मुझे सिर्फ एक दोस्त चाहिए

जब भी आप मिलते हैं किसी से

तो वाकई खुश होते हैं आप

या हंसना आ गया है आपको

हर किसी से मिलने के बाद

हाथ मिलाना आ गया है

दांत फाड़ कर और गोल कर

अपनी आंखें, जब मिलती है उससे

झूठी मुलाकात कितनी सच्ची लगती है

ऐसी तमाम मुलाकातों के बाद जब

एक भी मुलाकात बिस्तर पर याद नहीं आती

गहरी नींद के किसी कोने में देखे गए ख्वाब की तरह

जागने के बाद उसका चेहरा याद ही नहीं आता

ऐसे तमाम झूठे मुलाकातियों से हर रोज

हाथ मिलाने का मन नहीं करता

लगता है लात मार कर भगा दूं

और ढूंढ लाऊं अपने उन दोस्तों को

जो फिक्र करते थे कभी मेरी,

कभी मेरे लिए चाय बना देते थे

फिल्म जाने से पहले किचन में

छोड़ जाते थे तसले में थोड़ी सी खिचड़ी

सिर्फ मेरे लिए

अब नहीं है वे सब...

वे भी कहीं ढूंढते होंगे मुझको हर दिन

अपनी अपनी नौकरियों में मुलाकातियों से मिलने के बाद

गहरी नींद के किसी कोने में देखे गए ख्वाब की तरह

57 comments:

SummerDiary said...

Cliched but sadly true. Touching!

Girindra Nath Jha/ गिरीन्द्र नाथ झा said...

लेकिन फिर भी वो दोस्त अभी याद आते हैं
जो कॉलेज और स्कूली दिनों में
ढेर सारा प्यार और अपनापा देते थे...
आज भी बिस्तर पर याद आते हैं .
..बस एस एम् एस या ईमेल मिलने से
मन हरा हो जाता है....
वैसे दोस्त अब बनाने पड़ेगे ..
क्या बन पाएंगे

डा0 हेमंत कुमार ♠ Dr Hemant Kumar said...

भाई रवीश जी ,
दोस्त की तलाश में अपने बहुत अच्छी ,
मार्मिक कविता लिख डाली .बधाई .
खास कर ये पंक्तियाँ अच्छी लगीं .

जो फिक्र करते थे कभी मेरी,
कभी मेरे लिए चाय बना देते थे
फिल्म जाने से पहले किचन में
छोड़ जाते थे तसले में थोड़ी सी खिचड़ी
सिर्फ मेरे लिए

वाकई ,दोस्त ऐसे ही होने चाहिए .
हेमंत कुमार

P.N. Subramanian said...

वो कुछ और थे और ये कुछ और हैं. आभार.

ss said...

"अभी आप ही को सुन रहा था.......है हिम्मत तो कोई हाथ उठा ले....ग़ालिब पर|"


अपनी आंखें, जब मिलती है उससे

झूठी मुलाकात कितनी सच्ची लगती है|

कुछ याद दिला गए आप|!!

रश्मि प्रभा... said...

दांत फाड़ कर और गोल कर

अपनी आंखें, जब मिलती है उससे

झूठी मुलाकात कितनी सच्ची लगती है......
par...
ऐसे तमाम झूठे मुलाकातियों से हर रोज

हाथ मिलाने का मन नहीं करता

लगता है लात मार कर भगा दूं

और ढूंढ लाऊं अपने उन दोस्तों को

जो फिक्र करते थे कभी मेरी, .......yahi sach hai,bahut achhi rachna

azdak said...

फिल्म जाने से पहले किचन में/ छोड़
जाते थे तसले में थोड़ी सी खिचड़ी


ओहोहो, कितना मार्मिक.. कहां बिलाये सब दोस्‍त, आपकी तरह नौकरी पकड़ मुलाक़ातियों से मिलने निकल लिये?..

अफ़लातून said...

मनुष्यता के मोर्चे पर

Kaushal Kishore said...

रविशजी
भावुक कविता है. पद्य कहें या गद्य ?
शेक्स्पीअर बाबा तो पहले कह हिन् गए हैं की आख़िर नाम में क्या रखा है ?
बाद के दिनों में ऐसा क्या हो जाता है की पुराने दौर सरीखे भरोसे मंद मित्र नहीं मिलते ?
एक संशय है की क्या मित्र शव्द के पहले किसी विशेषण की वाकई कोई जरूरत है ?
बाद के दिनों में ऐसा तो नहीं की तंगदिली दोनों तरफ़ से हो जाती है.
असुरक्षा , रोजमर्रा के भागदौड़ , बढती आत्मा केंद्रित या फिर विशुद्ध स्वार्थ .
क्या वाकई बाद में दोस्त और दोस्ती का लुप्त प्रे हो जाना अनिवार्य परिणति है ? मेरा निजी अनुभव थोड़ा अलग रहा है.खैर अगर आप इस पर प्रकाश डालें तो बढिया होगा .
सादर

Anil Pusadkar said...

