ऑपरेशन चक दे का कमाल

के पी एस गिल चले गए हैं। हॉकी में उनकी दो दशक की मौजूदगी और सिफर के इर्द गिर्द घूमते नतीजे। जो काम चक दे फिल्म हॉकी के लिए नहीं कर सकी,ऑपरेशन चक दे ने कर दिया। लगता है कि हॉकी का कुछ भला होगा। ऑपरेशन चक दे ने फिर से बताया है कि टीवी पत्रकारिता अपनी खोई ताकत को हासिल कर सकती है। पत्रकारिता में ही टीवी की ताकत है। इससे जुड़े पत्रकार वाकई बधाई के पात्र है। सीधा पकड़ लिया जोथिकुमार को और रास्ता दिखा दिया गिल को।

मीडिया में एक आदत है। जब दूसरे प्रतियोगी की ख़बर को दिखाते हैं या छापते हैं तो उसका नाम नहीं लेते। एक टीवी चैनल या एक दैनिक लिखते हैं। बकवास लगता है। एनडीटीवी के अंग्रेज़ी चैनल ने हमेशा की तरह बकायदा आज तक का नाम लिया। उसका श्रेय दिया गया। दर्शक और पाठक को अंधेरे में क्यों रखा जाए। क्या वे नहीं जानते होंगे कि यह किसका कमाल है। इससे तो दर्शकों की नज़र में पूरी मीडिया की विश्वसनीयता बढ़ती है और आप इस शर्मिंदगी से बच जाते हैं कि दूसरों की ख़बर दिखा तो रहे हैं लेकिन उसका नाम नहीं ले रहे।

बहरहाल आपरेशन चक दे जारी रहे। तब तक जब तक चक दे फिल्म का मकसद पूरा नहीं हो जाता। यह भी लगता है कि ख़बरों के लौटना का दौर आएगा। ज्योतिष नहीं पत्रकार ही ख़बर बतायेगा। ख़बरों का असर तो होता ही है। हाल ही में जब एनडीटीवी इंडिया के प्रसाद काथे ने लगातार दो दिन में दो अलग अलग सत्ता प्रतिष्ठानों को कार्रवाई करने पर मजबूर कर दिया। प्रसाद ने पहले एक गांव की रिपोर्ट दिखाई कि दलितों का रास्ता रोकने के लिए दबंगों ने दीवार खड़ी कर दी है। अब यह दीवार गिरा दी गई है। सिर्फ एक रिपोर्ट के दम पर। दूसरे दिन उन्होंने दिखाया कि साईं बाबा ट्रस्ट अपने नाम के मंदिरों से रायल्टी लेगा। प्रसाद की रिपोर्ट के बाद फैसला वापस हो गया। झांसी से विनोद गौतम की एक रिपोर्ट आई कि एक गरीब बाप अपनी बेटी के इलाज के लिए बेटा ही बेच दिया तो सैंकड़ों लोग उसकी मदद के लिए आगे आए। उस लड़की का मुफ्त आपरेशन हो चुका है। ख़बर का ही असर होता है। इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि टीआरपी में कौन कहां है। इसीलिए जब आज सुबह पीएसएलवी राकेट दस उपग्रहों को लेकर जा रहा था तो भारतीय अंतरिक्ष वैज्ञानिक एक इतिहास बना रहे थे। सितारों से बात करने का उनका हौसला नया मकाम हासिल कर रहा था। उसी वक्त कई चैनलों पर सितारों की दुनिया में ग्रहों नक्षत्रों का खेल दिखाया जा रहा था। ऐसा लग रहा था कि पीएसएलवी के दस उपग्रहों ने ग्रहों की दशा बिगाड़ दी है इसलिए उसके बारे में बताने से पहले ग्रहों से होने वाले नफा नुकसान की भविष्यवाणी ज़रूरी है। यही सारे किये पर पानी फेर देता है। वैसे निराश होने की ज़रूरत नहीं है। कोई भी यही कहेगा देखा हमने आपरेशन चक दे किया तभी गिल गए हैं। प्रसाद काथे भी यही सोचेंगे कि कुछ काम तो किया।

बेटियों के ब्लॉग का कमाल

इस घोर ओलचक युग में प्रशंसक भी मिलते हैं। पुरस्कार भी मिलता है। मोहल्ला के अविनाश दास को बेटियों के ब्लॉग के लिए लाडली मीडिया अवार्ड मिला है। यही पुरस्कार एनडीटीवी इंडिया के विशेष संवाददाता ब्रजमोहन सिंह को भी मिला है। अर्से से प्रिंट और टीवी से जुड़े ब्रजमोहन चुपचाप काम करने में यकीन रखते हैं। अविनाश दास के बारे में आप पाठक जानते ही हैं।
बेटियों के ब्लॉग पर मेरी भी बेटी के किस्से हैं। इसलिए मैं तो इस खुशी में शामिल हूं ही...आप सब को भी बिना पूछे शामिल करता हूं। उम्मीद करता हूं कि ब्लॉग के माध्यम से हम सब एक दूसरे के आलोचक बने रहते हुए सामाजिक राजनीतिक प्रक्रियाओं को देखने समझने का अनुभव साझा करते रहेंगे। कम से कम मेरे ब्लाग पर आए तमाम आलोचकों से मैंने बहुत कुछ सीखा है। एक बार फिर से अविनाश और ब्रजमोहन को बधाई।

आश्रम जाम का आध्यात्म- पांच

आश्रम में फंसे हुए दो घंटे हो चुके थे। घर फोन कर पत्नी को बता दिया था कि आने में देर होगी। दफ्तर भी फोन कर चुका था। रेडियो जॉकी की बातें अब कान के बगल से गुज़र रही थीं। सुनाई दे रही थीं मगर समझ नहीं आ रहा था। इतने तनाव में जाम में फंसी कारों के पीछले शीशे पर कुछ लिखा दिखाई देने लगा। सभी कारों के शीशे पर राम लिखा नज़र आया। मैं हैरान हो गया। इतने सारे राम जाम में। वो लड़की जिसे मैंने ट्रेड फेयर में टाटा की नैनो कार के बगल में नंगी टांगों के साथ देखा था वो भी जाम में फंसी थी। वो तो ट्रेड फेयर में भी फंस गई थी। शुक्र है नेता नहीं थे। चीयर्सलीडर के कपडों से बहुत पहले उसने कम कपड़ों में अपनी कमसिन अदाओं से कार को निम्न मध्यमवर्ग की आकांक्षाओं में पहुंचा दिया था। ट्रेड फेयर में नैनो कार के आने के बाद जाम लगने की आशंकाओं को यही लड़की अपनी अदाओं से खारिज कर रही थी। मैं भी आश्रम जाम की आशंका से बहुत दूर निकल आया। घूमती कार के साथ स्थायी भाव में खड़ी उस मॉडल ने बता दिया कि समस्या कार में नहीं बल्कि सरकार में है। कार नहीं ख़रीदने से भी जाम लगता रहा है। उन तमाम शहरों के चौराहों पर जहां अभी कार का आना बाकी है,वहां रिक्शे ठेले जाम लगाते हैं। दिल्ली के लोग क्यों डरें। आने दो नैनो को और आने से पहले देखने दो इन नयनों वालियों को। इनके होने से जाम का आध्यात्म कितना रोमांचक हो जाता है।

