हम इस भ्रम में रहने लगे हैं कि सम्पर्कों और सम्बंधों का विस्तार हो रहा है । ज़रा आप फ़ेसबुक या व्हाट्स अप के संबंधियों की सूची पर ग़ौर कीजिये । ट्वीटर पर ज़रूर कभी भी कोई नया आ जाता है मगर आप जिनका अनुसरण करते हैं उस सूची पर ग़ौर कीजिये । मामूली हेरफेर के साथ सब स्थायी हो चुके हैं । हम सबका एक कुआँ बन चुका है । नदी होने का भ्रम पाले हम सोशल मीडिया के छोटे छोटे कुएँ में रह रहे हैं । जिसमें कई बार अलग अलग कुओं से आए मेंढक टरटराते रहते हैं । हमें लगता है कि यही जगत और जागरूकता का रूप है । जबकि ऐसा नहीं है । हमने इसी को स्वाभाविक मान लिया है । बाज़ार ने विभिन्नता की उत्सुकता को कुंद कर दिया है । हम सबके अपने अपने ब्रांड तय हैं । शर्ट से लेकर परफ़्यूम तक के ब्रांड । हम इन सब उत्पादों के चयन में पहले से कम परिश्रम और प्रयोग करते हैं । हो सकता है कि आपका यह लेखक उम्र के किसी स्थिर पड़ाव में आ गया है ! लेकिन क्या यह सही नहीं कि ब्रांड बनने की छाया सोशल मीडिया में हमारे व्यवहार में दिखती है ।
सोशल मीडिया पर मौजूद हर शख़्स एक ब्रांड है । वो ब्रांड ही बनने के लिए आतुर है । जो है उससे कहीं अलग । हमें मतलब भी नहीं कि उस ब्रांड की हक़ीक़त क्या है । हमें कहाँ इस बात से फ़र्क पड़ता है कि जिस ब्रांड को हम धारण करते हैं वो अपने कर्मचारियों से कैसा बर्ताव करता है । बाहरी रूप ही सत्य है । इसी का आत्म प्रदर्शन है । हम सब कुछ अलग लगना चाहते हैं परन्तु इस क्रम में एक जैसा हो जा रहे हैं ।
मैं खुद के बारे में बता सकता हूँ । चंद लोगों से चैट तक मेरी दुनिया सिमट गई है । आपके लिए भी सँभव नहीं है कि एक सीमित संख्या से ज़्यादा लोगों से सम्पर्क रख सकें । जिनसे बात करता हूँ उनसे या तो कभी मुलाक़ात नहीं है या बहुत दिनों से नहीं है । शब्दों और वाक्यों के ज़रिये मेरा आभासी रूप है और मेरे पास आपका । कई बार लगता है कि आप मुझे वो समझते हैं जो मैं हूँ नहीं और कई बार ऐसा ही मैं आपके बारे में सोचता हूँ । हम सब लगातार प्रोजेक्ट होने की प्रक्रिया में है । पूरी दुनिया में इस व्यवहार पर गहन शोध हो रहे हैं । शायद भारत में भी हो रहे होंगे मगर अभी सार्वजनिक बहस का हिस्सा नहीं बन पाये हैं ।
इस प्रोजेक्ट होने की प्रक्रिया में हमारी तस्वीरें कुछ और ही बोल रही होती हैं । हमारी होते हुए भी हमारी नहीं लगती । हम तस्वीरों के ज़रिये खुद के देखे जाने का तरीक़ा भी तय कर रहे हैं । सेल्फी । क्लोज़ अप । यह हमारा आभासी व्यक्तित्व हमारे असल को भी प्रभावित कर रहा है । शब्दों के आर पार भावनात्मक रिश्ते बन रहे हैं । कई मामलों में यह अच्छा है और कई मामलों में ख़तरनाक । पर यह तो वास्तविक जगत में भी है । आप जिससे मिलते हैं उसका बाहरी रूप ही तो जानते हैं । सही ग़लत होने के ख़तरे वहाँ भी हैं । एक फ़र्क है । सोशल मीडिया का हर संवाद एक दस्तावेज़ है ।
