नेताओं के साथ खड़े लोगों से पूछो साधो

नेता को नहीं गरियाना चाहिए। कुछ लोग लोकतंत्र के नाम पर कहने लगे हैं। तो क्या मुंबई धमाकों से पहले नेताओं की आलोचना नहीं हो रही थी? गेटवे पर लाख लोगों की भीड़ क्या सिर्फ भीड़ है? क्या ये भीड़ सिर्फ फाइव स्टार में लोगों के मारे जाने से बेचैन है? क्या भीड़ की इस बेचैनी से लोकतंत्र नहीं बचेगा क्योंकि नेताओं को गरिआया जा रहा है? क्या हम ठीक ठीक जानते हैं कि यह भीड़ लोकतंत्र के खिलाफ है? या फिर लोकतंत्र का फायदा उठा कर नेताओं को गरिया रही है। उन पर दबाव बढ़ा रही है।

कुछ दल खास कर बीजेपी के नेताओं को इसकी बेचैनी हो रही है। क्योंकि इस हमले में उन्हें आतंकवाद पर ठेकेदारी करने का मौका नहीं मिला। बीजेपी ने दिल्ली में मतदान से एक दिन पहले अखबारों में विज्ञापन भी दिया कि आतंक के नाम पर हमें वोट दें। हम मज़बूत सरकार चलाते हैं। हम समझौता नहीं करते। झुकते नहीं आदि आदि। ठीक इसी वक्त ताज होटल में आपरेशन चल रहा था।

नेताओं को गरिआने से लोकतंत्र किस तरह खतरे में पड़ गया है? मैं समझ नहीं पा रहा हूं। क्या हम चुनावों में एक सेट नेताओं को बदल नहीं देते। जिसको बदलते हैं उसे गरियाते नहीं क्या। गरियाने का मतलब जनमत का दबाव और आलोचना है। तो क्या उसके बाद लोकतंत्र खतरे में पड़ जाता है।

राजनीति की ओलाचना राजनीति के खिलाफ नहीं होती। उसे चलाने वालों और नीतियों के खिलाफ होती है। राजनीति की धारणा के खिलाफ नहीं। नेताओं के करीब बैठे लोग इस तरह के बकवास करने लगे हैं। जनता को अधिकार है कि वो बीजेपी और कांग्रेस के खिलाफ हो जाए। दोनों को रिजेक्ट कर दे। अगर कर सके तो। इससे लोकतंत्र का घंटा कुछ नहीं बिगड़ेगा।

लोकतंत्र में स्थायी जनता है। जनता ही लोकतंत्र को चलाने के लिए नेता चुनती है। नेता कोई अहसान नहीं होता। लोकतंत्र में नेता भिखारी होता है और जनता दाता। बाबा साहेब आंबेडकर की किताब में सब बराबर बताये गए हैं। अमीर गरीब सब। सबको एक समान मतदान का अधिकार दिया गया है। अमीरों के विरोध को सम्मान से देखा जाना चाहिए। इनकी गोलबंदी का मज़ाक नहीं उड़ाया जाना चाहिए। कुछ लोग कह रहे हैं कि फिल्म स्टार तभी निकले हैं जब फाइव स्टार वाले मरे हैं। सतही बाते हैं।


सुनामी के समय मैंने खुद राहुल बोस को मीलों पैदल चलते देखा था। साहित्यकार अमिताव घोष को अंडमान की गलियों में चुपचाप खड़े होकर नोट्स लेते देखा था। हिंदी के संस्मरण छाप साहित्यकार नहीं दिखे थे जो हमेशा गरीबों के लिए लिखते हैं। उस दिन लगा था कि हिंदी के साहित्यकार फटीचर होते हैं। आखिर कोई क्यों नहीं अमिताव घोष की तरह इस मानवीय त्रासदी को करीब से देखने समझने की कोशिश कर रहा है। कोई कहेगा अमिताव को लाखों की रायल्टी मिलती है। मैं नहीं मानता कि हिंदी के सारे साहित्यकार दरिद्र ही हैं।


