उत्तर प्रदेश- मनुवाद से मायावाद २

मायावाद लेख पर आईं प्रतिक्रियाओं से लगता है बहस की संभावना बाकी है। निश्चित तौर पर इसे आशंकाओं के साथ देखा जाना चाहिए। मगर आशंकाओं के कारण संभावनाओं को नकारना भी नहीं चाहिए। मायावती उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री बनी हैं तो यह सिर्फ सामाजिक समीकरणों की खोज नहीं है बल्कि एक दलित का आत्मविश्वास है। वो अलग हुआ क्योंकि सवर्णों और पिछड़ों ने दलितों को दबाया। तीन तीन बार आधे अधूरे कार्यकाल के बावजूद पिछले पंद्रह साल में मायावती में एक बड़ा बदलाव आया। वो यह कि मैं एक दलित की बेटी और मेरी पार्टी दलितों की तो क्या आप सवर्ण मुझसे हाथ मिलायेंगे? यही अंदाज़ है मायावती का । एक दलित जिसे कोई छूता नहीं था उसने हाथ मिलाने की पेशकश कर दी। यह सिर्फ चुनावी अवसरवादिता नहीं है। बल्कि आत्मविश्वास है। और यही इस चुनाव का एक सबक भी। कब ऐसा हुआ है कि दलित ने हाथ बढ़ाया और सवर्णों ने लपक लिया।

मगर इस आत्मविश्वास के लिए मायावती को इंतज़ार करना पड़ा। मनुवाद पर हमला बोल कर पहले दलितों को जगाया। फिर पिछड़ों से हाथ मिलाकर सवर्णों खासकर ब्राह्मणों को राजनीतिक रूप से महत्वहीन बना दिया। इसी दौरान आधू अधूरी सत्ता के कारण दलितों की हैसियत गांव के टोले में भी बढ़ गई। और जब उसने हाथ बढ़ा दिया तो ब्राह्मणों ने मिलाने में संकोच नहीं की। मैंने चुनाव प्रचार के दौरान देखा है कि किस तरह ब्राह्मणों के घर पर जाटव चाय पी रहे हैं। साथ खाना खा रहे हैं। एक बड़े स्तर पर अस्पृश्यता खत्म हो रही थी। इतिहास में पहली बार हुआ कि जब ब्राह्मणों को लगा कि उन्हें महत्व कोई दिला सकता है तो वो दलितों की पार्टी बीएसपी ही है। कांग्रेस या बीजेपी नहीं। पांच हजार साल तक ब्राह्मणवादी सोच ने दलितों को रास्ता तक नहीं दिया। बीस साल में दलितों ने लोकतांत्रिक राजनीति के ज़रिये मनुवादी सत्ता का क्रम बदल दिया। क्या यह बड़ी घटना नहीं है?

ठीक है कि माया के मंत्रिमंडल में आपराधिक छवि के लोग हैं। ठीक हैं कि माया के मंत्रिमंडल के कई सदस्य बेदाग नहीं हैं। लोकतंत्र की मौजूद बुराइयों से वो कैसे बच सकती हैं। भ्रष्टाचार के आरोप हैं मगर उसी प्रदेश की जनता ने उन्हें गुण्डों को भगाने के लिए वोट दिए हैं। उनके पास जो हैं उसी में से इस्तमाल हो रहा है। मगर इसकी खूब और पूरे मन से आलोचना होनी चाहिए।
लेकिन आलोचना के क्रम में हम अपनी नज़र को वो न देखने दें जो साफ दिख रहा है तो समस्या है। अब यह भी तो देखिये कि मायावती कितनी बदल गईं हैं । ग्यारह मई की शाम पहली प्रेस कांफ्रेस में मायावती अकेले नहीं आईं थीं। तीन पुरुषों को लेकर बैठी थीं। सबसे पहले उन्होंने सतीश मिश्रा की तारीफ की, फिर नसीमुद्दीन सिद्दीकी की और बाबू सिंह कुशवाहा की। कहा कि इन तीनों ने बहुत मेहनत की है। क्या सोनिया गांधी बहुमत मिलने पर किसी प्रेस कांफ्रेस में अहमद पटेल और अंबिका सोनी को लेकर बैठेंगी? लोकतांत्रिक कौन है? मायावती पहले नहीं होंगी लेकिन अब हो गईं हैं। उनमें आए इसी बदलाव के कारण आज यह बड़ा समीकरण बन सका। उन्होंने मंत्रियों को जश्न मनाने से मना कर दिया ताकि कहीं यह संदेश न जाए कि यह सिर्फ बीएसपी की खुशी है।

