ठीक है कि हम दंगों की आग में नहीं जले। लेकिन पेट की आग भी बड़ी चीज़ होती है। बंगाल के मुसलमानों की हालत ख़राब है। अपनी बात कहते हुए अलीमुद्दीन मस्जिद के नीचे बैठे गुलाम हुसैन टेलिग्राफ में छपे आंकड़ों को दिखाने लगे। ये देखिये केंद्र का मंत्री गलत बोलेगा। क्या हुआ मुसलमानों के साथ आप खुद देखिये न। पास में बैठे रसूल मियां मुस्कुराते हुए हज़ामत बना रहे थे. मैंने पूछा कि क्यों हंस रहे हैं? बोले १९६३ से यहीं बैठा हूं। मोतिहारी से कलकत्ता आया था। कमाने। ज्योति बसु का ज़माना ठीक था। कुछ उम्मीद थी। वाम दल ने हमको सड़कों से हटाया नहीं लेकिन कुछ बदला नहीं। हम तो यहां तब से है जब अलीमुद्दीन स्ट्रीट में सीपीएम का दफ्तर नहीं था। मेरे इस पेड़ के नीचे बैठने के बाद ही तो पार्टी बनी। पहले इस गली में सीपीआई का दफ्तर होता था। देखिये चार कमरे से कितना बड़ा दफ्तर हो गया।
आप जिन आवाज़ों को सुन रहे हैं वो उसी अलीमुद्दीन स्ट्रीट पर सुनाई दे रही थीं जहां सीपीएम का मुख्यालय है। मुस्लिम बहुल इलाका लगता है। कोई हलचल नहीं है। चौरंगी विधानसभा इलाके में पड़ता है सीपीएम मुख्यालय। तृणमूल का गढ़ माना जाता है। इसलिए यहां से सीपीएम नहीं लड़ रही है। लालू का लालटेन छाप है। यहां रहने वाले मुसलमानों में वाम सरकार को लेकर जाश नहीं दिखा। ब्रेड बिस्कुट बेचने वाले एक मुस्लिम दुकानदार का कहना था कि यहां तो लोगों ने बारात घर तक नहीं बनवाया। नाली-पानी तक का इंतज़ाम नहीं किया। तृणमूल के इकबाल साहब(नाम ठीक से याद नहीं) ने कितना काम किया। सीपीएम का पार्टी आफिस ही देख लीजिए। सफेदी भी नहीं कराते। कम से कम रंगाई-पुताई में ही दस लोगों को काम मिल जाता। अच्छा कपड़ा पहनने से लगता है कि आदमी काम का है।
बंगाल के मुस्लिम इस बार अलग तरीके से सोच रहे हैं। वो अपने हालात पर सवाल खड़े कर रहे हैं। बंगाल के घर-घर में चल रहे मुस्लिम कारीगरों की हालत रोटी-पानी के जुगाड़ तक ही सीमित है। काम तो मिल रहा है मगर यह काम उन्हें किसी काम का बनाने में मदद नहीं कर रहा। सेकुलर दलों को सोच लेना चाहिए कि इस देश का मुसलमान सिर्फ बीजेपी के भय से उसके साथ चिपका नहीं रहेगा। सांप्रदायिकता मुद्दा है मगर इसके अलावा भी कई ज़रूरी सवाल हैं। सीपीएम ने समझने में देर कर दी। सच्चर कमेटी की रिपोर्ट को खारिज कर देना और बताना कि हाल के दो साल में काफी सुधार हुआ है काफी नहीं है। दो साल के काम से किसी समुदाय की आर्थिक हैसियत में बहुत बदलाव नहीं किया जा सकता है। यही काम पांच साल पहले हुआ होता तो राजनीतिक वोट में भी बदल सकता था। मदरसा शिक्षकों को वेतन देने से मुस्लिम समाज का काम नहीं हो जाता है।
जहां भी गया आम मुसलमानों में ममता के प्रति खास लगाव देखा। ममता इसे समझ गईं हैं। इसलिए भाषण में ऊर्दू को दूसरी भाषा बनाने का लोकलुभावन नारा देती हैं। ममता ने बंगाल की राजनीति को ऊपर से हिन्दी,ऊर्दू और बांग्ला तीन खांचों में बांट दिया है। प्रवासी लोगों के लिए अलग से बातें करती हैं। सीपीएम बचाव की मुद्रा में अपनी बात रख रही है। ये और बात है कि ऊर्दू को सेकेंड लैंग्वेज बना देने से भी मुसलमानों को कोई भला नहीं होने वाला। मगर ममता के तालीबजावन नारों से ही एक नई उम्मीद पैदा हो रही है। तृणमूल के कार्यकर्ताओं के समूह को ठीक से देखिये। मुस्लिम कार्यकार्ताओं की सक्रियता खूब दिखेगी।
होज़ियरी के मामले में बंगाल ने पिछले पंद्रह सालों में काफी तरक्की की है। दिल्ली के गांधीनगर में ही व्यापारियों ने बताया था कि लड़कियों के फ्राक बनाने के मामले में कोलकाता का जवाब नहीं। कोलकाता गया तो शाहरूख, ह्रतिक,सनी,सैफ,अक्षय,नितिन मुकेश सब के सब गंजी अंडरवियर के प्रचार में होर्डिंग पर खड़े नज़र आ रहे थे। पता किया तो लोगों ने बताया कि पंद्रह हज़ार करोड़ रूपये का कारोबार है होज़ियरी का। मटियाबुर्ज़ का इलाका इसका गढ़ है। घर-घर में मशीनें चल रही थीं। सब मामूली कारीगर। किसी घर में दो सिलाई मशीन तो किसी में चार। कुछ की हैसियत बड़े व्यापारियों जैसी ज़रूर दिखी लेकिन हर दूसरी मशीन पर दस से बारह साल के बच्चों को कपड़े सिलते देखा तो लगा कि वाम राजनीति विचारधारा के ईंधन से ज्यादा समय तक नहीं चल सकती। पंद्रह घंटे काम करते हैं ये बच्चे। बच्चों के कपड़े बच्चे ही सिलते मिले। लोगों ने बताया कि क्या करें इन्हें पढ़ाई के लिए भेजें या काम करायें। ये बच्चे बटम टांकने का काम नहीं कर रहे थे बल्कि पूरी तरह के कुशल दर्जी की तरह कपड़ों को सिल रहे थे।
एक व्यक्ति ने कहा कि पूरा परिवार मिल कर काम करता है तो भी महीने की कमाई पूरी नहीं पड़ती। इलाके में एक स्कूल था। अब जाकर बन रहा है। हम लोग अपने बच्चों को स्कूल भेज रहे हैं। क्या करें इस धंधे से पेट ही भरता है बस। बदलाव नहीं होता है। होज़ियरी पर दस फीसदी का कोई टैक्स लगा है,उसे लेकर घर-घर में बातें हो रही हैं। ममता कहती हैं कि प्रणब दा से बोल कर हटवा देंगी। सीपीएम कहती हैं कि जब बजट पास हो रहा था तब क्यों नहीं सवाल उठाया।
बाहर निकला तो मुस्लिम बच्चे क्रिकेट खेलने में व्यस्त थे। मैदान न होने का दोष सीपीएम पर मढ़ रहे थे। सलमान ने कहा कि मल्लिका विक्टोरिया ने तो कोलकाता को कितना बड़ा मैदान दिया। हम लोगों को कुछ नहीं दिया। हम दूसरे मोहल्लों में जाते हैं तो विकास देखेते हैं। वहां सब कुछ होता है। मुस्लिम मोहल्ले में क्यों नहीं होता है। हमारा एरिया बैकवर्ड क्यों लगता है। अगर किसी को यह आवाज़ नहीं सुनाई देती है तो इसका मतलब है कि उसकी हार तय है। राजनीति को ज़िंदा रहने के लिए विचारधारा ही नहीं चाहिए। उसे अब क्रिकेट का मैदान और स्कूल की परवाह करनी होगी।
बंगाल की ग़रीबी ने प्रवास की एक नई पीड़ा को जन्म दिया है। यहां की औरतें पलायन कर रही हैं। अकेले। बिहार यूपी से मर्दों का पलायन ज्यादा हुआ। मगर बंगाल से औरतें के पलायन पर किसी का ध्यान नहीं गया है। अपने छह से दो साल के बच्चों को छोड़ कर ये औरतें घरों में काम करने निकल रही हैं। गांव-गांव में बच्चे सास,नानी,ननद के भरोसे हैं। मेरे घर में अब तक दस बारह लड़कियां काम कर गईं। इसलिए ज्यादा समय तक टिक न सकीं क्योंकि बच्चों की याद सताती थी। मैं खुद सोचता रहता था कि ये दिन भर अपने बच्चे को याद करती होगी, मेरी बेटी को कैसे प्यार से खिलाती होगी। जाने वाली हर बाई से पूछता था कि ज्यादा पैसे जमा हो जाए तब जाया करो। जवाब मिलता था कि हमारा पांच छह हज़ार में ही कई महीने तक काम चल जाता है। अब यह बंगाल के जीवन का सस्ता होने का प्रमाण तो है मगर यह भी सोचिये कि यही पांच हज़ार कमाने का साधन नहीं। यह संकट सिर्फ बंगाल का नहीं है। बिहार का भी है। पलायन पीड़ा दे रहा है। बागी बना रहा है। बंगाल की औरतों ने बंगाल के बाहर की हकीकत को देखा है। एक दूसरे किस्म का नरक भोगा है। शायद उनकी यही तकलीफ ममता से जुड़ जाती है। यही कारण है कि दिल्ली से बड़ी संख्या में कामवालियां अपने घरों को लौटी हैं, ममता को वोट देने।
बंगाल में ममता को संजीवनी इन्हीं नाराज़ आवाज़ों से मिल रही है जिसे सीपीएम के काडर सुन नहीं पा रहे। वो इसी धुन में हैं कि पिछले छह महीने में काफी सुधार कर लिया है। अब हालत उतनी बुरी नहीं है। ममता सरकार नहीं बना सकेगी। सवाल सरकार बनाने का ही नहीं उन सवालों का भी है जो बंगाल में उठ रहे हैं। देखतें हैं कि क्या होता है। सीपीएम सत्ता में आती है या जनता की ममता। लेकिन जब लेफ्ट के नेता पूछने लगे कि आपको क्या लग रहा है और जब आप यही सवाल उनसे कर दें और वे कहने लगे कि नहीं हमने काफी सुधार कर लिया है, तो यह समझ लेना चाहिए कि हवा खामोश है। कई आम लोगों से राय जानना चाहा। एक भी बाइट लेफ्ट के समर्थन में नहीं मिला। अब मैंने दस हज़ार से तो नहीं पूछा लेकिन जिन दस बीस लोगों से पूछा सब वाम सरकार के कामकाज पर खामोश हो गए। मगर तृणमूल और ममता को लेकर खूब बोलते दिखे। वो वाम दल का समर्थन करने का साहस नहीं दिखा पा रहे थे। माइक नीचे करते ही एक ही बात कहते मिले। चेंज चाहिए।
अनशन पर अंटशंट
क्या किसी को भ्रष्टाचार से लड़ने के लिए अब कांग्रेस,बीजेपी या समाजवादी पार्टी में शामिल होना होगा? क्या संविधान से अपने लिए जीने का हक मांगने के लिए चुन कर आना अनिवार्य होगा? क्या सभी संवैधानिक और प्रशासनिक प्रक्रियाएं चुने हुए लोगों के बीच ही पूरी होती हैं? क्या चुनाव के बाद मतदाता-जनता का वजूद ख़त्म हो जाता है? तब क्या चुनाव जीतने के बाद कोई राजनीतिक दल सिर्फ मेनिफेस्टो में दर्ज वादों पर ही काम करता है? क्योंकि जनता ने तो उसे मेनिफेस्टो के हिसाब से वोट दिया है तो सरकार इतर कार्य कैसे कर सकती है? क्या अब किसी लड़ाई में होने के लिए मध्यमवर्ग से नहीं होना पहली शर्त होगी? क्या धरना-प्रदर्शन करना अब से ब्लैक मेलिंग हो जाएगा? क्या अब लोगों को अपनी मांगों की अर्ज़ी राजनीतिक दलों के दफ्तर में देनी होगी?क्या लाखों लोगों का अपनी मांगों को लेकर प्रदर्शन करना हिस्टीरिया है? क्या अब हर आंदोलन अराजक और दक्षिणपंथी ही कहा जाएगा? जंतर-मंतर पर चार दिन बिताने के बाद आंदोलन के विरोध में उठने वाले सवालों से कई सवाल मेरे मन में बन रहे थे। कुछ लोग आंदोलन को शक की नज़र से देख रहे थे तो कुछ असहमति की नज़र से। रविवार के अंग्रेजी के अखबारों में आंदोलन के विश्लेषण को पढ़ कर लगा कि जंतर मंतर के ज़रिये कुछ खाए-पीए मवाली लोगों का मजमा सरकार को हुले लेले कर रहा था। उनके उपहास के केंद्र में चंद बातें थीं। जंतर-मंतर पर जो कुछ हुआ वह भ्रष्टाचार का सरलीकरण था। गांधी के आदर्शों का सरलीकरण किया गया और फिर उसका नकलीकरण। इस तरह से अनशन पर अंटशंट कहा जा रहा है।
