खुदरा मूल्य गठबंधन सूचकांक

एक दल है। राजनीतिक दल। राष्ट्रीय पार्टी है। लेकिन कई क्षेत्रों से ग़ायब। पड़ोसी पप्पू का भी एक दल है। क्षेत्रीय दल। देश के अन्य हिस्सों से ग़ायब। दोनों हाथ मिला लें तो सत्ता तय। मुश्किल यह है कि राष्ट्रीय स्तर पर दो राष्ट्रीय दुकान हैं। एक कांग्रेस की और एक बीजेपी की। क्षेत्रीय स्तर पर कई प्रादेशिक दुकान है। न जाने किस किस की। सब मिलते हैं, सब बिछड़ते हैं। दो प्रकार के क्षेत्रीय दल हैं। एक प्रकार का दल विपक्ष में रहते हुए विपक्षी राष्ट्रीय पार्टी के साथ रहता है। दूसरे प्रकार का दल सत्ताधारी राष्ट्रीय पार्टी के साथ रहता है। इसमें भी दो प्रकार के दल हैं। एक प्रकार का सत्ता के आखिरी दिनों तक चिपका रहता है। दूसरे प्रकार का सत्ता के आखिरी दिनों से पहले निकल लेता है। नतीज़ा गठबंधन में तमाम संभावनाएं बची रहती हैं।


ऐसा नहीं है कि इसका कोई बुनियादी सिद्धांत नहीं होता। एक सिद्धांत है कि धर्मनिरपेक्ष दल एक तरफ होंगे। इसके अनुसार सभी धर्मनिरपेक्ष सांप्रदायिक दलों को शत्रु मानेंगे। यानी राजनीति में कौन शत्रु है कौन नहीं इसकी साफ साफ पहचान। दूसरा सिद्धांत यह है कि राजनीति में कोई स्थायी शत्रु नहीं होता है। यह प्रावधान इसलिए रखा गया है ताकि कभी धर्मनिरपेक्ष और सांप्रदायिक दलों की लड़ाई ख़त्म हो जाए तब गठबंधन का कोई आधार बचा रहना चाहिए। कुछ महीने पहले तक समाजवादी पार्टी वाम दलों के घर घूमा करती थी अब वामदल वाले समाजवादी पार्टीवालों के घर घूम रहे हैं। तब अमर सिंह कहते थे कि आप यानी प्रकाश करात कांग्रेस का साथ छोड़ दीजिए हम कोई और तीसरा मोर्चा बना लेंगे। अब मुलायम सिंह यादव कहते हैं कि कांग्रेस के साथ विकल्प खुला है और इन्हें कांग्रेस के साथ जाने से रोक रहे हैं प्रकाश करात। पता नहीं इन लोगों के बीच क्या बात हो गई है।

कांग्रेस गठबंधन सीख रही थी। सीखने में चूक तो होगी ही। पीडीपी और लेफ्ट निकल गए तो क्या हुआ सब तो नहीं निकलें न। गठबंधन बीजेपी ने भी सीखा था। कहा कि कई दलों को लेकर सरकार हमीं चला सकते हैं। वैसे इनकी भी हालत कम खराब थी। अब कांग्रेस का सबक देखिये। कई दलों को लेकर सरकार इन्होंने भी चला ली। आखिरी वक्त पर गिर गई तो दूसरी दुकान से एक दल ले आए। गठबंधन में कौन फेल हुआ इसका फैसला इतिहास करता है।

यह भी एक महत्वपूर्ण राजनीतिक सवाल है कि गठबंधन बनाने में राष्ट्रीय दल ही फेल होते हैं। क्योंकि उन्हीं के नेतृत्व में मोर्चा बनता है। इनसे निकलने वाले क्षेत्रीय दलों की नाकामी का आंकलन नहीं किया जाता है। यह नहीं कहा जाता है मुलायम या ममता गठबंधन में रहने लायक नहीं हैं। ये बड़ी कीमत वसूलते हैं। इनकी बदमाशियों की वजह से अच्छे खासे प्रधानमंत्री के नेतृत्व पर सवाल खड़ा हो जाता है। प्रकाश करात के नेतृत्व पर कोई सवाल खड़े नहीं करता। गठबंधन से अभी तक कौन से बड़े राजनीतिक लक्ष्य हासिल किये जा सकें हैं इसका अध्ययन किया जाना चाहिए। सिर्फ राष्ट्रीय दल के नेता पर सवाल क्यों। क्षेत्रीय दल के नेता पर क्यों नहीं।

