छठ है कि ईद है


नरियलवा जे फरेला घवद से, ओह पर सुग्गा मेड़राए, ऊ जे खबरी जनइबो अदित से,सुग्गा दिले जूठइयाए,उ जे मरबो रे सुगवा धनुष से, सुग्गा गिरे मुरझाए ।" मैं कहीं भी रहूं किसी भी हालत में रहूं बस ये गाना किसी तरह मेरे कानों से गुज़र जाए, मैं छठ में पहुंच जाता हूं। यह गीत रूलाते रूलाते अंतरआत्मा के हर मलिन घाट को धोने लगता है,जैसे हम सब बचपन में मिलकर झाड़ू लेकर निकल पड़ते थे,सड़क-घाट की सफाई करने। मुझे मालूम है कि छठ के वक्त हम सब भावुक हो जाते हैं। आपको पता चल गया होगा कि मैं भी भावुक हूं। हर छठ में यह सवाल आता है कि छठ में घर जा रहे हो। घर मतलब गांव। गांव मतलब पुरखों की भूमि। अब घर का मतलब फ्लैट हो गया है। जिसे मैंने दिल्ली में ख़रीदा है। गांव वाला घर विरासत में मिला है। जिसने हमें और आपको छठ की संस्कृति दी है।

मेरा गांव जितवारपुर गंडक के किनारे हैं। बड़की माई छठ करती थीं। उनकी तैयारियों के साथ पूरा परिवार जो जहां बिखरा होता था, सब छठ के मूड में आ जाता था। मां पूछती ऐ जीजी केरवा केने रखाई, बाबूजी अपने बड़े भाई से पूछने लगते थे हो भइया,मैदा,डालडा कब चलल जाई अरेराज से ले आवे, आ कि पटने से ले ले आईं। कब जाना है और कब तक मीट-मछरी नहीं खाना है,सबकी योजना बन जाती थी। डालडा में ठेकुआ छनाने की खुश्बू और छत पर सूखते गेंहू की पहरेदारी। चीनी वाला ठेकुआ और गुड़ वाला ठेकुआ। एक कड़ा-कड़ा और दूसरे लेरुआया(नरम) हुआ। आपने भी इसी से मिलता जुलना मंज़र अपने घर-परिवार और समाज में देखा होगा। छठ की यही खासियत है, इसकी जैसी स्मृति मेरी है, वैसी ही आपकी होगी। आज के दिन जो भी जहां होता है, वो छठ में होता है या फिर छठ की याद में।

उस दिन मेरी नदी गंडक कोसी के दीये से कितनी सुंदर हो जाती है, क्या बतायें। अगली सुबह घाट पर प्रसाद के लिए कत्थई कोर वाली झक सफेद धोती फैलाये बाबूजी आज भी वैसे ही याद आते हैं। जब तक ज़िंदा रहे, छठ से नागा नहीं किया। दो दिनों तक नदी के किनारे हम सब होते हैं। सब अपनी अपनी नदियों के किनारे खड़े उस सामूहिकता में समाहित होते रहते हैं जिसका निर्माण छठ के दो दिनों में होता है और जिसकी स्मृति जीवन भर रह जाती है। हमारे जितने भी प्रमुख त्योहार बचे हैं उनमें से छठ एकमात्र है जो बिना नदी के हो ही नहीं सकता। बिहार को नदियां वरदान में मिली हैं,हमने उन्हें अभिशाप में बदल दिया। आधुनिकता ने जबसे नदियों के किनारे बांध को ढूंढना शुरू किया, नदियां को वर्णन भयावह होता चला गया। छठ एकमात्र ऐसा पर्व है जो नदियों के करीब हमें ले जाता है। ये और बात है कि हम नदियों के करीब अब आंख मूंद कर जाते हैं ताकि उसके किनारे की गंदगी न दिखे, ताकि उसकी तबाही हमारी पवित्रता या सामूहिकता से आंख न मिला ले। घाटों को सजाने का सामूहिक श्रम नदियों के भले काम न आया हो मगर सामाजिकता के ज़रूरी है कि ऐसे भावुक क्षण ज़रूर बनते चलें।


