कभी आपने इस सवाल का जवाब दिया है। कभी आपसे किसी ने ऐसा सवाल किया है। आए दिन होता रहता है। ठीक ठाक कपड़ों में और अच्छी खासी कार से भी उतरें तो पूछने वाला एक बार भरोसा कर लेना चाहता है कि दक्षिण दिल्ली के हैं या नहीं। अखबारों ने एक भ्रम फैला रखा है कालोनियों को लेकर। पॉश कालोनी लिख लिख कर दिमाग खराब कर दिया है। जो है जहां है के आधार पर अपनी कालोनी को पॉश कालोनी घोषित करने के चक्कर में रहता है।
मुझसे अक्सर लोग यह सवाल करते हैं। जवाब जैसे ही मिलता है कि गाज़ीपुर बार्डर से दो किमी आगे डाबर मोड़ से दायें मुड़ते ही वैशाली के सेक्टर पांच में रहता हूं। पता पूरा भी नहीं कर पाता सामने वाले की मुझमें दिलचस्पी खत्म हो जाती है। सहानुभूति के स्वर में कहा जाता ओह...इतनी दूर बाप रे। तुम इधर यानी दक्षिण दिल्ली में क्यों नहीं रह लेते। वहां का माहौल तो बहुत खराब होगा। मैं चाहता हूं कि जिन जिन लोगों ने मुझसे कहा है वो ये लेख पढें।
उत्तर और दक्षिण दिल्ली में क्या फर्क है। रिंग रोड दोनों ही तरफ बहती है। एटीएम और अग्रवाल स्विट्स पूरी दिल्ली में हैं। पीवीआर का ग्राम्यकरण पूरी दिल्ली में हो चुका है। सिर्फ दक्षिण दिल्ली में पीवीआर नहीं है। पैसे वाले यहां वहां सब जगह रहते हैं। दक्षिण दिल्ली में चिराग दिल्ली, कटवारिया, ओखला गांव, मदनपुर खादर, मदनगीर, अंबेडकरनगर, मुनिरका गांव हैं। आम लोगों की आबादी ज़्यादा है। कड़ी मेहनत लेकिन फिर भी दो पैसा कम कमाने वालों की आबादी फ्रैंड्स और ग्रेटर कैलाश से अधिक है। दक्षिण दिल्ली मूलत एक मेहनतकश और मध्यमवर्गीय लोगों का इलाका है। इसका मतलब यह नहीं कि मैं वैशाली का टाइकून हूं। पहले भी मुनिरका, चिराग दिल्ली और गोविंदपुरी में रह चुका हूं।
हुआ यूं कि गोविंदपुरी, डीडीए कालकाजी, शेखसराय, खिड़की एक्सटेंशन, आश्रम, भोगल मुनिरका, अंबेडकरनगर, कृषि विहार, मदनपुर खादर, गढ़ी में आम लोगों रहते थे। दक्षिण दिल्ली की आबादी में अस्सी फीसदी हिस्सा इनका है। फ्रैड्स कालोनी, जंगपुरा, डिफेंस कालोनी, साउथ एक्स, ग्रेटर कैलाश। यहां चंद अमीर लोग रहते हैं। गरीबों की झोपड़ी के बीच अमीरों की कोठी दूर से ही ऊंची दिखती है। अगर दक्षिण दिल्ली की पहचान ही बननी है तो इनसे नहीं बनती। दक्षिण दिल्ली कहीं से भी पॉश नहीं है। होती तो कैलाश कालोनी, फ्रैड्स कालोनी में साप्ताहिक बाज़ार नहीं लगते। यहां के मैक्स और फोर्टिस से आज भी एम्स और सफदरजंग की ज़्यादा तूती बोलती है।
कहीं मैं अपना फ्रस्टेशन तो नहीं निकाल रहा दक्षिण दिल्ली की अवधारणा पर। जब मैं मुनिरका गांव में रहता था तब मेरे दक्षिण दिल्ली के तथाकथित कुलीन दोस्त कहते थे कि कहां गांव में रहते हो। जब मैं वैशाली के ठीठ ठाक अपार्टमेंट में रहता हूं तो ऐसे बात करते हैं जैसे मैं उत्तरी ध्रुव में रहता हूं। बहुत छोटा नक्शा होता है दक्षिण दिल्ली वालों के दिमाग में। इतना छोटा कि पड़ोस के मेहनतकशों को भी शामिल नहीं करते। रहते तो वे भी हैं दक्षिण दिल्ली में। इसके बाद भी जब भी पता पूछते हैं और जवाब मिलता है उनके चेहरे का रंग बदल जाता है। बीच में क्लास आ जाती है। इसीलिए कहता हूं दक्षिण दिल्ली को आबाद मेहनतकशों ने किया है लेकिन मलाई हमेशा की तरह दो चार कालोनियां वाले खा रहे हैं।
बरहम बाबा
ब्रह्म बाबा अपभ्रंश होकर बरहम बाबा हो गए थे। भोजपुरी में हर शब्द की अपनी तरह से ओवरहाउलिंग की जाती है। ज्यों का त्यों वाला सिस्टम नहीं हैं। गांव में बरगद और पीपल के संगम से बने थे बरहम बाबा। विशाल और कई पीढ़ियों से विराजमान। मेरे गांव में कोई बड़ा हो जाए और बरहम बाबा की डालों पर दौड़ा न हो मुमकिन नहीं। गंडक नदी और घर के बीच एक पड़ाव की तरह मौजूद बरहम बाबा किसी स्मृति चिन्ह की तरह विराजमान रहे।
बहुत पहले गिर गए बरहम बाबा। बूढ़े हो गए थे। किसी शाम की तेज आंधी ने बरहम बाबा को गिरा दिया। बाबूजी ने जब बताया तो ऐसे बता रहे थे जैसे उनके भीतर का एक बड़ा हिस्सा ढह गया हो। थोड़ा सा कह कर चुप हो गए। बाकी अपने भीतर ही कहने लगे। एक पेड़ के गिरने का नितांत व्यक्तिगत और सार्वजनिक दुख। बाप का ज़्यादा और बेटे का थोड़ा कम। लेकिन दोनों का साझा अनुभव था बरहम बाबा की मोटी मोटी डालो पर दौड़ना। डोला पांती खेलना। भारत के राष्ट्रीय खेलों की सूची में डोला पांती का भले कहीं नाम न हो लेकिन ग्रामीण अंचल कि स्मृतियों में यह खेल अब भी बचा हुआ है। नहीं मालूम कि अब कोई पेड़ की डाल पर दौड़ने और पकड़ने का खेल खेलता है या नहीं।
तेज दुपहरी में कहीं छांव की गारंटी होती थी तो विशाल बरहम बाबा के नीचे। सुबह सुबह गांव की भक्तिमय औरतें यहां जल चढ़ा जाती थी। दस बजते ही लोग अपनी गायों को इसके नीचे बांध देते। दोपहर होते ही सारे बच्चे इसकी डालों पर अपना ठिकाना बना लेते थे। शुरु हो जाता था दौड़ना। कुछ लड़के इतनी तेजी से इस डाल से उस डाल पर भागते कि लगता था कि कार्ल लुइस का जन्म मेरे गांव में क्यों नहीं हुआ। हम सबको मालूम था कि कौन सा घोंसला तोता का है और कौन सा मैना का। किस घोसलें में अंडा है और किस में नहीं। गांव में बहुत लोग मिलते थे जिनकी कमर से लेकर टांग की हड्डी डोला पांती खेलते वक्त गिरने से टूटी थी। पुरानी पीढ़ि के लोग नई पीढ़ि को शान से दिखाते। कहते कि देख हमरो टांग टूटल बा। मामूली खेलने बानी हम। तहनी के का खेल ब जा लोग।
बरहम बाबा का नहीं रहना बॉटनी के किसी विशेषज्ञ का दुख नहीं हो सकता। ये उन बेटियों का दुख है जो मायके आते वक्त सबसे पहले बरहम बाबा को देखती थी। तसल्ली के लिए और पुरानी बातों को याद करने के लिए। शादी के बाद विदाई के वक्त बहने डोली से झांक लिया करती थीं बरहम बाबा की तरफ। बेटियां जब लौटती थीं तो सामान रखते ही एक बार घर का मुआयना ज़रूर करती थीं। क्या बदला है और क्या नहीं का मुआयना। घर आंगने देखने के बाद अगला पड़ाव होता था छत पर जाने का। और छत पर जाने का एक ही मकसद होता था..बरहम बाबा को देखना। और खुद से कहना कि आज भी बच्चे खेल रहे हैं इस पेड़ के नीचे।
मेरे भीतर भी यह पेड़ बहुत दिनों तक खड़ा रहा। आज भी दिल्ली में रहते हुए याद आ जाता है। दफ्तर में काम करते हुए या गहरी नींद के बाद जब आँखें खुलती हैं तो एक झलक बरहम बा की गुज़र जाती है। सबके साथ होता होगा ऐसा। मुझे इस तरह के साक्षात्कार बहुत होते हैं। अचानक नोएडा मोड़ से गुज़रते हुए गांव के उस मोड़ पर अपनी कार मोड़ते हुए पाता हूं जहां से मेरा घर दिखने लगता था।
लेकिन किसी अफसोस के साथ नहीं। मैं यहां क्यों हूं और वहां क्यों नहीं। यह मेरा फैसला नहीं था। समाज और परिवार ने तय किया है कि बड़ा होकर कुछ करना है। कुछ करने के लिए कई प्रकार के खांचे बने हुए हैं। हम सब अपने आप को उन खांचों में फिट कर लेते हैं। एक खांचे से दूसरे खांचे में लौटकर मन बदल जाता होगा। हासिल वही होता है जो पहले खांचे में करने की कोशिश कर रहे होते हैं।
मगर बरहम बाबा की याद आती है। बरहम बाबा होते तब भी मुझे वापस आने के लिए नहीं कहते। न मैं वापस जाता। उन्होंने हमसे कभी कोई अपेक्षा की ही नहीं। अपने आप को सौंप दिया कि आओ मेरी छांव और डालों पर खेलो कूदो और चले जाओ। ये तो हम हैं कि उन्हें भूल नहीं पाते। आज सुबह बस एक पेड़ की याद आई है। बरहम बाबा की याद आई है। शायद इसलिए कि दिल्ली में दोस्त बने न किसी पेड़ से कोई रिश्ता कायम हो सका। ये शहर सिर्फ दफ्तर का पता भर है मेरे लिए। परमानेंट अड्रेस।
बहुत पहले गिर गए बरहम बाबा। बूढ़े हो गए थे। किसी शाम की तेज आंधी ने बरहम बाबा को गिरा दिया। बाबूजी ने जब बताया तो ऐसे बता रहे थे जैसे उनके भीतर का एक बड़ा हिस्सा ढह गया हो। थोड़ा सा कह कर चुप हो गए। बाकी अपने भीतर ही कहने लगे। एक पेड़ के गिरने का नितांत व्यक्तिगत और सार्वजनिक दुख। बाप का ज़्यादा और बेटे का थोड़ा कम। लेकिन दोनों का साझा अनुभव था बरहम बाबा की मोटी मोटी डालो पर दौड़ना। डोला पांती खेलना। भारत के राष्ट्रीय खेलों की सूची में डोला पांती का भले कहीं नाम न हो लेकिन ग्रामीण अंचल कि स्मृतियों में यह खेल अब भी बचा हुआ है। नहीं मालूम कि अब कोई पेड़ की डाल पर दौड़ने और पकड़ने का खेल खेलता है या नहीं।
