मर्द,सैक्स और कैमरा

लव,सेक्स और धोखा। पूरी फिल्म में कैमरा वैसे ही देखता है जैसे हमारे समाज में मर्दों की नज़र मौका देखकर लड़कियों को देखती है। इस नज़र को बनाने में कई तरह की परिस्थितियां सहायक होती हैं। कैमरा अलग-अलग एंगल से अपनी नायिकाओं को तंग नज़रों की ऐसी गहराई में धकेलता है जहां हास्य पैदा करने की कोशिश,मर्दवादी विमर्श को ही स्थापित करती है। धोखा कुछ भी नहीं है। सब हकीकत है। हिलता-ड़ुलता एमोच्योर कैमरा अपने बोल्ड दृश्यों को उलट कर लड़कियों की निगाहों से भी मर्दों को देखता तो बराबरी की बात सामने आती। लड़कियों को बेचारी और शिकार की तरह देखकर अब अच्छा नहीं लगता। फिल्म में वो सेक्स को अपने हथियार की तरह इस्तमाल करने की बजाय उसके साथ सरेंडर करती लगती हैं। फिल्म से यह उम्मीद इसलिए कि लव-सेक्स और धोखा बालीवुडीय सिनेमा और न्यूज़ चैनलों का क्रिटिक बनने की कोशिश करता है। निर्देशक की कोशिश है कि जैसा मर्द देखता है वैसा ही दिखा दो।

नीतीश कटारा हत्याकांड की झलक और डिपार्टमेंटल स्टोर में काम करने वाली लड़कियां और टीआरपी की कैद में फंसा एक ईमानदार पत्रकार। चालू गोरी लड़की शादी का कार्ड बांट कर निकल लेती है और सांवली लड़की अपने रूप के बेचारेपन का शिकार होकर यूट्यूब की गलियों में पहुंच जाती है। आत्महत्या से बचकर लौटी मिरिगनयना तू नंगी(बंदी) अच्छी लगती है गाने वाले लकी को फंसाने आती है। नहीं फंसा पाती। कैमरा सेक्स के मर्दवादी नज़रिये के हिसाब से ज़ूम इन होता रहता है। मर्दवादी नज़रिया अपने कैमरे के इस एंगल को जस्टीफाई करने के लिए कहानी का सहारा लेता है।

एक तरह से आप देख सकते हैं कि हमारे समाज में लड़कों की नज़र में लड़कियों को कैसे बड़ा किया गया है। रूप-रंग-अंग। उपभोक्तावादी नज़रिया। जिन पर मर्दों की आंखों का अधिकार है। दिवाकर इस तस्वीर को मुंह पर दे मारते हैं। समाज के इस चिर सत्य को यह फिल्म क्यों बदल दे। इसी विमर्श के हिसाब से एक सवाल उठता है कि सारी बेकार लगने वाली लड़कियां ही नायिका क्यों हैं। कोई सेक्स बम जैसी नायिका नहीं है। उनकी लाचारी ही फिल्म के घटनाक्रम को क्यों आगे बढ़ाती है। किसी का पिता मर गया है तो कोई भाग कर आई है। फिर ठीक है ऐसी लाचार शिकार लड़कियों की कथा क्यों न कही जाए।

कहानी के किरदार बीच बीच में लौट कर अच्छा प्रसंग बनाते हैं। स्टिंग आपरेशन की दुनिया में सरकार गिराने वाला पत्रकार खुद मीडिया के भीतर के स्टिंग में फंसा लगता है। चश्मा,मूंछ और उसका अनस्मार्ट लुक बेचारेपन के साथ मौजूद है। स्टिंग और ब्लैकमेल के विमर्श में अटका हुआ है। फिल्मकार ने संपादिका और चंपू का सही चित्रण किया है। आज मीडिया में जो भी हो रहा है वो इसी तरह के काबिल लोगों की देन है। न कि बाज़ार का दबाव। संपादिका अपने फार्मूले पर कायम है। फार्मूले से उसका विश्वास नहीं हिलता। फिल्मकार उसे जवाब देने की कोशिश नहीं करता। सिर्फ दो दिन का पेमेंट भरवा लेता है। वैसे ही जैसे सूचना मंत्रालय के नोटिसों का जवाब देकर पीछा छुड़ा लिया जाता है।

