मिस्र से आ रही तस्वीरों को देख कर ग़ज़ल- तहसीन मुनव्वर

अब तुझ से बेज़ार हैं लोग
ख़ुद अपनी सरकार हैं लोग
अब अनदेखी मत करना
मरने को तय्यार हैं लोग
ज़ालिम रेत का टीला है
लोहे की दीवार हैं लोग
खून है सब की आँखों में
यह न समझ बीमार हैं लोग
अब क्या ख़बरें रोकेगा
अब ख़ुद ही अख़बार हैं लोग
तुझ पर थूक नहीं पायें
कब इतने लाचार हैं लोग
पहले कितने आसां थे
लेकिन अब दुशवार हैं लोग
पहले नींद का ग़लबा था
लेकिन अब बेदार हैं लोग
देख इन्हें हाँ देख ज़रा
हर लम्हा इनकार हैं लोग
तुझ से प्यार नहीं करते
नफरत का इज़हार हैं लोग
तेरा काम ही छीनेंगे
यह जितने बेकार हैं लोग
यह है 'मुनव्वर' की दुनिया
जिसका कुल संसार हैं लोग....

हिन्दी शहर जयपुर



दीवारबंद जयपुर ऐसी दुनिया है जहां लगभग हर दुकान का नाम हिन्दी में लिखा गया है। नामकरण की ऐसी तरतीब हिन्दुस्तान में कम दिखती है। दिल्ली में कॉमनवेल्थ गेम्स के दौरान कनॉट प्लेस और पहाड़गंज की नामपट्टिकाओं को एक समान करने का अभियान चला। पत्रकार लिख रहे थे,इसकी तुलना विदेशों से कर रहे थे। किसी को ध्यान नहीं रहा कि जयपुर में ऐसा ढाई सौ साल पहले हो चुका है। आज भी इसका बड़ा हिस्सा बचा हुआ है। जिस जगह पर विदेशी सैलानियों की भरमार रहती है वहां के नाम हिन्दी में बचे हुए हैं। देवनागरी में लिखे हुए हैं। रोमन में नहीं।


कैमरामैन दिनेश ने बताया कि कई दुकानें भाइयों में बंट गई इसलिए दुकान की नाम की जगह दोनों भाइयों के नाम लिखे गए हैं। दिल्ली की तरह रौक्सी बॉक्सी नहीं हुए हैं। फ्लेक्स बोर्ड की बदक्रांति ने हमारे शहरों को गंदा ही किया है। हिन्दी न्यूज़ चैनलों के भीमकाय फॉन्टों की प्रेरणास्त्रोत रहे ये बोर्ड अजीबोग़रीब अंग्रेज़ी नामों से भरे रहते हैं। पता नहीं कैसे और किसकी वजह से जयपुर की दुकानें हिन्दी में दिख रही हैं। दुकानों का ऐसा सिलसिला दिल्ली के चांदनी चौक में भी दिखेगा लेकिन वहां के नाम ग़ायब हो चुके हैं। बरामदों में चलने की जगह नहीं होती। नाम तो दिखता भी नहीं है। दिनेश ने बताया कि जयपुर में भी लोग पुराने मकानों को तोड़ कर खराब किस्म के गुलाबी रंगों से रंग देते हैं। ताकि दूर से लगे कि यह गुलाबी शहर है। मुझे तो यह हिन्दी शहर लग रहा था। ख़ैर।

हमरी न मानो..रंगरेज़वा से पूछो...


२६५ साल से हमारे ख़ानदान में सभी रंगरेज़ ही होते रहे हैं। आज तक किसी ने कोई दूसरा काम नहीं किया है। जयपुर बसा था तब हमारे पूर्वजों को दिल्ली से लाया गया था। हम रंगरेज़ ही हैं। पहले राजपरिवार के रंगरेज़ हुआ करते थे और अब हर किसी के हैं। हमारा काम बढ़ता ही जा रहा है। कम नहीं हुआ है। रंगों के शौकीन हमारे ही पास आते हैं। मैं एक साड़ी में कम से कम दो सौ रंगों के शेड्स दे सकता हूं। हम किसी भी रंग को आपको कपड़े प उतार सकते हैं। उत्साह से बोले जा रहे थे अब्दुल राशिद चांद साहब। बताने लगे कि उनके अब्बा मरहूम अब्दुल लतीफ मिट्ठू जी से जयपुर के ख़ानदानी लोगों से सीधे ताल्लुकात रहे। अब्बा साल में एक दिन भोज करते थे तो जयपुर राजपरिवार के सदस्य हमारे घर खाने आते थे।