चालीस साल से कई दलों की सरकारें लोकपाल बिल को लेकर जनता को ब्लैक मेल कर रही थीं,ठीक वैसे जैसे महिला आरक्षण विधेयक को लेकर करती रही हैं। कोई यह बताएगा कि महिला आरक्षण बिल राजनीतिक संवैधानिक प्रक्रिया के चलते दबा हुआ है या पास न करने की मंशा के चलते। लोकतंत्र में संविधान के तहत सरकार द्वारा बनाई गईं संस्थाएं क्या अमर हैं? क्या हम कभी सीबीआई का विकल्प नहीं सोच सकते हैं? मुंबई हमले के बाद एनआईए क्या है? सीबीआई के रहते सीवीसी का गठन क्यों किया गया?क्या सीवीसी के रहते भ्रष्टाचार हमेशा के लिए ख़त्म हो गया? अगर नहीं हुआ है तो सीवीसी क्यों हैं? भ्रष्टाचार खत्म नहीं हुआ तो क्या अब इसके खिलाफ होने वाली हर लड़ाई को मूर्खतापूर्ण कहा जाएगा? तो क्या अब से भ्रष्टाचार पर नहीं लिखा जाएगा? क्या भ्रष्टाचार के नहीं खत्म होने से उसे एक संस्था के रूप में स्वीकार किया जा रहा है? ख़त्म नहीं हो सकता तो लड़ना क्यों हैं। भ्रष्टाचार का सरलीकरण क्या है? भ्रष्टाचार को जटिल बताने का मकसद क्या है? जटिल है तभी तो एक जटिल संस्था की मांग हो रही है जिसके पास अधिकार हो। जिन्होंने अण्णा के अनशन को भ्रष्टाचार का सरलीकरण कहा है,वो कहना क्या चाहते हैं? जंतर-मंतर में आई जनता भ्रष्टाचार से त्रस्त रही है। उसे नाच गाने,बैनर-पोस्टर के बहाने भ्रष्ट तंत्र को मुंह चिढ़ाने का भी मौका मिला जिसे देखकर कई लोग सरलीकरण बता रहे हैं। काश आम लोगों की परेशानी को कोई समझ पाता।
अण्णा हज़ारे के अनशन पर राजनीतिक दल खुद को संविधान से ऊपर समझ कर प्रतिक्रिया दे रहे थे। हर आंदोलन में अतिरेक के कुछ नारे लग जाते हैं। जंतर-मंतर पर भी लग गए। मगर नेता लोग इतने डर गए जैसे सभी उन्हें खत्म करने ही आ रहे हैं। सब नेता चोर हैं। यह जुमला पहली बार जंतर-मंतर पर तो नहीं कहा गया। पहले भी कई बार कहा जा चुका है। क्या रघुवंश प्रसाद सिंह जैसे ज्ञानी नेता जब किसी राजनीतिक दल पर आरोप लगाते हैं तो यह कहते हैं कि पूरी बीजेपी सांप्रदायिक नहीं है। सिर्फ नरेंद्र मोदी हैं। कांग्रेस में कई लोग ईमानदार हैं मगर हम सिर्फ टू जी को लेकर सुरेश कलमाडी का विरोध कर रहे हैं। रघुवंश प्रसाद सिंह नहीं कहते हैं। वो भी सरलीकरण और सामान्यीकरण करते हैं। सिम्पलीफिकेशन और जनरलाइज़ेशन। सब नेता चोर नहीं हैं मगर नेता लोग चोर तो हो ही गए हैं। रघुवंश प्रसाद सिंह ने कभी आरजेडी में रहते हुए लालू प्रसाद यादव पर लगे आरोपों की सार्वजनिक आलोचना नहीं की। क्या वो अब यह कह रहे हैं कि आरजेडी मे वही ईमानदार हैं लालू नहीं। अगर सब नेता चोर नहीं हैं तो कौन-कौन हैं,इतना ही बता दें। वे तो उसी आरजेडी का हिस्सा बने रहे जिसे जनता ने भ्रष्टाचार के चलते दो-दो बार रिजेक्ट किया। मेरे एक मित्र जब फोन पर यह बात कह रहे थे तो मैं सोच रहा था कि रघुवंश बाबू को किस बात का डर पैदा हो गया है। जब वो ईमानदार हैं तो जंतर-मंतर पर क्यों नहीं आए। यह क्यो नहीं कहा कि ऐसे प्रयासों का समर्थन करता हूं। मैं जंतर-मंतर नहीं जाऊंगा पर भ्रष्टाचार के खिलाफ किसी भी तरह का स्थायी-अस्थायी मानस बने उसे सराहता हूं। इतना कहने से रघुवंश बाबू को किसने रोका था। मुझे हैरानी हुई कि इस जन सैलाब से वही नेता क्यों डर गया जो खुद को ईमानदार समझता है। वो जिन ईमानदार अफसरों और नेताओं की वकालत कर रहे थे उनको किसने रोका था कि भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई में शामिल होने से या फिर उनको किसने कहा कि जंतर-मंतर से भीड़ ईमानदार अफसरों और नेताओं को मारने आ रही है। दरअसल इस आंदोलन से सरकार से ज्यादा राजनीतिक दलों को डरा दिया है। कुछ दिनों बाद यही लोग कहेंगे कि प्रतिनिधि होने का मतलब सिर्फ कांग्रेस बीजेपी का सांसद होना है। निर्दलीय सांसदों को मान्यता हासिल है तो निर्दलीय जनता को मान्यता क्यों नहीं मिल सकती?
अंग्रेजी के अखबारों और कुछ तथाकथित वरिष्ठ पत्रकारों के लेख और बहसों से गुज़र कर यही लगा कि भ्रष्टाचार के खिलाफ मानस भी नहीं बनाना चाहिए क्योंकि इससे उनकी या उनकी पसंद की सरकार को असहजता होती है। लिखने वाले किस नज़रिये से जंतर-मंतर पर आने वाली भीड़ को एक ही तराजू में तौल रहे हैं कि वो मिडिल क्लास है। उसका नक्सल और किसान आंदोलन से कोई सरोकार नहीं है। क्या कोई आंदोलन और उसमें शामिल लोग तभी सरोकार युक्त कहे जायेंगे जब वो सभी आंदोलनों और मुद्दों से जुड़े हों? क्या इसकी आलोचना इस आधार पर की जा सकती है कि अण्णा ने दिल्ली विश्वविद्यालय में ज़बरिया लागू हो रहे सेमेस्टर सिस्टम पर क्यों नहीं अनशन किया? क्या यह दलील फटीचर नहीं है कि आप तब कहां थे जब वो हो रहा था,ये हो रहा था,कहां था ये मिडिल क्लास? क्या लोगों के भीतर बन रही नागरिक सक्रियता से वाकई कुछ भी लाभ नहीं होने वाला था? तो फिर लिखने वाले तमाम मुद्दों पर क्यों लिखते हैं? उनके लिखने से समस्या समाप्त तो नहीं हो जाती। अगर मैं यह कह दूं कि भारत की हर समस्या आर्टिकल लिखने वालों को नगद भुगतान कराती है तो क्या यह सरलीकरण नहीं होगा। क्या वे फ्री में समाज सेवा के तहत अपनी राय बांटते हैं। वो कौन हैं जो अपनी राय देते हैं। क्या किसी विश्वविद्यालय ने उन्हें अखबारों में लिखने का सर्टिफिकेट दिया है? ऐसी बतकूचन से दलीलें पैदा करनी हैं तो करते रहिए।
जंतर-मंतर पर जो कुछ हुआ उसे एकतरफा नज़रिये से देखने की कोशिश हो रही है। कोई एकसूत्री फार्मूले के तहत खारिज या समर्थन करने की कोशिश की जा रही है। अण्णा के अनशन से पैदा हुई विविधताओं पर पर्दा डाला जा रहा है। कुछ तो था इस आंदोलन में कि सरकार की तरफ से मीडिया को बांधने की तमाम कोशिशें नाकाम हो गईं। अगर यह लोगों का गुबार न होता तो मीडिया एक मिनट में इस मुद्दे को सनकी कह कर खारिज कर देता। रिपोर्टर दबाव मुक्त हो गए। स्वत स्फूर्त होकर जनवादी राष्ट्रवादी और ललित निबंधवादी जुमलों में घटना को बयान करने लगे। उनके विश्लेषणों में सिर्फ उन्माद नहीं था। उनकी लाइव रिपोर्टिंग को भी कई स्तरों पर देखने की ज़रूरत है। वो हिस्टीरिया पैदा नहीं कर रहे थे। बल्कि लोगों के उत्साह के साथ रिएक्ट कर रहे थे। अगर न्यूज़ चैनल उन्माद पैदा कर रहे थे तो अखबार क्यों बैनर छाप रहे थे? आंदोलन किसी संप्रदाय के खिलाफ नहीं था। आंदोलन किसी भाषा-लिंग के खिलाफ नहीं था। आंदोलन भ्रष्टाचार के खिलाफ था जिसके निशाने पर प्रत्यक्ष रूप से सरकार और अप्रत्यक्ष रूप से बेईमान नेता थे। मीडिया भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज़ उठाता रहा है। जब लोग उठायेंगे तो वो कैसे किनारा कर लेता। उसके भी नैतिक सामाजिक अस्तित्व का सवाल था। इसलिए किसी चैनल या अखबार को हिम्मत नहीं हुई कि जंतर-मंतर के कवरेज को दूसरे तीसरे दिन ग्यारह नंबर के पेज पर गायब कर दे।
अतिरेक के एकाध-अपवादों को छोड़ दें तो जंतर-मंतर पर आने वाली भीड़ उन्मादी नहीं थी। वो आ रही थी कतारों में और घुल मिल रही थी नारों में। तमाम व्यवस्थाएं अपने आप बन गईं थीं। पुलिस ने नहीं बनाई थी। अनुशासन अपने आप बन गया। कोई एक दूसरे को हांक नहीं रहा था। लोगों ने अपने नारे खुद लिखे। फिर भी इस भीड़ को एकवर्गीय रूप दे दिया गया। मिडिल क्लास है ये तो। हद है। जब मिडिल क्लास जागता नहीं है तो आप गरियाते हैं। जब जाग जाता है तब लतियाते हैं। आंदोलन करने वाले अब यह तय कर लें कि उन्हें मिडिल क्लास का साथ नहीं चाहिए। वो इस क्लास को किसी भी जनआंदोलन में शामिल होने से रोक देंगे। जिन लोगों ने जंतर-मंतर पर आने वाली जनता को करीब से देखा है वो यह नहीं कह सकते कि इसमें एक क्लास के लोग थे।
इसमें न तो युवाओं की संख्या ज्यादा थी न बुज़ुर्गों की कम। सब थे। पुणे में पढ़ रही अपनी बेटी को एक पिता ने इसलिए
