ऊं सिब्बलाय नम:

तो क्या सरकार पहले से सतर्क होने की कोशिश कर रही है कि भारत में भी अरब जगत और संपूर्ण जगत में चल रहे कब्ज़ा और तख्ता पलट आंदोलनों की नौबत न आ जाए? हिंदुस्तान में वैसा तो नहीं हुआ मगर फेसबुक,ट्वीटर और एस एम एस के ज़रिये अन्ना आंदोलन ने ज़ोर ज़रूर पकड़ा। फिर भी क्या कोई सरकार इस बात से निश्चिंत हो सकती है कि अब कोई नया आंदोलन खड़ा नहीं होगा? ट्वीटर और फेसबुक पर लिखी जा रही बातों पर सरसरी निगाह दौड़ाइये तो पता चल जाएगा कि यहां सरकार और पूरे राजनीतिक तबके के बारे में क्या चल रहा है। अगर कोई यह समझता है कि यह जमात पूरी तरह दक्षिणपंथी या विरोधी पार्टी समर्थक है तो वो गलत है। इसमें कोई शक नहीं कि नेट जगत में सरकार लोकप्रियता के मामले में काफी पीछे चल रही है लेकिन इसे कोई राजनीतिक दल भड़का रहा होता तो आडवाणी की रथ यात्रा को वैसा ही समर्थन मिलता जैसा अन्ना आंदोलन को मिला। बात चहेते नेताओं की तस्वीरों की भी नहीं, बात उससे आगे की है।

क्यों आई टी मंत्री कपिल सिब्बल ने याहू,गूगल, फेसबुक और यू ट्यूब जैसी सोशल मीडिया संस्थानों को बुलाया था? क्या वो सचमुच इस मुगालते में हैं कि जिस फेसबुक पर रोज़ाना २५ करोड़ तस्वीरें अपलोड होती हैं उनकी पहले से जांच की जाए। क्या वो सचमुच इस भ्रम में हैं कि भारत में फेसबुक और ट्वीटर के करीब आठ करोड़ उपभोक्ताओं की बातों पर अंकुश लगा सकेंगे? यह एक खतरनाक और असंभव काम है। फेसबुक और ट्वीटर का वजूद इसीलिए है क्योंकि यहां अभिव्यक्ति व्यक्तिगत और बेरोक-टोक है। सरकार द्वारा मैनेज होने वाले संपादकों या मीडिया संस्थानों के ज़रिये नहीं। इन मंचों पर सबकी राय की हैसियत बराबर की होती है। एक से एक राय मिलती हुई फटाफट जनमत में बदलती चली जाती है। यहां पर बन रही छवि को कोई भी सरकार हल्के में नहीं ले सकती। बेहतर तरीका यही है कि यहां आकर लिखने वालों से संवाद करे न कि उनके मन में भय पैदा करे। काश यह बात सरकार को कोई बता सकता। भारत में कोई बीस करोड़ लोग हैं जो इंटरनेट और मोबाइल के ज़रिये सोशल मीडिया के इन मंचों से जुड़े हैं। वोट के लिहाज़ से भले ही सत्ता दल को कमतर लगें मगर जनमत के लिहाज़ से से बिल्कुल कम नहीं हैं।

पारंपरिक मीडिया की विश्वसनीयता के कमज़ोर होने के दौर में लोगों को सोशल मीडिया पर गज़ब का विश्वास हो चला है। लेकिन पारंपरिक मीडिया ने भी इनसे होड़ करने की बजाय शामिल होना ही ठीक समझा। आज हर अखबार और टीवी चैनल ट्वीटर पर आने के लिए बेकरार है। क्या सरकार ऐसा नहीं कर सकती थी? यह ठीक है कि यू ट्यूब पर शरद पवार को तमाचे मारने की घटना पर कई आइटम बन गए हैं। दिग्विजय सिंह को लेकर अजीबोगरीब किस्म की तस्वीरें हैं पर वो तो नरेंद्र मोदी को लेकर भी हैं और मायावती को लेकर भी। लेकिन कपिल सिब्बल सिर्फ अपनी सरकार और पार्टी के नेताओं की तस्वीरों को लेकर क्यों भावुक हो गए। क्या वो नज़रअंदाज़ नहीं कर सकते थे, क्या वो इसे अपनी तरफ से इसी मंच पर बहस में लाकर सार्थक तरीके से नहीं रोक सकते थे मगर शंका तो उन्होंने खुद पैदा कर दी, पिछले दरवाज़े से इंटरनेट कंपिनयों को बुलाकर और हड़का कर।

