिश कर रहे थे। जयपुर धमाके के बाद उत्तेजित टीवी एंकर यूं चीख रहे थे गोया उन्होंने आतंकवाद के खिलाफ मोर्चा खोला हो। और तो और यह भी बताने लगे कि जहां धमाके हुए वो निम्न वर्गीय इलाका था। इस तरह का आर्थिक विश्लेषण सुन कर कई सवाल करने का जी चाहता है। भाई साहब लोग, धमाकों का निम्न या उच्च वर्ग से क्या ताल्लुक। अगर कोई निम्न वर्ग(ग़रीब का पर्यायवाची शब्द) का आदमी इस तरह की घटना में शामिल हो भी तो इससे धमाके का मकसद या उसकी रणनीति का कौन सा बड़ा पहलू सामने आता है। क्या कभी पता चल पाया है कि धमाकों में इस्तमाल किया जाने वाला आखिरी आदमी ग़रीबी के कारण इसकी चपेट में आया या फिर किसी और मकसद के कारण। इसका कोई पुख्ता जवाब नहीं मिल पाया है। एंकर तब भी पूछता है कि मध्यमवर्गीय या निम्नवर्गीय इलाका था.क्या इरादा रहा होगा यहां धमाका करने का? भई साफ है। आतंकवाद ज़्यादा से ज़्यादा लोगों को निशाना बनाने की कोशिश करता है। इसलिए वहां पहुंचता है जहां लोगों की भीड़ होती है। दिल्ली के डिफेंस कालोनी में नहीं जाएगा जहां सभी घरों में बीस फुट ऊंचे दरवाज़े लगे होते हैं और बाहर सन्नाटा पसरा होता है।

फिर भी जवाब में रिपोर्टर बोलता है कि फ़ैज़ाबाद में भी अदालत में धमाका हुआ था तो वहां निम्नवर्गीय लोग ही जाते थे। वाराणसी में भी मंदिर में निम्न मध्यमवर्गीय लोग ही पूजा करने गए थे। जयपुर में भी हनुमान जी की पूजा करने के लिए लोग जमा हुए थे। यह इलाका कामगारों का है। यह मज़दूर रहते हैं। इस घटना से उनके वर्गीय चरित्र का क्या संबंध जुड़ता है समझना मुश्किल है। फिर भी एंकर घायलों और मारे गए लोगों का वर्ग जानने की कोशिश करता है।

क्यों? क्या हर आतंकवादी घटना आर्थिक कारणों की देन है? क्या आतंकवाद सिर्फ निम्नवर्गीय लोगों के सहारे किया जाता है और निम्नवर्गीय लोगों को निशाना बनाता है? क्या यह अपराध की तरह सभी वर्गों में सार्वभौम रूप से मौजूद नहीं है। इलाके का प्रोफाइल वर्ग से क्यों बताते हो पार्टनर। लगातार बोलने की मजबूरी का कुछ तो विकल्प होगा। एक बात तो समझ में आती है कि वर्गीय विश्लेषण इसलिए किया जाता है ताकि जहां धमाका हुआ उस इलाके के बारे में बताये। भारत जैसे देश में कुछ मोहल्लों को छोड़ दें तो बाकी जगहों को वर्ग के आधार पर बताना ठीक नहीं होगा। ग़रीब अमीर सब मिले होते हैं। और अमीरों के अमीर अंबानी जी तो हवामहल नहीं देखने जाएंगे न। हो सकता है हनुमान मंदिर के बाहर लाइन में खड़ा कोई भक्त शहर का धन्ना सेठ हो जो अपनी श्रद्धा से वहां जाता हो। एक समय में उस इलाके में तमाम वर्गों के लोग होते हैं। फिर कोई एक वर्ग की तलाश

