जब मंजू ने पहली बार हाल में सिनेमा देखा

अरे मंजू आई नहीं आज शाम, क्या हुआ ? आज आई नहीं तुम । रात के साढ़े आठ बज रहे हैं। नयना ने जब मंजू को फोन किया तो लगा कि वो बीमार हो गई है। क्यों मंजू तबीयत तो ठीक हैं न। नहीं दीदी। घबराहट बढ़ गई है।   कुछ लौउकिये नहीं रहा है । क्या हो गया तुमको। दीदी हाल में सिनेमा देखने चले गए थे। उहें अंधेरा हो गया,आ जब बाहर निकसे न अउर अंधेरा लगने लगा। कुछ बुझा नहीं रहा था । घबराहट बढ़ गई त हम घर चले गए । सोसायटी की गुप्ताइन आंटी है न उहे सिनेमा ले गई थी । हम पहीलका बार हाल में सिनेमा देखे । अंधेरा हो गया था । पर्दा पर सब बड़का बड़का लउक(दिख) रहा था । बाप रे दीदी एतना ठंडा था कि क्या कहे ।

अगले दिन जब मंजू मिली तो मैं पूछने लगा । गोरखपुर की मंजू गाँव से लेकर इस महानगर तक के सफ़र में, बचपन से लेकर पचास की होने के सफ़र में कभी सिनेमा हाल ही नहीं गई थी । रसोई में खड़ा पूछने लगा कि फिर मंजू क्या हुआ । अरे बाबू का बतायें । ओ माई गॉड बोल के सिनेमा रहल (था), जानते है बाबू, हीरो एकदम्मे से ताड़ लेखा बड़ा हो ग़या । हम त घबराहट में अंखवे बंद कर लिये । टीवीया पर त सब ननकी ननकी(छोटा छोटा) लगता है न, लेकिन हालवा में हउ बड़का बड़का। मंजू अपने रौं में आ गई थी। बोले जा रही थी कि छह गो मेमसाहब थीं आ हमनी तीन जाना नौकरानी । लेकिन उ दुन्नो नौकरानी लोग सिनेमा देख चुकी थी । गुप्ताइने आंटी और एक सौ पांच वाली मैडम बोलने लगी कि मंजू चलो सिनेमा देख के आते हैं। सब बुढ़ी बुढ़ी हैं न त हमनी नौकरानी सबन को ले गईं थी। लेकिन हम त बाबू अन्हार (अंधेरा) से ही घबरा गए। पसीना होने लगा, बाकी ठंडा बड़ी था। एसी चल रहा था का तो। बताते बताते मंजू शर्माने लगी , पहले मुँह पर आँचल रखा फिर हंसी को दबाते हुए दीवार की तरफ मुड़ कर लजाने लगी। उसके ज़हन में सिनेमा हाल का अनुभव फिर चलने लगा । शायद किसी अपराध की तरह कि मैंने हाल में सिनेमा देख लिया है। अच्छा तो इसलिए नहीं आई तुम। नहीं बाबू जब हॉलवा से निकले न त अन्हार (अंधेरा) हो गया । कुछ लउक नहीं रहा था । हमको लगा कि रस्तवे भुला जाएंगे त एहि से हम सोझा (सीधे) घर चले गए । लाजे किसी को बताए नहीं ।

मंजू हंसे जा रही थी । कभी लजाती तो कभी मुस्कुराती । अंत में मैंने कह दिेया कि मंजू टिकट जानती हो कितने का था, सौ रुपये का । बस पीछे पीछे कमरे तक चली आई, दीदी बाबू सही कह रहे हैं कि सौ रुपये का टिकस था । अब वो सिनेमा से ज़्यादा अवाक हो गई थी । बोलती बंद हो गई मंजू की । ताड़ जैसे हीरो । हम गाँव के लोगों के लिए ऊंचाई लंबाई का स्थानीय पैमाना ताड़ ही है । तड़कूल का गाछ । अपार्टमेंट यानी घरों की ऊंचाई ने ताड़ को छोटा कर दिया है लेकिन अब भी ताड़ किसी मंजू के  जीवन में ऊँचाई का सबसे बड़ा पैमाना है । इस बात के बावजूद कि दसवीं मंज़िल पर वो यह अनुभव मुझे बता रही थी । शुक्रिया उन बूढ़ी होती मेमसाहबों का जिन्होंने अपनी नौकरानियों को सिनेमा ले जाने का फैसला किया। सपोर्ट के लिए ही सही ।

27 comments:

DEv said...