दिल्ली बुला लिया कि वो देखे और समझे कि देश के लिए क्या करना है। मालवीय नगर से एक महिला गोगल्स लगाए चली आईं। उनके हाथ में तख्ती थी। सरकारी विचारकों में भीड़ के कपड़े तक देखने शुरू कर दिये। जो उपभोक्ता है क्या वो नागरिक नहीं है? किशनगंज के नवोदय स्कूल का एक मास्टर आया जिसने नवोदय स्कूल के प्रिंसिपल के खिलाफ घोटाले उजागर किये मगर कुछ नहीं हुआ। संगम विहार के शिव विहार का एक व्यक्ति आया था। बताने लगा कि उसके यहां करप्शन बहुत है। सब लूट लिया जाता है। कोई सुविधा नहीं है। रैली में अस्थायी तीन हज़ार कंप्यूटर शिक्षकों का जत्था भी अपना बैनर लेकर आ गया। दिल्ली नगर निगर का कर्मचारी संघ भी आ गया। डिफेंस कालोनी रेजिडेंट वेलफेयर संघ भी अपना बैनर बनवा लाया था। कई लोग जो अपने-अपने शहर दफ्तर में भ्रष्टाचार को भुगत रहे थे वो भी आए थे। सब सिर्फ जनलोकपाल बिल के समर्थन में नहीं आए। सब इसलिए भी आए कि शायद उनकी अकेले की लड़ाई समूह में बदल कर ताकतवर हो जाए। कुछ असर कर जाए। एक व्यक्ति ने बताया कि उसकी कंपनी न्यूनतम वेतन नहीं दे रही थी। छह महीने से धरना कर रखा था। अनशन टूटने के एक रात पहले एलान कर दिया कि हम सब जंतर-मंतर जा रहे हैं, कंपनी ने सबकी सैलरी बढ़ा दी। ये लोग अस्थायी मज़दूर थे। अलग-अलग समस्याओं को लेकर महीनों से आंदोलन करने वाले लोग भी धरने में शामिल हो गए। इस वजह से भी अण्णा का अनशन बड़ा होता चला गया।
जिन लोगों जंतर-मंतर पर आने वाली भीड़ को सनकी और एकवर्गीय बताया है उन्हें वहां मौजूद लोगों से मिलना चाहिए था। कई आरटीआई कार्यकर्ता घोटालों की फाइलें लिये पत्रकारों को खोजने लगे। आप तो मिलते नहीं यह फाइल रख लीजिए। आपके दफ्तर चक्कर लगा आया हूं। कोई कवरेज नहीं है। देखिये तीस करोड़ का घोटाला है। एक ऑटो वाला भावुक हो गया। कहने लगा कि सरकार हमको मुर्दा समझती है। चोर बनाने के लिए मजबूर करती है। तंग आकर उसने आटो चलाना छोड़ दिया। गुड़गांव से सेना के ब्रिगेडियर स्तर के रिटायर अफसर चले आए। कहने लगे कि एक सिपाही के नाते आ गया हूं। रोक नहीं सका। भीड़ में मुझसे एक अफसर माइक छिनने लगे। पूछा कि आप कौन है। जवाब मिला कि मैं कस्टम विभाग में चीफ कमिश्नर रहा हूं। रिटायर हो गया हूं। मेरे ख्याल में करप्शन को लेकर इस तरह का पब्लिक ओपिनियन बहुत ज़रूरी है। जिन लोगों ने टीवी पर इसकी कवरेज देखकर लेख लिखकर खारिज किया है उनसे चूक हुई है। जंतर मंतर पर भोजन के स्टॉल वाले ने बताया कि पचीस साल में ऐसी भीड़ नहीं देखी। स्कूल के बच्चे आ रहे हैं। उनके टीचर आ रहे हैं। वो भी चाहते हैं कि उनके बच्चे ऐसे सरोकारों से जुड़ने का अभ्यास करें। एक तरह से यह प्रदर्शन कई लोगों के लिए अभ्यास मैच भी था। अहिंसक चरित्र होने के कारण बड़ी संख्या में गृहणियां आ गईं। कुछ महिलाओं ने आंचल से मुंह ढांक लिया। मेरे एक मित्र ने बताया कि वे अण्णा के पास गईं। समर्थन दे आईं। मीडिया जब फोटू खींचने लगी तो कहने लगी कि हम लोग मिनिस्ट्री में काम करते हैं। फोटू मत लीजिए। नौकरी चली जाएगी।
किस आधार पर इसे मिडिल क्लासवाली आंदोलन कहा जा रहा है। जंतर-मंतर को पेज थ्री कहने वाले लोग इस बात से हिल गए हैं कि उनके मुद्दे पर हर कोई बोलने लिखने लगेगा तो उनकी दुकान न बंद हो जाए। कचरा बिनने वालों का संगठन भी समर्थन करने आ गया। आने वालों की प्रोफाइल का कोई एक रंग तो था नहीं। मगर देखने वालों को सब एक ही रंग में दिख रहे हैं क्योंकि यह दलील सरकार के मैनजरों को सही लगती हैं। वे खुश होते हैं। क्योंकि अण्णा के अनशन ने जंतर-मंतर पर होने वाले धरनों में जान डाल दी है। अब उन्हें डर सता रहा होगा कि सब इस तरह से अनशन करने लगे तो क्या होगा? सब क्यों न करें। अगर सिस्टम सालों तक आदमी और संगठन को टहलाता रहे। क्या सिस्टम का कोई आदमी जंतर-मंतर पर महीनों से धरने पर बैठे लोगों से बात करने भी जाता है? उनके साथ न्याय न हो रहा हो तो क्या करें। जो लोग यह सवाल पूछ रहे कि क्या लोकपाल बिल से भ्रष्टाचार खत्म हो जाएगा दरअसल ये वो लोग हैं जो किसी भी रैली या दलीलों में शामिल एलिमेंट की तरह यह पूछने लगता कि इससे क्या होगा? दुनिया में अन्याय खत्म हो जाएगा। चले हैं दुनिया को बदलने। हें..हूं थू। बोलेगा रे। बस हो गई मारपीट।
अण्णा का अनशन एक उत्सव में भी बदल गया। कई लोग एक दूसरे का फोटू खींचने लगे। टीवी पत्रकारों के आटोग्राफ लेने लगे। उनके साथ फोटो खिंचाने लगे। पानी की कुछ कंपनियों ने हजार-हज़ार बोतल फ्री में बांटनी शुरू कर दी। हवन होने लगे। एक एनजीओ आदिवासियों को ले आया उनका नृत्य होने लगा। प्रभात फेरी निकलने लगी। कई लोग तुरंत कविता और शेर लिखकर रिपोर्टर को देने लगे कि मेरा वाला पढ़ दीजिए। बहुत सारे गुमनाम अखबार अपना एडिशन बांटने लगे। कई संगठन अपना पैम्फलेट बांटने लगे। आरएसएस वाले भी बांट रहे थे। यह सब भी हो रहा था मगर यह सब आंदोलन के मूल चरित्र के केंद्र में नहीं हो रहा था। हाशिये पर ऐसी बहुत सी हास्यास्पद और नाटकीय चीज़े हो रही थीं। इंडिया गेट के आइसक्रीम वाले जंतर-मंतर आ गए। यह तो होता ही है। राजनीतिक दलों की रैलियों में भी इस तरह की दुकानें सज जाती हैं। तो इसके आधार पर अण्णा के अनशन को खारिज कर देंगे।
ऐसी बात नहीं है कि जंतर-मंतर के धरने को लेकर अहसमतियों की गुज़ाइश नहीं है। इसमें शामिल कई लोगों पर विचारधारा के स्तर से सवाल उठाये जा सकते हैं। अण्णा हज़ारे ने भी कहा कि मंच से वहीं बोले जिनका चरित्र अच्छा हो। इस आंदोलन में वही आएं जिनका कैरेक्टर हो। उन्होंने कहा कि आरएसएस और बीजेपी से संबंध नहीं है फिर भी उमा भारती को फोन कर बुला लिया। राम माधव आ गए। मेरी राय में वैचारिक आधार नहीं तो स्पष्टता होनी चाहिए। तब यह सवाल उठ सकता है कि क्या हर आंदोलन का वैचारिक आधार होना ज़रूरी है। क्या हर लड़ाई इस खेमे और उस खेमे में ही बंट कर होगी। मंच पर मौजूद संघ और कुछ संत समुदाय से जुड़े लोगों को लेकर मेरी असहमति रही है। लेकिन यह आंदोलन भ्रष्टाचार को मिटाने के लिए एक कानूनी हथियार हासिल करने के लिए था। अच्छा हुआ अनुपम खेर और बाबा रामदेव आंदोलन को हाईजैक नहीं कर सके। हमारा देश समाज और सिस्टम दोनों स्तर पर व्यापक रूप से भ्रष्ट है। उन घरों में लोग टीवी से ज़रूर उकता गए होंगे जहां रिश्वत का पैसा आता होगा। दलाली करने वाले पत्रकारों को भी कष्ट हो रहा होगा। हालांकि इस आंदोलन से अहसमति रखने वाले सभी दलाल नहीं कहे जा सकते लेकिन यह बात मेरे मन में उठ रही थी कि घूसखोर कैसे अपने परिवार के साथ जंतर-मंतर से सीधा प्रसारण देख रहा होगा।
राजनीतिक दलों के विरोध पर सवाल करने का मन करता है कि आज आप बड़े हो गए हैं। कई सांसद और विधायक हैं। आपने अलग ही दल क्यों बनाया? कांग्रेस में ही शामिल हो जाते। जिस सिविल सोसायटी को आप खारिज कर रहे हैं, चुनाव लड़ने की चुनौती दे रहे हैं क्या आपकी हालत वैसी नहीं थी जब आपने राजनीतिक दल की स्थापनी की थी। क्या लोकतंत्र में सिर्फ राजनीतिक दलों को ही मान्यता हासिल है? किस आधार पर यह कह रहे हैं कि अण्णा की लड़ाई राजनीतिक नहीं है। राजनीतिक भ्रष्टाचार के खिलाफ कोई भी लड़ाई राजनीतिक ही होगी। आगे जा कर यह लड़ाई कहां जाएगी कौन जानता है। किस नतीजे पर पहुंचेगी किसने देखा है। नतीजा तय कर लड़ाई की शुरूआत नहीं होती। वैसे सरकार के मान लेने के बाद जीत तो हो ही गई। सरकार में हिम्मत होती तो कह देती कि हम अण्णा के ब्लैकमेल से मजबूर होकर उनका प्रस्ताव मान रहे हैं। उसने क्यों कहा कि यह लोकतंत्र की जीत है। सरकार और सिविल सोसायटी को मिलकर काम करना होगा। क्या सरकार ने सिविल सोसायटी को मान्यता नहीं दे दी। बल्कि देनी पड़ी है। अनशन को ब्लैकमेल लिखकर अंग्रेजी के लेखक भाग लिये। वो अब इतिहास भी बदल दें और गांधी को ब्लैकमेलर कह दें। किसी आंदोलन में कमियां नहीं होतीं मगर क्या अण्णा के आंदोलन के मूल उद्देश्य में भी कमी है? क्या हमें भ्रष्टाचार के खिलाफ नहीं लड़ना चाहिए? बस इतना ही कह सकता हूं। दो लोग हैं इस वक्त। एक जिसने जंतर-मंतर देखा है और दूसरा जिसने नहीं देखा है। जंतर-मंतर अब अण्णा के अनशन का पर्याय बन चुका है। जिनको अंट-शंट बकना है बकें। मगर असहमतियों को ध्यान से सुना जाना चाहिए। ताकि आगे से ऐसे नागरिक आंदोलनों को चलाने से पहले कुछ सावधानियां बरत ली जाएं।
चालीस साल से कई दलों की सरकारें लोकपाल बिल को लेकर जनता को ब्लैक मेल कर रही थीं,ठीक वैसे जैसे महिला आरक्षण विधेयक को लेकर करती रही हैं। कोई यह बताएगा कि महिला आरक्षण बिल राजनीतिक संवैधानिक प्रक्रिया के चलते दबा हुआ है या पास न करने की मंशा के चलते। लोकतंत्र में संविधान के तहत सरकार द्वारा बनाई गईं संस्थाएं क्या अमर हैं? क्या हम कभी सीबीआई का विकल्प नहीं सोच सकते हैं? मुंबई हमले के बाद एनआईए क्या है? सीबीआई के रहते सीवीसी का गठन क्यों किया गया?क्या सीवीसी के रहते भ्रष्टाचार हमेशा के लिए ख़त्म हो गया? अगर नहीं हुआ है तो सीवीसी क्यों हैं? भ्रष्टाचार खत्म नहीं हुआ तो क्या अब इसके खिलाफ होने वाली हर लड़ाई को मूर्खतापूर्ण कहा जाएगा? तो क्या अब से भ्रष्टाचार पर नहीं लिखा जाएगा? क्या भ्रष्टाचार के नहीं खत्म होने से उसे एक संस्था के रूप में स्वीकार किया जा रहा है? ख़त्म नहीं हो सकता तो लड़ना क्यों हैं। भ्रष्टाचार का सरलीकरण क्या है? भ्रष्टाचार को जटिल बताने का मकसद क्या है? जटिल है तभी तो एक जटिल संस्था की मांग हो रही है जिसके पास अधिकार हो। जिन्होंने अण्णा के अनशन को भ्रष्टाचार का सरलीकरण कहा है,वो कहना क्या चाहते हैं? जंतर-मंतर में आई जनता भ्रष्टाचार से त्रस्त रही है। उसे नाच गाने,बैनर-पोस्टर के बहाने भ्रष्ट तंत्र को मुंह चिढ़ाने का भी मौका मिला जिसे देखकर कई लोग सरलीकरण बता रहे हैं। काश आम लोगों की परेशानी को कोई समझ पाता।