रही बात मौका देख कर सवर्णों के भाग जाने की तो वह भी हो सकता है। मगर वो ब्राह्मण विधायक क्या यह भूल पाएंगे कि उन्होंने जाटवों को घर बुलाकर चाय पिलाई। उनकी गलियों में गए। क्या वो गंगा स्नान करेंगे। गोबर से खुद को लिपेंगे। दल बदल जाने के बाद भी चार महीने के लिए ही सही एक तरह की सामाजिक प्रयोगशाला में उनके जो भी अनुभव रहेंगे वो हिंदुस्तान की जातिगत सोच को लचीला बनाएंगे। मायावती को इतना श्रेय मिलना चाहिए। हर दल सत्ता के लिए ही राजनीति करता है।

8 comments:

Jitendra Chaudhary said...

भई ये तो मानना ही पड़ेगा कि मायावती मे बदलाव आया है, ये बदलाव सकारात्मक है। मायावती को भी पता चल गया था कि बीजेपी के सितारे गर्दिश मे है, मौका सही था, प्रयोग सफ़ल रहा।

मायावती की प्रशासनिक योग्यताओं पर तो कोई अंगुली उठा ही नही सकता। रही बात भ्रष्टाचार की, तो यार! महंगाई भी कित्ती बढ गयी है, चुनाव लड़ना बहुत महंगा होता जा रहा है। अलबत्ता अब माया, देख समझकर काम करेगी।

हमे डर सिर्फ़ एक बात है कि, केन्द्र सरकार इसको सीबीआई का डर दिखाकर कुछ मनमाना ना करवा ले, उदाहरण के लिए राष्ट्रपति के चुनाव मे कांग्रेस के उम्मीदवार को समर्थन। लेकिन माया को धमकाना आसान है क्या?

Atul Arora said...

कम से कम यह तो एक सुखद परिवर्तन ही कहलायेगा कि जिस विभक्त जनमत को उत्तर प्रदेश दो दशकों से भोग रहा था वह अब पीछे छूट गया। रवीश भाई की कुछ लाईने फिर से कोट करता हूँ

मनुवाद पर हमला बोल कर पहले दलितों को जगाया।
फिर पिछड़ों से हाथ मिलाकर सवर्णों खासकर ब्राह्मणों को राजनीतिक रूप से महत्वहीन बना दिया।
इसी दौरान आधू अधूरी सत्ता के कारण दलितों की हैसियत गांव के टोले में भी बढ़ गई। और जब उसने हाथ बढ़ा दिया तो ब्राह्मणों ने मिलाने में संकोच नहीं की।

बस यही निचोड़ है। सार यह है कि संसाधनो को लेकर मारामारी है अपने देश में और उन्हे देश के दबे कुचले मध्यमवर्ग और निम्नवर्ग तक न तो मनमोहन सिंह की ट्रिकल डाऊन थ्योरी पहुँचा सकती है न ही एनडीए के दस प्रतिशत विकासदर के साबुन से धुला ईंडियाशाईनिंग का नारा। तब इस बहुजन समाज का वोट कैसे हासिल हो? इस गुत्थी को हर बार हर चुनाव में इसी तरह के बाँटो और राज करो वाले पजल्स मिला कर सुलझाते हैं नेता। कभी हम आरक्षण के नाम पर बँटते हैं तो कभी मकबुलफिदा हुसैन की पेंटिग पर। कभी आरक्षण पर तो कभी सोशल ईंजीनीयरिंग पर। अविनाश के शब्दों मे कहा जाये तो "इस मुल्क को चूतिया बना रहे हैं यह नेता।" फिलहाल यही दुआ की जा सकती है कि मायावती इस बार चूतिया ना बनाये । बाकी रवीश भाई आपकी समाज की नब्ज पर पकड़ तो काबिले तारीफ है।

