(यह भाषण हाल ही में इंडिया हैबिटैट सेंटर में हुए समन्वय कार्यक्रम के लिए लिखा गया था। चूंकि सभी कुछ बोलने की शैली में है और एक बार में ही लिखा गया है इसलिए संभव है अशुद्धियां रह गईं होंगी। उन्हें सुधार कर भूल चूक माफ कर पढ़ियेगा।)
मैं जिस दुनिया से आता हूं वहां रोज़ दर्शक की तलाश होती है। इस हिसाब से उस दुनिया में अभी तक सभी प्रकार के दर्शकों को खोज लिया गया होगा या कुछ बाकी होंगे तो जल्दी ही खोज लिये जायेंगे। मेरी दुनिया में दर्शक दो तरह के होते हैं। एक टैम युक्त दर्शक यानी जिसके घर में टैम मीटर लगा होता है। वो संख्या में सात या दस हज़ार होगा मगर औकात काफी है क्योंकि साढ़े सात हज़ार टैम बक्से ही तय करते हैं कि दर्शकों की संख्या कितनी है। दूसरा दर्शक वो है जो टैम लेस है यानी टैम विहीन है। ये बेऔकात भौकाल दर्शक हैं। छटपटाते रहते हैं कि भई हम भी तो दर्शक हैं फिर हमारी क्यों नहीं सुनी जाती। टैम विहीन दर्शक आलोचक पैदा करते हैं और फिर बाद में निष्क्रिय दर्शक में बदलकर जो दिख रहा है देखने में लग जाते हैं। टैम युक्त दर्शकों का बर्ताव कुछ संसद जैसा लगता है कि भाई हमें चुना गया है। हम हीं सब तय करेंगे। टैम विहीन दर्शक अन्ना के समर्थक जैसे हैं कि भई हमारे बीच आकर आप कानून पर चर्चा क्यों नहीं करते हैं। जो टैम विहीन दर्शक है वो टैम युक्त दर्शक का बंधुआ है। टैम युक्त दर्शक ही ताकतवर है। इसीलिए टैम युक्त दर्शक के मिज़ाज को तत्क्षण पकड़ने के लिए बड़े बड़े लोग बिठाये गए हैं। इनकी आंखों में टीवी घुसेड़ देने के लिए कई तरह के कर्मकांड नित चलते रहते हैं।
आज कल ये टैम युक्त दर्शक स्पीड न्यूज़ ज़्यादा समझने लगा है। ये काफी तेज़ी से बदलता है। रेटिंग चार्ट के हिसाब से स्पीड न्यूज़ की स्वीकार्यता पिछले दो साल से बनी हुई है। यानी आपके पास समय नहीं है। आपका ध्यान क्षणभंगुर है। इधर उधर ताक झांक करते हुए टीवी देखते हैं और आप मल्टी टास्किंग दर्शक हैं। खिचड़ी बनाते हुए, लंगोट बांधते हुए, दाढ़ी बनाते हुए आप न्यूज़ भी सुनना चाहते हैं। इन्हीं सब दलीलों से स्पीड न्यूज़ की शुरूआत सुबह के वक्त शुरू हुई। अब लगता है कि जो दर्शक घर में है वो दिन भर कोई न कोई काम कर रहा है। कपड़े धो रहा है, सब्ज़ी ला रहा है परन्तु न्यूज़ के प्रति उसकी प्रतिबद्धता कम नहीं हो रही है। ध्यान क्षणभंगुर है फिर भी वो तीस मिनट में कई सौ ख़बरें सुन कर पचा ले रहा है। ऐसा ग़ज़ब का दर्शक मैंने नहीं देखा है। जिसकी ध्यान शक्ति बको ध्यानंम को पुष्ट करते हुए दनादन खबरों को सुन कर पत्रकारिता को बचा रहा है। ऐसे दर्शकों का सम्मान किया जाना चाहिए कि कम से कम वो न्यूज़ ही देख रहा है और आप यही चाहते भी थे कि न्यूज़ क्यों नहीं दिखा रहे हैं। अब देखिये। ऐसा लगता है कि कंवेयर बेल्ट पर गन्ना लदा है और तेजी से क्रैशर के नीचे कुचला जा रहा है। अब तो आप नहीं कह सकते न कि खबरें नहीं चलती या आप यह भी तय करना चाहते हैं कि खबरें कैसे चलें तो फिर आप टैम युक्त होने के सपने देखिये। जो टैम में नहीं है वो दर्शक मानता है तो मैं क्या कर सकता हूं।