अण्णा हज़ारे के अनशन पर राजनीतिक दल खुद को संविधान से ऊपर समझ कर प्रतिक्रिया दे रहे थे। हर आंदोलन में अतिरेक के कुछ नारे लग जाते हैं। जंतर-मंतर पर भी लग गए। मगर नेता लोग इतने डर गए जैसे सभी उन्हें खत्म करने ही आ रहे हैं। सब नेता चोर हैं। यह जुमला पहली बार जंतर-मंतर पर तो नहीं कहा गया। पहले भी कई बार कहा जा चुका है। क्या रघुवंश प्रसाद सिंह जैसे ज्ञानी नेता जब किसी राजनीतिक दल पर आरोप लगाते हैं तो यह कहते हैं कि पूरी बीजेपी सांप्रदायिक नहीं है। सिर्फ नरेंद्र मोदी हैं। कांग्रेस में कई लोग ईमानदार हैं मगर हम सिर्फ टू जी को लेकर सुरेश कलमाडी का विरोध कर रहे हैं। रघुवंश प्रसाद सिंह नहीं कहते हैं। वो भी सरलीकरण और सामान्यीकरण करते हैं। सिम्पलीफिकेशन और जनरलाइज़ेशन। सब नेता चोर नहीं हैं मगर नेता लोग चोर तो हो ही गए हैं। रघुवंश प्रसाद सिंह ने कभी आरजेडी में रहते हुए लालू प्रसाद यादव पर लगे आरोपों की सार्वजनिक आलोचना नहीं की। क्या वो अब यह कह रहे हैं कि आरजेडी मे वही ईमानदार हैं लालू नहीं। अगर सब नेता चोर नहीं हैं तो कौन-कौन हैं,इतना ही बता दें। वे तो उसी आरजेडी का हिस्सा बने रहे जिसे जनता ने भ्रष्टाचार के चलते दो-दो बार रिजेक्ट किया। मेरे एक मित्र जब फोन पर यह बात कह रहे थे तो मैं सोच रहा था कि रघुवंश बाबू को किस बात का डर पैदा हो गया है। जब वो ईमानदार हैं तो जंतर-मंतर पर क्यों नहीं आए। यह क्यो नहीं कहा कि ऐसे प्रयासों का समर्थन करता हूं। मैं जंतर-मंतर नहीं जाऊंगा पर भ्रष्टाचार के खिलाफ किसी भी तरह का स्थायी-अस्थायी मानस बने उसे सराहता हूं। इतना कहने से रघुवंश बाबू को किसने रोका था। मुझे हैरानी हुई कि इस जन सैलाब से वही नेता क्यों डर गया जो खुद को ईमानदार समझता है। वो जिन ईमानदार अफसरों और नेताओं की वकालत कर रहे थे उनको किसने रोका था कि भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई में शामिल होने से या फिर उनको किसने कहा कि जंतर-मंतर से भीड़ ईमानदार अफसरों और नेताओं को मारने आ रही है। दरअसल इस आंदोलन से सरकार से ज्यादा राजनीतिक दलों को डरा दिया है। कुछ दिनों बाद यही लोग कहेंगे कि प्रतिनिधि होने का मतलब सिर्फ कांग्रेस बीजेपी का सांसद होना है। निर्दलीय सांसदों को मान्यता हासिल है तो निर्दलीय जनता को मान्यता क्यों नहीं मिल सकती?
अंग्रेजी के अखबारों और कुछ तथाकथित वरिष्ठ पत्रकारों के लेख और बहसों से गुज़र कर यही लगा कि भ्रष्टाचार के खिलाफ मानस भी नहीं बनाना चाहिए क्योंकि इससे उनकी या उनकी पसंद की सरकार को असहजता होती है। लिखने वाले किस नज़रिये से जंतर-मंतर पर आने वाली भीड़ को एक ही तराजू में तौल रहे हैं कि वो मिडिल क्लास है। उसका नक्सल और किसान आंदोलन से कोई सरोकार नहीं है। क्या कोई आंदोलन और उसमें शामिल लोग तभी सरोकार युक्त कहे जायेंगे जब वो सभी आंदोलनों और मुद्दों से जुड़े हों? क्या इसकी आलोचना इस आधार पर की जा सकती है कि अण्णा ने दिल्ली विश्वविद्यालय में ज़बरिया लागू हो रहे सेमेस्टर सिस्टम पर क्यों नहीं अनशन किया? क्या यह दलील फटीचर नहीं है कि आप तब कहां थे जब वो हो रहा था,ये हो रहा था,कहां था ये मिडिल क्लास? क्या लोगों के भीतर बन रही नागरिक सक्रियता से वाकई कुछ भी लाभ नहीं होने वाला था? तो फिर लिखने वाले तमाम मुद्दों पर क्यों लिखते हैं? उनके लिखने से समस्या समाप्त तो नहीं हो जाती। अगर मैं यह कह दूं कि भारत की हर समस्या आर्टिकल लिखने वालों को नगद भुगतान कराती है तो क्या यह सरलीकरण नहीं होगा। क्या वे फ्री में समाज सेवा के तहत अपनी राय बांटते हैं। वो कौन हैं जो अपनी राय देते हैं। क्या किसी विश्वविद्यालय ने उन्हें अखबारों में लिखने का सर्टिफिकेट दिया है? ऐसी बतकूचन से दलीलें पैदा करनी हैं तो करते रहिए।
जंतर-मंतर पर जो कुछ हुआ उसे एकतरफा नज़रिये से देखने की कोशिश हो रही है। कोई एकसूत्री फार्मूले के तहत खारिज या समर्थन करने की कोशिश की जा रही है। अण्णा के अनशन से पैदा हुई विविधताओं पर पर्दा डाला जा रहा है। कुछ तो था इस आंदोलन में कि सरकार की तरफ से मीडिया को बांधने की तमाम कोशिशें नाकाम हो गईं। अगर यह लोगों का गुबार न होता तो मीडिया एक मिनट में इस मुद्दे को सनकी कह कर खारिज कर देता। रिपोर्टर दबाव मुक्त हो गए। स्वत स्फूर्त होकर जनवादी राष्ट्रवादी और ललित निबंधवादी जुमलों में घटना को बयान करने लगे। उनके विश्लेषणों में सिर्फ उन्माद नहीं था। उनकी लाइव रिपोर्टिंग को भी कई स्तरों पर देखने की ज़रूरत है। वो हिस्टीरिया पैदा नहीं कर रहे थे। बल्कि लोगों के उत्साह के साथ रिएक्ट कर रहे थे। अगर न्यूज़ चैनल उन्माद पैदा कर रहे थे तो अखबार क्यों बैनर छाप रहे थे? आंदोलन किसी संप्रदाय के खिलाफ नहीं था। आंदोलन किसी भाषा-लिंग के खिलाफ नहीं था। आंदोलन भ्रष्टाचार के खिलाफ था जिसके निशाने पर प्रत्यक्ष रूप से सरकार और अप्रत्यक्ष रूप से बेईमान नेता थे। मीडिया भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज़ उठाता रहा है। जब लोग उठायेंगे तो वो कैसे किनारा कर लेता। उसके भी नैतिक सामाजिक अस्तित्व का सवाल था। इसलिए किसी चैनल या अखबार को हिम्मत नहीं हुई कि जंतर-मंतर के कवरेज को दूसरे तीसरे दिन ग्यारह नंबर के पेज पर गायब कर दे।
अतिरेक के एकाध-अपवादों को छोड़ दें तो जंतर-मंतर पर आने वाली भीड़ उन्मादी नहीं थी। वो आ रही थी कतारों में और घुल मिल रही थी नारों में। तमाम व्यवस्थाएं अपने आप बन गईं थीं। पुलिस ने नहीं बनाई थी। अनुशासन अपने आप बन गया। कोई एक दूसरे को हांक नहीं रहा था। लोगों ने अपने नारे खुद लिखे। फिर भी इस भीड़ को एकवर्गीय रूप दे दिया गया। मिडिल क्लास है ये तो। हद है। जब मिडिल क्लास जागता नहीं है तो आप गरियाते हैं। जब जाग जाता है तब लतियाते हैं। आंदोलन करने वाले अब यह तय कर लें कि उन्हें मिडिल क्लास का साथ नहीं चाहिए। वो इस क्लास को किसी भी जनआंदोलन में शामिल होने से रोक देंगे। जिन लोगों ने जंतर-मंतर पर आने वाली जनता को करीब से देखा है वो यह नहीं कह सकते कि इसमें एक क्लास के लोग थे।
इसमें न तो युवाओं की संख्या ज्यादा थी न बुज़ुर्गों की कम। सब थे। पुणे में पढ़ रही अपनी बेटी को एक पिता ने इसलिए
दिल्ली बुला लिया कि वो देखे और समझे कि देश के लिए क्या करना है। मालवीय नगर से एक महिला गोगल्स लगाए चली आईं। उनके हाथ में तख्ती थी। सरकारी विचारकों में भीड़ के कपड़े तक देखने शुरू कर दिये। जो उपभोक्ता है क्या वो नागरिक नहीं है? किशनगंज के नवोदय स्कूल का एक मास्टर आया जिसने नवोदय स्कूल के प्रिंसिपल के खिलाफ घोटाले उजागर किये मगर कुछ नहीं हुआ। संगम विहार के शिव विहार का एक व्यक्ति आया था। बताने लगा कि उसके यहां करप्शन बहुत है। सब लूट लिया जाता है। कोई सुविधा नहीं है। रैली में अस्थायी तीन हज़ार कंप्यूटर शिक्षकों का जत्था भी अपना बैनर लेकर आ गया। दिल्ली नगर निगर का कर्मचारी संघ भी आ गया। डिफेंस कालोनी रेजिडेंट वेलफेयर संघ भी अपना बैनर बनवा लाया था। कई लोग जो अपने-अपने शहर दफ्तर में भ्रष्टाचार को भुगत रहे थे वो भी आए थे। सब सिर्फ जनलोकपाल बिल के समर्थन में नहीं आए। सब इसलिए भी आए कि शायद उनकी अकेले की लड़ाई समूह में बदल कर ताकतवर हो जाए। कुछ असर कर जाए। एक व्यक्ति ने बताया कि उसकी कंपनी न्यूनतम वेतन नहीं दे रही थी। छह महीने से धरना कर रखा था। अनशन टूटने के एक रात पहले एलान कर दिया कि हम सब जंतर-मंतर जा रहे हैं, कंपनी ने सबकी सैलरी बढ़ा दी। ये लोग अस्थायी मज़दूर थे। अलग-अलग समस्याओं को लेकर महीनों से आंदोलन करने वाले लोग भी धरने में शामिल हो गए। इस वजह से भी अण्णा का अनशन बड़ा होता चला गया।
जिन लोगों जंतर-मंतर पर आने वाली भीड़ को सनकी और एकवर्गीय बताया है उन्हें वहां मौजूद लोगों से मिलना चाहिए था। कई आरटीआई कार्यकर्ता घोटालों की फाइलें लिये पत्रकारों को खोजने लगे। आप तो मिलते नहीं यह फाइल रख लीजिए। आपके दफ्तर चक्कर लगा आया हूं। कोई कवरेज नहीं है। देखिये तीस करोड़ का घोटाला है। एक ऑटो वाला भावुक हो गया। कहने लगा कि सरकार हमको मुर्दा समझती है। चोर बनाने के लिए मजबूर करती है। तंग आकर उसने आटो चलाना छोड़ दिया। गुड़गांव से सेना के ब्रिगेडियर स्तर के रिटायर अफसर चले आए। कहने लगे कि एक सिपाही के नाते आ गया हूं। रोक नहीं सका। भीड़ में मुझसे एक अफसर माइक छिनने लगे। पूछा कि आप कौन है। जवाब मिला कि मैं कस्टम विभाग में चीफ कमिश्नर रहा हूं। रिटायर हो गया हूं। मेरे ख्याल में करप्शन को लेकर इस तरह का पब्लिक ओपिनियन बहुत ज़रूरी है। जिन लोगों ने टीवी पर इसकी कवरेज देखकर लेख लिखकर खारिज किया है उनसे चूक हुई है। जंतर मंतर पर भोजन के स्टॉल वाले ने बताया कि पचीस साल में ऐसी भीड़ नहीं देखी। स्कूल के बच्चे आ रहे हैं। उनके टीचर आ रहे हैं। वो भी चाहते हैं कि उनके बच्चे ऐसे सरोकारों से जुड़ने का अभ्यास करें। एक तरह से यह प्रदर्शन कई लोगों के लिए अभ्यास मैच भी था। अहिंसक चरित्र होने के कारण बड़ी संख्या में गृहणियां आ गईं। कुछ महिलाओं ने आंचल से मुंह ढांक लिया। मेरे एक मित्र ने बताया कि वे अण्णा के पास गईं। समर्थन दे आईं। मीडिया जब फोटू खींचने लगी तो कहने लगी कि हम लोग मिनिस्ट्री में काम करते हैं। फोटू मत लीजिए। नौकरी चली जाएगी।