आश्रम जाम की सत्या कथा

मास्कों पोस्टिंग के बाद जब वह दिल्ली आया तो इस शहर को देख कर बौरा गया। अपनापन ढूंढने की चाह में इस शहर की गंदी चीज़ भी उसे हीरे की तरह चमकती नज़र आने लगी। वो आश्रम चौराहे से ठीक पहले लाजपत नगर चौराहे के पास ढाबे में दाल फ्राई खाना चाहता था। दाल की छौंक की गंध उसे बार बार इस रास्ते पर ले आती। भारतीय विदेश सेवा में चुने जाने से पहले मनोज प्रकाश लाजपत नगर के ही एक जर्जर मकान में रहता था। मकान में खिड़की नहीं थी। सिर्फ दरवाज़ा था। रेल का डब्बा लगता था उसका कमरा। इस कमरे की सडांध से निकलने के बाद उसे आश्रम चौराहे पर ही खुली हवा मिलती थी। बात नब्बे के दशक की है। बाबरी मस्जिद गिर चुकी थी। राजनीति गरम हो चुकी थी। मनोज बीच रात को सेक्युलर और मुक्त आकाश की आकांक्षा में आश्रम और लाजपत नगर के बीच टहलने लगता था। रिंग रोड के दोनों किनारे पर बने मकान को लेकर वह पूंजीवाद के प्रति क्रिटिकल हो जाता था। मार्क्स और मनमोहन सिंह के बीच के द्वंदवाद को समझते समझते उसकी जवानी अपना मतलब ढूंढ रही थी।

उसका एक और मित्र आकाश नया नया सिगरेट पीना सीख रहा था। उसके लिए यह जगह एक किस्म की आज़ादी थी। तब न तो लाजपत नगर चौराहे पर कोई फ्लाईओवर था न आश्रम पर। वो ज़माना कुछ और था जब जाम में फंसे लोग अख़बारों में पढ़ा करते थे कि आश्रम फ्लाईओवर का काम कब पूरा होगा। कब इस जाम से मुक्ति मिलेगी। मदनलाल खुराना, साहिब सिंह वर्मा और सुष्मा स्वराज सबने कहा था कि मस्जिद गिरने का गम आश्रम पर बनने वाले फ्लाईओवर से हलका हो जाएगा। यह वो समय था जब पुल और सड़क के सहारे अपनी राजनीति चमकाने का दौर शुरू हो रहा था। विकास की राजनीति की ओट में सियासत के झूठे बर्तन मांजे जा रहे थे। मनोज प्रकाश और आकाश सिगरेट पीते पीते यही सोचा करते कि रात को दिल्ली देखने का अपना ही मज़ा है। बिहार में ऐसी रात तो होती ही नहीं। लालू के राज में जब से पिछड़ों को आवाज़ मिली है तब से वहां बाकी चीज़ों का बेड़ा गर्क हो गया है। कम से कम लाजपत नगर से लेकर आश्रम के बीच का रास्ता उन्हें काफी खुला लगता। पूरे भरोसे के साथ सिगरेट पीते टहला करते थे कि इस वक्त तो कोई नहीं देखेगा। जवानी में सिगरेट सेवन कितना भी बेफ़िक्री का आलम क्यों न हो लेकिन इस एक फ़िक्र के बिना सिगरेट नहीं पी जा सकती।

चुटकी लेते हुए आकाश मनोज से पूछ बैठा,यार तुम कम्युनिस्ट ही सिनिकल क्यों होते हैं? मनोज का जवाब था क्योंकि हम क्रिटिकल होते हैं। मनोज कहने लगा पता है सीताराम येचुरी भी एक दिन इसी जाम में होगा। उसकी गाड़ी फंस जाएगी। आकाश बोल उठा साले ये तो तुम्हारा नेता है। तुम तो इसके लिए पोस्टर लगाते हो, नारे लिखते हो। मनोज ने सिगरेट का कश अंदर तक खींचा और कहा कि पता है कम्युनिस्ट आंदोलन सिर्फ एक स्लोगन साहित्य है। साहित्य से विचारधारा नहीं पनपती। प्रकाशक पनपते हैं। आलोचक पलते हैं। पता है कि दास कैपिटल के प्रसार के लिए कितने पेड़ काट कर लाखों प्रिंट छापे गए, कितने लाइब्रेरियन को कमीशन दिया गया। तुम्हें कुछ नहीं पता। लोकतत्र से कम्युनिस्ट आंदोलन नहीं लड़ सकता। वो गठबंधन का हिस्सा होकर अमरीकी नीतियों का विरोध ही कर सकेगा। आने वाले वक्त में जब हरकिशन सिंह सुरजीत बूढ़े हो जाएंगे तब सीताराम यही करेंगे। सरकार में रह कर उसे धमकी देंगे।