दुनिया में जब सोशल मीडिया की शुरूआत हुई तो ज़्यादातर लोग पुरानी बातों की खुमारी साझा कर रहे थे। मगर जल्दी ही लोग अतीत से निकलने लगे। वो समाज और सत्ता पर सवाल करने लगे। जब ऐसा हुआ तो नेता भी सोशल मीडिया से जुड़ने लगे। वो अपनी बातों को ट्वीट कर परखने लगे कि जनमत कैसा बन रहा है। लेकिन दूसरी तरफ ये नहीं देख पाए कि न्यूयार्क में बैठी एक लड़की कपिल सिब्बल के बयान पर प्रतिक्रिया व्यक्त की और किसी ने उसे पसंद करने के बाद री ट्वीट किया तो वो हज़ारों लोगों की ज़ुबान बन गई। सोशल मीडिया पर बातें अब राजनीतिक होने लगी हैं। सोशल मीडिया को राजनीतिक किसने बनाया? राजनीतिक दलों ने बनाया। जब वे लोगों की निज अभिव्यक्ति के क्षेत्र में घुस कर वोट मांगने लगे। प्रचार करने लगे। बीजेपी से लेकर कांग्रेस और अन्य सभी दलों ने ये खेल खेला है। जब वो इसे वोट मांगने का मंच समझते हैं तो अब क्यों घबरा रहे हैं कि सोशल मीडिया का वोटर उनके ही खिलाफ हो रहा है। मगर नेताओं को अभी यह बात समझ नहीं आई है कि यहां की हवा को रोकने की कोशिश करेंगे तो तूफान से टकरा जायेंगे। दुनिया के किस हिस्से में नेताओं की मज़ाहिया तस्वीरें नहीं बनतीं और छपती हैं। आम तौर पर लोग ऐसी तस्वीरों पर हंसते हैं और लाइक बटन चटका देते हैं। आपत्तिजनक होने पर डिलिट यानी मिटा देते हैं। भारत में क्या एक भी ऐसा ठोस प्रमाण है जिससे यह साबित हो कि सोशल मीडिया के चलते दंगा भड़का। सही है कि वहां धर्म विशेष और नेताओं की आपत्तिजनक तस्वीरें घुमती हैं, जो सरकार को लग सकती है कि भड़काऊ हैं और इनसे सांप्रदायिक दंगे हो सकते हैं। फिर बताइये भरतपुर में दंगा क्या फेसबुक और ट्वीटर के कारण हुआ। ये तभी होगा जब कोई राजनीतिक दल ऐसा करना चाहेगा। दंगे बिना राजनीतिक समर्थन के नहीं होते हैं। सोशल मीडिया पर कई विचारधाराओं के हज़ारों लोग आपस में टकरा रहे होते हैं। सारी प्रक्रिया एक ही समय में और एक ही जगह पर चल रही होती है। यहां अपने आप सामाजिक नियंत्रण होते रहता है। कर्नाटक की राम सेने पार्टी को याद कीजिए। ये लोग सांस्कृतिक स्वाभिमान की ठेकेदारी करते हुए लड़कियों पर तरह तरह के नियम लाद रहे थे और वेलैंटाइन डे का विरोध कर रहे थे। मगर दिल्ली की एक लड़की ने पिंक चड्ढी कैंप शुरू कर दिया और राम सेने के दल को अल्पमत में ला दिया। एक संकीर्ण और सांप्रदायिक विचारधारा को जगह नहीं मिली। बहुत सारे मौलवी पंडित ग्रंथी फेसबुक पर हैं। उनके सामने से भी ऐसी तस्वीरें गुज़रती हैं। वो चेतावनी देते हुए इन तस्वीरों को मिटा देते हैं। आगे कोई बहस नहीं। भड़काने का उद्देश्य वहीं पर समाप्त हो जाता है।

कहीं ऐसा तो नहीं कि धर्म गुरुओं या धार्मिक तस्वीरों को आगे कर सरकार ने अपने इरादे को ढांपने की कोशिश की। हाल ही में दिल्ली में विकीलिक्स के जूलियन असांज ने कहा कि दुनिया भर में सरकारें इस्लामिक आतंकवाद के नाम पर सोशल मीडिया या इंटरनेट की मानिटरिंग कर रही हैं। तो क्या भारत में भी धार्मिक तस्वीरों के बहाने ये खेल खेलने की कोशिश की गई? ताकि सेंसर की इस कोशिश को सेक्युलर बनाम कम्युनल बनाकर देशहित में ज़रूरी साबित कर दिया जाए। सोशल मीडिया में मर्यादायें टूट रही हैं। मगर यह उसका अत्यंत ही छोटा और अप्रसांगिक हिस्सा है। यह बहस पुरानी है कि अश्लीलता कौन तय करे। सरकार या लोग। अश्लीलता की सीमा तो सरकार बताती है मगर उसके बहाने वो किस हद तक आपके व्यक्तिगत स्पेस में घुस सकती है, ये नहीं बताती है। अश्लीलता के पैमाने पर किसी राजनीतिक दल का स्टैंड साफ और टिकाऊ नहीं है। ओमर अब्दुल्ला ने कपिल सिब्बल के प्रसंग पर ट्वीट किया कि बीजेपी अभिव्यक्ति की आजा़दी की बात कर रही है जबकि इसी के चलते महान कलाकार एम एफ हुसैन को हिन्दुस्तान छोड़ना पड़ा। मगर वो यह ट्वीट नहीं कर पाए कि कांग्रेस ने क्या उन्हें हिन्दुस्तान लाने की हिम्मत दिखाई। क्यों तस्लीमा पर लेफ्ट की सरकार पर प्रतिबंध लगा। पहले राजनीतिक दल आपस में नज़रिया साफ कर लें फिर लोगों को सीखायें कि वो क्या सोचें और क्या कहें।