कुलमिलाकर आप मेरी बातों को समझ गए होंगे। दर्शक कौन है हममें से किसी ने नहीं देखा। वो ईश्वर है मगर एक मामले में ईश्वर से अलग है। वो यह कि सचमुच देखता है। देखकर हर बुधवार को बता देता है कि क्या क्या देखा और कितनी देर तक देखा। क्योंकि रेटिंग का पैमाना ज्यादा देर तक देखने से भी छलकता है। यूं तो स्पीड न्यूज़ अंग्रेज़ी के न्यूज़ एट ए ग्लांस से आया मगर जल्दी ही ग्लांस एट ए न्यूज़ में बदल गया। हर भाषा में त्वरित खबरें हैं। हिन्दी का दर्शक समाज इतना सुपरफास्ट बना रहा तो जल्दी ही फिल्में भी स्पीड न्यूज़ की स्टाइल से बनेंगी और जल्दी ही आप लेखक भी इसी रफ्तार से रचनाएं रचेंगे। मालूम नहीं क्या होगा। दर्शक एक रहस्य है। इसकी तलाश में कल्पना शक्ति की बड़ी भूमिका होती है। दर्शकों को गढ़ लिया जाता है। तुम ऐसे ही हो। अगर आप रफ्तार से दर्शक की विवेचना करेंगे तो एक नए युग में प्रवेश कर जायेंगे। लेकिन शायद ही कोई इंकार कर सकता है कि स्पीड न्यूज़ का अवतार दर्शक की तलाश की देन है. अब सही है या नहीं यह बहस मैं आपके साथ नहीं करना चाहता क्योंकि आप टैम विहीन दर्शक हैं। टैम युक्त होते तो मंच छोड़ कर आपके कदमों में बैठा होता और पूछता कि बताइये क्या देखना चाहते हैं। यह मैं इसलिए बता रहा हूं कि एक दर्शक के रूप में आप अपनी अहमियत को पहले समझिये फिर पत्रकारिता की प्रासंगिकता पर बहस कीजिएगा। अब मेरा पास कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है जिससे मैं साबित कर दूं कि आपका मिज़ाज भी टैम युक्त दर्शकों जैसा ही है। यानी आप के पास भी कम से कम आधा घंटा तो है जब आप पूरी एकाग्रता से उस आधे घंटे में कई सौ ख़बरें सुन कर समझने की शक्ति रखते हैं।
पर यह बदलाव क्यों हो रहा है, कैसे हो रहा है, क्या इसे तार्किक ढंग से हम कभी समझ पायेंगे। क्या हम यह जानते हैं कि चैनलों पर फार्मूले के तहत चलाये गए कितने प्रोग्राम पिट जाते हैं। फिर वो क्यों दोहराये जाते हैं। मैं आ रहा हूं आपके विषय पर। दर्शक का बर्ताव क्या पाठक के बर्ताव से अलग है? क्या एक पाठक के रूप में आप कुछ और हैं और एक दर्शक के रूप में कुछ और । या फिर जो दर्शक है वो पाठक नहीं है और जो पाठक है वो दर्शक नहीं है। हर नायिका आइटम गर्ल बनना चाहती है। उसकी मुक्ति आइटम होने में है तो टीवी पत्रकारिता का हर नायक आइटम क्यों न हो। दोनों का बाज़ार एक दूसरे से मिला जुला है। कम से कम दोनों माध्यमों के हथियार तो एक जैसे ही है। ऐसा नहीं है कि टीवी में अच्छे काम नहीं हो रहे हैं। हो रहे हैं। उन पर भी अलग से बात होनी चाहिए। एक महंगे माध्यम में खबरों को पेश करने का तरीका सिर्फ रेटिंग ही नहीं बचत का भी जुगाड़ है। यह भी समझना होगा। मगर समझ कर आप करेंगे क्या। शोध लिखेंगे या टीवी देखेंगे। यह आप तय कर लीजिए। जब एक माध्यम अपने मूल हथियार के खिलाफ काम करने लगे तो मुझे चिन्ता होती है। इतनी