अंग्रेजो वाली रौब नहीं रही अंग्रेजी की


उदारीकरण के बीस सालों में हिन्दुस्तान के मध्यमवर्ग का जो नवीनीकरण और विस्तार हुआ है उसने इसकी भाषा में बड़ा बदलाव किया है। एक ऐसा दुभाषिया मध्यमवर्ग बन गया है जो अपने खानपान और रहनसहन से लगता तो अंग्रेज़ी वाला है मगर वो हिन्दी वाला भी है। उदारीकरण से पहले हिन्दी और अंग्रेजी का मध्यमवर्ग अलग अलग था।  अंग्रेजी वाले मध्यमवर्ग की पहचान सत्ता, अमीरी और बोर्डिंग स्कूल से पढ़कर आई पीढ़ी के खानदान वाली थी तो हिन्दी की पहचान विश्वविद्यालयों के हिन्दी विभाग,अकादमियों,दफ्तरों में  खपाये गए बाबुओं के विशाल मध्यमवर्ग से होती थी। लेकिन अब क्या कोई अंग्रेजी भाषी और हिन्दी भाषी मध्यमवर्ग में फर्क कर सकता है। क्या दोनों मध्यमवर्ग की आकांक्षाओं में कोई अंतर रह गया है।

मुझे लगता है अंग्रेजी और हिन्दी की दीवार टूट गई है। अंग्रेजी अब गोरों की भाषा नहीं रहे। अब आप अंग्रेजी बोलकर अंग्रेज़ नहीं कहलाते। अंग्रेज़ी का उपनिवेशवाद वाला केंचुल उतर गया है। अंग्रेजी माध्यम वाले पब्लिक स्कूल की प्रकृति भी बदल गई है। ब्रिटिश सेना की कैंटोनमेंट इलाकों में बने इंगलिश मीडियम स्कूलों, रजवाड़ों के छोड़े गए महलों या भव्य इमारतों वाले स्कूलों, दार्जीलिंग शिमला या नैनिताल की पहाड़ियों वाले स्कूलों का वर्चस्व टूट गया है।  इस दायरे से निकालने में मिशनरी कावेंट स्कूलों का बड़ा हाथ रहा। जब ऐसे स्कूल बेतिया,गोरखपुर से लेकर रांची और दिल्ली के उन इलाकों में चलते हुए कई दशक पूरे कर चुके थे जहां से अंग्रेज़ी बोलने वाला वो मध्यम वर्ग बन रहा था जो अंग्रेजी की सत्ता की दुनिया के दूसरे दर्जे के काम में खपाया जा रहा था। इनका ज्यादातर संबंध मैनेजर वाले कामों से रहा।

इसके बाद दौर शुरू हुआ पब्लिक स्कूलों का जो धीरे धीरे एक व्यापारिक श्रृंखला में बदलता हुआ एक ही नाम से देश के कई शहरों में खुलने लगा। जिनसे निकलने वाले लोगों को अंगेजी की सत्ता की दुनिया में तीसरे पायदान पर खड़े होने का मौका मिला। अब इन तीनों पायदानों में काफी कुछ बदल गया है। बदलाव इतना तेज था कि तीसरे पायदान का अंग्रेजी भाषा कब पहले पायदान पर पहुंच गया पता ही नहीं चला। जानकार इसे छोटे शहरों की कामयाब कहानियों से आगे देख ही नहीं सके। व्याकरण और शेक्सपीयर जैसी शुद्ध अंग्रेजी का दंभ टूट गया । आप किसी भी तरह से और कितने भी प्रकार से अंग्रेजी बोल सकते हैं। गांवों में इंग्लिश मीडियम स्कूलों के बच्चे भले ही पूरी अंग्रेजी न जानते हों, सही तरीके से नहीं बोल पाते हो मगर उन्हें यह पता लग गया है कि अंग्रेजी क्या है। इसीलिए वे होटल,शापिंग माल से लेकर डिस्को के बाहर दरवान बन कर खड़े होते हैं और आराम से दो चार लाइन अंग्रेजी बोल जाते हैं। यह धारणा टूट गई है कि कोई अंग्रेजी बोलेगा तो आप यही सोचेंगे कि किसी शाही खानदान का होगा।