हिन्दी न्यूज़ चैनलों ने फिल्म कथाकारों को काफी खुराक दिया है। चर्चगेट की चुड़ैल। स्टिंग की दुनिया का सच। जिसे अब न्यूज़ चैनलों ने खुद करना छोड़ दिया है। पर मीडिया का मज़ाक उड़ाना अच्छा लगता है। मीडिया मिशन नहीं है। सत्ता के करीब दिखने के लिए संविधान का अघोषित-अलिखित चौथा स्तंभ बन गया। खुद ही बोलता रहता है कि हम वाचडॉग है। बिना वॉच का डॉग बन गया है मीडिया। ये एक चाल है मीडिया को सत्ता प्रतिष्टान के रूप में कायम करने के लिए। चंद पत्रकारों के मिशन और संघर्षपूर्ण जीवन को भुना कर मीडिया उद्योग बाकी करतूतों को छुपाने के लिए नैतिकता का जामा पहन लेता है। पत्रकार के लिए पत्रकारिता मिशन है। कंपनी के लिए नहीं। एकाध मामूली अपवादों को छोड़ दें तो इसका प्रमाण लाना मुश्किल हो जाएगा। पत्रकारिता सिर्फ और सिर्फ एक धंधा है। जैसे साबुन बेचने वाला अपने साबुन को गोरा कर देने के अचूक मंत्र की तरह पेश करता है वैसे ही मीडिया कंपनी अपनी ख़बरों को। वरना उन लोगों से पूछिये जो न्यूज़ रूम में फोन करते रहते हैं कि बिल्डर ने सोसायटी में ताला बंद कर दिया है। आप प्लीज़ आ जाइये और कोई नहीं जाता। अच्छा है कि अब इस कंफ्यूज़न को विभिन्न मंचों से साफ किया जा रहा है।

फिल्म बालीवुडीय सिनेमा का मज़ाक उड़ाती है। पिछले बीस सालों की एक बड़ी कथा राहुल और सिमरन का मज़ाक। उसे हास्य में बदलकर हमारे समय के सबसे बड़े नायक शाहरूख़ ख़ान के अभिनय क्षमता(जिस पर खुद उन्हें भी संदेह रहता है) का पोल खोल देती है। शाहरूख़ ख़ान बनना सिर्फ एक चांस की बात है। लव सेक्स और धोखा का एक मैसेज यह भी है। लुगदी साहित्य की तरह बनी यह फिल्म हमारे समय की तमाम लुगदियों की ख़बर लेती है। आदी सर का शुक्रिया अदा कर दिवाकर दिखा देते हैं कि फिल्मों का असर कल्पनाओं के कोने कोने में कैसा होता है। कैमरा का बांकपन ही बेहद आकर्षक पहलु है। यह एक बड़ा काम है। होम वीडियो सी लगने वाली कर्मिशयल फिल्म बनाना आसान काम नहीं। एक तरह से आप यह भी देख सकते हैं कि बंबई गए तमाम असफल फिल्मकारों,कथाकारों,नायक-नायिकाओं के सपने इस तरह की फिल्मों के पर्दे पर आकर सुपरहिट फिल्मों और फिल्मकारों को जूता मार रहे हैं। कहानी का नायक इंस्टीट्यूट के लिए फिल्म बना रहा है।

यह फिल्म नहीं है। अ-फिल्म है। किसी महान फिल्म की बची खुची कतरनों से बनाई एक फिल्म। बहुत अच्छा प्रयोग है। फिल्म लोकप्रिय नहीं हो सकती। इंटरवल में जब काफी मांगा तो लड़के ने कहा कि फिल्म ने पका दिया न। कोई देखने नहीं आ रहा। मैंने कहा कि ऐसी बात तो नहीं। तो जवाब मिला कि अच्छा आप पके नहीं। प्रयोग बनाम फार्मूला के बीच फिल्म फंस गई है। वैसे ही जैसे न्यूज टीवी की दुनिया में ईमानदार पत्रकार फंस गया है। वैसे ही जैसे हमलोगों से लोग पूछ देते हैं कि भाई साहब आपके शो की रेटिंग क्यों नहीं आती। इसका जवाब तो है मगर देकर क्या फायदा। जीवन एकरेखीय नहीं होता। कई तरह की धारायें साथ चलती हैं। कभी कोई धारा ऊपर आ जाती है तो कभी कोई नीचे चली जाती है।

