दाग़, ग़ाज़,शर्मसार और जंगल राज

आपने कभी दाग़ लगी वर्दी को धुलते देखा है? क्या आप जानते हैं कि वर्दी पर दाग़ लगने के बाद उसका क्या होता है? या फिर वर्दी पर दाग़ लगना इतनी असमान्य घटना है कि जब कोई सिपाही किसी को पीट देता है तो वह वर्दी पर दाग लगा बैठता है। हम हिंदी पत्रकार कुछ मुहावरों को लेकर इमोशनल हो गए हैं। उन्हें छोड़ते ही नहीं है।पुलिस या अपराध की स्टोरी पर एक न एक बार वर्दी पर दाग़ लगा ही देते हैं।इसका अतिरेक इस्तमाल सर्फ एक्सेल को उत्साह से भर देता होगा कि जब इतनी वर्दियां दागदार हो रही हैं तो उनका प्रोडक्ट ख़ूब बिकेगा। अख़बार या चैनल सब की भाषा में दाग़ लगना एक भयंकर घटना है। पुलिस कुछ भी कर ले वर्दी पर दाग लगने से नहीं रोक सकती। भगवान जाने इतनी दाग लगी वर्दी पहनते कैसे होंगे? उसी तरह पुलिसिया कहर,पुलिसिया ज़ुल्म का ज़िक्र भी हर पुलिस की ख़बर के साथ आता है। शुक्र है हम दाद खाज और खुजली का इस्तमाल नहीं करते वरना शब्दों और उनसे बने वाक्यों को एक्ज़िमा हो जाता।


एक और मुहावरा है। इंसानियत हुई शर्मसार। तो क्या हुआ? इंसानियत ने कुछ किया ताकि उसे आगे से शर्मसार न होना पड़े। फिर भी हम लिखते हैं कि भीड़ की करतूत से इंसानियत शर्मसार हुई। क्या किसी ने इंसानियत को शर्मसार होते देखा है? ठीक उसी तरह से क्या किसी ने गाज़ गिरते हुए देखा है? पत्रकारों की भाषा में गाज़ मंत्री, अफसर और पुलिस पर ही गिरती है। आमतौर से इन्ही तीन वर्गों पर गाज़ गिरती है। इसका इस्तमाल इतना अधिक हो गया है कि सुन कर ही लगता है कि गाज़ गिरना कोई बड़ी बात नहीं। कल की भी एक स्टोरी में किसी मंत्री पर गाज़ गिर गई थी आज की स्टोरी में मायावती के अफसरों का गाज़ गिरी है। पता नहीं यह गाज़ कहां अटकी होती है जहां से गिर जाती है तो ख़बर बन जाती है। क्या बिना गाज़ गिराये किसी अफ़सर के तबादले की ख़बर नहीं लिखी जा सकती? एक और मुहावरा है मासूम का। बच्चों की स्टोरी में मासूम शब्द खूब आता है। मासूम पर अत्याचार। मासूम का छिन गया बचपन। हर बच्चा मासूम होता होगा। क्या बच्चों का पर्यावाची शब्द मासूम भी है? मुझे हिंदी कम आती है इसलिए जानना चाहता हूं कि आख़िर किस मजबूरी में इस तरह के शब्द हमारी ख़बरों और ख़ासकर हेडलाइन्स का हिस्सा बनती रही हैं।

एक और है स्थिति है जंगल राज की। यह जंगल राज भी ख़ास राज्यों के संदर्भ में प्रयुक्त होता है। जैसे बिहार में कोई बैंक लूट ले तो ख़बर बनेगी बिहार में जंगल राज। दिल्ली में इसी तरह की घटना की ख़बर में जंगल राज का इस्तमाल नहीं होता। कम से कम उत्साही पत्रकार यह लिख ही सकते हैं कि दक्षिण दिल्ली में भी बिहार वाला जंगल राज आ चुका है। माया का जंगल राज। शुक्र है कि और शायद यह मेरा मौलिक दावा है कि केंद्र सरकार के संदर्भ में अभी तक किसी पत्रकार ने जंगल राज का इस्तमाल नहीं किया है। क्योंकि उन्हें लगता होगा कि जंगल राज की कोई केंद्रीय व्यवस्था नहीं होती। वरना एक हेंडिग हो सकती है- मनमोहन का जंगल राज। हिमाचल प्रदेश में अपराध की घटना के संदर्भ में हम जंगल राज का इस्तमाल नहीं करते। जबकि वहां बिहार से अधिक पेड़ होंगे।