हां यही सच है।रोज़ मिलने वाला दोस्त नही हो सकता। हर मुलाकाती दोस्त नही हो सकता और यूंही ढूंढने से कंही कोई दोस्त नही मिल सकता।दोस्त तो रहता दिल के अंदर और शायद दिमाग के भीतर यादों के जंगल मे।बहुत सही बात कही आपने।

संकेत पाठक... said...

रविश जी,
बहुत ही मार्मिक बर्णन किया है आपने सच्ची दोस्ती का. पुराने दोस्तों की तो बात ही कुछ और है, लेकिन अब तो आपके दर्शक ही आपके सच्चे दोस्त है जो आपको बुलंदियों पर पहुँचा रहे है..

मोहन वशिष्‍ठ said...

फिल्म जाने से पहले किचन में

छोड़ जाते थे तसले में थोड़ी सी खिचड़ी

सिर्फ मेरे लिए

अब नहीं है वे सब...

वे भी कहीं ढूंढते होंगे मुझको हर दिन

अपनी अपनी नौकरियों में मुलाकातियों से मिलने के बाद

गहरी नींद के किसी कोने में देखे गए ख्वाब की तरह

बहुत ही मार्मिक वर्णन किया है दोस्‍त

संगीता पुरी said...

बहुत सुंदर लिखा है....

अखिलेश सिंह said...

आपकी कविता बिल्कुल मेरी कहानी मालूम पड़ती है, मेरे शब्दों में शायद उतनी ताकत नही की मैं ये बता सकू की आप ने कितना शानदार लिखा है.. बिल्कुल ही मेरी कहानी और शायद मेरे जैसे और भी कितने लोगो की कहिनी बयां करती है आपकी कविता .....

आनंद said...

हाय..... क्‍या याद दिला दिया आपने...


- आनंद

Aadarsh Rathore said...

आओ इसके लिए वक़्त को ज़िम्मेदार कहें...
एक वक़्त था
जब हम साथ रहते थे हमेशा
घर में
स्कूल में
मैदान की धूल में।
लेकिन आज
चाह कर भी मिल नही पाते।
ना जाने तुम कहाँ हो...
पर मुझे ख़ुद की भी तो ख़बर नहीं .....
जाने क्या हुआ है
ख़ुद को खो चुका हू
ऐसे में कैसे ढूंढूं तुम्हें
कहां ढूंढूं तुम्हें ?

सोचता था पहले
की तुम बदल गये हो
या फिर मैं ख़ुद बदल गया हू
लेकिन आज
दफ़्तर से आकर एहसास हुआ
कि ग़लती हमारी नही
जीने के लिए पैसा चाहिए
सिर्फ़ दोस्ती और भावनाएँ नही
और मजबूरी में सभी बंधे हैं
आप भी और मैं भी।
जिम्मेदारियों के बहाने
हम खुद तक सिमट जाते हैं,
फिर भी खुद को दोष न दें
आओ इसके लिए वक़्त को ज़िम्मेदार कहें

शून्य said...

इसके लिए वक्त को जिम्मेदार कहें को सुनने के लिए इस लिंक पर जाएं, एक बार अवश्य सुनें

http://boltachittha.blogspot.com/2008/11/blog-post_21.html

सतीश पंचम said...

तसले में खिचडी / तहरी छोडकर जाने वाले दोस्तों से इलाहाबाद में अबकी मिल आया हूँ। पट्ठों ने तहरी तो मेरे लिये बना दी, खुद आश्रम के भोग लगाने मेला क्षेत्र चले गये। सुना है कम्पटीशन की तैयारी करने वाले स्टूडेंट्स मेला चलने तक भोजन बनाना, अपने लिये घोर पाप मानते हैं। (अल्लापुर क्षेत्र कम से कम इस मामले में अपने नियम का पक्का है, जहाँ टिक कर पढने वाले स्टूडेंट्स की संख्या अच्छी खासी है :)

बढिया पोस्ट।

विनीत कुमार said...