पुरानी स्मृतियों से दिमाग फारिग हुआ तो वो लड़की नज़र आने लगी। इस बार कम कपड़ों में नहीं थी। उसने रामनामी पहन लिया था। राम राम राम। अपनी कुर्ती पर अनगिनत बार राम नाम का वरण कर लिया था। घर के लिए ख़रीदे गए आशीर्वाद ब्रांड के आटे को उसने गरम बोनट पर रख दिया। ताकि भुन कर प्रसाद बन जाए। मुझे देखते ही पहचान लिया। आप तो ट्रेड फेयर में भी थे न। मैंने सर हिलाया तो बोली कि धीरज रखो। यह जाम सदियों तक चलेगा। आध्यात्म की शरण में आ जाओ। तुम भी अपनी कार के पीछे राम लिख डालो। मैंने कहा ज़रूरत नहीं है। मैं भी दुनिया को मुक्ति का मार्ग बताने वाला पत्रकार हूं। प्रेस लिखा है अपनी कार के शीशे पर। पुलिस वाला डरता है।चोर सोचता है कि चुरायें या छोड़ दें। पार्किंग वाला पैसे नहीं मांगता। प्रेस और राम की ताकत की तुलना मत करो। मेरे इस जवाब पर कार वाली मॉडल बिदक गई। कहा कि इस जाम से मुक्ति सिर्फ आध्यात्म के रास्ते मिलेगी। तुम राम की शरण में आ जाओ। कब तक जाम के सांसारिक दर्द से कराहते रहोगे। शारीरिक पीड़ा को भुला कर आध्यात्मिक शांति हासिल करो।

मैं उसके हर प्रस्ताव को खारिज कर रहा था। जाम से मुक्ति के लिए राम की शरण में नहीं जाऊंगा। ज़रूर यह कोई मज़ाक है। जंगलों में भटके राम को ट्रैफिक जाम का क्या अनुभव। लेकिन वो मॉडल ठीक कहती थी। जीवन में जाम के कारण भजन का वक्त नहीं रहा। तो क्यों न जाम में भी भजन का मार्ग अपना लें। मगर राम ही क्यों। तभी मेरी नज़र आश्रम से लगे सिद्धार्थ एक्सटेंशन की दीवार से लगे एक पोस्टर पर पड़ी। मां आनंदमयी का दिल्ली आगमन। एक ऑटो पर लिखा देखा- धन धन गुरु तेरा ही आसरा। सामने एक टाटा चार सौ सात खड़ी थी। भगवती जागरण के बाद दुर्गा, हनुमान और गणेश को लाद कर साहनी घोड़ी वाला अगले पड़ाव की ओर जाने वाला था। लेकिन जाम में फंस गया था। मूर्तियों को संभाले कारीगर भगवान पर ही तरस खा रहे थे। उनसे मांगने की बजाए कहने लगे कि प्रभु सरकार और इंजीनियर भी तो आपने ही पैदा किये हैं। फिर हमीं क्यों सरकार को गाली दें, उसे बदलें। आप भी तो कुछ कीजिए न।

इस बीच कार वाली मॉडल फिर कहने लगी, मुझे भी लगता था कि कम कपड़ों में आज़ादी है। अब सोचती हूं कि मन की आज़ादी कपड़ों में नहीं बल्कि भक्ति में है। कार हो, कम कपड़े हों और आश्रम जाम में फंस गए तो आधुनिकता गई तेल लेने। ऐसे में तो सिर्फ लिपस्टिक लगाने का ही वक्त मिलेगा। और कब तक होठों को चमकाते रहें। क्यों न भजन में मन रमा दे। और जाम की पीड़ा को भुला दें।

इस बीच कार की बोनट पर आशीर्वाद ब्रांड का आटा भुन कर प्रसाद बन चुका था। मॉडल ने सबको बांटना शुरू कर दिया। मैंने हाथ बढ़ा दिया और चरणामृत पी ली। घऱ पहुंचने से पहले आध्यात्म और आश्रम का यह रोमांस तनावों से मुक्ति देने लगा। नैनो कार की वेदना कम होने लगी। उस ट्रक पर लिखा था- शंकर तेरा सहारा। ज़माने से ट्रक वाले शंकर के सहारे गंगा तेरा पानी अमृत का जाप करते हुए शहरों को पार करते रहे हैं। आश्रम जाम से गुज़रने वाली कारों ने भी अब भगवान का सहारा ढूंढ लिया है। कार के पीछले शीशे पर राम का नाम लिख लिया है।

आश्रम जाम का रोमांस- मुलाक़ात रागदरबारी से

सड़क के कोरिडोर बनने के इस नए दौर में आश्रम फ्लाईओवर से उतरते हुए बेचैनी बढ़ती जा रही थी। जाम के इस साझा सामूहिक दर्द को अब क्यारियों में बांट दिया जाएगा। रूई की तरह सिर्फ बस वाले उड़ाने भरते निकल जाया करेंगे। बाकी लोग अपने अपने लेन में फंसे रहेंगे। सरकार की नज़र आश्रम की तरफ फिर गई तो क्या होगा। लौट रहा था दक्षिण दिल्ली के उस छोर से जहां अंबेडकरनगर, देवली गांव,खानपुर और मदनगीर के तमाम कारीगर,कामगार हरी रंग की एक शानदार सी बस में चले जा रहे थे। उनकी बस को एक सीधा और खुला रास्ता दे दिया गया है। हिंदुस्तान के मध्यमवर्ग की राजधानी दिल्ली के कारवाले कुढ़ने लगे हैं। उनकी कार के कंधे एक दूसरे से टकराने लगे हैं। बाइक और कारसाइकिल किनारे धकिया कर क्यारी में बंद कर दिये जा रहे हैं। सड़कों के इतिहास में पहली बार बस वालों से कार वाले जलभून रहे हैं। इसी लेन में अपनी कार में आने वाले पत्रकारों ने कलम निकाल ली। गियर बदलने से पहले वो ख़बर लिख दी। बीआरटी कोरिडोर को लेकर बवाल मचा दिया। उधर बसों में धक्का मुक्की खा रहे लोगों ने अपनी कमीज़ की क्रीज़ सीधी कर ली और महिलाओं ने बाल खोल दिए। रेडियो एफएम पर हंसोंड़ सुड आ गया। हैलो पार्टी पीपल, आज बस का सफर कैसा है। कहीं आप क्नॉट प्लेस की बजाए सैनिक फार्म तो नहीं जा रहे। हा हा...ही ही...करता हुआ सुड कहता है बेचारे कार वाले। तमाम बंदिशों का जीवन। सीट बेल्ट, सिगरेट नहीं, फोन नहीं, और चलो तो चींटी की तरह,एक दूसरे के पीछे। बस वाले ठीक है। लंबी बस में आगे पीछे घूम सकते है। बाय बाय पार्टी पीपल।

रागदरबारी की वो पहली पंक्ति याद आने लगी- शहर का किनारा। उसे छोड़ते ही भारतीय देहात का महासागर शुरू हो जाता था। लेखक श्रीलाल शुक्ल लिखते हैं चालू फैशन के हिसाब से ड्राइवर ने ट्रक का दाहिना दरवाज़ा खोलकर डैने की तरह फैला दिया था। इससे ट्रक की ख़ूबसूरती बढ़ गयी थी, साथ ही यह ख़तरा मिट गया था कि उसके वहां होते हुए कोई दूसरी सवारी भी सड़क के ऊपर से निकल सकती है। लेखक बता रहे हैं कि सड़क का खुलापन और ड्राइवर की दादागिरी में कैसा गहरा संबंध है। अब सड़क के कोरिडोर बनने के ज़माने में श्रीलाल शुक्ल क्या लिखेंगे पता नहीं। सोचता हुए अपनी कार का हैंडब्रेक ऑन कर दिया। लग रहा था कि श्रीलाल शुक्ल कह रहे हैं कि ऐ आश्रम जाम के लेखक देखो मुझे कितना मज़ा आ रहा है, देखकर इस जाम में कि ड्राइवर ट्रक को कैसे सहमा सहमा सा सरका रहा है। लगता नहीं कि वही ट्रक और ड्राइवर है जिस मैंने डैने फैलाये दौड़ते देखा था। भला हो इस ट्रैफिक जाम का जिसने स़ड़क पर सबको बराबर कर दिया है। क्या राजा क्या रंक सब फंसे है। अतिसुंदर। मगर बातें अतीत की हो चुकी हैं। भारत की रचना संसार में अब सड़क को खुलेपन के प्रतीक के रुप में नहीं बल्कि संकीर्ण सफर के रुप में देखने का वक्त आ गया है। हर लेखक को आश्रम जाम से गुज़रना ही होगा। बिना जाम में गए रचना में नई जान नहीं आ सकती।

