उधार के रंगों से सपने हसीन नहीं होते

गंडक
मेरे होने की साक्षी
सिर्फ तुम्हीं हो
तुम्हारी ही लहरों से बच कर आया था
जब उसने दुपट्टे से खींच लिया था
एक मन्नत भी मांगी तुमसे
सर पे भंवर पड़े हैं इसके
ये फिर डूबेगा लहरों में
बचा लेना इसको सपनों से
तब भी रंग लिया था अपने सपनों को
किनारे पर खड़े होकर
पांव धोती सुहागिनों के आलते से
तब तुम्हीं ने कहा था
मिट्टी का बना है इसका मन
कभी धूल की तरह उड़ता है
कभी बारिश की तरह रोता है
कहीं किसी किनारे जमा होकर
फिर मिट्टी बन जाता है

गंडक
तुम्हारी बेचैन होती लहरें
आज भी जगा देती हैं बीच रात
याद दिलाने के लिए
सुहागिनों के पांव के आलते का रंग
मेरा अपना तो नहीं था
आसमान को रंगने का सपना
मेरा अपना तो नहीं था
उधार के रंगों से सपनें हसीन नहीं होते

गंडक
जानता हूं..
तुम्हारे ही किनारे लाया जाऊंगा
खाक में मिलने से पहले
तब तक तुम बहती रहना
जब तक मेरा हर कण
मिट्टी न बन जाए
और मिट्टी का मेरा मन
तुम्हारी लहरों में न बह जाए
क्या करना है लेकर
टूटे सपनों का मन
मन से मुक्ति दे देना तुम
बहने देना हवा बनकर
लहरों के ऊपर
डाल दूंगा लाल रंग
चुराकर पांव धोती सुहागिनों के आलते से
मेरे टूटे सपनों के बूटे से
तुम्हारी सफेद साड़ी फिर से छींटदार हो जाएगी
किसी सुहागिन के काम आ जाएगी
तीज त्योहार पर पहनकर
तुमको पूजने के लिए

(गंडक मेरे गांव को छूकर बहती है,इसकी हवा आज भी रातों को सर्द कर देती है)

29 comments:

फ़िरदौस ख़ान said...

बेहतरीन रचना...एक-एक लफ़्ज़ मन को छू लेने की तासीर से सराबोर है...

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

बहुत खूबसूरत और प्रभावशाली रचना.

anoop joshi said...

उधार नहीं, मांग के लाये है ये रंग.

नित अपना कोई प्रहरी, छोड़ रहा अपना संग.

पता नहीं कब तक, ये रात जाएगी.

और जाने कब, खुशियों की सुबह आएगी.

Nikhil said...

पहली दफा किसी रचना में गंडक का ज़िक्र देखा....मन भीग गया....जब 8-9 साल के थे, तब से हर साल छठ में गांव जाना कंपलसरी था....दादी छठ करती थीं और उनकी तीन बहुओं सारा मैनेजमेंट....मुज़फ्फरपुर में हमारे गांव से लगभग 4-5 किमी दूर नदी थी....गंडक नदी....बीच में दो बांध भी पड़ते थे....हम केले का बोझ उठाए, मस्ती में गंडक का सफरतय करते थे.....बांध से चढ़ते-उतरते पूरा शरीर धूल से भर जाता था.....फिर गंडक का पानी बेहद ठंडा होता था और हम पैर टिकाए छठ देखते थे.....गंडक ही गंगा है हमारे लिए....इस बा के छठ में फिर गांव गया तो गंडक अब दूर जा चुकी थी.....और दूर...8-9 किमी दूर जाना पड़ा...न बांध थे रास्ते में और न उत्साह....एकदम गंदी गंडक, बची-खुची गंडक...शायद इसीलिए बूढ़ी गंडक कहते होंगे बड़े-बुज़ुर्ग...शायद पहले और पानी रहता होगा गंडक में.....

विधुल्लता said...

