जय श्रीराम

बाँस के रंग




बिना पढ़ें न चखें

ग्राम प्रधान का पोस्टर

अंधेरा और अनर्गल प्रलाप


बहुत देर से जहाँ कुछ नहीं दिख रहा था अचानक वहाँ कुछ दिखने लगता है । अंधेरा हमेशा चौंका देता है । कब से अंधेरे में बैठकर अंधेरा को नहीं देखा था । आधी रात को देर तक खुले आसमान के नीचे बैठा रहा । अकेला । ख़ुद को ख़ाली कर रहा था । चारों तरफ़ काला पर्दा । पहले दूर पहाड़ी पर अख़बार बल्ब की रौशनी नज़र आई । फिर कई बल्ब नज़र आने लगे । लगा कि बिजली वापस आ गई है । पर बिजली तो गई ही नहीं थी । 

लोग कहते हैं अंधेरे में कुछ दिखता नहीं है । पर किसी ने नहीं कहा कि अंधेरे को देखा जा सकता है । नहीं दिखना भी तो देखना है और अचानक उस अंधेरे से कोई चीज़ निकल आए तो भ्रम टूटता है कि अरे हम क्या देख रहे थे कि यह नहीं दिखा । अंधेरे में भी देखा जा सकता है । चारों तरफ़ के पहाड़ जगमगाते नज़र आने लगे । अब सब दिखने लगा । अंधेरा कहीं गया नहीं था । 

घर में जब बिजली जाती है तो अचानक से सब दिखना बंद हो जाता है । फिर धीरे धीरे कुछ दिखने लगता है । हम सब चलने लगते हैं । तब लगता है कि रौशनी के बिना भी हम चल सकते हैं । पीछे मुड़कर देखा तो दूर पहाड़ी पर बने मकान की खिड़की से आती रौशनी किसी सूरज से कम न लगी । हमें इतनी ही रौशनी चाहिए । पास न भी हो तो दूर से आती दिख जाए । 

पहाड़ों से नज़रें हटीं तो आसमान की तरफ़ देखने लगा । बिल्कुल साफ़ आसमान । हर तारा दिख रहा था । दिल्ली के आसमान में तारे नहीं दिखते हैं । वहाँ की सड़कों पर बिखरी रौशनी और जगमग मकानों के बीच अंधेरे का अहसास नहीं होता । पहाड़ों पर अंधेरा दिखता है रौशनी नहीं । अब मैं आसमान की तरफ़ देखने लगा । हम ज़िंदगी में किसी को आसमान छूते देखना तो चाहते हैं मगर आसमान की तरफ़ ही नहीं देखते । 

बहुत दिनों बाद अंधेरे से घबराया नहीं । अपार्टमेंट की ज़िंदगी में बिजली जाती है तभी अंधेरा आता है । बिजली जाने पर ख़ौफ़ पैदा होती है । आप अपने ही घर में चंद पलों के लिए अजनबी हो जाते हैं । पहाड़ों के बीच अंधेरा दोस्त की तरह लगा । काश कि हम रोज़ इस अंधेरे को देख पाते । किसी साये को अचानक से साक्षात में बदलने का अहसास कर पाते पर इसके लिए तो अंधेरा ज़रूरी है । 

सोशल मीडिया का संसार

हम सब एक मीडिया समाज में रहने लगे हैं । अति संपर्क एक हक़ीक़त है और अब आदत । एक दूसरे को देखकर एक दूसरे के जैसा होने लगे हैं । टीवी पर नहीं होते हैं तो मीडिया के किसी और माध्यम में होते हैं । दुनिया भर में इस विषय पर शोध होने लगे हैं । इसकी आदतों से निजात दिलाने के लिए मनोचिकित्सक पैदा हो गए हैं । हम सबको लगता है कि आधुनिक होने का मतलब ही है निरंतर संवाद । इस प्रक्रिया में अध्ययन और चिन्तन ग़ायब हो गया है । देखना बंद हो गया है । मेरी बहुत इच्छा है कि इस पर पढ़ूँ और शोध करूँ ।

