कैसे बचेंगे हम और हमारा मकान



गली का आखिरी होता मकान
अर्धगोलाकार
भूरे रंग की खिड़कियां होतीं
मोटी मोटी सीढ़ियां
कुमार सदन नाम का एक मकान
पुराने मोर्टे पर्दे
बेंत की कुर्सियों से भरा बरामदा
ऊपर से जाता फ्लाईओवर आसमान
तेज भागती कारों से दिखती
कमरे में फैली ट्यूबलाइट की रौशनी
और
नीली दीवार
लाल रंग की फर्श और काले खंभे
रेडियो पर रखा क्रोशिया कवर
और
एक छोटा सा गुलदान
सेंटर टेबल पर रखकर लात
सुबह हाथों में लिये अख़बार
पन्नों पर दुनिया होती
और
सामने मेरा मकान
बिल्कुल न बदलने की ज़िद में
केपटाउन अपार्टमेंट के सामने
कुमार सदन
शहर में एक पुराने पते की तरह
ऊंची इमारतों से नीचे झांकने पर
दिखती मेरी छत
उस पर रखी बेटी की पुरानी साइकिल
और
लुंगी गंजी भरमार
हवाओं के संपर्क में लहराते सूखते
वही बूढ़ा आज भी बैठा है
लिये हाथ में अख़बार
कैसे बेकार पड़ा है इसका मकान
बेच कर बिल्डर को दे देता
कुमार से केपटाउन हो जाता मकान
अपार्टमेंटों के इस गुमान काल में
कैसे बचे रहे हम
और
हमारा मकान

29 comments:

कुमार राधारमण said...

कंक्रीट के इस जंगल में,एकल मकान ही गुम नहीं हो रहे। महानगर में एक अदद छत की तलाश कर रहे लोगों में से कम ही के पास वह छत और आंगन बची है जो कई अर्थों में हमारे साझेपन की प्रतीक हुआ करती थी।

Anonymous said...

दिल की आवाज हर भारतीय की टीस
याद करता हूं क्या कहीं हैं मेरा मकान

डॉ टी एस दराल said...

समय के साथ बदले या न बदलें , यही उलझन रहती है सभी पुराने लोगों के साथ ।
लेकिन यादों के सहारे विकास नहीं हो सकता । बदलना तो पड़ेगा ही ।
अपने बहुत अच्छा वर्णन किया है इस कशमकश का ।

شہروز said...

घरों पे नाम थे नामों के साथ ओहदे थे
बहुत तलाश किया कोईं aadmee न मिला !!

सीधी निशाने पर है आपकी कविता !!

मैंने भी कुछ कहने की धृष्टता की थी,
बाज़ार,रिश्ते और हम http://shahroz-ka-rachna-sansaar.blogspot.com/2010/07/blog-post_10.html

रवि कुमार, रावतभाटा said...

काफ़ी कुछ बेहतर है जिसे बचाया जाना है...
काफ़ी कुछ बेहतर है जिसे बनाया जाना है...

सरोकारों को स्पष्ट करती रचना...

दीपक बाबा said...

कल पुरातत्व विभाग कराएगा ...
मेरे इस मकान का सर्वेक्षण
फिर चालू होगी इसे बचने की कवादायत
कल के युवा भी यहीं आया करेंगे ..
एकांत दूंदने,
DU में इसका भी एक नाम होगा
KS कुमार सदन

दादा आपकी कविता में गुस्ताखी की......... मुआफी चाहते हैं.

Shahid said...

Ravish Ji, guru har baar dimag ko hila diya karte ho, aaj kal panjab mein drugs ka upyog bahot ho raha hai kuchh us par bhi likhiye.

Shahid

कुलदीप मिश्र said...

बहुत सुन्दर. अपार्टमेंट्स बहुत कुछ लील गए हैं.

Parul kanani said...

aapki in panktiyon se ek geet jehan mein baj utha hai../ye tera ghar..ye mera ghar..jise bhi dekhna ho gar/ :)

Unknown said...

namskaar!
qasbe ka makaan achhaa hai.
namaskaar.

Tushar Mangl said...

bahut acha

Ashkara Farooqui said...