हम गए थे कहानी खोजने। जयपुर जैसे शहर में जहां हर किस्सा टूरिस्ट गाइड की मानिंद रटा रटाया हो गया है,वहां हम बचे हुए कुछ किस्से ढूंढ रहे थे। बात जमी नहीं तो कहानी बीच में ही छोड़ शूटिंग कैंसिल कर दी। लेकिन अब्दुल रशिद से बात करने में मज़ा आया। ऐसा रंगरेज़ जो रंगों से किसी खिलाड़ी की तरह खेलने में माहिर लगा। खूब बातें बताईं। कहा कि लोग पत्थर के टुकड़े, साबुनदानी,अंगूठी के नग लेकर आ जाते हैं और कहते हैं कि इस रंग को साड़ी पर उतार दो। कुछ लोग तो ब्रा और पैन्टी लेकर आ जाते हैं और कहते हैं कि इसकी मैचिंग साड़ी बना दो। राशिद ने अपने पिता का एक किस्सा भी सुनाया। जयपुर की किसी महारानी ने उन्हें बुलाकर कहा कि मिट्ठू जी हमें इंद्रधनुष के रंगों में ढली एक साड़ी चाहिए। अब्बा ने सागर लहेरिया बना दी। बाद में जिसे फिल्मों में नायिकाओं ने भी पहना और उसके बाद आम महिलाओं ने भी। अब्बा को सोनिया गांधी ने भी बुलाया था लेकिन उन्होंने मना कर दिया।

चांद ने कई रंगों के खत्म होने की कहानी बताई। कहा कि एक ज़माने में मलागिरी नाम का रंग हुआ करता था. सौ से अधिक जड़ी-बूटियों से बनता था। दस दिनों तक बूटियों को पकाने के बाद रंग बनता था। रंग चमड़ी की तरह इतना असली लगता था कि बिल्ली नोचने लगती थी और सांप कपड़े से लिपट जाते थे। इस रंग के तीन ही कपड़े जयपुर में मौजूद हैं। वक्त के साथ कई रंगरेज़ों ने असली काम छोड़ नग बनाने के काम में लग गए मगर अब वे धीरे-धीरे रंगरेज़ बन रहे हैं। हमारा धंधे में काफी मांग है। जब हमने लोगों से पूछा कि रंगरेज़ों का मोहल्ला जाना है तो एक सज्जन ने कहा कि पुरानी दिल्ली जाना है। पुरानी दिल्ली का मतलब क्या होता है? हमरी न मानो..रंगरेज़वा से पूछो...

भागलपुर की जीप

देश के कई हिस्सों में गाड़ियों का मानवीकरण एक दिलचस्प प्रक्रिया के रूप में नज़र आती है। सभी अपने अपने हिसाब से गाड़ी को सजा कर रखते है। गाड़ियों की भीतरी सजावट को देखकर लगता है कि चलाने वाला अपनी गाड़ी को कितना प्यार करता है। इन गाड़ियों में उसका स्व झलकता है।




आशंकित मनों से दूर जयपुर


साहित्य से भी शहर को पहचान मिलती है। जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल शहरीकरण से बोझ से दब रहे और पसर रहे जयपुर को नई पहचान दे रहा है। दिल्ली को यह पहचान विश्व पुस्तक मेला से नहीं मिल सकी। जबकि दिल्ली के मेले का इलाका बड़ा होता है। भीड़ ज्यादा होती है। असंख्य किताबें होती हैं। इसके बावजूद साहित्यिक पहचान का पक्ष कभी दिल्ली के साथ नहीं जुड़ सका। साठ हज़ार लोगों ने जयपुर लिटरेचल फेस्टिवल में आने के लिए रजिस्ट्रेशन कराया। इसके अलावा बड़ी संख्या में शहर के पाठक इस मेले में आते-जाते रहे। दरअसल यह है पाठकों का मेला जिसमें उनके प्रिय लेखकों का भी जमावड़ा होता है। एक सिख पिता अपने दस साल के बेटे को लेकर आए थे ताकि उसमें कुछ कुछ उनके लेखक जैसा बनने की प्रेरणा विकसित हो।


