दक्षिण दिल्ली में नहीं रहते हो का जी..

कभी आपने इस सवाल का जवाब दिया है। कभी आपसे किसी ने ऐसा सवाल किया है। आए दिन होता रहता है। ठीक ठाक कपड़ों में और अच्छी खासी कार से भी उतरें तो पूछने वाला एक बार भरोसा कर लेना चाहता है कि दक्षिण दिल्ली के हैं या नहीं। अखबारों ने एक भ्रम फैला रखा है कालोनियों को लेकर। पॉश कालोनी लिख लिख कर दिमाग खराब कर दिया है। जो है जहां है के आधार पर अपनी कालोनी को पॉश कालोनी घोषित करने के चक्कर में रहता है।

मुझसे अक्सर लोग यह सवाल करते हैं। जवाब जैसे ही मिलता है कि गाज़ीपुर बार्डर से दो किमी आगे डाबर मोड़ से दायें मुड़ते ही वैशाली के सेक्टर पांच में रहता हूं। पता पूरा भी नहीं कर पाता सामने वाले की मुझमें दिलचस्पी खत्म हो जाती है। सहानुभूति के स्वर में कहा जाता ओह...इतनी दूर बाप रे। तुम इधर यानी दक्षिण दिल्ली में क्यों नहीं रह लेते। वहां का माहौल तो बहुत खराब होगा। मैं चाहता हूं कि जिन जिन लोगों ने मुझसे कहा है वो ये लेख पढें।


उत्तर और दक्षिण दिल्ली में क्या फर्क है। रिंग रोड दोनों ही तरफ बहती है। एटीएम और अग्रवाल स्विट्स पूरी दिल्ली में हैं। पीवीआर का ग्राम्यकरण पूरी दिल्ली में हो चुका है। सिर्फ दक्षिण दिल्ली में पीवीआर नहीं है। पैसे वाले यहां वहां सब जगह रहते हैं। दक्षिण दिल्ली में चिराग दिल्ली, कटवारिया, ओखला गांव, मदनपुर खादर, मदनगीर, अंबेडकरनगर, मुनिरका गांव हैं। आम लोगों की आबादी ज़्यादा है। कड़ी मेहनत लेकिन फिर भी दो पैसा कम कमाने वालों की आबादी फ्रैंड्स और ग्रेटर कैलाश से अधिक है। दक्षिण दिल्ली मूलत एक मेहनतकश और मध्यमवर्गीय लोगों का इलाका है। इसका मतलब यह नहीं कि मैं वैशाली का टाइकून हूं। पहले भी मुनिरका, चिराग दिल्ली और गोविंदपुरी में रह चुका हूं।

हुआ यूं कि गोविंदपुरी, डीडीए कालकाजी, शेखसराय, खिड़की एक्सटेंशन, आश्रम, भोगल मुनिरका, अंबेडकरनगर, कृषि विहार, मदनपुर खादर, गढ़ी में आम लोगों रहते थे। दक्षिण दिल्ली की आबादी में अस्सी फीसदी हिस्सा इनका है। फ्रैड्स कालोनी, जंगपुरा, डिफेंस कालोनी, साउथ एक्स, ग्रेटर कैलाश। यहां चंद अमीर लोग रहते हैं। गरीबों की झोपड़ी के बीच अमीरों की कोठी दूर से ही ऊंची दिखती है। अगर दक्षिण दिल्ली की पहचान ही बननी है तो इनसे नहीं बनती। दक्षिण दिल्ली कहीं से भी पॉश नहीं है। होती तो कैलाश कालोनी, फ्रैड्स कालोनी में साप्ताहिक बाज़ार नहीं लगते। यहां के मैक्स और फोर्टिस से आज भी एम्स और सफदरजंग की ज़्यादा तूती बोलती है।

कहीं मैं अपना फ्रस्टेशन तो नहीं निकाल रहा दक्षिण दिल्ली की अवधारणा पर। जब मैं मुनिरका गांव में रहता था तब मेरे दक्षिण दिल्ली के तथाकथित कुलीन दोस्त कहते थे कि कहां गांव में रहते हो। जब मैं वैशाली के ठीठ ठाक अपार्टमेंट में रहता हूं तो ऐसे बात करते हैं जैसे मैं उत्तरी ध्रुव में रहता हूं। बहुत छोटा नक्शा होता है दक्षिण दिल्ली वालों के दिमाग में। इतना छोटा कि पड़ोस के मेहनतकशों को भी शामिल नहीं करते। रहते तो वे भी हैं दक्षिण दिल्ली में। इसके बाद भी जब भी पता पूछते हैं और जवाब मिलता है उनके चेहरे का रंग बदल जाता है। बीच में क्लास आ जाती है। इसीलिए कहता हूं दक्षिण दिल्ली को आबाद मेहनतकशों ने किया है लेकिन मलाई हमेशा की तरह दो चार कालोनियां वाले खा रहे हैं।

34 comments:

Aadarsh Rathore said...