भी चिन्ता नहीं होती कि मर ही जाऊं। लेकिन होती है। उन चिन्ताओं के बीच जी तो रहा ही हूं। विज़ुअल ही नहीं है टीवी में तो फिर विज़न का मतलब क्या है। या तो मुंडी दिखती है या फिर जो दिखता है वो भागता हुआ दिखता है। तो क्या हमारा दर्शक कोई सुपर मदर वुमन टाइप का हो गया है क्या। क्या हम धीमी गति के समाचार युग से सुपर फास्ट समाचार युग में आ गए हैं। अगर यही हाल रहा कि मानव विकास के क्रम का ख्याल करते हुए सोचिये कि आज से पांच साल बाद ख़बरों की रफ्तार क्या होगी? क्या आप यह सोच पा रहे हैं कि कोई मशीन आधे घंटे में पांच सौ खबरें पढ़ देगी और आप सुन भी लेंगे। क्या टीवी सिर्फ सुनने का माध्यम बन कर रह जाएगा या फिर टीवी अपने टीवी होने के संकट को समझ ही नहीं पा रहा है या फिर जो समझ कर कर रहा है उसे हम महज़ा आलोचना के लिहाज़ से नहीं देख पा रहे हैं। हो सकता है कि रफ्तार वाली खबरें और दर्शक आज की हकीकत हों। इसे आप तभी चैलेंज कर सकते हैं जब आप टैम युक्त दर्शक हों। मैं किसी निष्कर्ष में यकीन करने वाला प्रवक्ता नहीं हूं। निष्कर्ष किसी भी बहस की संभावना को खत्म कर देता है। इसीलिए जो कहा वो एक सवाल के तौर पर कहा।
इसमें चिन्ता सिर्फ माध्यम और दर्शक की है। पत्रकारिता की नहीं है। यह मेरे लिए उतना बड़ा सवाल नहीं है। फिलहाल। अलग से विषय ज़रूर हो सकता है। सवाल यही है कि क्या हम अपने दर्शकों को जान गए हैं, क्या खोज पायें हैं, अगर आज खोज सकें हैं तो पिछले फार्मूले के मुताबिक जिन दर्शकों को खोजा था वो कहां चले गए। वो दर्शक कहां गए जो पाकिस्तान और आ रहा है तालिबान पर टीवी कार्यक्रम देखकर लट्टू हुए जा रहे थे. क्या वे सारे दर्शक अफगानिस्तान के पुनर्निमाण कार्यक्रमों के मज़दूर बनकर काबुल चले गए या यहीं भारत में है मगर टीवी देखना छोड़कर कुछ और कर रहे हैं। मालूम नहीं। ऐसा कोई
टैम युक्त दर्शक मिले तो बताइयेगा। या फिर दर्शक वही है मगर उसका स्वाद बदल रहा है।
यह मैं इसलिए कह रहा हूं कि मैं जिस दुनिया से आता हूं वहां निराकार दर्शक कितना कुछ तय कर रहा है। वही तय कर रहा है या उसी के नाम पर तय हो रहा है दोनों बातें पूरी तरह ठीक ठीक हैं। क्या आपके पाठकों की दुनिया में ऐसा कोई पाठक वर्ग है। जो तय करता हो कि किताबों का बाज़ार कैसा होगा। व्यक्तिगत राय तो यही है कि बिल्कुल न हो वर्ना लिखना भी बाज़ारू बन जाएगा। वैसे लिखना हमेशा से बाज़ारू भी रहा है। तो मैं कह रहा था कि आपकी दुनिया में तो पाठक ही तलाश करता रहता है कि भाई लेखक किधर गया। कहां है। किताब कहां है उसकी। जिन लोगों को हिन्दी भवनों के सेमिनारों में जाने का मौका नहीं मिला और जो हिन्दी के छात्र नहीं रहे हैं उनमें से विरले ही होंगे जो अपने लेखक को स्टेशन पर देखते ही पहचान जाएं। कई लोग वैसे पहचान लिये जाते हैं लेकिन मैं कहना यह चाह रहा हूं कि क्या हमारे पाठक और लेखक के बीच रचनेतर यानी रचना के बाहर कोई संबंध है? वो संबंध कब और कहां बनता है? वो कहां अपने लेखक और पाठक को