हद तो तब है जब हम लिखित संवाद भी इस भ्रम में करते हैं कि कोई और नहीं पढ़ रहा या जिसे पढ़ना है पढ़ ले क्या फ़र्क पड़ता है । शंका और आत्मविश्वास की दीवारों को रोज़ तोड़ते हैं । हमारे भीतर शब्दों की एक ऐसी दुनिया बन जाती है जो हर वक्त चलायमान है । हम लगातार संवाद की प्रक्रिया में है । दिमाग़ शांत नहीं होता । बात करने का दायरा भी मौत के कुएँ की तरह है जिसमें हम नीचे से रफ़्तार पकड़ते हुए ऊपर पहुँचते हैं और फिर नीचे आ जाते हैं । बाक़ी लोग झाँक कर तमाशा देख रहे होते हैं ।
इस क्रम में हमारा वजूद कुछ रहा नहीं । न जाने कितनी बार रौंदा जाता है कितनी बार खड़ा हो जाता है । जब आप सोशल मीडिया के सम्पर्क में नहीं होते तब भी आपका दिमाग़ घनघना रहा होता है । इस दुनिया में कोई भी अनंत आकाश से नहीं जुड़ा है । सबके अपने अपने टापू हैं । इन टापुओं पर सियासी जलदस्युओं के हमले होते रहते हैं । हम खुद को बदलकर कुछ और होते रहते हैं ।
एक बहुरूपिया संसार रचा जा रहा है । जो इसके दायरे से बाहर है वो कैसे जी रहा है । जब कभी सब बंद कर देता हूँ तो कई लोगों की याद आती है । अकुलाहट होती है । सामान्य होने में वक्त लगता है । कई लोगों ने आहत होने की सहनसीमा का विस्तार किया है तो कुछ ने संकुचित किया है । यहाँ बात करना जोखिम का काम हो गया है । सबकी अपेक्षाओं पर खरे उतरने का इम्तहान है सोशल मीडिया में संवाद । हम सब एक सेना में बदल चुके हैं । टिड्डी दल की तरह हमला करते हैं । हमला झेलते हैं । जल्दी ही सोशल मीडिया के पन्नों पर विश्व युद्ध सा होने वाला है ।बल्कि छोटे मोटे कई युद्ध या तो हो चुके हैं या चल रहे हैं । इसमें मारे जाने वाले या घायल वैसे नहीं होंगे जैसे असल में होते हैं । बल्कि दिमाग़ी रूप से आहत लोगों की संख्या बढ़ेगी । उसके रूप बदल जायेंगे । कई लोगों को इस बेचैनी की प्रक्रिया से गुज़रते देखा है ।
मैं यही जानना चाहता हूँ कि इन सबने हमें कैसे बदला है । आप कैसे बदले हैं । कहीं हम पहले से ज्यादा अकेले नहीं हुए हैं । निरंतर संवाद ने समाज को जागरूकता के नाम पर अंध श्रद्धा दी है या सचमुच यह कोई अलग समाज है जो सोचने के स्तर पर पहले से कहीं अधिक जागरूक और सजग है । पर आप जानने के लिए कितना प्रयास करते हैं । मैं खुद दो तीन से ज़्यादा वेबसाइट नहीं देखता और आप ? जो शेयर करता हूँ उसे भी कम लोग पढ़ते हैं । कहीं हम अपने जाने हुए को ही तो नहीं मथते रहते हैं जहाँ तथ्य पीछे रह जाता है और भाव ऊपर आ जाता है । कितने लोग हैं जो निष्ठाओं के आर पार जाकर रोज़ जानने और न जानने के बीच की यात्रा करते रहते हैं । आप हैं तो बताइयेगा ।
46 comments:
MAN KI SHANTI KHATAM HO GYI HAI SABKI SAB BAHAR SE APNE AAP KO ACHA YA BUDHIMAAN DIKHANA CHAHTE HAI.
रविश आप इन सब भावनाओं को शब्द कैसे दे पाते हैं, ये सब हमारे दिमाग़ में भी चल रहा होता है, अकाउंट को आक्टीवेट-डीक्टिवेट के चक्कर में ही उलझे रहते हैं| सब एकसाथ होकर भी अकेले हैं, अधीर कर दिया है सोशियल नेटवर्क ने|
क्या कहूँ! सच में एक एडिक्शन सा हो गया है. जब कमेंट और स्टेटस लाग ऑफ होने के बाद भी दिमाग में चलते रहें , तो स्थिति सच में गंभीर है
Bhai sub thik hai na ?