तेज दुपहरी में कहीं छांव की गारंटी होती थी तो विशाल बरहम बाबा के नीचे। सुबह सुबह गांव की भक्तिमय औरतें यहां जल चढ़ा जाती थी। दस बजते ही लोग अपनी गायों को इसके नीचे बांध देते। दोपहर होते ही सारे बच्चे इसकी डालों पर अपना ठिकाना बना लेते थे। शुरु हो जाता था दौड़ना। कुछ लड़के इतनी तेजी से इस डाल से उस डाल पर भागते कि लगता था कि कार्ल लुइस का जन्म मेरे गांव में क्यों नहीं हुआ। हम सबको मालूम था कि कौन सा घोंसला तोता का है और कौन सा मैना का। किस घोसलें में अंडा है और किस में नहीं। गांव में बहुत लोग मिलते थे जिनकी कमर से लेकर टांग की हड्डी डोला पांती खेलते वक्त गिरने से टूटी थी। पुरानी पीढ़ि के लोग नई पीढ़ि को शान से दिखाते। कहते कि देख हमरो टांग टूटल बा। मामूली खेलने बानी हम। तहनी के का खेल ब जा लोग।
बरहम बाबा का नहीं रहना बॉटनी के किसी विशेषज्ञ का दुख नहीं हो सकता। ये उन बेटियों का दुख है जो मायके आते वक्त सबसे पहले बरहम बाबा को देखती थी। तसल्ली के लिए और पुरानी बातों को याद करने के लिए। शादी के बाद विदाई के वक्त बहने डोली से झांक लिया करती थीं बरहम बाबा की तरफ। बेटियां जब लौटती थीं तो सामान रखते ही एक बार घर का मुआयना ज़रूर करती थीं। क्या बदला है और क्या नहीं का मुआयना। घर आंगने देखने के बाद अगला पड़ाव होता था छत पर जाने का। और छत पर जाने का एक ही मकसद होता था..बरहम बाबा को देखना। और खुद से कहना कि आज भी बच्चे खेल रहे हैं इस पेड़ के नीचे।
मेरे भीतर भी यह पेड़ बहुत दिनों तक खड़ा रहा। आज भी दिल्ली में रहते हुए याद आ जाता है। दफ्तर में काम करते हुए या गहरी नींद के बाद जब आँखें खुलती हैं तो एक झलक बरहम बा की गुज़र जाती है। सबके साथ होता होगा ऐसा। मुझे इस तरह के साक्षात्कार बहुत होते हैं। अचानक नोएडा मोड़ से गुज़रते हुए गांव के उस मोड़ पर अपनी कार मोड़ते हुए पाता हूं जहां से मेरा घर दिखने लगता था।
लेकिन किसी अफसोस के साथ नहीं। मैं यहां क्यों हूं और वहां क्यों नहीं। यह मेरा फैसला नहीं था। समाज और परिवार ने तय किया है कि बड़ा होकर कुछ करना है। कुछ करने के लिए कई प्रकार के खांचे बने हुए हैं। हम सब अपने आप को उन खांचों में फिट कर लेते हैं। एक खांचे से दूसरे खांचे में लौटकर मन बदल जाता होगा। हासिल वही होता है जो पहले खांचे में करने की कोशिश कर रहे होते हैं।
मगर बरहम बाबा की याद आती है। बरहम बाबा होते तब भी मुझे वापस आने के लिए नहीं कहते। न मैं वापस जाता। उन्होंने हमसे कभी कोई अपेक्षा की ही नहीं। अपने आप को सौंप दिया कि आओ मेरी छांव और डालों पर खेलो कूदो और चले जाओ। ये तो हम हैं कि उन्हें भूल नहीं पाते। आज सुबह बस एक पेड़ की याद आई है। बरहम बाबा की याद आई है। शायद इसलिए कि दिल्ली में दोस्त बने न किसी पेड़ से कोई रिश्ता कायम हो सका। ये शहर सिर्फ दफ्तर का पता भर है मेरे लिए। परमानेंट अड्रेस।
नेताओं के साथ खड़े लोगों से पूछो साधो
नेता को नहीं गरियाना चाहिए। कुछ लोग लोकतंत्र के नाम पर कहने लगे हैं। तो क्या मुंबई धमाकों से पहले नेताओं की आलोचना नहीं हो रही थी? गेटवे पर लाख लोगों की भीड़ क्या सिर्फ भीड़ है? क्या ये भीड़ सिर्फ फाइव स्टार में लोगों के मारे जाने से बेचैन है? क्या भीड़ की इस बेचैनी से लोकतंत्र नहीं बचेगा क्योंकि नेताओं को गरिआया जा रहा है? क्या हम ठीक ठीक जानते हैं कि यह भीड़ लोकतंत्र के खिलाफ है? या फिर लोकतंत्र का फायदा उठा कर नेताओं को गरिया रही है। उन पर दबाव बढ़ा रही है।
कुछ दल खास कर बीजेपी के नेताओं को इसकी बेचैनी हो रही है। क्योंकि इस हमले में उन्हें आतंकवाद पर ठेकेदारी करने का मौका नहीं मिला। बीजेपी ने दिल्ली में मतदान से एक दिन पहले अखबारों में विज्ञापन भी दिया कि आतंक के नाम पर हमें वोट दें। हम मज़बूत सरकार चलाते हैं। हम समझौता नहीं करते। झुकते नहीं आदि आदि। ठीक इसी वक्त ताज होटल में आपरेशन चल रहा था।
नेताओं को गरिआने से लोकतंत्र किस तरह खतरे में पड़ गया है? मैं समझ नहीं पा रहा हूं। क्या हम चुनावों में एक सेट नेताओं को बदल नहीं देते। जिसको बदलते हैं उसे गरियाते नहीं क्या। गरियाने का मतलब जनमत का दबाव और आलोचना है। तो क्या उसके बाद लोकतंत्र खतरे में पड़ जाता है।
राजनीति की ओलाचना राजनीति के खिलाफ नहीं होती। उसे चलाने वालों और नीतियों के खिलाफ होती है। राजनीति की धारणा के खिलाफ नहीं। नेताओं के करीब बैठे लोग इस तरह के बकवास करने लगे हैं। जनता को अधिकार है कि वो बीजेपी और कांग्रेस के खिलाफ हो जाए। दोनों को रिजेक्ट कर दे। अगर कर सके तो। इससे लोकतंत्र का घंटा कुछ नहीं बिगड़ेगा।
लोकतंत्र में स्थायी जनता है। जनता ही लोकतंत्र को चलाने के लिए नेता चुनती है। नेता कोई अहसान नहीं होता। लोकतंत्र में नेता भिखारी होता है और जनता दाता। बाबा साहेब आंबेडकर की किताब में सब बराबर बताये गए हैं। अमीर गरीब सब। सबको एक समान मतदान का अधिकार दिया गया है। अमीरों के विरोध को सम्मान से देखा जाना चाहिए। इनकी गोलबंदी का मज़ाक नहीं उड़ाया जाना चाहिए। कुछ लोग कह रहे हैं कि फिल्म स्टार तभी निकले हैं जब फाइव स्टार वाले मरे हैं। सतही बाते हैं।
सुनामी के समय मैंने खुद राहुल बोस को मीलों पैदल चलते देखा था। साहित्यकार अमिताव घोष को अंडमान की गलियों में चुपचाप खड़े होकर नोट्स लेते देखा था। हिंदी के संस्मरण छाप साहित्यकार नहीं दिखे थे जो हमेशा गरीबों के लिए लिखते हैं। उस दिन लगा था कि हिंदी के साहित्यकार फटीचर होते हैं। आखिर कोई क्यों नहीं अमिताव घोष की तरह इस मानवीय त्रासदी को करीब से देखने समझने की कोशिश कर रहा है। कोई कहेगा अमिताव को लाखों की रायल्टी मिलती है। मैं नहीं मानता कि हिंदी के सारे साहित्यकार दरिद्र ही हैं।
कोसी ने बीस लाख लोगों को ठेल दिया। हिंदी में विस्थापित कर दिया। कौन रोया। कौन निकला। मोमबत्तियां लेकर। इस तरह की बातें करने से उन लाखों लोगों का अनादर हो जाता है जो कोसी के पीड़ितों के लिए कुछ करने के लिए बेचैन हो गए। बिहार सरकार ने कोई रास्ता नहीं दिखाया। कई लोगों के फोन आए कि वे मुझे लाखों रुपये दे देंगे मगर सरकार को नहीं देंगे। सरकार वाले खा जायेंगे।
तो क्या इस अविश्वास के बाद लोगों ने लोकतंत्र में यकीन छोड़ दिया। तो क्या बिहार में लोकतंत्र मर गया? हम सब नेताओं से नफरत करते हैं लेकिन जो भी उनके करीब जाते हैं बहुत कम होते हैं जो उनसे चिढ़ते हैं। हो सकता है मैं भी इसमें शामिल हूं। पत्रकार नेताओं से नफरत नहीं करता है। सोहबत की तलाश कर लेता है। इस सच को बोल देने से क्या मुझे फांसी पर लटका देंगे और क्या उसके बाद लोकतंत्र को बचा लेंगे।
कुछ दल खास कर बीजेपी के नेताओं को इसकी बेचैनी हो रही है। क्योंकि इस हमले में उन्हें आतंकवाद पर ठेकेदारी करने का मौका नहीं मिला। बीजेपी ने दिल्ली में मतदान से एक दिन पहले अखबारों में विज्ञापन भी दिया कि आतंक के नाम पर हमें वोट दें। हम मज़बूत सरकार चलाते हैं। हम समझौता नहीं करते। झुकते नहीं आदि आदि। ठीक इसी वक्त ताज होटल में आपरेशन चल रहा था।
नेताओं को गरिआने से लोकतंत्र किस तरह खतरे में पड़ गया है? मैं समझ नहीं पा रहा हूं। क्या हम चुनावों में एक सेट नेताओं को बदल नहीं देते। जिसको बदलते हैं उसे गरियाते नहीं क्या। गरियाने का मतलब जनमत का दबाव और आलोचना है। तो क्या उसके बाद लोकतंत्र खतरे में पड़ जाता है।
राजनीति की ओलाचना राजनीति के खिलाफ नहीं होती। उसे चलाने वालों और नीतियों के खिलाफ होती है। राजनीति की धारणा के खिलाफ नहीं। नेताओं के करीब बैठे लोग इस तरह के बकवास करने लगे हैं। जनता को अधिकार है कि वो बीजेपी और कांग्रेस के खिलाफ हो जाए। दोनों को रिजेक्ट कर दे। अगर कर सके तो। इससे लोकतंत्र का घंटा कुछ नहीं बिगड़ेगा।
लोकतंत्र में स्थायी जनता है। जनता ही लोकतंत्र को चलाने के लिए नेता चुनती है। नेता कोई अहसान नहीं होता। लोकतंत्र में नेता भिखारी होता है और जनता दाता। बाबा साहेब आंबेडकर की किताब में सब बराबर बताये गए हैं। अमीर गरीब सब। सबको एक समान मतदान का अधिकार दिया गया है। अमीरों के विरोध को सम्मान से देखा जाना चाहिए। इनकी गोलबंदी का मज़ाक नहीं उड़ाया जाना चाहिए। कुछ लोग कह रहे हैं कि फिल्म स्टार तभी निकले हैं जब फाइव स्टार वाले मरे हैं। सतही बाते हैं।