देख सकता है मिल सकता है चैट कर सकता है। क्या हमने नेट क्रांति को मिस कर दिया। अब पिछली बॉगी पकड़ कर ट्रेन चढ़ रहे हैं। मेरा साहित्य से कम नाता रहा है। फिर भी यह सवाल परेशान करता है कि मैं अपने लेखकों को क्यों नहीं पहचानता। यह मेरी ही कमी है या लेखक की भी है। क्या हमारा लेखक नए ज़माने के नए तरीकों से पाठक से संवाद करता है। क्या हमारा पाठक उन तरीकों का इस्तमाल करते हुए अपने लेखक को खोज पाता है। हिन्दी के कई बड़े लेखकों का इस मामले में लोहा मानता हूं कि बाज़ार के चाल चलन से दूर रहते हुए भी उन्होंने ख्याति और रचना के स्तर की ऊंची से ऊंची बुलंदी को छुआ है मगर क्या वो बुलंदी सार्वभौमिक है। अपने ही हिन्दी समाज में सार्वभौमिक है। सार्वभौमिकता से मेरा मतलब व्यापकता से है। अगर आप इतने ही बाज़ार विरोधी हैं तो दस हज़ार की पेशगी पर किताब क्यों लिखते हैं। पीडीएफ फाइल भेज दीजिए। अगर हमारा बड़ा लेखक भी दस या पचीस हज़ार की पेशगी पर लिखता है तो सरोकार के अलावा कुछ अन्य कारण रहे होंगे। जैसे प्रमोशन मठाधीशी वगैरह। मैं कौन होता हूं उनकी नीयत पर सवाल करने वाला। करना भी नहीं चाहिए क्योंकि मुझे इस दुनिया की वास्तविकता ठीक से नहीं मालूम। मगर इतना समझ सकता हूं कि दस हज़ार के रेट पर जो किताब लिख रहे हैं वो सचमुच सरोकारी क्रांतिकारी होंगे या फिर दूसरा यही होगा कि फालतू होंगे। हर भाषा का पाठक किताबों की कीमतें अनाप शनाप नहीं देता है। अंग्रेजी के किताबों की कीमत भी हिन्दी जैसी ही होती हैं। वहां भी पांच सौ की किताबें होती हैं यहां भी। उधर भी डेढ़ सौ वाली होती है इधर भी । जब हमारा लेखक इतने मन से और इतने सस्ते में प्रकाशक या रचना के प्रति समर्पित है तो प्रकाशक को निश्चित रूप से उसे बाज़ार के पैमानों से हट कर समझना चाहिए। अगर प्रकाशक ऐसा करता है तो ठीक ही करता है। दस हज़ार वाला या तो लेखक नहीं होगा या फिर वो बाज़ार को लेकर नासमझ होगा या फिर उसे शौक होगा कि घर आए मेहमान को बताए कि देखिये ये मेरी किताब है पढ़ लीजिए. कहां मिलेगी तो हमीं से ले लीजिए। प्रकाशक लाइब्रेरी को बेच कर खुश हो लेता है। लेखक भी खुश है कि उसने अपनी ज़िम्मेदारी की। इसमें कोई दिक्कत नहीं है। दिक्कत तभी है जब आप पाठक तलाशने लगते हैं। पाठक की तलाश का मतलब अगर मैं यही समझ रहा हूं कि किताब खरीदने वाला पाठक तो। जिस दिल्ली में हिन्दी के किताब की अच्छी दुकान नहीं है वहां आप बताइये पाठक लेखक को ढूंढेगा या लेखक को पाठक ढूंढने चाहिए या प्रकाशक को यह काम करना चाहिए। बिना मंडी बिना रेहड़ी पटरी के बाज़ार नहीं होता। अंसारी रोड के गोदाम कभी दुकान का विकल्प नहीं हो सकते। फिर भी जो पाठक चल कर आते हैं और खरीदते हैं उन्हें सलाम करना ही चाहिए। मगर इस वजह से भी पाठक दूर होते हैं। वो प्रकाशित को तुरंत पढ़ने के सौभाग्य से वंचित हो जाते हैं।
