शहर के एकांत का विराट रूप है 'लंच बाक्स'

हमारे रिश्ते भी किसी शहर से कम नहीं । रिश्तों के किस हिस्से में क्या घट रहा है और क्या घटने वाला है हम उसमें रहते हुए भी नहीं हमेशा नहीं जानते । फिल्म लंच बाक्स देखते देखते अपने और शहर के भीतर के किसी ख़ालीपन से गुज़रने लगा । जब भी किसी मोड़ पर तेज़ी से मुड़ती हुई गाड़ी की छत पर रखे लंच बाक्स का दृश्य आता था लगता था कि छत की रेलिंग पर खुद हम बैठे हैं । निर्देशक ने बड़ी ख़ूबी से छत पर रखे लंच बाक्स का मानवीकरण किया है जैसे किसी नए रिश्ते से जुड़ कर हवा में बाँहें फैला रहा हो । फड़फड़ा रहा हो । शहर कभी भरता नहींंं है । ख़ाली ही करता है । जितना भरता है हम उतना ही ख़ाली हो जाते हैं । 

हम सब महानगरों की भीड़ के एकांत में जी रहे हैं । ज़िंदगी और शहर सब एक पैटर्न है । फ़िल्म के किरदार साजन फ़र्नांडिस की ज़िंदगी की तरह ।  हमारी ज़िंदगी की तरह । रघुवीर सहाय की कविता की तरह । 

देखो शाम घर जाते बाप के कंधे पर 
बच्चे की ऊब देखो, 
उसको तुम्हारी अंग्रेज़ी कह नहीं पाएगी 
और मेरी हिन्दी भी कह नहीं पाएगी
अगले साल 

फ़र्नांडिस की ज़िंदगी में एक लंच बाक्स भटक कर आ जाता है । बस यहीं से कहानी पर्दे पर घटने लगती है और सामने बैठे हमारे भीतर । ईला की ज़िंदगी में शुक्रिया की बजाय शिकायत की चिट्ठी आती है । फिर दो चुपचाप लोग बातें करने लगते हैं । एक दूसरे को देखे बिना खुलने लगते हैं । दोनों अब बात करते हैं । दरअसल बात करने से ही शहर का घड़ा भरता है और ज़िंदगी का एकांत । ईला और फ़र्नांडिस के बीच लंच बाक्स संवाद का ज़रिया बनता है । फ़र्नांडिस और ईला । ईला और फ़र्नांडिस । कभी तीखे खाने से तो कभी खाली बर्तन से । शहर के सीलन भरे कोने और एकांत जी उठते हैं । काई जमी दीवारें और टूटे फूटे सामानों से भरी बालकनी और ये जो है ज़िंदगी का पुराना वीडियो । वीएचएस टेप । इस सीरीयल के बहाने अपनी पत्नी की मौत के कई साल बाद फ़र्नांडिस उसकी फ़ितरत को समझते हैं । एक ही सीरीयल,वही प्रसंग और बार बार हँसना । कुछ नहीं बदलेगा तब भी हमें बार बार हँसना ही होगा । उसी बात पर । 

मुंबई की बोरियत की बेचैनी को जिस तरह से इरफ़ान ने अपने चेहरे पर जज़्ब किया है वो अदभुत है । फुटपाथ पर एक पेंटर का रोज़ एक जैसी तस्वीर बनाने का रूपक ग़ज़ब है । उन तस्वीरों पर छोटे छोटे बदलावों को नज़दीक से ग़ौर करना शहर के प्रति हमारी नज़र और समझ को उकसाता है । फ़िल्म के दृश्य किसी ठहरे हुए पानी की तरह है जिसके नीचे गहराई में कितना कुछ चलता है । दरअसल यह शहर के एकांत का विराट रूप है । लंच बाक्स एक बेहतरीन फ़िल्म है । 

निम्रत कौर ने ईला का किरदार खूब निभाया है । ईला की रसोई की खिड़की और ऊपरी माले पर रहने वाली आंटी के बीच संवाद का प्रसंग आप देखते हुए मुंबई के निराकार संबंधों में चले जाते हैं । जो अपनी टोकरी, सामान और पुराने टेपरिकार्डर से 
बात करती हैं । बस ऊपरी माले से भारती अचरेकर की आवाज़ ही आती है । कभी आदमी की आवाज़ निराकार हो जाती है तो कभी आवाज़ एक आदमी । और वो पंखा । उफ्फ! निर्दशेक ने कमाल का स्केच खिंचा है । छोटे छोटे इतने प्रसंग हैं कि उन पर लिखते हुए इस फ़िल्म पर एक और फ़िल्म बन सकती है । 