बातचीत करते करते दोनों भोगल तक चले जाते और धुंआ छोड़ते छोड़ते वापस आ जाते। यह सड़क उनके जवान होने की प्रक्रिया का हिस्सा बनने लगी। उन्हें इस बात से कोई मतलब नहीं था कि फ्लाईओवर बनने से रिंग रोड के इस हिस्से की किस्मत बदल जाएगी। कुछ साल बाद उनकी किस्मत बदल गई। मनोज प्रकाश विदेश सेवा के लिए चुन लिया गया और आकाश किसी कंपनी का वाइस प्रेसिडेंट हो गया। इस बीच फ्लाईओवर का काम पूरा हो गया।

लेकिन तब दोनों दिन के उजाले में जाम के कारण ही सड़क आसानी से पार कर लेते। और पहुंच जाते उस ढाबे पर। दाल तड़का और तंदूरी रोटी खाने। दाल की छौंक दोनों के ज़हन में इस कदर उतर गई कि उसकी याद हर वक्त सताने लगती। एक बार आकाश थाईलैंड में मसाज करवा रहा था तभी वह दाल की छौंक की गंध से तड़प उठा। वो चिल्लाने लगा कि आश्रम पहुंचना है, वहां फ्लाईओवर से उतरते ही लाजपत नगर चौराहे पर एक ढाबा है जहां कोई उसके लिए दाल तड़का बना रहा है। मसाज करने वाली मोहतरमा को लगा कि उसका कस्टमर पगला गया है।

छौंक की इस गंध से मनोज प्रकाश भी परेशान रहा करता था। लेनिनग्राद की चौड़ी और विशालकाय सड़के भी वो मज़ा नहीं देती जो मजा उसे आश्रम और लाजपत नगर के बीच के रास्ते को याद कर मिलता। वो अक्सर अपनी पत्नी को कहता दिल्ली चलना तुम्हें वो सड़क दिखाऊंगा। मूलचंद और आश्रम के बीच का हिस्सा मेरा है। वहां से गुज़रना किसी सपने को बार बार हासिल करने जैसा लगता है। मास्को से दिल्ली लौटते ही मनोज प्रकाश डीएनडी एक्सप्रैस वे से सीधा आश्रम फ्लाईओवर पहुंचा। वहां से लाजपत नगर फ्लाईओवर पर पहुंच कर नीचे उस ढाबे को देखने लगा। दाल तड़के की गंध ऊपर तक आ रही थी। सीएनजी के कारण प्रदूषण मुक्त दिल्ली में दाल की छौंक की गंध मिलते ही मनोज प्रकाश को उसका वजूद मिल गया था। उसकी पत्नी हैरानी से देखने लगी। मन ही मन सोचने लगी कि क्या दाल की गंध के कारण ही आश्रम से इतना रोमांस है या फिर कहीं कोई और तो नहीं है। मनोज हंसने लगा। कहने लगा कि बिहार से आकर हम अपने में ही डूबे हुए थे। किसी से प्रेम करने का वक्त ही नहीं मिला। धीरे धीरे मनोज इसी रास्ते से विदेश मंत्रालय जाने लगा। उसे प्रगति मैदान से इंडिया गेट होते हुए विदेश मंत्रालय जाना अच्छा नहीं लगता था।

और वापसी के इसी क्रम में एक दिन मनोज प्रकाश ने कानून तोड़ दिया। हैंड्स फ्री कान में लगाई और मुझे फोन कर दिया। अरे तुम्हें पता है मैं कहां हूं। सवाल में ही जवाब था। उसकी बेकरारी बता रही थी कि वो आश्रम के जाम में है। और उसे कोई परेशानी नहीं। मनोज कहने लगा परेशानी किस बात की। याद नहीं नब्बे के दशक के उन दिनों में भी तो ऐसा ही जाम लगा करता था। तब कौन सा यहां से गाड़ियां दनदनाती हुई गुज़रा करती थी। मनोज ने आईआईटी के उस प्रोफेसर के एक संपादकीय लेख की याद दिलाते हुए कहा कि तुम भूल गए उस प्रोफेसर ने कहा था कि फ्लाईओवर से ट्रैफिक जाम की समस्या का हल नहीं होता। मैंने कहा हां, उसकी बात तो सही निकली यार।