तुम्हारी बेचैन होती लहरें
आज भी जगा देती हैं बीच रात
याद दिलाने के लिए
सुहागिनों के पांव के आलते का रंग
मेरा अपना तो नहीं था
आसमान को रंगने का सपना
मेरा अपना तो नहीं था
उधार के रंगों से सपनें हसीन नहीं होते ..
..एक संवेदन शीलता है इन पंक्तियों में है ,अपने ब्लॉग के शुरूआती दिनों में मैंने
आपके द्वारा पिता पर लिखी पोस्ट पढ़ी थी ,जो जेहन में अभी तक रची-बसी है..अपनी संस्कृति रिवाजों और उनकी खुशबू
आती है इनसे, प्रसंग के तारतम्य में लिखी ये कविता भीतर की आवाज को प्रति धव्नित करती है ..जब कविता की भूमिका
प्रारंभ होती है हमारी लाचारियों-दुश्वारियों,और कामनाओं का, मुश्किलों का एक शब्दों भरा दस्तवेज शुभकामनाये ढेर सी

अंजना said...

अच्छी रचना....

Onion Insights said...

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माधव( Madhav) said...

बहुत खूबसूरत

Anand Rathore said...

janta hoon , ye na mausam ab rahega der tak.... har ghadi mera bulava aa raha.....

baht khoob ravish ji

Parul kanani said...

मिट्टी का बना है इसका मन
कभी धूल की तरह उड़ता है
कभी बारिश की तरह रोता है
कहीं किसी किनारे जमा होकर
फिर मिट्टी बन जाता है
sundar panktiyaan!!

Kulwant Happy said...

पहले गंडक का अर्थ देखा.. फिर अंत तक आते आते समझ गया... बहती जज्बातों की नदी को। अंतिम पंक्तियाँ अद्बुत हैं... या कहूँ शिखर हैं रचना की।

गिरधारी खंकरियाल said...

Ravish ji Gandak se aapka gahra rishta maloom padta hai.
kavita mein mannat bhi maangi, ashaman ko bhi rang diya, aur manushya ki antim yatra par gandak mein is man , tan ko samarpit bhi kar diya . ek darshinakta bhari kavita hai.

संजीव द्विवेदी said...

खूबसूरत रचना.

Jandunia said...

खूबसूरत रचना। पहली बार गंडक पर कोई कविता पढ़ी है।

Unknown said...

Ravishji, are you a reporter/correspondent or writer or poet or ......?


ek aur behatreen rachna.... thandi purbai si.....

gurpreet waraich said...

bahut behterin ravish ji aapka e mail i d mil sakta hai kya mere yahan kuch logon ki jaan khatre main hai desi sharab ki vajah se

JC said...

'भारत' देश पहले 'जम्बूद्वीप' कहलाता था,,, जिसके गर्भ से जब हिमालय का जन्म हुआ तो नदियों का रूप और दिशा आदि भी बदल गए: उत्तरी भाग का खारा पानी दक्षिण दिशा में बह द्वीप के दक्षिण में स्थित सागर जल में जा मिला (जिसे कहानी में अगस्त्य मुनि के समुद्री जल पीने और विंध्याचल के ऊपर जाने से से दर्शाया जाता है)! ,,, वर्तमान में बिहार में बहने वाली गंगा नदी की सहायक गंडक नदी उपरी नेपाली क्षेत्र में गंडकी कहलाती थी और यह हिमालय के उत्पन्न होने से पहले से ही बहती आ रही थी,,, तभी गंडक को 'बूढी गंडक' भी कहा जाता रहा होगा...

विचार अति सुंदर!

विजय प्रकाश सिंह said...

वाह, वाह, वाह और सिर्फ़ वाह ।

गद्य के साथ पद्य के भी महारथी हैं आप । काव्य में भाव ही प्रधान होता है , अलंकार हों तो सोने पर सुहागा वाली बात । भाव मन को छू गये ।

kamlakar Mishra Smriti Sansthan said...

es kavita ke madhyam se jeevan ki vastvikata baya ho rahi hai.liken appa - dhapi ke bich me hum us awaz ko tawzo nahi de pa rahe hai jo hamre antarman se aa rahi hai.thanks a lot

रवि कुमार, रावतभाटा said...

आसमान को रंगने का सपना
मेरा अपना तो नहीं था
उधार के रंगों से सपनें हसीन नहीं होते...

एक बेहतर कविता...
मन को कहीं गहरे से छूती हुई...