यह फ़िल्म ठहर कर देखने की मांग करती है । न फ़िल्म चीख़ती है न कलाकार । देखते देखते आपसे बात करने लगती है और अचानक से चुप हो जाती है खूब हंसाती भी है । सलमान शेख़ के रूप में नवाज़ुद्दीन का किरदार और उनका अभिनय बेजोड़ है । नवाज़ हमारे सिनेमाई शहरों का एक घूमता फिरता क़स्बा है । गाँव है । कोई पुराना मोहल्ला है । मैंने सऊदी देखा है ! पांच सितारा होटल के पोर्टिको में खड़ी महंगी कारों के बीच नवाज़ किसी आटो की तरह घुस आता है । भड़भड़ाते हुए । इरफान अब महानगर हो चुके हैं । इतनी गहराई में उतर जाते हैं कि पर्दे पर इरफ़ान को देखना मुश्किल हो जाता है । हमेशा फ़र्नांडिस ही नज़र आते हैं । किरदार का असर ऐसा था कि फ़िल्म के बाद हाथ मिलाते वक्त लगा कि इस इरफ़ान को तो जानता भी नहीं । हाँ फ़र्नांडिस को जानता हूँ जो हम सबके भीतर है । ईला की भूमिका निभाने वाली निम्रत कौर की जितनी तारीफ़ की जाए कम है । वो बिल्कुल हमारे जैसी है । हमारी सहयोगियों और सखियों की तरह, घर और दफ्तर में ऊबी हुई । नहीं ऊबी हुई नहीं । साॅरी । बात करने की तड़प में कुछ कहने की तलाश करती हुई । कहने के लिए कितना कुछ है । हम कहते ही नहीं । जो कहना चाहिए हमेशा उसे न कहने की सतर्कता हमारी और उनकी बातों को बोझिल करती हैं । लंच बाक्स एक आइडिया है । अचानक और किसी अजनबी से बात करने का । 

फ़िल्म में भूटान का ज़िक्र आता रहता है । हम सब अपने भीतर एक दूसरा शहर रखते हैं । जिस शहर में रहते हैं उसके एकांत का विकल्प एक दूसरा एकांत । भूटान । कई बार लगता है कि इस शहर से जाना चाहिए । वहाँ जहाँ इससे तो कुछ अच्छा हो । हम सब शहरी अपनी घोर असुरक्षा के बीच एक काल्पनिक सुरक्षा रखते हैं । बैंक के लाकर की तरह । इस समीक्षा को पढ़कर नहीं लगेगा कि फ़िल्म की बात कर रहा हूँ । पर लंच बाक्स का मक़सद भी यही है कि हम फ़िल्म के बाद फ़िल्म की कम शहर के बारे में ज़्यादा बात करें । अपने रिश्तों के खालीपन का दरवाज़ा खटखटायें । इस फ़िल्म को दो बार देखियेगा । एक बार फ़िल्म के लिए और दूसरी बार इस फ़िल्म की तीन औरतों के लिए । इनके लिहाज़ से देखना और लिखना ज़रूरी है । कई बार लगा कि औरतों और शहर की ज़िंदगी में कुछ तो 'काॅमन' है । हर घर एक शहर है और हर शहर एक दफ्तर । हम सब उस दफ्तर की फ़ाइलें जिससे कभी प्याज़ की गंध आती है तो कभी उस घिन की जिससे आजा़द होकर अपने पति की मौत के बाद ईला की माँ पराँठें खाना चाहती है । लिलेट दूबे ने उस एक छोटे से प्रसंग में रूला दिया है । 


दरअसल लंच बाक्स हिन्दी सिनेमा के आज के स्वर्ण युग की एक फ़िल्म है । स्वर्ण युग हमेशा अतीत में घटा एक टाइम फ्रेम नहीं है जो कभी दोबारा घटेगा ही नहीं । वो घटता रहता है । कई बार । अक्सर ऐसी फ़िल्मों से । निर्देशक और इरफ़ान की हिम्मत की दाद दीजिये कि फ़िल्म रिलीज़ होने से महीना भर पहले दिल्ली के सिरी फ़ोर्ट में दिखा दिया कि लोग आलोचना करें तो करें मगर बात तो करें । ईला और फर्नांडिस की तरह । बिना कहानी बताये, बिना फ़िल्म दिखाये चैनल चैनल दौड़ने के इस दौर में यह साहस का काम है । एन एफ डी सी को भी बधाई । एक अच्छी फ़िल्म के निर्माण में आगे आने के लिए । आॅस्कर ? क्या पता शायद । पहले आप देखिये तो । हाँ आइटम सांग नहीं है इसमें । एक घंटे पचास मिनट की यह फ़िल्म जल्दी गुज़र जाएगी मगर देर तक आपके ज़हन मे ठहरने के लिए । शायद बीस सितंबर को भारत में रिलीज़ हो रही है । ऐसी फ़िल्मों को आप सपोर्ट नहीं करेंगे तो कौन करेगा । याद रखने लायक फ़िल्म है लंच बाक्स । 