"पटना के घाट पर, हमहूं अरगिया देबई हे छठी मइया,हम न जाइब दूसर घाट, देखब हे छठी मइया। "शारदा सिन्हा जी ने इसे कितना प्यार से गाया है। पटना के घाट पर छठ करने की जिद। गंगा की तरफ जाने वाला हर रास्ता धुला नज़र आता है। सीरीज़ बल्ब से सजा और लाउड स्पीकर से आने वाली आवाज़, ऐ रेक्सा, लाइन में चलो, भाइयो और बहनो, कृष्णानगर छठपूजा समिति आपका स्वागत करती है। व्रती माताओं से अनुरोध है कि लौटते वक्त प्रसाद ज़रूर देते जाएं। कोई तकलीफ हो तो हमें ज़रूर बतायें। पूरी रात हिन्दी फिल्म के गाने बजने लगते हैं। हमारे वक्त में दूर से आवाज़ आती थी, हे तुमने कभी किसी को दिल दिया है, मैंने भी दिया है। सुभाष घई की फिल्म कर्ज का यह गाना खूब हिट हुआ था। तब हम फिल्मी गानों की सफलता बाक्स आफिस से नहीं जानते थे। देखते थे कि छठ और सरस्वती पूजा में कौन सा गाना खूब बजा। काश कि हम नदियों तक जाने वाले हर मार्ग को ऐसे ही साल भर पवित्र रखते। जो नागरिक अनुशासन बनाते हैं उसे भी बरकरार रखते।

कितने नामों से हमने नदियों को बुलाया है।गंगा,गंडक,कोसी,कमला,बलान,पुनपुन,सोन,कोयल,बागमती, कर्मनाशा, फल्गु,करेह,नूना,किऊल ऐसी कई नदियां हैं जो छठ के दिन किसी दुल्हन की तरह सज उठती हैं। आज कई नदियां संकट में हैं और हम सब इन्हें छोड़ कर अपने अपने छतों पर पुल और हौद बनाकर छठ करने लगे हैं। दिल्ली में लोग पार्क के किनारे गड्ढा खोदकर छठ करने लगते हैं। यहां के हज़ारों तालाबों को हमने मकानों के नीचे दफन कर दिया और नाले में बदल चुकी यमुना के एक हिस्से का पानी साफ कर छठ मनाने लगते है। तब यह सोचना पड़ता है कि जिस सामूहिकता का निर्माण छठ से बनता है वो क्या हमारे भीतर कोई और चेतना पैदा करती है। सोचियेगा। नदियां नहीं रहेंगी तो कठवत में छठ की शोभा भी नहीं रहेगी। घाट जाने की जो यात्रा है वो उस सामूहिकता के मार्ग पर चलने की यात्रा है जिसे सिर्फ नदियां और उनके किनारे बने घाट ही दे सकते हैं। क्या आप ईद की नमाज़ अपने घर के आंगन में पढ़ कर उसकी सामूहिकता में प्रवेश कर सकते हैं। दरअसल इसी सामूहिकता के कारण ईद और छठ एक दूसरे के करीब हैं। बिहार की एक मात्र बड़ी सांस्कृतिक पहचान छठ से बनती है। इसका मतलब यह नहीं कि अन्य सामाजिक तबकों के विशाल पर्व त्योहार का ध्यान नहीं है, लेकिन छठ से हमारी वो पहचान बनती है जिसका प्रदर्शन हम मुंबई के जूहू बीच पर करते हैं और कोलकाता के हावड़ा घाट पर करते हैं। इस पहचान की से वो ताकत बनती है जिसके आगे ममता बनर्जी बांग्ला में छठ मुबारक की होर्डिंग लगाती हैं और संजय निरुपम मुंबई में मराठी में। दिल्ली से लेकर यूपी तक में छठ की शुभकामनाएं देते अनेक होर्डिंग आपको दिख जायेंगे।

अमेरिका में रहने वाले मित्र भी छठ के समय बौरा जाते हैं। हम सब दिल्ली मुंबई कोलकाता बंगलुरू में रहने वाले होली को जितना याद नहीं करते, छठ को याद करते हैं। यह एक ऐसा पर्व है जो भीतर से बिल्कुल नहीं बदला। पूजा का कोई सामान नहीं बदला। कभी छठ में नया आइटम जुड़ते नहीं देखा। अपनी स्मृति क्षमता के अनुसार यही बता सकता हूं कि छठ की निरंतरता ग़ज़ब की है। बस एक ही लय टूटी है। वो है नदियों के किनारे जाने की। लालू प्रसाद यादव के स्वीमिंग पुल वाले छठ ने इसे और प्रचारित किया होगा। यहीं पर थोड़ा वर्ग भेद आया है। संपन्न लोगों ने अपने घाट और हौद बना लिये। बिना उस विहंगम भीड़ में समाहित होने का जोखिम उठाये आप उस पहचान को हासिल करना चाहते हैं यह सिर्फ आर्थिक चालाकी ही हो सकती है। लेकिन इसके बाद भी करोड़ों लोग नंगे पांव पैदल चल कर घाट पर ही जाते हैं। जाते रहेंगे। घाट पर नहीं जाना ही तो छठ में नहीं जाना होता है। अब रेल और बस के बस की बात नहीं कि सभी बिहारियों को लाद कर छठ में घर पहुंचा दे। इसलिए आप देखेंगे कि छठ ने अनेक नई नदियों के घाट खोज लिये हैं। यह छठ का विस्तार है।