लाइब्रेरी के बाद पुस्तक मेला। क्या आप बोरी में किताब घर लायेंगे। क्या इस तरह से कोई पाठक बर्ताव करता है या फिर वो साल भी खरीदता रहे और पढ़ता रहे ऐसा क्यों नहीं हो सकता। लाइब्रेरी अपनी उपोयिगता के अंतिम चरण में है। शोध के अलावा लाइब्रेरी की उपयोगिता खत्म नहीं भी हुई है तो अप्रासंगिक हो चुकी है। लाइब्रेरी एक मतृप्राय अवधारणा है। इसका संबंध भी कोर्स और कंपटीशन से है। कोर्स से बाहर आते ही लाइब्रेरी से रिश्ता टूट जाता है। वो हमारी शहरी संस्कृति का हिस्सा नहीं है। आन लाइन होने की तैयारी में हैं। कुल मिलाकर हमारा पाठक लेखक और प्रकाशक एक आलसी समाज बाज़ार की संरचना करते हैं। इस पर पहले भी बातें हो चुकी हैं बहुत ज्यादा करने का मतलब नहीं। मगर ऐसा भी नहीं कि मेरी बात खत्म हो गई।
हमारा पाठक भी प्रयास नहीं करता है। हम जिस सामाजिक राजनीतिक वातावरण में पाठक बनते हैं वहां पढ़ने का मतलब है जो प्रेसक्राइब्ड है। स्कूल और कालेज में हमारे पढ़ने का जो सैन्यीकरण होता है वो पढ़ने की स्वाभाविक प्रवृत्ति को कुंद करता है। घर में भी यही चलन होता है। मां या पिता का कोई फेवरेट लेखक कम ही होता है। उसकी किताब कम ही होती है। ज्यादातर घरों में। आप जैसे ही स्कूल कालेज के रेजिमेंट से निकल कर नौकरी में आते हैं सबसे पहले पढ़ने की आदत का त्याग कर देते हैं। कोई उम्मीद भी नहीं करता कि आप पढ़ें। इसीलिए किसी से पूछिए आप प्रेमचंद को जानते हैं तो कहेगा हां। उदय प्रकाश को जानते हैं मंगलेश डबराल को जानते हैं तो कहेगा ना। हालांकि दोनों शानदार लेखक कवि और खासे लोकप्रिय भी हैं। फिर भी। हमारे समाज में जो कोर्स में नहीं है वो पढ़ने लायक नहीं है। मैंने भी अपने खानदानी जीवनकाल में यही देखा है। पढ़ने को आनंद और पहचान से कभी नहीं जोड़ा गया। रागदरबारी की छपाई देखिये। इतना खराब कवर है कि वो किताब कभी ड्राइंग रूम की पहचान नहीं बन सकती फिर भी वो हम सब की पहचान है। सिर्फ रचना शक्ति के कारण। बाज़ार शक्ति के कारण नहीं। हिन्दी का बाज़ार हिन्दी के उत्पादों को घटिया बनाता है।
हमने पुस्तकों को ब्रांड की तरह पेश नहीं किया। किताबें सूरत से दुखी लगती हैं। सरोकारों की नकली संवेदनशीलता के कवर से ढंकी होती हैं। लेखक साहित्य लिखने के बाद सार्वजनिक जीवन की तमाम बहसों से दूर हो जाते हैं। उनकी कोई सार्वजनिक पहचान साहित्य से बाहर की नहीं है। तो साहित्य के बाहर के पाठकों से रिश्ता कैसे बनेगा। छोटे छोटे प्रयास हो रहे हैं। होते रहते हैं। इन प्रयासों का कोई मतलब नहीं जबतक ये कोई मार्केटिंग के फार्मूले में नहीं बदलते। हम बाज़ार को लेकर डर जाते हैं कि लेखन से समझौता करना होगा। इतने कम में बिकते हुए जब आपने समझौता नहीं किया तो ज्यादा दाम से कैसे बिक जाएंगे। एक बार लिखना तो छोड़िये। पहले प्रकाशकों से अपना बाज़ारू रिश्ता ठीक कीजिए वो आपको पाठकों तक पहुंचा देंगे। लोकार्ण एक और वायरस है जो किताबों को पाठक से दूर कर रहा है। लोकार्पण की रणनीति पर ठीक से पुनर्विचार की आवश्यकता है। अगर आप मार्केट के नियम से चलना चाहते हैं तो नियम को जानिये या फिर नया नियम लिख दीजिए।
