आप कहां रहते हैं
महानगरों में आपके रहने का पता एक नई जाति है। दिल्ली और मुंबई जैसे बड़े शहरों में जाति की पहचान की अपनी एक सीमा होती है। इसलिए कुछ मोहल्ले नए ब्राह्मण की तरह उदित हो गए हैं और इनके नाम ऋग्वेद के किसी मंत्र की तरह पढ़े जाते हैं। पूछने का पूरा लहज़ा ऐसा होता है कि बताते हुए कोई भी लजा जाए। दक्षिण हमारे वैदिक कर्मकांडीय पंरपरा से एक अशुभ दिशा माना जाता है। इस पर एक पुराना लेख इसी ब्लाग पर है। सूरज दक्षिणायन होता है तो हम शुभ काम नहीं करते। जैसे ही उत्तरायण होता है हम मकर संक्रांति मनाने लगते हैं। लेकिन मुंबई और दिल्ली में दक्षिण की महत्ता उत्तर से भी अधिक है। दक्षिण मतलब स्टेटस। मतलब नया ब्राह्मण।
जब तक रिपोर्टर था तब तक तो लोगों को मेरे ग़ाज़ियाबादी होने से कोई खास दिक्कत नहीं थी। जब से एंकर हो गया हूं लोग मुझसे मेरा पता इस अंदाज़ में पूछते हैं कि जैसे मैं कहने ही वाला हूं कि जी ज़ोर बाग वाली कोठी में इनदिनों नहीं रहता । बहुत ज़्यादा बड़ी है। सैनिक फार्म में भी भीड़ भाड़ हो गई है। पंचशील अमीरों के पते में थोड़ा लापता पता है। मतलब ठीक है आप साउथ दिल्ली में है। वो बात नहीं । फ्रैंड्स कालोनी की लुक ओखला और तैमूर नगर के कारण ज़ोर बाग वाली नहीं है मगर महारानी बाग के कारण थोड़ा झांसा तो मिल ही जाता है। आप कहने को साउथ में है पर सेंट्रल की बात कुछ अलग ही होती है । मैं जी बस अब इन सब से तंग आकर अमृता शेरगिल मार्ग पर रहने लगा हूं। खुशवंत सिंह ने बहुत कहा कि बेटे रवीश तू इतना बड़ा स्टार है, टीवी में आता है, तू न सुजान सिंह पार्क में रहा कर। अब देख खान मार्केट से अमृता शेर गिल मार्ग थोड़ी दूर पर ही है न। सुजान सिंह पार्क बिल्कुल क्लोज। काश ऐसा कह पाता । मैं साउथ और सेंट्रल दिल्ली में रहने वालों पर हंस नहीं रहा। जिन्होंने अपनी कमाई और समय रहते निवेश कर घर बनाया है उन पर तंज नहीं है। पर उनके इस ब्राह्रणवादी पते से मुझे तकलीफ हो रही है। मुझे हिक़ारत से क्यों देखते हो भाई ।
तो कह रहा था कि लोग पूछने लगे हैं कि आप कहां रहते हैं। जैसे ही ग़ाज़ियाबाद बोलता हूं उनके चेहरे पर जो रेखाएं उभरती हैं उससे तो यही आवाज़ आती लगती है कि निकालो इसे यहां से। किसे बुला लिया। मैं भी भारी चंठ। बोल देता हूं जी, आनंद विहार के पास, गाज़ीपुर है न वो कचड़े का पहाड़,उसी के आसपास रहता हूं। मैं क्या करूं कि गाज़ियाबाद में रहता हूं। अगर मैं टीवी के कारण कुछ लोगों की नज़र में कुछ हो गया हूं तो ग़ाज़ियाबाद उसमें कैसे