और काश,
इस शहर में अदद एक दोस्त होता
कम से कम एक कंधा ही सही
जिस पर बेचैन होते ही रख देता अपना सिर
और सारा दर्द पिघल जाता धीरे-धीरे

मियां मिट्ठू said...

सर आप बहुत अच्छा लिखते हैं
स्कीन पर बहुत अच्छा दिखते हैं
प्रोग्राम तो बस आप ही के बिकते हैं
आपके सामने बाकी एंकर कहां टिकते हैं


यानी सब आपकी ही माला जपते हैं।
मैं गलत तो नहीं शायद
कड़ी ढंड में इन्हीं भाटों और
चारणों से आपके कान सिकते हैं।


भांडों की इस खिचड़ी में तुम वो वाले
दोस्त ढूंढ रहे हो मेरे भाई
तुम छोटे हो या बड़े, वो तो बिना
मतलब की दोस्ती रखते हैं।

लेकिन उनको तुम कहां ढूढ पाओगे...

जिस दिन से पता चला है
मीडिया पर मंदी की मार है
वो तो तुम्हारी सलामती के लिये
मंदिर से गुरद्वारे तक मारे-मारे फिरते हैं।

NiKHiL AnAnD said...

सर ! मैं नोस्ताल्जिक हो गया/ दिल बहुत करता है की वक्त मिले तो पटना घूम आयें/ लोयोला स्कूल के दिन के उन पुराने दोस्तों से मिल उनका हाल पूछ लें/ इस पुरे नोस्टाल्जिया एक कमी बाकी रह गई है वो अपने लोयोला के पड़ोस का स्कूल.. ..अगली बार उसे भी पूरा कर दीजियेगा सर/
बहुत खूब /

latikesh said...

रविश जी ,
दोस्तों के बारे में आप के दर्द को पढ़ा . वाकई इस मतलबी दुनिया में एक सच्चा दोस्त मिलना काफी मुश्किल काम है . यहाँ पर मै अपने पिताजी द्वारा लिखे गए शायरी के कुछ अंश का जिक्र करना चाहता हु
तुम्हारे सामने जो दोस्त नज़र आते है .
वही पे छिपा ,तेरा लुटेरा होगा .
रविश जी , दोस्त अब दर्द का नाम बन कर रह गया . आज की तारीख में मुझे लगता है , की सच्चा धनवान वही है ,जिसे कोई सच्चा दोस्त मिल गया हो . मै यहाँ पर दिवंगत कथाकार कमलेश्वर जी कुछ पंक्तियों का जिक्र करना chata हु , जो दोस्त पर तो नही है लेकिन दुसरे नज़रिए से देखे तो मतलब वही निकलता है .
सब को तलाश है , आख़िर kushi है क्या ,
तुमको कही मिली हो , तो बोलो पता है , क्या .
आज के दौर में जहा लोग दुसरे लोगो को अपने घर इस लिए लेकर नही ले जाते , की कही वही दोस्त उसकी पत्नी को pata कर भाग न जाए , ऐसे दौर में सच्चे दोस्त की तलाश मत कीजिये ,
आप ख़ुद के ही अच्छे दोस्त बनिए .
लतिकेश
मुंबई

Anonymous said...

जिस मुकाम पर आप हैं, वहां मतलबी ढोंगी दोस्त हजारों मिलेंगे, मगर जिनकी तलाश है वो तो बहुत पिछे छूट गए होंगे.. सब के साथ ऐसा ही होता है..जिनको दोस्त कहकर मन खुशी से झिलमिला उठाता है. जिनके जिक्र से सीना फूल जाता है..वो दोस्त तो मिलने मुश्किल है रवीश कुमार जी... नौकरी के दौरान मिलने वाले दोस्त तो कल के अख्बार की खबर जैसे होते हैं..

Amit Kumar Yadav said...

बहुत खूबसूरत भावाभिव्यक्ति है आपकी.
युवा शक्ति को समर्पित हमारे ब्लॉग पर भी आयें और देखें कि BHU में गुरुओं के चरण छूने पर क्यों प्रतिबन्ध लगा दिया गया है...आपकी इस बारे में क्या राय है ??

मधुकर राजपूत said...