अफसोस होता है कि हिन्दी के बेहतरीन रचनाकार आलोचकों का ही आसरा देखते रह जाते हैं। वो पाठकों की तरफ देखते ही नहीं हैं। यह एक गैप है जिसे भर सकते हैं तो कोई फार्मूला निकलेगा। मैं आपके सरोकार की भावना का अनादर भी नहीं कर सकता। यह गुनाह होगा। मगर कोई आपके सरोकार की भावना को मजबूरी में बदलते तो वो सरोकार कम समझौता ही ज्यादा होगा। पाठक हैं। चारों तरफ हैं। मगर क्या हम पाठकों की तलाश कर रहे हैं। पाठक का अपना स्वाभिमान होता है। मेरे घर के सामने पटरी पर जितनी भी अच्छी चीज़ें बिकती हैं दुकानदार कहता है पाठक पहले उसे ही खरीदता है। पाठक का अपना स्वाभिमान होता है। ज़रूरी नहीं है कि वो भी सरोकार के तहत ही पढ़ रहा हो। हमने हिन्दी में किताब खरीदने की संस्कृति पैदा नहीं की. इस बार दुर्गा पूजा में कोलकाता में था। सुनील गांगुली को चिप्स या किसी चीज़ के विज्ञापन में देखा। फिर शांतिनिकेतन में उनके एकांत घर को देखा जहां वो दुर्गा पूजा से पहले बंद हो जाते हैं और लिखते हैं। पूछा कि कैसे मैनेज करते हैं तो बताया गया कि काफी कमाते हैं। मैं अगर ये बात कह दूं तो लोग मेरी यहीं फिंचाई कर देंगे। लेकिन हमें सोचना चाहिए। बाज़ार को रिजेक्ट करने का फार्मूला मैंने दे दिया। आप किताब छापिये मत. पीडीएफ फाइल रखिये और अपने ब्लाग पर डाल दीजिए। यदि बाज़ार में जाते हैं तो उसके नियमों के अनुसार बड़ा खेल खेलिये। मुझे यह मत बताइये कि हिन्दी में किताबों को लेकर बड़ा खेल नहीं खेला जाता है। खूब जानता हूं। अगर सारी कोशिश पाठक को किनारे कर थोक में बेचने की होगी तो क्या किया जा सकता। पाठक तो खुदरा होता है। लेखक को भी खुदरा होना चाहिए। मैं विकल्प नहीं दे सकता। रास्ता यही है कि लेखक पाठको के बीच पहुंचे। पाठक उसके पास आ जाएगा। पहले प्रतिस्पर्धा तो हो। हर लाइब्रेरी को बुक कांप्लेक्स में नहीं बदल सकते। क्या लाइब्रेरी के बाहर उसी कैम्पस में किताबों की अच्छी दुकान नहीं हो सकती। क्यों नहीं साहित्य कि किताबों के लिए ठेला गाड़ी सोची जा सकती है, क्यों नहीं किताबों को मगंल बाज़ार में बेचा जा सकता है, क्यों नहीं हिन्दी की किताबें एयर पोर्ट पर मिलती हैं, जब वहां हिन्दी का चैनल चलता मिल जाता है तो हिन्दी का प्रकाशक अपनी किताब क्यों नहीं रखवा सकता, क्यों नहीं हम हिन्दी के नायकों और लेखकों के बीच कोई रिश्ता बनाकर किताब को पाठकों तक पहुंचातें हैं। हमारे तरीके पुराने पड़ रहे हैं। फर्क किसी को नहीं पड़ रहा। गिरिराज और निरुपम के अलावा। नए तरीके सामने हैं। दिख नहीं रहे हैं। बड़े लेखक मैदान में उतरें। नए लेखकों की किताबों की समीक्षा करें। समीक्षक आलोचक और लेखक के अंतर को मिटा दीजिए। आलोचना और समीक्षा कोई विशेष काम नहीं है। इसके लिए किसी विशेष योग्यता की कोई ज़रूरत नहीं है। ये सब बेकार की बातें हैं। जब विकेटकीपर पैड उतार कर बोलिंग कर सकता है तो लेखक भी कर सकता। बहुत कुछ करना होगा। वर्ना मिलेंगे इसी विषय पर किसी नए लेखक के साथ, किसी और सेमिनार में.