वैल्यू सब्सट्रैक्शन (वैल्यू एडिशन का विपरीत) कैसे कर देता है। एक माॅल में गया था। माॅल का मैनेजर आगे पीछे करने लगा। चलिये बाहर तक छोड़ आता हूं। मैं कहता रहा कि भाई मुझे घूमने दो। जब वो गेट पर आया तो मेरी दस साल पुरानी सेंट्रो देखकर निराश हो गया। जैसे इसे बेकार ही एतना भाव दे दिये। वैसे दफ्तर से मिली एक कार और है। रिक्शे पर चलता फिरता किसी को नज़र आता हूं तो लोग ऐसे देखते हैं जैसे लगता है एनडीटीवी ने दो साल से पैसे नहीं दिये बेचारे को।
कहने का मतलब है कि आपकी स्वाभाविकता आपके हाथ में नहीं रहती। प्राइम टाइम का एंकर न हो गया फालतू में बवाल सर पर आ गया है । तभी कहूं कि हमारे कई हमपेशा एंकर ऐसे टेढ़े क्यों चलते हैं। शायद वो लोगों की उठती गिरती नज़रों से थोड़े झुक से जाते होंगे। मुझे याद है हमारी एक हमपेशा एंकर ने कहा था कि मैं फ्रैड्स कालोनी रहती हूं । डी ब्लाक। फ्रेड्स कालोनी के बारे में थोड़ा आइडिया मुझे था। कुछ दोस्त वहां रहते हैं। जब बारीकी से पूछने लगा तो ओखला की एक कालोनी का नाम बताने लगीं। बड़ा दुख हुआ। आप अपनी असलीयत को लेकर इतने शर्मसार हैं तो जाने कितने झूठ रचते होंगे दिन भर। इसलिए जो लोग मुझे देख रहे हैं उनसे यही गुजारिश है कि हम लोग बाकी लोगों की तरह मामूली लोग होते हैं। स्टार तो बिल्कुल ही नहीं। हम भी कर्मचारी हैं । काम ही ऐसा है कि सौ पचास लोग पहचान लेते हैं। जैसे शहर के चौराहे पर कोई होर्डिंग टंगी होती है उसी तरह से हम टीवी में टंगे होते हैं। मैंने कई एंकरों की चाल देखी है । जैसे पावर ड्रेसिंग होती है वैसे ही पावर वाॅक होती है । ऐसे झटकते हैं जैसे अमित जी जा रहे हों । उनकी निगाहें हरदम नापती रहती हैं कि सामने से आ रहा पहचानता है कि नहीं । जैसे ही कोई पहचान लेता है उनके चेहरे पर राहत देखिये । और जब पहचानने वाला उन्हें पहचान कर दूसरे एंकर और चैनल का नाम लेता है तो उस एंकर के चेहरे पर आफ़त देखिये !
तो हज़रात मैं ग़ाज़ियाबाद में रहता हूं। मूल बात है कि औकात भी यही रहने की है। इसलिए सवाल मेरी पसंद का भी नहीं है। बाकी एंकरों का नहीं मालूम। आप उनसे पूछ लीजिएगा। लेकिन नाम सही लीजियेगा । बेचारों पर कुछ तो दया कीजिये ।
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40 comments:
हम तो आपको रवीश कुमार के रूप में ही जानते हैं और आगे भी ऐसे ही जानते रहेगें -एंकर वैन्कर होने से आदमी को सींग नहीं हो जाती और न ही वह बैकुंठपुर का वासी हो जाता है -इण्डिया ऐसे ही गधों का देश नहीं कहा जाता !