लेकिन वो इस बेकार बहस से निकल कर दाल तड़का पर आना चाहता था। तभी कार की पीछली सीट पर रखा उसका ब्रीफकेस अचानक मिरर में दिखना बंद हो गया। मनोज ने हैंड्स फ्री फेंक दिया।

तीन दिन बाद उसने पार्टी में यह कथा सुनाई। उसका ब्रीफकेस कोई लेकर भाग चुका था। पैसा तो नहीं था लेकिन पासपोर्ट, चेकबुक और विदेश मंत्रालय के कुछ कागज़ात थे। सोनीपत से उसे फोन आया कि जनाब आपका ब्रीफकेस यहां पड़ा है। मनोज तुरंत किराये की टैक्सी से वहां पहुंचा। पता चला कि डीटीसी बस से यह ब्रीफकेस मिला। खोला तो सब कुछ था। मनोज को हैरानी हुई। ब्रीफकेस सोनीपत कैसे। यह तो आश्रम जाम से गायब हुआ था। तभी उसकी नज़र एक खत पर पड़ी। शायद चोर ने लिखी थी।

प्रिय मनोज प्रकाश जी
आश्रम जाम में फंसी कारों से ब्रीफकेस उड़ाने का यह मेरा पहला प्रयास नहीं था। मुझे नहीं मालूम था कि आश्रम जाम में फंसे हुए लोग इतने कंगाल भी हो सकते हैं। उनके पास चेकबुक तो होता है मगर ब्रीफकेस में आठ आना नहीं। छह लाख की कार और जाम में फंसे होने का दर्द समझता हूं और बहुत अफसोस के साथ ब्रीफकेस लौटा रहा हूं। आगे से किसी और रास्ते पर ब्रीफकेस उड़ाया करूंगा। इस चोरी से तो अच्छा है कि मैं दाल रोटी ही खाकर गुज़ारा कर लूं।
आपका चोर

मनोज प्रकाश के होश उड़ गए। दाल की छौंक की गंध एक बार के लिए नाक और ज़हन से जाती रही। वो सोनीपत से लौट रहा था। नेशनल हाईवे पर उसकी कार दौड़ रही थी। फिर भी उसे लग रहा था कि वह कहीं फंसा हुआ है। उसकी कार नहीं चल रही। वो अब दाल नहीं खाना चाहता था। दिल्ली लौटते ही उसने विदेश सचिव से मुलाकात का वक्त मांगा। फिर से मास्को पोस्टिंग हो गई।

दाग़, ग़ाज़,शर्मसार और जंगल राज

आपने कभी दाग़ लगी वर्दी को धुलते देखा है? क्या आप जानते हैं कि वर्दी पर दाग़ लगने के बाद उसका क्या होता है? या फिर वर्दी पर दाग़ लगना इतनी असमान्य घटना है कि जब कोई सिपाही किसी को पीट देता है तो वह वर्दी पर दाग लगा बैठता है। हम हिंदी पत्रकार कुछ मुहावरों को लेकर इमोशनल हो गए हैं। उन्हें छोड़ते ही नहीं है।पुलिस या अपराध की स्टोरी पर एक न एक बार वर्दी पर दाग़ लगा ही देते हैं।इसका अतिरेक इस्तमाल सर्फ एक्सेल को उत्साह से भर देता होगा कि जब इतनी वर्दियां दागदार हो रही हैं तो उनका प्रोडक्ट ख़ूब बिकेगा। अख़बार या चैनल सब की भाषा में दाग़ लगना एक भयंकर घटना है। पुलिस कुछ भी कर ले वर्दी पर दाग लगने से नहीं रोक सकती। भगवान जाने इतनी दाग लगी वर्दी पहनते कैसे होंगे? उसी तरह पुलिसिया कहर,पुलिसिया ज़ुल्म का ज़िक्र भी हर पुलिस की ख़बर के साथ आता है। शुक्र है हम दाद खाज और खुजली का इस्तमाल नहीं करते वरना शब्दों और उनसे बने वाक्यों को एक्ज़िमा हो जाता।


