घंटी कौन बजाता है?

बड़ी हसरत से घंटी लगवाई थी। नया घर खरीदा तो लगा कि स्थाई पता हो गया है अब स्थायी और अस्थायी मित्र आया करेंगे और घंटी बजाया करेंगे। दोपहर में जब गहरी नींद में रहूंगा तो कितनी देर तक कोई दरवाज़ा पीटेगा। नहीं सुनाई दिया तो बेचारा लौट न जाए। इसलिए अच्छी घंटी लगाई। बैटरी वाली घंटी ताकि बिजली नहीं रहने पर भी घंटी बजती रहे।

घंटी बजी ही नहीं। चार साल में कोई आया ही नहीं। जो भी आया बुलाने पर और तय वक्त से दस मिनट आगे पीछे ही आया। ऐसे लोग बिना घंटी बजाए ही अंदर आ गए क्योंकि उनके आने के वक्त निगाह दरवाज़े पर ही रही। इस बड़े शहर में पार्टी के बिना कोई आता भी नहीं। पुराने शहर पटना में एक मोहल्ला था। आस पास के लोग बीस साल से एक दूसरे के साथ रहते चले आए थे। कभी भी किसी भी वक्त कोई आ जाता था। नींद से जागकर बातें होने लगती थीं। चाय बनने लगती थी। सिर्फ चाय। इतने के लिए ही लोगों का आना जाना रहता था। अब तो शराब,मांस और पकवान की मांग होती है फिर भी आधे लोग नहीं आते।

ऐसा नहीं है कि कोई नहीं आता। वो नहीं आते जिनके आने का इंतज़ार रहता है। दोस्त अब एसएमएस ही करते हैं। दफ्तर वाले ही दोस्त बच गए हैं। जिनके ईमान बदल जाने की संभावना हर वक्त बनी रहती है। एक ही जगह तेरह साल नौकरी में कई बार लोगों का ईमान बदलते देखा है। इसलिए वहां कोई दोस्त न हुआ। एकाध दोस्त हैं भी तो लोग इस बात से परेशान रहते हैं कि दोस्त क्यों हैं। बहुत कुछ दांव पर लगा कर दोस्ती बचानी पड़ रही है। लिहाज़ा ज़्यादातर से राजनयिक संबंध अच्छे ज़रूर हैं। जिनसे हुई मुलाकात के तुरंत बाद झूठी मुस्कुराहट के कारण फैले जबड़े का दर्द गहरा हो जाता है। जिंदगी के जो पहले के दोस्त थे वो अब नहीं आते।

कोई पड़ोसी ऐसा न हुआ जो वक्त बेवक्त आ जाए। खुद कोशिश की,अचानक घर में घुस जाने की तो पड़ोसी औऱ उसकी पत्नी अलबला जाते थे। क्योंकि सभी को एक खास अंदाज़ में लोगों के सामने खुद को पेश करने की आदत लग गई है। पटना के मोहल्ले में लुंगी गंजी में चाचा जी चले आते थे। कहते थे अरे आज का पेपर देना। पीछे वाले घर की चाची आ कर बीस रुपया पकड़ा देती और फरमान जारी कर देती थीं कि ज़रा अंटा घाट से पांच किलो पालक ला देना। हम सायकिल से चले भी जाते थे। अब तो कोई कुछ कहता भी नहीं। कहने से पहले सौरी और नहीं करने पर भी सौरी।

इतनी शिकायतें इसलिए की क्योंकि मेरे घर की घंटी नहीं बजती है। भला हो पेपरवाले का,केबल वाले का,कूड़ा वाले का,दूध वाले का और होम डिलिवरी वाले का। ये न होते तो घर की घंटी ही न बजती। दरअसल अब मेरी ज़िंदगी में यही वो लोग हैं जो मेरे घर आते हैं। बाकी लोगों को हम बुलाते हैं। आने और बुलाने का फर्क गहरा हो गया है। घंटी बेकार ही टंगी हुई है। बहुत साल तक किसी को घर नहीं बुलाया कि अगर बुलाने पर लोग आएंगे तो इस बेचारी घंटी का क्या होगा। कौन बजाएगा इसे? लेकिन घंटी तभी नहीं बजी। सुबह से लेकर रात तक हर वक्त ऐसा लगता है जैसे दोपहर का वक्त हो। कोई नहीं आएगा इसका घोर आश्वासन रहता है। आने वाले वक्त में घरों से घंटियां उतार कर नाले में बची गंगा में प्रवाहित कर दी जाएंगी। और लोग एक घर का कर्ज चुकाने के बाद शहर के किसी माल में एक कमरा किराये पर लिया करेंगे। दुकान के लिए नहीं,ड्राइंग रूम के लिए। ताकि बाज़ार आया दोस्त मुलाकात तो करता जाए। आखिर यह क्यों ज़रूरी हो कि किसी घर के सारे कमरे एक ही जगह पर गुच्छे की तरह मौजूद हों। ऐसा होगा तभी तो घर वाला एक कमरे से दूसरे कमरे में जाने के लिए घंटी बजाया
करेगा। बाहरवाला तो कभी आएगा नहीं।