आपको कहना चाहिये कि आपके दिल में रहते हैं।
रवीश सर, मैं गोपाल गिरधानी भोपाल से । आपसे ट्विटर पर बात हुई थी भोपाल में सत्र की बाबत । आपने मई का कहा था । पर अब ट्विटर सम्पर्क नही रहा । कृपया gopal_girdhani@yahoo.com पर अपडेट कीजिए । मेरे पास आपका e-mail id नही था । अतः इसे साधन बनाना पड़ा । माफी चाहता हूँ और कोई तरीका नही सूझ रहा था ।
मेरा मोबाइल नं. 9893022374
रवीश सर, मैं गोपाल गिरधानी भोपाल से । आपसे ट्विटर पर बात हुई थी भोपाल में सत्र की बाबत । आपने मई का कहा था । पर अब ट्विटर सम्पर्क नही रहा । कृपया gopal_girdhani@yahoo.com पर अपडेट कीजिए । मेरे पास आपका e-mail id नही था । अतः इसे साधन बनाना पड़ा । माफी चाहता हूँ और कोई तरीका नही सूझ रहा था ।
मेरा मोबाइल नं. 9893022374
एनडीटीवी ने दो साल से पैसे नहीं दिये बेचारे को।
रविश जी दुनिया पैसे की हैं , लोग पैदल चलना भूल गये हैं इस लिये रिक्शा सवारी को हिकारत से देखते हैं और ये केवल गाजियाद में ही नहीं दिल्ली मे भी
लोग अगर दूध भी लेने जाते हैं तो लम्बी गाडी से ही जाते हैं
यह हाल हर क्षेत्र के व्यक्ति के साथ है ... आपका काम ऐसा है कि लोग आपका चेहरा पहचानते हैं | सब जगह दिखावा संस्कृति का बोलबाला है
Wah sir kya tarika nikala apna pata batane ka aage mai bata du kya sector 5 ..............
Waise accha laga ye baat sun ke ki aap ki chal tedhi Nazi h abhi tak jabki mujhe yaad h .twiter per ek thi Jo aap ko star bulati thi( Dr )bahut miss karte h sab aap ko.
रवीश जी गुस्सा छोडो ट्विटर पे वापस आजाओ वही आप का असली पता है!!
'मैं एंकर हूं और रिक्शे पर भी चलता हूं'
http://bura-bhala.blogspot.in/2013/04/blog-post_14.html
Raveesh, aapki baate bahut hi madhur hoti hai....dikhava complex se upja hua ek na mitne wala rog h. Phle v tha, Aaj b h, Aage v rahega.
Raveesh, aapki baate bahut hi madhur hoti hai....dikhava complex se upja hua ek na mitne wala rog h. Phle v tha, Aaj b h, Aage v rahega.
Enjoyed reading the post. You are admirably grounded. So many in your position would not be. I liked the Brahmin metaphor and the socio-economic description of areas in south Delhi. It is true that India is a country obsessed with "status." One remembers Satyajit Ray's "Jalsaghar" and Biswambhar Roy's role. He has to throw a party (a musical soiree) more lavish than his newly-rich neighbor even if he has to spend his precious last resources in doing so. Some things never seem to change about our country. I spent a few months in Delhi working for a government company in 1990 and lived in the company guest houses in south Delhi. I remember my evening walks and the dazzling display of one's station in life that I saw in shopping centers and along the roads. I was both impressed and puzzled by this spectacle. I can't even imagine how south Delhi looks now. I'm sure much more glitzy and glamorous. Thanks for a lovely blog! – Anish Dave
बहुत बढ़िया लिखा है ।
Hiqarat ki nazar se dekhne ka bhi apna vigyan hai, do tareeqe hote hai barappn sabit karne ke, barappan ka kaam karo ya saamne wale ko neecha dikhao, doosra wala zyada asaan hai...
रविश सर
आपके ब्लॉग पर पहली बार आया
आपकी एंकरिंग मुझे बहुत अच्छी लगती है
आपमें एक अच्छे और सच्चे इंसान की छवि दिखती है
और आज पता भी चल गया कि आप वाकई जमीन से जुड़े इंसान हैं
बस ऐसे ही रहिए .....
कुछ दिन के बाद शायद आप भी वोही करेंगे ,सरस्वती लक्ष्मी के साथ बमुश्किल रहती है
Ravish Kumar is a good anchor but he should not have a complex and doesn't really have to establish his "down- to-earth" credentials. It is like carrying a chip on the shoulder. Many of us have been leading similar lives by choice and naturally.