कोसी ने बीस लाख लोगों को ठेल दिया। हिंदी में विस्थापित कर दिया। कौन रोया। कौन निकला। मोमबत्तियां लेकर। इस तरह की बातें करने से उन लाखों लोगों का अनादर हो जाता है जो कोसी के पीड़ितों के लिए कुछ करने के लिए बेचैन हो गए। बिहार सरकार ने कोई रास्ता नहीं दिखाया। कई लोगों के फोन आए कि वे मुझे लाखों रुपये दे देंगे मगर सरकार को नहीं देंगे। सरकार वाले खा जायेंगे।

तो क्या इस अविश्वास के बाद लोगों ने लोकतंत्र में यकीन छोड़ दिया। तो क्या बिहार में लोकतंत्र मर गया? हम सब नेताओं से नफरत करते हैं लेकिन जो भी उनके करीब जाते हैं बहुत कम होते हैं जो उनसे चिढ़ते हैं। हो सकता है मैं भी इसमें शामिल हूं। पत्रकार नेताओं से नफरत नहीं करता है। सोहबत की तलाश कर लेता है। इस सच को बोल देने से क्या मुझे फांसी पर लटका देंगे और क्या उसके बाद लोकतंत्र को बचा लेंगे।

33 comments:

Himanshu Pandey said...

कुछ लोगों के कहने के फेरे क्यों पड़ गए रवीश जी?
वैसे आप नाम तो मत ही लिया कीजिये किसी का भी - जैसे-
"जनता को अधिकार है कि वो बीजेपी और कांग्रेस के खिलाफ हो जाए। दोनों को रिजेक्ट कर दे। "
केवल बीजेपी और कांग्रेस के खिलाफ? और किसी के ख़िलाफ़ नहीं होना. क्या और सब पार्टियां और उनके नेता लोकतंत्र के लाभ के लिए हैं ? आप किसी को क्लीन चिट दे सकेंगे ? शायद नहीं .

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"उस दिन लगा था कि हिंदी के साहित्यकार फटीचर होते हैं।"
उसी दिन लगा था या अभी भी लग रहा है ? मैं नहीं जानता कि खिसियाये रवीश कुमार जो कहते हैं वो सच ही है या सच नहीं ही है.

इस प्रतिक्रियात्मक पोस्ट के लिए धन्यवाद.

azdak said...

जातिगत गठजोड़ व तोड़फोड़ से चुनाव जीतता, व किसी भी दूसरे विकल्‍प के रास्‍ते मूंदता यह लोकतंत्र ख़तरे में पड़ता दीख ही रहा हो, तो ऐसी बुरी बात भी नहीं है. लोकतंत्र का नया संकलन आये, प्रतिनिधि-वापसी और उसे जूतियाने का लोगों के पास अधिकार हो, पुलिया और हैंडपंप लगवा देने वाले एमएलए और एमपी को लोग प्रभू का अवतार मानना बंद कर दें. इसलिए बंद कर दें कि और भी ग़म होंगे ज़माने में पुलिया और हैंडपंप लगवाने के सिवा. हद है. हिंदी के साहित्‍यकारों की तो बात ही न करें. कौन साहित्‍यकार? कैसा, कहां का साहित्‍य? हमारा समय दिखता है उस साहित्‍य में? घूमते हुए नये नारे घुमाओ, रवीश कुमार..
कांग्रेस, बीजेपी दोनों को जूतियाओ. नया लोकतंत्र लाओ, देश बचाओ. सचमुच, सवाल कांग्रेस, बीजेपी बचाना है, या देश ?

Alok Nandan said...

Ghumate huye naye nare ghumao
I saluate this statement with full regard.

Rajesh said...

रवीश जी,
बचपन में हमें गुरु जी सिखाते थे: बेटा, अंधे आदमी को कभी अँधा मत कहो, उसे बुरा लगेगा। उसे हमेशा "सूरदास" कहो। और एक हम हैं कि बड़े हुए नही कि गुरु जी की बातें भूल कर लगे नेताओं को 'नेता' कहने!

एक बात और, आज-कल 49 - 0 के बड़े चर्चे हैं। मगर दरअसल इसमे वो दम नही जो हम समझते हैं। इसकी सबसे बड़ी खामी है - वोटर की गोपनीयता का ख़त्म हो जाना। मीडिया को इसे लोगों तक ले जाना चाहिए। तभी इसकी सार्थकता है।

कुमार आलोक said...