सुनामी के समय मैंने खुद राहुल बोस को मीलों पैदल चलते देखा था। साहित्यकार अमिताव घोष को अंडमान की गलियों में चुपचाप खड़े होकर नोट्स लेते देखा था। हिंदी के संस्मरण छाप साहित्यकार नहीं दिखे थे जो हमेशा गरीबों के लिए लिखते हैं। उस दिन लगा था कि हिंदी के साहित्यकार फटीचर होते हैं। आखिर कोई क्यों नहीं अमिताव घोष की तरह इस मानवीय त्रासदी को करीब से देखने समझने की कोशिश कर रहा है। कोई कहेगा अमिताव को लाखों की रायल्टी मिलती है। मैं नहीं मानता कि हिंदी के सारे साहित्यकार दरिद्र ही हैं।
कोसी ने बीस लाख लोगों को ठेल दिया। हिंदी में विस्थापित कर दिया। कौन रोया। कौन निकला। मोमबत्तियां लेकर। इस तरह की बातें करने से उन लाखों लोगों का अनादर हो जाता है जो कोसी के पीड़ितों के लिए कुछ करने के लिए बेचैन हो गए। बिहार सरकार ने कोई रास्ता नहीं दिखाया। कई लोगों के फोन आए कि वे मुझे लाखों रुपये दे देंगे मगर सरकार को नहीं देंगे। सरकार वाले खा जायेंगे।
तो क्या इस अविश्वास के बाद लोगों ने लोकतंत्र में यकीन छोड़ दिया। तो क्या बिहार में लोकतंत्र मर गया? हम सब नेताओं से नफरत करते हैं लेकिन जो भी उनके करीब जाते हैं बहुत कम होते हैं जो उनसे चिढ़ते हैं। हो सकता है मैं भी इसमें शामिल हूं। पत्रकार नेताओं से नफरत नहीं करता है। सोहबत की तलाश कर लेता है। इस सच को बोल देने से क्या मुझे फांसी पर लटका देंगे और क्या उसके बाद लोकतंत्र को बचा लेंगे।
घेर कर मार दिये जाने के बाद
मुझे अब डर नहीं लगता है
घेर कर मार दिये जाने से
देखते देखते कितने मर गए
अपनी ही आंखों के सामने
जानता हूं मार दिए जाने के बाद
आना जाना होगा कुछ नेताओं का
कुछ कहानियां मेरे बारे में छप जाएंगी
मुआवज़ों की राशि कोई बढ़ा जाएगा
मेरे दोस्तों को बहुत गुस्सा आएगा
आतंकवाद और राजनेताओं की करतूत पर
मैं आराम से पड़ा रहूंगा कहीं पर
किसी स्टेशन या किसी मॉल के बीचों बीच
ख़ून से लथपथ, आंखें बाहर निकलीं होंगी
पर्स में अपनों की तस्वीरों के नीचे
दोस्तों के पते मिलेंगे और सरकारी नोट
एटीएम की दो चार रसीदें होंगी और
साथ में थैला,जिसमें होगा वो खिलौना
जो मैंने खरीदे हैं अपनी बेटी के लिए
मोबाइल फोन में आया वो आखिरी एसएमएस
मेरे दोस्तों का, तुम कहां हो, जल्दी बताना
मेरी बीबी का मिस्ड कॉल
दो लोग उठा कर रख देंगे मुझे
स्ट्रेचर पर और अपडेट कर देंगे
मरने वालों की संख्या और सूची
भेजा जाऊंगा पोस्टमार्टम के लिए
कितनी लगीं गोलियां और कितने बजे
पता लगा लिया जाएगा ठीक ठीक
मैं रवीश कुमार,दिल्ली के एक मॉल में
घेर का मार दिया गया आतंकवादी हमले में
घेर कर मार दिये जाने से
देखते देखते कितने मर गए
अपनी ही आंखों के सामने
जानता हूं मार दिए जाने के बाद
आना जाना होगा कुछ नेताओं का
कुछ कहानियां मेरे बारे में छप जाएंगी
मुआवज़ों की राशि कोई बढ़ा जाएगा
मेरे दोस्तों को बहुत गुस्सा आएगा
आतंकवाद और राजनेताओं की करतूत पर
मैं आराम से पड़ा रहूंगा कहीं पर
किसी स्टेशन या किसी मॉल के बीचों बीच
ख़ून से लथपथ, आंखें बाहर निकलीं होंगी
पर्स में अपनों की तस्वीरों के नीचे
दोस्तों के पते मिलेंगे और सरकारी नोट
एटीएम की दो चार रसीदें होंगी और
साथ में थैला,जिसमें होगा वो खिलौना
जो मैंने खरीदे हैं अपनी बेटी के लिए
मोबाइल फोन में आया वो आखिरी एसएमएस
मेरे दोस्तों का, तुम कहां हो, जल्दी बताना
मेरी बीबी का मिस्ड कॉल
दो लोग उठा कर रख देंगे मुझे
स्ट्रेचर पर और अपडेट कर देंगे
मरने वालों की संख्या और सूची
भेजा जाऊंगा पोस्टमार्टम के लिए
कितनी लगीं गोलियां और कितने बजे
पता लगा लिया जाएगा ठीक ठीक
मैं रवीश कुमार,दिल्ली के एक मॉल में
घेर का मार दिया गया आतंकवादी हमले में
तुम तो काम से गए नेता जी
आतंकवाद पर अनगिनत शब्द लिखे जा चुके हैं। अनगिनत नेताओं को गरियाया जा चुका है। आतंकवाद से हारने वाले मुल्क के तौर पर हम खुद को देखने लगे हैं। अभी तक आतंकवाद के नाम पर अपनी अपनी पसंद की पार्टियों को वोट देते थे। लगता है इस बार वो पसंद भी जाती रही। एक मामूली साध्वी के बचाव में राजनाथ सिंह से लेकर आडवाणी तक बावले हो गए थे। दिल्ली के विजय कुमार मल्होत्रा एटीएस के अफसरों का नार्को टेस्ट कराना चाहते थे। उसी एटीएस के अफसरों ने गोली खा ली। ज़ाहिर है आतंकवाद को वो भुगतते थे और वही कीमत भी चुका गए। बयान देने के लिए बच गए हमारे ओरिजिनल लौह पुरुष सरदार पटेल की फोटोकापी आडवाणी और मोदी। और एक खराब ज़ेरॉक्स पेपर की तरह बचाव के लिए बच गए मनमोहन सिंह। विलासराव देशमुख और आर आर पाटिल जोकर लग रहे थे।
आतंकवाद की राजनीति में इस बार नेता नंगा हो गया। टीवी चैनल और अखबारों में आ रही प्रतिक्रिया से लगने लगा कि इस हमले का सबसे अधिक शिकार इस बार नेता हुआ है। जिस वक्त नरेंद्र मोदी केंद्र के पांच लाख रुपये के मुआवज़े को एक करोड़ की राशि से छोटा बता रहे थे उसी समय आतंकवाद और राष्ट्र्वाद के महाप्रतीक इस महापुरुष को स्वर्गीय हेमंत करकरे की पत्नी अपने घर आने से मना कर रही थीं। मना कर चुकी थीं फिर भी मोदी पहुंचे। राज ठाकरे करकरे के अंतिम संस्कार की तस्वीरों में दिखे। कहीं कोने में दुबके हुए। बंगलौर में मेजर उन्नीकृष्णन के पिता ने केरल के मुख्यमंत्री को दरवाज़े से लौटा दिया। दिल्ली में महेश चंद्र शर्मा की पत्नी से बीजेपी के टिकट दिए जाने के प्रस्ताव को ठुकरा दिया।
हमारे नेताओं के लिए यह सबसे मुश्किल वक्त है। इस बार के हमले में किसी नेता को टीवी स्टुडियो में आकर भाषण देने का मौका नहीं मिला। वोट चाहिए था कि इसलिए जिस वक्त एनएसजी के जवान ताज होटल के अंदर लड़ रहे थे उसी वक्त दिल्ली में बीजेपी के रणनीतिकार स्लोगन रच रहे थे। दिल्ली के तमाम अखबारों में मतदान से एक दिन पहले छपा भी। भाजपा को वोट दो। वसुंधरा राजे ने आतंकवाद पर अपने विज्ञापन की बारंबारता बढ़ा दी। हमारा नेता सिर्फ वोट ही मांग सकता है। थोड़ा तो बता देती कि वसुंधरा ने आतंकवाद से लड़ने के लिए क्या किया है? क्या राज्य में पुलिस को अलग ट्रेनिंग दी है? क्या नए संसाधन जुटाये हैं? इत्तफाक और संयोग पर हमले की दुकानदारी चल निकली थी। बीजेपी को वोट मिल जाएंगे।
शिवराज पाटिल अब कभी अपनी कार से उतर कर पान नहीं खरीद सकेंगे। अगर खाते हो तों। एक सबक भी मिला है। साईं कृपा से मठों की दुकानदारी चलती है। तकदीर और तदबीर नहीं बदलती। शिवराज को जाना पड़ गया। विलासराव देशमुख रात भर फोन करते रहे टीवी चैनलों को। रामगोपाल वर्मा को साथ लेकर ताज भ्रमण पर निकले देशमुख। कांग्रेस आतंकवाद से निपटने में एकदम फटीचर पार्टी निकली।
ज़ाहिर है अभी तक यही हो रहा था कि हर आतंकवादी हमले पर देश की एकता और अखंडता पर भाषण दिया जा रहा था। हम एक हैं। हम एक रहेंगे। लेकिन मरते रहेंगे। अभी तक लोग यही समझ रहे थे कि ये नेता ठीक नहीं।उस दल का नेता ठीक है। सख्त है। सख्त की परिभाषा यह थी कि उस दल वाले मुसलमानों के खिलाफ सख्त हैं। जब तक मुसलमान आतंकवादी है देश को पोटा चाहिए। जब साधु या साध्वी पकड़े जाएंगे उनके लिए यही नेता बचाव करेंगे। मुशीरुल हसन और लाल कृष्ण आडवाणी में यही फर्क है कि मुशीरुल पुलिस पर सवाल नहीं उठा रहे थे, सिर्फ बेकसूर साबित होने का एक और मौका देना चाहते थे।आडवाणी जी( या उनकी पार्टी) तो न्याय से लेकर एटीएस तक को नेस्तानाबूद करने में लगे थे। साध्वी हिंदू प्रतीक है। हिंदू आतंकवादी नहीं हो सकता। कह रहे थे कि इसे हिंदू आतंकवाद का नाम मत दो। बतायें तो वे साध्वी का बचाव किस लिए कर रहे थे। क्या इसलिए कि वो इस देश की नागरिक है या फिर इसलिए कि वो हिंदू है। इससे पहले भी पुलिस ने कई बेकसूर मुसलमानों को फंसाया। क्या उनके बचाव में आडवाणी कभी उतरे। कभी नहीं उतरेंगे। बाटला हाउस के बाद जिसतरह अमर सिंह लग रहे थे उसी तरह साध्वी का बचाव करने के कारण बीजेपी मुंबई हमले के बाद लग रही थी। किसी में कोई फर्क नहीं।
जब तक इस देश में मज़हब के हिसाब से राजनीति तय होगी हमारी दलीलें पुरानी पड़ेंगी। पब्लिक जान गई है मैं नहीं मानता। फिर भी मुंबई हमले की तुरंत प्रतिक्रिया से तो यही लगता है कि इस बार नेताओं की साख गिरी है। टीवी पर अरुण जेटली की बौखलाहट दिख रही थी।कह रहे थे कि आप ठीक नहीं कर रहे हैं। नेताओं के खिलाफ नैराश्य फैलाकर। जेटली त़ड़प रहे थे कि इस बार उनके सामने माइक इसलिए नहीं लग रहे थे कि वे नैतिक मास्टर की तरह आतंकवाद पर लेक्चर दें। इसलिए लग रहे थे कि वे नेता होने पर सफाई दें।