संख्या के हिसाब से अति-कुलीन लोगों का बहुमत रहा। मगर कई बार यह अतिकुलीनता सेल में खरीदकर पहने गए कपड़ों के आधार पर भी तय कर ली जाती है। ऐसा होता तो जब अमितावा कुमार और अभिजीत घोष भोजपुरी सिनेमा पर चर्चा कर रहे थे तब हॉल खचा-खच भरा रहा। अमितावा खांटी अंग्रेजी दां हैं मगर भोजपुरी सिनेमा पर बोलते हुए भोजपुरी टोन को उभारते हैं। ऐसी हिन्दी कैसी हिन्दी पर चर्चा चल रही थी तब डिग्गी पैलेस के फ्रंट लॉन में उतनी ही भीड़ थी जितनी नोबल पुरस्कार ओरहान पामुक को सुनने लोग जमा थे। फिर से ये वही तथाकथीत अंग्रेजी दां लोग थे जो मृणाल पांडे से यह सुनकर गदगद हो रहे थे कि उनके कुमाऊं में गंध के बारह शब्द हैं। हम अपने शब्दों को भूल रहे हैं। सुधीश पचौरी बोल रहे हैं कि हिन्दी के प्रकाशक कमाई का तीन-तीन बहीखाता रखते हैं इसलिए हिन्दी की कमाई की असली ताकत का अंदाज़ा नहीं मिलता। अगर मेले में आए लोग सिर्फ हा हू हाई बाई करने के लिए ही आए तो वो हिन्दी और भोजपुरी को क्यों सुन रहे थे। कहीं ऐसा तो नहीं कि हम एक खास तरह से दिखने वाले वर्ग को लेकर काफी असहज हो जाते हैं।


यह मेला सचमुच अलग है। मदनगोपाल सिंह और अली सेठी के साथ सूफी संगीत के बारे में सुनना एक अलग अनुभव रहा। कश्मीर के घायल अनभुवों पर राहुल पंडिता का किस्सा कि कैसे उनका एक भाई आतंकवादियों के हाथों मारा जाता है और कैसे उसके बचपन का दोस्त लतिफ लोन भी आतंकवाद के रास्ते पर चल पड़ता है और सुरक्षा एजेंसियों के साथ एनकांउटर में मारा जाता है। कश्मीर पर बातचीत चल रही है और सभा स्थल में पांव रखने की जगह नहीं है। मेरी एक मित्र अनुभा भोंसले छु्ट्टी लेकर मेले में आई थी, अपने एक लेखक को सुनने। आंधे घंटे के भाषण के लिए दिल्ली से आई थी। मुझे यकीन नहीं हुआ कि न्यूज़ टेलीविज़न में काम करने वाली अनुभा के भीतर किताब और लेखकों के लिए इतना वक्त है। बार-बार पूछता ही रहा कि कवर करने आई हो। शायद हम उस धारणा और भ्रम के शिकार हैं कि कोई लेखकों के लिए वक्त ही नहीं निकालेगा।


इस फेस्टिवल में वो नौजवान तबका ऑटोग्राफ बुक लिये घूम रहा था जिसे अक्सर हम खारिज करते रहते हैं। कई स्कूलों के बच्चे भी यहां लाए गए जिन्हें इन गंभीर विषयों से दो-चार होने का मौका मिला। अच्छा भी लगा कि इनके जीवन में सिर्फ सलमान खान या रिकी मार्टिन ही हीरो नहीं बल्कि ओरहान पामुक या गुलज़ार भी हैं। जयपुर के पहले गर्ल्स स्कूल की अंग्रेजी की टीचर अपनी छात्राओं को लेकर हिन्दी के लेखकों से मिला रही थीं। वो चाहती थी कि उनके बच्चों में हिन्दी के प्रति संस्कार और बेहतर हों। वो पूछ रही थीं कि क्या-क्या किया जा सकता है। कम से कम उन्हें यह मेला मौका तो दे ही रहा था। एक और बात खास है। जयपुर लिटरेचल फेस्टिवल में किताबें को बेचने के लिए भीड़ नहीं बुलाई गई है। भीड़ आई है लेखकों से मिलने। किताबों के बिजनेस से ज्यादा विषय पर चर्चा है। एक लड़की 1857 पर पाठ कर रहे महमूद फ़ारूक़ी और मृणाल पांडे से जोश में पूछती है कि क्या हम इस क्रांति में शर्मिंदा है? हम क्यों नहीं इस पर गर्व करते हैं। महमूद जवाब देते हैं कि मैं भी यही चाहता हूं कि हम गर्व करें।

