आठवें जनम की आशंकायें

असंख्य किस्से सात जनमों के जब छूट जायेंगे
आठवें जनम के बाद, तब क्या करेंगे हम दोनों
जब स्मृतियों में भक से आ जाया करोगी तुम
कुछ याद नहीं आयेगा, चेहरा धुंधला हो जाएगा
उन छवियों में क्या तुम्हें देख पाऊंगा ठीक से
यही है वो जिसके साथ रिश्ता रहा है मेरा
एक नहीं, दो नहीं सात सात जनमों का
जब अमरीका में कोई रिसर्च कह देगा कि हां होता है
सात जनमों का हिसाब, रिश्ते होते हैं सात जनमों तक
इसका लगाया था हिसाब,गणित के एक प्रेमी मास्टर ने
प्रेम में जिसने एक जीवन को सात से कर दिया गुणा
वो हर लम्हे को सात गुना होते देखना चाहता होगा
या फिर ये किसी पंडित के दिमाग की उपज होगी
जो दक्षिणा की खातिर बढ़ाता चला गया फेरे
फिर क्यों रूक गया वो सात फेरों के बाद
क्या वाकई में हम सात जनमों तक के साथी हैं
क्या हर जनम में तुम और मैं बदल जायेंगे
क्या मैं स्त्री और तुम पुरुष बन जाओगी
क्या करेंगे हम दोनों हर जनम में अलग अलग
क्या तुम छठे जनम में भी वैसे ही याद आओगी
जैसे बेकरार हो जाता हूं इस जनम में तुमको याद करके
क्या पांचवे जनम में तुम बिल्कुल वैसी ही रहोगी
जैसे पहले जनम में भा गई थी तुम मुझको
क्या मैं तीसरे जनम में वैसे ही पसंद आऊंगा तुमको
जैसे पहले जनम में तुम मेरी कविताओं को पढ़ती थी
क्या क्या होता रहेगा हम दोनों के बीच,सात जनमों तक
इतना पक्का और गाढ़ा होने के बाद ऐसा क्या हो जाएगा
जब हम आठवें जनम में इस रिश्ते को बचा न सकेंगे
क्या करूंगा मैं आठवें जनम में,और तुम भी अकेले
क्या काफी नहीं है एक ही जनम में सात जनमों को जी लेना
क्या ऐसा नहीं हो सकता कि चौरासी लाख योनियों में हम दोनों
अलग अलग जीव बनकर जीते रहे चौरासी लाख जनमों तक
हम लौटते रहेंगे इसी धरती पर, हर जनम में तुम्हारे लिए
आठवें जनम में खत्म होने के फैसले पर कौन करेगा विचार
पंडितों का पंचाग या फिर चुनाव के बाद इस देश की संसद

33 comments:

Apna-pahar said...

ये तो ज़बरदस्त है, सर.... यहां फैशन चला है कि लोग एक जनम में सात-सात या फिर अधिक साथी बदल लेते हैं। इसे लोग फन लविंग कहते हैं.... आपने भी देखा होगा... लोग बड़ी शान से अपने साथ जोड़ते हैं... i am fun loving.... बार-बार सोचता हूं....ये फन लविंग क्या होता है ? और ये भी कि कैसे किसी को आप प्रेम करें... और फिर वो किसी दिन फेड हो जाए... ये कैसे हो सकता है ? सात जनम तक प्रेम को मेरा भी नमन है।

जितेंद्र भट्ट
http://apana-pahar.blogspot.com/

विनीत कुमार said...

मुझे तो कविता पढ़कर सोनी इंटरटेनमेंट पर प्रसारित आठवां वचन सीरियल की याद आ गयी जिसमें पति अपनी पत्नी से सात वचन निभाने के बाद आठवें वचन के लिए कसम खाता है कि वो जीवन भर उर्मि को भी उतना ही प्यार देगा, उसकी देखभाल करेगा, तब जाकर लड़की राजी होती है पत्नी बनने के लिए। उर्मि लड़की की छोटी बहन है,फाइव क्लास में पढ़ती है।
इस आठवें जनम में आप और वो के साथ कहीं किसी का पुच्छल्ला तो नहीं जुड़ जाएगा, मैं तो यही सोच रहा हूं।

admin said...

