
नूझ लैनलों और बकबारों ने फार्मूला वन निरक्षरता को दूर करने में जो उल्लेखनीय योगदान दिया है,उसकी सराहना करनी चाहिए। इससे साबित हो गया कि मीडिया बेलमुंड ज्योतिषियों के सहारे अंधविश्वास फैलाने में ही नहीं, अत्याधुनिक और विलासी गेम के लोकप्रचार में भी योगदान कर सकता है। बारह झंडे से लेकर ग्रिड गर्ल्स और कब पेन्चर ठीक होता है यह सब जानकारी अभी तक आपके भीतर ठूंस दी गई होगी। इस अतिकुलीन गेम को हिन्दीवालों ने अपनी बाज़ार विरोधी कुंठा के बाद भी नहीं छोड़ा है। ग्रां प्रीं नोएडा साउथ दिल्ली में नहीं हैं। वो हिन्दी बेल्ट है। हम कार साक्षरता के लेवल टू में पहुंच रहे हैं। हम आल्टो और नैनो चलाने वाले देश नहीं रहेंगे। सब कुछ टीआरपी के लिए नहीं होता। यह जनकांक्षा और लोकचेतना के प्रसार में उठाया गया कदम है। बस हिन्दीवालों को महान चालकों का साक्षात्कार नहीं मिल सका। जल्दी ही मुगलसराय का कोई ड्राइवर जब इन कारों पर बैठेगा वो पहले इंग्लिश स्टुडियो से निकलने के बाद हिन्दी स्टुडियो ज़रूर आवेगा। चलो ग्रां प्रीं नोएडा चले।

चंडोक साहब का इंटरभू भी छपा है कि नब्बे हज़ार करोड़ के कारोबार की संभावना है और पचास हज़ार रोज़गार की। ऐसी जनउपयोगी प्रतियोगिता का हर हाल में समर्थन करना चाहिए। महंगाई के दौर में महंगे शौक के विस्तार में लोकपक्षीय मीडिया ने ज़बरन अपितु ज़बरदस्त भूमिका निभाई है। नूझ लैनलों के ग्राफिक्स एनिमेशन से ट्रैक का जो रा-वनीय रूपांतरण हुआ है वो ग़ज़ब है। एंचर फार्मूला वन के एनिमेटेड कार में बैठे दनदना रहे हैं। बिना हेल्मेट के। यह एक अद्भुत समय है। हिन्दी लैनलों ने एक अतिकुलीन खेल को अतिसाधारण बना दिया है। टायर खोलकर और ईंजन का नट भोल्ट दिखाकर यकीन करा दिया है कि भाई लोग ट्राई करोगे तो इसका भी जुगाड़ बन सकता है और मेरठ रोड पर दौड़ सकता है। रही बात करोड़पति चालकों के ड्रेस की तो वो फैन्सी ड्रैस की दुकान से आ जाएगी। जब जुगाड़ टेक्नोलजी से बनी फार्मूला वन कारें ग्रां प्रीं नोएडा से गुज़रेंगी तो दो सौ करोड़ की फार्मूला कारों को चिढ़ाया करेंगी। देखो भाई लोग हमने तो पुराने पंप सेट से मोटर और क्वायल निकालकर ही फार्मूला वन बना ली है। काठ की सीट है और आल्टो कार की टायर। बेकार में विजय माल्या भाई टशन दे रहे थे।
अगर हम इसी तरह से बढ़ते रहे तो वो दिन दूर नहीं जब अगले साल गढ़ गंगा के मेले में भी फार्मूला वन रेस होगी। अभी तक हम मौत का कुआं से ही काम चला रहे थे। मारुति एट हंड्रेड की खिड़की से हाथ निकाल कर दिल दहला देने वाले आंचलिक शूमाकरों को हमने कभी नायक नहीं बनाया। मगर याद कीजिए, कैसे सांसें रूक जाती हैं, कैसे उनकी कार की रफ्तार से निकलने वाली ज़ूं ज़ूं फूं फूं की आवाज़ तीनों लोक में गड़गड़ाहट पैदा करती है। बल्कि हम शान से कह सकते हैं कि हमारे देश में भी फार्मूला वन की देसी परंपरा रही है। ज़माने से रही है। आज भी बची खुची हुई है। इस फार्मूला वन रेस के लोकप्रिय होते ही हम मौत का कुआं को एंटिक पीस के रूप में प्रजेंट करेंगे और दिल्ली हाट में प्रदर्शन करा कर लोककलाओं के संरक्षण का राष्ट्रीय पुरस्कार हासिल करेंगे। मौत का कुआं सड़कों पर फैलकर ट्रैक हो गया है। शूमाकर भाई को मौत का कुआं में ले जाओ, पता चलेगा। बल्कि जल्दी ही किसी नूझ लैनल को मौत का कुआं लाइव दिखाकर दर्शकों की सतायी आंखों में रोमांच पैदा कर देना चाहिए। टीआरपी मिलेगी। बराबर मिलेगी।