Rising Rahul said...

mayawati me jo bhi badlaav aaye hain , wah dalto ke liye kisi bhi maayne me sakaratmak nahi kahe jaa sakte. aur mayawati ne jo bhi kiya hai wah congress pahle hi kar chuki hai , ab agar iska matlab nikala jaay ki mayawati congress kee raaho pe chal rahi hain to aane waale bhavishy men kitna bada batwaara hone waala hai , iskaa shayad kisi ko andaaza nahi.
aapne achcha likha hai. badhayi!!

* ab to layoutwa badal lo bhyiya !!

सफ़र said...

ravish babu. Ab bhi achchhe bhale logon ko ye baat samjh na aaye ki mayawati ki rajniti kish disha mein ja rahi hai aur uska bhartiya rajniti aur samaj mein kitna sakaratmak asar hone wala hai, to main kewal itna kahna chahunga unlogon se thoda aur intzaar kar lein sab spasht ho jayega. Ek mitra nein UP se bataya ki mayaji ke yahan ticketin bahut mahangi hoti hai. Har kisi ke bas ki baat nahin hai. Mera kahna hai ki bhai jaan ticketin mahangi hain/thin: theek. Yaani ticketein kahin sasti bhi theen. Sasti theen yaani bikin! Bikin? jab bazaar is rajnitik bazaar mein ticketein bik rahi hain to sasti-mahangi bhi hogi. Lekin ye bhi gaur karne ki baat hai ki aise vidhayak bhi jeet kar thik thak sankhya mein aaye hain jinke pas nomination ke dauran jamanat ki rashi bhi nahin thi, doston, party karykartaon ye sanrakshakon ne hi di. Yaani kewal ticket bikri ka hi muamla nahin hai, party ke banner tale unki sakriyata bhi mayne rakhti hai.

Doosari baat - bhrast hain, gundon ki fuaz lekar aayi hai, vgayrah-vaygarah. Aapne bharsak thik hi likha hai. Main bhi jod doon kuchh shabd- Bhaiya bhrastachar par bhi apna hi sikka kyon chalana chahte ho. Thodi bhrastachari daliton ko bhi sikhne do. Tabhi to daaw-pench samajh payenge dalit bhi aur unke saamne khulasa hoga ki manuvaadiyon nein kaise ab tak apne bhrasht karnamon ke zariye unhein daba rakha tha. Ghabraane ki zaroorat nahin hai, isase samaj mein barabari hi aayegi ek kism ki. Goonde-mawaliyon ki fauz ki baat hai to paani naak se upar ho jane par kya hota hai aap sabhi jante hain, Court kachehari bhi hai janta ke pas. Aus sabse badi baat-mayawati ne gundon ko na shaamil kiya hota to lagta hai aapko ki samajwadi gunde use chain se rahne dete. Thik hi kaha gaya hai ki aatm raksha mein ki gayi hinsa, hinsa ki shreni mein nahin hoti.

Bharosa karein mitron, royein nahin.

Ravish babu likhte rahein. Khoob badhiya likh rahe hain aap. Aapne der se likhai apnaayi hai, bahut likhna padega aapko.

Shubhkaamnayein

उमाशंकर सिंह said...

रवीश जी, आपके इस आलेख पर प्रतिक्रिया लिखने बैठा तो बहुत लंबा हो गया। लिहाज़ा मैंने अपने ब्लाग पर चस्पां कर दिया है। आप को उचित लगे तो एक नज़र मार लें। कुछ त्रुटि करता दिख रहा होऊं तो मुझे सही करने का कष्ट करें।

धन्यवाद
उमाशंकर सिंह
valleyoftruth.blogspot.com

shitcollector said...

ravishji, munshi premchand ki vidarbh yatra post pe ek comment post kiya hai. padhe aur delete kar de.

Neetu Singh Dahiya said...