मुंबइ में आतंकी हमले के बाद मेरे एक पत्रकार मित्र ने दिल्ली से फोन किया मैं उस समय पटना में था । कांग्रेस निपट गइ भइया ..चारो स्टेट में बीजीपी को क्लीयर मैंडेट मिल गया । मेरा दोस्त बडे चैनल में है । हमें लगा कि सचमुच कांग्रेस के लिये यह कांड वाटरलू साबित हो गया । कुछ देर बाद मैं एक दोस्त के दूकान पर गया ..हमसे सीनियर है पेंट और लोहा लक्कट की छोटी दूकान चलाते है । मैने कहा भइया कांग्रेस निपट गइ दिल्ली से फोन आया है । उन्होने कहा कैसे । मैने बोला आतंक की जो घटना हुइ है मुंबइ में पव्लिक उसी के चलते काग्रेस के खिलाफ वोट देगा ।ज्यादा पढे लिखे नही है भइया बोले बाबू चुनाव में यह मुद्दा ही नही रहेगा ..लोगों के अपने स्थानिय मुद्दे होते है । यहां तो कांग्रेस के राज में होटल में आतंकी घटना हुइ ..उनके राज में तो संसद में ही आतंकी घुस गये थे । खैर ८ तारिख को पता चलेगा कि मेरे भाइ साहब सही थे चा फिर मेरा पत्रकार दोस्त ।

डॉ .अनुराग said...

सच कहूँ तो आज ही कथादेश ,हंस ओर नया ज्ञानोदय खरीदी ओर सरसरी तौर पर निगाह मारी ..पर समझ नही पाया माना की वे पहले ही प्रिंट पे जा चुकी होगी पर इस घटना के बाद तुंरत फुरंत कही कोई सम्पादकीय नही ,कही कोई लेख नही ?समझ नही पाया ...वाकई मुझे लगा क्या हिन्दी के साहित्यकार को कोई सरोकार नही ?या उनकी प्रतिक्रिया को जगह नही मिलती है ?या वे देर से प्रतिक्रिया करते है ?(पिछले कई दिनों से लगभग सभी अखबारों या मैगजीनों पर भी निगाह है ) यही सोच रहा था ....शायद कोई जवाब दे ...

प्रवीण त्रिवेदी said...

जब एक गलत बात का गलत तरीके से विरोध होता है, तो वह गलत बात सही हो जाती है!!!!

इस पोस्ट के लिए धन्यवाद!!!!

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद said...

दंगे और राजनीति का तो चोली-दामन का साथ है - जहां राजनीति नहीं वहां दंगा कैसा? रही बात बिहार के बाढ की - तो कौन कहता है कि वहां कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई - पासवान रोये, लालू चिल्लाए, नेता हवाई सर्वेक्षण का आनंद लिया, मीडिया ने लोगों को भिखारियों की तरह भोजन के पैकेटों पर लपकते हुए बताया.......

jamos jhalla said...

Ravish ji Aatankvaadiyon ko to hatyaa se kaam booRaa ho yaa jawaan ,fakir ho yaa dhanwaan ,sajjan ho yaa baimaan ,mareej ho yaa doctraan is liye ab yeh bahas baimaanee ho gayi hai.waise sir ji bombay main 100000 ki bheer ne ek mudde par ikhataa ho kar yeh sandesh to de hi diyaa hai ki jantaa ko ek adad netaa ki purjor talaash hai.Yadi ek adad dhang ka netaa mil jaye to yeh BheeR desh main sakaaraatmak badlaav ki gawaah ban sakti hai.

अफ़लातून said...

गनीमत है ,अभी बरखा दत्त को रवीश कुमार जैसों के सिवा कोई नेता नहीं कहता । शेषन ,खैरनार की बात अच्छी लगती होगी लेकिन बिना संगठन बेमानी थी ।

सतीश पंचम said...

गेटवे पर जमा भीड का राज जानना चाहोगे रवीश जी....दरअसल यह भीड अपने अवचेतन में वह गुस्सा लेकर चल रही थी जो पिछले कई दिनों से क्षेत्रवाद के नाम पर मुंबई में चल रहा था। कभी साईनबोर्ड के नाम पर बंद, कभी भाषावाद के नाम पर बंद तो कभी कुछ तो कभी कुछ.....यह गुस्सा उन गुंडों के खिलाफ अब तक दबे छुपे तौर पर था, लेकिन आतंकी हमले ने एक पल के लिये उस गुस्से को निकलने का रास्ता दे दिया ठीक उस पानी की तरह जो किसी रास्ते में आ गई अडचन के कारण एक जगह जमा होता रहा और जैसे ही एक छोटा सा पत्थर हटा, पानी हरहराकर बाहर निकल आया। जरा गहराई में सोचा जाय तो यह बात जल्दी समझ आयेगी। यह भीड, यह गुस्सा अचानक नहीं बना था। आतंकवाद तो एक निमित्त मात्र बना था उस गुस्से को बाहर निकलने के लिये। और एक बात.....मुंबई से बाहर रहकर इस अवचेतन में छुपे गुस्से को समझना जरा मुश्किल है पर असंभव नहीं।