इस बार राजनीति का यह आइडिया पिट गया। आतंकवादी एक बार फिर कामयाब हो कर चले गए। नेताओं की दुकानदारी अभी बंद नहीं हुई है। लोकतंत्र में बंद भी नहीं होनी चाहिए। नेता एक ज़रूरी अंग है। सिर्फ खराब नेताओं और राजनीति की दुकान बंद कर एक नया शापिंग सेंटर बनाने की ज़रूरत है। जहां कुछ नया माल बिके। नई दुकान दिखे।
आतंकवाद की राजनीति में इस बार नेता नंगा हो गया। टीवी चैनल और अखबारों में आ रही प्रतिक्रिया से लगने लगा कि इस हमले का सबसे अधिक शिकार इस बार नेता हुआ है। जिस वक्त नरेंद्र मोदी केंद्र के पांच लाख रुपये के मुआवज़े को एक करोड़ की राशि से छोटा बता रहे थे उसी समय आतंकवाद और राष्ट्र्वाद के महाप्रतीक इस महापुरुष को स्वर्गीय हेमंत करकरे की पत्नी अपने घर आने से मना कर रही थीं। मना कर चुकी थीं फिर भी मोदी पहुंचे। राज ठाकरे करकरे के अंतिम संस्कार की तस्वीरों में दिखे। कहीं कोने में दुबके हुए। बंगलौर में मेजर उन्नीकृष्णन के पिता ने केरल के मुख्यमंत्री को दरवाज़े से लौटा दिया। दिल्ली में महेश चंद्र शर्मा की पत्नी से बीजेपी के टिकट दिए जाने के प्रस्ताव को ठुकरा दिया।
हमारे नेताओं के लिए यह सबसे मुश्किल वक्त है। इस बार के हमले में किसी नेता को टीवी स्टुडियो में आकर भाषण देने का मौका नहीं मिला। वोट चाहिए था कि इसलिए जिस वक्त एनएसजी के जवान ताज होटल के अंदर लड़ रहे थे उसी वक्त दिल्ली में बीजेपी के रणनीतिकार स्लोगन रच रहे थे। दिल्ली के तमाम अखबारों में मतदान से एक दिन पहले छपा भी। भाजपा को वोट दो। वसुंधरा राजे ने आतंकवाद पर अपने विज्ञापन की बारंबारता बढ़ा दी। हमारा नेता सिर्फ वोट ही मांग सकता है। थोड़ा तो बता देती कि वसुंधरा ने आतंकवाद से लड़ने के लिए क्या किया है? क्या राज्य में पुलिस को अलग ट्रेनिंग दी है? क्या नए संसाधन जुटाये हैं? इत्तफाक और संयोग पर हमले की दुकानदारी चल निकली थी। बीजेपी को वोट मिल जाएंगे।
शिवराज पाटिल अब कभी अपनी कार से उतर कर पान नहीं खरीद सकेंगे। अगर खाते हो तों। एक सबक भी मिला है। साईं कृपा से मठों की दुकानदारी चलती है। तकदीर और तदबीर नहीं बदलती। शिवराज को जाना पड़ गया। विलासराव देशमुख रात भर फोन करते रहे टीवी चैनलों को। रामगोपाल वर्मा को साथ लेकर ताज भ्रमण पर निकले देशमुख। कांग्रेस आतंकवाद से निपटने में एकदम फटीचर पार्टी निकली।
ज़ाहिर है अभी तक यही हो रहा था कि हर आतंकवादी हमले पर देश की एकता और अखंडता पर भाषण दिया जा रहा था। हम एक हैं। हम एक रहेंगे। लेकिन मरते रहेंगे। अभी तक लोग यही समझ रहे थे कि ये नेता ठीक नहीं।उस दल का नेता ठीक है। सख्त है। सख्त की परिभाषा यह थी कि उस दल वाले मुसलमानों के खिलाफ सख्त हैं। जब तक मुसलमान आतंकवादी है देश को पोटा चाहिए। जब साधु या साध्वी पकड़े जाएंगे उनके लिए यही नेता बचाव करेंगे। मुशीरुल हसन और लाल कृष्ण आडवाणी में यही फर्क है कि मुशीरुल पुलिस पर सवाल नहीं उठा रहे थे, सिर्फ बेकसूर साबित होने का एक और मौका देना चाहते थे।आडवाणी जी( या उनकी पार्टी) तो न्याय से लेकर एटीएस तक को नेस्तानाबूद करने में लगे थे। साध्वी हिंदू प्रतीक है। हिंदू आतंकवादी नहीं हो सकता। कह रहे थे कि इसे हिंदू आतंकवाद का नाम मत दो। बतायें तो वे साध्वी का बचाव किस लिए कर रहे थे। क्या इसलिए कि वो इस देश की नागरिक है या फिर इसलिए कि वो हिंदू है। इससे पहले भी पुलिस ने कई बेकसूर मुसलमानों को फंसाया। क्या उनके बचाव में आडवाणी कभी उतरे। कभी नहीं उतरेंगे। बाटला हाउस के बाद जिसतरह अमर सिंह लग रहे थे उसी तरह साध्वी का बचाव करने के कारण बीजेपी मुंबई हमले के बाद लग रही थी। किसी में कोई फर्क नहीं।
जब तक इस देश में मज़हब के हिसाब से राजनीति तय होगी हमारी दलीलें पुरानी पड़ेंगी। पब्लिक जान गई है मैं नहीं मानता। फिर भी मुंबई हमले की तुरंत प्रतिक्रिया से तो यही लगता है कि इस बार नेताओं की साख गिरी है। टीवी पर अरुण जेटली की बौखलाहट दिख रही थी।कह रहे थे कि आप ठीक नहीं कर रहे हैं। नेताओं के खिलाफ नैराश्य फैलाकर। जेटली त़ड़प रहे थे कि इस बार उनके सामने माइक इसलिए नहीं लग रहे थे कि वे नैतिक मास्टर की तरह आतंकवाद पर लेक्चर दें। इसलिए लग रहे थे कि वे नेता होने पर सफाई दें।
इस बार राजनीति का यह आइडिया पिट गया। आतंकवादी एक बार फिर कामयाब हो कर चले गए। नेताओं की दुकानदारी अभी बंद नहीं हुई है। लोकतंत्र में बंद भी नहीं होनी चाहिए। नेता एक ज़रूरी अंग है। सिर्फ खराब नेताओं और राजनीति की दुकान बंद कर एक नया शापिंग सेंटर बनाने की ज़रूरत है। जहां कुछ नया माल बिके। नई दुकान दिखे।
एक ख़ूबसूरत लड़की
डेसी इंद्रयाणी। इंडोनेशिया की एक मुस्लिम लड़की। ख़ूबसूरत....शायद हां। जितनी मेरी नज़र से नहीं उससे कहीं ज़्यादा ख़ुद की नज़र में ख़ूबसूरत है डेसी इंद्रयाणी। क्वालालंपुर के क्लास रुम में अचानक नज़र पड़ गई। अपने कैमरे से डेसी खुद की तस्वीर उतार रही थी। मेरे ग्रुप में होने के कारण जब भी साथ बाहर गए अचानक लगा कि डेसी साथ नहीं है। मुड़ कर देखा तो अपनी तस्वीर खुद खींच रही है। कम और बहुत धीरे बोलने वाली डेसी से कहा भी कि आपकी तस्वीर मैं ले लेता हूं। उसने अपना कैमरा दिया भी। लेकिन उसके बाद भी वो खुद की तस्वीर उतारने में मशगूल हो गई।
ख़ूबसूरती बीमारी होती है। बचपन में एक लड़की की याद आ गई। हर वक्त बेसन पोते रहती थी। और अधिक गोरी होने की चाह में। पहली बार चेहरे पर खाने पीने का सामान बेसन, खीरा कद्दू मैंने उसी के चेहरे पर देखा था। वो भी बार बार अपने को देखती थी। डेसी की भी यही आदत। जब टोका कि डेसी ये क्या करती हो। हल्के से मुस्कुराया मगर फिर वही कोशिश। एक हाथ में कैमरा और स्माइल। क्लिक। डेसी नहीं मानी।
बाद में डेसी के कैमरे की तस्वीरों को देखने लगा। सैंकड़ों तस्वीरें उसी की। उसी की खिंची हुई। अलग अलग पोज़ में। चेहरे में कुछ तो जादू था कि उसकी तस्वीर उससे भी खूबसूरत लगने लगती थी। वो कभी भी खुद को निहारते हुए नहीं थकती है। उसे अच्छा लगता है खुद को देखना। डेसी इंद्रयाणी इंडोनेशिया के सरकारी टीवी टीवीआरआई की एंकर हैं। फिल्मों, फैशन मैगज़ीन और मॉडल्स की तस्वीरों ने मिल कर डेसी की नज़र बदल गई है। हम सब खुद को निहारते हैं मगर बीमारी की हद तक नहीं।
पर शायद यह सब उसके लिए था। अपनी ख़ूबसूरती को लेकर अहंकार नहीं था। बस एक खुशफ़हमी थी। ख़ूबसूरत होने का अहसास किसी को भी और खूबसूरत बना सकता है।
मैंने कई लड़कियों को देखा है खूबसूरत लड़कियों को निहारते हुए। उनकी नज़रें भी ठीक वैसे ही ऊपर नीचे होती हैं जैसे हम पुरुषों की नज़र। मर्दों की नज़र तो विकसित ही कुछ इस तरह की गई है कि कोशिश करनी पड़ती है कि हम लड़कियों को ऐसे न देखें। इस एक पुरुषोचित आदत से मुक्ति पाने के लिए न जाने कितना संघर्ष करना पड़ा। जब सहज हुए तो लड़कियों के साथ दोस्ती स्वाभाविक लगने लगी। वो दोस्त बनने लगीं। देखे जा सकने वाली ऑबजेक्ट से निकल कर। सिमोन दा बोउआर की किताब पढ़ते वक्त रातों की नींद उड़ गई थी। खुद पर शर्म आने लगी थी। मर्दों की उठती गिरती नज़रों पर पहले से ज़्यादा नज़र पड़ जाती है। राखी सावंत का वो बेहूदा मगर असली गाना...देखता है तू क्या...कई बारों कानों के पास आता है तो मर्दों की उन आंखों की बेचैनी की तस्वीर उभरने लगती है। इस बात का डेसी की बात से कोई लेना देना नहीं। बस ढूंढ रहा था कि कहीं डेसी की नज़र भी तो इन्हीं नज़रों से नहीं बनी।
( मैंने डेसी को कहा था कि तुम्हारे बारे में अपने ब्लॉग पर लिखने वाला हूं। तस्वीर में जो लंबी है वही डेसी है)
सफ़दर अली ख़ान लौटना चाहते हैं
सेवा में,
सचिव,
कार्मिक विभाग
भारत सरकार,
(सितंबर १९४७)
मैं,सफ़दर अली ख़ान भारत की सेवा करना चाहता हूं। मैंने पाकिस्तान जाने का फ़ैसला किया था क्योंकि मेरे दोस्तों और सह कर्मचारियों ने दबाव डाला था लेकिन अब मुझे अपने फ़ैसले पर अफ़सोस हो रहा है। मेरी बूढ़ी मां बहुत बीमार है। वह भी मुझे पाकिस्तान जाने नहीं देना चाहती। मैंने पाकिस्तान का पक्ष लेकर एक बड़ी भूल की है। मैं सच कह रहा हूं। मेरा अपना फ़ैसला नहीं था। दबाव में फ़ैसला किया था। मैं पहले भारतीय हूं और आखिर में भी भारतीय हूं। मैं भारत में रहना चाहता हूं।भारत में ही मरना चाहता हूं। इसलिए मुझे अनुमति दी जाए कि भारत में रहूं।