एक दशक से ज्यादा समय से पूर्वी दिल्ली के भीड़ वाले मोहल्ले लक्ष्मी नगर में रह रहा हूँ। कई साल पहले की बात है, तब मुझे सोसाइटी कल्चर की जानकारी नहीं थी। एक दिन अपने एक बड़े पत्रकार मित्र के यहाँ गया और भाभी जी यानि उनकी वाइफ से यह पूछने की गलती कर बैठा की ये कौन सा मोहल्ला है। एक पिछड़े से गाँव से आने वाली भाभी जी ने काफी उपहास के अंदाज में और अकड़ से कहा, ये मोहल्ला नहीं सोसाइटी है।
Bahut hi sundar lekh likha hai appne ravish kumarji.jis khubsurti se aur saralta se app samaj ke in pehluo ko uthate hai woh anutha aur kabile taref hai. Shayad adhikansh log aise anubhav apnne roz mara ke jeevan may karte rehte hai.Kaha rehte hai, kaunsi gadi hai, kaunsi brand ke kapde pehente hai kaunsi college ki degree hai kaunsi company may kam karte hai aise tamam chezo se adami ke jevvan ka uski safalta ka aklan karte hai.Insan ke karam nahi uski "Packaging" mehtvapurn hogayi hai. waise sanyog se ravishji mai bhi Ghaziabad ka niwasi hu. isiliye umed karta hu kabhi kisi din tv ke bahar anchor ravish kumar nahi balki is lekh ke lekhak ravish se milana ka muka milega.
आज तो मैं भी रवीश के ब्लॉग पर कमेन्ट लिखूंगा चाहे कोई मरबई करे.मैं रवीश को तब से जनता हूँ जब वे रिपोर्टर और एंकर नहीं थे.डेस्क पर थे.उनसे मीलों पीछे डेरा डाल चुके जुगाड़ी लोग उनको दया का पात्र समझते थे .हालांकि रवीश ने उन लोगों को हमेशा मजाक का विषय ही समझा क्योंकि उनकी अपने ऊपर हंस सकने की क्षमता लाजवाब है .उस दौर के हिंदी टेलिविज़न के वे सबसे कुशाग्रबुद्धि लोगों में शुमार किये जाते थे .लेकिन उनके पिता जी आई ए एस नहीं थे, हालांकि रवीश ने दिल्ली विश्वविद्यालय के सबसे बेहतरीन शिक्षकों के साथ रहकर पढाई की थी, ज्ञानेद्र पाण्डेय और शाहिद अमीन जैसे आदरणीय लोग रवीश को अपना प्रिय छात्र मानते थे . लेकिन वे उस कालेज में नहीं गए थे जो शेखीबाजों का तीर्थ माना जाता है , जहां जाने के बाद और कोई बात नहीं पूछी जाती.चापलूसी करने के फन में बिलकुल जीरो थे . एक बार मेरी प्रेरणा से चापलूसी करने की कोशिश की भी तो बिलकुल फेल हो गए. लेकिन एन डी टी वी की संस्थापक , राधिका राय ने उनके टैलेंट को पहचान लिया और उनको पहले रिपोर्टर बनाया और बाद में जो हुआ उसे तो हिंदी टेलिविज़न का हर पारखी जानता है . रवीश की इस बात से मैं बिलकुल सहमत हूँ कि जैसे ही टी वी एंकरिंग का काम मिल जाता है बच्चे अपने आपको बहुत महान मानने लगते हैं . दिल्ली में ऐसे हज़ारों युवक युवतियां मिल जाते हैं जो किसी चैनल में एंकर होते हैं .वे उम्मीद करते हैं कि आप उन्हें पहचान लेगें लेकिन ऐसा होता नहीं है . वे यह मानकर कि आपने उनको देखा होगा और पहचान रहे होंगें , आपको ज्ञान देने लगते हैं . इनमें से ही बहुत सारे लोग अपने घर का पता गलत बताते हैं . रवीश कुमार ने अपने आपको इस भीड़ से अलग रखा यह बहुत ही खुशी की बात है . दिल्ली के टेलिविज़न सीन को समझने वाले जानते हैं कि जिया सराय में रहने वाले अपने आपको हौज खास का बताते हैं ,या मदन गीर में रहने वाले सैनिक फ़ार्म का . एक श्रीमान जी के बारे में तो यहाँ तक बताया गया है कि उन्होंने एक बड़े टी वी चैनल में नौकरी मिलने के बाद ईस्ट आफ कैलाश में पुराना घर खरीदा , उसे गिरवाया और एक भव्य मकान बनवाया . इस माहौल में अगर अपना रवीश उन लोगों की तफरीह ले रहा है जो महंगी कालोनी में रहकर आपने को काबिल बताते हैं तो बहुत अच्छा है . आखिर गाज़ियाबाद में भी तो इंसान रहते हैं .