कहीं ऐसा तो नहीं कि हम किताबों के प्रति उनकी गंभीरता को इसलिए नकार रहे हैं कि वे अंग्रेजी में बोलते हैं या अंग्रेजी दां हैं। उनकी एक आर्थिक हैसियत है। एक किस्म का वर्ग-भय भी है। साहित्य तो सबका होता है। इसमें कोई भी लेखक ऐसा नहीं था जो अंग्रेजी और पैसे के दम पर कमज़ोरों को कुचल देने की वकालत कर रहा था। बल्कि बता रहा था कि कैसे उन्होंने अपने कमज़ोर हालात के क्षणों में साहित्य को ज़िन्दा रखा। बेहतर होगा कि हिन्दी के लोग भी बड़ी संख्या में पहुंच कर उन्हें अल्पमत में कर दें। वैसे हिन्दी के लोग भी खूब आए। यह फेस्टिवल अच्छा है और सबका है। ऐसे फेस्टिवल हिन्दी के लोग भोपाल में कर सकते हैं। जहां किताबें न बिकें बल्कि लेखक मिलें। जहां विनोद कुमार शुक्ल भटकते हुए दिख जाएं, कुछ समय के लिए अशोक वाजपेयी हॉल में बैठकर युवाओं को सुनते दिख जाएं। जैसा जयपुर में दिखा,वैसा भोपाल में भी दिख सकता है।

किरण-ओरहान को देखने के लिए


जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में लेखकों के प्रति लोगों की दीवानगी देखते बनी। सुनने वालों की एकाग्रता भी हैरान कर रही थी। हर बैठक में कोई न कोई किसी न किसी विषय पर बोल रहा था मगर कहीं भी बैठने की जगह नहीं मिल पा रही थी। ओरहान पामुक और मदनगोपाल सिंह, अली सेठी जैसों को सुनने के लिए लोग एक घंटा पहले से जगह छेक कर घूम रहे थे। कुर्सी पर अपना बैग और किताब छोड़ कर। पामुक और किरण देसाई पर खास नज़रें रहीं। लोग एक घंटा खड़े-खड़े उन्हें सुनते और देखते रहे। निहारते भी।


एक अंग्रेज़ी अख़बार को उनकी अंतरंगता में बन रहे या बन चुके एक रिश्ते की झलक दिख रही थी। किस्से चल निकले थे। किरण और ओरहान जब भी एक दूसरे को देखकर मुस्कियाते,लोगों को लगता देखा अंग्रेजी अखबार ने ठीक लिखा है। कुछ तो है। पर जो भी था या जो भी नहीं था वो सबके सामने था। इतनी भीड़ में दोनों अपने लिए स्पेस बना ले रहे थे।







मदन गोपाल सिंह को सुनने के लिए भीड़ बावली हो उठती थी। सभी भाषाओं और तबके के लोग थे। वो बता रहे थे कि कैसे बुल्ले शाह को गाते-गाते आप जब कहीं किसी शब्द पर अटक जाएं तो वहां से आप खुसरों पर चले जाइये, वहां लूप बनाते हुए लौटकर उस शब्द पर आ जाइये। उनके साथ पाकिस्तान से आए अली सेठी का भी अपना जलवा रहा।

मैंने विनोद कुमार शुक्ल को देखा

मैं दृश्य में सोचता हूं। जब भाषा नहीं बनी होगी तब इंसान कैसे सोचता होगा। मेरे ख़्याल में दृश्य में सोचता होगा। मैं अपनी चुप्पी को बचाने के लिए लिखना चाहता हूं। जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में नौकर की कमीज़ के लेखक विनोद कुमार शुक्ल अपनी कहानी का पाठ करने के बाद तमाम तरह के वर्गों से आए पाठकों के सवालों का जवाब दे रहे थे। एक पाठक ने सवाल किया क्या आपके लेखन में मार्ख़ेज़ की रचनाओं का असर दिखता है आपके विवरण में। विनोद कुमार शुक्ल ने कहा कि मैं कम पढ़ा लिखा हूं। मार्खेज़ को पढ़ा है वैसे पर उतना नहीं। रही बात विवरण के असर की तो महाभारत और रामायण जैसी विवरणमयी रचना आपको पूरे यूरोप में कहीं नहीं मिलेगी।

हिन्दी के अखबारों,पत्रिकाओं और साहित्यिक पत्रिकाओं के कवर पर लेखकों की तस्वीरें नहीं छपती हैं। वो लेखन से याद किये जाते हैं। विनोद कुमार शुक्ल यहां न पहचाने जाने से प्रसन्न ही होंगे। वे इतनी भीड़ में भी अपने लिए एकान्त तलाश रहे थे। चुप रहने के लिए या शायद बाद में चुप्पी तोड़ने के लिए। हर सभाओं में वक्ताओं को ध्यान से सुनते हुए विनोद कुमार शुक्ल को देखना अच्छा लगा।