दस्तूर हैं झूठी मुलाकातें , दुनिया का कारवां पीछा कर रहा है इस दस्तूर का। सफलता का मंत्र है यह, खासकर खबरनवीसों की दुनिया में। जहां योग्यता होने पर भी जुगाड़वाद का झंडा उठाकर चलना मजबूरी है। ज्ञान आधारित रोजगार के इस जगत में आज भी चाटुकारिता और संबंधों के आधार पर नौकरी बनती और बिगड़ती है। झूठा आदर। बेमन चरण धूलि में लोटना, ये टॉनिक की तरह काम करते हैं, लेकिन आज भी हैं कुछ मेरे जैसे बेवकूफ हैं जो इस कला में पारंगत नहीं हो सके। खुद में झांको तो पिछड़ने का एक कारण ये भी लगता है, लेकन उसी पल स्वाभिमान के बचे रहने का गर्व भी आल्हादित कर देता है। मेरा भी वक्त आएगा कभी, मुझे भी मिलेंगे झूठे मुलाकातिए, लेकिन उस झूठ में सच को पहचानने की कोशिश जरूर करूंगा।

Unknown said...

हाँ मैं भी याद करने लगाहूं , शामिल होगया हूँ कारवां मैं, हर रोज कुछ कोस तय करता हूँ, और एक दिन के ख़त्म होती रात और उगने वाले नए दिन के दरमियान ही साथियों के साथ समय मिल पाता है, फ़िर दिन भर मुलाक़ात नहीं और बात नही, थोड़ी सी फुर्सत मैं सब याद करते करते काम की सुद आते ही खोजाते है काम मैं, अपना और दोस्तों का निशाँ नहीं रहता, फ़िर होती है रात, रात के बाद आधी रात और उसके बाद अगले दिन की सुबह, यही वक़्त होता है मेरा और दोस्तों का ....... तब आपस मैं बैठ याद करते हैं अच्छे बुरे दिन .......रविश आपके साथ भी ऐसी ही यादें हैं शायद उन दिनों को याद दिलाने का शुक्रिया ............

Abhishek Ojha said...

और ढूंढ लाऊं अपने उन दोस्तों को
जो फिक्र करते थे कभी मेरी,
कभी मेरे लिए चाय बना देते थे
फिल्म जाने से पहले किचन में
छोड़ जाते थे तसले में थोड़ी सी खिचड़ी
सिर्फ मेरे लिए.

बहुत करीब लगी ये पंक्तियाँ. आपकी पिछली कई पोस्ट में सहमती नहीं बन पाती थी. इसलिए टिपण्णी नहीं कर पाता था. आज बहुत दिनों बाद ये मनमुताबिक पोस्ट मिल गई.

anil yadav said...

पूरी पोस्ट और सभी कमेंट्स में यही शिकायत है कि सच्चे दोस्त अब नही मिलते हैं....और जो दाँत निकालकर और आँखे गोल कर मिलते हैं सब फरेबी हैं.....लेकिन पोस्ट और पोस्ट पर कमेंट करने वाले ये भूल गयें कि वो भी दिन भर में कितनी बार आँखे गोल करते होंगे और पीले दाँत निकाल कर नकली हँसी हंस कर असली दोस्त होने का दंभ भरते होंगे.....

vipin dev tyagi said...

कोई हाथ भी ना बढ़ायेगा
जो गले मिलोगे यूं तपाक से
ये नये मिजाजों का शहर है..
जरा फांसले से मिलो....
ये सही है कि आज के दौर में..कागजी दुनिया..दौड़ती-भागती जिंदगी में...जहां हम काम करते हैं...दो वक्त की रोटी के लिये जद्दोजहद करते हैं,(रोटी घर की हो या फिर फाइव स्टार में लंच डिनर)...वहां सच्चे दोस्तों की कमी है...आमतौर पर औपचारिक,पेशेवर तरीके से लोग मिलते हैं...झूठी हंसी,दोस्ती की फीकी चादर ओढ़े हुए ऐसे बहुत से लोग हमें रोज मिलते हैं...हम भी जानते हैं..वो भी जानते हैं कि ये रिश्ता..या दोस्ती महज काम निकालने या काम करने के लिये हैं..हम अपने कॉलेज के..बचपन के,मौहल्ले के उन दोस्तों को याद करते हैं...जो हमारे लिये अपने घर में डांट खाते थे...कहीं शादी में गये तो..हमारे लिये भी साइड से एक थैली में गाजर का हलवा भर लाते थे..पैसे मिलाकर पिक्चर देखना,होटल में दस-दस रूपये मिलाकर बिल चुकाने वाले...उन दोस्तों की जगह कोई कभी नहीं ले सकता...लेकिन ऐसा भी नहीं है कि समय और जगह बदलने के साथ हमें नये और भरोसमंद दोस्त नहीं मिलते...सौ की भीड़ में एक या दो लोग अब भी ऐसे निकाल आते हैं..जो पुराने दोस्तों की याद ताजा कर देते हैं...उनकी कमी को पूरा करने की कोशिश करते हैं...उन्हें गले लगाकर वही अपनापन,भरोसे और इत्मिनान का अहसास होता है...वो भी मुश्किल में साथ देते हैं..सुख-दुख में गले लगाते हैं...जरूरत बस...दोस्ती की उस नजर,उस शख्स को पहचानने ओर उस हाथ को पकड़ने की है...