Ravish isiliye tum ravish ho..ghaziabad.gazipur aur kachre ka dher sab utna hi bharat ka ansh hei jitna tum ho ravish.
काफी दिनों बाद आपका कोई ब्लॉग पढ़ने को मिला,मुझे ये नीले अंत्रदेशीय में लिखे किसी पत्र जैसा लगा.ट्विटर और एफबी से बेहतर अनुभव. लिखते रहिए..
Madhosh kar diya bhakya. Jiyo ho bihar ke lalla.
You forced me to update my google account for commenting at your post.
KHUSH TO BAHUT HONGE AAP, fans ko pareshan karke.
:-)
it's the new age 'discrimination'. The "Superior-Inferior" concept can never leave the minds of Homo Sapiens.
रविश जी,
twitter छोड़ने का फायदा यह हुआ है कि ब्लॉग ज्यादा लिखने लगे हैं. कुछ नुकसान हुआ तो कुछ फायदा भी हुआ. Tv पर देख् कर लोग एक धारणा तो बना हीं लेते होंगे इसमे उनका क्या दोष. आपको बताना चाहिए कि पैसे बचा कर लगा kanha लगा रहें हैं.
Arjun
या ख़ुदा 'गौड़'(गौड नहीं ) में भी और __
ज़रा सा आगे -- गाजियाबाद में कहाँ रविश ?( फिलहाल जी या सर से भी बच कर निकल रहा हूँ ,अगली बार क़ायदे से )
प्रवीण पंडित
या ख़ुदा 'गौड़'(गौड नहीं ) में भी और __
ज़रा सा आगे -- गाजियाबाद में कहाँ रविश ?( फिलहाल जी या सर से भी बच कर निकल रहा हूँ ,अगली बार क़ायदे से )
प्रवीण पंडित
कवि ज्ञानेंद्रपति ने ‘भिनसार’ (कविता संग्रह) में लिखा है-
...एक दिन घर पहुंचने पर देखता हूं मैं/कि जब मैं घर नहीं रहता हूं तब भी /घर/ रहता है।
JAHA GHAR-DUWAR , KHET-KHALIHAN , DANA-PAANI SABKO NASIB NAHI HO ..WAHA KAHA WALA SAWAL KYOAN HAI ?
घर हमारी आदिम अवधारणा है। विविध जीव-जंतुओं और योनियों का घर हमारी पृथ्वी है। कभी-कभी इसकी सीमा धरती के भी पार चली जाती है। स्वर्ग-नरक, आकाश-पाताल तक फैले घर की चारदीवारी एक अनंत सीमा है। इतनी असमानताओं के बीच भी जो चीजें हमें अभिन्न करती है वह है एक अदद घर की हमारी तलाश। बसेरे की खोज . यह एक घर समुद्र की तलहटी भी हो सकती है और ध्रुवीय बर्फीले प्रदेश भी। जाने कितने जीवों का घर दूसरों जीवों का शरीर भी है। खुद हम और हमारा घर विविध अन्य जीवनों का आधार है। इस तरह घर छोटे से छोटे और बड़े से बड़ा हो सकता है। घर हमारी शारीरिक और मानसिक आवश्यकता है। मनुष्य होने के नाते घर हमारी सामाजिक आवश्यकता भी बन जाता है। घर इतना बड़ा हो सकता है कि हम ताउम्र इसमें भटकते रह जायें और इतना छोटा हो सकता है कि हम चाहे किसी के दिल में ही इसे बसा लें। घर हमारा जीवन आधार है .