हम इस भ्रम में रहने लगे हैं कि सम्पर्कों और सम्बंधों का विस्तार हो रहा है । ज़रा आप फ़ेसबुक या व्हाट्स अप के संबंधियों की सूची पर ग़ौर कीजिये । ट्वीटर पर ज़रूर कभी भी कोई नया आ जाता है मगर आप जिनका अनुसरण करते हैं उस सूची पर ग़ौर कीजिये । मामूली हेरफेर के साथ सब स्थायी हो चुके हैं । हम सबका एक कुआँ बन चुका है । नदी होने का भ्रम पाले हम सोशल मीडिया के छोटे छोटे कुएँ में रह रहे हैं । जिसमें कई बार अलग अलग कुओं से आए मेंढक टरटराते रहते हैं । हमें लगता है कि यही जगत और जागरूकता का रूप है । जबकि ऐसा नहीं है । हमने इसी को स्वाभाविक मान लिया है । बाज़ार ने विभिन्नता की उत्सुकता को कुंद कर दिया है । हम सबके अपने अपने ब्रांड तय हैं । शर्ट से लेकर परफ़्यूम तक के ब्रांड । हम इन सब उत्पादों के चयन में पहले से कम परिश्रम और प्रयोग करते हैं । हो सकता है कि आपका यह लेखक उम्र के किसी स्थिर पड़ाव में आ गया है ! लेकिन क्या यह सही नहीं कि ब्रांड बनने की छाया सोशल मीडिया में हमारे व्यवहार में दिखती है । 

सोशल मीडिया पर मौजूद हर शख़्स एक ब्रांड है । वो ब्रांड ही बनने के लिए आतुर है । जो है उससे कहीं अलग । हमें मतलब भी नहीं कि उस ब्रांड की हक़ीक़त क्या है । हमें कहाँ इस बात से फ़र्क पड़ता है कि जिस ब्रांड को हम धारण करते हैं वो अपने कर्मचारियों से कैसा बर्ताव करता है । बाहरी रूप ही सत्य है । इसी का आत्म प्रदर्शन है । हम सब कुछ अलग लगना चाहते हैं परन्तु इस क्रम में एक जैसा हो जा रहे हैं ।

मैं खुद के बारे में बता सकता हूँ । चंद लोगों से चैट तक मेरी दुनिया सिमट गई है । आपके लिए भी सँभव नहीं है कि एक सीमित संख्या से ज़्यादा लोगों से सम्पर्क रख सकें । जिनसे बात करता हूँ उनसे या तो कभी मुलाक़ात नहीं है या बहुत दिनों से नहीं है । शब्दों और वाक्यों के ज़रिये मेरा आभासी रूप है और मेरे पास आपका । कई बार लगता है कि आप मुझे वो समझते हैं जो मैं हूँ नहीं और कई बार ऐसा ही मैं आपके बारे में सोचता हूँ । हम सब लगातार प्रोजेक्ट होने की प्रक्रिया में है । पूरी दुनिया में इस व्यवहार पर गहन शोध हो रहे हैं । शायद भारत में भी हो रहे होंगे मगर अभी सार्वजनिक बहस का हिस्सा नहीं बन पाये हैं ।

इस प्रोजेक्ट होने की प्रक्रिया में हमारी तस्वीरें कुछ और ही बोल रही होती हैं । हमारी होते हुए भी हमारी नहीं लगती । हम तस्वीरों के ज़रिये खुद के देखे जाने का तरीक़ा भी तय कर रहे हैं । सेल्फी । क्लोज़ अप । यह हमारा आभासी व्यक्तित्व हमारे असल को भी प्रभावित कर रहा है । शब्दों के आर पार भावनात्मक रिश्ते बन रहे हैं । कई मामलों में यह अच्छा है और कई मामलों में ख़तरनाक । पर यह तो वास्तविक जगत में भी है । आप जिससे मिलते हैं उसका बाहरी रूप ही तो जानते हैं । सही ग़लत होने के ख़तरे वहाँ भी हैं । एक फ़र्क है । सोशल मीडिया का हर संवाद एक दस्तावेज़ है