मुरादाबाद में तैनात गार्ड सफ़दर अली ख़ान भारत में रहना चाहते थे। उनकी इस चिट्ठी की सिफ़ारिश शिक्षा मंत्री मौलाना अबुल क़लाम आज़ाद ने की थी। मगर गृह मंत्रालय ने कलाम की इस चिट्ठी को अस्वीकार कर दिया। जवाब मिला कि पार्टिश काउंसिल का फ़ैसला है कि जब एक बार फ़ैसला कर लिया तो उस पर कायम रहना चाहिए। गृहमंत्री सरदार पटेल आज़ाद को लिखते हैं कि आपने जिसकी व्यक्ति की बात की है, मुझे नहीं लगता है कि उसे फैसला बदलने की अनुमति मिल पाएगी।
नवंबर १९४७। ठीक ऐसा ही मौसम रहा होगा। थोड़ी सर्दी अधिक होगी। सफ़दर अली ख़ान उन पांच हज़ार रेलवे कर्मचारियों में शामिल थे,जिन्होंने पाकिस्तान जाने का अपना फ़ैसला बदल दिया था। वो अब वहीं रहना चाहते थे जहां वो रहते आए थे। लेकिन सांप्रदायिक हो रही राजनीति ने इन पर पाकिस्तान के एजेंट होने का लेबल लगा दिया। लखनऊ रेलवे स्टेशन पर हिंदू कर्मचारियों ने हड़ताल की धमकी दे दी। कहा कि अगर इन्हें अब भारत में रहने दिया गया तो ठीक नहीं होगा। नतीजा रेलवे के अफसर भी इन कर्मचारियों पर दबाव डालने लगे कि वो पाकिस्तान जाने का अपना फ़ैसला न बदलें।
फॉल्टलाइन्स ऑफ नेशनहुड (रोली बुक्स)। इस किताब में विभाजन और राष्ट्रवाद पर शोध करने वाले इतिहासकार प्रोफेसर ज्ञानेंद्र पांडे सफ़दर अली ख़ान की इस कहानी के बहाने बता रहे हैं कि कैसे एक भ्रम की स्थिति बन गई थी। हर कोई एक दूसरे को हम और वो की ज़ुबान में पुकारने लगा था। यहां तक कि नेहरू भी कहते हैं कि सिर्फ उन्हीं हिंदू मुसलमान को यहां रहना चाहिए जो इसे अपना मुल्क समझते हैं। पांडे बता रहे हैं कि कैसे हिंदू और मुसलमान होने को राष्ट्रवाद की कैटगरी से जोड़ दिया जाने लगता है।
जब दिल्ली में पाकिस्तान के राष्ट्रपति आसिफ अली ज़रदारी ने कहा कि हर पाकिस्तानी में थोड़ा हिंदुस्तानी रहता है तो मुझे सफ़दर अली की बहुत याद आई। सोचता रहा कि कितना बेमन से सफ़दर पाकिस्तान गए होंगे। कितना रोया होगा। कितना कोसा होगा खुद को। क्यों किया दोस्तों के दबाव में पाकिस्तान जाने का फ़ैसला। कितना दिल टूटा होगा उस भारत सरकार से जिसने सफ़दर को उसके पुराने मोहल्ले में रहने का मौका नहीं दिया। कहीं सफ़दर अली ख़ान और आसिफ़ अली ज़रदारी के बीच कोई रिश्ता तो नहीं है। वो एक दूसरे को जानते तो नहीं होंगे। उम्र का काफी फ़ासला रहा होगा। फिर भी क्या पता सफ़दर के मोहल्ले में ही आसिफ ने अपना बचपन बिताया हो और सफ़दर की बातें उसके दिलों में उतर गईं हों।
नवंबर की इस सर्दी में सफ़दर अली ख़ान, गार्ड मुरादाबाद, की बहुत याद आ रही है। मज़हब के चश्मे से राष्ट्रवाद को देखते देखते हमने शक की तमाम इमारतें खड़ी की हैँ। जहां एक साधु स्वाभाविक रुप से राष्ट्रभक्त होता है और एक मुसलमान देशद्रोही हो जाता है। सुदर्शन कहते हैं आतंकवाद का मज़हब नहीं होता, तो फिर आडवाणी क्यों विदिशा की रैली में कहते हैं कि साध्वी को फंसाया जा रहा है। पुलिस सबको फंसाती है। आडवाणी जानते हैं। कश्मीर टाइम्स के पत्रकार गिलानी को भी आतंकवादी बना दिया गया था। मेरे शो में जेल ले जाते हुए अपनी पुरानी तस्वीर देख कर गिलानी की आंखें भर आईं थीं। तब आडवाणी ने क्यों नहीं कहा था कि गिलानी को फंसाया जा रहा है। वो गृहमंत्री थे।
बहरहाल आप प्रोफेसर ज्ञानेंद्र पांडे की इस किताब को ज़रूर पढ़ियेगा। दस्तावेज़ों के साथ पांडे बताते हैं कि कैसे पाकिस्तान का मतलब कोई मुल्क नहीं था। सभी तरफ एक भ्रम की स्थिति थी। अलग पाकिस्तान को अलग मुल्क समझा गया। पंजाब और बंगाल में लीग के कई समर्थकों और नेताओं में इस बात को लेकर आपत्ति थी कि पूरे महाद्वीप के हिंदुओं और मुसलमानों को अलग कर दिया जाएगा। बंगाल मुस्लिम लीग के सचिव अबुल हाशिम कहते हैं कि आज़ाद भारत में यहां रह रहे सभी मुल्कों को रहने की पूरी आज़ादी मिलनी चाहिए। अप्रैल १९४७ में जिन्ना ने माउंटबेटन से गुज़ारिश की थी कि बंगाल और पंजाब की एकता से खिलवाड़ मत कीजिए। इनका चरित्र,संस्कृति सब साझा है। बंगाल मुस्लिम लीग के नेता हुसैन सुहरावर्दी ने वायसराय ने कहा था कि वो नवंबर १९४७ तक विभाजन के फैसले को रोक दें। फ़ज़्लुल हक़ ने १९४० में लाहौर में पाकिस्तान घोषणा पढ़ा था। फ़ज़्लुल हक़ ने भी कहा था कि देश को बांटने से तो अच्छा है कि अंग्रेज़ थोड़ा और रुक जाएं।
नवंबर में ही आसिफ अली ज़रदारी ने क्यों कहा कि हर पाकिस्तानी में थोड़ा हिंदुस्तानी और हर हिंदुस्तानी में थोड़ा पाकिस्तानी रहता है। क्यों मुस्लिम लीग के नेता नवंबर तक ठहरने की बात कर रहे थे। क्यों रेलवे के पांच हज़ार लोग नवंबर में ही पाकिस्तान जाने के फ़ैसले को बदलना चाहते थे। क्यों हिंदू कर्मचारी इनके रुकने के फ़ैसले का विरोध करने लगे। आडवाणी, सुदर्शन और प्रज्ञा का राष्ट्रवाद धर्म की इन गलियों से क्यों गुज़रता है? गेरुआ राष्ट्रवाद गेरुआ आतंकवाद का विरोध क्यों कर रहा है? एक बेकसूर साध्वी का बचाव हो रहा है या फिर किसी सफ़दर अली ख़ान को धमकाया जा रहा है।
सफ़दर अली ख़ान। अपनी कब्र में न जाने किस मुल्क में होने का ख़्वाब देखते होंगे। ऐसे बहुत से सफ़दर थे जो डर से, दबाव में इधर से उधर हो गए। सफ़दर अली ख़ान को कोई लौटा लाता। मुरादाबाद के उस घर में...जहां वो अपनी बूढ़ी मां की तीमारदारी कर लेता और दिल्ली जाने वाली रेलगाड़ियों को हरी झंडी दिखा देता। कोई है हिंदुस्तान में जो उठ कर कह दे कि मेरे भीतर भी थोड़ा पाकिस्तानी रहता है। सुना है सिंध से आए हैं आडवाणी जी।
सचिव,
कार्मिक विभाग
भारत सरकार,
(सितंबर १९४७)
मैं,सफ़दर अली ख़ान भारत की सेवा करना चाहता हूं। मैंने पाकिस्तान जाने का फ़ैसला किया था क्योंकि मेरे दोस्तों और सह कर्मचारियों ने दबाव डाला था लेकिन अब मुझे अपने फ़ैसले पर अफ़सोस हो रहा है। मेरी बूढ़ी मां बहुत बीमार है। वह भी मुझे पाकिस्तान जाने नहीं देना चाहती। मैंने पाकिस्तान का पक्ष लेकर एक बड़ी भूल की है। मैं सच कह रहा हूं। मेरा अपना फ़ैसला नहीं था। दबाव में फ़ैसला किया था। मैं पहले भारतीय हूं और आखिर में भी भारतीय हूं। मैं भारत में रहना चाहता हूं।भारत में ही मरना चाहता हूं। इसलिए मुझे अनुमति दी जाए कि भारत में रहूं।
मुरादाबाद में तैनात गार्ड सफ़दर अली ख़ान भारत में रहना चाहते थे। उनकी इस चिट्ठी की सिफ़ारिश शिक्षा मंत्री मौलाना अबुल क़लाम आज़ाद ने की थी। मगर गृह मंत्रालय ने कलाम की इस चिट्ठी को अस्वीकार कर दिया। जवाब मिला कि पार्टिश काउंसिल का फ़ैसला है कि जब एक बार फ़ैसला कर लिया तो उस पर कायम रहना चाहिए। गृहमंत्री सरदार पटेल आज़ाद को लिखते हैं कि आपने जिसकी व्यक्ति की बात की है, मुझे नहीं लगता है कि उसे फैसला बदलने की अनुमति मिल पाएगी।
नवंबर १९४७। ठीक ऐसा ही मौसम रहा होगा। थोड़ी सर्दी अधिक होगी। सफ़दर अली ख़ान उन पांच हज़ार रेलवे कर्मचारियों में शामिल थे,जिन्होंने पाकिस्तान जाने का अपना फ़ैसला बदल दिया था। वो अब वहीं रहना चाहते थे जहां वो रहते आए थे। लेकिन सांप्रदायिक हो रही राजनीति ने इन पर पाकिस्तान के एजेंट होने का लेबल लगा दिया। लखनऊ रेलवे स्टेशन पर हिंदू कर्मचारियों ने हड़ताल की धमकी दे दी। कहा कि अगर इन्हें अब भारत में रहने दिया गया तो ठीक नहीं होगा। नतीजा रेलवे के अफसर भी इन कर्मचारियों पर दबाव डालने लगे कि वो पाकिस्तान जाने का अपना फ़ैसला न बदलें।
फॉल्टलाइन्स ऑफ नेशनहुड (रोली बुक्स)। इस किताब में विभाजन और राष्ट्रवाद पर शोध करने वाले इतिहासकार प्रोफेसर ज्ञानेंद्र पांडे सफ़दर अली ख़ान की इस कहानी के बहाने बता रहे हैं कि कैसे एक भ्रम की स्थिति बन गई थी। हर कोई एक दूसरे को हम और वो की ज़ुबान में पुकारने लगा था। यहां तक कि नेहरू भी कहते हैं कि सिर्फ उन्हीं हिंदू मुसलमान को यहां रहना चाहिए जो इसे अपना मुल्क समझते हैं। पांडे बता रहे हैं कि कैसे हिंदू और मुसलमान होने को राष्ट्रवाद की कैटगरी से जोड़ दिया जाने लगता है।
जब दिल्ली में पाकिस्तान के राष्ट्रपति आसिफ अली ज़रदारी ने कहा कि हर पाकिस्तानी में थोड़ा हिंदुस्तानी रहता है तो मुझे सफ़दर अली की बहुत याद आई। सोचता रहा कि कितना बेमन से सफ़दर पाकिस्तान गए होंगे। कितना रोया होगा। कितना कोसा होगा खुद को। क्यों किया दोस्तों के दबाव में पाकिस्तान जाने का फ़ैसला। कितना दिल टूटा होगा उस भारत सरकार से जिसने सफ़दर को उसके पुराने मोहल्ले में रहने का मौका नहीं दिया। कहीं सफ़दर अली ख़ान और आसिफ़ अली ज़रदारी के बीच कोई रिश्ता तो नहीं है। वो एक दूसरे को जानते तो नहीं होंगे। उम्र का काफी फ़ासला रहा होगा। फिर भी क्या पता सफ़दर के मोहल्ले में ही आसिफ ने अपना बचपन बिताया हो और सफ़दर की बातें उसके दिलों में उतर गईं हों।