एक और मुहावरा है। इंसानियत हुई शर्मसार। तो क्या हुआ? इंसानियत ने कुछ किया ताकि उसे आगे से शर्मसार न होना पड़े। फिर भी हम लिखते हैं कि भीड़ की करतूत से इंसानियत शर्मसार हुई। क्या किसी ने इंसानियत को शर्मसार होते देखा है? ठीक उसी तरह से क्या किसी ने गाज़ गिरते हुए देखा है? पत्रकारों की भाषा में गाज़ मंत्री, अफसर और पुलिस पर ही गिरती है। आमतौर से इन्ही तीन वर्गों पर गाज़ गिरती है। इसका इस्तमाल इतना अधिक हो गया है कि सुन कर ही लगता है कि गाज़ गिरना कोई बड़ी बात नहीं। कल की भी एक स्टोरी में किसी मंत्री पर गाज़ गिर गई थी आज की स्टोरी में मायावती के अफसरों का गाज़ गिरी है। पता नहीं यह गाज़ कहां अटकी होती है जहां से गिर जाती है तो ख़बर बन जाती है। क्या बिना गाज़ गिराये किसी अफ़सर के तबादले की ख़बर नहीं लिखी जा सकती? एक और मुहावरा है मासूम का। बच्चों की स्टोरी में मासूम शब्द खूब आता है। मासूम पर अत्याचार। मासूम का छिन गया बचपन। हर बच्चा मासूम होता होगा। क्या बच्चों का पर्यावाची शब्द मासूम भी है? मुझे हिंदी कम आती है इसलिए जानना चाहता हूं कि आख़िर किस मजबूरी में इस तरह के शब्द हमारी ख़बरों और ख़ासकर हेडलाइन्स का हिस्सा बनती रही हैं।

एक और है स्थिति है जंगल राज की। यह जंगल राज भी ख़ास राज्यों के संदर्भ में प्रयुक्त होता है। जैसे बिहार में कोई बैंक लूट ले तो ख़बर बनेगी बिहार में जंगल राज। दिल्ली में इसी तरह की घटना की ख़बर में जंगल राज का इस्तमाल नहीं होता। कम से कम उत्साही पत्रकार यह लिख ही सकते हैं कि दक्षिण दिल्ली में भी बिहार वाला जंगल राज आ चुका है। माया का जंगल राज। शुक्र है कि और शायद यह मेरा मौलिक दावा है कि केंद्र सरकार के संदर्भ में अभी तक किसी पत्रकार ने जंगल राज का इस्तमाल नहीं किया है। क्योंकि उन्हें लगता होगा कि जंगल राज की कोई केंद्रीय व्यवस्था नहीं होती। वरना एक हेंडिग हो सकती है- मनमोहन का जंगल राज। हिमाचल प्रदेश में अपराध की घटना के संदर्भ में हम जंगल राज का इस्तमाल नहीं करते। जबकि वहां बिहार से अधिक पेड़ होंगे।

एक और शब्द है जिसे लेकर हिंदी के पत्रकार पीढियों से भावुक होते रहे हैं। इंसाफ, कानून और अन्याय। हिंदी का पत्रकार सब बर्दाश्त कर लेगा कानून और इंसाफ से छेड़छाड़ मंजूर नहीं है। कब मिलेगा इंसाफ़,ये अंधा कानून है,कानून की करतूत। अन्याय का अंत। सभी पत्रकार की यह ख़्वाहिश होती है कि इंसाफ़ जल्दी मिले। कम से कम हिंदी के पत्रकारों ने हमेशा यही चाहा है।

और हां मैं मां की ममता का ज़िक्र नहीं कर रहा हूं। यह मेरे लिए बहुत टची मामला है। बल्कि सभी पत्रकार मां की ममता को लेकर सामान्य भाव से इमोशनल हैं। इसका इस्तमाल करें। कम से कम मांओं को तो बुरा नहीं लगेगा। गुस्सा तो तब आता है जब कोई मां अपने बेटे को मार दे। हमें बर्दाश्त ही नहीं होता जिसके पास ममता है वो हत्या कैसे कर सकती है? क्या मां लोगों की ममता में बदलाव आ रहा है। इस पर एक लाइफस्टाइल सर्वे होना चाहिए। जब से ममता क्षमता में बदल गई है और मांएं नौकरी करने लगी हैं,ज़रूर उनकी ममता वैसी नहीं होगी जैसी हिंदी के पत्रकारों ने देखी है।