दिल से बेसाख्ता बहते हुए आंसू का सफ़र,
आँख की मंजिल से परे ख़त्म हुआ,,
कौन वीरान मकाँ देखके पूछे कि,,,
यहाँ कोई मकीं रहता था ?

मेरी रचना क़तई नहीं है... और शायर का नाम भी मुझको याद नहीं आ रहा..
http://gharkibiwi.blogspot.com/

नवीन कुमार 'रणवीर' said...

दरअसल हम दिखावा या आधुनिकता पर दुनिया के साथ आप चले ना चले, ये दुनिया आपको साथ चलनें के लिए मज़बूर कर देती है। यहां आपनें सवाल केवल मकान का नहीं उठाया है उस सोच का उठाया है जो कुछ तथाकथित समझदार और आधुनिक(दिखावा पंसद)लोग इस समाज पर बाज़ारी मांग की तरह थौंप देते है।
गोपाल दास "नीरज" की कुछ पंक्ति याद आती है जितना कम सामान रहेगा,
उतना सफर आसान रहेगा
जितनी भारी होगी गठरी,
मुश्किल में इंसान रहेगा...

माधव( Madhav) said...

well poem

विजय प्रकाश सिंह said...

रवीश जी, जहां आज अपार्टमेन्ट दिखता है , कल वहां एकल मकान था । जहां कल एकल मकान था वहां उससे पहले जंगल था , खेत था । ये तो परिवर्तन है :

सुना ही होगा - नाव तो क्या बह जाये किनारा , बड़ी ही तेज समय की है धारा ।

बस यादें संजोये रहिए और परिवर्तन को अपनाते चलिए ।

Unknown said...

ravish jee,is appartment ke yug mai sayad hi koi makan mile.please ek report koshi trashdi par detai to hum koshi walo ka dukh sarkar samajh pati.

देवेन्द्र पाण्डेय said...

जब तक हम तब तक हमारे मकान
नये युग में बनाएंगे नौनिहाल नए मकान
यूँ ही बदलती रहेंगी सभ्यताएं
और यूँ ही ढूंढते रहेंगे आदमी
अपनी संस्कृति, अपने मकान
शुक्र है कि दुनियाँ परिवर्तनशील है
शायद तभी
नई कविताओं की प्रचुर संभावनाएँ जीवित हैं.

shailendra singh said...

क्या बात है|

anoop joshi said...

sir wainse aapko koi fark nahi padta hamare comment se par fir bhi bahut khoob...............

कडुवासच said...

... prasanshaneey rachanaa !!!

संजय भास्‍कर said...

उतना सफर आसान रहेगा
जितनी भारी होगी गठरी,
मुश्किल में इंसान रहेगा...

संजय भास्‍कर said...

अपने बहुत अच्छा वर्णन किया है इस कशमकश का ।

संजय भास्‍कर said...

मुझे आपका ब्लोग बहुत अच्छा लगा ! आप बहुत ही सुन्दर लिखते है ! मेरे ब्लोग मे आपका स्वागत है !

Prabhat said...

Ravish Dada, Qusba se jurata hua Prawasi purane Makaan ko dekh kar apne jaron ki yaadon me kho jata hai.
Dada, aap apne se lagte ho.

MANISH UNIYAL said...

APNE PURANE GHAR KI YAAD DILA DI,SHAYAD MAI ABHI JAKAR DEKH PATA WO DARAREIN JINHE DEKHKAR MAI KUCH SOCHTA THA,KHO JATA THA UNKI GAHRAYION ME,AUR PHIR SO JATA THA.

संजय भास्‍कर said...

namskaar!
qasbe ka makaan achhaa hai.
namaskaar.

manu said...

ऊंची इमारतों से नीचे झांकने पर
दिखती मेरी छत
उस पर रखी बेटी की पुरानी साइकिल
और
लुंगी गंजी भरमार
हवाओं के संपर्क में लहराते सूखते

:)

manu said...

घर टपकता है मेरा, सो अब्र वापस जाएगा
हम भरम पाले हुए थे और बारिश हो गयी...


:(

manu said...

आपके ब्लॉग पर मोडिरेशन ...
जमा नहीं कुछ....