नवंबर की इस सर्दी में सफ़दर अली ख़ान, गार्ड मुरादाबाद, की बहुत याद आ रही है। मज़हब के चश्मे से राष्ट्रवाद को देखते देखते हमने शक की तमाम इमारतें खड़ी की हैँ। जहां एक साधु स्वाभाविक रुप से राष्ट्रभक्त होता है और एक मुसलमान देशद्रोही हो जाता है। सुदर्शन कहते हैं आतंकवाद का मज़हब नहीं होता, तो फिर आडवाणी क्यों विदिशा की रैली में कहते हैं कि साध्वी को फंसाया जा रहा है। पुलिस सबको फंसाती है। आडवाणी जानते हैं। कश्मीर टाइम्स के पत्रकार गिलानी को भी आतंकवादी बना दिया गया था। मेरे शो में जेल ले जाते हुए अपनी पुरानी तस्वीर देख कर गिलानी की आंखें भर आईं थीं। तब आडवाणी ने क्यों नहीं कहा था कि गिलानी को फंसाया जा रहा है। वो गृहमंत्री थे।
बहरहाल आप प्रोफेसर ज्ञानेंद्र पांडे की इस किताब को ज़रूर पढ़ियेगा। दस्तावेज़ों के साथ पांडे बताते हैं कि कैसे पाकिस्तान का मतलब कोई मुल्क नहीं था। सभी तरफ एक भ्रम की स्थिति थी। अलग पाकिस्तान को अलग मुल्क समझा गया। पंजाब और बंगाल में लीग के कई समर्थकों और नेताओं में इस बात को लेकर आपत्ति थी कि पूरे महाद्वीप के हिंदुओं और मुसलमानों को अलग कर दिया जाएगा। बंगाल मुस्लिम लीग के सचिव अबुल हाशिम कहते हैं कि आज़ाद भारत में यहां रह रहे सभी मुल्कों को रहने की पूरी आज़ादी मिलनी चाहिए। अप्रैल १९४७ में जिन्ना ने माउंटबेटन से गुज़ारिश की थी कि बंगाल और पंजाब की एकता से खिलवाड़ मत कीजिए। इनका चरित्र,संस्कृति सब साझा है। बंगाल मुस्लिम लीग के नेता हुसैन सुहरावर्दी ने वायसराय ने कहा था कि वो नवंबर १९४७ तक विभाजन के फैसले को रोक दें। फ़ज़्लुल हक़ ने १९४० में लाहौर में पाकिस्तान घोषणा पढ़ा था। फ़ज़्लुल हक़ ने भी कहा था कि देश को बांटने से तो अच्छा है कि अंग्रेज़ थोड़ा और रुक जाएं।
नवंबर में ही आसिफ अली ज़रदारी ने क्यों कहा कि हर पाकिस्तानी में थोड़ा हिंदुस्तानी और हर हिंदुस्तानी में थोड़ा पाकिस्तानी रहता है। क्यों मुस्लिम लीग के नेता नवंबर तक ठहरने की बात कर रहे थे। क्यों रेलवे के पांच हज़ार लोग नवंबर में ही पाकिस्तान जाने के फ़ैसले को बदलना चाहते थे। क्यों हिंदू कर्मचारी इनके रुकने के फ़ैसले का विरोध करने लगे। आडवाणी, सुदर्शन और प्रज्ञा का राष्ट्रवाद धर्म की इन गलियों से क्यों गुज़रता है? गेरुआ राष्ट्रवाद गेरुआ आतंकवाद का विरोध क्यों कर रहा है? एक बेकसूर साध्वी का बचाव हो रहा है या फिर किसी सफ़दर अली ख़ान को धमकाया जा रहा है।
सफ़दर अली ख़ान। अपनी कब्र में न जाने किस मुल्क में होने का ख़्वाब देखते होंगे। ऐसे बहुत से सफ़दर थे जो डर से, दबाव में इधर से उधर हो गए। सफ़दर अली ख़ान को कोई लौटा लाता। मुरादाबाद के उस घर में...जहां वो अपनी बूढ़ी मां की तीमारदारी कर लेता और दिल्ली जाने वाली रेलगाड़ियों को हरी झंडी दिखा देता। कोई है हिंदुस्तान में जो उठ कर कह दे कि मेरे भीतर भी थोड़ा पाकिस्तानी रहता है। सुना है सिंध से आए हैं आडवाणी जी।
मां क्यों नहीं देख पाती बेटी का घर
बहुत सारी मांओं ने अपनी बेटी का घर नहीं देखा होगा। अपनी लाडली का ससुराल कैसा है बहुत मांओं ने नहीं देखा है। बेटी का नहीं खाते हैं, इस बेहूदा सामाजिक वर्जना के अलावा कई अन्य कारण भी रहे होंगे जिनके कारण मांओं ने अपनी ब्याहता बेटियों का घर नहीं देखा होगा।
बिमला देवी से मिलते ही अपने गांव की तमाम मांओं का चेहरा सामने घूम गया। गांव में अपने घर की छत पर खड़ी होकर मैंने कई मांओं को दूर से आती बेटी की बैलगाड़ी, टांगा और अब कार या बस को निहारते देखा है। तब समझ नहीं पाता था कि ये आज क्यों रास्ता देख रही हैं। बिमला देवी से मिलने के बाद पता चला कि मांएं अपने बेटियों का हर दिन रास्ता देखती हैं।
मलेशिया एयरलाइंस की सीट नंबर १४ के बगल में बिमला देवी। १९३४ की पैदाइश। दस्तखत करना जानती थीं। मिलते ही कहा मदद कर देना बेटा। हां कहने के बाद किताब पढ़ने लगा। बिमला देवी खुद से बोलने लगीं। पहली बार बेटी का घर देखा है।
मेरी बेटी बहुत अमीर है। सोलह साल हो गए शादी के। लगता था कि किस घर में ब्याही है। ठीक है या नहीं। अब सकून हो गया है। सब ठीक है। सारी मौज है। सिर्फ बच्चा नहीं हुआ है। शादी के अगले ही दिन मेरी बेटी मलेशिया चली गई। वही आती जाती रही। शादी के बाद बेटी और उसका सूटकेस ही दिखाई दिया। घर नहीं देखा था। अब देख लिया है।
सुनते ही मैं सन्न रह गया। १६ साल तक इस मां ने बेटी के घर की क्या कल्पना की होगी? क्या सोचती होगी कि मेरी बेटी का घर कैसा है? फिर ख्याल आया कि बिमला देवी अकेली नहीं हैं। मेरी मां ने भी अपनी बेटियों का घर नहीं देखा। बड़ी दीदी की शादी के बाद वो कभी गाज़िपुर नहीं जा सकीं। पता नहीं किसी ने बुलाया या नहीं। बेटियों का वही घर देखा जहां उनके पति काम करते हैं। पुश्तैनी घर नहीं देख पाई। मेरी चाचियों ने तो इतना भी नहीं देखा।
इसे हम बाप या पुरुष कम समझेंगे। मांओं का बड़ा गहरा रिश्ता होता है बेटियों से। हर मां के भीतर एक बेटी होती है। जो अपना घर छोड़ कर आई होती है। शादी होते ही उसका घर मायका कहलाने लगता है। पता नहीं अपने पुरानी घर की यादों के बीच कैसे कोई लड़की, कोई मां और कोई बेटी नए और अनजाने घर को सजाने में लग जाती है। अपना बनाने में लग जाती है।
इन सब सवालों के जवाब ढूंढने का वक्त किसके पास है। सामाजिक संरचना में विकल्पों के लिए जगह कम होते हैं। बिमला देवी एयर होस्टेस को देख कर कहने लगी..बिचारी इसकी मां कितनी फिकर करती होगी। बिल्कुल बारात में जैसे स्वागत करते हैं, हंस हंस के खिलाते हैं, वैसे ये हम सब की खातिरदारी कर रही है।बिमला देवी को लगा कि यह मेरी ही बेटी है। रोकते रोकते उस खूबसूरत एयर होस्टेस को कह दिया कि बेटी तुम भी आराम कर लो। कुछ खा लो। केवल हमारा ही ख्याल कर रही हो। एयर होस्टेस की उस मुस्कान में अचानक अपनापन दिखा। वर्ना मुस्कुराना तो उनका काम ही है।
बिमला देवी से मिलते ही अपने गांव की तमाम मांओं का चेहरा सामने घूम गया। गांव में अपने घर की छत पर खड़ी होकर मैंने कई मांओं को दूर से आती बेटी की बैलगाड़ी, टांगा और अब कार या बस को निहारते देखा है। तब समझ नहीं पाता था कि ये आज क्यों रास्ता देख रही हैं। बिमला देवी से मिलने के बाद पता चला कि मांएं अपने बेटियों का हर दिन रास्ता देखती हैं।
मलेशिया एयरलाइंस की सीट नंबर १४ के बगल में बिमला देवी। १९३४ की पैदाइश। दस्तखत करना जानती थीं। मिलते ही कहा मदद कर देना बेटा। हां कहने के बाद किताब पढ़ने लगा। बिमला देवी खुद से बोलने लगीं। पहली बार बेटी का घर देखा है।
मेरी बेटी बहुत अमीर है। सोलह साल हो गए शादी के। लगता था कि किस घर में ब्याही है। ठीक है या नहीं। अब सकून हो गया है। सब ठीक है। सारी मौज है। सिर्फ बच्चा नहीं हुआ है। शादी के अगले ही दिन मेरी बेटी मलेशिया चली गई। वही आती जाती रही। शादी के बाद बेटी और उसका सूटकेस ही दिखाई दिया। घर नहीं देखा था। अब देख लिया है।
सुनते ही मैं सन्न रह गया। १६ साल तक इस मां ने बेटी के घर की क्या कल्पना की होगी? क्या सोचती होगी कि मेरी बेटी का घर कैसा है? फिर ख्याल आया कि बिमला देवी अकेली नहीं हैं। मेरी मां ने भी अपनी बेटियों का घर नहीं देखा। बड़ी दीदी की शादी के बाद वो कभी गाज़िपुर नहीं जा सकीं। पता नहीं किसी ने बुलाया या नहीं। बेटियों का वही घर देखा जहां उनके पति काम करते हैं। पुश्तैनी घर नहीं देख पाई। मेरी चाचियों ने तो इतना भी नहीं देखा।
इसे हम बाप या पुरुष कम समझेंगे। मांओं का बड़ा गहरा रिश्ता होता है बेटियों से। हर मां के भीतर एक बेटी होती है। जो अपना घर छोड़ कर आई होती है। शादी होते ही उसका घर मायका कहलाने लगता है। पता नहीं अपने पुरानी घर की यादों के बीच कैसे कोई लड़की, कोई मां और कोई बेटी नए और अनजाने घर को सजाने में लग जाती है। अपना बनाने में लग जाती है।