29 comments:

नीलिमा सुखीजा अरोड़ा said...

रवीशजी, घर का पता एसएमएस कर दीजिएगा कभी किसी दिन हम लोग ही आ धमकेंगे। वैसे अब दिल्ली जाते हैं तो ये सोचते हैं कि किसी दोस्त के घर की घंटी बजाने पर वो परेशान तो नहीं हो जाएगा। अगर आप परेशान न हो तो हम भी आ सकते हैं।

सुशील छौक्कर said...

रवीश भाई,
घर का पता बता दिया होता, हम ही घंटी बजा आते। खैर आपने मेरे दिल की बातें कह दी। हमे तो दोस्ती कहीं मिलती नही। जब दोस्ती की हूक सी उठती तो उसे किताबों और कल्पनाओ मे ढूढ लेते है। एक अच्छी रचना पढवाने के लिए धन्यवाद।

Rajesh Roshan said...
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umesh chaturvedi said...

रवीश,
दोस्त अब एसएमएस ही नहीं करते , मेल का जवाब भी नहीं देते। उसमें से तुम भी शामिल हो।
उमेश चतुर्वेदी

Rajesh Roshan said...

यही मिजाज है शहर का. यह शहर नही सहरा होता जा रहा है

Sarvesh said...

बहुत सहि रविश जी. शहरी भाग दौड का नतिजा है ये. ऐसे हि दिन प्रतिदिन कि घटनाओ को लाते रहिये.

ravishndtv said...

उमेश भाई

मेरे साथ फोन या तो हाथ में होता है या कान में होता है। मैं हर एसएमएस का जवाब देता हूं। फिर भी चूक हो गई हो तो माफी चाहूंगा। वैसे जवाब देने में मेरा रिकार्ड काफी ठीक है।

sarokar said...

रवीश जी,
अद्भुत!आने और बुलाने का फर्क, दिल्ली और पटना का फर्क है। माल में ड्राइंग रूम एक अच्छी कहानी का प्लाट है। इंप्रोवाइज करें।
अजीत द्विवेदी

डॉ .अनुराग said...

शुक्र है आपके मोहल्ले के बच्चे शरीफ है घंटी नही बजाते है....कोई बात नही कभी कभी घर आते जाते आप बजा ले ...घंटी को भी अच्छा लगेगा....

आभा said...

मुझे भी पता चाहिए ,दुख समझ रही हूँ ठीक से,अरे कुरियर वाला भूल गए क्या
व्यस्त जीवन मे किस को फुर्सत हैं , देखिए इतने लाइन मे धंटी बजाने के लिए खड़े हैं।..

Madhukar said...

Sadbhav to ganv ya purane shaharon me hi hote hain, ye visthpiton ka shahar ban gaya hai, koi roji roti k liye pada hai to koi vilasita ki talash me. aapne jo bhi likha vo isliye ki blog par kuch to naya dena hi hai, varna jyada ghanti bajne se aap ki bhi tyori aane vale k liye sikud hi jayengi. esa na ho to address de dijiye, fursat se mulaqat bhi ho jayegi.

Udan Tashtari said...

आज के एकाकी मशीनी जिन्दगी का सुन्दर चित्रण.

अनूप शुक्ल said...

बड़ा तकलीफ़ देह नजारा है। कोई बिना बुलाये नहीं आता।

Smriti Dubey said...

