अखिलेश बनाम राहुल

राहुल गांधी अखिलेश यादव से उम्र में तीन साल बड़े हैं,मगर अखिलेश उनसे चार साल पहले २००० में सांसद बन गए। तब अखिलेश की उम्र 27 साल थी और जब २००४ में राहुल गांधी पहली बार सांसद बने तो उनकी उम्र थी 34 । अखिलेश यादव तीसरी बार सांसद बने हैं और राहुल गांधी का यह दूसरा टर्म है। उत्तर प्रदेश के चुनावों के लिए अखिलेश ने अपनी क्रांति यात्रा की शुरूआत राहुल गांधी से दो महीने पहले बारह सितंबर को शुरू की। इस दिन का कोई विशेष महत्व नहीं है। राहुल गांधी ने चुनावी अभियान की शुरूआत के लिए १४ नवंबर यानी जवाहर लाल नेहरू के जन्मदिन को चुना जब उन्होंने फूलपुर की रैली से ज़ोरदार भाषण दिया। पूरी मीडिया लाइव दिखा रही थी। अखिलेश की क्रांति यात्रा का सीधा प्रसारण कहीं हुआ भी होगा तो उस मात्रा में नहीं जिस तरह से राहुल गांधी की पहली रैली को मिला था।

ऐसी तुलनाएं एक हद तक ही राजनीतिक हो सकती हैं लेकिन उत्तर प्रदेश का चुनाव जिस मोड़ पर पहुंचा है वहां से दोनों की तुलनाएं शुरू होने जा रही हैं। याद कीजिए जब चुनाव शुरू हुए थे तभी से लोग इसे राहुल गांधी का चुनाव बताने लगे थे। अब तो कांग्रेस के नेता भी इस लाइन की दावेदारी छोड़ने लगे हैं। दिग्विजय सिंह भी औपचारिक बयान में कहने लगे हैं कि लड़ाई कांग्रेस और समाजवादी पार्टी के बीच हो गई है। तो क्या यह देखना दिलचस्प नहीं होगा कि उत्तर प्रदेश की घाघ समझी जाने वाली राजनीति में दो युवा नेता कैसे टकरा रहे हैं। 38 साल के अखिलेश यादव और 42 साल के राहुल गांधी के बीच मुकाबला शुरू हो चुका है।

शुरूआत राहुल गांधी ने ही कर दी। अपने नेताओं के नाम वाला पर्चा फाड़ कर। जवाब में अखिलेश यादव ने मंजे हुए नेता की परिपक्वता दिखा दी। जब राहुल गांधी ने कहा कि उनकी पार्टी विपक्ष में बैठेगी लेकिन किसी का समर्थन नहीं करेगी। बड़ी लड़ाई का योद्दा ऐसी बात कर जाता है लेकिन अखिलेश ने चतुराई दिखा दी और कह दिया कि राजनीति में घमंड नहीं कर सकते। समर्थन लेना देना पड़ता है। चुनाव के बाद नतीजे आने पर ही राहुल गांधी देश के बड़े नेता के रूप में स्थापित होंगे मगर चुनाव के दौरान अखिलेश यादव ने खुद को समाजवादी पार्टी और यूपी के भावी नेता के रूप में स्थापित कर दिया है। कोई इंकार नहीं कर सकता कि सपा को इस चुनावी लड़ाई में पहले नंबर पर पहुंचाने वाला अखिलेश यादव ही है। मायावती को भी अखिलेश यादव से ही लड़ना पड़ रहा है। मुलायम सिंह यादव तो कहने लगे हैं कि पहला चुनाव है कि दिन में दो ही सभाएं कर रहा हूं। अखिलेश ने मेरे लिए कुछ छोड़ा ही नहीं है।