मौजूदा राजनीति पर आपके तमाम विचारों को पढ़ने के बाद बतौर एक जर्नलिस्ट, ये कोशिश है उन खयालों को शब्दों में पिरोने की, जो अब क्या करें, सब चलता है की तर्ज़ पर शहीद हो जाते हैं। और उत्तर प्रदेश में मायाराज आने की खबर ने इन कोशिशों में थोड़ी और ऊर्जा डाल दी है। तो पेश है.....

राजनीति भी अजब खेल होता है। कहने को कोई रुल नहीं.. औऱ कहने को ही तमाम कायदे। बस सब कुछ माहौल पर डिपेंड करता है। अब जैसे उत्तर प्रदेश। देश का सबसे बड़ा प्रदेश। लोगों की कोई कमी नहीं। औऱ यूं कहें कि लोगों को भेड़ बकरियों की तरह सड़क क्रास करते देखा जा सकता है। ना पुलिस का कोई डर और ना कोई कानून। क्योंकि सड़कों पर लोगों की माया है। पुलिस स्टेशन में थानेदार की माया है और चींटी की रफ्तार को मात देते दफ्तरों में सरकार की माया है। माया से याद आया अब तो वहां माया ही माया है। पूरा माहौल मायामय हो गया है। इस बार के चुनाव में हर नेता को उम्मीद थी कि अपने काम के बल पर नहीं, लेकिन जनता कम से कम उन्हें मुलायम को हराने के बहाने ही वोट दे देगी। अब नेता होने के नाते उन्होंने कुछ ग़लत भी नहीं सोचा। लेकिन जनता तो वो काॅकरोच है, तो लुढ़कते-लुढ़कते आखिर में किस करवट उल्टा हो, कोई नहीं जान सकता। बहनजी तो मायामेमसाब बन बैंठी। उन्हें क्या दुख, क्या परेशानी। कुछ अफसरों के घरों में मातम का माहौल है। पर बात करें लोगों की तो उनके नाज़ुक दिल का भी क्या कहना। पिछले साल की ही तो बात है। ओह! अब तो हर साल की ही बात है। आरोप लगा कि बहनजी के पास औकात से ज्यादा पैसा है। ताज की खूबसूरती बढ़ाने के नाम पर ही वो करोड़ों हड़प गईं। अब साल दर साल सामने आ रहे घोटालों से कम से कम एक बात का तो यकीन हो ही गया है कि जनता का माल हड़पना कोई ग़लत बात नहीं। तो चलो मायावती ने भी कुछ करोड़ ले लिए तो क्या बुरा किया। मुख्यमंत्री की गद्दी पर बैठकर खजाना जब सामने हो, तो हर कोई बहती गंगा में हाथ धोता ही है। और बेचारी मासूम जनता का दिल देखिए कि उसने उन्हीं बहन मायावती को फिर जिताया । और वो भी बहुमत से, जिसका किसी को अंदाज़ा न था। यानी मायावती को एक और मौका । पिछली बार जो बचा था, इस बार वो सारा कुछ समेटने का मौका। उन्होंने भी बोला और खूब जमकर बोला। एक मंझे हुए नेता की तरह ये जनादेश है कहकर, अपनी सारी हसरतें पूरी करने का रास्ता खोज लिया। मामले तो अब खुलेंगे नहीं। और उनके खिलाफ अब जांच करने की हिम्मत किसमें। कभी कभी तो इतनी कोफ्त होती है कि चुनाव जैसी सम्मानजनक संस्था को बंद ही कर देना चाहिए। क्योंकि आज के वक्त में एक शरीफ और जनता का प्रतिनिधि ढ़ूंढ़ना जानवरों के चारे के ढेर में राई का दाना ढ़ूढ़ने जैसा है। और अगर चुनाव का ज़िक्र हो औऱ लोग हर उम्मीदवार को नकार दें, तो उस उग्रवादी विचार के लिए वे खुद ही तमाम सवालों के कटघरे में खुद को खड़ा पाते हैं। कोई कहेगा कि भई अगर सारे चोर हैं तो वोट दोगे किसे। कोई कहता है खुद ही क्यों नहीं खड़े हो जाते। वोट नहीं देते तो सुनने को मिलता है कि ये कोई इलाज नहीं हुआ। क्योंकि आप आएं ना आएं, चाहे कितना ही नाराज़ हो, अपने उम्मीदवारे के लिए वोट डालने की ज़िम्मेदारी की ही कुछ लोग खाते हैं। तो अब जनता बेचारी क्या करे। कल्याण को वोट दिया तो फिर मंदिर मस्ज़िद , हिंदू मुस्लिम का बेसुरा राग सुनना पड़ेगा। फिल्मी पर्दे की सुदंरियों के साथ मार्डन समाजवाद की मर्सीडीज़ चलाते मुलायम की साइकिल की घंटी पर ज़रा भी दिल पसीजा, तो अमिताभ का कानों में चुभने वाला डायलाग सुनने को मिलेगा। चुभने वाला इसलिए कि किसी की ज़मीन पर गैर कानूनी तरीके से कब्ज़ा कर लिया हो, पुलिस हमेशा ही तरह चूंड़ियां पहने चौकी पर बैठी हो, तो जुर्म यहां कम है का नारा गर्म तेल की तरह ही लगता है। राहुल बाबा के बारे में सोचना तो जनता के लिए खुली आंखों से ख्वाब देखने जैसा है। राहुल बाबा का रिकार्ड है कि हर साल चुनाव के कुछ हफ्तों पहले से ही उन्हें उस फलां प्रदेश की याद आती है। वहां के लोग उन्हें अचानक अपने लगने लगते हैं। पृथ्वी की सूरज जितनी दूरी वाले वादे किए जाते हैं। अब कोई उनसे ये पूछे कि आप दूसरे प्रदेश की बात तो छो़ड़ो। उत्तर प्रदेश में दूसरे ॿेत्रों को भी छोड़ दो, तो अब बचे आपके अपने दो इलाके। वहां के लोगों को जगमगाते बल्ब को देखे अरसा हो गया, पहले वहां का काम तो निपटा लो, राहुल बाबा। नेता जितने वादे करना आसान है, पर उसके लिए थोड़ा जनाधार होना ज़रुरी है। और वो तब मिलता है जब आप दिखावे के लिए ही सही, कुछ तो काम कराते हैं। खैर.. राहुल मैजिक कितना चला इसका जबाब आयोग के उऩ आकड़ों में हैं, जिनमें दिखता है कि करीब 150 रैलियां करने के बावजूद राहुल बाबा के बेतुके भाषण महज़ एक दो सीटों पर ही पार्टी की लाज बचा पाए हैं। अब बचे अजित सिंह औऱ फिल्मों में विलेन का रोल निभाने वाले राज बब्बर। तो जनता ने उन्हें भी आइना दिखा दिया। अब जब आॅप्शन ही ऐसे हो, तो जनता बेचारी क्या चुने।