ईस्ट ऑफ कैलाश और गढ़ी गांव दोनो सटे पड़े हैं। और एक किस्म से गुत्थमगु्त्था से हुए पड़े हैं। सिर्फ बिल्डिंग्स का कद और रंग रूप ही दोनों में भेद करता है। जहां ईस्ट ऑफ कैलाश पॉश इलाके में गिना जाता है वहीं गढ़ी की पहचान सबसे ज्यादा अव्यवस्थित और गंदी जगह के रूप में है। और गढ़ी गांव की तरह ही आस-पास के कई इलाके ऐसे हैं जहां मेहनतकश बसते हैं। और ज्यादा तादात ऐसे ही लोगों की है। फिर भी पहचान इन 'पॉश' कॉलोनियों को ही मिलती है। इसके अलावा दूसरे स्तर भी इनके साथ भेदभाव होता है। इन पॉश कॉलोनियों में कभी किसी तरह की समस्या नहीं रहती लेकिन मेहनतकश लोगों की रिहाइश में कभी भी सुविधाएं नहीं रहतीं। लोग प्यासे हैं, गंदे परिवेएश में हैं लेकिन नेता और प्रशासन इस ओर ध्यान नहीं देते।

इरशाद अली said...

तो जो मुम्बई या अन्य शहरों में रहते है उनके लिये तो ये पोस्ट है ही नही फिर भी ब्लॉगिंग में स्थानीयता को बढ़वा मिलना चाहिये। इस पोस्ट को उसी की एक कड़ी मान लेते है। अब देखना ये है कि टिप्पणी भी वही देगें जो दिल्ली में रहते है या अन्य भी खैर रविश की एक लेखन शैली है। मैंने तो उसी पे टिपीया दिया है।
पॉश कालोनी लिख लिख कर दिमाग खराब कर दिया है।
मैं चाहता हूं कि जिन जिन लोगों ने मुझसे कहा है वो ये लेख पढें।
रिंग रोड दोनों ही तरफ बहती है। एटीएम और अग्रवाल स्विट्स पूरी दिल्ली में हैं।
पीवीआर का ग्राम्यकरण पूरी दिल्ली में हो चुका है।
मैं वैशाली का टाइकून हूं।
कहीं मैं अपना फ्रस्टेशन तो नहीं निकाल रहा

प्रवीण त्रिवेदी said...

bhai!!

kya bataun ???

aaj tak delhi me ruka nahin hun!
railway station ko chodkar!!

दिनेशराय द्विवेदी said...

खंबे को खड़े होने के लिए एक गड्ढा चाहिए। खड़े होते ही वह भूल जाता है कि उस के पांव गड्ढे में ही दबे हुए हैं।

ravishndtv said...

दिनेश जी की टिप्पणी लाजवाब है। इरशाद की बात में भी दम है। लेकिन जवाब मैं दिनेश जी की तर्ज पर देना चाहूंगा। स्थानीयता वो गड्ढा है जिसमें राष्ट्रीयता का खंभा गड़ा है। इस तरह की समस्या तो अन्य शहरों में भी होती होगी। पटना में भी एक पॉश कालोनी है। पाटलिपुत्र

रंजन (Ranjan) said...

सही है रविश जी.. जब मैं खिड़्की एक्स. में रहता था तो बगल में मालवीय नगर वाले भी एहसास दिलाते थे.. कंहा गांव में रहते हो..

नीरज मुसाफ़िर said...

अजी रविश जी, लोगों के बहकावे में मत आओ, कल को ये कहेंगे कि यार तुम पर ये कपडे जच नहीं रहे तो क्या आप......?
भई अपना तो एक ही सिद्धांत है- सुनो सबकी, करो मन की.

प्रभात गोपाल झा said...