रश्मि प्रभा... said...

har rachna me kuch hat ke hai..........likhte rahiye

विष्णु बैरागी said...

नेता न तो आसमान से आता है और न ही खुद पैदा होता है । नेता को 'नेता' हम ही बनाते हैं । जैसे हम, वैसे हमारे नेता । जैसा कच्‍चा माल, वैसा फिनिश्‍ड प्राडक्‍ट ।
अपनी ही कृति को गरियाना बडी हिम्‍मत का काम है और यह हिम्‍मत हम में है ।

Amit said...

नेताओं को गरियाने से लोकतंत्र ख़त्म नहीं होगा, और घंटा इसका कुछ नहीं बिगड़ेगा....सही है। लेकिन, सिर्फ़ उन पर भड़ास निकालने से भी कोई क्रांति नहीं आ जाएगी। सबसे अहम बात विष्णु बैरागी जी ने कही है कि इन नेताओं को हमने ही चुना है। इसलिए, अपनी ज़िम्मेदारी को कबूलना सीखें। जब तक हम जाति, धर्म और लालच के बहकावे में फंसकर अपना मत गंवाते रहेंगे, तब तक हम सच्चे लीडर्स की अपेक्षा नहीं कर सकते। आखिर, लोकतंत्र तो हम लोगों का ही तंत्र है।



के आधार पर वोट करेंगे तो हमें अगर ये है कि इन ने

Aadarsh Rathore said...
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JC said...

Swatantrata prapti ke paschat lagta tha ki ab sab sahi ho jayega. Ise natak kahein ya aam aadmi ki kajboori, saalon se bhartiyon ka lok-tanta se vishwas hut gaya...kintu kewal pracheen Hindu hi samajh paye ki asli lok-tantra kewal saur mandal mein, satyuga se kaliyuga ke ant tak, dikhai deta hai...jab tak Brahma ki raat arambh nahin ho jati - param shanti, jahan se anant rachna ka arambh hua tha...

Neta kewal ek Nirakar Nadbindu hi hai, baki sab 'neta' uske hi ghatiya pratibimb hain - Kaliyuga mein sabse ghatiya. Aur yatha Raha tatha praja!

अनुनाद सिंह said...

असल में यह आपके प्रिय देश पाकिस्तान के उपर भारतप्रेमियों का गुस्सा था; आपकी चहेती पार्टी (सीपीएम के बाद) कांग्रेस के प्रति गुस्सा था। इसे आप भी समझते थे और कांग्रेस भी ; लेकिन आपने इसे गलत नाम देकर इसका गलत विश्लेषण प्रस्तुत करके लोगों को गुमराह करने की कोशिश की। कांग्रेस ने चुपके से अपने नेताओं को बदलने में ही सही रास्ता और अपना कल्याण देखा।

योगेन्द्र मौदगिल said...

अच्छा कथानक बांधा आपने.
सामयिक चिंतन के लिये साधुवाद स्वीकारें.

sandhyagupta said...

Dosh keval netaon ka nahin . Vaastav me janta ka pratibimb netaon me jhalakta hai. Jis desh ke neta jaise hote hain us desh ki janta waise hi neta 'deserve' karti hai. Hume keval netaon ko dosh dene ki bajay aatmmanthan karne ki jarurat hai.

guptasandhya.blogspot.com

Barun Sakhajee Shrivastav said...