समय परिवर्तनशील है और बदलाव समय की मांग लेकिन इस मांग की कीमत इतनी बड़ी होगी इसका कभी अंदाज़ा भी नहीं लगाया होगा हमने।
आपका ये आर्टिकिल पढ़कर मुझे एक कहानी स्मरण हो आयी the banyan tree.जिसमें उस समय की झलकियॉ पेश की गयी हैं जब घर के बड़े-बुर्ज़ग एक पेड़ के नीचे पूरा दिन देश-विदेश की चर्चाएं करते गुज़ार दिया करते थे।
आज किसी करीबी दोस्त के यहां जाने से पहले अपॉइन्टमेन्ट लेना पड़ता है नहीं तो वो भी बुरा मान जाता है। क्योंकि रवीश जी घण्टी बजने का इंतेज़ार करते आपके यहां भी शायद कोई पूर्व सूचना के आ धमके तो आपको भी एकबारगी बुरा ज़रूर लगेगा।

Madhukar said...

kabhi kisi ko mukammal jahan nahi milta.
kahi zamee to kahi aasma nahi milta.
jise bhi dekhiye vo apneaap me gum hai,
zuban mili hai magar humzuban nahi milta.

उमाशंकर सिंह said...

स्मृति की बात से मैं सहमत हूं... दरअसल घंटी ना बजने को लेकर बेशक हम किसी और को दोषी ठहरा दें... लेकिन हमारी घंटी ना बजने के पीछे हम भी उतने ही दोषी हैं। पटना क्या हम तो मधुबनी से चल कर दिल्ली आ गए...मधुबनी में तो घंटी भी नहीं होती थी... लगवाया भी था तो लोग लोहे की गेट बजा दिया करते थे... या दरवाजे तक पहुंच घुंडी खटखटा देते थे.. उनके गेट खोलते ही भरी दुपहरिया में हमारी भी नींद खुल जाया करती थी, कह देते थे कि बाबूजी तो कचहरी में ही हैं... तब तो मोबाईल फोन भी नहीं होता था कि आने वाले पूछ ले हलो वकील साहब कहां हैं. आज भी बाबूजी को लैंड लाइप पर ही ज़्यादा भरोसा है... कहते हैं कि टॉवर कब बंद हो जाए पता नहीं... तार तो जुड़ा रहेगा। खैर... पर दिल्ली में हमारी नींद और दरवाज़े दोनों ही संवेदनहीन से हो गए हैं। मन करता है कि रवीश जैसे संवेदनशील इंसान के घर जाउं... पर बेतार के फोन पर वो भी समय के मारे और तार तार नज़र आते हैं। हम मन मार कर उनके इंतज़ार में अपनी ही घंटी की तरफ टकटकी लगाए रह जाते हैं। आखिर बेवक्त...बिना बुलाए वो भी तो कभी ना आए...

Unknown said...

रवीश जी, हम त बगलवे में रहते हैं, जब कहियेगा घंटी बजा के भाग जायेंगे...

akhilesh sharma said...

घंटी नहीं घंटा चाहिए
रवीश. आज का ज़माना घंटी का नहीं घंटे का हो गया है. सब सोए पड़े हैं. चाहे दोस्त हों या फिर कथित दोस्त. दुश्मन भी सो चले हैं. दुश्मनी का भी मज़ा नहीं रहा. ज़ोर लगाने से ही खुलता है हर दरवा़ज़ा तो किसी दरवाज़े को खुलवाने के लिए घंटी नहीं घंटे की ज़रूरत है.

अपने घर में मुग़ल दरबार की तरह बादशाही घंटा लगवा लो. ज़ोर से बजेगा तो तुम्हारी तो क्या सारे अपार्टमेंट की नींद खुल जाएगी. जहां गार्ड रूम है वहीं पर ये बड़ा सा घंटा लगाया जाए. बजाने के लिए चार लोगों की ज़रूरत पड़े. और जब घंटे की स्वर लहरी गूंजे तो पूछो मत, वैशाली से लेकर कौशांबी और फिर वसुंधरा तक सारे अपने कानों पर हाथ रख लें.

वैसे घंटी मैंने भी लगवाई लेकिन जिस दरवाज़े पर लगवाई उसे हमेशा के लिए बंद कर दिया. अब पिछले दरवाज़े को खुला रखा है. अब घंटी बजती भी है तो आने वाले को बोलता हूं भैय्या पीछे के दरवाज़े से आओ.

Priyankar said...

