चश्मे बद्दूर


कुछ फिल्में पैसा वसूल होती हैं। डेविड धवन को फालतू फिल्म बनाने के फन में कोई मात नहीं दे सकता। वे फालतू फिल्म भी इतनी दिलचस्प बना देते हैं कि स्पाइक हेयर कट वाली नौजवान पीढ़ी सिनेमा हाल में गर्लफ्रैंड की बाहों से निकल कर कभी कभी एकाध सीन देखकर हंस हंस कर लोट पोट होती रहती है। कहानी कुछ भी नहीं पर वही हमारे आपके जीवन में कुछ होने और कुछ न होने पाने और कुछ हो जाने के बाद न होते रहने की जद्दोजहद है। डेविड की यह फिल्म सिनेमा के संसार ने जो मानस तैयार किया है उसके भीतर उन्हीं सिनेमा के किस्सों से किस्सा रचती है। यह भी एक ज़माना है जब आप सिनेमा के लिए सिनेमा से ही कहानी प्रसंग और गाने ढूंढ कर लाते हैं। चश्मे बद्दूर का नायक विश्वजीत और जॉय मुखर्जी का हाइब्रीड परंतु खूबसूरत है। उसकी आवाज़ में कयामत से कयामत तक वाले आमिर की तरह कशिश और मासूमियत तो नहीं है पर डब की हुई बनावटी आवाज़ की शक्ल में भी नायक नई हवा की तरह लगता है। नायिका इमरान खान की पहली फिल्म जाने तू जाने न की जेनेलिया की तरह लगती है। कमसिन नायिका ने अच्छा अभिनय किया है। कुछ है नहीं उसके जीवन में जिससे उसका अभिनय का कैनवस बड़ा होता । फिर भी अपने साधारणपन और खालीपन के बीच वो बाप से बगावत करने के हास्यास्पद सीन के बाद काफी कुछ कर जाती है। डेविड ने सिनेमा के कई दौर और लोकेशन को अपनी कहानी में पिरो दिया है। छात्रों का कमरा उसी संसार का एक नमूना है। सीन और प्लाट नितांत साधारण हैं पर किरदारों ने धक्का मार दिया है। पुरानी चश्मे बद्दूर का अतीत भी मत ढूंढने जाइयेगा। चमको पावडर होने और फारुख शेख का ज़िक्र होने के बाद भी दीप्ति नवल वाली बात नहीं मगर ये जोड़ी भी उस जोड़ी से कम नहीं है।

चुटकुलों और मुहावरों को फिर से परिभाषित करते हुए डेविड एक की जगह दो या दो की जगह तीन लगाकर मुहावरों में नई जान डाल देते हैं। ऋषि कपूर अपने इस दौर में खूब जमते हैं। जैसे कोई अपनी कहानी में बूढ़ा और परिपक्व हो गया हो। लिलेट की प्रतिभा का हिन्दी सिनेमा ने कम ही इस्तमाल किया। पता नहीं क्यों लिलेट हमेशा हाशिये के रोल में रहती हैं। आवाज़ में जो ख़राश है और खूबसूरती कुछ इस तरह कि उन्हें जूली जैसी फिल्मों की सुलोचना बनते हुए दुख होता है। ऋषि कपूर आज के टाइम के डेविड हैं। गोवा का लोकेशन बैंकाक जैसा लगता है। डेविड ने फिल्मी सपनों के सारे परिदृश्यों और संवादों की जो पिटाई की है उससे पैसा वसूल हो जाता है। फिल्म देख सकते हैं । समझने के लिए कि क्या बात है कि जिस सिनमा हाल में ये फिल्म देख रहा था उसमें ज्यादातर किरदारों की उम्र के ही नौजवान थे। वे लोटपोट हो रहे थे। रद्दी मुहावरों और हास्यास्पद हिन्दी वाला किरदार हिन्दी सिनेमा कई बार आया है। शराबी में मीता बच्चन साहब नत्थू राम के शर की वज़न ही ठीक करते रह जाते हैं। इस फिल्म को देख सकते हैं। बस पैसा वसूल के लिए। किसी सामाजिक उद्देश्य और सिनेमा में क्रांतिकारी मोड़ को ढूंढने के लिए नहीं।

9 comments:

Kumar Harsh said...

बहुत दिनों से आप के ब्लॉग पर आ रहा था...

इस उम्मीद में कि कुछ पढ़ने को मिलेगा....

पर आप ट्विटर और FB से गायब हुए तो लगा कि अब शायद ब्लॉग पर भी कभी नहीं आयेगे...

पर करीब 50 दिनों बाद आप के अन्दर के एक "सिनेमाची" का लेख हमें क़स्बा पर क्या मिला हमारे चेहरे पर एक मुस्कान आ गयी.......

मेरे जैसे एक-आध क़स्बा वालो के लिए क़स्बा पर आते रहा करिए रवीश जी.......

Mahendra Singh said...

Dhanyawad Bus abhi nikal raha hoon.

Unknown said...

na gaane ache. na film ki kahani achi. phir kesa pesa vasool???

Unknown said...

na gaane ache. na film ki kahani achi. phir kesa pesa vasool???

Unknown said...

Ravish g chasmebaddor ki sahi aalochna ki aapne,jab mai apka blog padh rha tha,tab mughe kuch yu mehsoos hua ki aapne mere andar chal rhi goodh bato ko chhin kar blog ke roop me sabke aage parosh diya ho,baharhal,yhi pehchan hai ek mange hue patrakar ki,jo aalochna sateek kare

Unknown said...