लेख सिर्फ़ गहन नैराश्य अंधे भरोसे और अपनी छवि के दुरूपयोग से प्रेरित है। अच्छा नहीं लगता जब कोई सिर्फ़ आलोचना भर करते जाते हैं और अपनी कलम टेहते रहते हैं अपनी छवि में अक्रामकता लाने के लिए बेधड़क बेवाक बनने के लिए ऐसें कइयो लेख और लेखक भारत के भीतर है...जनता उन्हे पसंद भी ख़ूब करती है क्योंकि यही लोग जो बंधा कर आस खडुद नेता बन जाते हैं कमोवेश सभी नेताओं की गंगोत्री उनकी पैनी धारदार ज़ुबान ही है मैं विरासत में मिली राजनीति की बात नहीं कर रहा हूँ। आप भी आखिर उसी भाषा में लिख रहे हैं जिसके परिपोषकों को फटीचर कह रहे हैं..संभव है बात बुरी लगे कमेंट प्रकाशित ना हो मगर मुझे तसल्ली रहेगी कम से कम आप तक बात तो पहुँची...जिसका असर अगले लेखों में चिढ, सराहना, स्पष्टीकरण, या फिर सुधार के तौर पर देखने को ज़रूर मिलेगा...समाधान बताइये कोरी स्याही मत लुढकाइये....बेचारे निरीह कागज पर.....जनता वैसे भी डरी और सहमी हुई है।

Unknown said...

tv ke pappu patrakar! tum kya jano ki loktantra kya hota hai. pahle apne tantra ka virodh karna seekho tab aisi ant-shant baten likhna. tv ne sikhaya kya hai, uska yogdan pappu patrakar paida karna hai

संतोष कुमार सिंह said...

आप की राय अपेक्षित हैं,------ दिलों में लावा तो था लेकिन अल्फाज नहीं मिल रहे थे । सीनों मे सदमें तो थे मगर आवाजें जैसे खो गई थी। दिमागों में तेजाब भी उमङा लेकिन खबङों के नक्कारखाने में सूखकर रह गया । कुछ रोशन दिमाग लोग मोमबत्तियों लेकर निकले पर उनकी रोशनी भी शहरों के महंगे इलाकों से आगे कहां जा पाई । मुंबई की घटना के बाद आतंकवाद को लेकर पहली बार देश के अभिजात्य वर्गों की और से इतनी सशंक्त प्रतिक्रियाये सामने आयी हैं।नेताओं पर चौतरफा हमला हो रहा हैं। और अक्सर हाजिर जवाबी भारतीय नेता चुप्पी साधे हुए हैं।कहने वाले तो यहां तक कह रहे हैं कि आजादी के बाद पहली बार नेताओं के चरित्र पर इस तरह से सवाल खङे हुए हैं।इस सवाल को लेकर मैंने भी एक अभियाण चलाया हैं। उसकी सफलता आप सबों के सहयोग पर निर्भर हैं।यह सवाल देश के तमाम वर्गो से हैं। खेल की दुनिया में सचिन,सौरभ,कुबंले ,कपिल,और अभिनव बिद्रा जैसे हस्ति पैदा हो रहे हैं । अंतरिक्ष की दुनिया में कल्पना चावला पैदा हो रही हैं,।व्यवसाय के क्षेत्र में मित्तल,अंबानी और टाटा जैसी हस्ती पैदा हुए हैं,आई टी के क्षेत्र में नरायण मुर्ति और प्रेम जी को कौन नही जानता हैं।साहित्य की बात करे तो विक्रम सेठ ,अरुणधति राय्,सलमान रुसदी जैसे विभूति परचम लहराय रहे हैं। कला के क्षेत्र में एम0एफ0हुसैन और संगीत की दुनिया में पंडित रविशंकर को किसी पहचान की जरुरत नही हैं।अर्थशास्त्र की दुनिया में अमर्त सेन ,पेप्सी के चीफ इंदिरा नियू और सी0टी0 बैक के चीफ विक्रम पंडित जैसे लाखो नाम हैं जिन पर भारता मां गर्व करती हैं। लेकिन भारत मां की कोख गांधी,नेहरु,पटेल,शास्त्री और बराक ओमावा जैसी राजनैतिक हस्ति को पैदा करने से क्यों मुख मोङ ली हैं।मेरा सवाल आप सबों से यही हैं कि ऐसी कौन सी परिस्थति बदली जो भारतीय लोकतंत्र में ऐसे राजनेताओं की जन्म से पहले ही भूर्ण हत्या होने लगी।क्या हम सब राजनीत को जाति, धर्म और मजहब से उपर उठते देखना चाहते हैं।सवाल के साथ साथ आपको जवाब भी मिल गया होगा। दिल पर हाथ रख कर जरा सोचिए की आप जिन नेताओं के खिलाफ आवाज उठा रहे हैं उनका जन्म ही जाति धर्म और मजहब के कोख से हुआ हैं और उसको हमलोगो ने नेता बनाया हैं।ऐसे में इस आक्रोश का कोई मतलव हैं क्या। रगों में दौङने फिरने के हम नही कायल । ,जब आंख ही से न टपके तो फिर लहू क्या हैं। ई0टी0भी0पटना

JC said...