Unknown said...

bahut hi badiya hai......hal hi mai apka taliban ka tamasha dekha...puri special report ki drafting aur apne hi pale mai khade logo ki alochana adbhut hai

KK Yadav said...

ऐसी तमाम मुलाकातों के बाद जब
एक भी मुलाकात बिस्तर पर याद नहीं आती
गहरी नींद के किसी कोने में देखे गए ख्वाब की तरह
जागने के बाद उसका चेहरा याद ही नहीं आता ...Bahut Khubsurat likha hai apne...!!!

Abdullah said...

bahut khoob Ravish ji,
Par aaj ke zamane mein ab achche dost milte kahan hain..

hamarijamin said...

Ravish ne asahaj or nakali daur ko thik se ukera IS rachana mein.jivan jab tez or gatiman hota jata hai to nakalipan badhata jata...

Akanksha Yadav said...

बहुत सुन्दर भाव हैं.आपके ब्लॉग पर पहली बार आई हूँ, अच्छा लगा.

आशुतोष उपाध्याय said...

दरअसल, सवाल यह भी है की क्या हम ख़ुद किसी के दोस्त रह पाए हैं? क्या हमारे पास किसी का ख्याल रखने का वक़्त है? अगर हम किसी के अच्छे दोस्त हैं तो तय मानिये आप को आज भी अच्छे दोस्त जरूर मिलेंगे. आख़िर दुनिया में हम ही अकेले भले आदमी नहीं हैं न!

SKV said...

आदरणीय रवीश जी,
एक बेहद मार्मिक वर्णन है पर शायद लगता है कहीं हम सब जिंदगी की रेस में दोस्ती जैसे रिश्ते को नज़रंदाज़ करे बैठे हैं. हम सिर्फ़ चाहत की उम्मीद लगाए रखते हैं और भूल जाते है कि चाहत के लिए पहले किसी को चाहना पड़ता है फिर चाहत कि उम्मीद की जा सकती है.
बधाई हो रवीशजी लिखते रहिये.
एस.के. वर्मा
team-skv.blogspot.com

Sanjay Grover said...

Ravishji, apne kuchh sher yaad aa gaye...kuchh aapke paksh meN khade ho jayeNge to kuchh vipkshi banKar chirhaa bhi sakte haiN..fir bhi parhane meN koi buraayi bhi nahiN..lijiye puri ghazal hi pesh kiye deta huN :-
ग़ज़ल

चार दिन तो आप मेरे दिल में भी रह लीजिए
पाँचवें दिन फ़िर मेरे घर में बसेरा कीजिए

राज़े-दिल दुनिया से कहने ख़ुद कहाँ तक जाओगे
बात फैलानी ही हो तो दोस्त से कह दीजिए

आपका-मेरा तआल्लुक अब समझ आया मुझे
कीजिए सब आप और इल्ज़ाम मुझको दीजिए

दोस्त बनके जब तुम्हारे पास ही वो आ गया
खुदको अपने आपसे अब तो अलग कर लीजिए

मय मयस्सर गर नहीं क्यूं मारे-मारे फिर रहे
जिनका दम भरते थे उन आँखों से जाकर पीजिए

दर्पण साह said...

wo dost yaad aate hain...
jinki baatein gaali se shuru hoke gali pe khatam hot thi. Cigrette pite wqut haat se cheen lete the. abe akale marna chahta hai kya?....
...aur bhi kai baatein....
.....yaad aati hai gulzar sahab ki nazm
"dil dhoondta hai..."

bahut badiya lekh...
so very nostlagic....

Hari Joshi said...

अंतरमन से निकले शब्‍द एक बेहतरीन कविता बन गए हैं।

SACHIN KUMAR said...