सर...सर..छुट्टी दे दीजिए..सर। बस चार दिन में आपना गांव से वापस लौट आयेंगे। माई इस बार छठ कर रही है, मामी भी, छोटकी चाची भी। सब लोग। कलकत्ता से बड़का भईया भी आ रहे हैं..सर..हम भी जायेंगे..सर..टिकट भी कटा लिए हैं...। सर सब कुछ तो आपका ही दिया हुआ है..यु बुशर्ट ...ये खून में मिला नमक...मेरा रोम रोम आपका कर्ज़दार है...बिहारी हैं न...पेट भरने अपने घर से मीलों दूर...आपकी फैक्ट्री में...पर सर..छठ पूजा हमारे रूह में बसता है...अब हम आपको कैसे बताएं...छठ क्या है..हमारे लिये। हम नहीं बता सकते और ना आप समझ सकते हैं।

हमारे मित्र रंजन ऋतुराज ने अपने फेसबुक पर इस काल्पनिक से लगने वाले छठ संवाद को लिखा है। क्या पता कितने लोगों ने ऐसे ही छुट्टी मांगी होगी, मिलने पर नाचे होंगे और नहीं मिलने पर उदास हो गए होंगे। सब आपस में पूछ रहे हैं, तुम नहीं गए, जाना चाहिए था। हम तो अगले साल पक्का जायेंगे। अभी से सोच लिये हैं। बहुत हुआ इ डिल्ली का नौकरी। हम सब यहां जो गंगा और गंडक से दूर हैं छठ को ऐसे ही याद करते हैं। कोई घर जाने की खुशी बता रहा है तो किसी को लग रहा है कि शिकागो में आकर भी क्या हासिल जब छठ में गांव नहीं गए। तभी मैं कहता हूं कि इस व्रत को अभी नारीवादी नज़रिये से देखा जाना बाकी है, हो सकता है इसे जातिगत सामूहिकता की नज़र से भी नहीं देखा गया हो, ज़रूर देखना चाहिए लेकिन इस त्योहार की खासियत ही यही है कि इसने बिहारी होने को जो बिहारीपन दिया है वो बिहार का गौरवशाली इतिहास भी नहीं दे सका। शायद उस इतिहास और गौरव की पुनर्व्याख्या आने वाली राजनीति कर के दिखा भी दे लेकिन फिलहाल जिस रूप में छठ हमें मिला है और हमारे सामने मौजूद है वो सर माथे पर। हर साल भाभी का फोन आता है। छठ में सबको चलना है। जवाब न में होता है लेकिन बोल कर नहीं देते। चुप होकर देते हैं। भीतर से रोकर देते हैं कि नहीं आ सके। लेकिन अरग देने के वक्त जल्दी उठना और दिल्ली के घाटों पर पहुंचने का सिलसिला आज तक नहीं रूका। छठ पूजा समिति में कुछ दे आना, उस सामूहिकता में छोटा सा गुप्तदान या अंशदान होता है जिसे हमने परंपराओं से पाया है। तभी तो हम इसके नज़दीक आते ही यू ट्यूब पर शारदा सिन्हा जी को ढूंढने लगते हैं। छठ के गीत सुनते सुनते उनके प्रति सम्मान प्यार में बदल जाता है। शारदा जी हम प्रवासियों की बड़की माई बन जाती हैं। हम उनका ही गीत सुनकर छठ मना लेते हैं।
(नोट- यह लेख आज के दैनिक प्रभात ख़बर में प्रकाशित हो चुका है। कृपया इसे अपने किसी अख़बार का हिस्सा न बनायें)


40 comments:

dr.dharmendra gupta said...

bahut badhiya, ravish ji....ess baar yahin mana lijiye, agle baras jaroor motihari jakar chhat manana.....
Chhat ki aapko hardik shubhkamnaye...