यहीं वो बिन्दु है जहां हिन्दी और अंग्रेजी का मध्यमवर्ग एक दूसरे मिलता जुलता लगने लगता है। उदारीकरण के दौर में सरकारी सिस्टम के बाहर जो अवसर पैदा हुए उसमें एक ऐसा मध्यम वर्ग पैदा हो गया जो दुभाषिया था। उसने काम अंग्रेजी में किया लेकिन मनोरंजन हिन्दी में। अपने गांव से निकल कर पब्लिक स्कूलों से हासिल अंग्रेजी के सहारे वो बंगलुरू से लेकर अमेरिका तक गया मगर उस समृद्धि से पीछे अपने परिवार की हिन्दी को भी समृद्ध करता रहा। इस प्रक्रिया से कई भारतीय भाषाओं के पास आर्थिक शक्ति आ गई। हिन्दी वाला मध्यमवर्ग भी वही होंडा सिटी कार रखता है जिसे अंग्रेजी वाला चलाता है। वाशिंग मशीन से लेकर एलसीडी टीवी तक के उपभोग में समानता आ चुकी है। पहनावे से आप हिन्दी अंग्रेजी टाइप में फर्क नहीं कर सकते। वो जमाना जा चुका था जब उपभोग की ऐसी वस्तुओं पर उन्हीं का एकाधिकार था जो अंग्रेजी की सत्ता से आते थे और विदेशों से स्मगल कर लाते थे। यही वो दुभाषिया मध्यमवर्ग है जो अंग्रेजी को बाहर और हिन्दी को भीतर की भाषा मान कर जीता है। जिस तक पहुंचने के लिए हिन्दी के तमाम सीरियलों की बोलियों में आई विविधताओं को गौर करना चाहिए। किसी में गुजराती टोन है तो किसी में बिहारी तो किसी में अवधी। जन माध्यमों में मनोरंजन का हिस्सा सबसे बड़ा है। इसलिए पहले का यह सिद्धांत टूट गया कि जनमाध्यम होने के कारण मनोरंजन की एक स्टैंडर्ड भाषा होनी चाहिए। इस प्रक्रिया ने हिन्दी और अंग्रेजी के तनाव को कम कर दिया। दोनों के अहंकार को तोड़ दिया।

लिहाज़ा दोनों को आपस में घुलना मिलना था ही। हिन्दी फिल्मों के गानों में अंग्रेजी हिन्दी की तरह आ गई है। उनके नाम अंग्रेजी हिन्दी युग्मों के होने लगे हैं। कई बार पूरी तरह से अंग्रेजी के ही होते हैं। आम जीवन में हम इसी तरह से दोनों भाषाओं को टर्न कोट की तरह बरतने लगते हैं। अदल बदल कर पहन लेते हैं। दूसरी बात यह भी हुई कि यह धारणा टूट गई कि रोज़गार के अवसर से ही भाषा का विकास जुड़ा है। मैथिली की पत्रिकाओं का वितरण इसलिए बढ़ा है क्योंकि इस भाषा को बरतने वाले अमरिका में जाकर समृद्ध हुए हैं। इन लोगों ने कमाया तो अंग्रेजी से मगर हिस्सा मिला मैथिली को भी। हिन्दी को भी। इसी तरह से हिन्दुस्तान के भीतर अवसरों की तलाश में जो विस्थापन हुआ है उसने भी अंग्रेजी के अलावा दूसरी भाषाओं को संजीवनी दी है। दिल्ली के कई इलाकों में भोजपुरी,बुंदेलखंडी और मैथिली,कुमाऊंनी के म्यूजिक वीडियो घरों में देखे जाते हैं। चुपचाप इनका एक बाज़ार बन गया है। दिल्ली में ही मैथिली भाषा में एक न्यूज़ चैनल चलता है। दिल्ली में लाखों की संख्या में आए मज़दूर अपने मोबाइल फोन पर अपनी भाषा के म्यूजिक वीडियो डाउनलोड कर सुनते रहते हैं और जैसे ही कोई ग्राहक आता है दो चार लाइन अंग्रेजी के बोलकर सामान्य हो जाते हैं।