ढाई सौ से अधिक रैलियां कर चुके राहुल गांधी ने भी सोनिया गांधी के लिए जगह नहीं छोड़ी होगी। नतीजे ख़राब आने के बाद भी कहना ही पड़ेगा की राहुल गांधी ने ख़ूब मेहनत की। भट्टा परसौल की घटना के बाद पदयात्रा से गंभीर नेता की छवि बनाई। अजित सिंह को केंद्र में मंत्री बनाकर पश्चिम उत्तर प्रदेश में अपनी कमज़ोरी को भरने की कोशिश की। रशीद मसूद जैसे नेता को भी लिया। बेनी प्रसाद वर्मा को गुरु बता दिया। सैम पित्रोदा को बढ़ई के रूप में पेश किया गया। वो एक व्यावहारिक राजनीतिक ज़मीन पर पांव जमाने की कोशिश कर रहे थे। वो समझने लगे थे कि चुनाव मेहनत के साथ रणनीतियों का भी खेल है। समाजवादी पार्टी को अंग्रेजी विरोधी बताकर वो अपने विकास के मुद्दे को मज़बूत कर रहे थे। फूलपुर की पहली रैली में ज़रूर कहा था कि मुझे यूपी की हालत पर गुस्सा आता है। लेकिन भीख मांगने वाले बयान की आलोचना से तुरंत संभल भी गए और यह भी कहा कि वे मुलायम सिंह यादव और कांशीराम का सम्मान करते हैं। तब ऐसा क्या हुआ कि राहुल गांधी एंग्री यंग मैन की भूमिका में उतर आए। लखनऊ की रैली में उनका गुस्सा क्यों फूटा?

क्या लखनऊ में राहुल के भड़कने से उनकी रणनीति की कमज़ोरी झलक गई? क्या रायबरेली,अमेठी में प्रियंका गांधी को उतार देने की रणनीति ने भी दूसरे चरण के चुनावों में उन्हें चर्चा से दूर किया। पूरी मीडिया अपने लाव लश्कर के साथ प्रियंका के पीछे हो गई। मीडिया के कवरेज़ से यही संदेश गया कि कांग्रेस रायबरेली और अमेठी में अपने गढ़ को बचाने में जुट गई है। मीडिया के लिए प्रियंका गांधी सुलभ रही हैं। राहुल गांधी ने कुछ जगहों पर पत्रकारों को बुलाकर खुलकर बात तो की मगर उसे निजी बताकर रिपोर्ट करने से मना कर दिया। वो सीधे जनता से बात करने की रणनीति पर चल रहे थे। कोई जोखिम नहीं लेना चाहते। चार चरण के चुनाव बीत चुके हैं। राहुल गांधी ने एक ही प्रेस कांफ्रेंस की है। वाराणसी में पहले चरण के मतदान के पहले उनकी प्रेस वार्ता थी। उसके बाद से वो मायावती की ही तरह मंचों से ही मीडिया को नज़र आते हैं। लखनऊ में राहुल गांधी ने गुस्सा जताकर क्या हासिल किया इसका सही विश्लेषण तो चुनाव के नतीजों में झलकेगा लेकिन आप इस बात से इंकार नहीं कर सकते कि उन्होंने अपने सामने अखिलेश यादव को ला खड़ा कर दिया है।