गठबंधन की दुकान अब मॉल में बदल गई है। जहां आराम और सुविधा को तरजीह दी जाती है। माल की गुणवत्ता की नहीं। खरीदार नहीं मिलते तो सेल का सीज़न साल भर चलता है। राजनीति में कोई शत्रु नहीं होता तो बई दो दल आपस में ल़ड़ते क्यों हैं। क्यों नहीं बीजेपी और कांग्रेस हाथ मिला लें और इन क्षेत्रीय दलों को चलता कर दें। आखिर जब शत्रु होते नहीं तो धर्मनिरपेक्ष और सांप्रदायिक भी नहीं होते होंगे। वैसे भी कई लोग तो यह कहते ही हैं कि दोनों में फर्क नहीं होता।

क्यों न गठबंधन का एक सूचकांक बना दिया जाए। कांग्रेस वाले गठबंधन को सेंसेक्स और बीजेपी वाले गठबंधन को निफ्टी से जो़ड़ दें। वैसे भी गठबंधन की राजनीति का बाज़ार भाव से बहुत गहरा संबंध है। पता चले कि किस गठबंधन सूचकांक में किस दल के कितने भाव चल रहे हैं। अमर सिंह ने अपनी नई सालाना रिपोर्ट में एक टीवी चैनल से कहा कि हम कांग्रेस के विरोधी नहीं थे। क्योंकि हम लेफ्ट के करीब थे और लेफ्ट कांग्रेस के करीब यानी यूपीए को समर्थन दे रहा था। इसी तरह से चंद्रबाबू नायडू की पार्टी टीडीपी हमारे साथ थी तो वो कैसे हमें कांग्रेस के करीब होने से रोक सकती है। क्या लॉजिक मारा बीडू। गठबंधन के भेजे में खोपड़ी दाल दी अपुन ने फिर भी अइसा आइडिया नहीं निकला। मान गए बीडू छाप गुरु।

14 comments:

Rajesh Roshan said...

लडाई विचारधारा की है बकिया हैं सब ससुर दोस्त ही जनरल मोटर्स की इन्नोवा में अरुण जेटली भी घूमते हैं और कपिल सिब्बल भी.... दोनों का काम भी एक ही हैं.... कला कोट पहन कर जिरह करना और फ़िर सफ़ेद कुरता पहन कर भाषण देना.... हैं न दोनों एक.... और ई छोटका दुकान वाला सब तो शहर के कौनो माल में भी अपना दुकान लगा सकते हैं बशर्ते माल मिलता रहे. (माल से मेरा मतलब फायदा से है).

JC said...

“Politics is a game for scoundrels”, yani ‘Rajniti chalbajon ka khel hai’.

Manav jivan ka yeh saar, ‘satva’ athva ‘satya’, ‘Mahabharat’ ke madhyam se kai sahastra varsha phele bhi katha dwara darshaya ja chukka hai. Yeh kathan Duryodhan ke shatranj ke khel mein Pandavon ko kewal khel ki goti saman istemal ker lootna - Yudhister ke madhyam se Raja ko mat de. Aur yeh ‘Natkhat Nandlal’, Krishna, ki her jagah aur her samaya upasthiti ki ore bhi ishara karta hai… :-)

Dr. Zakir Ali Rajnish said...

आपने एक गम्भीर सवाल उठाया है-"गठबंधन से अभी तक कौन से बड़े राजनीतिक लक्ष्य हासिल किये जा सकें हैं इसका अध्ययन किया जाना चाहिए।"
इसपर विमर्श होना चाहिए।

Ashok Pande said...

गठबंधन की राजनीति ने देश की ऐसी तैसी किये जाने में जो कुछ बचा खुचा रह गया था, उसकी भरपाई के सिवा कुछ नहीं किया.

अच्छी भाषा, अच्छा विश्लेषण.

संजय शर्मा said...

किए गए उम्मीद को छूती लेख ! आभार !

SummerDiary said...