22 comments:
''टैम'', मेरे जैसों के लिए कम सुना शब्द है, हम टीआरपी सुनते रहते हैं, इसी तरह के आसपास की कोई चीज जान पड़ती है यह भी.
बढिया! विस्तार से बातें हैं। कुछ असहमतियाँ भी लेकिन अच्छा लगा।
बढ़िया लगा,टैम-टैम पर एईसी खुराक देते रहा
करें,तबीअत बहल जाती है...
ha aap thi kah rahe hi sir kyo ki agar ase log hi na ho to khabre kaise chalti.mujhe to lagata hi ki tv wale bhi party wale ho gaye hi jase ka kuch dino pahle ek mahasay ke saath hua ki mai ye sab nahi sunana nahi chata hu to tapak se jabab mila ap ja sakte hi mera manana hi jab wo suna sakte hi to sunane ki bhi smay dena chahiye tha lekin .unki bhi kuch mariyada hona chahiye tha ki unko bhi yaise hi nahi jane dete usko dusare bhi tarike se karna chahiye tha .
सर हम कुछ जगहों पर तो आप से सहमत हैं लेकिन कुछ जगहों पर शायद हमारी सोच आप से अलहदा है। इस टॉपिक पर हम लोगों ने भी काफी चर्चाएं की और निषकर्स भी निकला लेकिन सवाल आज भी है मन मे। खैर आप बड़े पत्रकार हैं और हम लोग बहुते ही छोटे पत्रकार। वैसे कल पंकज पचौरी सर का इंटरव्यू पढ़ा बहुत बढ़ियां बात कही थी उन्होने मज़ा आया ये सुनकर भी बड़ी खुशी हुई कि उन्होने आपकी तारीफ की।
मो. जलीश
When, as a news channel, you do your pre and post election survey, do you approach each and every citizen or just take a sample and reach a conclusion? My guess is that you take a calculated sample and extract conclusion. Similarly, Tam does the ratings of your programmes. Any study that is conducted is conducted purely based on a sample. TAM also does the same.
Now, if NDTV does not gain on TRPs, that's the problem of your programming and not the problem of the rating mechanism.
Sir.
BAjar me samosa tak tak bikta hai..jab log pasand karte hai..jis din log pasand karna band kar denge..us din chaumin milna suru ho jayega..
Speed news log pasand kar rahe hain..isiliye chal raha hai..
sir ye to channel maliko ko sochna chahiye. lekin ek bat yah bhi hai ki tam me acha pradrashan karne pane par koi channel yah nahi bolta ki rating me sirf 7000 log shamil hai isliye is rating ki koi manyata nahi hai.jinka pradrshan acha nahi hota wo hamesha pepole meter ko ali dete hai.koi channel mali bhi is bare me kuch nahi bolta sirf patrkar hi ise gali dete kyonki isi aadhar par unki naukri tay hoti hai
sir,
aap to darshak khojate khojate pathak khojane lage.
...waise bhi aapke program ko log dekhate kam aur sunate jyada hai kyuki apke programe ke hero kuch gine chune log hai jaise.....
kumar vishwas
shahnawah hussain
rashid alvi
sanjay nirupam
mukhtan naqvi
satvrat chaturvedi
moh. salim
etc etc
isliye sir jee
aap na pathak khojiye na darshak,
...aap acha shrota khojiye..