मेरा तो आपसे बस इतना ही सवाल है कि आप इतनी व्‍यस्‍तता के बावजूद आठ जनमों का हिसाब किताब कैसे लगा लेते हो।

-----------
TSALIIM
SBA

अवाम said...

क्या ऐसा नहीं हो सकता कि चौरासी हज़ार योनियों में हम दोनों
अलग अलग जीव बनकर जीते रहे चौरासी हज़ार जनमों तक
बहुत-बहुत सुन्दर लाइनें हैं सर..
बहुत ही सुन्दर लिखा है.
ये अपनी कल्पनाशीलता को जो उड़न आपने दी है वो अद्भुत है..
कभी मौका मिले तो मेरे भी ब्लॉग पर आये और अगर हो सके तो मुझे भी बताएं की मेरा ब्लॉग कैसा है..

JC said...

हिंदुत्व की बात हर भारतीय करता है किन्तु किसी भी इतिहासकार से पूछो तो आधुनिक ज्ञानी कहता है की एक सभ्यता जो सिन्धु नदी के किनारे पनपी उसे हिन्दू कहा विदेशियों ने. और चुप रह गए जब पूछा कि नदी को और सागर को भी सिन्धु क्यूँ कहा गया :)

नदी और सागर में क्या होता है? पानी ही न? और पानी कहाँ से आया? चंद्रमा यानि इंदु से! :)

योगी ने भी कहा कि आदमी के माथे में इंदु का सत्व है. और विदेश में पागल को lunatic कहते हैं. शब्द कि उत्पति Lune अथवा चाँद से ही हुई :)

हिन्दुओं ने आत्मा को VIP कहा और भौतिक शरीर को मिथ्या, जो चौरासी लाख योनिओं से गुजरने कि बाद मानव शरीर पहली बार पाती है. काल-चक्र उसके बाद भी चलता रहता है, ऐसा प्राचीन ज्ञानी कह गए...

सात नंबर भाग्यशाली माना जाता है क्यूंकि आठवां नटखट नन्दलाल का है जो विष्णु के आठवें रूप में द्वापरयुग मैं अवतरित हुए और मायाजाल रचाए जिसके कारण जीव भ्रम में पड़ गया कि चक्र आठवां है या पहला? :)

इस कारण विवाह के समय भी अग्नि के सात फेरे ही लिए जाने का चलन है. अग्नि द्योतक है सूर्य का और फेरे सात ग्रहों की चाल का अपनी अपनी कक्षा में...कुल आठ जो आठों दिशा के राजा हैं और उपर-नीचे की दिशायें निराकार विष्णु के हाथ में...

अपने को 'हिन्दू' कहने से पहले क्या आवश्यक नहीं इस शब्द का अर्थ जानना?

भारत में 'सब चलता है' :)
जय माता की!

Aadarsh Rathore said...

बहुत उम्दा सोच....
एक अच्छा विषय, अच्छे विचार, अच्छी रचना।
पुराणानुसार 84 हज़ार नहीं, 84 लाख योनियां हैं

अरविन्द श्रीवास्तव said...

"आठवें जनम की आशंकायें" और 'बया'में भी बेहतरीन कविताओं के लिए बधाई!

सतीश पंचम said...

बहुत अच्छे।

सुशीला पुरी said...

आठवां जनम ........कितनी सुन्दर कल्पना की है आपने ,सचमुच
सात जन्मों को इसी जनम में जीने की कोशिश करनी चाहिए ,

Unknown said...

भाई रवीश जी, इस गाढ़ी कविता ने गहरा रंग चढ़ाया। लिखते रहिए ऐसे ही बोलते रहिए ऐसे ही.

JC said...

ये प्राचीन 'हिन्दू' भी अजीब किस्म के 'जानवर' (life form) थे. उन्होंने पता नहीं कहाँ से ८४, ००, ००० की संख्या ढूंढ निकाली. और स्वीकार भी किया की वे कभी गधे, उल्लू, सुक्ष्माणु अदि अदि भी रहे थे - शायद यह याद दिलाने के लिए कि आपकी 'अर्धांग्नी' भी सुक्ष्माणु समान आप से ही टूट कर यानि दो भाग होकर आपका साथ निभाती आई है श्रृष्टि के आरम्भ से ही:)

जय (माथा घुमाने वाली) माता चंद्रमा की जिसकी उत्पत्ति स्वयं पृथ्वी से ही अलग होकर हुई :)

JC said...