माँ बताती है, २८ साल पहले जब मैं गोद में था और बड़े भैया ४ साल के थे तब वो पहली बार १०-१२ पड़ोसियों के साथ सिनेमा देखने गई, सभी लोग टिकेट लेने के बाद सिनेमा हल के बहार खाडे हो कर पिचल शो छुटने का इंतज़ार कर रहे थे, सब लोग गंभीर हो कर अंदर से आती हुई आवाजे सुन रहे थे, माँ कनफुस हो गई किशी से पूछने में सरम आ रही थी "क्या आयसे ही देखंगे पूरा सिनेमा ?". अंदर जा कर जब बड़े परदे पे रेल बस चलते देखे तब तो माँ डर ही गई.

Anonymous said...

Bahoot achhaa .....nice

Unknown said...

Achchha hai.. bahut hi...

Unknown said...

ab zara ek naya sa apna koi mast kavita bhi daal digiye naa.

प्रवीण पाण्डेय said...

सच में वर्तमान से अवगत कराते रहना हो..

Unknown said...

sir, chahe twitter ho ya phir aapka blog aapki bhasha itni sahaj hoti hai ki padh kar chize mehsus hone lagti hai..... bhut umda sir...

Unknown said...

bhot hi bahdiya tha ravish ji! Jaise raju srivastav story sunata hai kisi movie ki ek dum waisa hi!Manju hi nhi har kisi vayakti ka pehla anubhav aisa hi hota hoga!

Unknown said...

badiya hain bhai sahebb

ManBelowAverage said...

"अपार्टमेंट यानी घरों की ऊंचाई ने ताड़ को छोटा कर दिया है लेकिन अब भी ताड़ किसी मंजू के जीवन में ऊँचाई का सबसे बड़ा पैमाना है".अद्भुत!!

पैमाने बदल रहे हैं ...शायद मंजू भी बदल जाये ...शहर बदल डालता है सब कुछ...

एक छोटी सी कविता उन मंजुओं के लिए...

नज़रिया जांचने की कोशिश तो की मैंने,
आंसू गंवई निकले, आँखें शहरी/

दिलों को मापने की कोशिश तो की मैंने,
दिल छीछ्ले निकले, उम्मीदें गहरी....

सुन्दर पोस्ट.

aSTha said...

just one thing to say "पैसे पेड़ पे नहीं उगते".

Anonymous said...

Bahut dino ke baad kutch padh kar aacha laga.Kripya aur likhen.

3mik

Kirti Kumar Gautam said...
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Kirti Kumar Gautam said...

agar ticket 100 rupe ka na hota .. to shyad manju hall me jaati hi naa ... wahna taad jaisa hero jo tha .. ha ha

Unknown said...
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Unknown said...

jio ravish ji !! kasam se padh krr ekdam mauz aa gya !!

Mahendra Singh said...

Aisa hee kuch anubhav mujhe bhi hua tha 'Jai Santoshi Maa'(1975)dekhkar.Bahoot acha Flash Back tha.

Unknown said...

Kuch dino se mai aur mere pitaji aapko primetime me dekh rahe the... aaj aapko search kiya to kafi kuch padhne ko mila.....acha laga

Anonymous said...

hi i love your website and cheak it everyday please see my site and say your idea
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raj sharma said...

yeah bahut lazawab ha!

Unknown said...

sir bhut hi aa6ha lekh hai.....

Rakesh Chandra said...

बहुत गहराई है आपके लेखन में, रवीश जी। वैसे मैं तो आपका एनडीटीवी के कारण पुराना फैन हूँ। पर ब्लॉग के बारे में पता नहीं था कल से ही देखना प्रारम्भ किया है। यहाँ भी आपने धूम मचा रखी है। बिहार के सपूतों द्वारा देश और भाषा का झंडा ऊँचा रहे, यही कामना है।

Namita Jaspal said...

good like always
"lauk" kis bhasha kaa shabd hai?

amitesh said...

bejod lekhte hi sir

Rakesh Chandra said...

@ Namita Jaspal - Lauk lagbhag Bihar ki sabhi boliyon me "dikhne" ke liye prayog kiya jaata hai.

Rakesh Chandra said...

Lauk Bihar ki lagbhag sabhi boliyon men "dikhne" ke liye prayog kiya jaata hai.

blog_me said...

"अपार्टमेंट यानी घरों की ऊंचाई ने ताड़ को छोटा कर दिया है"।

श्रीमान, धन्य हैं वे पल, जिन्होंने ये नजरिया दिया है।

Chhabi said...

sir your writings are a lot like my grand mother's Usha Priyamvada. shayad naam suna ho!