किस आधार पर इसे मिडिल क्लासवाली आंदोलन कहा जा रहा है। जंतर-मंतर को पेज थ्री कहने वाले लोग इस बात से हिल गए हैं कि उनके मुद्दे पर हर कोई बोलने लिखने लगेगा तो उनकी दुकान न बंद हो जाए। कचरा बिनने वालों का संगठन भी समर्थन करने आ गया। आने वालों की प्रोफाइल का कोई एक रंग तो था नहीं। मगर देखने वालों को सब एक ही रंग में दिख रहे हैं क्योंकि यह दलील सरकार के मैनजरों को सही लगती हैं। वे खुश होते हैं। क्योंकि अण्णा के अनशन ने जंतर-मंतर पर होने वाले धरनों में जान डाल दी है। अब उन्हें डर सता रहा होगा कि सब इस तरह से अनशन करने लगे तो क्या होगा? सब क्यों न करें। अगर सिस्टम सालों तक आदमी और संगठन को टहलाता रहे। क्या सिस्टम का कोई आदमी जंतर-मंतर पर महीनों से धरने पर बैठे लोगों से बात करने भी जाता है? उनके साथ न्याय न हो रहा हो तो क्या करें। जो लोग यह सवाल पूछ रहे कि क्या लोकपाल बिल से भ्रष्टाचार खत्म हो जाएगा दरअसल ये वो लोग हैं जो किसी भी रैली या दलीलों में शामिल एलिमेंट की तरह यह पूछने लगता कि इससे क्या होगा? दुनिया में अन्याय खत्म हो जाएगा। चले हैं दुनिया को बदलने। हें..हूं थू। बोलेगा रे। बस हो गई मारपीट।
अण्णा का अनशन एक उत्सव में भी बदल गया। कई लोग एक दूसरे का फोटू खींचने लगे। टीवी पत्रकारों के आटोग्राफ लेने लगे। उनके साथ फोटो खिंचाने लगे। पानी की कुछ कंपनियों ने हजार-हज़ार बोतल फ्री में बांटनी शुरू कर दी। हवन होने लगे। एक एनजीओ आदिवासियों को ले आया उनका नृत्य होने लगा। प्रभात फेरी निकलने लगी। कई लोग तुरंत कविता और शेर लिखकर रिपोर्टर को देने लगे कि मेरा वाला पढ़ दीजिए। बहुत सारे गुमनाम अखबार अपना एडिशन बांटने लगे। कई संगठन अपना पैम्फलेट बांटने लगे। आरएसएस वाले भी बांट रहे थे। यह सब भी हो रहा था मगर यह सब आंदोलन के मूल चरित्र के केंद्र में नहीं हो रहा था। हाशिये पर ऐसी बहुत सी हास्यास्पद और नाटकीय चीज़े हो रही थीं। इंडिया गेट के आइसक्रीम वाले जंतर-मंतर आ गए। यह तो होता ही है। राजनीतिक दलों की रैलियों में भी इस तरह की दुकानें सज जाती हैं। तो इसके आधार पर अण्णा के अनशन को खारिज कर देंगे।
ऐसी बात नहीं है कि जंतर-मंतर के धरने को लेकर अहसमतियों की गुज़ाइश नहीं है। इसमें शामिल कई लोगों पर विचारधारा के स्तर से सवाल उठाये जा सकते हैं। अण्णा हज़ारे ने भी कहा कि मंच से वहीं बोले जिनका चरित्र अच्छा हो। इस आंदोलन में वही आएं जिनका कैरेक्टर हो। उन्होंने कहा कि आरएसएस और बीजेपी से संबंध नहीं है फिर भी उमा भारती को फोन कर बुला लिया। राम माधव आ गए। मेरी राय में वैचारिक आधार नहीं तो स्पष्टता होनी चाहिए। तब यह सवाल उठ सकता है कि क्या हर आंदोलन का वैचारिक आधार होना ज़रूरी है। क्या हर लड़ाई इस खेमे और उस खेमे में ही बंट कर होगी। मंच पर मौजूद संघ और कुछ संत समुदाय से जुड़े लोगों को लेकर मेरी असहमति रही है। लेकिन यह आंदोलन भ्रष्टाचार को मिटाने के लिए एक कानूनी हथियार हासिल करने के लिए था। अच्छा हुआ अनुपम खेर और बाबा रामदेव आंदोलन को हाईजैक नहीं कर सके। हमारा देश समाज और सिस्टम दोनों स्तर पर व्यापक रूप से भ्रष्ट है। उन घरों में लोग टीवी से ज़रूर उकता गए होंगे जहां रिश्वत का पैसा आता होगा। दलाली करने वाले पत्रकारों को भी कष्ट हो रहा होगा। हालांकि इस आंदोलन से अहसमति रखने वाले सभी दलाल नहीं कहे जा सकते लेकिन यह बात मेरे मन में उठ रही थी कि घूसखोर कैसे अपने परिवार के साथ जंतर-मंतर से सीधा प्रसारण देख रहा होगा।
राजनीतिक दलों के विरोध पर सवाल करने का मन करता है कि आज आप बड़े हो गए हैं। कई सांसद और विधायक हैं। आपने अलग ही दल क्यों बनाया? कांग्रेस में ही शामिल हो जाते। जिस सिविल सोसायटी को आप खारिज कर रहे हैं, चुनाव लड़ने की चुनौती दे रहे हैं क्या आपकी हालत वैसी नहीं थी जब आपने राजनीतिक दल की स्थापनी की थी। क्या लोकतंत्र में सिर्फ राजनीतिक दलों को ही मान्यता हासिल है? किस आधार पर यह कह रहे हैं कि अण्णा की लड़ाई राजनीतिक नहीं है। राजनीतिक भ्रष्टाचार के खिलाफ कोई भी लड़ाई राजनीतिक ही होगी। आगे जा कर यह लड़ाई कहां जाएगी कौन जानता है। किस नतीजे पर पहुंचेगी किसने देखा है। नतीजा तय कर लड़ाई की शुरूआत नहीं होती। वैसे सरकार के मान लेने के बाद जीत तो हो ही गई। सरकार में हिम्मत होती तो कह देती कि हम अण्णा के ब्लैकमेल से मजबूर होकर उनका प्रस्ताव मान रहे हैं। उसने क्यों कहा कि यह लोकतंत्र की जीत है। सरकार और सिविल सोसायटी को मिलकर काम करना होगा। क्या सरकार ने सिविल सोसायटी को मान्यता नहीं दे दी। बल्कि देनी पड़ी है। अनशन को ब्लैकमेल लिखकर अंग्रेजी के लेखक भाग लिये। वो अब इतिहास भी बदल दें और गांधी को ब्लैकमेलर कह दें। किसी आंदोलन में कमियां नहीं होतीं मगर क्या अण्णा के आंदोलन के मूल उद्देश्य में भी कमी है? क्या हमें भ्रष्टाचार के खिलाफ नहीं लड़ना चाहिए? बस इतना ही कह सकता हूं। दो लोग हैं इस वक्त। एक जिसने जंतर-मंतर देखा है और दूसरा जिसने नहीं देखा है। जंतर-मंतर अब अण्णा के अनशन का पर्याय बन चुका है। जिनको अंट-शंट बकना है बकें। मगर असहमतियों को ध्यान से सुना जाना चाहिए। ताकि आगे से ऐसे नागरिक आंदोलनों को चलाने से पहले कुछ सावधानियां बरत ली जाएं।
राष्ट्रवाद का पल्प फिक्शन-क्रिकेट
(दोस्तों, यह लेख भारत-पाक मैच के तत्वाधान में लिखा गया था। जो कि अमर उजाला के ज़िंदगी लाइव पेज पर प्रकाशित हुआ। दिन रविवार का था। साभार अमर उजाला का है,लेखक कस्बा वाला ही है। यूनिकोड में विग्यापन को सही कैसे लिखें, इसकी जानकारी है आपको तो बतायें)
क्रिकेट राष्ट्रवाद का पल्प फिक्शन है। जिसे हम लुगदी साहित्य भी कहते हैं। एक ऐसा साहित्य जिसमें कोई शिल्प नहीं है। कोई कला नहीं है। कल्पना की असीमित उड़ान है। लुगदी साहित्य का सस्ता बाज़ार कहीं से भी किसी को भी किरदार बनाकर राष्ट्रवाद की जर्सी में मैदान में भेज देता है। मैं उससे इत्तफाक नहीं रखता जो भारत पाकिस्तान के बीच होने वाले मैच में रास्ट्रवाद को क्लासिकल रूप में देखता है। यहां राष्ट्रवाद प्रहसन है। हास्य है। होली की तरह दोनों पक्ष एक दूसरे का मज़ाक उड़ा रहे हैं,छेड़ रहे हैं और आंखों से लेकर तन के कण-कण में गुलाल मल रहे हैं। जहां मुल्कों के आपसी संबंध मैच के मोहताज़ हो जाएं वहां समझ लेना चाहिए अब के दौर में तनाव के ऐसे क्षण महज़ दिखावे ही हैं। इस दिखावे का अपना जुनून और बाज़ार है।
असली युद्ध में हार-जीत की बड़ी कीमत होती है। दुनिया की नज़र होती है। हथियार होते हुए भी इस्तमाल नहीं हो सकते। लिहाज़ा भारत और पाकिस्तान के बीच के संबंधों के तनाव के मंचन के लिए क्रिकेट का मैदान लोकमंच बन जाता है। जहां युद्ध के तमाम भावों के कृत्रिम प्रसंग बनाए जाने लगते हैं। मोहाली में भारत और पाकिस्तान के बीच जो भी हुआ वह पहले भी हो चुका था। मीडिया में युद्ध का अपभ्रंश ऑस्ट्रेलिया के साथ हुए मुकाबले में भी बनाया गया। फर्क यही है कि पाकिस्तान के साथ हुए मैच का मंचन पहले के मुकाबलों की तुलना में कहीं ज़्यादा भव्य और शर्मनाक दोनों रहा लेकिन यह कोई पहली बार तो नहीं हुआ। फर्क यही रहा कि इस बार तनाव का दिखावा ज्यादा रहा।
मी़डिया ने युद्ध की तमाम उपमाओं को बंदूक और बम की तरह खर्च कर दिया। इस तरह से जैसे दुश्मन की सेना के सामने होने के अंदाज़े भर से तमाम कारतूस खाली कर दिए गए। इसके आस-पास का एक मुहावरा भी है। अंधेरे में तीर चलाना। क्रिकेट को ऐसे गायब कर दिया गया जैसे मुल्क में सिपाही की ज़रूरत नहीं खिलाड़ी की है। महायुद्ध, महाविनाश, आतंकवाद का बदला, सचिन है एक सौ एटम बम के बराबर। कोई शोधकर्ता मीडिया की युद्ध संबंधी उपमाओं का विश्लेषण करेगा तो पाएगा कि युद्ध के हथियारों के बारे में उसकी जानकारी कितनी कम है। कम से कम विविधता नहीं है। किसी खिलाड़ी की तुलना सी हैरियर या युद्ध पोत से नहीं की गई है। मिसाईल,बम और परमाणु बम बस। इन विशेषणों में वायु सेना और नौ सेना के हथियारों को जगह नहीं मिली है।