कहने का मतलब है कि भाषा का विकास अकादमी और व्याकरण से नहीं होता है। व्याकरण का अपना महत्वपूर्ण स्थान है लेकिन व्याकरण कोई ज़ड़ चीज़ नहीं है। अगर यह जड़ होता तो आज लाखों लोग अंग्रेजी बोलने का साहस नहीं कर पाते और इसी प्रकार से हिन्दी बोलने का भी साहस नहीं कर पाते। सिर्फ इतना ही नहीं इससे भाषाओं की राजनीतिक पहचान भी बदली है। हिन्दी अब राष्ट्रवादी आकांक्षाओं को व्यक्त करने वाली एकमात्र भाषा नहीं रही। वो हमेशा गरीबों की आवाज़ वाली भाषा नहीं रही। हिन्दी अब मध्यमवर्गीय आकांक्षाओं की भी भाषा है। अंग्रेजी भी औपनिवेशिक संस्कारों वाले तबके की भाषा नहीं रही। अंग्रेजी भी मध्यमवर्गीय आकांक्षाओं की भाषा है। इन दोनों का राजनीतिक मिलन देखना हो तो आप अन्ना आंदोलन और दिल्ली गैंगरेप के बाद रायसीना हिल्स पर आ धमके हज़ारों से लेकर लाखों युवाओं के स्लोगन को देखिये। उनमें हिन्दी भी है और अंग्रेजी भी है। जिसकी चिन्ता में वो देश आ गया है जो अब तक सिर्फ हिन्दी की चिन्ताओं में थी। हिन्दी की चिन्ताओं में नागरिकता को वो बोध आ गया है जो अब तक अंग्रेजी की चिन्ताओं में ही थी। इस बदलाव में सोशल मीडिया का एक बड़ा रोल है। जिसके एक ही पन्ने पर हिन्दी भी सरकती है और अंग्रेजी भी। दोनों लड़ते नहीं,साथ-साथ जीना सीख गए हैं।
(यह लेख जनवरी में राजस्थान पत्रिका में छप चुका है)

33 comments:

पी.सी.गोदियाल "परचेत" said...

क्या करें, भाषा की संवेदनशीलता के मामले में तो हम लोग बांग्लादेश से भी कुछ सीख सख्ते है जिसने सिर्फ इसलिए जापानी कार्टून पर बैन लगा दिया क्योंकि उससे उनकी बांग्ला भाषा पे हिन्दी के हावी होने का डर था।

Rajendra kumar said...

बहुत ही सार्थक लेख.

Dr. Zakir Ali Rajnish said...

बहुत ही सार्थक लेख। मैंने इसे सहेज लिया है, बाद में आराम से पढूंगा।

........

रवीश जी, यह प्रसन्‍नता का विषय है कि आपने अपनी साइड पटटी में 'तस्‍लीम' को पसंदीदा ब्‍लॉग के रूप में जगह दी है। तकनीकी कारणों से 'तस्‍लीम' का पते में परिवर्तन हो गया है। नया पता इस प्रकार है: http://www.scientificworld.in/ इसलिए कृपया साइड पटटी में नये पते के अनुसार संशोधन कर लें।
सादर

जाकिर अली रजनीश

Unknown said...

सर, आपने हिन्दी के पक्षधर बन र दिल खुश कर दिया..किसी विद्वान ने कहा है कि संस्कृत हमारी मां है, हिन्दी हमारी ग्रहणी और अंग्रेजी वेश्या के समान है।
कहने का तात्पर्य जिसे हमारे पूर्वजों ने सहेजा वो हमारी मां, जिसे हमने सहेजा वो ग्रहणी और जिसे सबने वो अंग्रेजी....

हिन्दी के पक्ष में प्रसारवाहिनी की आसंदी से आप बालते हो, वो भी दमदारी के साथ ...वाकई प्रशंसनीय है.......................
नीरज चौधरी हिन्दुस्थान समाचार न्यूज एजेंसी

डॉ. मोनिका शर्मा said...

अपने भाषा को मान देते हुए भी अन्य भाषाएँ सीखी जा सकती हैं ..... सधा हुआ लेख

Unknown said...

सर ये काफी ही अच्छा है ये उन लोगो की मानसिकता को चुनौती देगी जो चार शब्द अंग्रेजी बोल के खुद को फन्ने खॉ समझते हैं..