ये तो मन की बातें हैं। इन्हें ज्यादा महत्व नहीं दें।

एस. बी. सिंह said...

भाई अब इसका क्या करेंगे। यही भाव हर बड़े शहर वाले का छोटे शहरों और गावों के बारे में है। जैसे वे किसी दूसरी दुनिया में रहते हों। ग्रेटर कैलाश वाला हमारे लिए ऐसी भावना रखता है हम किसी और के लिए।

राजीव करूणानिधि said...

मै तो बस आर आर पाटिल की जबान में उत्तर दूंगा ''बड़े बड़े शहरों में ऐसी छोटी छोटी घटनाएं हो जाया करती हैं''

Unknown said...

kya chutiyape ki baat hai, no body is bother about it. whether you resides in south or jamnapaar, it's means rabish tumhare dimag me kachra bhara hai.

Unknown said...

बहुत अच्छा लिखा है आपने...जहाँ तक बात है दक्षिण दिल्ली में रहने की तो मैंने ७ साल वही बिताये हैं और लगभग हर जगह रहा है...मुनिरका , जियासराई , कत्वारियासराई , आर के पुरम , बसंत बिहार , साकेत , खानपुर,
इतने जगहों पर मैंने ये सात साल बिताये.....अगर कुछ इलाको को छोड़ दे तो मुझे ऐसा कभी नही लगा की मैं दिल्ली के सबसे संभ्रांत इलाके में रह रहा हूँ .....
हाँ हम दोस्तों के लिए एक चीज़ अच्छी थी की हम जब भी चाहते प्रिया,पीवीआर ,चाणक्य हाल जा सकते थे...और खरीदारी करने के लिए सरोजनी मार्केट ....और जब इतनी चीज़ आपके आस पास में हो तो और कहीं जाने की क्या जरुरत है....

JC said...

Kisi bhi sthan per dus dishayein milti hain, uper aakash aur neeche patal sub sthan per. Aur, anya 8 dishayein aapko dhrati per hi kintu vibhinna sthan per le jayengi...Aur, kuchh na kuchh suvidha her sthan per sameep hi hongi - kuchh ke liye aapko idhar-udhar bhatakna hoga...

Kintu prashna yeh hai ki aapko adhik se adhik 150 varsh prithvi per, jo anant kaal se yahin per virajman hai, jivan kyoon mila hai?

Rajesh Roshan said...

पिछले छह साल से दिल्‍ली में रह रहा हूं...महरौली, प्रीतमपुरा, नार्थ कैम्‍पस, न्‍यू अशोक नगर और अब लक्ष्‍मीनगर में रह रहा हूं.... मैं जब तक किराया दे रहा हूं कभी नोएडा और गाजियाबाद में नहीं रहना चाहूंगा...कई कारण हैं इसके पिछे....मुझे नहीं पता कि रवीश की य‍ह पोस्‍ट वैचारिक गुस्‍सा है या फिर कुछ और...जहां रवीश रहते हैं वहां के लोग बिना इनर्वटर के नहीं रह सकते...पानी अगर बोरिंग है तब तो ठीक है नहीं तो बहुत मुश्किल है...और चेन स्‍नेचर का इलाका है वैशाली, वसुंधरा और इंदिरापुरम...मैं यह बात केवल खोट निकालने के लिए नहीं कह रहा हूं. यह है इसलिए कह रहा हूं...अभी कई दिनों से मैं अपने लिए घर खरीदने की सोच रहा हूं...जब भी पोर्टल पर सर्च करता हूं तो वहीं इलाका ढूंढता हूं जहां अभी रवीश रहते हैं....यह है मेरे सोचने का अंतर...

वैसे इसका बेहतर जवाब रियल इस्‍टेट किंग केपी सिंह ही दे पाएंगे..उन्‍होंने दिल्‍ली के कुछ 20 से ज्‍यादा कालोनियों को बसाया है...

एक बात और जिस इलाके की बात रवीश कर रहें हैं वह कवियों के ईंट गारे वाला शहर ही लगता है..हाईवे से गुजरिये तो पता चल जाएगा...

यूनुस said...