एक और शब्द है जिसे लेकर हिंदी के पत्रकार पीढियों से भावुक होते रहे हैं। इंसाफ, कानून और अन्याय। हिंदी का पत्रकार सब बर्दाश्त कर लेगा कानून और इंसाफ से छेड़छाड़ मंजूर नहीं है। कब मिलेगा इंसाफ़,ये अंधा कानून है,कानून की करतूत। अन्याय का अंत। सभी पत्रकार की यह ख़्वाहिश होती है कि इंसाफ़ जल्दी मिले। कम से कम हिंदी के पत्रकारों ने हमेशा यही चाहा है।

और हां मैं मां की ममता का ज़िक्र नहीं कर रहा हूं। यह मेरे लिए बहुत टची मामला है। बल्कि सभी पत्रकार मां की ममता को लेकर सामान्य भाव से इमोशनल हैं। इसका इस्तमाल करें। कम से कम मांओं को तो बुरा नहीं लगेगा। गुस्सा तो तब आता है जब कोई मां अपने बेटे को मार दे। हमें बर्दाश्त ही नहीं होता जिसके पास ममता है वो हत्या कैसे कर सकती है? क्या मां लोगों की ममता में बदलाव आ रहा है। इस पर एक लाइफस्टाइल सर्वे होना चाहिए। जब से ममता क्षमता में बदल गई है और मांएं नौकरी करने लगी हैं,ज़रूर उनकी ममता वैसी नहीं होगी जैसी हिंदी के पत्रकारों ने देखी है।

हिंदी पत्रकारिता में किसी स्थाई अनुप्रास संपादक की ग़ैर मौजूदगी में शब्दों के साथ अत्याचार हो रहा है। ज़माने से शब्दों पर दाग़ लगाए जा रहे हैं और शब्दों को शर्मसार किया जा रहा है। बार बार शब्दों पर गाज़ गिरती है और शब्दों की मासूमियत छिन जाती है। पत्रकारिता में शब्दों के इस जंगल राज का सफाया कब होगा भाई। बोर हो गए हैं। लगता है बहुत दिन से निर्मल वर्मा बनने की चाह और आह लिये साहित्य का मारा कोई शख्स हिंदी पत्रकारिता में प्रवेश नहीं किया है। वरना वही हिंदी को बदलने की ठेकेदारी में इन सब शब्दों को फेंक देता।

12 comments:

Girindra Nath Jha/ गिरीन्द्र नाथ झा said...

दाग़, ग़ाज़,शर्मसार और जंगल राज के अलावा दो और शब्दो पर भी प्रकाश डालते

- गौरतलब है कि
- दरअसल

Rajesh Roshan said...

सुबह सुबह जब ऑफिस आकर वायर पर ख़बर देखता हू तो कही गाज और कही तबादला. गाज उन पर गिरती है जिन्होंने बहन जी, नीतीश जी या ऐसे ही जी वालो या मैडम को नाराज कर दिया. गाज अमूमन एक या दो पर गिरती है. तबादला तो भाई एक भी हो सकते हैं और दर्जन भर भी.

जैसे आप माँ को लेकर टची हैं मैं बच्चो के मासूमियत को लेकर टची हू. बचपन हमेशा मासूम होता है और वही बच्चे मासूम भी कहलाते हैं.

बात करते हैं जंगल राज की, अभी ८- ९ महीने पहले दिल्ली में एक चैनल के पत्रकार को पुलिस ने पीट दिया, चैनल पर चलता रहा दिल्ली में जंगल राज. अभी वो चैनल अपने नाम से चल रहा है. घटना बंगला साहिब की थी.

पक तो मैं भी गया हू. निर्मल वर्मा की चाह तो मुझे भी है. लेकिन पत्रकार ऑफिस में चलने वाले शर्मा जी, मिश्रा जी, झा जी के स्कूल से निकलते हैं और उन्ही की बोली बोलते हैं. अपनी अपने शब्द गढ़ते हैं तो आँखे तरेरी जाती हैं.

मुमकिन है नुक्ता लगाने वाले चैनल पर कोई नुक्ता न लगाये तो वह भी तरेरी जाती होंगी!!!!

Smriti Dubey said...

देखा जाय तो पत्रकारिता के लिए इससे बड़ी विडम्बना और क्या होगी कि उसके पास गिने-चुने सौ-दो सौ शब्दों की डिक्शनरी रह गयी है जिसका इस्तेमाल वो उसी बंधी-बंधायी परिपाटी में धड़ल्ले से कर रहा है।
शायद अब एक पत्रकार भी डर गया है, बाज़ारवादी हो गया है और बहती गंगा में हाथ धोने पर आमादा।
लेकिन अब पत्रकारिता को भी फिल्टर करने की ज़रूरत है।

JC said...