Neta ka kam janata ke sukh-dukh ka khyal karna tha aur abhineta ka unka manoranjan, kyunki jeevan gulab ki pattiyon se bana bister nahin hai - usmein kante bhi hain jo chubhate hain, aur unki sankhya uttarottar bardhti ja rahi hai...Aj ka neta, kaal ke prabhav se, Neta kum aur abhineta adhik ho gaya hai...aur Kaliyuga se Satyuga ki ore mordna Mahakal ke hi hath mein hai.

डा0 हेमंत कुमार ♠ Dr Hemant Kumar said...

Raveesh ji,
Hamre desh men to neta shbd ab nafrat ke layak bhee naheen raha.Koi bhee party ho,apko kisi party men kya aisa neta dikh raha hai jo desh ko vipreet paristhitiyon se ubar sake.?Han,kuchh chehre hain jin par desh kee janta thoda to vishvas kar hee saktee hai.
Jahan tak hindi valon ka saval hai to....vo Dr Dharmveer Bhartee hee the jinhone Bharat Pak yuddh ke samay kavreg kiya.Agar hindi vale sirf sansmaran chhap sahityakar hote to Pradeep Saurabh ko godhara kand ke kavrej ke liye videsh ka puraskar na milta.
Bharhal....Apkee apnee chintaen hain,apne anubhav hain,apnee bhasha hai...abhivyakti ke liye shubhkamnaen.
Hemant Kumar

sudo.inttelecual said...

7why mombatti?
kya sirf rat ko hi hoga !!??oppose
rain or andhi me kya hoga?
agar maha raila type croud ho tab? kya lalten substitute hoga momatti ka?
jinko aag se dar lagata hai wo kaise virodh karenge?
kya bihari log us momatti virodh me samil ho sakte hai?
ki waha se bhi Bhagaya gayega?YE RAJ KI BAT HAI???
READ ARTICLE OF VIR SINGHVI ABOUT TAJ AS HE IS BROUGHT UP IN TAJ PREMISES BUT?? OUR RAVISH JEE??KYA TAJ ME BARKHA KE SATH CHAI PEE(!)LIYE HAI KA??

विष्णु बैरागी said...

नेताओं को 'गरियाने', 'दुतकारने' पर कोई एतराज नहीं । उन्‍हें राजनीति से निकालनेवाली बात अटपटी लगती है । हमने संसदीय लोकतान्त्रिक शासन प्रणाली अपनाई हुई जिसमें 'नेता' न केवल 'अनिवार्यता' हैं अपितु 'अपरिहार्यता' हैं । जरूरत है नेतसअसें को नियन्त्रित किए रखने की । हम केवल वोट देकर अपनी जिम्‍मेदारी पूरी मान लेते हैं । सच तो यह है कि हमारी जिम्‍मेदारी कभी खत्‍म नहीं होती - चौबीसों घण्‍टों का मामला है । नेताओं को छुट्टा छोडने पर वे कैसे 'मरखने बैल' या 'कटखने कुत्‍ते' हो जाते हैं, यह हम सब रोज ही देख रहे हैं । नेताओं के वर्तमान आचरण के जिम्‍मेदार तो हम ही हैं । वे हमाररे लिए आते हैं और बहुत ही जल्‍दी हम अपने आप को उनके लिए पेश कर देते हैं ।

रजनीश said...