सेमिफाइनल को लेकर कृत्रिम उन्माद इसलिए भी दिखा क्योंकि भारत और पाकिस्तान की जनता मूल रूप से क्रिकेट में दिलचस्पी रखती ही है। क्रिकेट उसके जीवन का हिस्सा है। उन्माद एक किस्म का तड़का है। इसलिए इसे गंभीरता से लेने की ज़रूरत नहीं। मुंबई हमले के बाद उन्माद फैलाने की मीडिया की कोशिशों पर लगाम लगाने के लिए कई तरह के गाइडलाइन्स भी बनी। हैरानी इस बात की है कि क्रिकेट मैच के दौरान के ऐसे उन्मादों पर लगाम लगाने की कोई कोशिश क्यों नहीं हुई। शायद इस वजह से कि मुंबई हमले के वक्त का गुस्सा और मोहाली के मैच के समय का जुनून दोनों में फर्क है। एक में नफरत थी तो दूसरे में नफरत का स्वांग। फिर भी उन्माद पर लगाम लगाने की कोशिश हो सकती थी। जिस तरह से चैनलों और एफएम रेडियो पर लतीफे और ताने सुनाए जा रहे थे वो सार्वजनिक सूचना के मंचों का काम नहीं होना चाहिए था। इससे पता चलता है कि एक मुल्क के रूप में हमारी परिपक्वता भारत महान की ब्रांडिंग से आगे नहीं जा सकी है। बल्कि मेरा भारत महान की ब्रांडिग को नुकसान भी पहुंचाती है।
क्रिकेट का मैच भारत पाकिस्तान के तनाव भरे रिश्तों के बीच मध्यांतर की तरह है। जिस मैच में दोनों मुल्क एक दूसरे को कुचल देने की सस्ती ख्वाहिशें पालती हैं उसी मैच के ज़रिये रिश्ते को सुधारने की भी संभावनाएं खोजी जाने लगती हैं। यह विरोधाभास नहीं है तो क्या है। इतना ज़रूर है कि क्रिकेट के ज़रिये दोनों देशों के बीच संवाद के रास्ते खुल जाते हैं। जब बंद होते हैं तब भी भारत के करोड़ों क्रिकेट प्रेमी देसी न्यूज़ चैनलों के दफ्तर में बैठे पाकिस्तान के महान खिलाड़ी ज़हीर अब्बास, इमरान ख़ान,वसीम अकरम की टिप्पणियों का आनंद लेते रहते हैं। ये क्रिकेट और क्रिकेट प्रेमियों की पेशवराना परिपक्वता है। तब तो कोई उन्माद नहीं फैलाता कि जिस इमारन और अकरम की जोड़ी ने कई बार भारतीयों को कुचला है उसे स्टुडियो से भगाओ। बल्कि लाखों क्रिकेट प्रेमी उनकी बातों को क्रिकेट के लिहाज़ से सुनते हैं। उन्हें अपना समझते हैं। इसलिए आम क्रिकेट प्रेमी इस तरह के उन्माद का हिस्सा तभी बनता है जब कृत्रिम रूप से बनाने की कोशिश की जाती है ताकि उस उन्माद के सहारे बाज़ार और विग्यापन का खेल खेला जा सके।
क्रिकेट को लेकर राजनय और राजनीति में फर्क करना चाहिए। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने सेमिफाइनल के लिए पाकिस्तान के राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री को आमंत्रित कर एक राजनीतिक पासा फेंका। एक ऐसे वक्त में जब मनमोहन सिंह पर आरोप लग रहे थे कि विदेश नीति के मामलों में कमज़ोर साबित हो रहे हैं, उन्होंने विपक्ष को जवाब भी दिया और मैच देखने के बहाने एक संदेश भी दिया कि भारत पाकिस्तान के साथ बातचीत की प्रक्रिया को आगे बढ़ाना चाहता है। मगर जब राजनयिक आपस में बात करेंगे तो ज़ाहिर है वहां क्रिकेट के स्कोर की चर्चा नहीं होगी। बातचीत की मेज़ पर इस बात का भी फर्क नहीं पड़ेगा कि मोहाली में किसने किसको हराया। मुंबई हमले के बाद अंतर्राष्ट्रीय दबावों के बाद भी पाकिस्तान में हमले के आरोपियों के खिलाफ कार्रवाई नहीं की। आतंकवाद पर आज भी उसका नज़रिया बहुत साफ और भरोसा का नहीं है। क्या यह सब क्रिकेट के मैदान के ज़रिये बदल सकता है? क्या कभी ऐसा हो सकेगा कि मैच के नतीजे का असर कश्मीर की समस्या पर पड़ेगा? किसी राजनयिक से पूछेंगे तो मुस्करा देगा।
वैसे भी भारत और पाकिस्तान की टीमों के कप्तान ने एक बार भी नहीं कहा कि हां यह मैच जीतना ज़रूरी है ताकि दोनों देशों की बातचीत की प्रक्रिया आगे बढ़ सके। हम जीतेंगे तो बातचीत की मेज़ पर हमारे प्रधानमंत्री का पलड़ा भारी रहेगा। दोनों के बयान क्रिकेट तक ही सीमित हैं। वो क्रिकेट के दायरे में ही एक दूसरे को चुनौती देते रहे। मीडिया है कि उसे उठाकर कश्मीर से लेकर मुंबई तक के मामले में लपेटे जा रहा था। तनाव का ऐसा रोचक और विहंगम उत्सव देखने को नहीं मिला होगा। मोहाली का महायुद्ध आईसीसी के नियमों के तहत ही खेला गया न कि भारत पाकिस्तान के रिश्तों की ज़रूरतों के मुताबिक। नागपुर में कप्तान धोनी के बयान को याद रखना चाहिए। खिलाड़ी देश के लिए खेंले न कि गैलरी के लिए। ताली बजाने वाले और हो हल्ला करने वालों से पैदा होने वाले जुनून से मैच की किस्मत तय नहीं होती। सेमिफाइनल के बाद लतीफे, युद्ध की उपमाएं वैसे ही सड़कों पर बिखरे मिलेंगे जैसे मतदान के बाद चुनाव के पोस्टर और झंडियां।
क्रिकेट राष्ट्रवाद का पल्प फिक्शन है। जिसे हम लुगदी साहित्य भी कहते हैं। एक ऐसा साहित्य जिसमें कोई शिल्प नहीं है। कोई कला नहीं है। कल्पना की असीमित उड़ान है। लुगदी साहित्य का सस्ता बाज़ार कहीं से भी किसी को भी किरदार बनाकर राष्ट्रवाद की जर्सी में मैदान में भेज देता है। मैं उससे इत्तफाक नहीं रखता जो भारत पाकिस्तान के बीच होने वाले मैच में रास्ट्रवाद को क्लासिकल रूप में देखता है। यहां राष्ट्रवाद प्रहसन है। हास्य है। होली की तरह दोनों पक्ष एक दूसरे का मज़ाक उड़ा रहे हैं,छेड़ रहे हैं और आंखों से लेकर तन के कण-कण में गुलाल मल रहे हैं। जहां मुल्कों के आपसी संबंध मैच के मोहताज़ हो जाएं वहां समझ लेना चाहिए अब के दौर में तनाव के ऐसे क्षण महज़ दिखावे ही हैं। इस दिखावे का अपना जुनून और बाज़ार है।
असली युद्ध में हार-जीत की बड़ी कीमत होती है। दुनिया की नज़र होती है। हथियार होते हुए भी इस्तमाल नहीं हो सकते। लिहाज़ा भारत और पाकिस्तान के बीच के संबंधों के तनाव के मंचन के लिए क्रिकेट का मैदान लोकमंच बन जाता है। जहां युद्ध के तमाम भावों के कृत्रिम प्रसंग बनाए जाने लगते हैं। मोहाली में भारत और पाकिस्तान के बीच जो भी हुआ वह पहले भी हो चुका था। मीडिया में युद्ध का अपभ्रंश ऑस्ट्रेलिया के साथ हुए मुकाबले में भी बनाया गया। फर्क यही है कि पाकिस्तान के साथ हुए मैच का मंचन पहले के मुकाबलों की तुलना में कहीं ज़्यादा भव्य और शर्मनाक दोनों रहा लेकिन यह कोई पहली बार तो नहीं हुआ। फर्क यही रहा कि इस बार तनाव का दिखावा ज्यादा रहा।
मी़डिया ने युद्ध की तमाम उपमाओं को बंदूक और बम की तरह खर्च कर दिया। इस तरह से जैसे दुश्मन की सेना के सामने होने के अंदाज़े भर से तमाम कारतूस खाली कर दिए गए। इसके आस-पास का एक मुहावरा भी है। अंधेरे में तीर चलाना। क्रिकेट को ऐसे गायब कर दिया गया जैसे मुल्क में सिपाही की ज़रूरत नहीं खिलाड़ी की है। महायुद्ध, महाविनाश, आतंकवाद का बदला, सचिन है एक सौ एटम बम के बराबर। कोई शोधकर्ता मीडिया की युद्ध संबंधी उपमाओं का विश्लेषण करेगा तो पाएगा कि युद्ध के हथियारों के बारे में उसकी जानकारी कितनी कम है। कम से कम विविधता नहीं है। किसी खिलाड़ी की तुलना सी हैरियर या युद्ध पोत से नहीं की गई है। मिसाईल,बम और परमाणु बम बस। इन विशेषणों में वायु सेना और नौ सेना के हथियारों को जगह नहीं मिली है।
सेमिफाइनल को लेकर कृत्रिम उन्माद इसलिए भी दिखा क्योंकि भारत और पाकिस्तान की जनता मूल रूप से क्रिकेट में दिलचस्पी रखती ही है। क्रिकेट उसके जीवन का हिस्सा है। उन्माद एक किस्म का तड़का है। इसलिए इसे गंभीरता से लेने की ज़रूरत नहीं। मुंबई हमले के बाद उन्माद फैलाने की मीडिया की कोशिशों पर लगाम लगाने के लिए कई तरह के गाइडलाइन्स भी बनी। हैरानी इस बात की है कि क्रिकेट मैच के दौरान के ऐसे उन्मादों पर लगाम लगाने की कोई कोशिश क्यों नहीं हुई। शायद इस वजह से कि मुंबई हमले के वक्त का गुस्सा और मोहाली के मैच के समय का जुनून दोनों में फर्क है। एक में नफरत थी तो दूसरे में नफरत का स्वांग। फिर भी उन्माद पर लगाम लगाने की कोशिश हो सकती थी। जिस तरह से चैनलों और एफएम रेडियो पर लतीफे और ताने सुनाए जा रहे थे वो सार्वजनिक सूचना के मंचों का काम नहीं होना चाहिए था। इससे पता चलता है कि एक मुल्क के रूप में हमारी परिपक्वता भारत महान की ब्रांडिंग से आगे नहीं जा सकी है। बल्कि मेरा भारत महान की ब्रांडिग को नुकसान भी पहुंचाती है।
क्रिकेट का मैच भारत पाकिस्तान के तनाव भरे रिश्तों के बीच मध्यांतर की तरह है। जिस मैच में दोनों मुल्क एक दूसरे को कुचल देने की सस्ती ख्वाहिशें पालती हैं उसी मैच के ज़रिये रिश्ते को सुधारने की भी संभावनाएं खोजी जाने लगती हैं। यह विरोधाभास नहीं है तो क्या है। इतना ज़रूर है कि क्रिकेट के ज़रिये दोनों देशों के बीच संवाद के रास्ते खुल जाते हैं। जब बंद होते हैं तब भी भारत के करोड़ों क्रिकेट प्रेमी देसी न्यूज़ चैनलों के दफ्तर में बैठे पाकिस्तान के महान खिलाड़ी ज़हीर अब्बास, इमरान ख़ान,वसीम अकरम की टिप्पणियों का आनंद लेते रहते हैं। ये क्रिकेट और क्रिकेट प्रेमियों की पेशवराना परिपक्वता है। तब तो कोई उन्माद नहीं फैलाता कि जिस इमारन और अकरम की जोड़ी ने कई बार भारतीयों को कुचला है उसे स्टुडियो से भगाओ। बल्कि लाखों क्रिकेट प्रेमी उनकी बातों को क्रिकेट के लिहाज़ से सुनते हैं। उन्हें अपना समझते हैं। इसलिए आम क्रिकेट प्रेमी इस तरह के उन्माद का हिस्सा तभी बनता है जब कृत्रिम रूप से बनाने की कोशिश की जाती है ताकि उस उन्माद के सहारे बाज़ार और विग्यापन का खेल खेला जा सके।