हिंदी पत्रकारिता में किसी स्थाई अनुप्रास संपादक की ग़ैर मौजूदगी में शब्दों के साथ अत्याचार हो रहा है। ज़माने से शब्दों पर दाग़ लगाए जा रहे हैं और शब्दों को शर्मसार किया जा रहा है। बार बार शब्दों पर गाज़ गिरती है और शब्दों की मासूमियत छिन जाती है। पत्रकारिता में शब्दों के इस जंगल राज का सफाया कब होगा भाई। बोर हो गए हैं। लगता है बहुत दिन से निर्मल वर्मा बनने की चाह और आह लिये साहित्य का मारा कोई शख्स हिंदी पत्रकारिता में प्रवेश नहीं किया है। वरना वही हिंदी को बदलने की ठेकेदारी में इन सब शब्दों को फेंक देता।

समस्याग्रस्त सनातन मुल्क- भारत

भारत एक स्थाई समस्याओं का देश है। यहां एक बार कोई समस्या अवतरित हो जाए तो वह अनंत काल तक रहती है। पांच हज़ार साल पुरानी इस सभ्यता में कई समस्याएं आदि काल से मौजूद हैं। उन समस्याओं पर विपुल साहित्य रचना पर्यन्त उन साहित्यों के कई विशेषज्ञ हो गए। कबीर हो गए कहीं दादू हो गए। वो आए और चले गए मगर स्थाई समस्याओं का बाल भी बांका न कर सके। भारत में अगर कोई समय का साक्षी है तो वो है समस्याएं। सभी समस्याएं हर काल खंड में मौजूद रही हैं। कई सरकारें आईं और चली गईं। उससे पहले अंग्रेज़ और उससे पहले मुग़ल,तुर्क,हूण,शक और मंगोल आ कर चले गए। कुछ स्थायी समस्याओं की तरह यहीं के हो कर रह गए। मगर समस्याएं दूर नहीं हुईं। भारत की हरेक समस्याओं ने लोगों के बीच बहस की असीम संभावनाएं पैदा की हैं। उन्हें चुनौतियां पेश कर दूर करने का इरादा दिया है। समस्याओं की स्थायी मौजूदगी के कारण संतों ने धीरज धरने की नसीहत दी है। वो कहते रहे हैं उतावला होने से कुछ नहीं होता। आपका कुछ हो जाएगा मगर समस्याओं का कुछ नहीं होगा। वाचक,प्रचारक और संहारक सब हुए यहां मगर समस्याएं दूर नहीं हुई।


समस्याओं की मौजूदगी ने देश में कई महान शख्स पैदा किये। वे सभी महान शख्स इन्हीं समस्याओं के इर्द गिर्द ही सोचते रहें। उन्हें मौलिक लेखन और सोचन का मौका ही नहीं मिला। फिल्मों की कहानियों की समस्या का भी स्थाई भाव है। बिना समस्या के हम कोई कहानी नहीं लिख पाते। हर कहानी समस्या प्रधान है। हर अभिनेता समस्या निदान किरदार है। समस्याएं नहीं होतीं तो भारत नहीं होता। इन्हीं स्थाई समस्याओं की वजह से ही भारत एक सभ्यता के रूप में निरंतर मौजूद है। आदि से अनंत काल तक समस्याओं की वजह से ही तमाम देवी देवता अवतरित हुए। मगर कोई भी स्थाई हल नहीं कर सके। सबने तात्कालिक समाधान कर संधान को महान बताया। दोस्तों, समस्या देखकर मत घबराना। समस्या अपने आप में संसाधन है। इनका दोहन करो। इन पर अध्ययन करो। इनके विशेषज्ञ बनो। दूर करने का दावा करो। समस्याओं का सार यही है। समस्या अचल है। भारत एक समस्याग्रस्त सनातन मुल्क है।