हर शहर का किस्‍सा है ये । मुंबई वाले कहते हैं--'मीरा रोड..हम तो कभी वहां गए ही नहीं'. सेंन्‍ट्रल लाइन (जिसका मतलब है सेंट्रल रेलवे की पटरियों के दोनों तरफ बसे उपनगर ) हाउ डर्टी । हार्बर रेलवे...ओह गॉड..लगता है सेटेलाईट से जाना होगा वहां । मुंबई के एलीट कोलाबा, मलाबार हिल, पैडर रोड, नेपीयन सी और बांद्रा, जुहू वगैरह इलाक़ों में रहते हैं । पर असली मेहनतकश मुंबई उपनगरों में बसती है । वैसे तो वर्ल्‍ड ट्रेड सेन्‍टर की नाक के नीचे बैठी मख्‍खी की तरह झोपड़ पट्टियां हैं । यही हाल तमाम ऐलीट इलाक़ों का है ।
किस्‍स ए मुख्‍तसर ये कि एलीट लोगों की नज़रें कमज़ोर होती हैं । इसलिए उन्‍हें सबर्ब में रहने वाले दिखते नहीं । ये अलग बात है कि उन्‍हीं की तनख्‍वाहों में कभी सौ तो कभी पचास की कटौती करके वो अपना बड़प्‍पन दिखाते हैं ।

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद said...

मजूरी दीमक करती है, सांप आकर बस जाता है। यह तो प्रकृति का नियम है। तभी तो कहावत मशहूर है - मेहनत करे मुर्गे सा’ब अण्डे खाये काज़ी सा’ब!

Suhaib Ahmad Farooqui said...

Dakshini Dilli ho ya uttari, apne liye to
"Hai ajab Shahar ki zindagi,
Na safar raha na qayam hai;
Kahin karobar si dopahar,
Kahin bemazaa si shaam hai...." (Bashir Badr)
Posh colonies mein rehne walon ki nazar:-
"Chhoti-chhoti baatein karke bare kahan ho jaaoge;
Patli galiyon se niklo to khuli sarak par aaoge...."
(Waseem Barelvi)

डा0 हेमंत कुमार ♠ Dr Hemant Kumar said...

Ravish ji,
Admee rahta kaheen ho,kisi varg ka ho,hamare dil men jagah honee chahiye.Chahe vo delhi ka koi bhee ilaka ho.main to Delhi Balli maran,Adhchini,East Vinod Nagar.Chanakyapuree sabhee jagah jakar thahra hoon.
Lekin agar chanakyapuree vale mitra ke dil men jagah na ho to main ballee maran ya Adhchinee ja kar hee thahrna pasand karoonga.
Vase bhee raveesh ji...kuch to log kahenge...logon ka kam hee hai kahna....usmen ham ap kya kar sakte hain? Aur ap ne to khud hee blog par likh rakha hai ki Kuchh kahne ka man karta hai.So kahne deejiye logon ko...
Hemant Kumar

अविनाश वाचस्पति said...

रहना भी आजकल बन गया गहना है

लोग गले में पहनते हैं जो भी गहना है

हमने सबके प्‍यार को दिल में पहना है

प्‍यार हमारा सभी के दिल में बहना है

प्‍यार बांटते चलते हैं

प्‍यार बटोरते चलते हैं

सट सट के चलते हैं

तपाक से गले मिलते हैं


दिलों में बस जाते हैं याद बनके

दिलों में याद बसाकर रख लेते हैं

दिशा कोई भी हो, देश कोई भी हो

दूर नहीं है अब नेट के इस चैट (लिखचीत) में।

रजनीश said...

आदरणीय रवीश जी,
सादर अभिवादन
आपकी सारी रचनाये बहुत ही स्तरीय एवं सहज हैं। अगर आप बुरा न मानें तो मैं आपके प्रोफाईल में लिखे गए विवरण में कुछ सुधार करने का सुझाव देना चाहूँगा। जैसे "ज़िंदगी के प्रति एक गंभीर इंसान हूं। पर खुद के प्रति गंभीर नहीं हूं।" के जगह पर अगर "ज़िंदगी के प्रति एक गंभीर इंसान हूं, पर खुद के प्रति नहीं।" लिखा जाता तो ज्यादा अच्छा लगता। फिर "इस ब्लाग में जो कुछ भी लिखता हूं वो मेरे व्यक्तिगत विचार है।" के जगह पर "इस ब्लाग में जो कुछ भी लिखता हूं वो मेरे व्यक्तिगत विचार हैं।" होना चाहिए था। मैं आपकी सारी रचनायें पढ़ता हूँ, और आपसे परम शुद्धता की आशा रखता हूँ।

आपका अनुज-
रजनीश कुमार
ग्राम-अरई, पोस्ट-अरई,
जिला-औरंगाबाद (बिहार)

jamos jhalla said...