मुझे सिकंदर चाहिए, दिल्ली नहीं

पता है मुझे मेट्रो पसंद नहीं है। मेट्रो सिर्फ भागती है। धड़कती नहीं है। सिकंदर उखड़ा हुआ था बेवजह। ख़ुद को पकड़ नहीं पाता है तो हर भागने वाली चीज़ दुश्मन नज़र आने लगी। मॉल के खंभे के पीछे खड़ी सानिया चुपचाप सुनती रही। सिकंदर ने ऑटो से लेकर लोगों के बात करने की तहज़ीब को लपेटे में ले लिया। सांसों को भूल वो सेंस को गरियाने लगा। ट्रैफिक सेंस,टॉकिंग सेन्स। वो भीतर से जल रह था मगर धुआं किसी और की चिमनी से उठ रहा था। सानिया को समझ आने लगा। हल्के से पूछ लिया पर तुम भागना क्यों नहीं चाहते? हम इन खंभों के पीछे भाग कर ही तो आए हैं। सिकंदर के भीतर की चिन्गारी पर जैसे किसी ने राख डाल दी हो। सामने दूर तक खाली टाइल्स में लिपटे फ़र्श की चमक में किसी की परछाई भी नहीं बन पा रही थी। सिकंदर दूसरी तरफ देखने लगा। दूसरे खंभे के पीछे खड़े दो प्रेमियों की मौजूदगी किसी ख़ामोशी की तरह शोर कर रही थी। वे दोनों शहर को लेकर परेशान नहीं थे। सानिया..मुझे भागने से नहीं,जगह बदलने से डर लगता है। दूसरे खंभे के नीचे खड़े प्रेमी इन बहसों से दूर एक दूसरे को छू लेने की बेताबी से सतर्क थे। इससे पहले कि ख़रीदारों की भीड़ आस-पास से गुज़रने लगे,वो किसी अजनबी की तरह एक दूसरे को देखने लगे,सुबह के इस वक्त को प्रेमी की तरह जी लेना चाहते थे। ख़ामोश ज़ुबान मगर सांसें बोल रही थीं। किसी भाप ईंजन वाली रेडगाड़ी के डिब्बे की तरह धड़क रही थीं। सिकंदर ने सानिया से हाथ छुड़ा लिया। एक-एक कर खुल रही दुकानों के शटर की आवाज़ से पर्स में पड़े सिक्के दुबकने लगे थे।

सिकंदर अपने एकांत में सानिया के साथ एक शहर में बदला जा रहा था। डीटीसी की लाल ख़ूबसूरत बसों में सवार मुर्झाये चेहरे पंद्रह रुपये के टिकट का दर्द दबाए बैठे हुए थे। उसकी नज़र पटरी पर अकड़ चुके उन बूढ़े नौजवान शरीरों पर थी जिन्हें दिल्ली बेघर कहती है। भीतर से सानिया से मिलने की कशिश और मॉल के खंभे पर किसी और जोड़े के पहुंच जाने की घबराहट घेर रही थी। उधर खंभों के नीचे दुबकी सानिया अपने प्रेम के इन पलों में सिर्फ सिकंदर से मुख़ातिब होना चाहती थी। भागने से ख़ौफ़ खाए सिकंदर से नहीं,बल्कि ठहरे हुए आशिक से। अक्सर कहती थी मेरा सिकंदर आता है तो लगता है पूरा शहर आ गया है। मुझे बस अब तुम्हारे भीतर के इस शहर से दूर ले चलो।

मेरी ग़लती थी सिकंदर जो मॉल के इन खंभों को महफूज़ जान कर तुम्हें यहां ले आई। एयरकंडीशन एकांत तो तुम्हें भी अच्छा लगा था न। मगर यहां आकर सपने भी कैसे होने लगे हमारे। है न। अजीब से। क्या कह रही थी उस दिन मैं। मॉल के इन खंभों की क़सम मौलवी से यहीं निकाह पढ़वाऊंगी। सिकंदर तुम सेहरा बांधे उस खंभे से इस खंभे तक आना। तब हम पहली बार इस मॉल में बेख़ौफ बिना खंभों के दुनिया के सामने होंगे। हम दो खंभों के बीच एक दूसरे का हाथ थामे खड़े हो जायेंगे। एक लड़की एक लड़के के दामन में...इस तरह सरेआम। नहीं नहीं...सिकंदर तुम मेरे दामन में होना। मॉल में आने-जाने वाले लोग हमारे इस पल को किसी फ्री आइटम की तरह अपनी ख़रीदारी की यादों में रख लेंगे।