आज हर शहर का अपना एक आश्रम है जहां कई दिशाओं से आने वाले लोगों की रफ्तार थम जाती है। गंगासागर जैसा लगता है। हर शाम को पास से गुज़रती सभी मॉडल की कारों को एक जगह देखकर यकीन हो जाता है कि उनकी कार का मॉडल भले ही अलग हो, जाम का दर्द एक ही है। भारतीय समाज में कार का आगमन सामाजिक गतिशीलता और हैसियत की हौसला आफ़ज़ाई करने के लिए हुआ है। सामाजिक रूप से हम आगे बढ़ चुके हैं यह बताने के लिए कार से बेहतर कोई और उपभोक्ता सामान नहीं। आपके पास घर हो और कार नहीं तो आप हैसियतवालों में शुमार नहीं होंगे। घर नहीं है लेकिन कार है तो क्या बात। मगर अब कार का मतलब गतिशील होना नहीं बल्कि कार सहित किसी जाम में गतिहीन होना हो गया है। इस बीच घंटो जाम में एक ही कार में बैठे बैठे उकता चुकी उस महबूबा को मैंने उसके प्रेमी से लड़ते हुए देख लिया। मोहब्बत में आगे बढ़ने की ज़िद से कार का दरवाज़ा खुलता है। इससे पहले कि प्रेमी स्टियरिंग छोड़ कर उसे बुलाता...पीछे खड़ी कारों ने हार्न बजा कर
कार सरकाने के लिए मजबूर कर दिया। लेकिन बगल की सीट से उतर चुकी महबूबा की कोई मजबूरी नहीं थी। वो मोहब्बत के इस घुटन से आज़ाद हो चुकी थी। वो फंसा रह गया था। जाम में। आश्रम में। श्रीलाल शुक्ल को अपनी कथा सुनाने के लिए

जाति अचीवर्स

नवभारत टाइम्स ने इक्यावन टॉप एंड यंग मारवाड़ियों की एक कॉफी टेबल बुक छापी है। किताब अभी पढ़ी नहीं है लेकिन द इकोनोमिक टाइम्स की रिपोर्ट के अनुसार इसमें मारवाड़ी समाज के कामयाब युवाओं का तस्वीर सहित वर्णन है। अभी पिछले दिनों बाज़ार के मैदान में दवा के जातिकरण पर विवाद हुआ था। अब कॉफी टेबल पर कास्ट पहुंच गया है। कुलीन घरों में जाति एक कुलीन आइटम भी हो जाया करेगी। लगेगा कि उनकी उपलब्धि जाति सापेक्ष भी है। कामयाबी की एक पहचान जातिगत भी है। जाति की इस कॉफी टेबल किताब की तुरंत समीक्षा होनी चाहिए। किसी को इन टॉप इक्यावन मारवाडी अचीवर्स का इंटरव्यू करना चाहिए। पूछना चाहिए कि उनकी कामयाबी को इस जाति के होने के कारण कितना बल मिला? या इन अचीवर्स ने अपनी महान जाति को कितना समृद्ध किया है?

प्रकाशक ध्यान दें। वो हर जाति के ऐसे इक्यावन या सौ अचीवर्स को ढूंढ कर कॉफी टेबल किताब छाप सकते हैं। कई हज़ार जातियों वाले इस मुल्क में कास्ट पर इतने कॉफी टेबल बुक हो जाएंगे कि ताजमहल और क्राकरी पर कॉफी टेबल लेखकों के भी पसीने छूट जाएं। अभी तक लोगों के ड्राइंगरूम में जाति की सस्ती पत्रिकाएं ही हुआ करती थीं जिसमें ज़्यादातर मरने वालों के प्रति श्रद्धाजंलि हुआ करती थी। कॉफी टेबल रूप में आने से जाति का ड्राइंगरूम में भाव बढ़ जाएगा। आखिर जब लोग जाति के नाम पर जान दे सकते हैं तो चार सौ रुपये कॉफी टेबल बुक के लिए नहीं देंगे। चंदा देते हैं सो अलग। किसी के पास आइडिया और पैसा है तो वो अपनी जाति के लिए एक म्यूज़ियम भी बना दे। वहां जाति से जुड़े लोगों की मूर्ति, कपड़े, मूंछ दांत सब रखे दिए जाएं ताकि आने वाली पीढ़ियां देख सके कि हमारी जाति के लोग पहले कैसे हुआ करते थे, क्या खाते थे, क्या पहनते थे? म्यूज़ियम में उक्त जाति का इलेक्ट्रानिक जनगणना बोर्ड लगा दे जिसमें अपडेट आता रहे कि हमारी जाति में आज कितने लाल पैदा हुए और कितनी लालन। टीवी वाले जाति के हिसाब से कलाकारों को बांट कर आधे घंटे का वीकली कार्यक्रम कर सकते हैं। जैसे इस हफ्ते देखिये कायस्थ अभिनेताओं और अभिनेत्रियों का बॉलीवुडाना सफ़र। इस आइडिया का पेटेंट नहीं कराया गया है।

अनुसूचित जाति का पंडा-हरिद्वार का क्रांतिकारी
















यह तस्वीर हरिद्वार के गंगा घाट से ली गई है। ध्यान से देखिये। अनुसूचित जाति का पुजारी पंडित गंगाराम। नज़र पड़ी तो ख़बर जानने पहुंच गया। पंडित गोपाल मिले। पंडित गंगा राम की पीढ़ी के प्रपौत्र। कहानी बताने लगे तो लगा कि कोई भारत के धार्मिक सामाजिक इतिहास के पन्ने उलट रहा हो।

बहुत पुरानी बात है। संत रविदास हरिद्वार आए। पंडितों ने उनका दान लेने से मना कर दिया। पंडित गंगा राम ने कहा मैं आपका दान लूंगा और कर्मकांड संपन्न कराऊंगा। पंडित गोपाल आगे कहते हैं- उस वक्त हंगामा हो गया। ब्राह्मण पंडो ने कहा ऐसा होगा तो आपका सामाजिक बहिष्कार होगा। मगर पंडित गंगाराम ने परवाह नहीं की और संत रविदास से दान ले लिया। संत रविदास ने उन्हें पांच कौड़ी और कुछ सिक्के दान में दिये। उसके बाद पंडों की पंचायत बुलाकर कई फैसले किए गए। फैसला यह हुआ कि अब से कोई सवर्ण और ब्राह्मण पंडित गंगाराम से कोई धार्मिक कर्मकांड संपन्न नहीं कराएगा। पंडित गंगाराम ने भी कहा कि उन्हें कोई परेशानी नहीं लेकिन वो अपने फैसले पर अडिग हैं और उन्हें कोई पछतावा नहीं है। उसके बाद तय हुआ कि कोई पंडित गंगाराम के परिवार से बेटी-बहिन का रिश्ता नहीं करेगा।