23 comments:

प्रवीण पाण्डेय said...

इतने बड़े विश्व में अपने विश्व ढूँढने पड़ते हैं, हम सबको। यह फिल्म उन्हें समझने को प्रेरित करती है।

Unknown said...

Kamaal ki pakad hai aapki bhaasha par kya kya umda review rakha hai ke sunte hi dekhne ki man kare...critics bhi pade aur seekh le ke achi film kaise shabdo mein byan ki jaati hai. Hindi mein comment/tweet karna chahta hu but mobile format allow nahi karta isliye aisi hi hindi baat+english word hote hai...

deepakkibaten said...

प्रोमो देखकर ही बहुत कुछ अंदाजा हो गया था, आपके लेख ने उस अंदाज को और विस्तार दिया। शिद्दत से इंतजार है

Vidya visharad mishra said...

Batao na ek film aayi ar chali ja rahi h.. ar kisi ko(mujhe)pata b nai chala.. irfan sab ki film aisi hi hoti h...tahlka machati h fir hi prakash me aati h..
rahi bat ravish jee k lekhan kaushal ar abhivyakti kshamta ki..to is vishay me kuch kehna suraj ko diya dikhane ki tarah h..ant tah salam h film ar smikshak dono ko...

ajit said...

Naseeruddin shah, anupam kher, om puri jese kalakaron ki adakari ko ache se age badha rhe hai imran aur nawaj sir..
In sb kalakaron ki har film me kuch naya to hota hi hai.. Jo ek aam aadmi se juda hota hai..
#respect

ajit said...
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Unknown said...

इरफ़ान,अनुराग कश्यप,नवाज़,करण जोहर सारे एक साथ जुड़े है इस फिल्म से.. इस इंडस्ट्री मैं ऐसा rarely होता है... नायाब फिल्म.. नायाब रिव्यु.. शुक्रिया सर...

Arvind said...

praveen ki baat ek dum sahi hai , dhudne to padte hi hai, film ka promo dekha kal , lag hi gaya ki umda hogi . . . satyagrah bhi dekhiye prakash ne gangajal aur apaharan , shool me jo kaam kiya tha wo phir laut aaya hai rajneeti aur aarakshan jaise bure daur ke baad . . . apaharan ki samiksha ke intazaar me. . . .

Arvind said...

soory satyagrah ki samiksha ke intazarr me

कौशल लाल said...

इन्सान खुद से रिश्ता नहीं बना प् रहा शहर से क्या निभाएगा , लगता है फिल्म देखना पड़ेगा .....
लाजबाब समालोचना

Unknown said...

लंच बाक्स का प्रोमो फिल्म को देखने के लीए बेकरार करती है,
आप इस बेकरारी को बेचैनी मे बदल रहे हैं।इमरान मेरे हमेसा से पसन्दीदा रहे हैं,नवाज भी अब इस श्रेणी मे आ गये हैं।

Dr. Naveen Raman said...

http://www.youtube.com/watch?v=fCOXbcJBcnc
थैंक्स मां,शायद आपने देखी हो,अगर नहीं तो एक बार जरूर देखें.

Ajeet Kumar said...
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Manoj Vaishnav said...

Director pehle yeh film documentory banana chahte the magar yeh unke safal nirdeshan ka kamal hi hai ki non documentory movie hone ke baad bhi film ka sandesh sahi tarah se pahuncha hai aur film ko itne ache review mile hain. film manviya rishton ki samvedanshil kahani lagti hai. trailor dekhne ke baad se film ka intezaar tha magar aapki samiksha ke baad besabri se intezaar hai. film jarur dekhenge.

Unknown said...