Ravish sir aap hamesha aisi vyakhya karte hai ki sidha dil per asar karti hai.
Aap aap hi hai aapko dhanyawaad.
behtarin soch aur umda lekh
nhi sir main to ise knowledge sharing ka madhyam manti hun .(sir kabhi kabhi comment box khulta nhi .comment kar nhi pate)
This is a trap ..we are trapped.Limitless freedom of speech is given by social media.Good for people who want to spread love,humanity,peace around the world...there has to a guideline to use this form of media.And we have to set our limits.Getting Trapped is dangerous and we are trapped.Dimagi taur par Gulam ban chuke hain hum.
This is a trap ..we are trapped.Limitless freedom of speech is given by social media.Good for people who want to spread love,humanity,peace around the world...there has to a guideline to use this form of media.And we have to set our limits.Getting Trapped is dangerous and we are trapped.Dimagi taur par Gulam ban chuke hain hum.
mujhe lagta tha ye bas meri samsya hai. kai baar toh apna hi likha hua dimaag me baar baar chalta rehta hai. zyada janane ki koshish me hum antarvirodhon se bhar gaye hain, khud ko hi pata nahi chalta ki kaun si dalil sahi hai. ab toh debate karne ke liye bhi kisi opponent ki zarurat nai hai, khud hi 'for' aur 'against' me bolte hain aur samajhte hain ke kaun si side sahi hai.
ek baat apne kahi ke hum social media pe wo hone ka dikhawa krte hain jo hum hain nahin. isme thoda locha hai. sach ye hai k hum kisi ke bhi samne wo nhi hain jo hum asal me hain. har insaan se alag tareeke se pesh aate hain. humare door ke dost hamare bare me kuch aur sochte hain aur kareebi dost kuch aur....hum apne maa baap ke samne bhi wo nahi hain jo hum hain. agar hote toh jo baatien hum duniya ko bata rahe hain uski zarurat nahi padti.
इस पोस्ट को लिखने के लिए आपका धन्यवाद ! शायद मुझे इसी का िइंतज़ा था । जो भी लिखा है, जैसा भी है.. लिखित संवाद पर कुछ चाहिए था ।
सोशल मीडिया की दुनिया बहुत प्यारी दुनिया है,बस हमें पता होना चाहिए कि ये हम पर कहीं,कभी हावी तो नहीं हो रही। ये नई संभावनाओं से हमें मिलाती है। नए आइडिया जानने को मिलते हैं। पर हां यहां कई ज्वलनशील पदार्थ भी होते हैं,हमें बस उनसे दूर रहना होता है। (निजी ख्याल)
Dil bahlane ko virtul world achaa hai Gaalib
विश बाबू
चलो अच्छा हुआ काम आ गयी दीवानगी आपकी …… अरे भाई जब इतनी दूर जाकर (लद्दाख) तपस्या करोगे तो कुछ तो निकलेगाही। जोक्स अपार्ट
अकेलेपन की कश्मकश में हम सभी अपने चारो तरफ शब्दों के जाल बुनकर अपनी दुनिया बनाते बिगड़ते रहते है सायद यही क्रम होगा भौतिक जीवन पद्धति का, समस्या सुरु तब होती है जब खुद को बीते समय से तुलना करने की लालसा पनपने लगाती है
प्रश्न या समस्या की किस्म कुछ और है दैनिक जरुरतो की लिस्ट रोटी कपडा मकान से निकल कर काफी दूर आ चूका है थाली लोटा हल फावड़ा की जगह मोबाइल इंटरनेट हो गया है जिसे सब जागरूकता कहते है वो मज़बूरी बन गयी है दौड़ते रहो नहीं तो अपडेटेड नहीं रहोगे .......कौन सी जरुरत के लिए भूख तो उसी चार रोटी की है