कुछ लोगों को पसंद आने वाली फिल्म है। दिवाकर बनर्जी ने फिल्म पर आयोजित सेमिनारों में दिखाये जाने के लिए एक अच्छी फिल्म बना दी है। धीरजधारी लोगों को फिल्म पसंद आएगी। वर्ना न्यूज़ चैनलों के कबाड़ से पात्र उठाकर बनाई गई कहानियों का वही हश्र होता है जो रण से लेकर तमाम फिल्मों का हो चुका है। लगता है कि हमारे समय के कथाकार भी टीआरपी के झांसे में फंस कर अपना पैसा डुबा दे रहे हैं। उन्हें लगता है कि न्यूज़ चैनलों पर दिख रहा है, ज़रूर लोकप्रिय होगा तो बस उससे प्रेरणा लेकर फिल्म ही बना देते हैं। अख़बारों के कॉलमकारों ने इस फिल्म को चार-चार स्टार दिये हैं। फिर भी फिल्म को जनप्रिय बनाने में मदद नहीं मिल रही। कई बार निर्देशक शिकायत करते हैं कि उनकी फिल्म को रिव्यू नहीं मिली इसलिए नहीं चली। इस फिल्म के लिए यह शिकायत नहीं होनी चाहिए। वैसे चलने के लिए ही क्यों कोई फिल्म बनाये। दिवाकर का यही फैसला बड़ा लगता है।

(मूल लेख में कुछ बदलाव किया गया है। कुछ पंक्तियां बाद में जोड़ी गईं हैं)

21 comments:

संदीप कुमार said...

बहुत अच्छी फिल्म है। हम किस तेजी से विकल्पहीन हो रहे हैं इसका अनुभव हमें नहीं है। भविष्य बहुत भयावह है।

मधुकर राजपूत said...

दिवाकर का एक इंटरव्यू पढ़ा था। दिवाकर कने इसे Voyeurism यानी दर्शनरति पर आधारित फिल्म बताया था। पढ़कर लगा कि हिन्दुस्तान की तांक-झांक संस्कृति पर आधारित कहानी होगी। फिलहाल फिल्म नहीं देखी है। जब कंप्यूटर पर रिलीज़ होगी तो देखेंगे। आपके चश्मे से देखकर लगता है कि कहीं ना कहीं अपीलिंग ज़रूर है।

राजीव थेपड़ा ( भूतनाथ ) said...

baat to bahut kadi kah daali hai raavish ji aapne....ham bhi sahmat hain aapse....!!

मुनीश ( munish ) said...

दरअस्ल, दिल्ली के एक ख़ास कमीने तबके को पकड़ पाने की जो आँख दिबाकर के पास है वो दिल्ली-६ बनाने वाले यहीं के बाशिंदे रहे राकेश ओमप्रकाश मेहरा के पास भी नहीं है . पहले 'खोसला का घोंसला' फिर ' ओये लक्की ओये ' और अब ' लव सेक्स और धोखा' । फिल्म पूरी तरह संवेदनशील है और संवेदना का सबूत देने के लिए सुबकना कतई ज़रूरी नहीं है और यही दिबाकर ने किया है . फिल्म में तीन अलग -अलग कहानियां जिस तरह बिलकुल अलग होते हुए भी इंटर-लिंक्ड हैं वो हिंदी सिनेमा के दर्शकों के लिएनया अनुभव रहेगा . कोई समाधान या शिक्षा दिए बिना जीवन में कैमरे के हस्तक्षेप से पैदा समस्याओं को फिल्म बड़ी शिद्दत से उठाती है . मैंने पहले भीकहा है कि दिल्ली के पात्रों को दिखाने में दिबाकर सिद्धहस्त है मगर वो खुद को पंजाबी और अन्य पात्रों तक सीमित रखे तो ही बेहतर होगा . एक बड़े हरियाणवी बिजनसमैन 'दहिया' का चरित्र कहीं से भी जाट ना होकर पंजाबी हो गया है और बस यहाँ निर्देशक मात खाता है . लेकिन, इस से फिल्म का कथ्य कतई प्रभावित नहीं होताहै .फिल्म बहुत सस्ते में बनाई लगती है मगर दर्शकों के साथ कोई धोखा नहीं है ' लव , सेक्स और धोखा' .फिल्म में दिल्ली की लोकल गालियाँ पूरी स्वाभाविकता से दी गयी हैं और पंजाबी म्यूज़िक- विडियो वालों की भी अच्छी खबर ली गयी है . अगर आप सेंसेशनल माल की खोज में हैं तो ये फिल्म न देखें , ये एक गंभीर विवेचन की मांग करती है .

Kulwant Happy said...