Unknown said...

सर ये काफी ही अच्छा है ये उन लोगो की मानसिकता को चुनौती देगी जो चार शब्द अंग्रेजी बोल के खुद को फन्ने खॉ समझते हैं..

Unknown said...

sir,english samaj leta hu likh leta hu bt jb bolne jata hu to pta nhi kis chiz ka darr lagta tha..aati bhi rahti to bhi lagta khi galat to nhi bol rha syad isi wajah se ki bade-2 log bolte h bt aapka lekh pad kr pata nhi kyu sukun sa mil rha h..kuch nhi to kya huya hindi to aati h n..thanx for this lekh sir:)

प्रवीण पाण्डेय said...

इसका भान तभी हो गया था जब १९८८ में आईआईटी प्रवेश परीक्षा में अंग्रेजी में पास होने की शर्त हटा ली गयी। उस वर्ष आधे से अधिक हिन्दी बोलने वाले, अंग्रेजी सिसक रही थी वहाँ।

kishan13g said...

देश में ग्रामसभा –ग्रामपंचायत –ग्रामसमिति ग्राम-कमेठी का स्वरूप पर मेरा विचार
देश की ७० प्रतिशत आबादी गावँ में रहती है तो देश की ७० प्रतिशत समस्या भी गाँव में है अगर ७० प्रतिशत समस्या का समाधान हो तो देश की ७० प्रतिशत समस्या कम हो जाएगी मतबल ७० प्रतिशत जनता गावँ की समस्या ग्रामपंचायत या ग्रामसभा से ही संभव है
मै एक उदाहरण दे कर समझाने की कोशिश कर रहा हु ...... माना एक ग्रामपंचायत बनाई और उस गावँ में करीब १००० लोग रहते है १००० एकर जमीन है और गावँ के पास हर परिवार में ४-५ सस्दय है तो करीब ग़ाव की जमीन में करीब २५० की हिस्सेदारी हुई और अब सब के पास समान जमीन नहीं है किसी के पास १० एकर तो किसी के पास १/२ एकर है और कुछ जमीन पर कुछ ना कुछ क़ानूनी झमेलो में फंसी पड़ी वो जमीन करीब १५० एकर है वो २५ लोग की हिस्से दारी में आती है कुछ जमीन सरकारी वो करीब १५० एकर है और वहां खेती नहीं होती है कुछ जमीन साहूकार के पास गिरवीं है वो १०० एकर है वो २५ लोगो की हिस्सेदारी में आती है अब सब मिला कर १४०० एकर जमीन हुई और अगर सब साथ मिल कर खेती करे तो १०० एकर जमीन और निकलेगी वो कैसे ( हर १-२ एकर के बीच में पगडंडी और रास्ते है वो जमीन ) अब कुल मिला कर १५०० एकर जमीन और ३०० की हिस्सेदारी .. अब सब मिला कर खेती करते हो फसल ज्यादा होगी एक गावँ जरूरत की खेती बाड़ी मिलकर जो वहां के १००० लोग की साल भर की जरूरत को पूरा करे जैसे गेहू , चावल ,दाल, सब्ब्जियो जो वहां पर खेती होती वो गाँव वालो में बाँट कर जिसको (किसी के पास १० एकर है लेकिन उसको जो उस परिवार की साल भर की जरुरत को पूरा करे और किसी के पास १/२ एकर है और उसकी मजदूरी का पैसा मिला कर उस परिवार की जरुरत पूरा करे और जो मजदूरी के बदले लेना चाहता है उसको ) बची होलसेल में बचे
अब जिसके पास जमीन नहीं है वो या तो मजदूरी करते किसी अमीर व् साहूकार की जमीन जोतता है अब सभी मजदूरो या जो खेती में काम करना चाहता वो उनकी अच्छी पगार तय करे क्योकि मुनाफा पहले ज्यादा होगा और सब को अच्छी मजदूरी दे सकते है यह तो हुई मजदूरी की बात
अब सब पहले अपने अपनी जमीन के लिए बीज उर्वरक - खाद बिजल पानी ट्रेक्टर उसको लाने में तहसील या शहर के आने जाने का खर्चा होता है अब ग्रामपंचायत पुरे की खरीदी करेगी तो आने जाने खर्चा ,होलसेल बीज उर्वरक - खाद खरीद में बचत होलसेल में बेचने में फायदा नहीं तो अच्छी रेट आने पर बचे .............

kishan13g said...
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kishan13g said...