क्रिकेट को लेकर राजनय और राजनीति में फर्क करना चाहिए। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने सेमिफाइनल के लिए पाकिस्तान के राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री को आमंत्रित कर एक राजनीतिक पासा फेंका। एक ऐसे वक्त में जब मनमोहन सिंह पर आरोप लग रहे थे कि विदेश नीति के मामलों में कमज़ोर साबित हो रहे हैं, उन्होंने विपक्ष को जवाब भी दिया और मैच देखने के बहाने एक संदेश भी दिया कि भारत पाकिस्तान के साथ बातचीत की प्रक्रिया को आगे बढ़ाना चाहता है। मगर जब राजनयिक आपस में बात करेंगे तो ज़ाहिर है वहां क्रिकेट के स्कोर की चर्चा नहीं होगी। बातचीत की मेज़ पर इस बात का भी फर्क नहीं पड़ेगा कि मोहाली में किसने किसको हराया। मुंबई हमले के बाद अंतर्राष्ट्रीय दबावों के बाद भी पाकिस्तान में हमले के आरोपियों के खिलाफ कार्रवाई नहीं की। आतंकवाद पर आज भी उसका नज़रिया बहुत साफ और भरोसा का नहीं है। क्या यह सब क्रिकेट के मैदान के ज़रिये बदल सकता है? क्या कभी ऐसा हो सकेगा कि मैच के नतीजे का असर कश्मीर की समस्या पर पड़ेगा? किसी राजनयिक से पूछेंगे तो मुस्करा देगा।
वैसे भी भारत और पाकिस्तान की टीमों के कप्तान ने एक बार भी नहीं कहा कि हां यह मैच जीतना ज़रूरी है ताकि दोनों देशों की बातचीत की प्रक्रिया आगे बढ़ सके। हम जीतेंगे तो बातचीत की मेज़ पर हमारे प्रधानमंत्री का पलड़ा भारी रहेगा। दोनों के बयान क्रिकेट तक ही सीमित हैं। वो क्रिकेट के दायरे में ही एक दूसरे को चुनौती देते रहे। मीडिया है कि उसे उठाकर कश्मीर से लेकर मुंबई तक के मामले में लपेटे जा रहा था। तनाव का ऐसा रोचक और विहंगम उत्सव देखने को नहीं मिला होगा। मोहाली का महायुद्ध आईसीसी के नियमों के तहत ही खेला गया न कि भारत पाकिस्तान के रिश्तों की ज़रूरतों के मुताबिक। नागपुर में कप्तान धोनी के बयान को याद रखना चाहिए। खिलाड़ी देश के लिए खेंले न कि गैलरी के लिए। ताली बजाने वाले और हो हल्ला करने वालों से पैदा होने वाले जुनून से मैच की किस्मत तय नहीं होती। सेमिफाइनल के बाद लतीफे, युद्ध की उपमाएं वैसे ही सड़कों पर बिखरे मिलेंगे जैसे मतदान के बाद चुनाव के पोस्टर और झंडियां।
एक कमज़ोर क्रिकेटप्रेमी की आत्मकथा।
मैं एक कमज़ोर प्रधान इंसान हूं। घबराहट से ओत-प्रोत। अपनी इसी ख़ूबी और मैच फिक्सिंग से आहत होने के कारण क्रिकेट देखना छोड़ दिया। बचपना में टीम इंडिया का कप्तान बनने की ख़्वाहिश रखने वाला मैं कभी तीन गेंद लगातार नहीं फेंक सका। तीनों गेंद पिच की बजाय तीनों स्लिप से बाहर जाती और मेरे मुंह से झाग निकलने के बाद कपार झन्नाने लगता। बहुत रो-धो के एकाध मैच में खेलने का मौका मिला भी तो इस वजह से कैच नहीं लिया कि ड्यूज़ बॉल से हाथ फट जाएगा। इस गुस्से में एक फिल्डर ने एक थाप लगा भी दिया। थाप चांटा का लघुक्रोधित वर्ज़न है। लेकिन टीवी पर टीम इंडिया को खेलते देख किसी कामयाब खिलाड़ी का प्रतिरूप बन हमेशा मैच का आनंद उठाता रहा। सिर्फ जीत के क्षणों में। हारती टीम से इतनी घबराहट होती थी कि मैच देखना बंद कर देते था। कमरे से निकल कर गली में घूमने लगता था। तमाम तरह के देवी देवताओं की झलकियां भी आंखों के सामने से गुज़र जाती थीं। उनके निष्क्रिय होने से भक्ति में कमी आने लगी। क्रिकेट से दूर होता चला गया। इसीलिए क्रिकेट के बारे में मैं उतना ही जानता हूं जितना फिज़िक्स और बॉटनी के बारे में।
मुझे अपनी इस कमज़ोरी पर नाज़ है। मगर तनाव के क्षणों में धीर-गंभीर होने या होने का अभिनय करने वाले तमाम वीरों और वीरांगनाओं से ईर्ष्या ज़रूर होती है। ऐसा लगता है कि जीवन की उपलब्धियां उन्हीं की धरोहर हैं। उनका कितना स्वतंत्र व्यक्तित्व है। मैं धारा में बहता हूं और वो धारा को बनाते या मोड़ते हैं। मानता हूं कि जीवन मे कुछ करने के लिए इस टाइप की बाज़ारू ख़ूबियां होनी ही चाहिएं लेकिन क्या मेरे जैसे कमज़ोर आदमी के लिए कोई सोशल सिक्योरिटी स्कीम नहीं होनी चाहिए। इसीलिए हैरानी होती है कि यहां तक जीवन कैसे जी गया। जो कर रहा हूं वो कैसे हो रहा है। बिना घबराहट के ख़ुद को समझना मुश्किल है।
ऐसे कमज़ोर और पूर्वकालिक क्रिकेट प्रेमी को जनसत्ता के संपादक ओम थानवी जी ने घर बुला लिया मैच देखने। सप्तनीक
अविनाश,सुर,सप्तनीक समरेंद्र,बेपत्नीक मिहिर और विनीत कुमार के बीच मैं अपनी पत्नी के न आने पर अकेला मौजूद रहा। विशालकाय होम थियेटर पर फाइनल। शानदार माहौल में मैच देखते हुए एक बार हिन्दी ग्रंथी कुलमुला उठी और महसूस करने लगी कि कुलीनता हिन्दी का स्वाभाविक लक्षण है। हम हमेशा संघर्ष मोड में नहीं रहते। मनोरंजन और शौक को भी महत्व देते हैं। हम सिर्फ रचनावलियों के संग्रह नहीं ख़रीदते,क्रिकेट भी देखते हैं। तभी इतने इंतज़ाम और ठाठ से मैच देखने जमा हुए। इसके बाद भी मैच के दौरान कई बार ऐसा लगा कि आज इंडिया और मेरा दोनों का फाइनल हो जाएगा। श्रीलंका की टीम बल्लेबाज़ी कर रही थी। भारत के गेंदबाज़ विकेट ले रहे थे मगर रन नहीं रोक पा रहे थे। क्षेत्ररक्षण में हम अच्छा कर रहे थे। मगर श्रीलंका के स्कोर ने मुझे विकट परिस्थिति में डाल दिया। घबराहट का एन्जाइम निकल पड़ा। मुझे क्रिकेट और अपनी कमज़ोरी दोनों में से एक को चुनना था। साफ था कि मैं बार-बार अपनी कोमज़ोरी के पक्ष में झुकने लगा। सेमिफाइनल की तरह मैच बीच में छोड़ कर भागने की घोषणा करने लगा।
सहवाग का विकेट मेरे सामने नहीं गिरा। सचिन का गिर गया। धड़कनें ऐसी उखड़ीं कि जान निकलने लगी। थाणवी जी के घर जमा सभी साथी धीर-गंभीर वीर लग रहे थे। अब वक्त आ गया था कि अपनी कमज़ोरी का एलान कर दूं। ताकि कुछ हो गया तो इन्हें सनद रहे कि ज़िला अस्पताल जाना है या एस्कार्ट्स हार्ट इंस्टिट्यूट। जब भी मैं भागने का एलान करता और सब चुप करा देते। बैठिये बैठिये,कहां जाइयेगा। अच्छा नहीं लग रहा था। टीम इंडिया दबाव में आ रही थी और मैं तनाव में। लगा कि इस महफिल में अकेला कमज़ोर मैं ही हूं।
तभी कैमरा घूमा और मूर्छितावस्था में पड़ी नीता अंबानी और होश उड़ाये आमिर ख़ान की तरफ गया। इन्हें देखकर हौसला बढ़ा। हम तीनों में एक उभयनिष्ठ लक्षण का पता चल चुका था। मेरी तरह तीनों दबाव और तनाव के क्षणों में एक साधारण और कमज़ोर दर्शक इंसान की तरह बर्ताव कर रहे थे। लगा कि पांच लाख करोड़ वाली नीता अंबानी को किसी चीज़ की कमी नहीं है। वो भी मेरी तरह मूर्छित हैं। साधारण टेलरिंग वाली कमीज़ पहने मुकेश अंबानी को देख कर लगा कि लाख करोड़ कमाने के बाद भी मोहम्मद जेन्ट्स टेलर की सिली हुई कमीज़ में मुकेश गांव के चाचा की तरह लग रहे थे। कॉलर बटन वाली नीली कमीज़ में मुकेश अंबानी ने स्टार वाले चश्मे नहीं पहने थे। वे मेरे बाकी मित्रों जैसे थे। गंभीर और जीत के लिए प्रतिक्षारत। मैं कमज़ोर और तनाव से त्रस्त भागरत। मुकेश अंबानी साधारण कमीज़ में असाधारण लग रहे थे। मगर उनकी पत्नी नीता असाधारण कपड़ों में साधारण लग रही थीं। वो भी तनाव नहीं झेल पा रही थीं और मैं भी नहीं झेल पा रहा था। जब नीता अंबानी,आमिर और उनकी पत्नी किरण राव खुश होते,मैं भी खुश हो जाता। वे दुखी तो मैं दुखी। क्लास डिफरेंस होने के बाद भी इमोशन समानता।
मुझे लगा कि महान भारत में कमज़ोर लोगों की भी कमी नहीं है। मैं बॉल दर बॉल मैच देखने के लिए विवश था। जैसे वे लोग अपने लाखों रुपये के स्टैंड छोड़ कर नहीं जा सकते थे वैसे ही मैं मित्रों के दबाव में उठकर नहीं जा सका। रिज़ल्ट निकलता है तो एक फेलियर अपने जैसा फेलियर को देख शक्ति प्राप्त करता है। उसे टॉपर से प्रेरणा नहीं मिलती। फेल करने वाले से मिलती है। मुझे नीता अंबानी से प्रेरणा मिली। जो वो जी सकती हैं तो मैं क्यों नहीं। वैसे एक बार कमरे से निकल टहलने ज़रूर चला गया। कोहली का विकेट गिरा तो लगा कि बेहोश हो जाऊंगा। उस कमेंटेटर पर गुस्सा आ गया जिसने थोड़ी देर पहले कहा था कि गंभीर और कोहली ने पारी संभाल ली है।
मैं हिंसक हो उठा। दसों उंगलियों के पोर पर पनपे नाखूनों को कतरने लगा। हर गेंद,हर विकेट के बाद कोई न कोई नाखून बिना आवाज़ किये दातों तले छिल जाता था। बेचैनियां बढ़तीं जा रही थीं। दोस्तों को एसएमएस करने लगा ताकि महफिल में बैठे खेलप्रेमी वीरपुरुषों और वीरांगनाओं से दूर जा सकूं। कपार के दोनों साइड बटन यानी टेम्पल पर कुछ महसूस हो रहा था। बेचैनी और नोचनी में फर्क मिट गया। धक-धक-धक। गो की बजाय स्टॉप हो जाता तो ग़ज़ब हो जाता। यही कहने लगा कि अब जो इस मैच को देख रहा है वह सही में खेल प्रेमी है। उसमें धीरज है कि वो हार या चुनौतीपूर्ण क्षणों में भी मैच देखे। मैं सिर्फ विजयी होने पर ताली बजाने वाला दर्शक हूं। ख़ैर मैच देखता गया। गंभीर और धोनी ने कमाल करना शुरू कर दिया। हर चौके पर तनाव काफूर होने लगा। रूह आफज़ा सी तरावट महसूस होने लगी।