कभी स्कूल में पढ़ा था शब्दो की जरुरत ही क्या सिर्फ भावनाओ को ब्यक्त करने के लिए है अब लगता है नहीं बिचारो के उथल पुथल को सांत्वना देकर खुद को भरोसा देने की प्रक्रिया हो गया है कि हाँ मै सक्रिय हूँ। चलायमान रहने की प्रक्रिया अब लड़ाई के भेष में बदल चूका है लगातार जूझते रहने की नियती कही न कही से तोड़ दे रही है होड़ की दौड़ ने बिश्राम या रेस्ट करने की पद्धति को ही नस्ट करके मानसिक जड़ता की रचना करते हुऐ शुन्य की तरफ ढकेल रहा है। इसके जिम्मेदार भी हमें है। मानसिक विश्राम या मनोरंजन की आवश्कता नगण्यता की सीमा पर है या अल्प बैकल्पिक उपलब्धता।
हमारे क्रिया प्रतिक्रिया आदत, विचार शोध के बिषय हो सकते है हकीकत में कही पर बुद्धिजीविओ ने सुरु भी किया होगा पर उसे क्या होगा मनोविश्लेषण के अलावा और क्या हो सकता है कुछ भोग से उकताए हुआ लोगो का कागज जोतना। सॉरी … ब्लॉग जोतना …
Addiction factor harm krne wala hai uncle,,Lekin Scope bahot Vast hai,,Yahan baithe hue Germany aur UAE me dost,,Apaar baten Jan skna,,
Aur Uncle ye kuon me rahne wale logon ke Dunia dekhne ka sadhan b hai,Jaise Chhote shahar ya ganv me rahne wala koi ladka Alag alag jagah k logon ki soch Vyavhar culture Ghatnayen jan skta hai,,Aur b bahot advantages hain sir mai kya likhun lekhak b aap hain aur mujse hazar darje zyada jaanne wale b aap! :)
disadvantages b bahot hain aap jante hi hain.....
बहुत लिखा , कुछ कुछ समज नहीं आया कुछ आया , पर एक बात तो है इस माध्यम की अगर यह न होता तो शायद आपसे कभी बात न हो पाती , यह न होता तो शायद मुझे पता नहीं चलता की दुनिया में इतने सरे अख़बार और इतने सरे मैगज़ीन आते है , यह सब किस चीज़ के कैसे अलग लग लिखते पेस करते है , मेरे लिए तो इसी माध्यम ने सोचने का स्कोप बढ़ाया है , हा पर एक बात है अकेलापन भी बढ़ा दिया है
Ravish Please read this
http://www.newslaundry.com/2014/05/21/the-news-that-did-not-make-it/
रविश भाई , अपनी समाज को भी याद कीजिये, कृष्ण सिंह का दौर, फिर जगनाथ मिश्रा , फिर लालू और अब नितीश + जीतन मांझी , लोकतंत्र को परिपक्व होने में भी 60 साल लग गए। सोशल मीडिया आज की चीज़ है , इसे भी परिपक्व होने में समय लगेगा। अभी तक इस मीडिया में एक तबका ही हावी है, जब अन्य तबका यहाँ आएंगे तो उथल पुथल होगी, इसके गुणगान करने वाले तब शायद इसकी आलोचना करने लगे , हो सकता है तब तक इस मीडिया पे सेंसरशिप भी आ जाये। तब तक के लिए आपको धन्यवाद , इस लिए नहीं की आप एक अछे पत्रकार है अपितु इस लिए की आप एक बेहतरीन सामाजिक चिंतक है। जारी रखे लिखना। बेहतर सेहत के लिए आपको सुभकामना। धन्यवाद
Nice blog sir, jo humare man me chal raha hota hai aap use shabdon me hu-ba-hu utar dete hain.
रवीश जी,
बिल्कुल मेरे मन की बात व्यक्त करी है आपने! मैं खुद इस सोशल मीडिया के संसार से जूझ रही हूँ...एक तरफ़ इस की लत भी लग गयी है और दूसरी तरफ़ बहुत सारी बेचैनी का कारण भी यही है। जैसे आपने कहा, हम सब अपने आप को प्रोजेक्ट करते हैं - हम सब अपने ही जीवन का एक नैरेटिव रचते हैं। और धीरे धीरे अपने ही नैरेटिव को मानने भी लगते हैं। अपनी सच्ची पहचान शायद कहीं पीछे छोड़ देते हैं। हम सोशल मीडिया का प्रयोग कैसे करते हैं - इसके बारे में सबको थोड़ा आत्मविश्लेषण करना चाहिये।
mein 23 saal ka ek ladka hu. kuch saal pehle tak apne facebook friends mein kaafi "famous" hua karta tha lekin ek woh din hai or ek aaj ka din, 3 saal hogye facebook account deactivate kiye ko, or kaafi khush hu.