Neetu Singh

Unknown said...

रवीश जी,
आपने लिखा, अच्छा किया। किसी न किसी को इस मुद्दे को उठाना आवश्यक ही था।

उत्तरप्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती आज-कल मीडिया पर छायी हुई है। उनकी पार्टी बहुजन समाज पार्टी (बीएसपी)की जित को लेकर अनेक आच्छर्यचकित हैं। लेकिन आप आच्छर्य में नहीं है,यह महसूस हुआ। अच्छा लगा।

बहुजन समाज पार्टी की जीत के लिए ध्रुवीकरण की प्रक्रिया बहुत जिम्मेदार है। और वह सामाजिक ध्रुवीकरण ब्राह् लोग कह सकते है कि यह जित दलितों(अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों) व ब्राह्मणों की के ध्रुवीकरण से हुई हैं, लेकिन यह पूरी तरह से सच नही हैं। अगर यह पूरी तरह से सच नहीं है तो सच क्या है? यह भी जानना आवश्यक है।

भले ही ब्राह्मणों ने बहुजन समाज पार्टी की छत के निचे रहने का इरादा तय किया हो लेकिन ब्राह्मणों का आज-तक का इतिहास यही है कि वे चढ़ते हुए सूरज को सलाम करते हैं। इसलिए समय को भांप कर उन्होंने सही निर्णय लिया। इसलिए उत्तरप्रदेश के ब्राह्मणों का अभिनंदन करना मैं जरूरी मानता हूँ।