The only possible solution to my mind is to discard the 50% or more rule to prove majority (after all, India is a different world). The party with highest number of seats should rule, where as 50% would be still required for passing bills etc.

Another idea wasted, aaah.

Anyways, I had read your articles in the newspaper, and had made it a point to visit your blog a college.
And yes, it's been a nice experience.

I blog too at http://summer-diary.blogspot.com

JC said...

G8 aur 'ashtchakra' athva 'ashtbhujadhari Durga' mein kya koi sambandha hai?

anil yadav said...

राष्ट्रीय दल अगर राज्यों में अपना जनाधार खोते जा रहे हैं तो इसके जिम्मेदार वे खुद हैं ....पचास साल से अधिक तक देश में एक पार्टी की सरकार रही है ..लेकिन काला हांडी ..विदर्भ और बुन्देलखण्ड में किसानों का आत्महत्या करना जारी है.... राष्ट्रीय पार्टियों को लगता है कि वो कुछ करें या न करें ....लोगों के पास विकल्प तो दो ही हैं ....या तो वो सांपनाथ को चुनेंगे या नागनाथ को ....तो ऐसे में क्षेत्रीय दलों से उनकी उम्मीद बढ जाती है .... क्षेत्रीय दलों ने राष्ट्रीय दलों की मनमानी पर रोक लगायी है ....अगर आज बुन्देलखण्ड ..विदर्भ..झारखण्ड औऱ पूर्वांचल को विशेष पैकेज मिलता है तो वो सिर्फ क्षेत्रीय दलों की वजह से ....अगर आज राष्ट्रीय दलों को क्षेत्रीय दलों से डर न होता तो आज हमारे युवराज को हल्कू दलित की कुटिया में रोटी साग खाने की पीड़ा क्यों उठानी पड़ती ....रवीश जी हर क्षेत्रीय पार्टी बुरी नही होती है....इसलिए किसी व्यक्ति विशेष या पार्टी विशेष को पूर्वागृह के चश्में से देखना उचित नही......

JC said...

Ravishji, Chhahe belmund ho athva nariyalmund, Jyotishi mein jyoti athva prakash ko, aur saath hi shakti pradan karne wale Surya devta ki upastithi aur avashyakta ko kya hum prithvi niwasi kabhi nakar sakte hein? Jahan tak kewal shakti ka prashna hai (per sambhavtah buddhi ka nahin), wo akela kafi hai sabko ghumane ke liye aur Kamdev athva Bhasmasur dono ko jalane ke liye bhi.

Aur yadi saur-mandal ke sadasyon ke adhar per hi manav ke shareer ka bhi nirman huva ho to kya manav ko unse bhinna dekhna sahi hoga? Yeh mool prashna hai kisi bhi ‘buddhijivi’ kahe jane wale manav ke liye…vaise prakriti mein kauvve ko bhi rok nahin hai kaon-kaon karne mein…Kagbhusundi bhi ‘suryavanshi’ rajkumar Ram ki katha se jurde hein…Manav ko ‘ashtchakra’ athva ‘ashtgraha’ ke sandarbha mein kewal Yogi dekh paye, aur Krishna Yogiraja mane gaye…Kintu aj time nahin hai hamare pas gahrai mein jane ke liye…

कुमार आलोक said...

अमर सिंह अपने हर संवाददाता सम्मेलन में सोनिया गांधी पर एक फिकरा जरुर कसते थे ..डिनर से बेआबरु होकर कूचे से निकले थे ..और कांग्रेस के लोग भी मुलायम और अमर सिंह की बखिया उधेडने में कोइ कोर कसर नही छोडते थे ...मुलायम सिंह की सरकार को बरतरफ करने के लिये पिछले साल कांग्रेस ने लगभग मन बना लिया था ..लेकिन वामपंथी पार्टियों ने वीटो लगा दिया ..उस अहसान को मुलायम भी भूल गये और उनकी समाजवादी पार्टी भी ..वामपंथी पार्टियां सांप्रदायिक शक्तियों के खिलाफ जेहाद में मुलायम को चैंपियन मानती थी लेकिन अब उन्हें शायद पता चला होगा कि भइया सब प्राइस इंडैक्स का चक्कर है।

admin said...