इतना कठोर भी हो सकता है कि सारी उम्र गुजर जाये और हम इसकी बेडिय़ां ना तोड़ पाये। चारदीवारी ना लांघ पायें और इतना नाजुक हो सकता है कि नोंक-झोंक की मामूली टक्कर से ही टूट जाये।
गुफाओं, खण्डरों, भग्वावशेषों में मिलते रहे चित्रों, बेल-बूटों, झालरों की सजावट इस परिकल्पना का सुंदर चित्रण है। हमारा आशियाना रहने की जगह भर नहीं, वह आरामगाह होता है जहां आकर हम पुरसुकुन हो सकते हैं। इत्मीनान से भर जाते हैं। तभी तो लंबे सफर की थकान हो या मौसम की मार हमें अपना घर बार-बार याद आता है।
हमारा घर हमारा ख्वाबगाह भी हो सकता है और हमारा जीवन भी। हमारे जीवन की धुरी। हमारी जीवनचर्या का अंग। समाज में हमारा एक स्थान। कई-कई बार हम और हमारा पनाहगाह इतने गुत्थम-गुत्था हो जाते हैं कि दोनों की पहचान एक-दूसरे से जुड़ जाती है। तब घर जीवित हो उठता है। हमारे दुख-दर्दों संग बेरौनक हो जाता है और हमारी खुशियों संग सज-संवर जाता है। हंसने-खिलखिलाने लगता है।
हमारी विकास-यात्रा का अहम पड़ाव हमारे रहने की जगह रही। हमने शिकार किया और यहां बैठकर पकाया। फल-फूल, कंद-मूल तोड़े और यहां संग्रह किया। हमने यहां परिवार बसाये। कबीले बसाये। लड़ाईयां लड़ी। साम्राज्य बनाये। हमारे घर का विस्तार होता गया। इस विकास-यात्रा का केंद्र रही झोपडिय़ां, लिपे-पुते आंगन, महल-दोमहले, किले-बंगले मात्र हमारी संरक्षण का थाती मात्र नहीं। हमारा संबल रही हैं। हमारी सुरक्षा का आभास। जीवन के थपेड़ों-झंझावातों से लडऩे का आश्वासन कि ‘‘हमारा घर हमारे साथ है।’’
यह घर जो हमेशा हमारे साथ हैं। वह हमारे अकेले रहने से नहीं बना। इसमें कई धडक़नें और कई सपने साथ-साथ फलते हैं। घर में होना इन सपनों और धडक़नों के बीच होना है। एक सुंदर घर में चिडिय़ों की चहक हो सकती है और हिरण-शावकों की धमा-चौकड़ी भी। खट्टी-मीठी बातें हो सकती हैं और थोड़ी तीखी भी। बचपन की किलकारियां हो सकती हैं और जिंदगी की धूप-छांव भी। हमारा घर सूरज की गरमी है, ओस की नमी है, बारिश की फुहार और इनसे रक्षा भी।
यह सुरक्षात्मक आभास मात्र दीवारें और छत ही नहीं जो सभ्यता की ताल में ताल मिलाकर हमारे साथ-साथ विकसित होती रहीं। बारिश-धूप-सर्दी से हमें बचाती रहीं। ये मूक दृष्टïा हैं जिनकी कोख में हमारे संपूर्ण जीवन का आश्वासन छिपा है। यह आश्वासन पत्थर की गुफाओं में मिला और हमारा घर बन गया। छतनार पेड़ों पर हमने अपने घोंसले बनाये। घास-फूस, तिनका-तिनका जोडक़र झोपडिय़ां बनाई। लकड़ी,बांस, खप्पच्चियों, पत्तियों से शुरू हुआ। हमारा घर मिट्टी गारें, ईंट, सीमेंट, लोहे तक पहुंच गया। पहले जंगल ही हमारा घर थे। मुंबई, दिल्ली, चैन्नई, कलकत्ता, जयपुर, पटना, भोपाल... हमने महानगर बसायें। घर ही घर। समय बदलता गया और हमारे घरों का स्वरूप भी। हमने आकाश की ऊंचाई और जमीन की गहराईयों में अपने घर बनाये। नगरों-महानगरों की ईंच-ईंच जमीन हमारे घरों से भर गई। हम विकसित होते गये। घर बनते