लप्रेक विद मुन्नी बेगम

तुम्हारे शहर का मौसम बड़ा सुहाना लगे 
मैं एक शाम चुरा लूँ अगर बुरा न लगे 
तुम्हारे बस में अगर हो तो भूल जाओ मुझे 
तुम्हें भुलाने में शायद मुझे ज़माना लगे 

किसी ऐसी ही शाम को चुरा लाये थे दोनों । अपनी अपनी पाबंदियों से । नादिरा उर्फ मुन्नी बेगम की गाई इस ग़ज़ल की तरह । वो उसके कंधों पर अपने ख़्यालों को रख धड़कनों को गिने जा रही थी । वो था कि हर गुज़र रहे लम्हों के हिसाब में मशरूफ़ ।   ऊब कर बोल उठी । हम इश्क़ में हिसाब बहुत करते हैं । हाँ । क्यों ? इसलिए कि कोई हमारी शाम चुराते वक्त तुम्हें न चुरा ले । इतना कहा ही था कि डीटीसी एक बस तेज़ी से दीवार में घुस गई । किसी को कुछ हुआ तो नहीं मगर वो समझ गई । 

मुझे अपने ज़ब्त पे नाज़ था
सरे बज़्म आज ये क्या हुआ
मेरी आँख कैसे छलक पड़ी 
मुझे रंज है ये बुरा हुआ 

मुन्नी बेगम की दूसरी ग़ज़ल बजने लगी थी । इस बार कंधे से सर उठा कर बोलने लगी । सुनो ! मैं तुम्हारा हाथ पकड़ सकती हूँ ? तुम प्लीज़ इस शहर को थाम लो । । 

ये मेरे ही शहर के लोग थे
मेरे घर से घर है मिला हुआ ....ग़ज़ल जारी है । 
( लघु प्रेम कथा ) 

2 comments:

tushar said...

ye sab to thik hai prabhu, lekin aaj kahan thy, aapke bina PRIME TIME ME MAZZA sorry AANAND nahi aata....

Shyamlal suthar nashik said...

Good verry good