पंडित गोपाल कहते हैं आज भी पंडों की आम सभा गंगा सभा में उन्हें सदस्य नहीं बनाया जाता। तब के फैसले के अनुसार कोई सवर्ण हमसे संस्कार कराने नहीं आता। हमारे पास सिर्फ हरिजन और पिछड़ी जाति के ही लोग आते हैं। पंडित गोपाल कहते हैं पुराने ज़माने में कोई हरिजन हरिद्वार नहीं आता था। एक तो उनके पास यात्रा के लिए पैसे और संसाधन नहीं होते थे दूसरा उन्हें गंगा स्नान से वंचित कर दिया जाता था। साथ ही पंडा लोग दलित तीर्थयात्रियों का बहिखाता भी नहीं लिखते थे। हरिद्वार आने वाले सभी तीर्थयात्रियों का बहिखाता लिखा जाता था जिससे आप जान सकते हैं कि आपके गांव या शहर से आपके परिवार का कोई सदस्य यहां आया था नहीं। बहरहाल हरिजन का बहिखाता नहीं होता था। लेकिन पंडित गंगा राम ने वो भी शुरू कर दिया। पंडित गंगाराम कहते हैं कि पिछले तीस साल से दलित ज़्यादा आने लगे हैं। दान भी ख़ूब करते हैं। हमारे परिवार का कारोबार भी बढ़ा है। अब हमारे परिवार के चार सौ युवक पंडा का काम कर रहे हैं। हमारी शादियां बाहर के ब्राह्मणों में होती है। यहां बात समझ में आ रही है कि यह वही तीस साल है जब आरक्षण से दलितों की आर्थिक हैसियत में सुधार आया होगा। और अब जब उन्होंने सत्ता हासिल कर ली है तो उनके दान की क्षमता और भावना में भी वृद्धि हुई है। पंडित गोपाल का यह सामाजिक विश्लेषण किसी भी शोधकर्ता के लिए महत्वपूर्ण हो सकती हैं। उन्हें इनके यहां रखे बहिखाते को देख कर पता लगाया जा सकता है कि कब से और कहां से दलितों ने सबसे पहले हरिद्वार आना शुरू किया? अब आने वालों का पारिवारिक विवरण क्या है? इन बहिखातों से दलितों के नामकरण में आ रहे बदलाव का भी अध्ययन किया जा सकता है।

बहरहाल आप इस तस्वीर में पंडित गंगा राम का नाम ध्यान से देखिये। लगता है कालक्रम में उनके नाम गंगा के साथ राम जुड़ गया होगा। हमारे समाज में राम के कुछ निश्चित स्थान है। एक सबके आस्था के राम हैं। एक राम राष्ट्रवादी राजनीति के हैं जिनके नाम पर इनका नाम लेने वाले कुछ भी कर सकते हैं। तीसरा दलितों के नाम के बाद आने वाले राम हैं। जब इनके साथ राम का नाम लगता है तो सवर्णों को याद आता है कि इनसे दूर रहना है।

एक सवाल और है। पंडित गंगाराम की पहल से धार्मिक व्यवस्था खत्म नहीं हुई बल्कि उसमें नए लोगों के लिए जगह ही तो बनी। सामानांतर व्यवस्था खड़ी नहीं हो सकी। पंडित गोपाल ने एक बात खूब कही। सोच कर देखिये कि उस ज़माने में पंडित गंगाराम ने यह कदम उठाया था। पंडित गंगाराम को सलाम।

ओलंपिक टॉर्च का ख़र्च

हिंदुस्तान की मीडिया राजधानी दिल्ली के टीवी दफ्तरों में ओलंपिक टार्च को लेकर उत्साह सुखद है। इससे पता चलता है कि भारत देश ओलंपिक को कितनी गंभीरता से लेता है। दौड़ने को लेकर इतने बयान आए,विवाद हुए गोया भारत को पदक टॉर्च की रैली में ही मिलेगा। मुझे पूरा यकीन है कि भारत ने इतनी ही तैयारी ओलंपिक खेलों के लिए की है। सिर्फ हमेशा कि तरह मीडिया ने इसे नज़रअंदाज़ कर दिया होगा। काश हम सचमुच में इतनी तैयारी करते। कितना अच्छा लगता कि टीवी और अखबार के पत्रकार हर उन पलों पर रिपोर्ट करते कि फलां खिलाड़ी की तैयारी का स्तर कांस्य पदक तक पहुंचता दिख रहा है। भारत उम्मीद कर सकता है। क्या आपने ओलंपिक खेलों की तैयारी कर रहे खिलाड़ियों का प्रोफाइल कहीं पढ़ी है। लेकिन टॉर्च की रिपोर्टिंग इस तरह से हो रही है जैसे हम ओलंपिक जीतने वाले देश हो गए हैं।

मैं उस प्वाइंट पर भी आ रहा हूं। आप कहेंगे कि टॉर्च रैली का संदर्भ सांकेतिक नहीं है। तिब्बत के लोग विरोध कर रहे हैं। इसलिए है। क्या वाकई में हम इस रैली और प्रदर्शन के बहाने चीन, भारत और तिब्बत को लेकर अंतरराष्ट्रीय राजनीति की जटिलताओं से जनता को जागरूक कर रहे हैं। क्या वाकई में ऐसा हो रहा है?

टीवी पर क्रिकेट की रिपोर्टिंग स्कोर कार्ड से आगे नहीं हो पाती। उसी तरह से जैसे कुछ साल पहले राजनीतिक पत्रकार अकबर रोड और अशोक रोड पर होने वाले महासचिवों के परिवर्तन को बड़ी राजनीतिक घटना बताया करते थे। कयासों की रिपोर्टिंग हुआ करती थी कि वेंकैया बनेंगे या बंगारू जैसे इनके बनने न बनने से देश की राजनीति की दिशा बदलने वाली हो। आज वही पत्रकार ऐसी खबरों को महत्व नहीं देते। न ही न्यूज़ रूम में मिलती है। आने वाले दिनों में क्रिकेट के साथ भी यही होने वाला है। रन बनाने का विश्वलेषण कितने दिन तक करेंगे। क्रिकेट की बात कम ही होती है। हार जीत की ज्यादा। वही हाल ओलंपिक टार्च का है। किसी ने सवाल नहीं उठाया कि भाई सारी तैयारी रैली पर ही खर्च कर दोगे तो चीन जाकर क्या करोगे? वहां भी सचिन और आमिर को दौड़ाओगे? ख़बर बनाने के लिए।

वैसे आज वड़ोदरा के पास एक बस नहर में गिर गई। चालीस के करीब स्कूली बच्चे मारे गए। मुझे शक है कि दिल्ली मीडिया से कोई पत्रकार रिपोर्टिंग के लिए भेजा गया होगा। हो सकता है कि कोई गया भी हो। लेकिन तीन साल पहले तक ऐसी घटनाएं होते ही फ्लाइट की सारी टिकटें बुक हो जाया करती थीं। पता नहीं आज सोलह अप्रैल के दिन ऐसा हुआ या नहीं। शायद शाम की खबरों में इस घटना की गंभीरता और व्यापकता से हुई रिपोर्टिंग से मेरी यह आशंका ख़ारिज हो जाएगी।