सर में आपसे पूरी तरह सहमत हूँ सोशल मीडिया एक बेहरूपी दुनिया है !यहाँ सब लोग अपनी प्रोफाइल पिक्चर को दूसरे से बेहतर साबित करने में लाइक्स की होड़ में लगे रहते है ! फोटो ऐसे खेंचते है की मुझे ऐसा लगने लगा है की देश में आज पत्रकार,डॉक्टर,इंजीनियर,CA आदि काम पैदा हो रहे है फोटोग्राफर्स ज्यादा बन रहे है ! और यह युवा फोटोग्राफी भी बस इसलिए कर रहे है क्युकी यह भी एक ट्रेंड बन चुका है उन्हें इस में कोई विशेष रूचि नहीं है !
Ravish sir, logon k liye social media kuch naya tha lekin dheere dheere ab log uub rahe hain. fir se log 'face to face baat karne' ki baat yaaad karte hain aur karenge bhi lekin isme waqt lagega. jo orkut k saath hua wahi baaki sab social media k saath hoga. log fir se virtual world se real world mei ayenge kyunki log ab dheere dheere realize kar rahe hain virual world kitna fake aur polluted ho chuka hai aur real world hi 'real' hai. unfortunately social media ko 'fake', users ne khud banaya, khud ko 'brand' banane k chakkar mei warna concept noble tha. ye baat bhi sahi hai filhaal ye sab realize aur observe karne wale logon ki %age bahut kam hai aur jyadatar logon ki dimag ki batti abhi bhi nahi jali hai, jal jayegi. khud facebook aaye din reports release karta hai ki kitne crore accounts inactive hote ja rahe hain.
Ravish: thanks to social media I was able to complete my msc thesis on time recently. Halfway through the data gathering I found I needed more interviewees (my topic compared leadership challenges expats faced in two emerging economies). In panic I put a call for referrals on Facebook and another site called internations. I was surprised by the number of responses I got - some from friends I hadn't met since school (which is a long time back!). YouTube and LinkedIn too proved very helpful. All in all I was able to put together a near decent report thanks to social media. I stumbled upon your blog very recently while following the elections on tv - where I live I only get ndtv with an hour's slot or so in Hindi (rather than a separate channel). Living outside the country I often feel I relate less and less to it despite yearly visits - partly because of subtle shifts in my worldview and partly because India has moved on. Blogs such as this are very helpful - not only does it keep me in touch with reading hindi - it also makes me feel I can contribute to debates in the country at a rivetting time. kaash mein Hindi may likh paati - goodnight:)!
Kittaanaaaaa sochate hai .....maut ke kuue ki baat aachhi lagi..gyani logo shayad kuchh janane na mile..baaki social media awareness la sakata hai...aap jitana likhate ho itana to hum pure din me bhi nahi bolate..sachhi..
आपने इस लिख में इतनी बातें लिख दी हैं कि सिलसिलेवार टिप्पणी करूँ तो लेख जितनी लम्बा ही कमेंट हो जाएगा । हो भी गया था । इसलिए वो सब मिटाकर यहाँ (आखिर पारा में किये ) आपके मुख्य प्रश्न के जवाब के अलावा केवल दो और बिंदुयों पर कुछ कहना चाहूँगा।
(पैरा-१) "इस प्रक्रिया में…देखना बंद हो गया है"। मेरे हिसाब केवल देखना ही बंद नहीं हुआ है। बल्कि सुनना भी । हमने ख़ामोशी को सुनना बंद कर दिया है । ( इसे एक गुलज़ारीय जुमला मानकर दरकिनार किया सकता है , पर बात फिर भी वहीं रहेगी ) । यहाँ हर किसी को उम्मीद है कि तुरंत जवाब मिले। सारे जवाब मिले। उँगलियों की टिपर टिपर में, हमने ये समझ कहीं छोड़ दी है कि जवाब नहीं देना भी एक जवाब है । सोशल नेटवर्किंग ने हमें बात करने के कई माध्यम दिए हैं, पर शायद ये चुप रह जाने वाला, छीन लिया है।
(पैरा -२) "नदी होने का भ्रम पाले हम सोशल मीडिया के छोटे छोटे कुएँ में रह रहे हैं "। शायद शुरू से ही वादा, कुआँ बनने या बनाने का ही था। कहीं गलती हमारे समझने में तो नहीं हुई ? सोशल मीडिया के बिना हम कौन से सूनामी नदी बने बह रहे थे ? कुछ थे, और वो बहते रहेंगे। हम जैसे कुओं में कभी कभार अपना पानी भी छलका देंगे। कोई उससे खुद को नदी मान बैठे तो न गलती नदी की है न पानी की। अब फर्क इतना है कि जहाँ पहले केवल अपने कुएं के मेढक की आवाज़ सुनाई देती थी। अब १००० किलोमीटर दूर बैठे मेढक को भी हम अपनी टरटराना सुना सकते हैं ।
अब आते हैं आपके मुख्य प्रश्नों पर ...