इन सब सवालों के जवाब ढूंढने का वक्त किसके पास है। सामाजिक संरचना में विकल्पों के लिए जगह कम होते हैं। बिमला देवी एयर होस्टेस को देख कर कहने लगी..बिचारी इसकी मां कितनी फिकर करती होगी। बिल्कुल बारात में जैसे स्वागत करते हैं, हंस हंस के खिलाते हैं, वैसे ये हम सब की खातिरदारी कर रही है।बिमला देवी को लगा कि यह मेरी ही बेटी है। रोकते रोकते उस खूबसूरत एयर होस्टेस को कह दिया कि बेटी तुम भी आराम कर लो। कुछ खा लो। केवल हमारा ही ख्याल कर रही हो। एयर होस्टेस की उस मुस्कान में अचानक अपनापन दिखा। वर्ना मुस्कुराना तो उनका काम ही है।
सर्दी के साथ क्यों आती है
हिमालय से उतर कर आती हवाओं में
पुरानी बातों का जैसे कोई बिस्तर बिछा हो
किसी बर्फ सी जमी परतों के भीतर
जैसे पुरानी यादें धीरे धीरे पिघल रही हों
बढ़ने लगता है अकेलापन सर्दी के आते ही
जैसे गरम होने लगता है कोई चादरों में लिपट कर
कभी बाबूजी का मफलर लपेटना
कभी उनकी खनकती आवाज़ का डर
शाम को घर लौटने से पहले आमलेट खाना
घर के बंद होते दरवाज़ें,खिड़कियां
बाहर से आने वाली हवाओं को रोक कर
अंदर बची हवाओं से टकराती नई हवायें
बहुत तेजी से उठती हैं भीतर कोई हूक
पुरानी बातें याद आने लगती है
बहुत बाद में पता चलता है
सर्दी आ गई है,यादों को लेकर
पुरानी बातों का जैसे कोई बिस्तर बिछा हो
किसी बर्फ सी जमी परतों के भीतर
जैसे पुरानी यादें धीरे धीरे पिघल रही हों
बढ़ने लगता है अकेलापन सर्दी के आते ही
जैसे गरम होने लगता है कोई चादरों में लिपट कर
कभी बाबूजी का मफलर लपेटना
कभी उनकी खनकती आवाज़ का डर
शाम को घर लौटने से पहले आमलेट खाना
घर के बंद होते दरवाज़ें,खिड़कियां
बाहर से आने वाली हवाओं को रोक कर
अंदर बची हवाओं से टकराती नई हवायें
बहुत तेजी से उठती हैं भीतर कोई हूक
पुरानी बातें याद आने लगती है
बहुत बाद में पता चलता है
सर्दी आ गई है,यादों को लेकर
सिटी ऑफ सीमेंट
क्वालालंपुर से लौटा हूं।सीमेंट और स्टील की जोड़ी ने हवाई अड्डे को किसी शापिंग मॉल का चमकदार बाथरूम जैसा बना दिया है। हर चीज़ चमकती हुई। स्टील के खंभे और लकड़ी जैसी किसी चीज़ की छत। एयरपोर्ट से लेकर शहर की हर सार्वजनिक इमारतों से लगभग सीढ़ियों को ग़ायब कर दिया गया है। एस्कलेटर। भारत के माल में भी एस्कलेटर पुराना हो चुका है। मगर हम भूल गए हैं कि इस एस्कलेटर ने पेट पर बल महसूस करते हुए ऊपर चढ़ने का अनुभव खत्म कर दिया है। बल्कि समतल सतह पर भी एस्कलेटर की पट्टियां दौड़ती हैं। जो अनावश्यक विस्तार लिये एयरपोर्ट में एक काउंटर से दूसरे काउंटर के बीच की दूरी को तय करने में मदद करती हैं।
एयरपोर्ट से बाहर निकलते ही स्टील पीछे छूटता है और सीमेंट दिखने लगता है। हर सड़क एक दूसरे के ऊपर से गुज़र रही है। दो सड़कों के बीच से रेल गुज़र रही है। रेल के ऊपर से कार और कार के ऊपर से मोनो रेल। हर कोई गुज़र रहा है। सीमेंट की मौजूदगी से आंखें पथरीली होने लगती हैं। बस और रेल को रंग कर बच्चों के खिलौने जैसा बना दिया गया है। हर कुछ रंगीन। क्वालालंपुर के पास पुराना कुछ नहीं बचा है। सब सीमेंट का बना है। पहली नज़र में लगा कि यहां के कमीशनखोर भारत के घूसखोरों से ईमानदार हैं। मगर अख़बारों से पता चल गया कि भ्रष्टाचार मलेशिया के लिए नया नहीं है।
शहर ने सैलानियों को बुलाने के लिए हर पुरानी इमारत को तोड़ दिया है। इन्हीं सब के बीच एक इमारत पर नज़र गई। १९०४ की बनी हुई एक इमारत। लिखा था विवेकानंद आश्रम। हवाई यात्राओं के पहले के दौर में कौन गया होगा विवेकानंद का नाम लेकर। सोचता रहा। अचानक ध्यान गया कि यह इमारत कैसे बची रह गई। किसने बचा लिया इसे। इसे भी तो तोड़ कर सौ मंज़िल की इमारत बन सकती थी।
दस दस मंज़िल की इमारत में मॉल है। मॉल को मेट्रो और मोनो रेल के स्टेशन से जोड़ दिया है। मोनो रेल से उतर कर सीधे माल में। बाज़ार का नामो निशान मिटा दिया गया है। हाट के अवशेष गायब हैं। क्वालालंपुर उन सैलानियों का शहर है जो सीमेंट का कमाल देखना चाहते हैं। देखना चाहते हैं कि कोई शहर बिना ऐतिहासिक इमारतों के भी लोगों को बुला सकता है। शहर बच्चों का खिलौना घर है और आदमी सीमेंट कृतियों को देखने के लिए बौराया हुआ लगता है।
लेकिन आंखों का किसी ने नहीं सोचा। कितने दिन तक ईंट पत्थर की ये इमारतें आकर्षित कर सकती हैं। वैसे भी जब से दिल्ली में मॉल, फ्लाई ओवर और मेट्रो देखा है विदेश जाने का आकर्षण खत्म हो गया है। पहले सुन कर उत्सुकता होती थी कि कोई विदेश गया है। वहां की कई चीज़ें यहां नहीं होती थीं। अब तो यहां वहां में कोई फर्क नहीं है। इसलिए विदेश यात्रा का कस्बाई रोमांच अब खत्म हो चुका है। सीमेंट और स्टील से बने इस शहर में आपका स्वागत है। इससे पहले कि आप यहां की नगर योजनाओं के कायल हो जाएं, बता दूं कि तमाम स्तरों और प्रकारों के फ्लाई ओवर और मोनो रेल के बाद भी सड़क पर कारें सरकती हैं। क्वालालंपुर सीमेंटनुमा नगर योजनाओं की नाकामी का शहर है। फिर भी अगर आप बिल्डर हैं तो यह आपकी पसंद का शहर हो सकता है। आते जाते रहियेगा। मुझे मत कहियेगा दुबारा जाने के लिए।
एयरपोर्ट से बाहर निकलते ही स्टील पीछे छूटता है और सीमेंट दिखने लगता है। हर सड़क एक दूसरे के ऊपर से गुज़र रही है। दो सड़कों के बीच से रेल गुज़र रही है। रेल के ऊपर से कार और कार के ऊपर से मोनो रेल। हर कोई गुज़र रहा है। सीमेंट की मौजूदगी से आंखें पथरीली होने लगती हैं। बस और रेल को रंग कर बच्चों के खिलौने जैसा बना दिया गया है। हर कुछ रंगीन। क्वालालंपुर के पास पुराना कुछ नहीं बचा है। सब सीमेंट का बना है। पहली नज़र में लगा कि यहां के कमीशनखोर भारत के घूसखोरों से ईमानदार हैं। मगर अख़बारों से पता चल गया कि भ्रष्टाचार मलेशिया के लिए नया नहीं है।
शहर ने सैलानियों को बुलाने के लिए हर पुरानी इमारत को तोड़ दिया है। इन्हीं सब के बीच एक इमारत पर नज़र गई। १९०४ की बनी हुई एक इमारत। लिखा था विवेकानंद आश्रम। हवाई यात्राओं के पहले के दौर में कौन गया होगा विवेकानंद का नाम लेकर। सोचता रहा। अचानक ध्यान गया कि यह इमारत कैसे बची रह गई। किसने बचा लिया इसे। इसे भी तो तोड़ कर सौ मंज़िल की इमारत बन सकती थी।
दस दस मंज़िल की इमारत में मॉल है। मॉल को मेट्रो और मोनो रेल के स्टेशन से जोड़ दिया है। मोनो रेल से उतर कर सीधे माल में। बाज़ार का नामो निशान मिटा दिया गया है। हाट के अवशेष गायब हैं। क्वालालंपुर उन सैलानियों का शहर है जो सीमेंट का कमाल देखना चाहते हैं। देखना चाहते हैं कि कोई शहर बिना ऐतिहासिक इमारतों के भी लोगों को बुला सकता है। शहर बच्चों का खिलौना घर है और आदमी सीमेंट कृतियों को देखने के लिए बौराया हुआ लगता है।
लेकिन आंखों का किसी ने नहीं सोचा। कितने दिन तक ईंट पत्थर की ये इमारतें आकर्षित कर सकती हैं। वैसे भी जब से दिल्ली में मॉल, फ्लाई ओवर और मेट्रो देखा है विदेश जाने का आकर्षण खत्म हो गया है। पहले सुन कर उत्सुकता होती थी कि कोई विदेश गया है। वहां की कई चीज़ें यहां नहीं होती थीं। अब तो यहां वहां में कोई फर्क नहीं है। इसलिए विदेश यात्रा का कस्बाई रोमांच अब खत्म हो चुका है। सीमेंट और स्टील से बने इस शहर में आपका स्वागत है। इससे पहले कि आप यहां की नगर योजनाओं के कायल हो जाएं, बता दूं कि तमाम स्तरों और प्रकारों के फ्लाई ओवर और मोनो रेल के बाद भी सड़क पर कारें सरकती हैं। क्वालालंपुर सीमेंटनुमा नगर योजनाओं की नाकामी का शहर है। फिर भी अगर आप बिल्डर हैं तो यह आपकी पसंद का शहर हो सकता है। आते जाते रहियेगा। मुझे मत कहियेगा दुबारा जाने के लिए।
ब्लॉगर को फुटबॉलर कहें
सारे पत्रकार ब्लॉगर हैं तो क्या सारे ब्लॉगर पत्रकार होने ही चाहिए? ब्लॉगर को क्या कहें? क्यों कहें क्या? ब्लॉगर कहें। पत्रकार को पत्रकार रहने दें। बहस की मूल प्रति मैंने नहीं पढ़ी है। लेकिन मूल भावना समझ रहा हूं। नेमप्लेट के बिना काम नहीं चलता हमारा। हम वो लोग हैं जब टाइप करते हैं। दसों पोरों से टपा टप छाप देते हैं। लिखते होंगे वो जिनकी जेब में अभी भी सरकंडे के गर्भ से पैदा हुई कलम है। अब तो कलम का इस्तमाल चेक बुक साइन करने में हो रहा है। ख्वामखाह लोगों ने कलम ने लेकर चलना छोड़ दिया है। सामने वाली की जेब में बेकार पड़े कलम को एक मिनट के लिए मांग कर हमेशा के लिए गायब कर देते हैं।