मंसूर,हनीफ, रौशन सब खुदा के लिए

पंद्रह अप्रैल के इंडियन एक्सप्रेस में एक ख़बर छपी है। रौशन जमाल ख़ान की ख़बर।मुंबई के निवासी जमाल व्यापार की संभावना की तलाश में स्पेन की राजधानी मैड्रिड गए। लेकिन वहां की पुलिस ने बार्सिलोना की मस्जिद से आतंकवादी कार्रवाई की योजना बनाने के शक में गिरफ्तार कर लिया। वैसे ही जैसे हिंदुस्तान के अख़बारों में ख़बर छपी मिलती है कि चोरी की योजना बनाते चार गिरफ्तार। पुलिस के लिए इससे बड़ी कामयाबी क्या हो सकती है कि कोई चोरी की योजना बना रहा हो और मौके पर पकड़ा जाए। ख़ैर। रौशन जमाल ने इंडियन एक्सप्रेस से कहा है कि वो आतंकवादी नहीं है। दो पीढ़ियों तक जांच करने की चुनौती देते हुए जमाल कहते हैं कि मुझे कुछ नही मालूम कि क्या हो रहा है। एक बार अदालत में पेश करने के बाद कुछ कार्रवाई नहीं हुई है। कहते हैं कि शायद सीबीआई और महाराष्ट्र की एंटी टेररिज़्म स्कावड ने क्लिन चिट दे दी है लेकिन मैं चाहता हूं कि मेरी सरकार यह बात कहे कि मैं आतंकवादी नहीं हूं।

मुंबई के जोगेश्वरी पश्चिम इलाके में रहने वाले जमाल की पत्नी फरीदा परेशान हैं। घऱ जब फोन की घंटी बजती है तो फरीदा जमाल का हौसला बढ़ाती हुई कहती हैं कि बंगलौर के हनीफ के साथ भी ऐसा ही हुआ है आप हिम्मत मत हारो। आपने ही सीखाया था कि अल्लाह सब ठीक कर देगा। समस्या तो यही है कि जो अल्लाह ठीक करेगा उसी में यकीन के नाम पर जमाल और हनीफ जैसों को मड्रिड,ग्लासगो और ऑस्ट्रेलिया की पुलिस मुस्लिम नौजवानों को शक के आधार पर उठा ले जाती है। रौशन जमाल फोन पर घरवालों से बातें करते हुए रोते हैं। बात करते हुए उनके भाई भी फफक पड़ते हैं। अखबार लिखता है कि रौशन बताते हैं कि यहां शारीरिक यातना तो नहीं है मगर मानसिक यातना बहुत है।मुझे आतंकवादी करार दिया जा रहा है। मुझे उनकी भाषा भी समझ नहीं आती कि मेरे बारे में क्या बातें करते हैं। मगर स्पेन की पुलिस को मुसलमान की पहचान के लिए भाषा की ज़रूरत नहीं। उसके लिए उसकी धारणा आखिरी सबूत है कि कोई भी मुसलमान आतंकवादी ही होता है।

आप इस शख्स की यातना को समझ सकते होंगे। ज़ुबान की ताकत भी कमज़ोर पड़ गई है। हनीफ के बाद जमाल और जमाल के बाद कोई और सही। यह सिलसिला नहीं थमने वाला। जमाल के दुख को समझना है तो पाकिस्तानी फिल्म खुदा के लिए देखियेगा। इसी मसले को उठाती है। फिल्म में जमाल की तरह का ही एक किरदार है मंसूर। मंसूर पाकिस्तान में रहते हुए इस्लाम और संगीत के सवालों पर हंसता हुआ संगीत को कैरियर बनाने के लिए अमरीका चला जाता है मगर वहां शक के आधार पर सलाखों के पीछे पहुंचा दिया जाता है। पूछताछ करने वाला अफसर उसके ताबीज से कागज का टुकड़ा निकालता है जिसमें अरबी के अंक लिखे होते हैं। उनमें वो एक खाने में नौ और एक खाने में ग्यारह की पहचान करता है। उसे लगता है कि वह नाइन इलेवन पर किसी आतंकवाद की योजना का पर्दाफाश कर देता है। मंसूर आतंकवादी करार देकर सलाखों के पीछे यातना झेलने के लिए पहुंचा दिया जाता है। बिल्कुल रोशन जमाल की कहानी।

लेकिन मंसूर का छोटा भाई सरमत एक मुल्ला के बहकावे में आ जाता है। और मानने लगता है कि इस्लाम में संगीत हराम है। मुल्ला की तकरीर सुन कर वह संगीत का पेशा छोड़ देता है और अपनी सुरीली आवाज़ से मस्जिद में अजान देने लगता है। सब उसके अजान पर फिदा हो जाते हैं। बहुत चतुराई से अजान को संगीत के रुप में पेश कर कट्टरवाद को एक्सपोज कर दिया जाता है। लेकिन सरमत का मासूम मन बहकावे में आते रहता है। धीरे धीरे वो समझ पाता है कि मुल्ला इस्लाम के नाम पर उससे गलत काम ही करवा रहा है। उसे पछतावा होता है। वह कट्टरवाद के रास्ते होता हुआ तालिबान की दुनिया में पहुंचता है। मगर वापस आ जाता है। फिल्म जितना ज़्यादा पाकिस्तान,इस्लाम और उसकी छवि को परत दर परत खोलती है उससे कहीं ज़्यादा गाज़ियाबाद के सिनेमा घर में मुस्लिम किरदारों का मज़ाक उड़ा रहे दर्शकों को आखिर तक चुप कराने में सफल हो जाती है। आतंकवादी जितना आतंकवाद पैदा नहीं कर पाता उससे कहीं ज़्यादा हम अपनी धारणाओं से आतंकवादी पैदा कर रहे

पंद्रह अप्रैल को हिंदुस्तान टाइम्स में एक और कहानी छपती है। मध्यप्रदेश में सिमी के नेता सफदर नागोरी के पिता का इंटरव्यू। पिता ज़हीर-उल-हसन ट्रांसपोर्ट बिजनेस में हैं। मध्यप्रदेश पुलिस में सहायक इंस्पेक्टर के पद से रिटायर ज़हीर-उल-हसन की चुप्पी टूटती है। ज़हीर कहते हैं उन्हें सफदर नागोरी के बाप होने पर अफसोस है।जब तक मौत नहीं आएगी तब तक यह दाग नहीं धुलने वाली। लेकिन मेरे पास क्या विकल्प है। मैं देश के मुसलमानों से अपील करता हूं कि वो अपने बच्चों को अच्छे स्कूल में तालीम दें।आतंकवादी बहकावों से दूर रखें। सफदर ने अपने मां बाप की भी परवाह नहीं की, जबकि इस्लाम कहता है अपने मां बाप की बात मानो। सम्मान करो। वो कौन सा जेहाद फैला रहा है। जेहाद का मतलब होता है भीतर की बुराई की सफाई। उसके बाद समाज की बुराई दूर करना। लेकिन कुछ लोगों ने मायने बदल दिये।

हालात आतंकवाद पैदा करता है। इस्लाम नहीं। खुदा के लिए फिल्म इसी बात को सामने रखती है। यह फिल्म कफील, सबील, हनीफ, रोशन जमाल जैसों की मुश्किलों को समझने का मौका है। ज़रूर देखियेगा।

कुछ नए शब्दों की तलाश में

MOOD CHANGE का हिंदी में समानार्थी शब्द क्या हो सकता है? मन परिवर्तन। क्लिष्ट लगता है। इसका समानार्थी एक शब्द गांव में सुनाई दिया। जब एक सज्जन ने कहा कि वो ज़्यादा चाय नहीं पीते लेकिन कभी कभी मनफेरवट के लिए पी लेते हैं। मनफेरवट। यानी मन को फेर देने वाला। फेरना यानी बदल देने वाला। मू़ड चेंज का समानार्थी शब्द।

करेंसी का भी भोजपुरी में एक शब्द है। ढेबुआ। कहते हैं पाले ढेबुआ रखले बाड़अ। मतलब पैसे हैं पास में।

हेन-तेन और तेला-बेला जैसे व्यावहारिक शब्दों का जवाब नहीं। हेन-तेन MESSING UP का समानार्थी शब्द हो सकता है। भोजपुरी में इसका प्रयोग इस तरह से होता है- समूचा हेन-तेन कर देहलस।