जीत का क्षण नज़दीक आ गया। इतिहास बनने वाला था और मैं बिना विश्वविद्यालय के मान्यताप्राप्त इतिहासकार बनने जा रहा था। इस मैच को मैंने भी देखा है। बॉल दर बॉल। तनाव के बाद भी टिका रहा जैसी टिकी रही टीम इंडिया। पहली बार ख़ुद को असाधारण होने का अहसास हो रहा था। लगा कि तनाव झेल सकता हूं। बस एक बार टीम इंडिया की कप्तानी मिल जाए। कमज़ोर लोग ऐसे ही जीते हैं। एक-एक सीढ़ी चढ़ते हैं। घुलटते हैं फिर चढ़ जाते हैं। भारत के विश्वविजयी होते ही मैं धन्य हो गया। अपने डर,घबराहट और आशंकाओं में इतना डूब गया था कि जीतने के वक्त आंसू निकले ही नहीं। काश मैं सचिन की तरह रो पाता।
शाम की समाप्ति बेहद स्वादिष्ठ राजस्थानी व्यंजनों से हुई। सांगरी सब्ज़ी की ख़ूबियों पर थानवी जी के अल्प-प्रवचन के साथ। हम सब अपने-अपने घर लौट आए। रास्ते में लोगों ने घेर लिया। एक ने कहा कार का शीशा नीचे कीजिए। बोला कि भाभी का ख्याल रखना और भर पेट खाना। टीम इंडिया जीती है। मीडिया वालों तुमको भी बधाई। तभी भीड़ में एक मीडिया वाला भाई आया। सर मैं फलाने टीवी में काम करता हूं। आपसे मिलूंगा। प्लीज़ सर। याद रखियेगा। मेरा नाम...। कोई बात नहीं हम भी यही करते थे। सोचा काश इंडिया के जीतते ही सबको पसंद की नौकरी मिल जाती,सैलरी मिल जाती। मुझे रवीश की रिपोर्ट का कोई नया आइडिया मिल जाता।
शनिवार की पूरी शाम मैंने समर्पित कर दी है। थानवी जी की पत्नी के नाम। जिनकी मेहमाननवाज़ी की वजह से मेरे जैसा कमज़ोर इंसान मैच देख सका। वो तमाम क्षणों में सामान्य रहीं। थानवी जी की चाय याद रहेगी। लिकर टी की वजह से रक्त पतला होता रहा और थक्के न जमने के कारण ह्रदयाघात की आशंका मिट गई। काश मैं भी मज़बूत और महान होता। ख़ैर। टीम इंडिया की जीत पर सबको बधाई। कस्बा की तरफ से।
मुझे अपनी इस कमज़ोरी पर नाज़ है। मगर तनाव के क्षणों में धीर-गंभीर होने या होने का अभिनय करने वाले तमाम वीरों और वीरांगनाओं से ईर्ष्या ज़रूर होती है। ऐसा लगता है कि जीवन की उपलब्धियां उन्हीं की धरोहर हैं। उनका कितना स्वतंत्र व्यक्तित्व है। मैं धारा में बहता हूं और वो धारा को बनाते या मोड़ते हैं। मानता हूं कि जीवन मे कुछ करने के लिए इस टाइप की बाज़ारू ख़ूबियां होनी ही चाहिएं लेकिन क्या मेरे जैसे कमज़ोर आदमी के लिए कोई सोशल सिक्योरिटी स्कीम नहीं होनी चाहिए। इसीलिए हैरानी होती है कि यहां तक जीवन कैसे जी गया। जो कर रहा हूं वो कैसे हो रहा है। बिना घबराहट के ख़ुद को समझना मुश्किल है।
ऐसे कमज़ोर और पूर्वकालिक क्रिकेट प्रेमी को जनसत्ता के संपादक ओम थानवी जी ने घर बुला लिया मैच देखने। सप्तनीक
अविनाश,सुर,सप्तनीक समरेंद्र,बेपत्नीक मिहिर और विनीत कुमार के बीच मैं अपनी पत्नी के न आने पर अकेला मौजूद रहा। विशालकाय होम थियेटर पर फाइनल। शानदार माहौल में मैच देखते हुए एक बार हिन्दी ग्रंथी कुलमुला उठी और महसूस करने लगी कि कुलीनता हिन्दी का स्वाभाविक लक्षण है। हम हमेशा संघर्ष मोड में नहीं रहते। मनोरंजन और शौक को भी महत्व देते हैं। हम सिर्फ रचनावलियों के संग्रह नहीं ख़रीदते,क्रिकेट भी देखते हैं। तभी इतने इंतज़ाम और ठाठ से मैच देखने जमा हुए। इसके बाद भी मैच के दौरान कई बार ऐसा लगा कि आज इंडिया और मेरा दोनों का फाइनल हो जाएगा। श्रीलंका की टीम बल्लेबाज़ी कर रही थी। भारत के गेंदबाज़ विकेट ले रहे थे मगर रन नहीं रोक पा रहे थे। क्षेत्ररक्षण में हम अच्छा कर रहे थे। मगर श्रीलंका के स्कोर ने मुझे विकट परिस्थिति में डाल दिया। घबराहट का एन्जाइम निकल पड़ा। मुझे क्रिकेट और अपनी कमज़ोरी दोनों में से एक को चुनना था। साफ था कि मैं बार-बार अपनी कोमज़ोरी के पक्ष में झुकने लगा। सेमिफाइनल की तरह मैच बीच में छोड़ कर भागने की घोषणा करने लगा।
सहवाग का विकेट मेरे सामने नहीं गिरा। सचिन का गिर गया। धड़कनें ऐसी उखड़ीं कि जान निकलने लगी। थाणवी जी के घर जमा सभी साथी धीर-गंभीर वीर लग रहे थे। अब वक्त आ गया था कि अपनी कमज़ोरी का एलान कर दूं। ताकि कुछ हो गया तो इन्हें सनद रहे कि ज़िला अस्पताल जाना है या एस्कार्ट्स हार्ट इंस्टिट्यूट। जब भी मैं भागने का एलान करता और सब चुप करा देते। बैठिये बैठिये,कहां जाइयेगा। अच्छा नहीं लग रहा था। टीम इंडिया दबाव में आ रही थी और मैं तनाव में। लगा कि इस महफिल में अकेला कमज़ोर मैं ही हूं।
तभी कैमरा घूमा और मूर्छितावस्था में पड़ी नीता अंबानी और होश उड़ाये आमिर ख़ान की तरफ गया। इन्हें देखकर हौसला बढ़ा। हम तीनों में एक उभयनिष्ठ लक्षण का पता चल चुका था। मेरी तरह तीनों दबाव और तनाव के क्षणों में एक साधारण और कमज़ोर दर्शक इंसान की तरह बर्ताव कर रहे थे। लगा कि पांच लाख करोड़ वाली नीता अंबानी को किसी चीज़ की कमी नहीं है। वो भी मेरी तरह मूर्छित हैं। साधारण टेलरिंग वाली कमीज़ पहने मुकेश अंबानी को देख कर लगा कि लाख करोड़ कमाने के बाद भी मोहम्मद जेन्ट्स टेलर की सिली हुई कमीज़ में मुकेश गांव के चाचा की तरह लग रहे थे। कॉलर बटन वाली नीली कमीज़ में मुकेश अंबानी ने स्टार वाले चश्मे नहीं पहने थे। वे मेरे बाकी मित्रों जैसे थे। गंभीर और जीत के लिए प्रतिक्षारत। मैं कमज़ोर और तनाव से त्रस्त भागरत। मुकेश अंबानी साधारण कमीज़ में असाधारण लग रहे थे। मगर उनकी पत्नी नीता असाधारण कपड़ों में साधारण लग रही थीं। वो भी तनाव नहीं झेल पा रही थीं और मैं भी नहीं झेल पा रहा था। जब नीता अंबानी,आमिर और उनकी पत्नी किरण राव खुश होते,मैं भी खुश हो जाता। वे दुखी तो मैं दुखी। क्लास डिफरेंस होने के बाद भी इमोशन समानता।
मुझे लगा कि महान भारत में कमज़ोर लोगों की भी कमी नहीं है। मैं बॉल दर बॉल मैच देखने के लिए विवश था। जैसे वे लोग अपने लाखों रुपये के स्टैंड छोड़ कर नहीं जा सकते थे वैसे ही मैं मित्रों के दबाव में उठकर नहीं जा सका। रिज़ल्ट निकलता है तो एक फेलियर अपने जैसा फेलियर को देख शक्ति प्राप्त करता है। उसे टॉपर से प्रेरणा नहीं मिलती। फेल करने वाले से मिलती है। मुझे नीता अंबानी से प्रेरणा मिली। जो वो जी सकती हैं तो मैं क्यों नहीं। वैसे एक बार कमरे से निकल टहलने ज़रूर चला गया। कोहली का विकेट गिरा तो लगा कि बेहोश हो जाऊंगा। उस कमेंटेटर पर गुस्सा आ गया जिसने थोड़ी देर पहले कहा था कि गंभीर और कोहली ने पारी संभाल ली है।
मैं हिंसक हो उठा। दसों उंगलियों के पोर पर पनपे नाखूनों को कतरने लगा। हर गेंद,हर विकेट के बाद कोई न कोई नाखून बिना आवाज़ किये दातों तले छिल जाता था। बेचैनियां बढ़तीं जा रही थीं। दोस्तों को एसएमएस करने लगा ताकि महफिल में बैठे खेलप्रेमी वीरपुरुषों और वीरांगनाओं से दूर जा सकूं। कपार के दोनों साइड बटन यानी टेम्पल पर कुछ महसूस हो रहा था। बेचैनी और नोचनी में फर्क मिट गया। धक-धक-धक। गो की बजाय स्टॉप हो जाता तो ग़ज़ब हो जाता। यही कहने लगा कि अब जो इस मैच को देख रहा है वह सही में खेल प्रेमी है। उसमें धीरज है कि वो हार या चुनौतीपूर्ण क्षणों में भी मैच देखे। मैं सिर्फ विजयी होने पर ताली बजाने वाला दर्शक हूं। ख़ैर मैच देखता गया। गंभीर और धोनी ने कमाल करना शुरू कर दिया। हर चौके पर तनाव काफूर होने लगा। रूह आफज़ा सी तरावट महसूस होने लगी।
जीत का क्षण नज़दीक आ गया। इतिहास बनने वाला था और मैं बिना विश्वविद्यालय के मान्यताप्राप्त इतिहासकार बनने जा रहा था। इस मैच को मैंने भी देखा है। बॉल दर बॉल। तनाव के बाद भी टिका रहा जैसी टिकी रही टीम इंडिया। पहली बार ख़ुद को असाधारण होने का अहसास हो रहा था। लगा कि तनाव झेल सकता हूं। बस एक बार टीम इंडिया की कप्तानी मिल जाए। कमज़ोर लोग ऐसे ही जीते हैं। एक-एक सीढ़ी चढ़ते हैं। घुलटते हैं फिर चढ़ जाते हैं। भारत के विश्वविजयी होते ही मैं धन्य हो गया। अपने डर,घबराहट और आशंकाओं में इतना डूब गया था कि जीतने के वक्त आंसू निकले ही नहीं। काश मैं सचिन की तरह रो पाता।
शाम की समाप्ति बेहद स्वादिष्ठ राजस्थानी व्यंजनों से हुई। सांगरी सब्ज़ी की ख़ूबियों पर थानवी जी के अल्प-प्रवचन के साथ। हम सब अपने-अपने घर लौट आए। रास्ते में लोगों ने घेर लिया। एक ने कहा कार का शीशा नीचे कीजिए। बोला कि भाभी का ख्याल रखना और भर पेट खाना। टीम इंडिया जीती है। मीडिया वालों तुमको भी बधाई। तभी भीड़ में एक मीडिया वाला भाई आया। सर मैं फलाने टीवी में काम करता हूं। आपसे मिलूंगा। प्लीज़ सर। याद रखियेगा। मेरा नाम...। कोई बात नहीं हम भी यही करते थे। सोचा काश इंडिया के जीतते ही सबको पसंद की नौकरी मिल जाती,सैलरी मिल जाती। मुझे रवीश की रिपोर्ट का कोई नया आइडिया मिल जाता।
शनिवार की पूरी शाम मैंने समर्पित कर दी है। थानवी जी की पत्नी के नाम। जिनकी मेहमाननवाज़ी की वजह से मेरे जैसा कमज़ोर इंसान मैच देख सका। वो तमाम क्षणों में सामान्य रहीं। थानवी जी की चाय याद रहेगी। लिकर टी की वजह से रक्त पतला होता रहा और थक्के न जमने के कारण ह्रदयाघात की आशंका मिट गई। काश मैं भी मज़बूत और महान होता। ख़ैर। टीम इंडिया की जीत पर सबको बधाई। कस्बा की तरफ से।
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