चंद्रभान प्रसाद का जाति पर जवाब

There are some people- some times majority of them, who will question you.But,we ought to take a humanitarian view and sympathize with them.The Caste arrogance can some time be without any motives as the caste regulated person may not be doing things as per any plan.It is often a socio-psychosomatic problem where sense of the caste superiority gets into the very Central Nervous System CNS].For instance,there may be dinner party where guests are relishing goat meat,but all of a sudden,news breaks that the meat supplier had served dog-meat.Many guests can immediately develop nausea and start omitting all over.But,as a matter of fact,the meat was of goat and that of dog. How do we explain this? There was no problem with the meat,the
problem was with an idea- that of dog meat. It was that idea which disturbed the Physiological condition of the guests as for ages our CNS has stored the idea
of rejecting dog meat.

Likewise, those who hate Dalits may not be actually anti-Dalit as they are victims of the age long caste system where Dalits are seen in a certain way.

So, instead of developing any negative feeling about such people, we ought to sympathize with them, and offer Dalit Therapy as the remidy.

Cheers
chandra bhan prasad

May 3, 2008 8:45 PM

प्रो सुहास चक्रवर्ती का निधन

प्रो सुहास चक्रवर्ती ने दिल्ली विश्वविद्यालय में इतिहास पढाया है। आधुनिक भारत का इतिहास पढ़ाते थे। मूलत बाग़ी तेवर के प्रो चक्रवर्ती के पढ़ाने का अंदाज़ अलग था। उनकी अंग्रेज़ी और तीखे व्यंग्य के साथ निकलते वाक्यों से छात्रों में जोश भर जाता था। एम ए के क्लास में उनकी बातें निराली होती थीं। उनके अंदर एक टीस रही। प्रतिभाशाली और अच्छा काम करने के कारण उन्हें वो श्रेय नहीं मिला जिसके वो हकदार समझते थे। वो अंतर्विरोधों को इतने बेहतरीन तरीके से पेश करते थे कि सामने वाले की हालत ख़राब हो जाया करती थी। भाषा पर एकाधिकार तो लाजवाब था।

सेंट स्टीफेंस कालेज के छात्र रहे प्रो चकवर्ती ने कैम्ब्रीज विश्वविद्यालय से पीएचडी की। अपने कालेज में कई साल तक पढ़ाया। उसके बाद एम ए के छात्रों को पढ़ाने लगे। उनकी लिखी कई किताबें मशहूर हैं। अगर शानदार भाषा में ज़िंदादिल इतिहास लेखन से रूबरू होना हो तो आप डिक्शनरी लेकर बैठिये और पढ़िये। मज़ा आएगा। प्रो चक्रवर्ती का निधन तीन मई को दिल्ली के होली फैमिली अस्तपाल में हुआ। मुझे भी मौका मिला है उनसे पढ़ने का। हिंदी माध्यम का होने के बाद भी वो हमेशा ध्यान देते थे। उनको सुनना किसी भी भाषा को समृद्ध करता था। उनकी कुछ किताबें हैं-

1. From Khyber to Oxus
2. Anatomy of the Raj
3. Raj Syndrome
4. India League's condition of India
5. Afganistan- The Great Game
6. Three volumes on V K Krishna Menon

माइक थेवर दिल्ली में

माइक थेवर के बारे में बहुत पहले लिखा था। माइक अमरीका में एक सफल उद्योगपति हैं। पांच सौ करोड़ रुपये की कंपनी है।
माइक पैसा कमाने के लिए उद्योग नहीं चला रहे। माइक और उनकी पत्नी हर साल भारत से तीस दलित युवकों को अपने साथ अमरीका ले जाते हैं। उन्हें अपने घर में रख कर प्रशिक्षण देते हैं। अंग्रेज़ी सीखाते हैं और अपनी कंपनी में काम करने के लिए मौका देते हैं। इन युवकों को पूरी छूट होती है कि वो चाहे तो दूसरी कंपनी में भी नौकरी कर सकते हैं। इस तरह से माइक ने मौके की तलाश में भटक रहे कई दलित युवकों को एक नई ज़िंदगी है। उनके पास बताने के लिए बहुत कुछ है। मेरी कल उनसे मुलाकात होगी। आप भी चाहे तो माइक से मिल सकते हैं।दिल्ली के सांगरिला होटल में ठहरे हैं।