हद तो तब है जब हम लिखित संवाद भी इस भ्रम में करते हैं कि कोई और नहीं पढ़ रहा या जिसे पढ़ना है पढ़ ले क्या फ़र्क पड़ता है । शंका और आत्मविश्वास की दीवारों को रोज़ तोड़ते हैं । हमारे भीतर शब्दों की एक ऐसी दुनिया बन जाती है जो हर वक्त चलायमान है । हम लगातार संवाद की प्रक्रिया में है । दिमाग़ शांत नहीं होता । बात करने का दायरा भी मौत के कुएँ की तरह है जिसमें हम नीचे से रफ़्तार पकड़ते हुए ऊपर पहुँचते हैं और फिर नीचे आ जाते हैं । बाक़ी लोग झाँक कर तमाशा देख रहे होते हैं ।

इस क्रम में हमारा वजूद कुछ रहा नहीं । न जाने कितनी बार रौंदा जाता है कितनी बार खड़ा हो जाता है । जब आप सोशल मीडिया के सम्पर्क में नहीं होते तब भी आपका दिमाग़ घनघना रहा होता है । इस दुनिया में कोई भी अनंत आकाश से नहीं जुड़ा है । सबके अपने अपने टापू हैं । इन टापुओं पर सियासी जलदस्युओं के हमले होते रहते हैं । हम खुद को बदलकर कुछ और होते रहते हैं । 

एक बहुरूपिया संसार रचा जा रहा है । जो इसके दायरे से बाहर है वो कैसे जी रहा है । जब कभी सब बंद कर देता हूँ तो कई लोगों की याद आती है । अकुलाहट होती है । सामान्य होने में वक्त लगता है । कई लोगों ने आहत होने की सहनसीमा का विस्तार किया है तो कुछ ने संकुचित किया है । यहाँ बात करना जोखिम का काम हो गया है । सबकी अपेक्षाओं पर खरे उतरने का इम्तहान है सोशल मीडिया में संवाद । हम सब एक सेना में बदल चुके हैं । टिड्डी दल की तरह हमला करते हैं । हमला झेलते हैं । जल्दी ही सोशल मीडिया के पन्नों पर विश्व युद्ध सा होने वाला है ।बल्कि छोटे मोटे कई युद्ध या तो हो चुके हैं या चल रहे हैं । इसमें मारे जाने वाले या घायल वैसे नहीं होंगे जैसे असल में होते हैं । बल्कि दिमाग़ी रूप से आहत लोगों की संख्या बढ़ेगी । उसके रूप बदल जायेंगे । कई लोगों को इस बेचैनी की प्रक्रिया से गुज़रते देखा है ।

मैं यही जानना चाहता हूँ कि इन सबने हमें कैसे बदला है । आप कैसे बदले हैं । कहीं हम पहले से ज्यादा अकेले नहीं हुए हैं । निरंतर संवाद ने समाज को जागरूकता के नाम पर अंध श्रद्धा दी है या सचमुच यह कोई अलग समाज है जो सोचने के स्तर पर पहले से कहीं अधिक जागरूक और सजग है । पर आप जानने के लिए कितना प्रयास करते हैं । मैं खुद दो तीन से ज़्यादा वेबसाइट नहीं देखता और आप ? जो शेयर करता हूँ उसे भी कम लोग पढ़ते हैं । कहीं हम अपने जाने हुए को ही तो नहीं मथते रहते हैं जहाँ तथ्य पीछे रह जाता है और भाव ऊपर आ जाता है । कितने लोग हैं जो निष्ठाओं के आर पार जाकर रोज़ जानने और न जानने के बीच की यात्रा करते रहते हैं । आप हैं तो बताइयेगा ।

सिन्धु से गंगा: सभ्यता से सनातन तक

एनडीए की सरकार थी । तरुण विजय सिंधु दर्शन का आयोजन करते थे । लाल कृष्ण आडवाणी भी जाया करते थे । ऐसे ही एक आयोजन में लद्दाख जाने का मौक़ा मिल गया । उस सिंधु नदी को देखने और जीने का मौक़ा मिला जिसके नाम पर हम अपने मुल्क का नाम और उसकी पहचान का धारण करते हैं । सिन्धु से ही हिन्दू हुआ और उसी से बना हिन्दुस्तान । जिस नदी से हमने नाम लिया वही हमारी राजनीतिक पहचान से ग़ायब है । हमारी पूरी सभ्यता संस्कृति का आदिम वजूद सिन्धु घाटी सभ्यता से ही प्रस्थान करता है । एन डी ए की सरकार जाने के बाद सिंधु दर्शन बंद हो गया या जारी रहा इसकी औपचारिक जानकारी नहीं है लेकिन पिछले दस सालों में सिंधु दर्शन की कोई चर्चा भी नहीं सुनी । यह और बात है कि सावरकर ने इसी सिन्धु की पहचान पर लौटने का दावा किया था । शायद इसी क्रम में सिन्धु दर्शन का आयोजन होता था । ( इस पैरा में आख़िरी की दो पंक्तियाँ किसी की प्रतिक्रिया पढ़ने के बाद जोड़ी गई हैं )

