अमानत के गुमनाम दोस्त के नाम

मुझे मालूम है 
तुम सच्चे दोस्त थे उसके,
चाहा था उसे जीने के लिए,
लड़े भी उसकी ज़िंदगी के लिए,
कितना चाहा होगा तुमने उसे,
कितना चाहा होगा उसने तुम्हें,
तुम दोनों ने कितना प्यार किया होगा,
कितने सपने रखे होंगे सिरहाने,
उन सबको हटाकर एक दिन
देखने का मन करता है,
जानने का मन करता है
बताने का मन करता है 
इक दोस्त ऐसा भी होता है 
चुपचाप अकेले में रोता है 
जान पर खेल कर लड़ता है
तुम्हारी आँखों में वो मंज़र 
दर्ज भी होगा और क़र्ज भी,
नहीं बचा सकने की पीड़ा,
तुम्हारी करवटों को कैसे कैसे,
काटती होगी रात भर,
तुम तो मुआवज़े के एलान से भी 
कर दिए गए हो बाहर,
तुम तो इंसाफ़ की लड़ाई से भी 
कर दिए गए हो बाहर,
तुम्हारा दर्द तुम्हीं में जज़्ब हो गया,
जैसे वो दफ़्न हो गई हमेशा के लिए,
हम सबकी नाकामियों में,
दोस्त,
मैं तुम्हारी दोस्ती को चूमना चाहता हूँ,
बाँहों में कस कर रोना चाहता हूँ,
दोस्त,
वो कितना तड़पेगी तुम्हारे लिए,
जन्नत या दोज़ख़ की दीवारों के पीछे,
जाने तुम उसे ढूँढा करोगे कहाँ कहाँ पर,
सिनेमा हाल की सीट पर,
मुनिरका के बस स्टाप पर,
तुमने जो प्यार खोया है,
तुमने जो दोस्ती पायी है,
मैं मिलना चाहता हूँ तुमसे, 
तुम्हारी चाहत के बचे हिस्से में,
अपनी चाहत का इम्तिहान देना चाहता हूँ ।

(ये उस दोस्त के लिए है जो ग़ायब है हमारे बीच होकर भी, जिसकी मोहब्बत अब लौट न सकेगी कभी, इंसाफ़ की तमाम लड़ाइयाँ जीतने के बाद भी)

झांसी का किला बना गुजरात-मोदी की दिलचस्प लड़ाई


एक तय सा लगने वाला चुनाव इतना सपाट भी नहीं होता जितना बताया जाता है गुजरात चुनाव की ऐसी भविष्यवाणियों के बाद भी चुनावी टक्कर कई तरह के उतार चढ़ाव और आशंकाओं से गुज़र रही है जानकार नतीजे का एलान कर स्टुडियो में नरेंद्र मोदी की दिल्ली की पारी पर चर्चा करने में खो गए हैं लेकिन नरेंद्र मोदी टेस्ट खिलाड़ी की तरह एक एक गेंद देख कर खेल रहे हैं उनकी निगाह सिर्फ़ चुनाव पर है और पारी बचाने वाले उस बल्लेबाज़ की तरह जिसकी एक चूक मैच का पासा पलट सकती है

इसीलिए नरेंद्र मोदी ने इस चुनाव में थ्री डी टेक्नोलॉजी से ख़ुद को कई गुना मोदी में बदल दिया है वे लोगों से कहते हैं कि आपसे से हर कोई मोदी है उनके भाषणों के तेवर और रणनीतियों को देखें तो साफ लगता है कि वे इस मैच को जीता हुआ समझ कर नहीं खेल रहे हैं हालांकि उन्होंने कांग्रेस का समूल नाश का नारा दिया है और पोस्टरों में गुजरात के नक्शे पर चारों तरफ कमल खिला हुआ दिखाया जा रहा है लेकिन उनकी पुरानी आक्रामकता की जगह बचाव की मुद्रा वाली बल्लेबाज़ी दिखाई देती है शायद खिलाड़ी परिपक्व होने पर इसी तरह खेलना पसंद करता है वे दिन में कई सभायें करते हैं उनके भाषणों से लगता है कि इतनी व्यस्तता के बाद भी वे सोनिया गांधी,मनमोहन सिंह और राहुल गांधी को काफ़ी ध्यान से सुनते हैं जब ये लोग अपना भाषण समाप्त कर दोपहर तक दिल्ली लौट जाते हैं तब मोदी उनकी हर बात को हास्य में बदल देते हैं जैसे बिहार में लालू यादव खूब हंसाते थे वैसे बल्कि इस कला में मोदी लालू से भी दस क़दम आगे हैं वे विरोधी की हर बात को ऐसे घुमा देते हैं कि काउंटर करने का मौका भी नहीं मिलता और लोगों को हंसा कर चल देते हैं उनके भाषणों में राजनीतिक रसरंजन के तत्व बहुत हैं

