आया आया कलामे रूमी आया
दारा शिकोह की स्मृति में एक किताब आई है। कलामे रूमी। अभय तिवारी ने फारसी के महान सूफ़ी कवि मुहम्मद जलालुद्दीन रूमी की रचनाओं का हिन्दी में अनुवाद किया है। यह किताब नए और पुराने पाठकों दोनों के लिए हैं। मेरा मतलब जो लोग रूमी के बारे में नहीं जानते हैं, वे भी इसे पढ़ कर शुरूआत से रूमी के बारे में जान सकते हैं। कविता पढ़ने के बाद गूगल करने की ज़रूरत नहीं। अभय तिवारी ने कोशिश की है कि रूमी तक पहुंचने से पहले इस्लाम और सूफ़ी परंपरा के द्वंदों और विकास यात्राओं को भी संक्षिप्त नज़र से जान लिया जाए। अभय ने अपनी दलीलों की प्रमाणिकता में चैप्टर के बाद संदर्भ सूची भी दी है। इसीलिए आप इस किताब को पढ़ते हुए कई किताबों से भी गुज़र सकते हैं। कुल्लियाते दीवाने शम्स तबरेज़ी,और मसनवी मानवी,ये रूमी की रचनाओं के दो मुख्य ग्रंथ हैं। अभय ने लिखा है कि रूमी की एक छवि बनी हुई है, जैसे कोई उदारवादी, रहस्यवादी आध्यात्मिक गुरु हो। यह छवि ग़लत नहीं है मगर अधूरी है। रूमी ये सब होने के साथ साथ मुसलमान भी हैं। रूमी वे सारी बातें भी करते हैं जिसके लिए इस्लाम की आलोचना की जाती है। लेकिन पश्चिम के अनुवादकों और भारत के भी अनुवादकों ने रूमी की ये सभी बातें छानकर अलग कर दी हैं।
मोटी किताब है लेकिन हिन्द पाकेट बुक्स ने इसे हल्का कर दिया है। आप आसानी से उठाकर पढ़ सकते हैं। १९५ रुपये की कीमत इस किताब के लिए बिल्कुल ज़्यादा नहीं है। इतनी शानदार रचनाओं का संकलन है कि जब भी और जहां से भी पढ़ेंगे मजा आने लगेगा।
अपने आशिक को माशूक़ ने बुलाया सामने
ख़त निकाला और पढ़ने लगा उसकी शान में
तारीफ़ दर तारीफ़ की ख़त में थी शाएरी
बस गिड़गिड़ाना-रोना और मिन्नत-लाचारी
माशूक़ बोली अगर ये तू मेरे लिए लाया
विसाल के वक़त उमर कर रहा है ज़ाया
मैं हाज़िर हूं और तुम कर रहे ख़त बख़ानी
क्या यही है सच्चे आशिक़ों की निशानी?
एक जगह रूमी कह रहे हैं-लफ्ज़ सिर्फ़ बहाना है। असल में ये अन्दर का बंधन है, जो एक शख्स को दूसरे से जोड़ता है, लफ्ज़ नहीं। कोई लाखों करिश्मे और ख़ुदाई रहमतें भी क्यों न देख ले अगर उस फ़क़ीर या पैग़म्बर के साथ कोई तार नहीं जुड़ा है तो करिश्मों से कोई फरक़ नहीं पड़ने वाला है। ये जो अन्दर का तत्व है यही खींचता और चलाता है,अगर लकड़ी में पहले से ही आग का तत्व मौजूद नहीं है तो आप कितना भी दियासलाई लगाते रहिए,वो नहीं जलेगी। लकड़ी और आग का संबंध पोशीदा है,आंख से नहीं दिखता।
मुझे ये किताब अच्छी लगी है। आपको भी लगनी चाहिए। रूमी के बारे में तो जानेंगे ही साथ-साथ सूफ़ी परंपरा और उसके शब्दों,दर्शनों से भी परिचय हो जाएगा।
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14 comments:
लफ्ज़ सिर्फ़ बहाना है।
hum bhi kisi bahane se in lafzon tak pahunchana jarur chahegen...jankari ke liye shukriya sir :)
आपकी पोस्ट पढकर अपने लैपटॉप के बगल में रखी कुछ किताबें देखाता हूँ.. ’कलामे-रूमी’ वहाँ शान से बैठी है.. बस अभी तक पढना शुरु नहीं कर पाया हूँ..
धन्यवाद एक अच्छी किताब से परिचय करवाने के लिये..
पढ़गें साहेब रूमी को - सूफी रुमानियत के बारे में और ज्यादा जानेगे.
jankaari ke liye shukriya.
भाई जी एक समीक्षा पीपली लाइव की लिख मारिये समय निकाल कर, आपकी प्रतिक्रया जानने के लिए उत्सुक हूँ. सादर....
आपका नियमित पाठक
समीक्षा के लिए बहुत शुक्रिया, रवीश!