पता ही नहीं चला कब बातों बातों में सिकंदर का सर सानिया के कंधे पर टिक गया। लगा कि कुछ देर के लिए इन खंभों की तरफ कोई नहीं आएगा। एक ऑटो उतरता है। दोनों दायें बायें देखते हैं। आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया के काउंटर से दस रुपये का टिकट लेकर इतिहास के खंडहरों में अपने प्रेम का भविष्य तलाश रहे हैं। डेढ़ सौ साल पुरानी नीम के नीचे की हल्की हवा सिकंदर और सानिया को बादशाह और बेगम के खेल में उलझाने लगी। सिकंदर बेखौफ वादे करने लगा। पता है सानिया, एक दिन मैं भी कुछ ऐसा करूंगा कि दुनिया कहेगी कि देखो जितना सिकंदर ने सानिया को प्यार किया उतना ही हम तुमसे प्यार करते हैं। एक महल बनवा दूंगा। एक ख़ूबसूरत बाग़ भी होगा जिसमें पक्षियों की चहचहाहट होगी। सानिया तुम उधर से आना। ख़ूब सारी चूड़ियां पहने। दोनों सपनों की एक पूरी फिल्म में खोने लगे। तभी जोड़ी सलामती की दुआ देने वालों की ताली से नींद टूट गई। अचानक सिकंदर मॉल में सेल की लूट में शामिल भीड़ देखकर बेचैन हो उठता है। उनका एकांत फिर से छिन गया है। सिकंदर शहर में उलझ जाता है। दस बजे ही इन्हें दुकान का सारा माल ख़रीद लेना है। दिल्ली है या साली दुकान। ख़रीदार भी दुकानदार लगते हैं। एक दुकान से सामान लिया फिर अपने घर को गोदाम बना दिया।

सानिया धीरे-धीरे कहने लगी। देखा सिकंदर,जब से हम मॉल में आने लगे हैं,तुम्हारे साथ शहर आने लगा है। हम कल से यहां नहीं आएंगे। फिर से चलेंगे पुराना क़िला। ये क्या जगह है। तुम्हारे हाथों के स्पर्श से भी ट्रैफिक जाम की तिलमिलाहट का अहसास होता है। मॉल में आकर हम कितने लाचार महसूस करने लगते हैं। यहां की दुकानें तुम्हें हिला देती हैं सिकंदर। मुझे इनसे कुछ नहीं चाहिए। सेल की लूट से भी मतलब नहीं। न ही किसी ब्रांड से। मुझे सिर्फ सिकंदर का सपना चाहिए। मॉल में सपने नहीं देखे जा सकते। पुराना क़िला में हम कितने सपने देखते थे। यहां तुम सपनों से डर जाते हो सिकंदर। तुम्हारे घर महंगे हो जाते हैं,ईएमआई बड़ी हो जाती है। कारें बहुत हो जाती हैं। सैलरी,प्रमोशन,बॉस की बातें करने लगते हो। कम से कम वहां हमें मालूम था कि ऐसा क़िला फिर कभी नहीं बनेगा,फिर भी सपने देखा करते थे। मॉल में सब कुछ पाने की बेचैनी तुम्हें पूरे शहर से भिड़ा देती है। और तुम मुझको भूल जाते हैं।

चलो न। सच्चे ख़्वाब देखने से अच्छा है,कुछ झूठे ख़्वाब देख आएं। उसी नीम के नीचे बैठ कर दो चार बादाम के टुकड़े हम चिड़ियों में भी बांटा करेंगे। तुमको देखने का मौका तो मिलेगा। मुझे सिर्फ सिकंदर चाहिए। दिल्ली नहीं। इस मॉल से निकलते हुए अक्सर लगता है सिकंदर,हम प्रेम के पलों को नहीं,सेल के झेमेलों को जी कर निकल रहे हैं। तुम भी मुझे कम, मैनिक्विन को ज्यादा देखने लगते हो। देखो...पुरानी दिल्ली के चितली क़बर से ख़रीदा है मैंने यह चूड़ीदार। अब मत कहना कि दीपिका के जैसा है। ये मैं हूं। सानिया...तुम्हारी सानिया सिकंदर।

दस रुपये का चार सिनेमा



सचमुच मन गदगद हो गया। ज़माने से आम लोगों के मनोरंजन के तौर-तरीके और अधिकार पर रिपोर्ट कर रहा हूं। मल्टीप्लेक्स ने ऐसा धकियाया कि आम आदमी पान के खोमचे में चल रहे सिनेमा को खड़ा हो कर आधा-अधूरा देख काम पर चला जाता है तो कई लोगों ने कई सालों से सिनेमा हॉल में फिल्म ही नहीं देखी। पिछले साल सिनेमा का सिकुड़ता संसार पर रवीश की रिपोर्ट बनाई थी। ये रिपोर्ट www.tubaah.com पर है। पीपली लाइव के सह-निर्देशक महमूद फ़ारूक़ी से बात चल रही थी। हम उम्मीद कर रहे थे कि कहीं न कहीं वीडियो हॉल तो होंगे इस दिल्ली में। उस रिपोर्ट के दौरान नहीं मिला। हां सीमापुरी और लोनी बॉर्डर से सटे एक गांव में एक मल्टीप्लेक्स ज़रूर मिला जहां का अधिकतम रेट ४० रुपये था। वैसे अब मेरे पड़ोस के मल्टीप्लेक्स में गुरुवार को पचास रुपये का टिकट मिल रहा है। मल्टीप्लेक्स वाले औकात पर आ रहे हैं।