“Laga chunri mein dag chupaoon kaise/ Jake babul se nazrein milaoon kaise...”

Maanv shareer ke under sthapit Brahma dwara rachit atma ke ath ansha ya bhag her ek chakra mein kendrit mane gaye: (Durga roop mein asht-bhuja-dhari, ya phir Vishnu aur Shiva, dono ke, char char hath, jo kul mila ker ath bante hein – ek disha ke liye ek)… Nadbindu Vishnu athva Nirakar parmatma, Yogeshwar, ko ‘kshirsagar’ ke Madhya mein, sanketik chinha saman jaise, ‘sheshanag’ dwara rache palang/ bister per soya hua dikhaya jata raha hai. Yeh darsharta hai Vishnu ka bank balance, shesha anant shakti, sampoorna brahmand banane ke baad bhi, kintu mooladhar se jurda hote hue bhi her ek ko uplabdha nahin – atma mein mail ke karan, chunri mein lage dag jaise, aur Kaliyuga mein police wale ki vardi per bhi!

JC said...

“Hath kangan ko arasi kya?”
Dharati per arambh mein vriskshon ke jungle ke raja Shersingh ka raj hota tha kabhi… Aaj concrete ke jungle ne un junglon ki jagah leli hai aur sabke samne uska Kaliyuga athva maile Kal ka satya khula perda hai…sher bhi jaan ki bheek mangte ghoom rahe hain - sher bhale hi aadmi ko chhord de, aadmi nahin chhordega unhein yadi wo hamari sarhad mein ghus aye to (kintu shayad atankvadi ke roop mein parivarti sher ki atma ko asani se nahin rok payega!)…

Sunil Kumar Singh said...

शब्दों की गरिमा की रक्षा पत्रकारों को भी करनी चाहिए, यह भार सिर्फ़ साहित्यकारों पर छोड़ना ग़लत होगा। पत्रकारों की वज़ह से शब्दों की गरिमा प्रभावित हो रही है ।

Sarvesh said...

Very good analysis Ravishjee. Initially we used to give attention to these words but now it appears common except Jangal raaj in Bihar. First time I am seeing a journalist coming out heavily on stereotyping of Bihar for Jangal Raaj. Its unfortunate that Bihar is unnecessarily dragged in many news and this gives bankruptcy of journalist's thoughts.

सुशील राघव said...

रवीश जी लेख काफी अच्छा है लेकिन आप शायद कुछ शब्दों को भूल गए। जैसे कांड (अग्निकांड, हत्याकांड, थप्पड़कांड आदि ), झटका, गले की फाँस, शिकंजा, खुलासा, पानी फिरा, मेहरबान आदि। ये शब्द भी शायद आपको तंग करते होंगे। मुझे भी काफी परेशान करते हैं, लेकिन बिना इनके काम भी नहीं चलता। हेडिंग में बिना इन शब्दों के जान नहीं आती।

JC said...

Ek aur aam istemal hone wali line yad agayi, vartman ki rajniti or netaon se sambandhit, jo NDTV mein kai bar suni thi, “Hamam mein sare nange!”

TV kr prachar ke karan, ya smaya ke prabhav se, jo pehle nange nahin the wo bhi ab ho gaye hein shayad!

Ram N Kumar said...

रवीश जी आपने सही लिखा लेकिन दाग तो दाग ही होता है. पत्रकार भाई लोगो को बिहार और बिहारी मे जंगल राज ही दिखता है. एक से एक नरसंहार सबको पता है जो की हर जगह होता है...लेकिन वह जंगल राज की परीभासा मे नही आता...
बिहार मे सारे मीडिया वालो को चटपटी ख़बर मिलती है..एक बार गलती से मैंने आईबीएन सेवेन के एक सीनियर पत्रकार का ईमेल देख लिए था,,उसमे राजदीप ने लिखा था.."We can get maximum TRP by having sensational news from Bihar and Kashmir."

क्या यही पत्रकारिता रह गई है..क्या यही पत्रकारिता की इंसानियत है की एक मासूम प्रदेश को और उसमे रहने वालो लोगो को प्रतरित किया जाए...सोचना होगा हमे.......

JC said...

Kintu yeh to man-na pardega ki ‘Bihari’, Ishwar saman, sarva-vyapi hai, kewal Bharat mein hi nahin varan Mahabharat mein bhi – Mauritius mein, Trinidad & Tobago ityadi mein! Aur, Ishwar ko bhi aj koi nahin manta – jan-ne ka to prashna hi nahin uthta!

JC said...

Moorkhata Raja karte hein, per gaz adhiktar girti hai garib per hi!