Ashutosh Mitra said...

रवीश भाई, इस कसक को हमने भी महसूस किया है..यह ठीक है कि हमारे यहाँ छठ का त्योहार नहीं होता लेकिन पूना में काम करते समय जब पहली होली 2001 में बिना माँ, पिताजी के निपट अकेले मनायी थी तो दिन भर बस बार-बार आंसुओं से होली खेली थी...नहीं भूल सकता...कतई नहीं भूल सकता। फिर याद दिलाने का शुक्रिया क्योंकि बीता वह दिन मुझे ज़िंदगी भर याद रखना होगा...अगर परिवार और समाज की अहमियत को समझे रहना है।

smiley said...

bachpan bihar ke jamalpur mai kuch saal bita, tab se chatpuja ke bare mai pata hai,"Thekua" mera man pasand prasad hai chatpuja ka,aaj bhi koe na koe office ke sathi patna se le ayenge mere liya ..bas usu intezar mai hu..

Anurag Sinha said...

Bahut khub likha hai aapne ravish sir.. main patna ka nivasi hu.. aur yeha bhi har saal bilkul waise hi chatth manta aa raha hai.. road par sharda sinha ke geet bajte h... log ghaat ki ore jaate h...

Nupesh Patle said...
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Nupesh Patle said...

Chatt me ghar na jaane ki Chatpatahat ke beech Hamari taraf se Zat se Chatt ki Hardik Shubhkamnaye.

Anonymous said...

Yes verygood nice

lalit-cisco said...

रवीश सर,मन कितना भी चंगा क्यों न हो कठौती में छठ वाली गंगा गंडक नहीं आ सकती

lalit-cisco said...

रवीश सर,मन कितना भी चंगा क्यों न हो कठौती में छठ वाली गंगा गंडक नहीं आ सकती

प्रवीण पाण्डेय said...

सूर्य की आराधना का अन्तर्राष्ट्रीय स्वरूप

Vinod Sherawat said...

Emotional.

Prashant Singh said...

Bahut achha hame apni sanskritik virasat ko nahi bhulna chahiye.

Sheetanshu said...

अप्रतिम एवं भावुकता से परिपूर्ण लेख ...रवीश जी आपने अंदर तक झकझोर दिया है ... छठ पर्व के बारे मे ज्यादा तो नही जनता पर प्रयासरत हूँ कि कभी मैं भी इस महायोजन का हिस्सा बन पाऊं अपितु मैं बुंदेलखंड से हूं फिर भी कभी ना कभी छठ पर बिहार अवश्य जाऊंगा.

Unknown said...

Main West Bengal se belong karta huin par par chhat mahaparv hamare yaha bhi bade harsh ullash kew saath manaya jata hai.infact hamare ghar main bhi hota hai.bahar rehne ke karan hamare mann main ek kasak harek baar rehta tha. lekin iss saal ghar par reh kar chhat maha parv mana raha huin mann main bahut khushhi mahshush ho rahi hai.
Jai ho chhat maiya ki....

ketan kumar said...

Pehli baar chhat puja ma ghar par nahi hun... aur phr aapka lekh padh ka apne Arrah ka ghat par jane ki aur zyada chatpathat ho gayi... bahut sundarta se aapne vivran kiya hai.. dhanywad aur aastha k mahaparv ki hardik badhi

Unknown said...

पढ़ते पढ़ते भाववश आंख भर आई। मुझे लगता है पहले जो परम्पराएँ थीं अब वे अब उपभोक्ता वस्तुयें हैं।

Mithilesh said...


bhavukta ke rang mein akshar akshar sana........ padhte hi sabhi smritiyan ankhon ke samne nach utthi....... anek anek dhanyawad aur Chhath Puja ki shubhkamnayein

मनप्रीत कौर said...

Gr8 write up sir. Yes v cant forget our culture nd tradition. Dts d spirit of indians. May gid bless evry1 n surya dev bless us. Chhath ho ya guru parv..kaun ghar nhi jana chahta. Hamare hone ka ehsaas dilate hain ye tyohaar.

Unknown said...

Hello Ravis... Aane man ki baat kah di...acha laga padhke.. laga ki sab apni aankho ke saamne ho raha hai...bhojpuri me likhne ka mantha but soche ki jaane de ...