महाबेशर्म इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के लिए नियम-कायदे उस समय बदल जाते है जब यह खुद गलती करता है. अगर देश का कोई भी मंत्री भ्रष्ट्राचार में लिप्त पाया जाता है तो ये चीख-चीख कर उसके इस्तीफे की मांग करता है लेकिन जब किसी इलेक्ट्रोनिक मीडिया का कोई पत्रकार भ्रष्ट्राचार में लिप्त पाया जाता है तो ना तो वह अपनी न्यूज़ एंकरिंग से इस्तीफा देता है और बड़ी बेशर्मी से खुद न्यूज़ रिपोर्टिंग में दूसरो के लिए नैतिकता की दुहाई देता रहता है. कमाल की बात तो यह है की जब कोई देश का पत्रकार भ्रष्ट्राचार में लिप्त पाया जाता है तो उस न्यूज़ की रिपोर्टिंग भी बहुत कम मीडिया संगठन ही अपनी न्यूज़ में दिखाते है, क्या ये न्यूज़ की पारदर्शिता से अन्याय नहीं? हाल में ही जिंदल कम्पनी से १०० करोड़ की घूसखोरी कांड में दिल्ली पुलिस ने जी मीडिया के मालिक सहित इस संगठन के सम्पादक सुधीर चौधरी और समीर आहलूवालिया के खिलाफ आई.पी.सी. की धारा ३८४, १२०बी, ५११, ४२०, २०१ के तहत कोर्ट में कानूनी कार्रवाई का आग्रह किया है. इतना ही नहीं इन बेशर्म दोषी संपादको ने तिहाड़ जेल से जमानत पर छूटने के बाद सबूतों को मिटाने का भी भरपूर प्रयास किया है. गौरतलब है की कोर्ट किसी भी मुजरिम को दोष सिद्ध हो जाने तक उसको जीवनयापिका से नहीं रोकता है लेकिन एक बड़ा सवाल ये भी है की जो पैमाना हमारे मुजरिम राजनेताओं पर लागू होता है तो क्या वो पैमाना इन मुजरिम संपादकों पर लागू नहीं होता? क्या मीडिया लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ नहीं है ? क्या किसी मीडिया संगठन के सम्पादक की समाज के प्रति कोई जिम्मेदारी नहीं बनती है? अगर कोई संपादक खुद शक के दायरे में है तो वो एंकरिंग करके खुले आम नैतिकता की न्यूज़ समाज को कैसे पेश कर सकता है? आज इसी घूसखोरी का परिणाम है कि इलेक्ट्रोनिक मीडिया का एक-एक संपादक करोड़ो में सैलरी पाता है. आखिर कोई मीडिया संगठन कैसे एक सम्पादक को कैसे करोड़ो में सैलरी दे देता है ? जब कोई मीडिया संगठन किसी एक सम्पादक को करोड़ो की सैलरी देता होगा तो सोचिये वो संगठन अपने पूरे स्टाफ को कितना रुपया बाँटता होगा? इतना पैसा किसी इलेक्ट्रोनिक मीडिया संगठन के पास सिर्फ विज्ञापन की कमाई से तो नहीं आता होगा यह बात तो पक्की है.. तो फिर कहाँ से आता है इतना पैसा इन इलेक्ट्रोनिक मीडिया संगठनो के पास? आज कल एक नई बात और निकल कर सामने आ रही है कि कुछ मीडिया संगठन युवा महिलाओं को नौकरी देने के नाम पर उनका यौन शोषण कर रहे है. अगर इन मीडिया संगठनों की एस.आई.टी. जाँच या सी.बी.आई. जाँच हो जाये तो सुब दूध का दूध पानी का पानी हो जायेगा.. इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में आज जो गोरखधंधा चल रहा है उसको सामने लाने का मेरा एक छोटा सा प्रयास था. मैं आशा करता हूँ कि मेरे इस लेख को पड़ने के बाद स्वयंसेवी संगठन, एनजीओ और बुद्धिजीवी लोग मेरी बात को आगे बढ़ाएंगे और महाबेशर्म इलेट्रोनिक मीडिया को आहिंसात्मक तरीकों से सुधार कर एक विशुद्ध राष्ट्र बनाने में योगदान देंगे ताकि हमारा इलेक्ट्रोनिक मीडिया विश्व के लिए एक उदहारण बन सके क्यों की अब तक हमारी सरकार इस बेशर्म मीडिया को सुधारने में नाकामयाब रही है. इसके साथ ही देश में इलेक्ट्रोनिक मीडिया के खिलाफ किसी भी जांच के लिए न्यूज़ ब्राडकास्टिंग संगठन मौजूद है लेकिन आज तक इस संगठन ने ऐसा कोई निर्णय इलेक्ट्रोनिक मीडिया के खिलाफ नहीं लिया जो देश में न्यूज़ की सुर्खियाँ बनता. इस संगठन की कार्यशैली से तो यही मालूम पड़ता है कि इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में तमाम घपलों के बाद भी ये संगठन जानभूझ कर चुप्पी रखना चाहता है.
धन्यवाद.
राहुल वैश्य ( रैंक अवार्ड विजेता),
एम. ए. जनसंचार
एवम
भारतीय सिविल सेवा के लिए प्रयासरत ADD ME

SARVENDRA VIKRAM SINGH said...