नेताऒं को गरियाने का अंतहीन सिलसिला चलता ही रहेगा और मुझे नहीं लगता कि इससे बहुत कुछ फायदा होनेवाला है । वास्तव में अगर परिवर्तन लाना है तो हमें इन्टरनेट पर लिखने के साथ-साथ आधुनिक संचार तकनीक का प्रयोग कर अपने आस-पास व्याप्त भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ना होगा । यकिन मानिए भ्रष्टाचारी चाहे वे नेता हों, ब्यूरोक्रेट्स हों अथवा कोई और, बड़े कमजोर इन्सान होते हैं, हमलोग ही (आम आदमी) उन्हें कुछ अधिक भाव दे देते हैं और उनमें विशिष्टता का भाव भर देते हैं । मैं अपनी बातों को प्रयोग के आधार पर कह रहा हूँ । मेरे गाँव अरई (जिला - औरंगाबाद, बिहार) में सारे क्षेत्र में घपलेबाजी हो रही थी, चाहे किसानों को बैंक से क्रेडिट कार्ड बनवाना हो, चाहे नरेगा हो, चाहे द्वादश वित्त की विकास राशि खर्च करने का मामला हो, प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना के तहत् रोड का निर्माण हो या फिर राजीव गाँधी ग्राम विद्युतिकरण योजना के तहत् विद्युतिकरण का कार्य । मैंने खुद पहल कर सूचना के अधिकार के द्वारा तथा अन्य माध्यमों से इन सारी योजनाऒं के बारे में पक्की जानकारी इकट्ठी की तो दंग रह गया, लूट मची थी भैया । सारे गलत कार्यों की जानकारी अपने गाँव वालों के साथ-साथ संबंधित वरीय पदाधिकारियों को देना शुरू किया और लगा रहा जबतक सकारात्मक नतीजे नहीं आए या यूँ कहिए लगा हुआ हूँ । सबको प्राक्कलन् के अनुसार काम करना पड़ रहा है और करना पड़ेगा, कोई नेता नहीं बचा पाएगा इन माफियाऒं को । मुम्बई पर जो आतंकवादी हमला हुआ वो मर्मांतक है, पर हमलोग तबतक दोषारोपण करते रहेंगे जबतक कमजोर बने रहेंगे । हमें मजबूत बनना है और एक-एक पैसे का सदुपयोग करना है, कराना है चाहे वह जिस मद का हो । आप हम खुद आगे बढें, क्यों समय बर्बाद करें नेताऒं के पिछे, क्या गारंटी है इनके बाद कोई अच्छा ही आएगा । अगर हम सब अपने आस-पास सजग रहें तो बेहतरी की उम्मीद तो कर ही सकते हैं । और जब हम एक बार मजबूत हो गए ना, तो किसी के पास शिकायत करने नहीं जायेंगे, कोई कुटनीति नहीं, कोई राजनीति नहीं, जो हमारे देश के खिलाफ आँख उठाकर देखेगा, उसे उसके घर से उठाकर खुद लायेंगे और बतायेंगे - गंदे काम की सजा कितनी गंदी होती है । और यह सब हमलोग सिस्टम में रहकर, सिस्टम को दुरुस्त कर करेंगे ।

रजनीश said...

वाकई यह युद्ध है,
और इस युद्ध को जितना है ।
अपने ही दम पे,
अपने ही कर्म से ।
अपनों को हमने खोया है,
अपनों के लिए रोया है ।
उनको भी रुलायेंगे,
उनको भी जलायेंगे ।
थोड़ा वक्त हमें दो,
फिर मेरा कहर देखो ।
कभी ना तुमको छोड़ेंगे,
तेरी आँख भी ना हम फोड़ेंगे ।
पर, थोड़ी सी तैयारी करनी है,
अपने लोगों में हिम्मत भरनी है ।
उन्हें असली बात बताना है,
अभी क्या करना है, समझाना है ।
एक बार यह बात समझ में आ गयी,
तो फिर तेरी औकात ही क्या है ।
तुम्हें जिन्दा सटवाऊँगा ताज के दरवाजे पर,
जहाँ सैलानी देखने आयेंगे विश्व का आठवाँ अचरज ।
तुम भी उन्हें देखोगे, पर देख नहीं पाओगे,
तुम भी उन्हें सुनोगे, पर कह नहीं पाओगे ।
पर्यटन को बढ़ावा मिलेगा, शहिदों को शान्ति मिलेगी,
बच्चों का मनोरंजन होगा, दुनिया इसे क्रान्ति कहेगी ।
और तुम टुकुर-टुकुर देखते रहोगे, इसिलिए तो तुम्हारी आँख छोड़ी थी ।
खाना-पीना तुम्हें अच्छा मिलेगा, दूध मिलेगी घोड़ी की ।
जितना दिन तुम जिन्दा रहोगे, यहाँ डॉलर की बरसात रहेगी,
तुम्हारी आवभगत देखकर, बाकी की नींद उड़ी रहेगी ।
यह कोई कविता नहीं, बल्कि योजना है,
तुम्हें अपने किए का तो भोगना है ।

editor said...