इसीलिए सरकार की नीयत पर संदेह होता है। सरकार को समझना चाहिए कि करोड़ों की संख्या में लोग फेसबुक या ट्वीटर के गुलाम नहीं हैं। अगर यहां अभिव्यक्ति की आज़ादी संदिग्ध हो जाएगी तो जल्दी ही ये मंच भी अप्रासंगिक हो जायेंगे। सेकेंड भर में अपना अकाउंट बंद कर वहां चले जायेंगे जहां उन्हें ज़्यादा आजा़दी मिलती हो। लोगों ने इसका स्वाद चख लिया है और वो बार बार इसकी तलाश करेंगे। इंटरनेट को लेकर उसकी नींद टूटी भी तो देर से और ग़लत करवट से। सरकार चाहे जो करे, चाहे जो कहे,लोग अब कहेंगे। यहां नहीं तो वहां कहेंगे।
(rajasthan patrika me chhap chuka hai)

21 comments:

जीवन और जगत said...

इराक युद्ध की विभीषिका की हकीकत एक ब्‍लॉगर ने ही दुनिया भर में पहुँचाई थी। ट्यूनीसिया में जैसमीन क्रान्ति सोशल ने‍ट‍वर्किंग साइटों के बलबूते ही परवान चढ़ी थी। सरकार इसीलिए चौकन्‍नी हो उठी है कि कहीं इसका तख्‍ता पलट भी न हो जाये। सरकार की कोशिशें कुछ कुछ इन्दिरा गांधी द्वारा लागू किये गये आपातकाल की याद दिला रही हैं जब विरोध की आवाज को पूरी तरह दबाने का भरसक प्रयास किया गया था।

anjali said...

इंटरनेट को लेकर उसकी नींद टूटी भी तो देर से और ग़लत करवट से। सरकार चाहे जो करे, चाहे जो कहे,लोग अब कहेंगे। यहां नहीं तो वहां कहेंगे।..................

bahut acche.....

UDAN KHATOLA said...

सरकार सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर तो रोक लगा सकती है लेकिन लोगों के मुंह पर ताला नहीं लगा सकती। लोगों को जो कहना है वो तो वो कहेंगे ही, फिर चाहे माध्यम कोई भी हो।

UDAN KHATOLA said...

सरकार सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर तो रोक लगा सकती है लेकिन लोगों के मुंह पर ताला नहीं लगा सकती। लोगों को जो कहना है वो तो वो कहेंगे ही, फिर चाहे माध्यम कोई भी हो।

प्रवीण पाण्डेय said...

किस से किस पर क्या प्रभाव पड़ेगा, पाठकगण को निर्णय करने दिया जाये।

deepakkibaten said...

जिस बात पर लगाम लगानी चाहिए वहां तो लगाम लगा नहीं पा रहे हैं। अरे लगाम ही लगाना है तो गरीबी, बेरोजगारी पर लगाओ, महंगाई पर लगाओ। लोगों की जुबान पर लगाम लगाओगे तो बहुत पछताना पड़ेगा।

Anil negi said...

Sir,sarkar koh toh facebook aur twitter ka shukriya ada karna chaiye kyoki sarkar ko lekar jitna gussa logo mein hai ,wo in sites ke jariye jahir ho raha hai! Aaj hamare pas ek platform hai jaha hum apni bat kah sakte hai! Sochiye agar ye sab nai hota toh na jane kitney log naxalite ki vichardhara se pravhawit hokar unhe follow karte!

विवेक रस्तोगी said...

देखते हैं कि सरकार का ये निराशावादी रूख किस तरह खत्म होता है ।

अशोक सलूजा said...

ऊं सिब्बलाय नम:
आप की लेखनी अपने आप में ही पूर्ण लिखती है !
शुभकामनाएँ!

Unknown said...