जहाँ तक ध्रुवीकरण की बात है, अनुसूचित जातियों/जनजातियों और ब्राह्मणों का ध्रुवीकरण जो ध्रुवीकरण दिखाई देता है वह केवल राजनैतिक ध्रुवीकरण है। बहुजन समाज पार्टी के संस्थापक कांशीराम जी के गुरू दिवंगत डी. के. खापर्डे कहते थे, "जातियाँ (जातिव्यवस्था) टूटने की पहली पूर्वशर्त है, अनुसूचित जातियों/ जनजातियों और अन्य पिछड़े वर्ग का सामाजिक ध्रुवीकरण।" अन्य पिछड़ा वर्ग और अनुसूचित जातिं/ जनजाति जिन्हें राष्ट्रपिता जोतीराव फूले जी ने "शूद्र और अतिशूद्र" कहा है। जातियाँ तभी टूटना शुरू होंगी जब इनका सामाजिक ध्रुवीकरण होगा। खैर, यह कोई बीएसपी का कैडर कैम्प नही और न ही मै बीएसपी का कार्यकर्ता।

लेकिन अब सत्ता ता आ ही गयी है। और ब्राह्मणों का इस सत्ता के छत मे रहना स्वार्थ ही है। बहुजन समाज पार्टी का भी स्वार्थ है लेकिन वह व्यापक है। पूर्ण समाज के लिए पूर्ण उत्तरप्रदेश के लिए है, जबकि ब्राह्मणों का स्वार्थ व्यक्तिगत। यह मूलभूत फर्क है।

आज आवश्यक है अनुसूचित जाति/ जनजाति (जिन्हें ज्यादातर दलित कहा जाता है) और अन्य पिछड़े वर्ग के सामाजिक ध्रुवीकरण की आवश्यकता। जिन्होंने जातिव्यवस्था को तोड़ने की लड़ाईयाँ लडी उनका यही मानना है कि ध्रुवीकरण निचे से उपर शुरू होगा। शोषित और शासित लोगोंका सामाजिक ध्रुवीकरण ही जातिव्यवस्था को नष्ट कर सकता है। बस बात यही पर अटक जाती है कि पिछड़े वर्ग को यह बात कैसे समझाएँ? इसके लिए पिछडे़ वर्ग के लोगों ने ही आगे आना आवश्यक है।

और ब्राह्मण अछूत को अछूत नहीं मानते हैं साथ उठते बैठते हैं और खाना खाते हैं, केवल इतने मात्र से यह कहा नहीं जा सकता की वें जातिव्यवस्था को तोडना चाहते हैं। अनुसूचित जाति और जनजाति के लोग तो अब उनकी व्यवस्था ही छोड़ने का मन बना रहे हैं। लेकिन समस्या है पिछडे़ वर्ग की। वह पूरी तरह से जातिव्यवस्था का मानसिक गुलाम है। जातिव्यवस्था के दुष्परिणाम उसमें दिखाई देते हैं। शिक्षा, प्रशासन, आर्थिक क्षेत्र, धर्म जहाँ-तहाँ वे पिछड़े हुए हैं, गूलाम बने बैठें है। एक शूद्र किसान जब अपनी फसल अच्छी नहीं हो रही है तो वह उसके नैसर्गिक कारणों को ढूँढ़ने की बजाए आज भी इसका हल ढूँढने के लिए वह ब्राह्मण पुरोहित के पास जाता है। और वह चालाक ब्राह्मण पुरोहित भी बहुत महान बनने का ढोंग करते हुए उसे कोई पूजा पाठ बताता है। यह एक आम उदाहरण हैं मानसिक गूलामगीरी का। पिछड़े वर्ग की मानसिक गूलामी को तोड़ेंगे तो शू्द्र और अतिशूद्र का सामाजिक ध्रुवीकरण होगा।.....

.....ब्राह्मण जातिव्यवस्था को तोड़ने में आगे आना चाहते हैं तो उनका स्वागत ही है। देखते हैं उनमें कौन वॉल्टेयर पैदा होता है!