'हिन्दू मान्यता' के अनुसार शिव आरंभ में अर्धनारीश्वर थे. उनकी अर्धांग्नी सती थी जिसकी मृत्योपरांत शिव ने दूसरा विवाह पार्वती से किया, जिसने सूर्य देवता की घोर तपस्या की और जो स्वयं सती का ही एक स्वरुप थी! (सूर्य की 'तपस्या' आरंभ से उसके गृह मंडल के सदस्य, पृथ्वी-चंद्रमा भी, सदियों से कर रहे हैं:)

और Christian यानि पश्चिमी मान्यता के अनुसार Adam भी (अर्धनारीश्वर समान ) पहले अकेला ही था और उदास रहने के कारण भगवान को उसि की rib से Eve की रचना करनी पड़ी:)

Jai mata ki...

vandana gupta said...

agla janam hi kisi ne nahi dekha to saat janmon ki baat kaun kahe ya kare...........khoobsoorat bhav hai ki saat janam ya 84 lakh janmon ko hum isi janam mein kyun na jee lein taki phir hum na bhatkein kisi prem ke liye ,kisi chah ke liye.

अबयज़ ख़ान said...

सर आठ जन्मों की कविता बड़ी शानदार है.. आपके लेखन का तो वैसे भी कोई जवाब नहीं। हां इतना ज़रूर है आठ जन्मों के बाद भी हम या तो किसी नेता के लिए वोटर बनेंगे या फिर पंडित जी के लिए यजमान। सात जन्मों तक प्रेम... सुभानल्लाह
बहुत ही शानदार

JC said...

सूर्य के चारों ओर घूमने वाले सौर मंडल के सदस्य ग्रहों आदि को आप उनकी मजबूरी कहेंगे या सूर्य देवता से उनका प्रेम? पतंगा भी दिए की लौ पर मर जाता है तो 'पत्रकार' या कवि उसे उनका चिरकालीन प्रेम ही कहते हैं :)

हमारे तारा मंडल (galaxy) के केंद्र के चारों ओर भी असंख्य सितारे अनंत काल से चक्कर काट रहे हैं. उसे भी उनकी मजबूरी कहोगे कि प्रेम??:)

चंद्रमा भी पृथ्वी के चारों ओर घूम रहा है बहुत नज़दीक से. क्या यह प्रेम है या मजबूरी???

शक्तिशाली या बाहुबली से सब डरते हैं - वोट भी देते हैं, बिहार के खास तौर पर कई चमकते ऐसे सितारे चैनल्स पर भी दिखाए जाते हैं. क्या वो प्रेम है या किसी की मजबूरी??? अपनी जान की चिन्ता किसे नहीं???

पहले कहते थे 'चाट मंगनी पट ब्याह', किन्तु अब ज़माने के साथ अब हो गया है, 'चाट ब्याह पट तलाक!'

JC said...

'चट' की 'चाट' बन गयी! दोष नटखट नन्दलाल 'कृष्ण' का ही है :)

'चट ब्याह पट तलाक' पश्चिमी सभ्यता की नक़ल का उदाहरण है. 'कृष्ण' (नीलाम्बर) भी कहते हैं कि सारी श्रृष्टि मेरी नक़ल कर रही है, क्यूंकि माया से हर एक प्राणी मुझे अपने भीतर देखता है, किन्तु सब प्राणियों में सबसे उत्कृष्ट रूप (पीताम्बर) ही मेरा है. जल के प्राणियों में मैं मगरमच्छ हूँ, इत्यादि...और मछली को 'हिन्दुओं' द्वारा विष्णु का पहला अवतार माना जाता है, जबकि मानव रूप में द्वापर में 'सुदर्शन-चक्र धारी' कृष्ण को आठवां अवतार...जो चक्कर चलाने में प्रवीण हैं :)
'लाख चौरासी' का केवल 'चौरासी' उन्ही के कारण ध्यान में आया :) पीताम्बर रूप में गुरु अथवा चंद्रमा अर्थात पार्वती की ओर इशारा है, और लाल जीभ वाली माँ काली के रूप में वे अनंत शिव के हृदय में निवास करते हैं.