राजनीति में कोई भी चुनाव किसी भी राजनेता के लिए अंतिम नहीं होता लेकिन राहुल गांधी यूपी में पहले हार देख चुके हैं, इस बार जीत की आशा में भागे जा रहे हैं। वो जनता के बीच जा तो रहे हैं मगर अखिलेश उनसे भी दो कदम आगे हैं। वो स्थानीय नेताओं को फोन कर दे रहे हैं। चाचा मामा बताकर साथ आने के लिए कह रहे हैं। यह भी ध्यान रखना चाहिए कि अखिलेश को मुलायम सिंह यादव की बनी बनाई पार्टी का भी लाभ मिल रहा है। राहुल गांधी नए सिरे कांग्रेस के लिए नेता खोजने से लेकर संगठन खड़ा कर रहे हैं। अखिलेश की पार्टी पिछली विधानसभा में दूसरे नंबर की पार्टी है और यूपी से लोकसभा में पहले नंबर की। राहुल गांधी की कांग्रेस यूपी की चौथे नंबर की पार्टी है। समाजवादी पार्टी में अखिलेश के पीछे उनके पिता, चाचा और चचेरे भाई सब जुटे हैं। लेकिन इसके अलावा आज़म ख़ान का अपना आधार है। अखिलेश ने समाजवादी पार्टी की वेबसाइट पर पार्टी के सीनियर नेताओं के साथ अपनी तस्वीर भी नहीं लगाई है। फिर भी वो हिम्मत कर सके कि एक ग़लत बयान पर मोहन सिंह जैसे सम्मानित समाजवादी पार्टी नेता को प्रवक्ता पद से हटा दिया। डीपी यादव को शामिल करने से मना कर दिया। राहुल गांधी बेनी प्रसाद वर्मा और सलमान खुर्शीद को रोक नहीं सके। अखिलेश मीडिया की नज़र से दूर हैं, राहुल हर दम कैमरे के क्लोज़ अप में होकर भी मीडिया से दूर हैं। जब भी कैमरे अखिलेश को ढूंढते हैं वो तुरंत हाज़िर हो जाते हैं।

ये दोनों नेता आमने सामने हो चुके हैं। अखिलेश यादव ने रायबरेली और अमेठी में रैलियां की हैं तो राहुल गांधी इटावा में। इस शनिवार को इटावा में राहुल की सभा में भीड़ भी आई। इटावा में राहुल गांधी ने अपने गुस्से वाली ग़लती से सबक सीख कर पहुंचे थे। लखनऊ में बढ़ी हुई दाढ़ी नदारद थी। ज़ाहिर है राहुल गांधी सीखते चल रहे हैं मगर उनके पास वक्त बहुत कम है। राजनीति सौ मीटर रेस के ट्रैक की तरह है। कोई फर्क नहीं पड़ता कि आप किस नंबर से दौड़ रहे हैं। इस संदर्भ में कांग्रेस की युवा नेता नूरी ख़ान की एक बात याद आती है। इंदौर से दिल्ली के विमान में उस लड़की ने कहा था कि राजनीति तपस्या है। कोई खंभा नहीं कि दौड़ कर गए और छू कर आ गए। छह मार्च का इंतज़ार कीजिए। नतीजे तय करेंगे कि यूपी में कौन बड़ा युवा नेता है। राहुल गांधी या अखिलेश।

(published in dainik bhaskar last to last week.)

अखिलेश ही अखिलेश

शायद हम भारतीय मूलत उदास प्रवृत्ति के लोग हैं। दुख को नियमित समझ धीरज के साथ चरणों में काटते हैं और सुख को एकमुश्त उल्लास में खर्च कर देते हैं। उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव की जीत के बाद के कवरेज और घोर उम्मीदीकरण का जो दौर की छपाई से ऐसा लगता है कि यूपी की जनता ने कोई क्रांतिकारी बदलाव के लिए जनादेश दे दिया हो। जबकि जनता ने नए कलेवर में पुराने ही विकल्प से बदलाव की उम्मीद भर की है। अमेरिका में बराक ओबामा की जीत पर कई महीने तक अति आशावाद की लहर दुनिया भर में फैला दी गई थी। पांच साल पहले मायावती जब प्रचंड बहुमत से आईं तो उन्हें भी भारत का ओबामा लम्हा बता दिया गया। नीतीश कुमार से लेकर ममता बनर्जी तक के विजय अभियान को ऐसे ही उम्मीदों से लबरेज़ किया जाता रहा है। अब हर तरफ अखिलेश ही अखिलेश हैं। टीपू बना सुल्तान से लेकर अखिलेश प्रदेश की उपमाओं के बीच राजनीतिक और प्रादेशिक यथार्थ वहीं के वहीं बने हुए हैं। संतुलन की गुंज़ाइश छोड़ सबकुछ अति के स्तर पर चला गया है।