अब फसल आने पर जिस की जितनी हिस्सेदारी है उतनी मुनाफा दे मतलब साहूकार की हिस्सेदारी २५ और २५ प्रतिशत क़ानूनी झमेले वाली अगर कोई दावेदार है तो बाकी २५० हिस्सेदार है
अब बाकी बची जमीन १०० एकर (पगडण्डी वाली )और सरकारी जमीन १५० एकर अब वो २५० एकर का हिस्सेदार गग्रामपंचायत होगा २५० एकर से जो पैसा मिलता है ग्रामपंचायत को चालने में और उसको गावं में अति गरीब , अबला नारी , वुजुर्ग ,बाल की भलाई में लगाए और बाकी बचे पैसे में पानी बिजली ट्रेक्टर का सही इंतजाम करने में और बचे तो वेयरहाउस (गोदाम )बनाए अगर सरकारी मद्दत की जरूरत हो तो ग्रामपंचायत के माध्यम से मिले
अब सबसे पहले सरकारी सब्सिडी जो अलग अलग योजनाओ में जो सरकार देती वो सब बंद करे फिर ग्रामपंचायत को जिस काम के लिए जरूरत है वो ही फंड रिजील करे
अब कुछ लोग ग्रामपंचायत में नहीं आना चाहेंगे
उसका मेरा जबाब यह की जब सकारी सब्सिडी के रूप में जो सहायता मिलती थी जब वो सहयता केवल ग्रामपंचायत को ही मिलेगी तो वो लोग भी उसमे अपने आप जुडेगे नहीं तो सरकारी (कर ,टेक्स ) का हंटर है
अब सरकार भी सही योजनायें बना पाएगी जैसे सभी को सामान शिक्षा ,समान स्वास्थ्य सुविधा ,सभी को समान अधिकार
अब देश में सबसे ज्यादा क़ानूनी केस जमीन जायदात के है उस में हल करने में सुविधा होगी
ग्रामपंचायत की देख रेख में और भी काम काज किये जा है जैसे पशु पालन ,मुर्गीपालन , खेती आधारित उद्योग ,हस्तकला ,छोटे मोटे उद्योग लगाए जा सकते है जिसकी जितनी काम करने की समता के ऊपर निर्भर है
ग्रामपंचायत बनने से बुराईयों पर जैसे शराब ,जुआ ,बलात्कार ,बाल मजदूरी ,अबलानारी ,विधवाओं बुजर्ग को समान का जीवन ,आदि ....
पुलिस का रवैया भी बदलेगा
ग्रामपंचायत बनने से जो शहर की ओर जाने वाले लोग गाँव मै ही बसना चाहेंगे और जो शहर में है वो भी गावँ में जाना चाहेंगे
ग्रामपंचायत बनने से देश की सही जनसख्या का पता लगेगा क्योकि अब तक जो गाँव में और शहर में है वो दोनों जगह का सरकारी सब्सिडी का दुरुपयोग करते है
ग्रामपंचायत बनने से भूमि अधिघरण का दुरुपयोग नहीं होगा अगर कोई करना भी चाहेगा तो सही दाम और सही रोजगार की जरूरत पूरी करेगा क्योकि सघठन में शक्ति होती है जो बिखरा पड़ा उसको लालच का दबाब या मार पीटकर छिन नहीं सकता है

kishan13g said...