एक अच्छी किताब से परिचय करवाने के लिये शुक्रिया
अच्छा है। संयोग से इस किताब का यही अंश मैंने भी सबसे पहले पढ़ा। बहुत मेहनत से अभय ने इसे लिखा है और बहुत अच्छी जानकारी दी है। बधाई अभय को। शुक्रिया आपको यहां इसके बारे में लिखने के लिये।
इसे जीवन का सत्य (अथवा काल का प्रभाव) कहें या मानव की मजबूरी कि आँख देखती है जो (या जो कान सुनते हैं, आदि), उसे बयान करना पड़ता है बेचारी जीभ को (जिसे अक्सर दोष मिलता है), या लिखकर बेचारी उँगलियों को - जिन्होंने वो सब खुद न देखा था न सुना था और केवल ऊपर से हुक्म सा आया था!
अभय भाई की यह किताब हम भी शीध्र ही खरीदते हैं, किताब से परिचय के लिए आभार.
दारा शिकोह की स्मृति में अभय तिवारी की किताब..तब कौन नहीं पढ़ना चाहेगा इसे। परिचय कराने के लिए आभार।
कभी कहीं पढ़ा था , याद नहीं कहाँ , मौलाना रूमी की एक किताब हाथ लगी थी , हाँ याद आया , किताब का नाम था, मौलाना रूमी और सूफी फकीरों की कहानिया। किताब के पहले पन्ने पे लिखा था , हम उस खुदा का सजदा करते हैं , जिसने दुनिया वालों के खुदा को बनाया है। उनके वक़्त के तमाम सूफी फकीरों की दास्तान थी उन् में। पढ़ कर बहुत सिखने को मिला और ताजुब भी हुआ की कैसे कैसे लोग इस दुनिया में आये हैं। उस्सी किताब में रजब नाम से मशहूर एक फकीर का किसा पढ़ा , उनके गुरु का नाम भूल गया , लिखा था, रज़ब के गुरु सूफी फकीर थे और वो जहाँ भी जाते थे, माएं अपने जवान बच्चों को घर में छुपा लेती थी। उनकी आँखों में एक ऐसी कशिश थी की जिससे भी टकरा जाएँ वो उनका दीवाना हो जाता था। उनकी रूहानियत भरी आँखें उससे खींच लेती थी। और बंद दुनिया से नायार हो जाता था। एक बार वो रज़ब के गाँव से गुज़रे। रज़ब शेहरा सजाये घोड़ी पे बैठे , गाजे बाजे के साथ अपनी बारात लिए जा रहे थे। कहते हैं रज़ब को एक लड़की से मोहबत थी , लेकिन दोनों के खानदान में जाती दुश्मनी सदियों से चलती आ रही थी। बहुत कोशिशों और के बाद आखिर मोहबत की जीत हुयी और दोनों खानदानों ने दुश्मनी भुला कर उन्हें निकाह की इज्ज़ाज़त दे दी। आज उनकी मुराद पूरी होने वाली थी। आज प्यार उनका मंजिल पाने जा रहा था। लेकिन होना तो कुछ और ही था। रज़ब के गुरु अचानक आ गए । सब ने आँखें पलट ली की कहैं ये दीवाना फकीर उन्हें देख न ले। लेकिन रज़ब ने शेहरा हटा के देख ही लिया । नज़रे नज़रों से मिली और रज़ब देखता ही रह गया। मस्त फकीर ने कहा। "रज़ब कियो गज़ब , सर पे बंधा मौर । आया था हरी भजन को , चला नरक की ठौर " बस इतना ही कहा। और रज़ब उनके पीछे हो लिया। बाप भाई , यार दोस्त समझाते रह गए । उन्होंने एक न सुनी। माशूका के संदेशे , उसके आंसू भी उन्हें रोक नहीं पाए। कहते हैं रज़ब के गुरु ने जब चोला छोड़ दिया और इस दुनिया से कूंच कर गए। रज़ब ने आँखें बंद कर ली। और मरते दम तक नहीं खोली। कहते थे, जिनको देखता था अब वो दुनिया में नहीं है। खुली आँखों से वो दीखता नहीं। बंद आँखों से दीखता है।
मौलाना रूमी की भी एक रुबाई थी जिस में लैला और मजनू का जिक्र था । अब यहाँ सवाल उठता है , लैला मजनू का किस्सा पुराना है या रूमी साहब का? खैर इतिहास में झाँक कर देखा नहीं। वैसे रुबाई बड़ी दिलचस्प है। लिखा है। एक खुमकड़ विद्वान लैला मजनू के प्रेम की कहानिया सुन कर लैला के पास आया। की आखिर लैला क्या बाला है, जो कैश (मजनू ) जैसा सुन्दर बांका जवान लैला पे कुर्बान है। आखिर ये हसीना है कौन? लेकिन जब लैला को देखा तोह , दंग रहा गया। कहते हैं, लैला बहुत खूबसूरत नहीं थी। वो लैला से बोला ।
कैश (मजनू ) को तुने कैसे परेशां किया , तू हसीनो में कोई अफजूं नहीं।
लैला बोली
खामोश तू मजनू नहीं ।
लिखा है लैला को देखने के लिए मजनू की आँखें चाहिए ।
की समीझा आपने ऐसी की है , की पढना ही पड़ेगा। समीझा पढ़ कर ये सब याद आ गया और लिख दिया।
आते ही -मैने, पढ़ ली कलामें रूमी, अलग और अच्छी किताब।
अंदाजा लगा सकता हूँ बहुत अच्छी किताब होगी
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