इंडियन एयरलाइन्स के विमान से लद्दाख उतरते ही सिन्धु को देखने की लालसा से भर गया । वो नदी आज भी बहती है । बिना इस भार के कि कभी इसी के किनारे एक ऐसी सभ्यता बसी जिसका बखरा हिन्दुस्तान और पाकिस्तान नाम के दो मुल्क  अपने इतिहास की किताबों में करते हैं । एयरपोर्ट पर ही तबीयत ख़राब हो गई और इसका लाभ यह हुआ कि होटल की खिड़की के पीछे बह रही सिन्धु नदी को घंटों निहारने का मौक़ा मिल गया । सिंधु की शालीनता पर फ़िदा हो गया ।

विनम्रता कोई सिन्धु से सीखे । भारत की सनातन संस्कृति पर पौराणिक से लेकर ऐतिहासिक दावा करने वाले साधु संत और नेताओं को कभी सिन्धु की क़सम खाते नहीं देखा है । सिन्धु भी दावा नहीं करती है । ऐसा कब और कैसे हुआ मुझसे बेहतर कई लोग जानते होंगे । हाँ तो सिन्धु चुपचाप बह रही थी । उसकी धारा में पाप पुण्य के अर्पण तर्पण के बोझ से मुक्त सभ्यता की सदियाँ बही जा रही थी । हम जितनी बार खुद को हिन्दू बोलते हैं उतनी बार सिंधु नदी का नाम लेते हैं । फ़र्क इतना है कि हमारे ख्याल में सिंधु नहीं गंगा होती है । हमारे जीवन से लेकर मृत्यु तक के सारे कर्मकांड गंगा से जुड़े हैं ।हमने गंगा को ही उद्गम मान लिया है । यहाँ तक कि हम अपने पितरों को तारने गया जाते हैं जहाँ फल्गु नदी बहती है । सिंधु पता नहीं कैसे हमारे कर्मकांडों और पाखंडों से बच गई । कभी मौक़ा मिले तो एम्पायर्स आफ़ दि इंडस पढ़ियेगा । हर किसी को एलिस एल्बिनिया की इस बेहतरीन किताब को पढ़ना चाहिए । राजनीति में नदियाँ विलुप्त नहीं होतीं । कोई सरस्वती की तलाश के बहाने आ जाता है तो कोई सिन्धु से लेकर नर्मदा और गंगा तक का आह्वान करने लगता है ।

खैर अब हम अपनी पहचान सिन्धु घाटी सभ्यता की ऐतिहासिकता से कम गंगा की पौराणिकता और दिव्यता से ज़्यादा करते हैं । हम सभी आम समझ में सभ्यता को सनातन के संदर्भ में ही परिभाषित करते हैं । मैं खुद गंगा को देखकर उसके विराट में विलीन हो जाता हूँ । गंगा रोम रोम तक को भावुक कर देती है । गंडक को देखते ही आँसू छलकने लगते हैं । अंग्रेज़ी के शब्दों का इस्तमाल करते हुए कहूँ तो गंडक पर्सनल है और गंगा पब्लिक । हर सार्वजनिक विमर्श में गंगा माँ है । गंडक गंडक है । सनातनी गंगा राजनीतिक भी है मगर गंडक जिसके किनारे मेरे पुरखों का वजूद मिलता है वो सामाजिक है । सिन्धु क्या है । कुछ नहीं । 

यह चुनाव इस मायने में भी याद रखा जाना चाहिए कि आधे अधूरे तरीके से सही गंगा को लेकर काफी दावे किये गए । एक नदी की समस्या और समाधान पर बात हुई ।" माँ गंगा ने बुलाया है" नरेंद्र मोदी ने बार बार कहा । हम सब गंगा से जल्दी रिश्ता जोड़ लेते हैं । गंगा हमारा ख़ून है मगर सिन्धु क्या है ? 