"कहीं हम पहले से ज्यादा अकेले नहीं हुए हैं "- मेरे पास इसका कोई ठोस जवाब नहीं । अनुमान लगाना हो तो कहूँगा हम पहले से ज़्यादा अकेले नहीं हुए हैं , पर उस अकेलेपन को महसूस ज़्यादा कर पा रहे हैं। (ठीक वैसे ही जैसे दूर से आई चिट्ठी पढ़कर या आया फ़ोन पर बात कर के - हम लिखने/बोलने वाले की आवाज़ या उसकी यादों के पास चले जाते हैं। और फिर मिनटों में वही नज़दीकी, वास्तविक दूरी का /हमारे खालीपन का एहसास दिला जाती है।)
"कहीं हम अपने जाने हुए को ही तो नहीं मथते रहते हैं …जानने और न जानने के बीच की यात्रा करते रहते हैं ।" ये मेरे हिसाब से एक individualistic बात है । सबका अपना अपना जवाब होगा। पर सोशल मीडिया के होने (या न होने से) उस जवाब के बदलने की सम्भावना कम ही लगती है । जो अपने ईको चैम्बर में रहते हैं वो पहले से ही वहीं हैं । हाँ सोशल मीडिया ने वो चैम्बर ज़रा बड़ा कर दिया है । (हम उस चैम्बर में हैं या नहीं , इस बात का हमें इल्म है या न नहीं, ये अलग बात है ) । उसी तरह, जिनमें पहले से जानने , समझने की उत्सुकता थी , उनके लिए अब मौकें बढ़ गए हैं। मैं भी २-३ साइट /आर्टकिल से ज़्यादा नहीं पढ़ पाता। पर बिना ट्विटर/फेसबुक के शायद वो भी पढ़ना मुश्किल ही था। शायद ये ब्लॉग भी ।
(अपनी सिमित समझ से ऊपर केवल उन्हीं बातों पर कहा है , जिन पर प्रश्न किया गया था या जिन पर मुझे कुछ अलग कहने का मन हुआ। ऐसा हरकिज़ ना लगे की मेरे लिए सोशल मीडिया आलोचना से पर है। लेख में कही अधिकतर बातों से मूलतः सहमत ही हूँ। बाकी कुछ बातें जैसे प्रोजेक्शन,आदि बहुत विस्तार का विषय है। इसलिए यहाँ उसपर कुछ नहीं लिखा। )
i feel the same.....bus shabd nahi hote aapke jaise vyakt karne k liye.....kai baar lekin mahino k liye is kuyen se nikal bhi jata hoon....par pata nahi kya sammohan hai k JAHAJ K PANCHHI ki tarah fir wapas is social media k sansaar me aa jata hoon...behtarin lekh sir...
सही कह रहे है। धीरे धीरे लोग सोशल मीडिया के चंगुल में घिरते जा रहे है।
सहमत | इस लेख के लिए शुक्रिया !बहुत दिनों से लग रहा था आप इसके बारे में कुछ लिखें | हम सब की हालत एक सी ही है....