अब तो जिनके अनेक रूप नवरात्री में पूजे जाते हैं उन माता कि जय कहना ही होगा मंदिरों में लम्बी कतार में खड़े होने वालों को तो कम से कम :) उन्ही पर रविशजी अनुसन्धान भी कर रहे हैं...

anil yadav said...

सुन्दर कल्पना है....लेकिन इतनी भी नहीं कि जो आपके चाटुकार अपनी कलम की सारी स्याही इस रचना को कालजयी बताने के लिए खर्च कर रहे हैं....और इन सभी में इस बात की होड़ है कि कौन कितना बड़ा चाटुकार है.... दरअसल ये सभी बिना रीढ की प्रजाति है जो आपके चैनल में भी पायी जाती होगी....इस प्रजाति का यही काम होता है कि मौका पाते ही बॉस के केबिन में घुस जाए और ताबड़तोड़ तेल मालिश पर उतारू हो जाए....और शायद आपको भी तेल लगवाने का बहुत शौक है....

ritu raj said...

aapki ye kavita achchi lagi. Aath janam ke baad ka manzar kya hoga? achchi soch.

डा0 हेमंत कुमार ♠ Dr Hemant Kumar said...

क्या काफी नहीं है एक ही जनम में सात जनमों को जी लेना
क्या ऐसा नहीं हो सकता कि चौरासी लाख योनियों में हम दोनों
अलग अलग जीव बनकर जीते रहे चौरासी लाख जनमों तक
हम लौटते रहेंगे इसी धरती पर, हर जनम में तुम्हारे लिए
आठवें जनम में खत्म होने के फैसले पर कौन करेगा विचार
पंडितों का पंचाग या फिर चुनाव के बाद इस देश की संसद

भाई रवीश जी ,
बहुत बढ़िया कविता .प्रेम ,समर्पण ..एक दूसरे के लिए मन के अन्दर उमड़ने वाले कोमल भावों के साथ ही मन में जन्म लेने वाली आशंकाओं को भी अभिव्यक्त करती कविता.शिल्प की दृष्टि से भी सरल ,सहज और बोधगम्य.
हेमंत कुमार

Amit said...

एक ऐसे दौर में...
जब टूट जाते हैं रिश्ते
सात साल, सात महीने या सिर्फ़ सात दिनों में
सात जन्मों की बात भी बेमानी लगती है जब
एक ही जन्म में जीते हैं लोग
सात अलग-अलग जन्म
अलग-अलग लोगों के साथ।
सात के आंकड़े का खेल
खेलते हैं नए-नए खिलाड़ी ढूंढ़कर।
उलझी हुई इस आंकड़ेबाज़ी के बीच
क्यों न बिना गिने...
हमारी तुम्हारी धड़कनें..
साथ जी लें....
जी सकें जितने पल, दिन, साल या जनम।

JC said...