एक संपूर्ण फिल्म में संवाद, संगीत, बेजोड़ कहानी और अभिनय होता है। ऐसा नहीं कि न्यूज चैनलों पर दिखाए गए कुछ क्लिपों को उठाकर आप एक फिल्म में डाल दो। तो क्या वो फिल्म हो जाएंगे। यूट्यूब से लेकर हर जगह सेक्स सीनों की भरमार है, कहीं से भी कोई वीडियो क्लिप उठा लो। और बना डालो फिल्म। आप सोचते हैं हिट हो जाएगी, मुझे नहीं लगता। लोग यही कहेंगे पका दिया, क्योंकि इस तरह की फिल्म देखने वालों की उपेक्षा वैसी ही होती है, जैसी महान फिल्मकार से एक सुलझे हुए इंसान की। आप एक मजबूत पटकथा संवादों के साथ अगर कुछ रखते हो तो समाज स्वीकार करने के लिए तैयार है, वरना कुर्बान का पोस्टर देखकर मेरे जैसा युवा तो फिल्म देखने नहीं जाएगा।

شہروز said...

मैंने फिल्म नहीं देखी सो पुख्ता कुछ भी नहीं कह सकता लेकिन आपने जो कहा उससे इनकार नहीं कि पूरी फिल्म में कैमरा वैसे ही देखता है जैसे हमारे समाज में मर्दों की नज़र मौका देखकर लड़कियों को देखती है। आपने बहुत ही सूक्ष्मता के साथ फिल्म समीक्षा करने का सार्थक यास किया है.आप तो बखूबी जान गए हैं कि पत्रकारिता सिर्फ और सिर्फ एक धंधा है।

Unknown said...

namskaar!

har kaam dhandhaa bhii ho sakata haiaur mishan bhii ho sakataa hai.mujhe lagataa hai har aadamii apanii apanii bhuumikaa har jagah taya kar letaa hai.usakii bhuumikaa paristhitiyon par bhii nirbhar karatii hai. kab kaun kis bhuumikaa men hogaa kuchh nishchit ruup se nahiin kahaa jaa sakataa hai.

maaf kariyegaa aap film kii baat kar rahe the usamen dhandhe kii baat karane lagaa.

namskaar.

Shakeb Ahmad said...

film to abhi dekhni hai sir lekin ek baat to tay hai ki ab hamare filmkar himmat dikha rahe hain..........

Anita said...

LSD ....DEKHNI HOGI...

Bhopale said...

Naseer sahab ne Dilli ke Jai Arjun Singh ke interview mein (http://bit.ly/aDy5DN) kaha ki unhone Junoon, Manthan jaisi filmon mein shooting par upasthit darsakon ki taliyon ke karan khub overacting ki. Sochta hun ki aaj ke Divakar,Anurag (Kashyap) jaise filmkar kaise in taaliyon ke aakarshan ko thukrate honge?

JC said...

रविशजी, अपन को यही पता है कि हर आदमी का अपना अपना दृष्टिकोण होता है,,,और किसी भी काल में गहराई में जाने की क्षमता बहुत कम लोगों में होती है,,,क्यूंकि काल की मजबूरी है कि वो नदी के बहते पानी के प्रभाव समान मानव जाति के भूत को बहा ले जाती है...

कभी आपने सोचा कि अपने ही ब्लॉग में आपने कितनी फिल्मों पर अब तक 'अपने दृष्टिकोण' से विश्लेषण किये हैं? और बिना अपनी पुरानी पोस्ट को देखे क्या आप बता सकते हैं कि सबसे पहली फिल्म कौन सी थी और आपने उसके विषय में क्या लिखा था (जो बचपन में देखी थी और उस समय आपके क्या विचार थे उसको छोड़ दो) ? इससे शायद मानव मस्तिष्क की कार्यप्रणाली का आपको और अन्य को भी आपके माध्यम से पता चले...

जहां तक मेरा सोचना है, जो फिल्म ताज़ी-ताज़ी देखी होती है उसकी कहानी और उसके कई डायलोग भी आप जुबानी दोहरा सकते हैं,,,किन्तु लम्बे समय के बाद शायद 'आम आदमी' यही कह सकें कि फिल्म 'अच्छी' / 'बुरी' / 'ठीक-ठाक' थी...किन्तु क्यूंकि आप मीडिया से सम्बन्ध रखते हैं इस कारण आप विभिन्न फिल्मों में बीतते समय के साथ इस्तेमाल की गयी टेक्निक को 'आम आदमी' से बेहतर समझ पाएं,,,और संभव है उस से आपको अपने कार्य क्षेत्र में भी 'समय से ऊपर चलने' में सहायता मिल सके, 'सही टेक्निक' का चुनाव कर...किन्तु संभव है एक दिन, अन्य कई 'बड़े' लोगों की तरह आप पाएं कि आप केवल इतिहास के पन्ने की एक पंक्ति बन कर ही रह गए...किन्तु शायद वो समय होगा जब आप 'प्राचीन ज्ञानी' समान सोचने लग जाएँ कि कैमरा/ प्रोजेक्टर तो हर व्यक्ति के भीतर पैदाइश से था, (जिसमें वो निद्रावस्था अथवा 'अर्ध-मृत' अवस्था में स्वप्न देखता आया - जिसमें उसका कोई जोर नहीं चलता था यद्यपि), और उसने कभी क्यूँ नहीं सोचा कि वो कहाँ से और कैसे आया था...आदि, आदि?