ख़ैर भूमिका में समय क्यों बर्बाद कर रहा हूं। पहले नज़र पड़ी दिल्ली के एक पुनर्वास कालोनी में लगे इन चार फिल्मी पोस्टरों पर। अजीब से नाम। लोग निहार रहे थे। कैनन के कैमरे से क्लिक करने नज़दीक गया तो ढिशूम ढिशूम की आवाज़ आ रही थी। पर्दा हटाया तो सिनेमा हॉल निकला। कैमरा घुसेड़ दिया। तभी ग़रीब सा मालिक दौड़ा आया कि ये मत कीजिए। दिखा देंगे तो प्रशासन वाले हटा देंगे। सोचिये कि ये ग़रीब लोग कहां जाएगा। जब काम पर नहीं जाता है तो यहीं अपना मनोरंजन करता है। मैंने उसकी बात मान ली और कहा कि मनोरंजन के अधिकार के तहत मेरी नज़र में यह ग़ैरक़ानूनी नहीं है। मैं जगह नहीं बताऊंगा कि कहां देखा। स्टिल लेने दीजिए।

भीतर झांक कर देखा तो कोई सौ के क़रीब लोग ज़मीन पर बैठकर सिनेमा देख रहे थे। ठूंसा-ठेला कर। पूरी शांति और शिद्दत के साथ। लंबा सा हॉल। दूर एक टीवी नज़र आ रहा है। हॉल में स्पीकर की व्यवस्था थी। मालिक ने बताया कि हमारा रेट ग़रीब लोगों के हिसाब से है साहब। दस रुपये में चार सिनेमा या फिर पांच रुपये में दो सिनेमा। जो पांच रुपये देता है उसको दो सिनेमा के बाद बाहर निकाल देते हैं। ये कहां जाएंगे। यहां से शहर इतनी दूर है कि मटरगस्ती के लिए भी नहीं जा सकते। कोई पार्क नहीं है। घर इतना छोटा है कि छुट्टी के दिन कैसे बैठे। बस यहीं चले आते हैं मनोरंजन के लिए। सिनेमा को इसी रेट पर उपलब्ध कराने का मालिक ने जो क्रांतिकारी कार्य किया है वो उनको जवाब है जो चंद लोगों के मुनाफ़े के लिए एंटी पाइरेसी का अभियान चलाते हैं और सरकार से रियायती ज़मीन लेकर मल्टीप्लेक्स बनाते हैं। इस तरह से ठूंसा कर तो मैंने बहुत दिनों से कोई फिल्म ही नहीं देखी है। पीपली लाइव और दबंग में भीड़ देखी थी। आज ही नो वन किल्ड जेसिका नाम की एक ख़राब डॉक्यूमेंट्री देखने गया था। दस लोग थे। आम आदमी को बाज़ार से निकाल कर बाज़ार बनाने वालों को समझ आनी चाहिए कि उनका सिनेमा मल्टीप्लेक्स से बेआबरू होकर उतरता है तो इन्हीं गलियों में मेहनत की कड़ी कमाई के दम पर सराहा जाता है। सरकार को कम लागत वाले ऐसे सिनेमा घरों को पुनर्वास कालोनियों में नियमित कर देना चाहिए। टैक्स फ्री।

पिछले एक महीने से दिल्ली के अलग-अलग इलाकों में घूम रहा हूं। अजीब-अजीब चीज़ें मिल रही हैं। बिना नाम वाले इस सिनेमा हॉल को देखने के बाद रहा नहीं गया। आज इस सवाल का साक्षात जवाब मिल ही गया कि चाइनीज़ डीवीडी क्रांति के बाद भी वो बड़ी आबादी अपना मनोरंजन कैसे कर रही है जो न तो सेकेंड हैंड टीवी खरीदने की हालत में है न ही चाइना डीवीडी। दस रुपये में चार सिनेमा का रेट। वाह।