Criticising is okay but it seems politicians get more targeted than others.

Why not bureaucrat gets targeted as much. The IAS officers just have power and no responsibility.

They know contents of files and tell the ministers (who come and go) to take particular action.

MHA officials escape easily. In districts, all powers are with collectors but over the years they have ceded responsibility and gone in the background.

Then we are as much to be blamed. Our politicians come out of this society that is full of hypocrisy, dishonesty and sycophancy.

When security is upgraded who likes to be frisked. Do journos like it? Or any other VIP. Law is different for VIPs and Common citizen.

JC said...

Isi ko kaal ka prabhav kaha hamare poorvajon ne...manav kshamta kaal ke saath bad se badtar hot jaan pardti hai. Ise satyug se kaliyug ki ore jane ka sanket mana gyaniyon ne - jaise pani apne ap neeche ki ore hi jata hai, aur, use uper uthane ke liye shakti avashyak hai. Prakriti mein surya yeh shakti pradan karta hai, anya tatvon (prithvi, vsyu adi) ke sahyog se...manav kewal kuch uper hi utha pata hai pani ko, aur apni peeth thokta hai!

ravish ranjan shukla said...

रवीश जी मुंबई में आतंकी घटना के बाद जिस तरह से लोगों ने ख़ासतौर पर मीडिया ने नेताओं को अपने निशाने पर लिया..लेना भी चाहिए क्योंकि हमारे देश में शायद नेता यथास्थितिवादी हो चुके हैं..लोगों ने नेताओं को खूब लानत-मलानत भेजी..एक बारगी बीजेपी सरीखे दल खुश भी हुए कि शायद इसका नुकसान कांग्रेस को हो..लेकिन दिल्ली में कांग्रेस की वापसी ने कई लोगों को आश्चॆयचकित किया....क्या हम ऐसे ही..एक मायने में ये ख़तरनाक संकेत हैं...कि हम मोमबत्ती जलाकर सोलिडेरिटी प्रकट करने में ज्यादा विश्वास करते हैं...सरकार को वोट के ज़रिए बदलने में नहीं..अगर इस कमजोरी को नेताओं ने भांप लिया..तो शायद ये और नुकसानदायक है....

Shailendra Dhar said...

स्वामी सोमदेव के ब्लॉग (http://raatsepehle.blogspot.com/) से उदृत कविता हमारा दर्द बयां करती है

यूँ रेशम के धागों सा महीन सच पिरोतें है झूठ की चादरों में
कुछ गाने सा , कुछ रोने सा
कहीं कोई चिल्ला रहा है
गा रहा है करोड़ों बार सुने - सुनाये शर्म - धर्म के गीत
थके हुए, बुझे हुए झंडे - डंडे के गीत
आंसुओं के खिलाफ शब्दों का षडयंत्र
भूख और दंगो पर भाषण देते पंडो का प्रपंच
कहीं है इस बोझिल बकवास का कोई अंत?

ख़ुद को गालिया देते महान बनते मसीह
कोई टांग क्यों नही देता इन्हे सलीबों पर
यादें- गुनगुनाती - शाम की दहलीज पर
सूखे , कटे पेड़ से गिरे हुए, उन सलीबों पर
फिर
इत्मीनान से लेट सिगरेट पीते
शरारती इठलाती हवा में लिखूंगा
पिछली रात के आसुंओं का हिसाब
काजल का भीगा सा अँधेरा पीते
लहराती फुसफुसाती रात की परतों पे लिखूंगा
वक्ष में सुगबुगाते मंत्रों की किताब
पंडो पुजारियों चोरों के सरताज
आंचलों, फूलों और चुप- चुप रोती आँखों
की आस
अब भी बुलाती है मुझे शाम के उस पार

Unknown said...

"उस दिन लगा था कि हिंदी के सहित्यकार फटीचर होते हैं" पढ़ कर बुरा लग सकता है पर ये सच है इस तरह के कई सन्दर्भों में...