अखिलेश एक अकल्पनीय छवियों के सांचे में ढाले जा रहे हैं। आई पैड और आई फोन सामान्य उपभोग की चीज़ें हैं। अभी तक अमेरिका में ही साबित नहीं हुआ है कि आई फोन या आई पैड का राजनीतिक सफलता से कोई नाता है लेकिन हिन्दुस्तान की मीडिया अखिलेश के हाथों में दिख रहे इन उत्पादों को उनके विजय से जोड़ रही है। यही कि अखिलेश दो दो ब्लैकबेरी फोन रखते हैं। आई पैड पर पार्टी के प्रचार अभियान का वीडियो देखते हैं। सत्तर के दशक के अंग्रेजी गाने सुनते हैं और ज़िंदगी मिलेगी न दोबारा जैसी फिल्में देखते हैं। हल्की फुल्की कन्नड बोल लेते हैं और धौलपुर के सैनिक स्कूल में मिली फुटबॉल खेलने की आदत को आज भी बरकरार रखे हुए हैं। पजेरो कार में रखी बीएमडब्ल्यू साइकिल चलाकर उम्मीद की साइकिल की नई छवि गढ़ते हैं। ऐसे तमाम प्रतीकों के बीच अखिलेश यादव के विजय अभियान की निरंतर खोज जारी है। उन्हें किस्से और मुहावरे में बदला जा रहा है। कैमरे खोज खोज कर ऐसी तस्वीरें ला रहे हैं जिसमें अखिलेश किसी रोबोट की तरह दिखने लगे। जीत ने यह काम आसान कर दिया है। यही सब उपकरण तो राहुल गांधी के पास भी थे। उन्हें जीत मिलती तो उनकी टीम और रणनीतियों के भी किस्से ख़ूब छपते। वोट देने से पहले उत्तर प्रदेश की जनता को अखिलेश यादव की इन खूबियों के बारे में कुछ नहीं मालूम था। उसे बस लगा कि उनके बीच कोई नेता आया है और गंभीर लग रहा है तो भरोसा करना चाहिए।

याद कीजिए पांच साल पहले मायावती को भी उम्मीदों की गगरी में उड़ेल दिया गया था। कहा जाने लगा कि मायावती की जीत हिन्दुस्तान का ओबामा लम्हा है। वो सारी उम्मीदें नए सिरे से अखिलेश यादव के कंधों पर हस्तांतरित हो चुकी हैं। यह जानते हुए कि राज्य का तंत्र एक स्थायी मानसिकता का शिकार हो चुका है। उसके लिए अखिलेश का शीर्ष पर आना एक अल्पविराम भर है। गनीमत है कि अभी तक अखिलेश यादव अपनी जीत की अतिरंजित व्याख्या में घोर रूप से सामान्य नज़र आ रहे हैं। वैसे ही जैसे विश्व कप जीतने के बाद महेंद्र सिंह धोनी सामान्य नज़र आ रहे थे। धोनी को मालूम रहा होगा कि विश्व विजेता होने का मतलब है जीत को निरंतरता में बदलना। मायावती के पास भी दो सौ से अधिक विधायक थे और वो भी दुनिया भर की पत्रिकाओं में सुपर वुमन से लेकर सौ शक्तिशाली महिलाओं में शुमार की जाने लगीं। अखिलेश यादव को समझना चाहिए कि ऐसी उपमाओं और अलंकारों का कोई मतलब नहीं होता। यह सब दीवाली के वक्त लगने वाले झालर हैं जो दीवाली बीत जाने के बाद दरवाज़ें पर मुरझाकर गिरने लगते हैं।