तेला-बेला- लोग कहते हैं बड़ी तेला-बेला करके दू पैइसा कमइनी ह। यानी पापड़ बेल कर या फिर हेराफेरी कर पैसा कमाया है।

एक चाट वाले ने अपने ठेले पर लिखा था-
प्यार झुकता नहीं, उधार बिकता नहीं

महंगाई और मंत्री

यूपीए सरकार के मंत्री बौरा गए हैं। शरद पवार कहते हैं कि वे ज्योतिष नहीं हैं। कपिल सिब्बल कहते हैं उनके पास जादू की छड़ी नहीं है।लालू यादव कहते हैं महंगाई पर ऐसे हंगामा हो रहा है जैसे लंका में आग लग गई है। मनमोहन सिंह सच बोल देते हैं कि महंगाई को रोकना मुश्किल है लेकिन सत्तर के दशक के विदेशी हाथ वाला खतरा बताने लगते हैं कि दुनिया में मुद्रास्फीति है इसलिए यहां भी है।

लेकिन इन्हीं में से एक प्रफुल्ल पटेल की दलील सबसे उम्दा है। सूरत में सोना के दुकान का शुभारंभ करने गए पटेल साहब ने कहा कि लोग अमीर हो गए इसीलिए चीज़ों के दाम बढ़ गए हैं। पहले ग़रीब थे। अब अमीर हो कर रोटी खाने वाला चावल खाने लगा और चावल वाला रोटी पर टूट पड़ा है। लिहाज़ा पैसा कमा कर सब एक दूसरे का खाएंगे तो दाम नहीं बढ़ेगा क्या। यह माल्थस का सिद्धांत नहीं बल्कि प्रफुल्ल पटेल का श्राप है। अगर आप इसे नहीं स्वीकार करेंगे तो महंगाई भस्म कर देगी। सोने की दुकान में खड़ा होकर किसी की भी नज़र और मति फिर जाए, ये तो मंत्री हैं। पटेल साहब करते भी तो क्या करते। अपने दुकानदार मित्र की दुकान के शुभारंभ पर जाकर कहते कि पैसे किसके पास है जो तुम सोने की दुकान खोल रहे हो। बेवकूफ हो।

रही बात एनडीए की तो इनके पास सिर्फ आलोचना है। उपाय नहीं। दोनों की आर्थिक नीति में बुनियादी अंतर नहीं है। तो जनाब लोग करेंगे क्या यह नहीं बताते। इस फिराक में हैं कि जनता नाराज़ होकर हमें बिठा दे। वैसे ही जैसे शाइनिंग इंडिया ने यूपीए को सत्ता दे दी। सबसे सटीक तर्क है मुलायम सिंह यादव का। उन्होंने नोबल पुरस्कार प्राप्त अर्थशास्त्री और लोहिया के दाम बांधों राजनीतिक नज़रिये को मिलाकर थ्योरी यह निकाली है कि बसपा के कारण महंगाई बढ़ी है। लगता है यूपी में दलित और ब्राह्मण हाथ मिलाने के बाद खाना भी अधिक खाने लगे हैं। तभी पटेल साहब कह रहे हैं कि लोग ज़्यादा भकोसेंगे( ठूंस कर खाना) तो दाम बढ़ेगा नहीं। इन सभी बयानों को अर्थशास्त्र की नोबल कमेटी के पास भेजा जाना चाहिए।

फिज़िक्स और प्रो एच सी वर्मा

बहुत दिनों बाद concept of physics देखी। किताब पर लेखक के नाम ने कई पुरानी यादों को ताजा कर दिया। पटना के साइंस कालेज के प्रो हरिश्चंद्र वर्मा की क्लास। ए सेक्शन में सैंकड़ों लड़के लड़कियों की भीड़। दूसरे कालेज से हम जैसे लड़के भी। सिर्फ प्रो एच सी वर्मा का क्लास करने के लिए। तमाम तरह की अटकलें। एक प्रोफेसर के बारे में किस्से। प्रो वर्मा का क्लास जो समझ गया उसका आईआईटी कोई नहीं रोक सकता। मुझ जैसा विज्ञान में भुसकोल(बेकार विद्यार्थी का सार)विद्यार्थी भी उनकी क्लास में इसलिए जाता था कि उन्हें देखकर ही फिजिक्स की गहरी समझ पैदा होगी और आईआईटी का बेड़ा पार। लेकिन असली हीरो तो प्रो वर्मा ही थे। क्या अंदाज़ और क्या साख। एक शिक्षक के लिए दूसरे कालेज से आना,उनकी क्लास में बैठने के लिए झूठ बोलना। कुछ बात तो थी ही उनमें।जिन लोगों ने प्रो एच सी वर्मा का क्लास किया है या ट्यूशन पढ़ा है वो उन्हें नहीं भूल सकते। उन्हें देखना किसी हीरो को देखने के इंतज़ार जैसा होता था। वो क्लास से निकलते थे तो छात्रों की भीड़ पीछे पीछे चलती थी। ये वो शिक्षक थे जिन्होंने बिहार के उस खराब दौर में भी अपनी शिक्षा से छात्रों में सपने को जगाए रखा। प्रो वर्मा को देख अपने सपनों पर यकीन हो जाता था। बाद में मैंने जब यह जान लिया कि विज्ञान मेरा अनिष्ठ ही करेगा तो मैंने उन सपनों का रास्ता छोड़ दिया। अनिष्ट इसलिए कि जो विषय समझ में न आए उसमें या तो पारंगत होने का श्रम किया जाए या फिर वहां से दिवंगत होने का रास्ता ढूंढा जाए।

मैंने विज्ञान की पढ़ाई न्यूटन को समर्पित करते हुए छोड़ दी। लेकिन प्रो एच सी वर्मा को कभी नहीं भूल सका। concept of physics किताब में प्रो वर्मा ने एम एम अख्तर का भी ज़िक्र किया है। इन्हें देखने का सौभाग्य नहीं मिला लेकिन किस्से खूब सुन रखे थे। उस किताब में लिखा था कि प्रो एच सी वर्मा, आईआईटी कानपुर। ज़ाहिर है अगर वही एच सी वर्मा है तो आईआईटी कानपुर के छात्र भी प्रो वर्मा के बारे में यही ख्याल रखते होंगे। जब एक विज्ञान से भागा हुआ विद्यार्थी इस तरह से याद रखे हुए हैं तो उनके पढ़ाये हुए कामयाब छात्रों के सपनों और किस्सों में प्रो वर्मा की क्या जगह होगी, कल्पना कर सकता हूं।