'कृष्ण' के गीता के उपदेश के अनुसार, अज्ञानता वश, यह नहीं जानते हुए की 'पंडित' की परिभाषा क्या है, आज के कुछ 'पोथियाँ पढ़ पढ़ MA / BA किये ('कृष्ण' की नक़ल लगा पास होने वाले भी कुछ एक) माँ (जो जन्म से ही MA होती है!) / बाप (जो स्वयं खुद आप ही BA) उन गरीबों को 'पंडित' कहते हैं जो केवल 'मजबूरी' के कारण सनातन धर्म की परंपरा निभा रहे हैं …और केवल दक्षिणा पर जीवन याचिका की चेष्ठा करते दीखते थे कभी – कलिकाल की बात छोडो जब हम, नेता हो या उनके गुलाम, सभी घोर अँधेरे शून्य की ओर बिन जाने चले जा रहे हैं जब 'हलाहल' होना अवश्यम्भावी है और जो केवल 'हिन्दू'* समझ सकता है क्यूंकि वो जानता है की काल सतयुग से कलियुग की ओर ही जाता दीखता है. किन्तु हर कोई यह आशा करते, या ‘मुरारी लाल सामान हसीन ख्वाब’ देखते, कि शायद 'वो' फिर से सतयुग लौटादे - yo-yo समान जो धरती को छूने से पहले ही बच्चे के हाथ में आ जाता है :)
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* हमने सत्तर के दशक में अजमल खां मार्केट में दुकानदार से स्टील की प्लेट दिखने को कहा, और उसे पलट के देखे तो उस पर कोई ठप्पा न देख उसे 'देवीदयाल' की ही प्लेट दिखाने को बोले. उसका उत्तर, "कीमत बढ़ जायेगी यदि वो बाज़ार के चलन के अनुसार विशेष ठप्पा लगायेगा," शायद काफी हो समझने हेतु कि हर काल में 'हिन्दू', या किसी भी धर्म के मानने वाले घर में पैदा व्यक्ति भी उसी वास्तु सामान है जिसमें काल के प्रभाव से कोई विशेष ठप्पा लगा होता है - उसके गुण ही उस को समाज में कोई विशेष स्थान दिलाने में काम आएंगे...कहना आवश्यक न होगा कि हमें वो प्लेट अच्छी लगी इस कारण खरीद ली...

जय माता की :)

JC said...

आज हर एक का मन कहने को ही क्यूँ करता है? सुनने को क्यूँ नहीं?
प्राचीन ज्ञानी कह गए कि ब्राह्मण को खाने का अधिकार है, और खिलाने का भी...

ब्राह्मण में कृपया ठप्पा मत देखिये (माथे में लकीर अदि, लकीर के फ़कीर सामान) - ब्राह्मण की परिभाषा पर ध्यान दीजिये, अर्थात जिस को ब्रह्म अथवा सत्य का ज्ञान हो...

परम सत्य तो मानव की पहुँच से परे है (आउट ऑफ़ कोर्स)...वो शून्य काल और स्थान से जुडा होने के कारण भौतिक ज्ञानेन्द्रिय के परे है. इस कारण उसे वो ही अंतर्मन से जान सकता है जो शून्य विचार वाली अवस्था में पहुँच सकता है. किन्तु वो भी बहुत कम समय के लिए संभव हो सकता है, जिस कारण मानव की पहुँच के बाहर है कि वो क्या खोज रहा है नेताओं पर जूते चप्पल चलवा के?

JC said...

य़ुधिस्थिर का जुआ खेलना और अपनी पत्नी को भी दाँव पर लगाना किसी भी 'हिन्दू' को अटपटा लगता है. तिस पर उन्हें धर्मराज कहा जाना! तब उन्हें प्रेम व्रेम का कुछ भी ख्याल नहीं आया? ऐसे कुछेक सवाल माथा घुमा देते हैं...या यूं कहिये कि जीवन के सत्य को केवल 'मायावी दर्शाते हों...यानि जो दीखता है वो असत्य है और जो नहीं दीखता वो सत्य!

मधुकर राजपूत said...

एक जन्म में ही गृह्स्थी संभालते संभालते कमर तीरकमान बन जाती है। बच्चों की पढ़ाई, इसे किताब, उसे साड़ी। एक जन्म ही काफी है। प्यारेलाल दुनिया चलती है और चलती रहेगी। सात जन्म दांत कटकटाने से बेहतर तो एक ही जन्म कटकटा लो।

JC said...

मधुकर जी ने सही फ़रमाया - जब हम (मानव) न थे तब भी दुनिया घूम रही थी और जब हम न होंगे तब भी दुनिया घूमती रहेगी. बरसात होगी और पानी समुद्र में पहुँच जायेगा जैसे हमारे बोल भी अंततोगत्वा शून्य में ही लुप्त हो जाते हैं...'माता' किन्तु चलती रहेगी...

ravishndtv said...

जेसी साहब

पता नहीं आप कौन है लेकिन ये दार्शनिक विचार दिलचस्प होते हैं। अब आप इस पर पर भी एक दर्शन दीजिए कि किसी का होना क्या होता है और किसी न होना क्या होता है। आपकी टिप्पणी दिलचस्प होती

JC said...