SACHIN KUMAR
..................
DOSTI HAI HI BADA PAVITRA RELATION. JISE AACHE DOSH MIL JAYE UNKA JIWAN BEHTAR HONA TAY JANIYE. KHUN KE SAMBAND JISE KABHI-KABHI HAME DHONA PADTA HAI LEKIN YE DOSTI HUM APNI PASAND KA CHUNTE HAI. IS RELATION PER JITNA LIKHA JAY KAM HAI. O KHICHARI WALI BAAT DIL KO TOUCH KAR GAYI

JC said...

Manav jiwan ka satahi satya yehi hai - bachpan mein titliyon ke peeche bhagta hai, her naya khilona pehle achcha lagta hai, aur phir bore ho jata hai anant 'Mayajaal' se, jis mein wo khud ko bandha pata hai!

रज़िया "राज़" said...

Han bilkul, jinki aap bat karte hai vo to matalab ke liye hote hai aur sachche Dost aaj kahan milte hai?kahan Bachapan aur Kishorpan ka bhola pan aur kahan Aaj ki Matlabi dosti are AASMAN-ZAMEEN ka fark hai. chalo kher pata to chal hi jata hai yahi bahot hai, Aage se pahchan payenge In logon ko ,
Badhai ek sachchi bat ke liye.

Akanksha Yadav said...

बहुत सुन्दर लिखा आपने, बधाई.
कभी मेरे ब्लॉग शब्द-शिखर पर भी आयें !
नई प्रस्तुति है- अभी से चढ़ने लगा वैलेंटाइन डे का खुमार!!

niranjan dubey said...

wakayi me...ye sachai hai... har kisi ko ko talash hoti hai ek dost ki..aise dost ki jo uski bhawnao ko samjhe...

Nikhil Srivastava said...

हाथ मिलाना आ गया है...
Zindgi me ek mukammal mukam ki talash me,
Doston ke bagair,
Hame badbdana aa gaya hai.
Shayad ye zingadi ka khel hai,
Use bhi isi bahane apna man bahlana aa gaya hai.
Nikhil.

Dixant Tiwari (soni) said...

Raveesh Bhaiya
hila diya aapki
kuch panktiyo ne

ek sher fir yaad aa gaya

jinka duniya main koi dost nahi
sabse badaker garib hote hain

Dikshant

इरशाद अली said...

मेरठ में हो रहा है हिन्दी ब्लागिंग पर भव्य सेमिनार

sushant jha said...

कही अनकही बातों की अदा है दोस्ती,
हर गम की सिर्फ़ एक दवा है दोस्ती,
सिर्फ़ कमी है महसूस करनेवालों की,
महसूस करो तो ज़मीन पे जन्नत है दोस्ती

फुटनोट: ये मेरा स्वरचित नहीं है।

Tarun said...

लात तो मार नही सकते, रिश्ते दिल मिले ना मिले हाथ तो मिलाना ही पड़ता है। रविश आपने बहुत अच्छा लिखा है।

Unknown said...

really good one abt friendship...keep writing...
i was searching for Hindi typing tool and found 'quillpad'.do u use the same for typing in ur blog...?

delhidreams said...

:) kahi na kahi ye bhi dev d ka hi asar dikhta hia dost!

Alok Pandey said...

You have a multi-skilled personality. You are a good orator, good anchor, good writer and now i came to know that you are a superb poet too.

gautam yadav said...

रविशजी किसी विद्वान ने कहा है कि सच्ची दोस्ती सिर्फ बचपन की होती है... क्योंकि वो बिना किसी लाभ-हानि के समीकरणों को देखे हुए होती है... लेकिन बचपन की दहलीज पार करने के सिर्फ संबंध बनते हैं दोस्ती नहीं होती.

JC said...

Aadmi shayad khud hi apna sabse achchha dost hota hai! Aur shayad khud hi sabse khatarnak dushman bhi!

कबीरा खड़ा बाजार में... said...

RAVISH JEE
AAJ KEE DUNIYA KEE HAKEEKAT HAI KAVITA. DOST AUR MULAKATEE MEIN ANTAR HAI. EK DOST KA INTJAR KARNA HEE PADTA HAI. KAVITA DEL KO CHUTEE HUI YADON MEIN BALAT LEE JATEE HAI. YAHEE ESKEE SAFALATA HAI.

hamarijamin said...

ravish jee,
dostee ke maynai badal chukea hai. mulakatee aur dost mein fark hai. hal yeh hai ke na dost hai na rakeeb hai.kavita behad marmeek hai. lakeen fark kise hai.

कबीरा खड़ा बाजार में... said...

Aapki is rachana mein bedhanewali awaj hai. dikkat yeh hai ki sahaj log kam hote ja rahe hain.apni is marak rachana ke liye badhayee lein.