ग्रामपंचायत बनने से भस्ठाचार पे रोक लगेगी क्योकि सब काम ग्रामपंचायत के माध्यम से हो जाए करेगे जैसे पुलिस ,सरकारी ,अस्पातल ,स्कूल ,आदि जगह पर एक आम आदमी का बोलना या जाना और उसके पीछे पूरा ग्रामपंचायत है वो ही उसकी पहचान है
ग्रामपंचायत बनने से देश की ७० प्रतिशत समस्याओ को हल होगा बाकी बची ३० प्रतिशत के लिए मेरे अगले विचार लिखने तक .......रुके ......
ग्राम सभा का स्वरुप यानी चुनने कैसे
• गरीबो को ३० प्रतिशत ( जिसके पास जमीन ना हो यानी मजबूर या मजदुर ) पर उनकी जिनकी काबिलियत हो
• महिलाओ को ४० प्रतिशत ( उसमे भी जिसके पास जमीन ना हो उनका ७० प्रतिशत ) पर उनकी जिनकी काबिलियत हो
• बाकी ३० प्रतिशत जिनकी काबिलियत हो
• इनके चुनाव के बाद एक ग्रामपंच-ग्राम प्रधान चुने फिर बाकी के पद उनमे से जैसे कोषाध्यक्ष ( खातो की निगरानी करेगा )
• एक वकील जो क़ानूनी समस्या देखे
• एक ड्रोक्टर जो स्वास्थ विभाग
• एक पुलिसवाला जो झगडे टंटे देखे
• सभी नई काम में बदलावों लाए या सरकारी फण्ड या आपातकाली स्थति पर सब मिल कर फैसाला ले

• ग्रामपंचायत सभी को एक कार्ड से जैसे (आधार कार्ड )उसमे पुलिसवाला, ड्रोक्टर , वकील , ग्राम प्रधान की मंजूरी हो
• कार्ड में उसकी जमीन या मजदूरी का हिस्सा तय हो
• कार्ड में उसकी स्वास्थ की जानकारी लिखा हो
• कार्ड में उसकी आदि आदि ...


1. इस प्रकार ग्रामपंचायत पंचायत का संचालन करे तो आरक्षण के मुद्दे का सही समाधान होगा
2. इस प्रकार ग्रामपंचायत पंचायत का संचालन करे तो समान सिक्षा का समाधान होगा
3. इस प्रकार ग्रामपंचायत पंचायत का संचालन करे तो समान स्वास्थ का समाधान होगा
4. इस प्रकार ग्रामपंचायत पंचायत का संचालन करे तो समान सुरक्षा का समाधान होगा
5. इस प्रकार ग्रामपंचायत पंचायत का संचालन करे तो समान जीवन का समाधान होगा
6. इस प्रकार ग्रामपंचायत पंचायत का संचालन करे तो समान धार्मिक (जातिवाद ) का समाधान होगा
7. इस प्रकार ग्रामपंचायत पंचायत का संचालन करे तो समान व्यवस्था का समाधान होगा
8. इस प्रकार ग्रामपंचायत पंचायत का संचालन करे तो माहिलो का समान अधिकार दे समाधान होगा
9. इस प्रकार ग्रामपंचायत पंचायत का संचालन करे तो माहिलो का समान अधिकार दे समाधान होगा तो बलात्चार का सवाल पैदा होता है
10. इस प्रकार ग्रामपंचायत पंचायत का संचालन करे तो भाष्ठाचार समाधान होगा
11. इस प्रकार ग्रामपंचायत पंचायत का संचालन करे तो कुपोषण समाधान होगा
12. इस प्रकार ग्रामपंचायत पंचायत का संचालन करे तो रोजगार समाधान होगा
13. इस प्रकार ग्रामपंचायत पंचायत का संचालन करे तो भाष्ठाचार समाधान होगा बाल विधवा अबला वर्द्ध
14. इस प्रकार ग्रामपंचायत पंचायत का संचालन करे तो बाल विधवा अबला वर्द्ध को सही समान समाधान होगा
15. इस प्रकार ग्रामपंचायत पंचायत का संचालन करे तो कुरितियो जैसे शराबी,जुआ रेप आदि समस्याओ का समाधान होगा
16. इस प्रकार ग्रामपंचायत पंचायत का संचालन करे तो देश की ७० प्रतिशत समस्याओ का समाधान होगा

Aawaz said...

bhut hi badhiya...

Aawaz said...
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@aryaraju said...
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@aryaraju said...
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@aryaraju said...

सर जी , शानदार लेख हमेशा की तरह :)

ajit rai said...