APKE PROGRAM PRIME TIME KI..
JAB AAP PRIME TIME ME APANE KHAS PANEL SE PARICHAY KARANE SE PURV JO KISI SUBJECT KE BHOOMIKA ME BOLTE HAI WO ANOKHO AUR ADBHUT HOTA ....
AUR JAB AAP BOLTE HAI "MAI HU RAVISH KUMAR".....TAB MUJHE WAKAI AHSAS HOTA HAI KI MAI DARSHAK NAHI SHROTA HU...
....MUJHE LAGATA HAI KI AAP KABHI FURSAT ME TV ANCHOR PAR BHI KOI BLOG LIKHATE TO ACHHA HOTA..ANCHOR KE GLAMOUR,USASE MILANE WALE SOCIO-ECONOMIC FAYADE ADI ADI...
रवीश, अनेक साधुवाद !
ऐसा लगा आपने दिल की बात कह दी .हिंदी किताबों की दुर्गति देख कर दिल बहुत दुखता है .काश ! आपका ये किताबों की मार्केटिंग वाला फ़ॉर्मूला हमारे साहित्यकार अपनी नाक पीछे रख कर अपना लेते तो हिंदी की बहुत बड़ी सेवा हो जाती .काश !ये समझ पाते कि 'जो दिखता है सो बिकता है .'ये तो आप हैं जो किताबों का दर्द समझते है वर्ना एक चॉकलेट और एक बीमा कम्पनी अपने विज्ञापनों में जिस तरह किताबों को दोयम दर्ज़े का गिफ़्ट और फ़िज़ूल का इन्वेस्टमेंट साबित करने में होड़ लगाये हुए हैं ,उसी तरह आपके इस ब्लॉग के १० में से एक भी कमेन्ट में आप द्वारा सुझाये गए उपाय का ज़िक्र नहीं है .प्लीज़ किसी तरह अपने इस क्रांतिकारी आईडिया को हिंदी के कर्णधारों तक पहुचाएँ,बड़ा उपकार होगा .
बढ़िया और विचारोत्तेजक आलेख..
Darasal hum pathakon ko pata hi nahi chalta ki kis lekhak ki koun si kitab kab aa rahi hai. Min ek example doonga, Mujhe "Revolution 2020" ki release date yaad thi aur humlog uska besabri se intezaar kar rahe the. Isko maine ebay par pre order karke mangwaya. Lekin hindi kitabon ke saath aisa nahi ho pata hai. Kuch kitabein jo hum khojte hain wo aasni se nahi milti market mein. Aur to aur ebay aur flipkart mein bhi hindi kitabein nahi ke baraabar hoti hain.
तुममे इतना कुछ है कि खो जाने का मन करता है
तुममे इतना कुछ है कि खो जाने का मन करता है
sahi hai pathak khudra hota hai lekhak ko bhi banna padega
this article gave the all answrs of my question !!
A tamless viewer!!! :(
sir time ho to visit this,my blog...
http://suchak-indian.blogspot.com/2011/11/unequal-india.html
टैम युक्त दर्शक कैसे बना जाता है
jnu ke aalava dilli me kisi univ campus me ek bhi thik thak book shop nhi hai.aur sach me hume hindi ki kitabon ke liye daryaganj jana padta hai.uske liye bhi bht plan kark kyunki ek sath jyada kitaben lana mushkil hota hai.sachmuch hindi ki kitaben thela gadiyon pr,mangal bazaar me, airport pr milni chahiye.
daryagang me sunday ko purani kitabon ka jo bazaar lagta hai patrion pr, usme bhi hindi ki ikki dukki kitaben hi dikhti hain jabki baki har tarah ki books milti hain wahan.
pustak mele se kitaben kharidne ke liye wahan 3 ya 4 bar jana padta hai kyunki ek bar me lana sambhav nhi ho pata.apne scholarship ke paise bacha bacha kar kitben khardne wale ka dukhda hai ye, sir..
Post a Comment