घरों के मिथक और सांप की कहानी

हर घर का एक खानदानी मिथक होता है। कोई किसी दिन यात्रा नहीं करता तो कोई खास त्योहार नहीं मनाता। भले न अमल करता हो मगर इस तरह के मिथकों और आशंकाओं के वजूद से वाकिफ होता है। हमारे परिवार में भी ऐसे तमाम मिथकों के अलावा एक और किस्सा सुनने को मिला। बल्कि सुनाई दे गया। हमारी बुआ शोक में जमा हुए परिवार को बंशबेली बता रही थीं। कह रही थीं कि पांच पीढ़ी पहले के दादा जी (आप परदादा और उससे आगे भी कुछ जोड़ सकते हैं) पांच भाई थे। लेकिन एक भाई सांप था। जिनका नाम नर्मदेश्वर बाबा था। बड़ी बुआ बताती जा रही थीं। कहने लगीं कि तब की दादी के गर्भ में चार पांच सांप के बच्चे निकले। सब इधर उधर भाग गए लेकिन एक सांप घर में अनाज रखने की बेढ़ी के पीछे छुप गए। इनका नाम नर्मदेश्वर रखा गया। नर्मदेश्वर बाबा मज़दूरों के साथ खेतों पर जाते थे। फिर दोपहर में घर आकर उनके लिए हरवाही ले जाते थे। हल जोतने वाले मजदूरों के लिए दोपहर का खाना पानी हरवाही कहलाता है। दोपहर के वक्त घर की देहरी पर उन्हें देखते ही औरतें समझ जाती थीं कि नर्मदेश्वर बाबा हरवाही के लिए आए हैं। फिर कोई अपने सिर पर हरवाही लिये चला जाता था और बाबा पीछे पीछे जाते थे। नर्मदेश्वर बाबा घर में आराम से आते जाते थे। घर में ही रहते थे। बाकी चार भाइयों के साथ एक ही पांत में खाना खाते थे। जब बंटवारे का वक्त आया तो संपत्ति के पांच हिस्से किए गए। बाबा की मर्जी पूछी गए तो उन्होंने हमारे परदादा के हिस्से पर अपना फन रख दिया। यानी मान लिया गया कि उन्होंने अपना हिस्सा हमारे परदादा को दे दिया है। नर्मदेश्व बाबा किसी को नहीं काटते थे। लेकिन एक दिन अकेले खेत की तरफ जा रहे थे तो किसी गांव के लोगों ने लाठी से मार कर उनकी हत्या कर दी और एक पेड़ पर टांग दिया। आज भी बड़ी मां उस पेड़ पर नागपंचमी के दिन जल चढाती हैं। बड़ी फूआ की इस कहानी पर हैरान हुआ जा रहा था। घर के पुरुषों को इस कहानी का अता पता नहीं था। महिलाओं के पास जाने कब से सुरक्षित पड़ी थी। समाजविज्ञान में इसकी सत्यता और प्रक्रिया के बारे में गहन अध्ययन हो चुका है। सांप की यह कहानी तमाम भारतीय परिवारों में अलग अलग रूप में मौजूद है। कैंब्रीज विश्वविद्यालय में पढ़ाने वाले सत्येद्र श्रीवास्तव की अंग्रेजी में लिखी यह कविता ऐसे ही मिथकीय रास्ते पर चलते हुए सांप और बच्चे की भावना को व्यक्त करती है। अगर इस पारिवारिक मिथक और उनकी कविता को मिलाकर पढ़ा जाए तो शायद दिलचस्प हो सकता है। हम सब के घरों में ऐसी कहानियां दफन हैं। बस किसी बुआ किसी मौसी के साथ वक्त गुज़ारने की फुर्सत मिल जाए।

Ancestral Cobra

For the Children of Nagpuri
The cobra did not have
Any ancestral value
Yet the womenfolk left
A bowl of sweet milk every night
Near the women's bathing place
And the Children's curiosity
Took them at the crack of every dawn
To find out it the snakes has come
And drunk the milk
In the night
And after finding the milk still
Unconsumed they laughed
And taunted their mothers
Why do you waste milk like this, Ma?
There aren't any cobras now
They are all dead
History Kaput
My mother with wet tears
And rolling eyes thereupon would only say
My dearest you don't understand
You are not a mother
A mother knows the pain of carrying
A child in her womb for nine months
In this old village one mother
Carried a cobra baby as I carried you
That mother was bathing right there
A cobra passed by
She panicked
Folded her palms and prayed
O Cobra, please don't hurt me
The cobra stood erect for a moment
And looked at her as if spellbound by her beauty
Spat out a white liquid that fell
Almost between her legs
Nine months later she gave birth to a cobra baby
In this family by providing milk
We say to the world that babies are babies
Human or Cobra
( Between thoughts- Satyendra Srivastava, Samvaad Prakashan, meerut, mumbai India)

जातिगत पूर्वाग्रह की एक और करतूत

इंडियन एक्सप्रैस में एक पुणे से एक ख़बर छपी है। रिपोर्ट सुनंदा मेहता की है। कहानी माधवी कपूर की है जो बोट क्लब रोड पर स्थित कोज़ी कार्नर सोसायटी में रहती हैं। माधवी यहां के अपने मकान को बेचकर कहीं और खरीदना चाहती थीं। माधवी की सोसायटी में १६ फ्लैट्स हैं जिनमें से १४ में सिर्फ सिंधी परिवार रहते हैं। समस्या तब शुरू हुई जब माधवी ने अपने खरीदार का परिचय सोसायटी के अध्यक्ष से कराया। जब तक अध्यक्ष साहब को लगा कि खरीदार हीरानी है तो सिंधी ही होगा, तब तक कोई दिक्कत पेश नहीं आई। जैसे ही पता चला कि खरीदने वाले साहब वोहरा मुस्लिम हैं तो पूरा मोहल्ला खिलाफ हो गया। उनकी सोसायटी में मुसलमान कैसे आकर रह सकता है। शुक्र है माधवी कपूर विचलित नहीं हुई हैं। सोसायटी के सदस्यों के परेशान करने के बाद भी उन्होंने फ्लैट उसी खरीदार को बेचा है जिसके मुसलमान होने पर प्रगतिशील लोगों को आपत्ति है। इस तरह के लोग पुणे से लेकर पटना तक में फैले हैं जो जाति धर्म का नाम आते ही गोलबंद होकर एक छद्म सामूहिक पहचान के तहत ताकतवर होने की कोशिश करते हैं।

हम सब एक दूसरे के बारे में कितने पूर्वाग्रहों को लेकर जीते हैं और उसे बिना किसी परीक्षण के सत्य मान लेते हैं। हाल ही में समाजशास्त्री दीपांकर गुप्ता ने टाइम्स आफ इंडिया में एक लेख लिखा। उसमें एक बात यह भी थी कि हम गंदगी को लेकर भी पूर्वाग्रह बनाते हैं। इस तरह के पूर्वाग्रह के शिकार कई लोग यह मानकर जी रहे हैं कि मुसलमान गंदा रहता है। जबकि साफ सफाई का जन्मसिद्ध अधिकार सिर्फ हिंदुओं के यहां सुरक्षित है। जबकि कम ही हिंदू मंदिर मिलेंगे जिसके आस पास और मंदिर के भीतर सफाई का विशेष प्रबंध हों। गंदगी हमारे यहां भी है लेकिन हम सब मिलकर मुसलमानों के खिलाफ पूर्वाग्रह रच देते हैं। यह भूल जाते हैं कि हम(हिंदू) इतने ही सफाई पसंद संस्कृति वाले लोग हैं तो नदियों को नाले में क्यों बदल डाला। जानते हुए भी कि पूजा की सामग्री के विसर्जन से नदियों में प्रदूषण होता है हम दिल्ली के आईटीओ फ्लाईओवर के दोनों तरफ लगी जाली में छेद कर देते हैं। और यमुना में पूजा के अवशेषों को फेंक कर खुद को धन्य समझने लगते हैं।

अब कोई यह कहेगा कि पुणे की उक्त हाउसिंग सोसायटी में रहने वाले लोग कामयाब और प्रसिद्ध हैं। ठीक उसी तरह से जैसे दवा की जाति लेख के संदर्भ में एक आईटी प्रोफेशनल ने दलील दी थी। कहा था कि कंपनी प्रोफेशनल है और अपने दम पर साख बनाती हुई विशेष जाति का भला कर रही है तो इसमें गलत क्या है? आइये पुणे की हाउसिंग सोसायटी के उन १४ परिवारों के लिए सदबुद्धि की कामना करें और मनायें कि वो एक बार किसी मुसलमान के साथ रहकर देख लें। उनके घर आना जाना शुरू कर दें। खाना शुरू कर दें। बेशक घर लौट कर हरिद्वार से गंगा जल मंगाकर खुद को पवित्र करते रहें। ताकि उनका हिंदू धर्म मलिन न हो और नागरिक धर्म का पालन हो जाए कि सब बराबर है और हर जगह सबकी है। बाज़ार खरीदारों की जाति और धर्म पूछ रहा है। भला हो माधवी कपूर का जो ऐसे झांसे में नहीं आईं।

तुम जाति की बात क्यों करते हो?