हम बदल रहे हैं . हमारी इच्छाएं बदल रहीं हैं . पर कुछ इच्छाएं हैं कि बदलना ही नहीं चाहतीं . और हमें बिना बात एक गृहविस्मार -- एक नॉस्टेल्ज़िया -- से भर देती हैं . जबकि वह समय हाथ से झर चुका है . रेतघड़ी को उलटने से भी कुछ होने वाला नहीं है . हमने यह बेचैनी जानते-बूझते बहुत भारी ईएमआई का भार लेकर बरसों-बरस के लिए मोल ली है . अब घंटी न दरवाजे की बजती है,न दिल में . पर 'दिल है कि मानता नहीं' क्योंकि 'दिल ही तो है' .

कुमार आलोक said...

umesh bhai shayad aap galat kah rahe ho jawab dene main ravish jee ka ricord bahut achha hai. main aaj tak mila nahee hoon, lekin unhone har sms kaa jawab diya hai....haa yeh baat aur hai ki hamane unse request kiya thaa apane blog main : jatiyata ka mahabharat padhane ke liye lekin lagataa hai woh bhool gaye.

Unknown said...

रवीश भाई,

दील्ली तो महिने मैन २ बार आना होता है, अक्सर ये सोच कर आता हु कि आप से मीलुगा, लेकिन फीर वहा आकर वहि डर सताता है कि अगर आप व्यस्त होंगे तो, और तो के सहारे ही वापस गुजरात लोट जता हु...लेख पढके आप के घर आनेका पक्का मन बना लिया था...लेकिन कोमेन्ट पढके लगाकि फिलहाल आप के घर बहुत मेहमान होंगे...और हा हम उमेश भाई के साथ है...

प्रबीनअवलंब बारोट

JC said...

Agar pehle suna nahin, ya dhyan mein nahin aya, to janlo ki pakshi ki tarah chahchahana, dhol peetna, aur ghanti bajana – ye teeno kam – ‘Shaitan’ Shani (Sudershan-chakra-dhari Vishnu) ki pehchan hein.
Abto angrezon ko bhi pata chal gaya hai, kintu adhunik Hindu nahin janta ki mandiron mein, yani jahan Bhagwan ho sakte hain (ya hote the kabhi), ghanti kyon lagayi jati hai anadikal se…aur damroo ya dhol kyun peete jate hein…(“Dhol, ganwar, kshudra pashu (aur nari)* ye sab tardan ke adhikari” – Tulsidas)

*deleted

Amit said...

ravish ji aa

Krishna Kumar Mishra said...

raveesh

Krishna Kumar Mishra said...

Raveesh ji you are doing a good job, write some informative articles.

सुबोध said...

जिंदगी में अब इंतजार के अलावा कुछ नहीं बचा रवीश जी...दोस्तों का इंतजार..अपनों के साथ खुशी से एक दिन बिताने का इंतजार...जब मेरे यहां पहली बार घंटी लगी थी...तो कुछ लड़के जून की दोपहरी में बजाकर भाग जाया करते थे...लेकिन अब उनके पास भी फुरसत नहीं है...सब बड़े हो गए हैं पैसे की बाते करते हैं मोटी मोटी सैलरी का इंतजार करते हैं...

Ritu Raj Gupta said...

रवीश जी,
बड़े ही आदर के साथ जानना चाहूंगा कि जो पीड़ा आपने व्यक्त की है ... क्या आपने वो जुर्रत किसी के साथ करने की कोशिश की है ... एक तो बार की है तो बार- बार कीजिये ... और बड़े शहरों की पटना जैसी संस्कृति के रंग में रंग दीजिये ... ताकि लोग जाने की बेवक्त घंटी बजने का क्या सुख है ...

Sarabjit Singh said...

thnax for reminding us that we are still humans...

Unknown said...

paanch saal baad comment karne ke liye maafi chahti hoon. khaali waqt me aapke puraane blog padhna achha lagta hai, lagta hai puraani diary ke panne palat rahee hoon.
bahut gahri baat kah dee aapne halke-halke me, padhkar ek azeeb sa khaalinpan mahsoos hua.
India se hazaron km door yahan Australia me PhD kar rahee hoon, chhpta sa ghar hai, ghanti bhi hai, par koi nahi bajata, koi bewajah nahi aata;kabhi kabhi koi plumber ye mechanic aa jaaye to achha lagta hai.
bahut azeeb hai ye, bade-bade iraadon ne zinadgi se chhoti-chhoti khushiyan chhen lee hai. jidhar dekho, manners se lipe-pute polite log nazar aate hain...
kher, agar aapka pata mil jaaye to main (aur bhi kaye log) ghanti bajane ko tatpar hain :)

bahut umda likhte hain aap, bas likhte rahiyega.