रविशजी, में भी आपकी तरह एक 'सताया हुआ' व्यक्ति हूँ:) ऐसा मुझे प्रतीत हुआ आपके विचारों को देख...

'मेरे निजी विचार', चार वर्षों से, मैं एक ब्लॉग* में टिपण्णी के रूप में प्रस्तुत करता आ रहा हूँ, क्यूंकि मुझे लगा कि अपना ब्लॉग खोलने का कम कोई नौजवान ही कर सकता है जिसमें जोश हो, कंप्यूटर का अभ्यास, धैर्य, और शक्ति आदि भी जो हर सप्ताह कोई 'नई चीज़' ढूंढ के लाये - मेरे जैसा ७० वर्ष का बुढा नहीं :)

और जैसा हम सुनते भी आये हैं, मुझे लगा कि कोई बाद में ये न कहे कि हमारे पूर्वज अपना ज्ञान अपने साथ ले गए और उसे बांटा नहीं, यद्यपि मैंने पाया कि वे लिख तो गए किन्तु उनकी भाषा भिन्न थी और अंदाज़ भी अलग... वोही आसान काम मैंने किया है - उन्हें पढने का प्रयास और उन्हें आजकी भाषा से जोड़ना, क्यूंकि सत्य वो माना गया जो काल के परे हो... और लिख भी रहा हूँ निरंतर...मेरा उद्देश्य केवल पानी में कंकर फेंकने जैसा है... किसी को दुःख देने का नहीं...

अधिकतर 'आधुनिक ब्लॉग मालिकों' को मैं एक कोल्हू के बैल समान पाता हूँ जो परिश्रम तो कर रहे हैं पर उपयोग में सही बीज न ला रहे हों...फिर भी इस प्रक्रिया के कारण विभिन्न विचार प्रस्तुत हो रहे हैं जो प्राचीन कथन का सत्यापन करते हैं "...हरी अनंत हरी कथा अनंता." इस कारण वे व्यर्थ नहीं जा रहे किन्तु शायद यह ऐसा ही है जैसे एक दौड़ में अनंत धावकों का भाग लेना, और प्रथम तीन को ही इनाम मिलना...

'कृष्ण' कहते हैं कि वे हर प्राणी में उनका सर्वोच्च रूप हैं जैसे मछलियों में मगरमच्छ, आदि...
____________

*http://indiatemple.blogspot.com/

ravishndtv said...

जेसी साहब
अगर आप सत्तर साल की उम्र में भाषा और संवाद को लेकर प्रयोग कर रहे हैं,वो संवाद के हम कारोबारियों के लिए प्रेरणादायक है। आप इसी तरह हमारी दायें बायें की बातों को अपने अनुभव और सोच से रास्ते पर लाते रहिए।

hamarijamin said...

chalant-phirant thik thak hai.Desh ki bhasa mein desh ki dhadakan..

JC said...

इस सन्दर्भ में मुझे याद आया कि कहावत है कि 'बात से बात निकलती है'.
हमारे परिवार के सभी सदस्यों को ह्न्दुस्तानी शास्त्रीय गायन में रूचि रही है - 'कानसेन' की तरह...
यद्यपि मैंने कई कार्यक्रम मैं श्रोता बन भाग लिया, किन्तु विशेषकर मुझे पंडित रवि शंकर का सितार वादन उनके आरंभिक काल से ही कई बार अलग अलग स्थान पर सुनने का मौका मिला.

एक दिन सप्रू हाउस में तबले के अचानक आरंभ मैं ही कुछ ही थाप के पश्चात फट जाने के कारण उनको सुनने का भी अवसर प्राप्त हुआ...
उन्होंने अपने अमेरिका के कार्यक्रमों के दौरान घटित अनुभव सुनाये...जब तक कि दूसरा तबला न आ गया...