"ब्लॉग चर्चा" मेरा पसंदीदा कॉलम है। उसमें "तस्लीम" को देखकर अतीव प्रसन्नता हुई। आपके स्नेह एवं अपनत्व के लिए आभार प्रकट करता हूँ।
आशा है आपकी कृपादृष्टि इसी भांति बनी रहेगी।

shuklapurnendu said...

दरअसल लूटखसोट की मोनोपोली काफी समय तक कांग्रेस की रही। समय बदला। मार्केट में नई दुकाने खुलीं। शुरुआत में उन्हें दिक्कतें आईं। पर ठहरे सब ढीठ किस्म के उद्यमी। फ़िर क्या दुकान चलनी शुरू हो गई। इधर मार्केट में कॉम्पटीशन भी बढ़ गया। सुना है कॉम्पटीशन का फायदा उपभोक्ताओं को मिलता है। पर भारत के ओपन राजनीतिक मार्केट में ये नियम लागू नही होता। हाँ लूटखसोट का विकेंद्रीकरण ज़रूर हो गया है। और इस तरह से पंचायती राज का सपना पूरा हुआ।
किसी कहनेवाले ने खूब कही है

जब तीन लाख का मिला अनुदान
नई जीप लेकर लौटे परधान

anil yadav said...

बहुत सही पूरनेन्दु भाई....
परधानी के जलवा तो विधायकी पर भी भारी है..........

सनातन वेद भारती said...