Ravish Bhaiya Pranam,
Kya baat hai ye chunaavi chakallas ki thakaan hai ya kuchh aur. In sabhi baaton ka saar ek hi hai ki ati har cheez ki buri hoti hai. Aur ham sabhi kai baar bina jaane hi atiyon ka shikaar ho jaate hain. Lekin maine apne liye ek tareeka nikaala hai ye jaanne ka ki main is ati ka shikaar ho raha hoon ya nahin. Aur jaise hi mujhe lagta hai ki mein ati tak pahunch raha hoon mein usse door hone ki koshish karta hoon. Aur ye tarika main aapko bhi bata raha hoon agar aapko pasand aaye aur aap par bhi kaam kar jaaye to. Jab bhi aap ko mahsoos ho ki ab zyada ho raha hai to 5 minute ke liye us cheez ko chhodkar shaant baithiye aur kuchh mat sochiye agar aap aisa kar paate hain to abhi safe hain aur agar wohi cheez poore samay aapke dimaag mein chalti rahe to samajhiye ki ab ati ho chuki hai. Phir kuchh din us cheez se khud ko alag kariye aap vaapas laut aayenge.
regards
इस 'सोशल-नेटवर्किंग' के सामाजिक-उधेड़जाल में खुद को उलझाना भी बेहतर रहा. इसका स्वाद चखा, और चखा, चखते रहे और अब जब अघा गए हैं तब सामाजिक(असल)-स्थली याद आने लगी हैं. अब समझने लगा हूँ कि क्यूँ पिताजी हर ३ महीने में हफ्ते भर के लिए गाँव-खेत-खलिहान और रिश्तेदारों से मिल आते थे. अब स्वयं भी उसी राह पे हूँ लेकिन निश्चित तौर से 'असल सामाजिकता का ज्ञान थोडा पहले ही आ गया है!और इसके लिए सारे सारे सोशल-चिरकुटिंगस्थलियों को कोटि-२ धन्यवाद!!!'
*मानसरोवर भी जायेंगे क्या?
This podcast talks about the same issue.
https://soundcloud.com/pranav-sisodia/serious-shit-with-pranav-sisodia-episode-has-facebook-taken-over-our-lives
Mera to typical gharelu aurat jaisa anubhav me SM achcha lagta hi .Jyada to aata nahi hi, Do logo Ka aapka ur Chetan Bhagat Ka blog pad leti hu.
Remote jaldi hath nahi aata isliye twitter se din duniya Ka khabar Jan leti hu.
FB thoda khas hi. Chuki aapke pas ek celebrity status hi isliye aapko log jyada pyar ur pareshan dono karte hi.
FB par bhi jyadatar purane dost ur rishtedar hi hai. Aachcha lagta hi sabhi kisi se mil nahi pati par sabki khabar bina puche milte rahta hi. Ek dam se anjan vyakti ke sath na ke brabar hi dosti karti hu agar hui bhi hi usko verify karne ke bad.
Ek distance friend hona bhi achcha hota hi jaha bina purvagrah ke bate ho jati hi.
Sabse achcha lagta hi FB me block karne ka option. Sahi kah rahi hu kisi faltu aadmi ko block karke jo ruhani sukh milta hi na wo bata nahi pa rahi hu.
Friend request bhi nahi conform karke empowered feel hota hai ,lagta hi chalo ek duniya to hi jise kafi had tak apne marzi se jiti hu.
Mobile Internet ho jane ke wajah se kam ke sath ye bhi ho jata hi
SIR JI padh kar aisa lga ki bahut dino se ye baat aap kahena chah rahe the par elections ne roka tha .
CHANGES ARE FOR GOOD
Mera ek dost ne ek baar bola thaa..
Face book is glamour brought to aam admi... ye lekh padh kar mujhe laga uski baat kaafi hadd tak sahee hai
आपके इस ब्लॉग पोस्ट से काफी प्रभावित हुआ हूँ। आज ही पिछले छह सालो से चल रहा फेसबुक अकाउंट डीएक्टिवेट कर दिया है।
सोशल नेटवर्किंग की समस्या यह है की इसमें सच संवाद हद से ज्यादा हो गया है। चुनाव दौरान काफी गहमा गहमी थी, पर नतीजे आने के बाद तो जैसे एक युद्ध सा पनपने लगाया है। काफी कोशिश की अपने अपने आपको इस से दूर करने की पर असफल रहा।
अंत में यही सोचा की कमबख्त फेसबुक को दूर करना ही बेहतर होगा। थोड़ा हल्का महसूस कर रहा हूँ। उम्मीद है दोबारा वापिस नहीं जाऊंगा।
अच्छा लगा पढ़ के.मै इस मठ का नया जोगी हूँ.पता नहीं मठ का उजाड़ किया या नहीं. हम वही सुनते या मानते हैं जो सुनना या मानना चाहते हैं.सोसल मीडिया आपके व्यक्तित्व या ज्ञान को विस्तार नहीं देता ऐसा मेरा मानना है. अगर आप अवसाद से ग्रसित हैं तो इसका इस्तेमाल करना चाहिए. व्यक्तिगत अनुभव बता रहा हूँ. साइबर दुनिया ख्यालों की एक वास्तविकता है.