डा0 हेमंत कुमार ♠ Dr Hemant Kumar said...

गंडक
तुम्हारी बेचैन होती लहरें
आज भी जगा देती हैं बीच रात
याद दिलाने के लिए
सुहागिनों के पांव के आलते का रंग
मेरा अपना तो नहीं था
आसमान को रंगने का सपना
मेरा अपना तो नहीं था
उधार के रंगों से सपनें हसीन नहीं होते
एक सशक्त कविता जो आपके अन्तर्मन में प्रकृति को ले कर उठने वाली पीड़ा और हलचल की सशक्त अभिव्यक्ति है--।

पूनम श्रीवास्तव said...

मन को छू गयी आपकी यह कविता----।

JC said...

आसमां नीला क्यूँ,,, इत्यादि प्रश्न! यानी धरा से उधार मिली मिटटी, हवा, पानी, आदि पञ्च तत्वों से बने सिनेमा हॉल रुपी शरीर में सूर्य के प्रकाश को भीतर धारण कर, रंगीन स्वप्न दिखाने वाला कौन है?

निसंदेह हम दोनों हैं!

यानी एक 'मैं', मेरे भीतर स्थित सर्वगुण संपन्न अदृस्य चितेरा,,, और दूसरा सदैव बाहर की ओर देखता 'मैं', अज्ञानी दृष्टा, जो माया के प्रभाव से अंतर्मुखी नहीं हो पाता, यानी उसके प्रतिबिम्ब बाहर देख कर भी उसे नहीं पहचानता!

JC said...

भारत प्राचीन योगियों कि धरोहर है... सर्वमान्य है, "जल ही जीवन है" और हिन्दू मान्यतानुसार गंगा शिव की जटा में चन्द्रमा से अवतरित हुई राजा सगर (सागर? बंगाल की खाड़ी?) के ६०, ००० पुत्रों (सूख गयी सहायक नदियों?) को जीवन दान हेतु उनके पोते भगीरथ (भगिरिथि?) के अथक प्रयास से,,,

धरा पर व्याप्त नदियों के तंत्र को प्राचीन जोगियों ने स्नायु तंत्र के माध्यम से मानव शरीर के भीतर भी पाया और निराकार ॐ के साकार प्रतिरूप, त्रेयम्बकेश्वर ब्रह्मा-विष्णु-महेश, समान तीन मुख्य भारतीय नदियों, गंगा-यमुना-ब्रह्मपुत्र, को इडा, पिंगला और सुक्ष्मणा नाडी द्वारा (नदी के स्थान पर) दर्शाया, अनादिकाल से...

गंगा की सहायक नदी होने के कारण, गंडक नदी अथवा बूढी गंडक का महत्त्व अधिक हो जाता है और शायद इसे माँ गंगा का ही एक अंश भी कह सकते हैं (?)...

Aseem said...

अपनी जमीन से जुडी हुई बेहद संवेदन शील रचना..मुझे भूपेन्द्र हजारिका की "गंगा क्यूँ बहती हो तुम" याद आ गई

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

मंगलवार 15- 06- 2010 को आपकी रचना ... चर्चा मंच के साप्ताहिक काव्य मंच पर ली गयी है


http://charchamanch.blogspot.com/

कुलदीप मिश्र said...

आपकी ही एक बात याद आ गयी...प्रभाष जी के निधन पर आपने जनसत्ता में लिखा था-उन्होंने नर्मदा को मां कहा और गंगा से यह कहकर क्षमा मांग ली की तुम्हें देख कर वैसी फीलिंग नहीं आती...
अद्भुत रचना!
आगे भी कवि रवीश कुमार के दर्शन होते रहेंगे, ऐसी आशा है...

झारखंडी आदमी said...

12 se 22 may tak mithilanchal main tha aksar saam ko gandak ke kinare jana hota tha. nadiyon ke teere jane par man to aise bhi vicharvaan ho jata hai uper se man ko chooti kavita ...............smritiyon main lout gaya par kar

pragya said...

बहुत ख़ूबसूरत...पता नहीं था कि आप कविताएँ भी लिखते हैं....बहुत प्रभावशाली...