....और गई गेंद चौधरी के खेत में




पश्चिम उत्तर प्रदेश के गढ़ मेले को कवर करने के रास्ते में गन्ने के खेत में हो रहे क्रिकेट टूर्नामेंट पर नज़र पड़ गई। जिस शिद्दत से मैच का आयोजन किया गया था उसे देखकर मुझे जैसे तदर्थ खेल प्रेमी को भी अच्छा लगा। मुरादाबाद के पास के गांवों के बीच टूर्नामेंट चल रहा था। बाउंड्री पर झंडे लगाए गए थे। गन्ने के खेतों के बीच के खाली खेत को मैदान बनाया गया। सिर्फ पिच समतल थी। क्रिकेट के ऐसे नज़ारे आम हैं। बहुत ज़माने से हैं। फिर समाज की जीवंतता झलकती रहती है तो अच्छा ही लगता है। हमारा मेट्रो मन थोड़ा देर के लिए लोकल लेवल पर आ जाता है।


बाउंड्री पर लाइव कमेंट्री भी चल रही थी। सैय्यद और अफ़रोज़ पिच पर डटे हुए थे। जंग लगे भोपूं से स्थानी धोनी सहवाग की खूबियां बखान की जा रही थीं। बगल में बर्गर और पैटीज बेचने वाला भी आ गया था। सीमा रेखा के बाहर गांव के समर्थक नौजवान तालियां बजा रहे थे। मैं तस्वीरें ले रहा था। कमेंटेटर ने कहा और ये गई गेंद सीमा रेखा से भी बाहर फलाने चौधरी के खेत में। कमेंटेटर को क्रिकेट के अलावा भी कई चीज़े मालूम थीं।

दिल्ली में दिख गई ढेंकी


कभी-कभी घूमते-घूमते ग़ज़ब का अनुभव हो जाता है। बवाना की पुनर्वास कालोनी में ढेंकी के दर्शन हो गए। दिल्ली में ढेंकी के दर्शन हो जायेंगे कभी सोचा नहीं था। कुछ महीने पहले चंद्रभान प्रसाद कह रहे थे कि गांवों से जांता और ढेंकी ग़ायब हो चुके हैं। जांता पर गेहूं और चना पीसा जाता था। बल्कि पीसने की जगह दरने का इस्तमाल होता था। ढेंकी से धान की कूटाई होती थी। धीरे-धीरे। वक्त लंबा होता था तो औरतों ने ढेंकी कुटने के वक्त का संगीत भी रच डाला था। मेरी चचेरी बहन,फुआ और बड़ी मां को खूब गाते देखा है। हम भी जब उधर से गुज़रे तो दस पांच बार ढेंकी चला लिया करते थे। ढेंकी से निकलती चरचराहट की आवाज़ गांव घरों में दोपहर के वक्त के सन्नाटे को अपने तरीके से चीरा करती थी।

हालांकि ढेंकी और जाता पूरी तरह से ग़ायब नहीं हुए हैं मगर गांवों में कम दिखने लगे हैं। मशीन की कूटाई-पिसाई ने न जाने कितने सैंकड़ों साल पुरानी इस तकनीक को ग़ायब कर दिया। ग़नीमत है समाप्त नहीं हो पाई ढेंकी। हम सोचते रहे कि दिल्ली जैसे महानगर में ढेंकी जाता का बात कौन करेगा। मगर महानगर में ढेंकी को देखकर ऐसे लगा जैसे बवाना में डायनासोर देख लिया या फिर अजगर निकल कर किसी के बिस्तरे पर आ गया हो। हैरानी। तीन चार लड़कियां उसी मस्त अंदाज़ में झूमते हुए चावल कूट रही थीं।

अब यही से विश्लेषण सामाजिक टाइप होने लगता है। कई संस्कृतियों वाली पुनर्वास कालोनी में एक पुरानी तकनीक का जगह बनाना। कूटने वाली महिलाएं बांग्ला बोल रही थीं। कूट रही थीं चावल। धान नहीं। महिला ने बताया कि पचास किलो चावल पीसने में तीन घंटे लग जाते हैं। पीसे हुए चावल से वो बस्ती में इडली डोसा बेचती है। हद हो गई। कॉकटेल की। बंगाली औरतें,उत्तर भारतीय ढेंकी और कूटाई-पिसाई दक्षिण भारतीय व्यंजन के लिए। बंगाल में भी ढेंकी का इस्तमाल होता रहा है। बांग्ला में इसका कुछ नाम था जो मैं लिखते वक्त भूल गया। क्या पता यह टेक्नॉलजी पूरे भारत में ही हो। बल्कि होगी ही। बहुत आनंद आया इस ढेंकी को देखकर।