Ravish jee Aapne bhi samaaj ko baantne ki hi baat kar di.yoon to samaaj mai amir aur gareeb ka antar pouraanik hai phir bhi shashwat satya hai ki dhanaadaya ki aulaad dhan lutaati hai jabki mehnatkash dhan ki keemat jantaa hai aur woh ek din dhanaadya bantaa hai aur unkaa ilaakaa posh kehlaane lagtaa hai.dheere dheere bahar se log aa kar mehnat karte hain aur unkaa ilaakaa bhi kuch samay ke paschaat posh banne lagtaa hai .shayad yahi vikaas ka niyam bhi hai.

The Lazy Hound said...

वैसे सच में , वैशाली तो बड़ी दूर है , इधर दक्षिण दिल्ली में क्यों नहीं रह लेते ?

JC said...

Jahan aadmi ka dana-paani likha hota hai, wo apne ko wahan paata hai, aisa suna tha kabhi...

इरशाद अली said...

बिदेसिया लोकरंग के पक्ष में बेहद सार्थक प्रयास है, गुंजा का, तोहार लेख ''नदीया के पार और 25 साल'' से ही हम इधर पहुचा हूं। इस तरह के कदम स्थानीयता को किसी और प्रयास के मुकाबले कही अधिक बढ़ावा देते हैं। ऐसे प्रयोग और भी होने चाहिये। लेकिन एक बात हमार समझ में ना आवत है कि इ तो बेबसाइट है और तुमी तो ब्लॉग की चर्चा करत रहे हो। फिर इ का जिकर काहे किया।

Ashish Maharishi said...

Ravish ji mujhe apna nya email dijiye...

sudama said...

श्री मान,नमस्ते
आप का साधारण लिखने का और बोलने का अंदाज कबीले तारीफ है.
कस्बो मैं ही हिन्दुस्तान रहता है.
धन्यवाद

Alok Pandey said...

In small cities we go through similar questions. Actually this whole world is divide into two major sections - "The RICH and the POOR" and various other subsections.
People living in new planned colonies look at others with conrtempt. The middle class of country feels bad when questions about their status are raised but on the other hand they openly flout their superiorty over other common people. So its not unusual to find people making fun of middle class localities.

Amit said...

रवीश जी की बातों से सहमत हूं.. फ्रेंड्स कॉलोनी में क़रीब दो साल रहा हूं। चारों तरफ़ स्थित छोटी-छोटी कॉलोनियां चाहे वो जुलैना हो या जामियानगर और ओखला गांव या फिर महारानी बाग-आश्रम से सटा एरिया। इतने बड़े हिस्से को छोड़कर सिर्फ़ फ्रेंड्स कॉलोनी की चंद कोठियों की बदौलत अगर आप इसे पॉश कॉलोनी कहते हैं तो फिर न्यू कोंडली, नोएडा, वैशाली और इंद्रापुरम की कॉलोनियों ने किसी का क्या बिगाड़ा है। अगर लोकेशन वाइज़ देखें कि कहां से सारी अहम चीज़ें आसपास हैं तो ये आपकी ज़रूरत पर निर्भर करता है। आप कहां नौकरी करते हैं, किन बाज़ारों में आपका अक़्सर आना-जाना होता है। कहां आपकी मित्रमंडली रहती है आदि-आदि। शायद यही वजह है कि जब मैं जामिया की पढ़ाई और फ्रेंड्स कॉलोनी का रूम छोड़कर नोएडा के सेक्टर-37 आया, तो ये इलाका ही मुझे पॉश मालूम होता है। क्योंकि यहां से दफ़्तर की दूरी महज 15 मिनट की है। सुविधाओं के मामले में.. ज़रूरत की लगभग सारी चीज़ें यहां भी मिल ही जाती हैं।

sushant jha said...