उसमें से एक, उन्होंने बताया कि कैसे वहां, पश्चिम में, कार्यक्रम के अंत में ही ताली बजाने का रिवाज़ है, जबकि भारत में तो श्रोता से हर एक नोट यानि सुर पर वाह-वाही मिलती है. और गायक या वादक को पता चल जाता है कि उससे क्या उपेक्षित है. इस कारण सितार बजाते समय वे तबला वादक कि ओर ही देखते थे और वो ही सर हिला कर उनकी हौसला अफजाई करता था...किन्तु अमेरिका के समाचार पत्र में अगले दिन उन्होंने पढ़ा कि कैसे तबला वादक पंडितजी को रुक जाने का इशारा करता रहा किन्तु वो सितार बजाते ही चले गए :)

लगभग ऐसे ही जब आप लिखते हो तो पता नहीं चलता कि कोई उसे पढ़ भी रहा है कि नहीं - जब तक कोई गाली पढने को न मिले, अथवा किसी दुसरे के माध्यम से आप जानें उनकी चुप्पी का कारण, क्यूंकि यह आम देखा गया है कि जो आप लिखते हो, भले ही अपने रिश्तेदार को पत्र, तो अधिकतर सम्भावना रहती है कि उसका कोई उल्टा ही मतलब निकाला जायेगा और आपको फिर कुछ लिखना होगा कि आपका अर्थ कुछ और ही था न कि जो वो समझ बैठे थे :) किन्तु आज के नेता जानकर 'do and deny principle' इस्तेमाल करते हैं...पश्चिम कि नक़ल कर...

rajnish said...

These are beautiful lines.I really envy you to have such an inspiration.

JC said...

रविशजी, किसी के होने, या न होने, का अर्थ क्या है? इसका उत्तर आपको गीता में शायद मिल पाए, यदि आप उसको ख़ास इस उद्देश्य से पढें, क्यूंकि "जा की रही भावना जैसी/ प्रभु मूरत तिन देखी तैसी," तुलसीदास भी कह गए...

इस कारण आप पाएंगे कि भारत में अनेक 'बड़ी हस्तियों' ने उस पर चर्चा की है, अपने अपने दृष्टिकोण से...और करते ही जा रहे हैं कई 'पंडित' भी...जिस में लगभग सभी चैनल्स में होड़ लगी है...

संक्षिप्त में, गीता का सार है की हर मानव इस धरती में जन्मा है केवल निराकार प्रभु को और उसके साकार रूपों को भी जानने हेतु...किन्तु हर कोई प्राणी के पास समय नहीं है, या यूं कह लो, नहीं था कलिकाल में जिसकी हम कुछ 'आत्माओं' को भी थोडी बहुत झलक देखने को मिल रही है - खुद को सुधारने के लिए, एक उसी विद्यार्ती समान जो एक ही कक्षा में फ़ेल होता रहता है (कई कारणों से) :)

अंकुर गुप्ता said...

रवीश जी नमस्कार, मैं आपका प्रोग्राम रोज एनडीटीवी इंडिया पर देखता हूं. मैं आप तक एक बात पहुंचाना चाहता था. वो ये कि मीडिया ज्यादातर उन्ही लोगों को कवरेज देता है जो कि बड़ी पार्टीयों से उम्मीद्वार होते हैं अब चाहे ये कवरेज उनकी बुराई दिखाने के नाम पर ही क्यों ना हो. मुझे लगता है कि हर चुनाव क्षेत्र से कुछ निर्दलीय ईमानदार और कम पैसे वाले उम्मीद्वार भी खड़े होते हैं. अगर मीडिया उन्हे भी टेलीविजन पर लायेगा. उनसे सवाल जवाब करेगा. तो वो भी चुनाव जीत सकेंगे. जब ऐसा होगा तभी हम देश की तस्वीर बदलते हुये देख सकेंगे.
इसके अलावा एक और बात, मेरे चाचा मेडिकल स्टोर चलाते हैं उनका कहना है कि जो दवायें बाबा रामदेव के नाम पर आती हैं उनके रेट अन्य आयुर्वेदिक दवाओं से काफ़ी ज्यादा होते हैं. इसके संबंध में थोड़ी छानबीन करके बाबा जी से सवाल पूछिये तो बहुत अच्छा रहेगा.

मेरा संपर्क: ankur_gupta555(at)yahoo.com