शायद कांग्रेस भी नरेंद्र मोदी के इस हुनर को देखकर रणनीतियां बना रही है वो मोदी को कम से कम मौका देना चाहती है जानकार कहने लगे थे कि राहुल गांधी हार के भय से गुजरात नहीं रहे हैं उत्तर प्रदेश में दो सौ से ज्यादा रैलियां करने वाले राहुल गांधी गुजरात में एक भी रैली नहीं कर रहे लेकिन अब लगता है कि कांग्रेस राहुल गांधी को आखिरी दौर में उतार कर आज़माना चाहती थी ताकि मोदी को राहुल को घेरने के लिए कम से कम मौका मिला लेकिन ऐसा हुआ नहीं राहुल ने कहा कि हमारी सरकारें टेलिकाम क्रांति लाएंगी तो मोदी ने पलटवार करते हुए लोगों से पूछ दिया कि आपको मोबाइल चाहिए या नौकरी तो जवाब में तालियां बजने लगती है कांग्रेस के बड़े नेता हास्य में कमज़ोर हैं वे अपना भाषण गंभीरता से देते है और मोदी उनके भाषणों को कहीं ज़्यादा गंभीरता से लेते भी हैं उनके किसी भी भाषण लीजिए सोनिया मनमोहन और राहुल का ख़ूब ज़िक्र होता है

इससे उनका आत्मविश्वास तो झलकता है पर इरफान पठान को मंच पर लाकर वो अपनी कमज़ोरी ही ज़ाहिर कर रहे हैं सद्भावना यात्रा के दौरान टोपी पहनने से मना करने वाले मोदी ने खुद ही अहमद मियाँ पटेल का राग छेड़ा वो बार बार कांग्रेस को अपनी मांद में बुला रहे हैं कांग्रेस ने दब तूल नहीं दिया तो मुंबई की शाहिन का किस्सा उछाला कि महाराष्ट्र में फेसबुक पर लिखने के कारण शाहिन को जेल भेेजा और अब शाहिन गुजरात में सुरक्षित महसूस करती है मोदी ने आसानी ने शाहिन के गिरफ्तार होने की पृष्ठभूमि को किनारे कर दिया कि बाल ठाकरे की अंतिम यात्रा पर मुंबई बंद को लेकर शाहिन ने सवाल किया था तो कैसे शिव सैनिकों ने शाहिन उसकी दोस्त को धमकाया था बाद में जब शाहिन ने गुजरात में बसने से इंकार किया तो मोदी ने शाहिन के मुद्दे को छोड़ने में ज़रा भी देरी नहीं की। मोदी बार बार कह रहे हैं कि गुजरात में अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक की राजनीति ख़त्म हो गई है लेकिन क्या इरफान पठान को मंच पर लाना सिर्फ़ एक क्रिकेटर के साथ साझा करना ही समझा जाएगा मोदी तरह तरह से चुनौती दे रहे हैं मगर इस चुनौती के केंद्र में विकास ही है

इस बहाने यह हो रहा है कि दोनों पक्षों के नेता एक दूसरे को विकास की अवधारणाओं को जमकर चुनौती दे रहे हैं यह बहुत अच्छा है गुजरात का चुनाव थोड़े अपवादों को छोड़ दें तो मूल रूप से विकास के मुद्दे पर हो रहा है भाषणों में आंकड़ों की भरमार है इसी बहाने जनता भी ऐसे मुद्दें के प्रति संवेदनशील हो रही है हमारे देश में विकास की राजनीति की शुरूआत मध्यप्रदेश में दिग्विजय सिंह की सरकार जाने से हुई थी जब बिजली सड़क पानी के सवाल पर राजनीति ने दिशा बदली थी और तब से इन्हीं तीन सवालों पर कई सरकारें चली गईं और कई जीत कर दोबारा तिबारा लौटती भी रही हैं इस राजनीति के करीब दो दशक होने को रहे हैं, देखना चाहिए कि गुजरात का चुनाव बिजली सड़क पानी के सवालों से आगे विकास के उन मुद्दों पर क्या जनादेश हासिल करता है जिनका संबंध विकास की अवधारणा से है यह तभी होगा जब गुजरात के बाद के चुनाव भी विकास का मतलब सिर्फ़ बिजली सड़क पानी तक सीमित रह जाए नौकरी, पर्यावरण, भूमि अधिग्रहण के सवालों पर बात होने लगी है

