लप्रेक

फ़ासले ऐसे भी होंगे...ये कभी सोचा न था..सामने बैठा था मेरे और वो मेरा न था । गुलाम अली की आवाज़ में यह ग़ज़ल चुपचाप तैरती जा रही थी । वो पूर्वी दिल्ली की तरफ़ देखे जा रही थी और वो क़ुतुब मीनार की दिशा में डूबते सूरज को देख रहा था । दोस्त होकर भी वो दोस्त नहीं लग रहे थे जैसे दिल्ली होकर भी दिल्ली नहीं लग रही थी । बीच बीच में हरे और संतरे रंग की डीटीसी की बसें शहर को काट कूट किये जा रही थीं । उसने मन बना लिया था । पीछा करना प्यार नहीं होता है । मैं उसकी 'मेरी' नहीं हूँ । ग़ज़ल पूरी होने लगी थी । गुलाम अली गा रहे थे....रात भर पिछली ही आहट कानों में आती रही...झाँक कर देखा गली में कोई भी आया न था...वो अपने तमाम ख़तों को ख़ंजर में लपेटे चला जा रहा था । उसके साथ बिताये हर पल का हिसाब जोड़े जा रहा था । जैसे कोई आशिक पूर्वी दिल्ली और पश्चिमी दिल्ली में प्रेम का गुना भाग कर रहा हो । इश्क़ साँस लेने के लिए है । नाक में दम करने के लिए नहीं । 

7 comments:

प्रवीण पाण्डेय said...

मौन की खाई में सब डूब जाता है।

Unknown said...

bahut sahi ravish Sahab..USA me baith ke bhi hum aapka prime time or yeh blog padna nahi bhoolte...Aur bahut bahut padhai ho aapko Journalist of the year award paane ki..App sahi maine me yeh deserve karte hai

Unknown said...

Sir ji aap ka andaj thoda deshipan liye hue hai or aaj har koi deshi like karta hai becoz is angrejiyat se bor ho chuka hai isliye aap famous ho.true

Arun sathi said...

satik,,,

Arun sathi said...

satik,,,

sachin said...

फेंडास्टिक !!! आखिर लाइन कातिलाना है !
कुछ देर पहले ही, एक मेलबॉक्स को देखकर उसके बारे में कुछ लिखा है: http://inchoateexpressions.blogspot.com/2013/08/blog-post_3.html

कौशल लाल said...

हर बिखरे अक्छर को यु करीने से न सजाओ
कोई अर्थ निकल आयेगा
हम फिजा में ऐसे ही तैरते है
अब मंजिल को हमारी तलाश है.…। सुन्दर लप्रेक ……।