जब राजनीति का अर्थ सत्ता प्राप्ति मात्र रह गया हो,तब मान अपमान का प्रश्न ही कहां उठता है? सोनिया के विदेशी मूल का मुद्दा भी कोई अर्थ नही रखता.वंशवाद विरोधी जब खुद वंशवादी हों तो वंशवाद भी कोई मुद्दा नहीं.अयोध्या में मन्दिर के दरवाजे खुलवानें से लेकर श्राइन बोर्ड को जमीन देना और फिर वापस लेंना,हाजियों को सब्सिडी देना हो या तमिलनाडु के क्रिश्चियन्स को जेरुशलम जानें का भाडा देना हो,जब यह कृत्य तथा-कथित सेक्युलर दल करें तो यह धर्म निरपेक्षता और जब कोई हिन्दु या हिन्दुओं की बात करनें वाला दल अयोध्या या अमरनाथ की बात करे तो यह साम्प्रदायिकता ही कही जायेगी? हिन्दु से लोभ-लालच,डर-दबाव या भोलेपन का लाभ उठा बलात धर्म परिवर्तित कर इस्लाम या क्रिश्च्यिन धर्म में शामिल किए दलितों को आरक्षण की मांग को जायज ठहरानें वाले सेक्युलर, यह भी भूल जाते हैं कि इस विषय पर बाबा साहब अंबेडकर नें बहुत स्प्ष्ट विचार रखे थे-कि बौद्ध हो जाओ लेकिन इस्लाम या क्रिश्च्चियन धर्म न अपनाना-क्यों कि उनका विरोध हिन्दु समाज मे व्याप्त जाति बंधन के विरुद्ध था. बौद्ध धर्म उसी सनातन वैदिक आर्य धर्म में सुधार के लिए निकला था और इसी भारत भूमि की मिट्टी से निकला था. उनको यह अंदेशा था कि अगर परिवर्तित धर्म वाले दलितॊं को आरक्षण दिया गया तो न केवल धर्म परिवर्तन की बाढ आ जाएगी वरन यह धर्म परिवर्तन करानें वालों को प्रोत्साहित और पुरुस्कृत करना होगा. अगर इस्लाम या क्रिश्चियनिटी में जाति या वर्ण व्यवस्था नहीं है तथा वहां सब बराबर हैं तो आरक्षण के बाद भी तो वह दलित मुस्लिम या दलित क्रिश्चियन ही क्यों कहे जानें वाले हैं? उदाहरण-गोआ मॆ रोमन कैथलिक ब्राह्म्ण और केरल में दलित क्रिश्चियन बहुतायत से पाए जाते हैं.बहुसंख्यक हिन्दुओं से सेक्युलर होनें की अपेक्षा की जाती है किन्तु क्या अल्पसंख्यकों से भी यह अपेक्षा संभव है? जे एन यू के प्रोफेसर और बाद में अलीगढ मुस्लिम युनिवर्सिटी के वाइस चान्सलर रहे डा० मुशीरुल हक साह्ब की एक पुस्तक है"धर्म निरपेक्षता और इस्लाम" पढ लें,नीति और नियत दोंनो सामनें आ जाएगी. देश की राजनीति जब भ्रष्ट धूर्त और भांति-भांति के अपराधियों के हांथ मे हो तो नियम सिद्धान्त और आदर्श पर अमल करना तो दूर बात करना भी मुहाल है.बडे औद्योगिक घरानों के लियाजन आफिसर रहे छोटे कद के बडे लोग जब राजनीति के पुरोधा बन बैठे हों,जब हर दल में राजीव अमर सीताराम हों तो राजनीति का आदर्श कैसा होगा है यह दिख ही रहा है. और फिर हम राजनेताओं से आदर्श की अपेक्षा ही क्यों करतें हैं खास कर तब जब उनकी प्राथमिकता चारा घोटाला,आय से ज्यादा सम्पति आदि मामलों में जेल जानें से बचना ज्यादा हो. जिस देश की सरकार फ्रेन्चाइजी बेसिस पर चल रही हो,जिस का हर मंत्री एक कारपोरेट हाउस के सी ओ तरह अपने विभाग को चला रहा हो,जिस सरकार के हर निर्णय दस सफदरजंग से होते हों और जवाब देही प्रधान मंत्री नामक एक ऎसे व्यक्ति की हो जिसे अर्थशास्त्र के अलावा और कोई विद्या न आती हो और तो और जो देशवासियों से उनकी भाषा में ठीक से अपनी बात न कह सके,जहां गांधी को बिडला का एजेन्ट बतानें वाले साम्यवादी?सरकार चलवानें के नाम पर दोंनों हाथों से घर भर रहे हों, इकबाल हारदोमी की हारदोमी कारपोरेशन को नन्दीग्राम-सिन्गूर के ठेके पार्ट्नरशिप में दिये जा रहे हों-वहां क्या आदर्श और जन सरोकार का कोई अर्थ है? लेकिन हम इन राजनैतिक पशुओं की ही बात क्यों कर रहे हैं-लोकतंत्र के सबसे मजबूत और आदर्श चौथे खम्भे का क्या हाल है?मोतीहारी के एक गांव से पट्ना होते हुए रवीश कुमार जी दिल्ली के जिस मीडिया सामराज्य से जुडे हुए हैं वह कैसे आज दो हजार करोड का कारपोरेट ग्रुप बन गया है क्या उसकी कथा भी कुछ बयां करेंगे? सुना है कि अपनी वृन्दा करात की बहन के पति इस साम्राज्य के मालिक हैं,इसीलिए खबरों में साम्यवादी पुट सीना फाड के झांकता रहता है,दिखावे के लिए, नही तो शुद्ध पूंजी बनाऊ, क्या नही? तो ये एन डी टी वी गुड टाईम जैसे दर्जन भर बिन्दास चैनल क्या साम्यवाद का असली चेहरा है?इसी पाठशाला के अन्य मुगल प्रख्र्र साम्यवादी समाजवादी गांधीवादी हैं अरे वही जिनकी पत्नी और स्वयं चीख-चीख कर झूंठ को सच साबित करते सी एन एन आइ बी एन में रोज ही दिखाई पड जाते हैं,उनकी पार्ट्नरशिप कम्पनी टर्नर कारपोरेशन भी अरबों में खेल रही है.बाकी कलतक-परसोंतक जी हुजूर चैनल तो है ही पूंजीवादी. शाम को विदेशी स्काच पीना लम्बी लम्बी गाडियों मे चलना देशी विदेशी बैकों में अरबों जमा करना और मंचों से गरीब मजलूम की बात करना यही तो असली बडे साम्यवादी की निशानी और निगहबानी है,क्या कहा नही, तो रूस के पतन और विघटन के बाद दुनिया भर मे रुस से बाहर सबसे ज्यादा पैसा अगर कोई लगा रहा है तो वह रुसी ही हैं.बाकी रही पीतकारों सारी पत्रकारों की बात तो भैया वे भी इसी समज(समाज सभ्यों के वॄन्द को और पशुओं के गोष्ठ को समज कहा जाता है)के अंग है, उनके भी पेट और बी बी बच्चे हैं.