भाषण चुनावी राजनीति की ऊपरी सतह है इससे अंदाजा मिलता है कि नीचे की सतह पर सियासत किस तरह से करवट ले रही है गुजरात में कांग्रेस कमज़ोर बताई जा रही है लेकिन नरेंद्र मोदी उसी कमज़ोर बताई जाने वाली कांग्रेस से काफ़ी शिद्दत से लड़ रहे हैं ताकि जीत का स्वाद भी ऐसे हो कि लगे कि बांग्लादेश की टीम को हराकर लौट रहे हों कांग्रेस भी इस चुनाव को हारी हुई लड़ाई समझ कर नहीं लड़ रही है सही है कि कांग्रेस बिना चेहरे की टीम से लड़ रही है, कई बार ऐसे अभ्यासों से ही कोई चेहरा निकल आता है 2002 और 2007 में कांग्रेस ने औपचारिकता ही निभाई थी इस बार फ़र्क यह है कि पचास ओवर तक टिका रहा जाए ताकि कम से कम इतना तो लगे कि मुकाबला हुआ इस बार कांग्रेस लड़ रही है तभी मोदी कांग्रेस से लड़ रहे हैं

इसलिए जानकारों के फैलाये इस भ्रम में रहें कि गुजरात में चुनाव नहीं हो रहा है बल्कि इसी बार गुजरात में चुनाव हो रहा है बीजेपी और कांग्रेस दोनों की तैयारियों से ऐसा नहीं लगता है कि जीत का एलान हो चुका है गुजरात एक दिलचस्प चुनावी दौर से गुज़र रहा है गुजरात के चुनावों में रुचि बना़ये रखिये नतीजा आने से पहले मैच का मज़ा तो लीजिए

(यह लेख पिछले हफ्ते राजस्थान पत्रिका में प्रकाशित हो चुका है)


रघुराय से रघुराम तक- रवि के कैमरे में अयोध्या

रघु राय का जादू न होता तो बीस साल के डी रवींद्र रेड्डी अयोध्या नहीं गए होते। वो बस अपने कैमरे में कैद करना चाहते थे कि रघु राय किस तरह से फोटोग्राफी करते हैं। अपने विषय को चुनते हैं। उनमें क्या ख़ास है जो सबसे अलग फोटोग्राफर बनाता है।१९८७ में हैदराबाद से फोटोग्राफी की दीक्षा लेने के बाद रेड्डी अपनी फोटू एजेंसी बना ली थी। रवि प्रेस फोटो एजेंसी। वो दिल्ली से आयोध्या के लिए रवाना हुए तो बस दिमाग़ में यही था कि इतने बड़े जमावड़े को रघु राय कैसे देख रहे होंगे। रवि ने बाबरी मस्जिद के दायरे में जमा कारसेवकों के बीच रघु राय को ढूंढना शुरू कर दिया। रघु राय मिल गए। कहीं बैठकर तस्वीरें लेते हुए तो कहीं भाग भाग कर। उसे रघु राय तो मिल गए मगर रघुकुल के राम के नाम जो मिला उसे आज तक नहीं भूले हैं। कैसे भूल सकते हैं।




लाखों लोगों की भीड़ उतावली हो चुकी थी। साढ़े ग्यारह बज रहे थे। कारसेवकों ने मस्जिद पर धावा बोलना शुरू कर दिया था। सब तीतर-बीतर हो गया। रवि ने सामने से घुसने की कोशिश की लेकिन भीड़ के धक्के से नहीं जा सके। फिर वो पीछे के रास्ते से मस्जिद में घुसने की कोशिश करते रहे। प्रेस रिपोर्टर और फोटोग्राफर पकड़े और पीटे जा रहे थे। लेकिन रवि के पास जो बैग था वो पेशेवर फोटोग्राफर का नहीं था। जब पीछे की ओर से घुसने की कोशिश में रवि को भी कुछ लोग पीटने लगे। तभी एक आवाज़ आई ये तेलुगू बच्चा है। इसे छोड़ दो। कारसेवकों की भीड़ में कोई आंध्र का रहा होगा जो बच्चे से लगने वाले रवि पर रहम खा गया होगा। रवि को बात समझ आ गई। उन्होंने अपना कैमरा जैकेट के भीतर छुपा लिया और अब वहां से निकलने की तैयारी करने लगे।


