जेनएक्स की प्रेम कविता

ओमेक्स मॉल की छत पर हमने
देखे थे तुम्हारे साथ कुछ सपने
मिक्सियों और टीवी को निहारते हुए
मेरी निगाह बार बार देखती थी तुमको
ठीक उसी बीच तुम्हारी नज़र पड़ गई
परफ्यूम की एक खूबसूरत शीशी पर
कहने का तरीका तो आसानी से मिल गया
हमने शीशी खरीदी और बिल पे कर दिया
मगर कहने का अर्थ बदल गया
मॉल से बाहर निकलते हुए तुमने
कॉफी की चुस्की के बाद कहा था
पता नहीं टीवी और मिक्सी की तरह
तुम भी क्यों पसंद आते हो मुझको
लगता है कि मैंने तुम्हें पसंद किया है
और बिल किसी और ने पे किया है
हाथ पकड़ कर चलती हूं तो साथ साथ लगता है
साथ साथ चलती हूं तो जकड़ा जकड़ा सा लगता है
कहीं से खुद को छुड़ा कर आती हूं जब तुम्हारे पास
न जाने क्यों हर बार बंधा बंधा सा लगता है
मल्टीप्लेक्स की अंधेरी सीट पर पॉप कॉर्न के दाने
हमारे प्यार के लम्हों को कितना कुरकुरा बना देते हैं
एक्सलेटर की सीढ़ियों पर खड़े खड़े क्यों नहीं लगता
कि तुम्हारा हाथ थाम कर कुछ देर यूं ही उतरती रहूं
वहां भी तुम इस छोर होते हो मैं उस छोर होती हूं
मॉल में तमाम खरीदारियों के बीच हमारा प्यार
अक्सर पेमेंट के बाद न जाने क्यों टिसता रहता है
हमदोनों के लिए मोहब्बत किसी शॉपिंग मॉल है
जहां हर सामान दूसरे सामान से बेहतर लगता है
जनम जनम का साथ नहीं अगले सीज़न का इंतज़ार लगता है।

5 comments:

अनामदास said...

अच्छा है, लेकिन इसमें आपके बुढ़ाने की बू आ रही है, इतना कुढ़ना ठीक नहीं है. पिछली जेनरेशन सरकारी नौकरी, पेंशन, ग्रैचुटी और बेटी के ब्याह के चक्कर में घिस-पिसकर चली गई, हमने खुले बाज़ार में पैदा हुए चाकरी के अवसर का लाभ उठाया और अपने गंवई क़िस्म के आदर्शों को भ्रम की तरह पालते रहे, व्यवहार में शायद ही कहीं परिणत कर पाए. नई पीढ़ी हमारे वाले द्वंद्वों से मुक्त है, उसे जीवन का सुख चाहिए, विचारों का खलल नहीं, विचारों को उन्होंने निरर्थक मान लिया है, जिसमें हमारी भी काफ़ी भूमिका है. उनके द्वंद्व भी पैदा होंगे, और उसे देखना दिलचस्प होगा।

Prabuddha said...

अनामदास जी, यक़ीन जानिए मेरी पीढ़ी के द्वंद्व भी उतने ही गहरे और डरावने हैं या शायद इस गला काट प्रतियोगिता और तेज़ रफ़्तार ज़िंदगी के दौर में पहले से भी ज़्यादा डरावने। और विचारों से ख़ाली तो हम कभी हो ही नहीं सकते। फ़र्क़ इतना है कि पिछली पीढ़ी से सबक लेते हुए हमने द्वंद्वों के बीच ख़ुश रहने की कला सीख ली है और वर्तमान और भविष्य साथ साथ संवारने की कोशिश में लगे हैं।

ravishndtv said...

वाह..कविता से सार्थक बहस यहां हो रही है। एक बहस चले। पुरानी पीढ़ी और नई पीढी के बीच। अनामदास जी मैं बूढ़ा नहीं हुआ हूं। बल्कि उम्र का बस्ता लेकर नई पीढ़ी में शामिल हो गया हूं। जी रहे हैं हम

मनीषा पांडे said...

बदलते वक्‍त में, पूंजी के नए खेलों के बीच नई पीढी का जीवन ज्‍यादा कठिन है। सामंती समाज एक न्‍यूनतम सुरक्षा की गारंटी देता था, अपने तमाम अंतर्विरोधों के बावजूद। लेकिन इस बदलती दुनिया में चीजें ज्‍यादा अराजक और असंतुलित तरीके से बन रही हैं। वक्‍त मुश्किल हुआ है, आसान नहीं।

Nikhil said...

रवीश जी,
आप सचमुच बूढे हो गए हैं मगर विचारों में.........ये तो अच्छे संकेत हैं....
"मॉल से बाहर निकलते हुए तुमने
कॉफी की चुस्की के बाद कहा था
पता नहीं टीवी और मिक्सी की तरह"

आह-वाह.......
मेरी भी एक कविता देखें...आपको शायद ठीक लगे.....
http://merekavimitra.blogspot.com/2007/11/blog-post_8345.ह्त्म्ल
निखिल आनंद गिरि