दवा की जाति के बाद

जाति पर बहस हमेशा खेमे में बंट जाती है। भारत की इस सामाजिक उपज को लेकर सब दूसरे खेमे से झगड़ा करना चाहते हैं, अपने खेमे के भीतर इस सवाल को नहीं उठाना चाहते हैं। बल्कि यहां तक कह दिया जाता है कि इंजीनियर की जाति है, डाक्टर की जाति है और पिटाई के वक्त पत्रकारों की भी जाति बन जाती है। यह एक यथार्थ है। लेकिन क्या यह यथार्थ नहीं है कि बहुत से लोगों ने इसे चुनौती भी दी है। चुनौती देने वालों ने धर्म की सत्ता को भी ललकारा है तो धार्मिक दादाओं ने उसे नास्तिक धर्म में डाल दिया। हाल ही में कस्बा पर दवा की जाति को लेकर एक लेख लिखा। लेख दो बातें ज़ाहिर करने के लिए था। पहला, क्या वाकई में कोई दवा कंपनी अपने विस्तार के लिए जाति का सहारा ले सकती है? मुझसे यह सवाल छूट गया कि दूसरे राज्यों में जहां उस जाति के लोग नहीं रहते हैं वहां यह कंपनी कैसे खड़ी होगी? कंपनी ने अपना बड़ा नाम बनाया लेकिन जाति से क्यों चिपकी रही? दूसरा मकसद यह था कि बिहार में जातिगत पूर्वाग्रह बनाने के लिए किस तरह से किसी को भी ब्रांड कर दिया जाता है। इसीलिए मैंने कंपनी का नाम नहीं लिखा, न ही बताने वालों से पूछा कि किसकी कंपनी है। मेरी दिलचस्पी इसी में थी कि ऐसा हो रहा है। अगर ऐसा हो रहा है कि तो कहीं यह तो नहीं हो रहा कि बिहार में आम आदमी इलाज के लिए मर रहा है और डाक्टर किसी और धरातल पर खेल कर रहे हैं।

बहरहाल इंटरनेट पर इस तरह के मुद्दों पर स्वस्थ्य बहस नहीं हो पाती। अजीब अजीब तर्क दिये जाने लगते हैं। यहां तक कि धमकी भी। आखिर जो बात कई लोगों की ज़ुबान पर है उसे लिख देने से बवाल कैसा। लगता है कि लोग अभी भी यह मान कर चलते हैं कि जाति से ही सबकुछ हासिल हो सकता है। बहुत कुछ होता भी है। जाति सवर्णों को ही क्यों स्वाभाविक लगती है? क्योंकि इससे उन्हें अनचाही सत्ता मिल जाती है। सत्ता में बैठे लोगों का एक ग्रुप बन जाता है। जिसका काम बहुत मामूली होता है। ट्रांसफर करवाना, मनचाहे पद लेना और कमीशन का हिसाब। बहुत हुआ तो किसी बेरोजगार को नौकरी का जुगाड़। यह वो काम है जो जाति के नाम पर हर दिन चलता है। सभी जाति में हो रहा है। एक बड़ा मौका आता है चुनाव का, जब जातियों का गठजोड़ खुलकर बनाया जाने लगता है। हमारी राजनीति अब जाति व्यवस्था का विरोध नहीं करती है। बल्कि जाति की व्यवस्था से अपनी सत्ता हासिल करती है। इसीलिए अब जाति एक राजनीतिक यथार्थ भी है। पहले भी था और आगे भी रहेगा। हम जैसे जाति के विरोधी भी यथार्थ हैं। पहले भी थे और आगे भी रहेंगे।

वैसे क्या यह अध्ययन का विषय नहीं है कि आज के आधुनिक समाज में जाति और जातिवाद किस तरह रूप बदल रहे हैं। किस तरह जाति अपनी नए अस्तित्व को गढ़ रही है। किस तरह जातियां नए समीकरणों के सहारे सत्ता में अपनी जगह बना रही हैं। लेकिन इस बहस तक पहुंचने से पहले ही किसी ने टिप्पणीकर्ता को धमका दिया। मुझे समझ नहीं आता कि इसमें हिंसक होने की क्या बात है? हर जाति को लेकर पूर्वाग्रह है। पूर्वाग्रह की भी अपनी राजनीति है। खेमेबाज़ी है। पूर्वाग्रह के बनने की भी अपनी सामाजिक राजनीतिक प्रक्रिया है। जैसे बिहार में विरोधी दल के लोग चुटकी लेकर कहते हैं...ताज....का और राज...का। तो यह पूर्वाग्रह एक खास राजनीति की देन है। यह तभी बना है जब नीतीश की सरकार बनी है। पहले यह पूर्वाग्रह क्यों नहीं था? किस तरह से हताशा में भी पूर्वाग्रह गढ़े जाते हैं। जाति और पूर्वाग्रह पर भी अच्छे लेख आ सकते हैं। उसे उदार दिल से पढ़ा जा सकता है। खुलकर बहस हो सकती है। लेकिन कुछ लोग अपनी जाति के नाम पर मोर्चा खोल देते हैं।

तस्वीरों की अपनी कथा

बेतिया शहर में मोबाइल फोन से कई तस्वीरें उतारी। शहर और स्टेशन पर कई चीज़ें ऐसी थीं जिन्हें देख कर बहुत कुछ कहने का मन करने लगता है। स्थानीय स्तर पर नारे कैसे बदलते हैं गौर करने लायक है। जैसे आधुनिक मशीन पर कारीगर बहुत ज़ोर देता है तो दहेज के बाज़ार में योग्य वरों के लिए रेमण्ड का सूट एक कंप्लीट मैन बना देता है।









सिथेंटिक साड़ी का घूंघट

गांव की औरतों के साथ घूंघट पर बहस चल रही थी। महिलाओं ने कई प्रसंग सुनाने शुरू कर दिये। एक ने कहा कि सिथेंटिक साड़ी के घूंघट से दिक्कत नहीं होती। घूंघट के भीतर से आप बाहर की दुनिया साफ साफ देख सकते हैं। सूती साड़ी या पुरानी मोटी साड़ी के घूंघट से बहुत दिक्कत होती थी। बाहर कुछ दिखता ही नहीं था। सर नीचे कर चलना पड़ता था ताकि कम से कम ज़मीन दिख जाए। सिथेंटिक साड़ी आने से आप नाक की सीध में चल सकती हैं। देख सकती है कि कौन किधर खड़ा है और उसके चेहरे की प्रतिक्रिया क्या है। लेकिन सिथेंटिक के पारदर्शी होने से दिक्कतें भी खड़ी हो जाती हैं। एक प्रसंग में पता चला कि एक नई नवेली दुल्हन ने ससुराल में घूंघट के भीतर किसी की बात पर मुंह चिढ़ा दी। पास खड़ी महिलाओं ने साफ साफ देख लिया कि घूंघट के भीतर दुल्हन ने मुंह बिदका दिये हैं। बस बवाल मच गया। तब एक महिला ने उसे सलाह दी कि ऐसे वक्त में सिथेंटिक की बजाय गार्डन बरेली की साड़ी पहना करो। मैंने पूछा इसमें क्या खास है तो जवाब मिला कि मोटी होती है। बाहर से कोई अंदर नहीं देख सकता। किसी ने सोचा है घूंघट के भीतर औरतें के चेहरे का भाव कैसे कैसे बदलता होगा?