नंदीग्राम के बुद्धूदेब

किताब पढ़ना, साहित्य पढ़ना आदि आदि यह सब बेकार हो जाता है जब आप सत्ता के शिखर पर पहुंचते हैं। वहां पर पहुंचा हुआ व्यक्ति एक खास किस्म की सनक का शिकार हो ही जाता है। जहां विचारधारा खत्म हो जाती है और सोच में सत्ता हावी हो जाती है। बुद्धदेब बाबू भी इस मामले में बुद्धूदेब बाबू ही निकले।

काडर ने जो किया ठीक किया। भाई साहब ने नज़ीर पेश कर दी है। आगे के लिए। पहले कहा कि नंदीग्राम में माओवादी का कब्ज़ा हो गया है। यह कभी नहीं कहा कि कौन से माओवादी वहां घुसे हैं। ठीक है कि माओवादियों का एक बड़ा संगठन सीपीएम माओवादी है। लेकिन पार्टी ने इस संगठन का भी नाम नहीं लिया। सिर्फ माओवादी कहा। कई तरह के माओवादी संगठन हैं। मगर सीपीएम को नाम नहीं पता चल सका। और जिस माओवादी को पुलिस नहीं हटा सकी उसे सीपीएम के काडर ने हटा दिया। वाह। अगर ऐसा है तो केंद्र सरकार को नक्सल प्रभावित इलाकों से सीआरपीएफ हटाकर सीपीएम काडर भेजने चाहिए। माओवादी भाग जाएंगे। छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री रमन सिंह चाहे तो दलगत राजनीति से ऊपर उठ कर सीपीएम के काडर को न्योता भेज सकते हैं। इससे उनके राज्य को नक्सली कब्जे से मुक्ति मिल जाएगी। यह आइडिया उन्हें मुफ्त में दे रहा हूं।

बुद्धदेब बाबू अपनी तरह बाकी लोगों को भी बुद्धू समझते हैं। वाकई यह देश में पहला मौका है जब नक्सलियों को सीपीएम के काडर ने खदेड़ दिया। पश्चिम बंगाल की पुलिस तो सिर्फ मीडिया को रोकने के लिए पिकेट बना कर खड़ी रही। काम तो काडर ने किया। आखिर कौन मुख्यमंत्री अपनी पुलिस से सक्षम काडर की तारीफ नहीं करता। इन्हें तो केंद्र सरकार की तरफ से भी ईनाम मिलना चाहिए।

दुख की बात है कि जिस सुमित सरकार ने आवाज़ उठाई उन्हें ही पागल करार दिया गया। कहा गया कि वे तो आलोचक ही रहे हैं। सुमित सरकार के पढ़ाये न जाने कितने इतिहासकार आज की तारीख में सीपीएम की राजनीति कर रहे हैं। लेकिन किसी ने उनका साथ नहीं दिया। बल्कि नंदीग्राम का मामला सीपीएम या बीजेपी का नहीं था। यह मामला था कि किसी भी विचारधारा के लोकतांत्रिक मूल्यों से भटक कर तानाशाही हो जाने का। इसका तो विरोध किया ही जा सकता था।

तिसपर से सीपीएम ने जिस तरह से बचाव किया है वो काबिल-ए तारीफ है। हम गलत हो ही नहीं सकते। यह भाव सर चढ़ कर बोल रहा था। सीपीएम नंदीग्राम की लड़ाई किस लिए लड़ रही थी। नव आर्थिक उदारवाद की नीति लागू करने के लिए न। जिसके कारण सीपीएम मनमोहन सिंह का विरोध भी करती है और उनका समर्थन भी।

नंदीग्राम का मुद्दा तो वहीं से शुरू हुआ था। यह सही है कि ममता बनर्जी ने भी इस मामले को राजनीतिक फायदे के लिए खराब किया है मगर यह तो उनकी साख ही है। यहां दांव पर सीपीएम थी। जिससे उम्मीद भर की जा रही थी कि आप सत्ता के मामले में लोकतांत्रिक मूल्यों का निर्वाह करेंगे। मगर उम्मीद के स्तर पर ही फेल हो गए। सीपीएम सत्ता के मामले में चाहे जितनी बातें कर लें...उसका दिल भी वैसा ही है जैसे दूसरे दलों का है। मिल जाए तो हाथ से न जाए। वैसे सीपीएम काडरों को जो कामयाबी मिली है उस पर भरोसा करें तो यह सब मिलकर अपनी बाइक पर सवार हो कर अमरीका को भी भगा देंगे। तब न्यूक्लियर डील एक बार में क्लियर हो जाएगा।

पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री को कुछ हो गया है। वो भाजपाई या कांग्रेस होने के लिए बेचैन हैं। इसलिए वो मुख्यमंत्री होकर काडर की पीठ ठोंक देते हैं और चुनौती दे देते हैं कि ईंट का जवाब पत्थर से देंगे। पढ़े लिखे संभ्रात लोगों की यह सड़क छाप हकीकत देख सुन अच्छा लगा। बुद्धदेब बाबू ने सड़क छाप नेताओं की हैसियत बढ़ा दी है। बधाई।

2 comments:

Rakesh Kumar Singh said...

बिल्कुल सही कहा रवीश आपने. भई इस हरकत के बाद तो मुझे नंदीग्राम और गोधरा बाद के गुजरात में ज़्यादा फ़र्क नज़र नहीं आता.
यहां सुमित सरकार की तो फिर भी हैसियत है, हम जैसों की, चाहें तो ये 'काडर' बैंड बजा देंगे. दुख तब होता है जब दिल्ली के स्कूल कॉलेजों में पढ़ने-पढ़ाने वाले 'काडर' भी लाल झंडा ओढे बाइक वाले नंदीग्रामियों की तरह ही 'गोलाबारी' करने लगते हैं.

sweta said...

Hi Ravish,
Liked the piece.