मैं सामान्य रहने में यकीन रखता हूं। समभाव ही बेहतर है। सत्ता के चरित्र ने मायावती को बदल दिया। ममता बनर्जी को बदल दिया। लालू यादव भी क्रांतिकारी परिवर्तन के प्रतीक बनकर उभरे थे। वो बदल गए। चुनाव बाद के विजेताओं को मिली सुर्खियों और पांच साल की उपलब्धियों में गहरा अंतर रह जाता है। टिकते हैं वहीं नेता तो सामान्य भाव से राज्य की बुनियादी समस्याओं का हल खोजते रहते हैं। उम्मीद की जानी चाहिए कि जिस तरह से वे प्रचारों के दौरान स्टैंड ले रहे थे उसी तरह से प्रशासनिक फैसलों के समय भी स्टैंड लेगे। उन्हें उत्तर प्रदेश में अब तक सबसे ईमानदार प्रशासन देना है। उन्हें उस सामंतवादी मानसिकता से लड़कर दिखाना होगा जो जीत के नशे में किसी दलित का घर जलाने के लिए उकसाती है। यह कानून व्यवस्था के डर से दूर नहीं हो सकता। जब तक सम्मान की जगह नहीं बनेगी ज़मीन पर नया माहौल नहीं बनेगा। उनका बहुमत सभी जातियों का है। मायावती ने यही समझने में चूक कर दी। इसीलिए अखिलेश यादव को युवा नेतृत्व जैसे जुमलों की पैकेजिंग से सतर्क रहना होगा।

हमारे विचारक यहीं पर अखिलेश को समझने में चूक जाते हैं। यह जीत किसी रणनीति का परिणाम नहीं है। जनता के पास तो सिर्फ एक रणनीति थी। वोट उसको देना है जो बहुमत से सरकार बनाए। उसके पास एक ही विचारधारा और कार्यक्रमों वाले कई दल थे। यूपी की जनता ने उन तमाम दलों में से एक सपा को चुना। सपा की जीत यूपी की जनता की रणनीतिक जीत है न कि अखिलेश के हाई टेक आदतों की। अखिलेश यादव ने इसे समझ लिया था। इसलिए वो जनता से एस एम एस या ईमेल से संबंध नहीं बना रहे थे। उनके बीच जा रहे थे। नेता का सपर्क कार्यकर्ताओं से जितना बेहतर होगा उसकी योजनाएं सफल होती चली जाएंगी। यहां पर अखिलेश ने खुद को साबित किया है।


लोकतंत्र में नए दल बनते हैं और गायब हो जाते हैं। जनता दल अमीबा की तरह टूटा और बनता रहा। समाजवादी पार्टी को पुरातन कहा जाने लगा तो वो अखिलेश ने उसे आधुनिक बना दिया। पर पार्टी का ढांचा कितना आधुनिक हो गया होगा। हमारे देश में यह करिश्मा हर दौर में होता रहा है। शरद पवार भी सैंतीस साल की उम्र में महाराष्ट्र की राजनीति के करिश्मा थे। मायावती भी उनतालीस साल की उम्र में उत्तर प्रदेश की चमत्कार थीं। असम में प्रफुल्ल मंहत ने तो इन सबसे कम उम्र में जनमत के ज़रिये सत्ता हासिल की थी। अब कोई चमत्कार नहीं कहता। अगर सारा नमस्कार सत्ता के लिए ही है तो फिर अतिरंजित विश्लेषण क्यों? राष्ट्रीय नेता बनाम लोकल नेता के सवाल के जवाब में अखिलेश यादव ने जवाब दिया कि कांग्रेस के नेता राहुल गांधी को ऐसे ही इंटरनेशल और नेशनल बताकर भरमाते रहते हैं। वो चाहते हैं कि उनकी तुलना उत्तर प्रदेश के अंदर हो। अखिलेश यादव को मालूम है कि पांच साल बाद उनकी तुलना होगी। उनकी राजनीति की राजधानी सैफई ज़रूर हो सकती है मगर याद रखना होगा कि राजधानी एक है। लखनऊ जहां से उन्हें पूरे उत्तर प्रदेश के लिए काम करना है। अखिलेश ही अखिलेश जैसे अलंकरणों से बचकर प्रदेश ही प्रदेश जैसे यथार्थों में विचरना होगा।
(published in rajasthan patrika)