Bahut badhiya... aapka sara prog dekhte hgai.. prome time and Humlog..

Unknown said...

Chalo padhte padhte rajeev chowk aa gaya, but very good sirjee, lage raho

Madhukar said...

आपको पढ़कर कसक महसूस कर रहे हैं। हमारे यहां तो कभी यह त्यौहार मनाया ही नहीं जाता। हो सकता है कि आपका लेख पढ़कर भावातिरेक में कई लोग दिल्ली छो़ड़कर भाग जाएं 2-4 दिन के लिए।

om sudha said...

rula diya mere jaise nastik ko bhai sab...

Ria Sharma said...

khuub likha ......

parv ki khushiyan or dard ka samnvay .....jana chahiye ghar, na maaluum kab tak zinda rahenge ye tyohaar

ane walii pedhee kitna nibhayegee....?

Puneet Bhardwaj said...

pahli bar chhath pe aisa kuch padha maine.... Thanks..

दीपाली said...

ये और बात है कि हम नदियों के करीब अब आंख मूंद कर जाते हैं ताकि उसके किनारे की गंदगी न दिखे, ताकि उसकी तबाही हमारी पवित्रता या सामूहिकता से आंख न मिला ले। .... bahot sundar aur marmik lekh...

श्रीकांत सौरभ said...
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श्रीकांत सौरभ said...

जब महानगर में मीडिया की चाकरी की है तो समझौता करना ही पड़ेगा. सफलता की कीमत कुछ यूं ही चुकानी पड़ती है. पहचान बनाने व काम के चक्कर में आपने जितवारपुर(मोतिहारी) आना भले ही कम कर दिया हो. पर जेहन में जड़ों से जुड़ी भावपूर्ण यादें तो हैं. और इसी खुशनुमा याद के सहारे पूरी उम्र कट जाएगी. क्योंकि गुजरे पल वापस नहीं आ सकते. खासकर धोती-कुरता वाले बाबूजी के साथ गंडक किनारे छठ पूजा का अतीत. गाँव की खालिस मिट्टी में पला-बढ़ा कोई भावुक इंसान दुनिया की नजरों में कितना भी बड़ा स्टार क्यों ना हो जाए. ऐसे मौकों पर उसका नौस्तालेजिक होना स्वाभाविक है,और रेट्रो में जीना मज़बूरी. मैंने भी जीवन के सात बसंत(२००२-०९) पटना में ही बिताए. वहीँ पर हिंदुस्तान कार्यालय में अवधेश प्रीत से पत्रकारिता की एबीसीडी सीखी. आज कतिपय कारणों से जन्म भूमि कनछेद्वा(हरसिद्धि,मोतिहारी) में रहना हो रहा है. चूँकि मैं आपका पड़ोसी हूँ. मैं महानगर के साथ ग्रामीण जीवन व संस्कृति से भी रू ब रू हूँ. इसलिए मेरी संवेदना आपके साथ है. श्रीकांत सौरभ,संपर्क-9473361087

Anonymous said...

Ravish babu, during my annual visit to hometown of Muzaffarpur during Chath, had read your article in Hindi newspaper there and was touched.
1 more aspect of Chath is that within festival there is 1 more festival of meeting your brothers, sisters their husband and wife and their children. Exchanging gifts, giving money and receiving the same , making sleeping arrangement, arrangement to fight notorious Mosquitoes of Muzaffarpur is great fun.

Unknown said...

Nothing to comments.. words and emotion's dies inside... how weak we became...

Unknown said...

Ravish Jee is article ne mujhe bhavuk kar diya. Yeh parv India ke sabhi parv pe bhari hai. Is parv me Bihar me hona ek amulya anubhav hai.

Himanshu said...

रवीश सर , मेरी नानीघर की तमाम यादें छठ के कारण जुडी हुई हैं. आजकल मैं जा तो नही पाता पर हमेशा अरग बेला में फोन करके उस माहौल को मह्सुश करने की कोशिश करता हूँ. खुद पे कितना भी नाज कर लूँ पर ये एक ऐसा समय होता है जब अपने काम पर खीझ आती है ..

Suresh said...

Nice website to send gifts anywhere in INDIA :)
http://www.delhiblossoms.com

Mahendra Singh said...