भीड़ इतनी ज़्यादा दी थी कि निकलना आसान नहीं था। एक घंटे लग गए फैज़ाबाद स्टेशन पहुंचने में। कोई ढाई बजे रहे होंगे जब स्टेशन पर लोग बोलने लगे कि गुंबद गिरा दी गई है। किसी तरह से रवि भाग कर फ़ैज़ाबाद पहुंचे। वहां से लखनऊ और सात दिसंबर की सुबह दिल्ली। इंडिया टुडे के दफ्तर गए। शरद सक्सेना ने कहा कि हमारा फोटोग्राफर भी वहां है। लेकिन किसी को पता नहीं था कि वहां मौजूद लोगों के कैमरे तोड़े गए हैं। वो पहुंच नहीं पाए थे। रवि ने अपनी तस्वीर दे दी। फिर पहुंचे टाइम पत्रिका के दफ्तर। ब्यूरो चीफ ने भी यही जवाब दिया। इस बातचीत का लंबा प्रसंग है। बाद में रवि की ही तस्वीरें इंडिया टुडे और टाइम के कवर पर छपीं। सीबीआई का अफसर पूछ ताछ के लिए रवि के पास गया था। रवि ने कहा कि कैसे पहचान सकता । तस्वीरें हैं, ले जाइये किसी काम आ जाएं तो अच्छा है।



रवि की तस्वीरों को देखकर सोचता रहा जो लोग इन नेताओं के कहने पर आए वे आज चालीस,पैंतालीस,पचास और साठ साल के हो गए होंगे। वो क्या सोचते होंगे। कोई अफसोस या राम के नाम पर झूठा गर्व। सीखना तो पड़ेगा। इस तरह की हर हैवानियत शर्मनाक है। हमारे भीतर की ऐसी हिंसा को समझना होगा, जो मज़हब की नाइंसाफियों के सच झूठ के किस्सों से भड़क जाती है और भड़काने वाला आसानी से भड़के हुए लोगों को रद्दी की टोकरी में डाल अपने सत्ता सुख की चमक में गायब हो जाता है।


डी रवींद्र रेड्डी से आज ही बात की। हमारे सहयोगी और सीनीयर कैमरा मैन नरेंद्र गोडावली ने उनका ज़िक्र किया तो नंबर लेकर बात करने लगा। रवि ने अपनी सारी तस्वीरें भेज दी हैं मगर संवेदनशीलता को देखते हुए कुछ ही लगाईं हैं। ये तस्वीरें देखकर जो उतावले होंगे वो मूर्खता ही करेंगे। यह सब वो दस्तावेज़ हैं जिन्हें देखकर हमें सीखना है कि राजनीति जब भी भावुकता से भरने की कोशिश करे तो कैसे अलग रह जाए। नहीं सीखा तो दस साल बाद गुजरात में हैवान बन गए लोग। इतिहास में नाइंसाफियों की इतनी दास्तानें हैं कि लोग कभी भी किसी की मिसाल देकर भड़का सकते हैं। बाबरी मस्जिद के ध्वंस के बीस साल हो गए हैं। हम अक्सर जब गुजरात दंगों की बात करते हैं तो जवाब आता है चौरासी के दंगों की बात कीजिए। जवाब देने वालों ने चतुराई से अयोध्या में मची इस हैवानियत को गायब कर दिया है। जो लोग नेतृत्व कर रहे थे उनमें से कई आज भी हैं। ज्यादातर उस घटना को शर्मनाक बता चुके हैं। अच्छा ही है कि अयोध्या के ज़ख्मों को भूल जाया जाए,बीस साल का वक्त इसी इंतज़ार में गुज़रा है। लेकिन अयोध्या की जो तारीख़ बन गई है वो छह दिसंबर से ही शुरू होती है और उसी पर खत्म हो जाती है।



और यह तारीख एक फोटोग्राफर के कैमरे में हमेशा के लिए दर्ज हो गई जो उसे अपने रघुराय की तलाश में वहां ले गई थी। वो रघुराम को खोकर लौटा मगर जब लौटा तो खुद ही रघुराय बन चुका था। WWW.dravinderreddy.com


( you can not use these pictures withouth permission of the photographer. he has given only for qasba)