भाइयों..चमरटोली और बभनटोली का कंसेप्ट अभी खत्म नहीं हुआ है और वो जितना मधुबनी के खोजपुर गांव में जिंदा है उतना ही दिल्ली के कालोनियों में भी। फर्क यहीं है कि दिल्ली में जाति पूछकर पानी नहीं पिलाया जाता, लेकिन कोठीवालों के मन में जो दूसरों के प्रति हिकारत का भाव है उसे देख कर तो बड़े-बड़े तिलकवाले भी शर्मा जाएं। यूं ही नहीं बीएमडब्ल्यू वालों ने लोगों को मारने का लाइंसेंस ले रखा है। मुझे याद है कि एक बार एक न्यूज चैनल में नौकरी के इंटरव्यू में मुझसे चैनल हेड ने पहला सवाल पूछा था-कि क्या सुखदेव विहार में तुम्हारा अपना फ्लैट है? दरअसल, मैंने अपने दोस्त के डीडीए फ्लैट का पता सीवी पर लिख छोड़ा था। उस पत्रकार-सीईओ-चैनल हेड को उसके सामने बैठे 5,7" के पढ़े लिखे, खूबसूरत(!) और मेरे मास काम के डिप्लोमा की परवाह नहीं थी-उसे सिर्फ मेरा सुखदेव विहार का एड्रेस नजर आ रहा था। तो जन सरोकार और जनता की आवाज बुलंद करनेवाले पत्रकारों की ये हालत है तो वसंतविहार और फेंड्स कालोनी वालों ने बड़ी मेहनत से दलाली-उद्योग और बिजनेस करके कोठियां खड़ी की है। उन्होने अगर इसे बभनटोली बना ही लिया है तो ताज्जुब कैसा?

Unknown said...

चार सालों से दक्षिण दिल्ली में टिका हूँ....गोविन्दपुरी से बदरपुर होते हुए तुगलकाबाद में रह रहा हूँ....ज्यादातर जानने वाले यही रहते हैं....सच कहू तो इस इलाके को जान गया हूँ...
जैसे हाथों की अंगुलिया बराबर नहीं होती....उसी तरह से एक जगह पर सब सुविधाओ का मिलना मुश्किल होता है....कुछ ही दिनों में मैं भी साउथ दिल्ली को बाय बाय कहने वाला हूँ...

kumar Dheeraj said...

लगता है चार आलीशान कोठी वाले दॿिण दिल्ली के लोग उत्तर और दॿिण के बीच एक लकीर खीचना चाहते है । उनको लगता है कि हम अमीर किस्म के लोग यहां रहते है और गरीबो के लिए उत्तरी दिल्ली बनी है उन्हे यह मुगालता नही पालना चाहिए कि कभी वे भी सुदूर गांव से आये होगे या दिल्ली के नही दूर के ॿेॼ में रहे होगे । रविश जी आपने सही कहा है कि ऊची कोठी में रहने वाले लोगो को जमीन कम ही दिखाई देती होगी । भले ही ऊची दुकान में फीकी पकवान मिलती है ।

JC said...

Gautam the Buddha ko sunehre mahal ke karan prasiddhi nahin mili. Ram bhi tyag ke karan jane gaye...adi, adi...

Unknown said...

ये सचमुच एक अजीब सी विडम्बना है कि दिल्ली में कहां रहना है यह भी एक बारगी सोचना पड़ता है। आप कहां रहते हैं इसे आपके स्टेटस से सीधे जोड़ दिया जाता है। साकेत में रहिये तो आप एलीट हो जायेंगे थोड़ा दूर पुष्प् विहार का पता दीजिये तो आप एक सामान्य मिडिल क्लास बन जाइयेगा और अगर गलती से दक्षिण पुरी का पता दे दिया तो कोई पूछने को तैयार न होगा। मेरी क्लास के एलीट वातावरण में कभी मेरी भी पाण्डव नगर में रहने को लेकर फजीयत होते होते बची थी वो तो अचानक अक्षरधाम के सौन्दर्य के विवरण के तले सौभाग्य से बात दब सी गयी। वरना तो हो ली थी उस दिन। एक बारगी सोचा कि अब कहीं और रहने का मन बनाना होगा। फिर कई कारण घर न बदलने के निकल आये। उनमें से एक था कि मैं इन सब बातों पर कब से ध्यान देने लगा। इस पोस्ट को पढ़कर वो दिन याद हो आया। और बेबसी में कमेन्ट दे ही मारा है तो झेल लीजिये फिर।

Amita said...

waah...aapke kuch purane post se gujarte hue i read this one...nice one..or should i say a real one...day to day problem...post 2008 ka hai but people still asks these type of questions...they think the number of floors decides the type of person or should i say decides so-called "class status"