खैर राजीव गांधी के बाद नरेंद्र मोदी की वजह से सबका ध्यान फिर से गंगा की तरफ़ गया है । इसका श्रेय नरेंद्र मोदी को जाना चाहिए । दो साल पहले उमा भारती ने गंगा के किनारों की यात्रा कर इसके दुखों को पहचाना था । उससे पहले प्रो अग्रवाल के घोर अनशनों की वजह से गंगा मुद्दा बनी थी । एक संत तो गंगा को माफियाओं से बचाने के लिए जान ही दे गया । तब उत्तराखंड में किसका राज था पता कर लीजियेगा और यह भी मौजूदा शासन में उन माफियाओं का कुछ हुआ भी या नहीं । मनमोहन सिंह ने गंगा को राष्ट्रीय नदी घोषित किया था । लेकिन किसी ने सिन्धु पर दावेदारी नहीं की । सिन्धु ने किसी को नहीं बुलाया । सिन्धु के लिए जाना पड़ता है । इसके पास जाने के लिए तीज त्योहार का कोई बहाना भी नहीं है । 

मैं नदियों को लेकर भावुक होता रहता हूँ । इस वक्त टीवी के शोर शराबे से दूर एक अनजान नदी के किनारे बैठा हूँ । वो भी सिन्धु की तरह कलकल करती अपने एकांत में बहती जा रही है । कौन है क्या है किसी को नहीं बताती । हमने कई नदियों पर कर्मकांड और कथाओं को लाद कर उनसे पहचान की ज़रूरत तो पूरी की है मगर उनका ख्याल नहीं रखा । 

बेहद ख़ूबसूरत है सिन्धु । कभी देखियेगा मगर अल्बानिया की किताब पढ़ने के बाद । सिन्धु के किनारे कोई पंडित पंडा नहीं मिलेगा । यह नदी किसी पौराणिक गाथा की तरह नहीं बहती है ।  इतिहास की तरह बहती है । इसके किनारे विद्यार्थी बन कर जाइयेगा, कर्मकांडी बनकर नहीं । तभी आप सभ्यता और सनातन के फ़र्क की कलकल ध्वनि सुन पायेंगे । 

समितियाँ ही समितियाँ

प्रभात प्रकाशन द्वारा दो खंडों में प्रकाशित युगपुरूष गणेशशंकर विद्यार्थी पढ़ रहा हूँ । कभी इस पर विस्तार से लिखूँगा । बस एक प्रसंग का ज़िक्र करना चाहता हूँ । कानपुर में कांग्रेस अधिवेशन के लिए विद्यार्थी जी की अध्यक्षता में स्वागत समिति बनी थी । इस काम को अंजाम देने के लिए जो समितियाँ बनी थीं उस पर नज़र डालिये तो पता चलता है कि संगठन का काम कैसे चलता था ।

चिकित्सा समिति, प्रकाशन समिति, सफ़ाई और स्वास्थ्य व्यवस्था समिति, पंडाल समिति, बाज़ार समिति, जल समिति, रोशनी समिति, प्रचार समिति, संगीत समिति, सवारी व रेलवे समिति, टिकट कमेटी, सुपरिटेंडेंट लेडिज़ वालंटियर्स, सुपरिटेंडेंट ललितकला प्रदर्शनी,डेलिगेट कैंप समिति,अर्थ समिति, खजांची और भोजन मंत्री, व्यायाम और विनोद समिति ।

इन सब समितियों का ज़िम्मा जिनके पास था वे एक से एक नेता थे । मक़सद नेताओं के बारे में नहीं बताना है बल्कि यह कि राजनीति संगठन की बारीक ज़िम्मेदारियों के बिना हो ही नहीं सकती । इन समितियों के नाम के ज़रिये आप एक राजनीतिक अधिवेशन के सिस्टम और संस्कृति को भी समझ सकते हैं । सोचिये कि व्यायाम समिति क्या करती होगी । यह भी सोचिये कि आज के राजनीतिक अधिवेशनों का काम कितना पेशेवर होगा और क्या तब नहीं होता था ।