"Kachi bansh ki bahangia, bahangi lachkat jai". Is bar ki chath main yehi lain yad kiya hai. Samprati main lucknow ka wasi hoon.Yahan par Bihar aur Purwanchal ke logon kee khasi tadat hai. Gomti ke kinare is bar yahan bhi chath dhoom dham se manaye gayee.Malini Awasthiji aur Manoj Tewari ji ke sath he local Gaykon ka bhi lamba programe chala.
Is Parv ka woh drishya "Jab soop uthaye Mai/Kaki/Bahin/Bhauji Bhagwan Bhagwan ko ardhya de rahi hai aur Sindoor maang se matha hote hue nak tak pahooch jata hai." Sachmuch akathneey.

Mahendra Singh said...


Is Parv ka woh drishya "Jab soop uthaye Mai/Kaki/Bahin/Bhauji Bhagwan Bhaskar ko ardhya/arag de rahi hai aur Sindoor maang se matha hote hue nak tak pahooch jata hai." Sachmuch akathneey.

top blogs said...

प्रिय ब्लॉगर मित्र,

हमें आपको यह बताते हुए प्रसन्नता हो रही है साथ ही संकोच भी – विशेषकर उन ब्लॉगर्स को यह बताने में जिनके ब्लॉग इतने उच्च स्तर के हैं कि उन्हें किसी भी सूची में सम्मिलित करने से उस सूची का सम्मान बढ़ता है न कि उस ब्लॉग का – कि ITB की सर्वश्रेष्ठ हिन्दी ब्लॉगों की डाइरैक्टरी अब प्रकाशित हो चुकी है और आपका ब्लॉग उसमें सम्मिलित है।

शुभकामनाओं सहित,
ITB टीम

पुनश्च:

1. हम कुछेक लोकप्रिय ब्लॉग्स को डाइरैक्टरी में शामिल नहीं कर पाए क्योंकि उनके कंटैंट तथा/या डिज़ाइन फूहड़ / निम्न-स्तरीय / खिजाने वाले हैं। दो-एक ब्लॉगर्स ने अपने एक ब्लॉग की सामग्री दूसरे ब्लॉग्स में डुप्लिकेट करने में डिज़ाइन की ऐसी तैसी कर रखी है। कुछ ब्लॉगर्स अपने मुँह मिया मिट्ठू बनते रहते हैं, लेकिन इस संकलन में हमने उनके ब्लॉग्स ले रखे हैं बशर्ते उनमें स्तरीय कंटैंट हो। डाइरैक्टरी में शामिल किए / नहीं किए गए ब्लॉग्स के बारे में आपके विचारों का इंतज़ार रहेगा।

2. ITB के लोग ब्लॉग्स पर बहुत कम कमेंट कर पाते हैं और कमेंट तभी करते हैं जब विषय-वस्तु के प्रसंग में कुछ कहना होता है। यह कमेंट हमने यहाँ इसलिए किया क्योंकि हमें आपका ईमेल ब्लॉग में नहीं मिला।

[यह भी हो सकता है कि हम ठीक से ईमेल ढूंढ नहीं पाए।] बिना प्रसंग के इस कमेंट के लिए क्षमा कीजिएगा।

top blogs said...
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Manisha said...

Raish babu, aapka blog pahli baar padha, dil ko chhoo gaya, is baar main bhi nahi jaa saki par uski kasak ab tak mahsus ho rahi hai, chhath ke baat jaane ki baad bhi !!

Rahul Yadav said...

जितना सरल त्यौहार है छठ आपने उतनी ही सरलता से उसका वर्णन किया है .. आपके इस शानदार लेखन के लिए आपका आभार ......और हाँ।।। मेरी एक दिली ख्वाहिश है आपसे मिलने की

Sandeep Pratap said...

ये जब पढ़ा अपना मोबाईल पर तो ऐसन लगा की बस आज ऑफिस छोड़ के भाग जाये घाट पर , एक अपनापन सा लगता है , आँखों से अश्रुओं की धारा बहे जा रही थी, शायद सारा पढ़ा लिखा भूल गया था, सही ही था, जो अपनी भावनाये खुद से भी दूर कर दे उस पढाई लिखाई का क्या फायदा| अब इस भावुक मन में छठ की महिमा भी है और रवीश भैया का कलम का भी | सिर्फ नाम लेना उचित नहीं लगता है न संस्कार में है, और सर में वो अपनापन नहीं आता , उम्र में ठीक सा गैप भी है तो भैया ही उपयुक्त लगता है|

K.Kanan Mishra said...

This why U are the greatest TV anchor.