Sir kiya rajasthani patrkarita mei aap hi ka lekh prakashit hota hai.?
plis jald se jald bataye muje intezar hai sir.. kitab padhli .. newspaper mei bi apki lekhni padhne ko mile toh chai ke sath bread butter jaisa anand ban jaye !.. :)

PEEYUSH SRIVASTAV said...

ravishji aapki baat par sadhuvaad ...social media ko baandhne wale khud ek tarah bandh gaye hain..accha laga ki aap padosi hain...hum bhi indirapuram nivasi hain aur media times apartment mein rehte hain...peshe se shikshak vishvidyalaya ke star (hindi) ke...milen toh accha lagega...july 06 2010 ke message mein number galat hai kripya dhyan dein... Man se likhte rehne ke liye dhanyavad...peeyush

JC said...

रंग-मंच की कठपुतलियों की संख्या बढ़ते बढ़ते और उन को नचाते नचाते ब्रह्मा जी को नींद आने लगी है - धागे उलझ गए हैं :)

अजित गुप्ता का कोना said...

आपकी इस बात से सहमत हूँ कि कोई भी दंगा बिना राजनीति के नहीं हो सकता। बहुत ही सधा हुआ आलेख है।

RAJESH KUMAR said...

SIR,
JAB SARKAR NE SOCIAL MEDIA SITES KO CONTROL KARNE KI KAVAYAD KARNE LAGI TAB HAMARI BHI IKCHAA HUI KI AKHIR KIS PHOTO KE LIYE HAMARE NETA PARESHAN HAI.
SARKARI PAHAL KE PAHALE SHAYAD HAMARE JAISE LAKHO LOG HOGE JO UN PHOTOS KO NAHI DEKHE HOGE.
AB LOG SEARCH KAR KAR KE DEKH RAHE HAI.....
JAI HO..

RAJESH KUMAR said...

yadi hamare neta un photos ko nahi dekhe hai to unhe comment karne ka koi adhikar nahi hona chahiye.
aur yadi dekhe hai to unki janta ko bhi dekhane ka mouka milna chahiye
OM SIBBALAY NAMAH
OR
OM NAMAH SHIV(BAL)AY

KAHATE HAI KI
BRAHMA --SRISHTI KARTA HAI
VISHNU-- PALAN KARTA HAI
SHIV--SANGHAR KARTA
TO NAM KE ANURUP THEEK HI TO HAI....

KOH-E-FIZA said...

सरकार ये बात समझने मे कितना वक़्त लगाएगी
की लोग वाकई पीड़ित है

Anupam Dixit said...

बढ़िया लेख है। सिब्बल साहब असल में सत्ता को रखैल समझ कर उसी पींग में थे और जब जागे तो सामने अन्ना को प कर भन्ना गए हैं और खुन्नस सोशल मीडिया पर उतार रहे हैं। इनकी यहाँ संवाद करने की हिम्मत नहीं है। असल दुनियाँ में अब तक बिना संवाद के ही काम चलाया है। किया भी है तो कोर्ट रूम में जहां जज भी वैसा ही पर यहाँ तो हर एक आदमी जज है। यहाँ आएंगे तो बोलती बंद हो जाएगी।

Peeyush Srivastav said...

रविश जी आपकी रिपोर्ट आपके छंद आपके ब्रह्मा वाकया आपकी दूर दर्शिता और आपकी अनोठी सोच की मैं दाद देता हूँ. एक बिलकुल अलग और दिल से लिखी हुई रिपोर्ट बहुत प्रभाभित करती है. kuchh sulgaati है और फिर बुज सी जाती hai. मैं कुछ यूँ सोचता हूँ की कभी आपसे मुलाक़ात हो और हम भी आप से जाने के आप का प्रस्तुतीकरण न डी टी व् की दें है याह आपके ब्लॉग की तरह, दिल से निकली हुई आवाज़. जो भी है मन को भाति है और तभी आपकी प्रशंसा के पुल रात के 4.00 बजे कह रहा हूँ. ऐसा लगता है की पत्रकारिता के क्षेत्र में आपका योगदान स्वर्णिम अक्षरों में लिख दिया गया है.

Akhilesh Jain said...
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Akhilesh Jain said...

रवीशजी, मैं मुंबई में रहता हूँ. आपके कारण आफत में फस गया हूँ. पहले सिर्फ शुक्रवार को ९.३० रात में "रवीश की रिपोर्ट" के लिए लोकल ट्रेन में धक्के खाके भागकर घर पहुँचता था . अभी रोज ९ बजे पहुंचना पड़ता है. दिन भर की थकान उस वक़्त नदारत हो जाती है जब आपको टी व्ही सेट पर देखता हूँ. फिर "Prime Time" सुनकर अगले दिन जाने के लिए उर्जा मिल जाती है. आप सदा ऐसे हे सक्रिय रहें.

HardeepBhatiaYNR said...

I didn't know how these ideas come to their mind