उर्दू शायरी में क्रिकेट की हार

नौकरी से आईबीएन ७ और शहर से बरेली के इक़बाल रिज़वी से कभी नहीं मिला । एक ही पेशे में कई साल से होने के बावजूद । लेकिन ब्लाग ने मिला दिया । अब वो कस्बा के लिए उर्दू की बेहतरीन रचनाओं का लिप्यांतर कर मुफ्त में देने के लिए तैयार हैं । इक़बाल साहब की दरियादिली से कस्बागतों के लिए उर्दू रचना संसार की एक अहम खिड़की खुलने जा रही है । हम इक़बाल साहब का स्वागत करते हैं । महान भारत सामान्य बांग्लादेश से हार गया है । और इसी मौके पर पेश है उर्दू में क्रिकेट पर लिखी गई एक रचना का लिप्यांतर । दोनों के संदर्भ अलग हैं मगर इससे भारत की हार का दर्द हल्का हो सकता है ।

अब शायर का परिचय-
शायरी में क्रिकेट सागर ख़्य्यामी - लखनऊ में 7 जून 1946 को पैदा हुए सागर ख़य्यामी का नाम रशीदुल हसन नकवी है। कट्टर धार्मिक माहौल में पले, बढ़े और पढ़े। वे स्वंय कहते हैं कि मेरा परिवार इतना धार्मिक था कि पांच समय की नमाज़ पढ़ना पड़ती थी तब तीन टाइम का खाना मिलता था। रोज़गार की तलाश में दिल्ली आए और जेएनयू में फ़ॉरन स्ट्डी विभाग में काम किया। रिटायर होने के बाद फिलहाल लखनऊ में रह रहे हैं। उर्दू भाषा पर अदभुत पकड़ और विषय का चयन सागर ख़य्यामी की शायरी को दूसरों से अलग करता हैं।

बेज़ार हो चुके ते जो शायर हयात से
जीवन क्रिकेट का मैच खेल लिया शायरात से
वाक़िफ़ न थे जो आज तक औरत की ज़ात से
छक्के लगा रहे ते ख़्यालों में रात से
आयी जो सुबह शाम के नक्शे बिगड़ गए
सुर्रों से हम ग़रीबों के स्टंप उखड़ गए
नाज़ो अदाओ हुस्न ने जादू जगा दिये
पहले तो ओपनर के ही छक्के छुड़ा दिये
वन डाउन पर जो आए तो स्टंप उड़ा दिये
राहे फ़रार के भी तो रस्ते भुला दिये
वो कैच वेरी लो था मगर उसने ले लिया
एक मोहतरम को एक ने गली में लपक लिया
श्रीमान क्या क्या बयान कीजिये एक एक का बांकपन
जलवा फ़िगन ज़मीं पे थी तारों की अंजुमन
हुस्नो शबाबो इश्क़ से भरपूर हर बदन
शायर पवेलियन में थे पहने हुए कफ़न
जितनी थीं ब्यूटूफ़ुल वो सिलिप पे गली पे थीं
जितनी थी ओवर एज सभी बाउंड्री पे थीं
परियों के जिस तरह से परे कोहे क़ाफ़ पर
एक लांग आन पे थी तो एक लांग आफ़ पर
एक थी कवर में एक हसीना मिड आफ़ पर
जो शार्ट पिच थी गेंद वो आती थी नाफ़ पर
ठहरे न वो क्रीज़ पर जो थे बड़े बड़े
मुझ जैसे टीम टाम तो विकटों पे फट पड़े
वो लाल गेंद फूले हो जैसे गुलाब का
जिस तरह दस्ते नाज़ में साग़र शराब का
हवा में नाच रहा था आफ़ताब का
बम्पर में सारा ज़ोर था हुस्नो शबाब का
ऐसे भी अपने इश्क़ का मैदां बनाते थे
अम्पायर हर अपील पर उंगली उठाते थे
जब बॉल फ़ेकती थी वो गेसू संवार के
नज़दीक और होते थे हालात हार के
कहते थे मैच देखने वाले पुकार के
उस्ताद जा रहे हैं शबे ग़म गुज़ार के
उस्ताद कह रहे ते के लानत हो मैच पर
दो दो झपट रही हैं शरीफ़ों के कैच पर

( शब्दार्थ- बेज़ार- विमुख । शायरात- महिला शायर । राहे फ़रार- भागने का रास्ता । राहे फ़रार- भागने का रास्ता । कोहे क़ाफ़- इस्लामी मान्यता के अनुसार वह पहाड़ जिस पर परियां रहती हैं । नाफ़- नाभी । दस्ते नाज़- हसीना का हाथ । आफ़ताब- सूरज ।
लिपियांतर - इक़बाल रिज़वी ( अंडर क्रीज़ संग्रह से )

7 comments:

Avinash Das said...

इकबाल रिज़वी साहब, आपका स्‍वागत है। सागर खय्यामी उर्दू के मज़ाकिया शायर हैं। सागर साहब और उर्दू के दूसरे बेहतरीन शायरों का ऑडियो-वीडियो यहां उपलब्‍ध है।

अभय तिवारी said...

मोहतरम का अर्थ ग़लत लिख गया है..श्रीमान या महोदय कर लीजिये..

अनूप शुक्ल said...

बढ़िया है। सालों पहले यह रचना शाहजहांपुर में कवि सम्मेलन में सुनी थी, जो कि आज भी हमारे पास टेप में मौजूद है, जिसे हम गाहे-बगाहे सुन लेते हैं।

ravish kumar said...

अभय जी
बदल दिया है । ग़लत छप गया था । राहे फ़रार का मतलब था भागने का रास्ता लेकिन कुछ और छप गया । भूल सुधार सलाह के लिए शुक्रिया । अनुप जी ने इन्हें शाहजहांपुर में सुना था अब सारे जहां में पढ़ सकते हैं । ब्लाग वरदान है ।

गिरिजेश.. said...

कस्बे को ये नया रंग मुबारक।
ब्लॉग की दुनिया सचमुच समृद्ध हो रही है।

B. Krishna said...

Ravish ji,
AApne Vyath likhi Sabne Padhi Dukhi Huye Afsos kiya lekin Beshram Netaon ki Moti Khal par Cheenti bhi nahin rengti Kaya faida
Balkrishana Saxena

manish singh said...

bhai bahut khoob maza aa gaya..... Janab ravish ji qqasba me naya rang dalne k liye aap sadhuvad k paatr hain....