‘’ रीमेक का ज़माना है भाई , ओरिजिनल काहे ढूंढें रे मन ‘’
रीमेक पे रीमेक , जिसने ओरिजनल देखा उसे रीमेक में आनंद काहे और कैसे आयेगा , या फिर सब कुछ बेच चुकने के बाद अखबार की रद्दी पर आखरी दाँव लगाते से व्यापारी की हालत हो गई है , अरे भाई ऐसा-वैसा कुछ है तो बोलो ना , देश की जनता के चंदे (टैक्स) से बहुतेरे अरबपति हो गए , काहे संकोच करते हैं , भाई देखिये रेणु, महादेवी , प्रेमचंद, निराला, पन्त जैसे मनीषियों के साहित्य पर फिल्म बनाना तो आपके बस की बात नहीं, उसके लिए कलेजा चाहिए ठेठ-हिन्दुस्तानी होने का और वो तो आप पर जमेगा नहीं , स्टैण्डर्ड लो होने के झटके का हृदयाघात में बदलने का डर जो है , अब ‘’नदिया के पार’’ जैसी साफ़-सुथरी फिलम बना के आप काहे हम देशी-ठेठ-गंवारों में अपना नाम लिखवायेंगे , ये बात अलग है की इस देशी फिलम का हर गाना हर एक के मन में आज भी गुनगुनाया जाता है | चलिए जाने दीजिये जादा बातें करेंगे तो आप नाराज हो जायेंगे,,,....राधे-राधे....---चलते-चलते वो तो सेंसर-बोर्ड है वरना @#$%^&***.......?
क्या कारण है की भारत की प्रत्येक भाषा में साहित्य का विपुल भण्डार होते हुए हमारे माननीयों को कॉपी-पेस्ट पर जिंदगी बितानी होती है ?

Unknown said...

‘’ जींस और स्कर्ट से परिभाषित होती योग्यता ‘’ ?
लीजिये फिर उछाल दिए गए जुमले पे जुमले कि बाँध को ...... से भर दें क्या ,
एक कंपनी ने फरमान जारी कर दिया जींस और स्कर्ट का , पंगा तो होना था सो मोहतरमा ने चिपका दिया झन्नाटेदार थप्पड़ न्यायालय में जा कर (सही कदम सही वक्त पर उठाते हुए ) .. कई बार सोचता हूँ वैसे तो बड़े अकल्मन्द बनते हैं उल-जलूल नियमों के निर्माता, पर थप्पड़ खाए बिना ये भी नहीं मानते , क्या अंतर है मय में धुत्त सड़क पे पड़े पियक्कड़ में और इन में , या फिर जीन्स और स्कर्ट की बिक्री का भी कोई दांव है, एलोपेथी की वितरण प्रणाली की तरह .....हद है जीन्स और स्कर्ट में योग्यता ढूंढी जा रही है ? फिर तो उनकी योग्यता तो सदैव प्रश्न ही रहेगी जिन्हें जिंदगी भर ये ध्यान नहीं रहा की कोन से और कैसे कपडे पहने जाने हैं नयनाभिराम सुन्दरता का प्रतीक बनने के लिए और इसी अनिभिग्यता के सहारे उन्होंने अपने आप को महा-मानव बना दिया . धन्य है ये कार बनाते हैं अन्यथा जाने कैसा ड्रेस-कोड लागू करते .अरे भाई रंग बता दो वो जायज है , सामान्य रूप से किसे किस ड्रेस में सुविधा है इस पर दादागिरी तो अनुचित ही है .. राधे –राधे राम मिला दे अब तो ..

Unknown said...

स्वयं से संघर्ष जो लगभग 4 वर्ष पूर्व किया , जैसा महसूस किया उन पलों में वैसा लिख दिया , कह तो किसी से सकता नहीं था पर पता नही क्यों रवीश जी आप से कहने का मन हुआ तो कह रहा हूँ
‘’’’ संघर्ष स्वयं से “”
अपनी ही नज़रों से गिराने लगा हूँ , हर पल में अब मरने लगा हूँ
शब्द-शब्द सच बोलना अब झूठ होता गया , कमीना-बेईमान में सिद्ध होता गया
बेईमान ही हो जाऊं तो बेहतर ही होगा, सच के जलने का गम तो ना होगा
क्यों कर लाश सच की ढोता रहूँ, क्यों कर सच में हर पल मरता रहूँ
खोखला कितना अब हो चुका है मन , सच बोलने से भी अब डरता है मन
सच में जीना अब बदतर जो हो गया, मरना ही बेहतर अब हो गया
अपनी ही शक्ल आईने में अब गन्दी लगने लगी है,
नफ़रत अब ईमानदारी से क्यों होने लगी है ,
दोष किसी का नहीं जमाने में अभय , तुम तो हो अनफिट समय में अभय
सच बोल के जीना चाहते हो, यमराज के द्वारे जिंदगी चाहते हो
मर जाओ तब ही तुम जी पाओगे , क्योंकि मार तो तुम वैसे भी दिए जाओगे
झूठ तुम बोल सकते नहीं , सच ज़िंदा कभी रहता नहीं
दर्द का समंदर पीना होता है , सच को जीने में ये तो करना ही होता है
कर्म कितना भी सच्चा कर लो , दुनिया यकीं सच पे कभी ना करेगी
दुनिया है दर्द वही तो वो देगी ,
दर्द दे के दुनिया मांगती है प्यार , कैसे बताएं हम तो कब के मर चुके यार
हमारे मरने पे भी यकीन रहा न दुनिया को, कहती है दुनिया तुम तो बड़े छलिया हो यार |

प्रवीण पाण्डेय said...

देखकर आये, आनन्द आ गया।