गये और हम बंटते गये। हमारे गांव-गिरान, कबीले-कस्बों, जिनमें हम और हमारे पुरखे जाने कब से रह रहे थे, टूटते चले गये। व्यक्तिवादिता और विकासवादिता की अंधी दौड़ में हमारे पुरातन पुश्तैनी घर ध्वस्त होने लगे। हमारे सबसे पुराने धरोहर छूट और टूट गए। अपने गांवों-गिरानों से पोटलियां बांधे हम शहर में गए और वहां अपने नए घर बनाए। जगहें बदलीं, शहर बदले। नये-नये घर बसाए फिर बनाए। अब हमारे एक नहीं कई घर होते गए। किसी की छत शहर में सबसे ऊंची है तो किसी की बालकनी से गर्जन करता समुद्र दिखता है। बिना घरों वाले लोगों को हमेशा एक घर की तलाश होती है। बिना घरों वाले ऐसे लोगों का कोई घर नहीं होता लेकिन एक समाज होता है। बिना घरों वाले लोग अपने समाज के साथ फुटपाथों को अपना घर बना लेते हैं। रैन बसेरों में सो लेते हैं। इस तरह बिना घरों वाले लोग देश की एक अलग छवि गढ़ डालते हैं। यह छवि घर-बेघर का अंतर है। अमीरी-गरीबी का मूल्यांकन है।
बड़ा फाडू पोस्ट है. पढ़कर मन खुश हो गया. अपनी बात करते हुए भी कितनों को यह सन्देश दे दिया कि कभी भी दिखावा नहीं करना चाहिए. जो आजकल ज्यादातर लोगों में होता जा रहा है एक रोग की तरह.
मैं तो इतना ही जानता हूँ कि दिल्ली प्रवास के मेरे ११ सालों में जब मेरा पलायन दक्षिण के वसंत कुञ्ज से उत्तर के रूपनगर की तरफ हुआ , तभी मेरा परिचय दिल्ली से हुआ ...
इस पोस्ट को पढने के बाद अचानक ही उस अतिसामान्य रवीश जी को बहुत मिस कर रहा हूँ ...हम लोगों के बीच आप तो हम जैसे ही थे ...
यह परिवर्तन का युग है .. ....कोई राजनिति में, कोई पत्रिकार्ता में करने में लगा हुआ है .....डटे रहो , मस्त रहो
सर शायद लोग यह भूल गए हैं कि इंसान की पहचान उसके व्यक्तित्व, ज्ञान, गुण और काबिलियत से होती है न कि उसके घर या हाई क्लास कालोनी से। और आप की शख्सियत तो उन लोगों में है जो अपनी काबिलियत से जाने जाते हैं। वैसे आप का यह लेख उन लोगों को आईना दिखाने से कम नहीं है जो अपने पते चाहे वह गलत ही क्यों न हो के जरिए अपनी काबिलियत को अंकवाना चाहते हैं।
Yahaan hum apna ghar na hone pe dukhi rehte hain,wahaan ghar kahaan hai wo bhi chinta ka vishay hai..Aapka likha padh ke apne pan ka ehsaas hota hai..Aapne fridge pe bhi kuch likha tha...kahaan padh sakta hoon(subtlesandy@gmail.com)
aap delhi main to rahte ho hum to metro main bhi nahin rahte.... jiska afsos bhi nahin hai is blog ko parh ke ab to:))
कितनी जानी पहचानी बातें करते हो आप रवीश भाई ..आपकी पहली रिपोर्ट को देखने के बाद जो अवधारणा बनी थी आपके बारे में एकदम वैसे ही हो आप ..समझने में कोई भूल नहीं हुई....
सादा जीवन उच्च विचार जीने के लिए आप हमें हमेसा प्रेरित करते रहेंगे ...!!
साधुवाद ..!!
अजी रवीश भैया! अगर एंकरी भारी हो गयी हो तो लगे हैं बहुत से लाइन में, दे दिजीये
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