आज का सच तो यही है ..... अपने आप दूर और दुनिया भर के पास ...पढ़ना लिखना सब गुम सा हो गया है ....
Ishq ki dasstan hai pyare......... apni apni zaban hai pyare...........
जब पूरा जगत की काल्पनिक है तो सिर्फ सोशल मीडिया को दोष क्यूँ ? आप ही कहते हैं न सब माया है । यह सिर्फ और सिर्फ एक दौर है गुजर जायेगा अपने आप बगैर किसी प्रयास के ।
Sir have you watched this video
http://m.youtube.com/watch?v=Z7dLU6fk9QY&ctp=CAIQpDAYACITCL_Q3sv9xL4CFYWaqgoduFQAzlIHbG9vayB1cA%3D%3D&guid=&hl=en-GB&client=mv-google&gl=IN
सबसे पहले तो रविश आप बहुटी aबहु, बहुत अच्छेस is हो म आपके सारे ब्लॉग्स पद्धति हु मेरी mummy भी पढ़ती है आपके ब्लॉग सच में सोचने कोमजबूर कर dete हक़ी ..........और आपने सही कहा सोशल मेडिक ने लोगों की ज़िन्दगी बदल दी है हर तरह अच्छे किये भी और बुरे के लिए भी ...रिश्तों क MayeNe बदल दिए है सोशल मीडिया ने ...यहाँ किसका चेहरा असली है और किसकानकली कह नहीं सकते पर iss डर से इसे गलत कहना नाइंसाफी होगी .......ये हमे नयी दुनिया देता है देखने का एक नजरिया देता है पर बहुत कुछ ले भी ले भी लेता आज के बच्चे फैमिली से dur हो गए ह शायद सब सोच्नर का ह अच्छा होता jo हर कोई हर बात के लिए खुद से सवाल करता .....कोई भी काम हो अगर आप खुद के लिए कर रहे हो तो वो सही ह पर अगर वो काम आप किसी को दिखने क लिए कर रहे हो यो गलत ह ............आपने इतनी बार मेढंक की बात की है तो एक कहानी याद सा गयी अच्छी कहानी ह जीने का मकसद दे सकती है .....एक बार एक मछली समुन्दर से निकल कर एक कुएं में चली gayi और वहां एक मेढंक था उससे मछली ने पूछा , की क्या तूम्हे पता है समुन्दर कित्ता बड़ा होता ह तो मेंढक ने kahA नहीं .....मछली बोली बहुत बड़ा होता है ,मेंढक ने अपना हाथ फैला कर बोला इत्ता बड़ा हप्ता है ?मछली ने कहा नहीं इससे भी बड़ा फिर मेंढक ने कुए के तरफ दिखा कर कहा की एक कोने से दूरसरे कोने तक इत्ता बड़ा होता है .. मछली ने कहा नहीं इससे भी बड़ा होता है मेंढक ने कहा तू झूठ बोल रही है इसके आगे कोई दुनिया ही नहीं है ,
Dono hi apni jagah sahi the pr wo medhank kabhi samundar me nahi ja skta jb tak wo kalpna nahi krta .....
Sikke ke do pehlu hote h sikke k ek tarf jo likha wo dusri taraf nahi likha hota to hm us sikke ko fek to nahi dete haan zarurt h dono side se dekhne ki ........
Unhi likhte rahiye or hme bhi mouka dete rahkye likhna ka
Jai hind
Kuch achha na lage yaaa dusron k karan se preshan hokar apni 6 saal ki duniya ko chhor dena sahi ni hota shayd wajah jaane bina ..........zarurt hoti h pta krne ki ki wajh kya kch samay k liye bnd krn or hmssha me frk hota h ........
Ye meri apni opinion hai maaf kijiyega agr bura lga ho pr 6 saal ki duniya ko alvaida kehna kisi or k karn se sahi bhi to ni
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