बहुत ही सार्थक लेख और राष्ट्रिय भाषा के सम्मान में समर्पित ! मै इस सोंच का पक्षधर हूँ जिस राष्ट्र का राष्ट्रिय भाषा मजबूत और सम्मानित न हो वह राष्ट्र भी मजबूत और सम्मानित नहीं हो सकता ! वैसे आपने भारतीय कुलीन परिवारों के अंग्रेजियति मानसिकता पर भी अच्छा व्यंग लिखा है !वैसे आपसे एक निजी प्रश्न --क्या आप भी बेतिया के के० आर० स्कूल में आरंभिक शिक्षा प्राप्त किये हुए है ?

ajit rai said...

बहुत ही सार्थक लेख और राष्ट्रिय भाषा के सम्मान में समर्पित ! मै इस सोंच का पक्षधर हूँ जिस राष्ट्र का राष्ट्रिय भाषा मजबूत और सम्मानित न हो वह राष्ट्र भी मजबूत और सम्मानित नहीं हो सकता ! वैसे आपने भारतीय कुलीन परिवारों के अंग्रेजियति मानसिकता पर भी अच्छा व्यंग लिखा है !वैसे आपसे एक निजी प्रश्न --क्या आप भी बेतिया के के० आर० स्कूल में आरंभिक शिक्षा प्राप्त किये हुए है ?

Shambhu kumar said...

ठीक ठाक है

Pankaj kumar said...

आपका यह लेख सच का आईना है. सचमुच अब देश के छोटे छोटे शहरों में पब्लिक स्कूल खुल गए हैं. अब शोले बाला इंग्लिश का दौर समाप्त हो चुका है. मेरे गाँव में एक आदमी जो बी ए इंग्लिश घीच घाच के पास थे. नौकरी चाकरी हुई नहीं माल मवेशी पाल पोष कर घर चलाते थे. वो अपना भैस भी अंग्रेजी में ही चराते थे. मूव लेफ्ट कि भैसिया बायीं तरफ घूम गयी. शिट डाउन कि भैसिया बैठ गयी. पडोसी से झगरा भी अंग्रेजिये में करते थे. सुना है कि पब्लिक स्कूल खुल जाने से बेचारे को बुढारी में एक स्कूल में मास्टरी लग गयी है. ये सब भूमंडलीकरण के कारण ही संभव हो सका है. एक सार्थक लेख के लिए आपका धन्यवाद.

Anonymous said...

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SANJEEV said...

Jabardast

Dhamender Yadav said...


रविश जी आज कल जब में सब्जीमंडी जाता हूँ तो वो आवाज लगते है ब्रिंजल ले लो , पोटेटो ले लो अब ये लोग भी अंग्रेजी में सब्जी बेच रहे है आज माध्यम वर्ग और माध्यम वर्ग क्या सभी अपने बच्चो को अंग्रेजी सिखाने में जी जान से जुटे हुए है आज सभी को ये लगता है की अंग्रेजी आने से उसकी गरीबी दूर हो जायगी --------------------------------




हमें दुनिया की भाषाएं जाननी चाहिए परंतु मातृभाषा को हमारी पहचान का हिस्सा बनना चाहिए। जिस देश की मातृभाषा समृद्ध होती है वह देश हमेशा प्रगति के पथ पर अग्रसर रहता है।

Dhamender Yadav said...

हमें दुनिया की भाषाएं जाननी चाहिए परंतु मातृभाषा को हमारी पहचान का हिस्सा बनना चाहिए। जिस देश की मातृभाषा समृद्ध होती है वह देश हमेशा प्रगति के पथ पर अग्रसर रहता है।

Manoj Singh said...

Very efficiently posting.

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Wasique Md. said...

mujhe hinditype karni nahi aati..
magar aapke sare lekh padhta hoon
Jo nidarta aur wishwas aapki shaili mein dikhti hai....woh qabile tareef hai....

Unknown said...

e t bahut funtastikwa likha aapne...really superb

Riya human said...

Sir, apne apna twitter acc q band kiya? Aap kux paglo ki bato se aahat hokar hume apne vicharo se dur q kr rhe hai? Hume saza kis bat ki? Plz sir wapis aa jaiye.

ramesh paras nath said...

very useful article.....

ramesh paras nath said...

ravis ji aap ke lekh ka kayal hun. har baar ki tarah aap es baar bhee behtar hai....

Unknown said...

chanlte rahiye, chalte rahiye kahte kahte kahan chale gaye aap.. aapki jagah twitter par koi nahee le sakta..