Dear Ravish Ji,
You have written words but I can sense real Ravish... Thanks a lot for the review, we shall surely see.

SARVENDRA VIKRAM SINGH said...

Dear Ravish Ji,
You have written words but I can sense real Ravish... Thanks a lot for the review, we shall surely see.

@aryaraju said...

धन्यवाद सर जी समीक्षा के लिए! जरूर देखेंगे!
एक विनती है आपसे, आपने मुझे ट्विटर पर न जाने क्यों ब्लाक कर दिया है, कृपया ध्यान दे !!!

Shashank dalela said...

Thanks Ravish Ji for this Awesome review. Aap bahut Lucky hain jo yeh movie Release se Pehle hi dekh li. Hum bh intezaar kar rh hain kab yeh movie release hogi aur ham sab is adbhut film ko enjoy kar payenge. Irrfan to kahi samay se bahut accha kaam kar rh hai so unk bare mai to kuch bh bola galat hoga.. Maqbool, Haasil,Rog, Metro, Paan Singh Tomar, Yeh sali Zindagi aur bh bahut movies mai wo apna kaamal dikah chuke hain.. But Sir we all should be very thankful to Anurag Kashyap also, jinhone hamein Nawaz jaisa Actor main lead mai dia warna wo Character Roles hi play karte reh jate agar GOW nh aayi hoti.. Industry aur hum sab ko Anruag Kashyap jaise Directors n Visionery ko support karna chayie jo apne juniors ko itna Encourage karte hai just like this one.. Ritesh Batra is his AD in past. Also we all should be thankful to UTV Moviews(SR Kapoor)and Dharma Production (karan Johar) to providing Big release this movie.

Shashank dalela said...

Thanks Ravish Ji for this Awesome review. Aap bahut Lucky hain jo yeh movie Release se Pehle hi dekh li. Hum bh intezaar kar rh hain kab yeh movie release hogi aur ham sab is adbhut film ko enjoy kar payenge. Irrfan to kahi samay se bahut accha kaam kar rh hai so unk bare mai to kuch bh bola galat hoga.. Maqbool, Haasil,Rog, Metro, Paan Singh Tomar, Yeh sali Zindagi aur bh bahut movies mai wo apna kaamal dikah chuke hain.. But Sir we all should be very thankful to Anurag Kashyap also, jinhone hamein Nawaz jaisa Actor main lead mai dia warna wo Character Roles hi play karte reh jate agar GOW nh aayi hoti.. Industry aur hum sab ko Anruag Kashyap jaise Directors n Visionery ko support karna chayie jo apne juniors ko itna Encourage karte hai just like this one.. Ritesh Batra is his AD in past. Also we all should be thankful to UTV Moviews(SR Kapoor)and Dharma Production (karan Johar) to providing Big release this movie.

Unknown said...

bhaiya bahut badiya jo aap har film dekhne ke lia time nikal pate ho aap 1 acche film samishak bhi ban sakte hai

Aanchal said...

फिल्म बेहतरीन तो है ही, साथ ही फिल्म देखके हम अपने साथ विस्मयादिबोधक चिह्न "!" लेकर आते है ! महानगर, उसकी औरते, सब कुछ ना कुछ तलाश करती हुई। ईला का चिट्ठी में हर बात लिख देना और फर्नांडिस का एक लाइन में जवाब देना। कैसे एक अजीब सी बस की कहानी लिखकर ईला को हंसा देना। फीलिंग्स को फिल्माना आसान काम नहीं, निर्देशक ने इन्हीं भावनाओं को परदे पर शानदार तरीके से दिखाया है।

Unknown said...

very nicely written article.. I could relive the time I watched this movie..though in more depths and with more awareness than I could comprehend at that time... The scene of Neela's father death was too stirring and made me write this http://clutter-uncluttered.blogspot.in/2013/09/lunch-box.html. Thanks for this amazing review :)