Dinbandhu Vats said...

Ravish sir,Film to maine abhitak nahi dekha hai.par aap ki smiksha ke bad film dekhane ki chahat badh gai hai.vaise to prarambha se hi nari ko vastu ke rup me dekha jata hai.par bazarvadi nazaren ise aur ghinauna kar diya hai.aaj kuchh log ise hathiyar ke rup me bhi istemal karate hai.par nari aaj bhi bechari bani hai chahe 33%hi kyon n de do.

sir,media ek dhandha hai.keval dhandha .aur satta ke karib aane ke liye khud chautha khambha ban gaya .aisa kahana apne app ko bachana hai.har dhndhe ka ek vasul hota hai .media to vah vashul bhi khatma karata ja raha hai.Respected
sir,poetry is as good as pushpin?
juta bana kar bechna aur khabaren bana kar bechana ek hai kya?

Sadar pranam

सहसपुरिया said...

लगता है देखनी ही पड़ेगी ...

fightclub said...

mahoday, film par apni tippani karna hai toh kare. har kisi ki apni apni rai hai. par yeh likhna ki...कुछ लोगों को पसंद आने वाली फिल्म है। दिवाकर बनर्जी ने फिल्म पर आयोजित सेमिनारों में दिखाये जाने के लिए एक अच्छी फिल्म बना दी है। धीरजधारी लोगों को फिल्म पसंद आएगी...behad bachkana hai. ya phir aap bhi samaj ka theka lene lage hain! sab pata hai. kisi kab kya pasand aata hai. wah!. btw, lars von tier ki film anti-christ par aapki rai janna chaoonga. waise bhi is desh me film par gyaan batna toh hum sabhi jante hai.

ओम आर्य said...

अच्छा विश्लेषण

anoop joshi said...

Ravish g thanks blog likhne ke liye me aapka fan chkraview show se hun. or ab aapke blog ko follow karunga.NDTV me hi sayad ab hindi news bachi hai. aap,dua saab, prnav roy jainse kuch patrkar hi bache hai elctronic media me. thanks

डॉ .अनुराग said...

कुछ टुकडो में डाइरेक्टर की सोच लाजवाब है खास तौर से टी.वी का इस्तेमाल .ओर एक तबके की खास सोच ....जिसे मुनीश ने "कमीनी सोच" कहा है ..वैस एभि ओये लकी ओये अपने पीछे कई सारी मानसिकताओं का आइना आपके सामने रख जाती है

Parul kanani said...

diwakar ji hamesha naye pryog karte aaye hai jo sarahniy hai
ab ye kaisi hai..dekhne per hi malum padega :)

Nikhil Srivastava said...

बेहतरीन. हमेशा की तरह बेबाक विश्लेषण. दिनबदिन सीख रहा हूँ.

"पत्रकारिता सिर्फ और सिर्फ एक धंधा है। जैसे साबुन बेचने वाला अपने साबुन को गोरा कर देने के अचूक मंत्र की तरह पेश करता है वैसे ही मीडिया कंपनी अपनी ख़बरों को।"

सच कहूँ तो बहुत दुःख होता है जब रवीश कुमार को ये बात कहनी पड़ती है और और उससे भी ज्यादा दुःख होता है, जब हम इसे पढ़ते हैं और खुद से कहते हैं कि देखो कहते थे न कि ऐसा ही है. अब कौन सा साक्ष्य चाहिए.

लव, सेक्स और धोखा का जो विश्लेषण आपने किया है, वो एकदम सही है. दिबाकर का साहस और प्रोड्यूसर का विश्वास गजब है. कुछ दृश्यों में कैमरा जिन आँखों से देखता है, वह सही नहीं लगा.
खासकर एक दृश्य में जहाँ ईमानदार और साफ छवि का पत्रकार नैना को होटल पर खाना खिलने ले जाता है.

Rajeev Tomer said...

Hello ravish....you did nice ,bold n true comment on LSD.Well the director should be apriceated for his work as well as producer.

inqlaab.com said...

bahut sachi bat apne lekhi hai par kay yah bat sabhi ko samjhme ai gi