बस मेरी राय। अंतिम नहीं है मगर अंतरिम है। लफंगा को अगर लोफर कहें तो अच्छा नहीं लगेगा। लोफर लफंगा कहें तो चलेगा। ब्लॉगर के साथ भी बोगी जोड़ दीजिए। अगर जोड़नी ही है तो। हमने ब्लॉगर को लफंगा नहीं कहा है। इस पर कोई टिप्पणी न करें। बस एक मिसाल दी है। हिंदी के महाविशाल शब्दकोष में पहले से पैदा हो चुके शब्दों को खोज लाने का आइडिया दिया है। नया शब्द नहीं बना सकते क्या? हम पैदा होते हैं। आप पैदा हो सकते हैं। ये शब्द क्या चीज़ हैं जो हमारे पैदा होने के बाद पैदा नहीं होंगे।
तथाअस्तु। वक्त कम है। उंगलियों में दर्द बढ़ रहा है। हम सब भारतीय हैं। हम सब ब्लॉगर हैं। हममें से कुछ पत्रकार हैं। पत्रकार कहानी लिख दे रहा है। कविता से लेकर संस्मरण तक के तमाम प्रकारों में सृजन कर दे रहा है लेकिन कहलाता तो वही है न। पत्रकार। तो काहें ब्लॉगरों के बीच कुछ कहाने के लिए टांग अड़ा रहा है।
इसके बाद ब्लॉगरों का लिंग भेद शुरू हो जाएगा। महिला ब्लॉगर को क्या कहें। लेडीज़ ब्लॉगर। लेडीज़ कूपे बनानी है। ब्लॉगरी कहें। री ब्लॉगरी तुम काहे ब्ला ब्ला टिपयाती हो। इस नाम का कोई महिलाकरण या पुरुष सशक्तिकरण नहीं होना चाहिए। हम सब ब्लॉगर हैं। जेंडर डिवाइड को नहीं मानते हैं। नाम के लिए। इसलिए दोस्तों इस बहस में आग डालो। फूस डालो। मिट्टी को पकाओ। तपाओ। नाम मत रखो। शब्दकोष यूं ही भारी हुआ जा रहा है।
अखबार तो ब्लाग का प्रचार प्रसार कर रहे हैं। उनका तो शुक्रिया अदा करना चाहिए। कोई कंपटीशन है ही नहीं। अख़बार रोज़गार सृजन करता है ब्लॉग गल्प सृजन। दोनों का योगदान अलग अलग है। इसलिए थूकने के पीकदान अलग होने चाहिएं। नाम एक से नहीं होने चाहिएं। आओ ब्लॉगरों,युवा,वृद्ध,महिला.युवती,पुरुष सब मिलकर यही प्रण करें...मरें चाहें जीयें...एक एक्स्ट्रा नाम से पुकारे जायें...ब्लॉगर ही कहलायें। आमीन।
बस मेरी राय। अंतिम नहीं है मगर अंतरिम है। लफंगा को अगर लोफर कहें तो अच्छा नहीं लगेगा। लोफर लफंगा कहें तो चलेगा। ब्लॉगर के साथ भी बोगी जोड़ दीजिए। अगर जोड़नी ही है तो। हमने ब्लॉगर को लफंगा नहीं कहा है। इस पर कोई टिप्पणी न करें। बस एक मिसाल दी है। हिंदी के महाविशाल शब्दकोष में पहले से पैदा हो चुके शब्दों को खोज लाने का आइडिया दिया है। नया शब्द नहीं बना सकते क्या? हम पैदा होते हैं। आप पैदा हो सकते हैं। ये शब्द क्या चीज़ हैं जो हमारे पैदा होने के बाद पैदा नहीं होंगे।
तथाअस्तु। वक्त कम है। उंगलियों में दर्द बढ़ रहा है। हम सब भारतीय हैं। हम सब ब्लॉगर हैं। हममें से कुछ पत्रकार हैं। पत्रकार कहानी लिख दे रहा है। कविता से लेकर संस्मरण तक के तमाम प्रकारों में सृजन कर दे रहा है लेकिन कहलाता तो वही है न। पत्रकार। तो काहें ब्लॉगरों के बीच कुछ कहाने के लिए टांग अड़ा रहा है।
इसके बाद ब्लॉगरों का लिंग भेद शुरू हो जाएगा। महिला ब्लॉगर को क्या कहें। लेडीज़ ब्लॉगर। लेडीज़ कूपे बनानी है। ब्लॉगरी कहें। री ब्लॉगरी तुम काहे ब्ला ब्ला टिपयाती हो। इस नाम का कोई महिलाकरण या पुरुष सशक्तिकरण नहीं होना चाहिए। हम सब ब्लॉगर हैं। जेंडर डिवाइड को नहीं मानते हैं। नाम के लिए। इसलिए दोस्तों इस बहस में आग डालो। फूस डालो। मिट्टी को पकाओ। तपाओ। नाम मत रखो। शब्दकोष यूं ही भारी हुआ जा रहा है।
अखबार तो ब्लाग का प्रचार प्रसार कर रहे हैं। उनका तो शुक्रिया अदा करना चाहिए। कोई कंपटीशन है ही नहीं। अख़बार रोज़गार सृजन करता है ब्लॉग गल्प सृजन। दोनों का योगदान अलग अलग है। इसलिए थूकने के पीकदान अलग होने चाहिएं। नाम एक से नहीं होने चाहिएं। आओ ब्लॉगरों,युवा,वृद्ध,महिला.युवती,पुरुष सब मिलकर यही प्रण करें...मरें चाहें जीयें...एक एक्स्ट्रा नाम से पुकारे जायें...ब्लॉगर ही कहलायें। आमीन।
एक हिंदू का आत्ममंथन
आत्ममंथन सिर्फ मुसलमानों का एकाधिकार नहीं है। हिंदू का भी है। फर्क सिर्फ इतना है कि मुसलमानों को आत्ममंथन से थोड़े दिनों के लिए आराम मिल गया होगा। इन दिनों हिंदू भाई लोग बिज़ी हो गए हैं आत्ममंथन में। रमेश उपाध्याय और ले कर्नल पुरोहित जैसे नामुराद देशभक्तों ने अपने ऊपर पुलिसिया आरोपों का चादर ओढ़ मुझे परेशान कर दिया है। कई दिन से आत्ममंथन किये जा रहा हूं। कम्पलीट हिंदू आत्ममंथन। एक दो मुस्लिम भाइयों को भी पुकारा। आइये न आप भी मेरे ही साथ आत्ममंथन कर लीजिए। मना कर दिया। गरम हो गए और बोले कि क्या आप हिंदू ने मेरे साथ आत्ममंथन किया था। अपना अपना आत्ममंथन होगा अब से।
साध्वी प्रज्ञा सिंह ठाकुर पर लगे आरोपों को हिंदू आतंकवाद नहीं कहा जाना चाहिए। इस दलील से मैं एकदम सहमत हूं। सभी हिंदू आतंकवादी नहीं होते। इससे आहत हो सकते हैं। लेकिन मालेगांव धमाके में पकड़े जा रहे सभी लोग हिंदू ही क्यों हैं? ज़रूर सारे हिंदू आतंकवादी होंगे। जब मैं यह लिख रहा था तो एक मुसलमान रोने लगा। कहने लगा भाई गृहमंत्रालय से आंकड़े तो ले आइये। पचासों धमाके में मरने वाले दो ढाई हज़ार लोगों के साथ हम पंद्रह करोड़ मुसलमान भी मारे जा चुके हैं। आतंकवादी बता कर। क्योंकि सारे आतंकवादी मुसलमान ही होते हैं। अच्छा है आप आत्ममंथन कर रहे हैं।
अभिनव भारत। हिंदू जागरण मंच। इंडियन मुजाहिदीन। मुझसे एक मौलाना ने कहा था कि हो सकता है कि कोई और धमाका कर रहा हो। मुस्लिम आतंकवादी मस्जिद पर क्यों करेगा जब इस्लाम के नाम पर धमाका करेगा। कहीं कोई हिंदू तो नहीं। तब मेरे एक हिंदू मित्र ने कहा कि हिंदू आतंकवादी नहीं हो सकता। सनातनी हो सकता है। हम सहिष्णु लोग है। इस्लाम तलवार से फैला है और हिंदू धर्म संस्कार से। हमने अपने संस्कारों के दम पर ही दलितों को नालियों के किनारे रहने पर मजबूर कर दिया। इस्लाम भी तो इन्हीं नालियों के किनारे फैला। दलितों की हिम्मत जो हमारे रास्ते से गुजर जाएं। डरपोक दलित तलवार से डर गए। कुछ इस्लाम की तरफ चले गए। और हम कुछ नहीं कर पाए। सहिष्णु हैं। अब कुछ करना चाहते हैं इसलिए सांप्रदायिक हो रहे हैं। अभिनव भारत बना रहे हैं। साध्वियों को काम पर लगा रहे हैं।
तो गप्प बंद करता हूं। आत्ममंथन कर रहा हूं। उपाध्याय और पुरोहित को नहीं जानता। साध्वी से नहीं मिला। तो क्या हुआ। तीनों हिंदू तो हैं। आरोप साबित नहीं हुआ तो क्या हुआ। आरोप तो हैं। जब आरोपों के दम पर पंद्रह करोड़ मुसलमान आत्ममंथन करने पर मजबूर किये जा सकते हैं तो सनातन और सहिष्णु हिंदुओं को खुद से करना चाहिए। आत्ममंथन के लिए सबसे ज़रूरी है अपना घर बेचकर जामिया नगर में मकान खरीदना चाहिए। मुसलमानों से घुलमिल कर रहना चाहिए। आखिर सारे हिंदू जामिया नगर से अलग क्यों रहते हैं। क्यों ग्रेटर कैलाश और फ्रैंड्स कालोनी में रहते हैं। एक जगह क्यों रहते हैं। एक जगह रहने से घेटोआइजेशन होता है। एक तरह की मानसिकता बनती है। आतंकवादी मानसिकता को बढ़ावा मिलता है। मैं कुछ नहीं कर रहा। बस पुरानी दलीलों और विश्वेषणों को साध्वी और पुरोहित के करतूत के बहाने वृहत हिंदू समाज पर अप्लाई यानी लागू कर रहा हूं। एक शब्द मे आत्मंथन कर रहा हूं।
माफ कीजिएगा। देर हो गई। आत्ममंथन की तरह अमृतमंथन के इतिहास से डर रहा था। अमृत मिला नहीं कि देवता और असुर आपस में भिड़ गए। तिकड़म करने लगे। जब से यह कहानी जानता हूं किसी भी तरह के मंथन से डर लगता है। कहीं कुछ मिल न जाए और लोग भिड़ न जाएं। लेकिन कोई बात नहीं। तिकड़म भी की जाएगी। पहले आत्मंथन तो कर
साध्वी प्रज्ञा सिंह ठाकुर पर लगे आरोपों को हिंदू आतंकवाद नहीं कहा जाना चाहिए। इस दलील से मैं एकदम सहमत हूं। सभी हिंदू आतंकवादी नहीं होते। इससे आहत हो सकते हैं। लेकिन मालेगांव धमाके में पकड़े जा रहे सभी लोग हिंदू ही क्यों हैं? ज़रूर सारे हिंदू आतंकवादी होंगे। जब मैं यह लिख रहा था तो एक मुसलमान रोने लगा। कहने लगा भाई गृहमंत्रालय से आंकड़े तो ले आइये। पचासों धमाके में मरने वाले दो ढाई हज़ार लोगों के साथ हम पंद्रह करोड़ मुसलमान भी मारे जा चुके हैं। आतंकवादी बता कर। क्योंकि सारे आतंकवादी मुसलमान ही होते हैं। अच्छा है आप आत्ममंथन कर रहे हैं।
अभिनव भारत। हिंदू जागरण मंच। इंडियन मुजाहिदीन। मुझसे एक मौलाना ने कहा था कि हो सकता है कि कोई और धमाका कर रहा हो। मुस्लिम आतंकवादी मस्जिद पर क्यों करेगा जब इस्लाम के नाम पर धमाका करेगा। कहीं कोई हिंदू तो नहीं। तब मेरे एक हिंदू मित्र ने कहा कि हिंदू आतंकवादी नहीं हो सकता। सनातनी हो सकता है। हम सहिष्णु लोग है। इस्लाम तलवार से फैला है और हिंदू धर्म संस्कार से। हमने अपने संस्कारों के दम पर ही दलितों को नालियों के किनारे रहने पर मजबूर कर दिया। इस्लाम भी तो इन्हीं नालियों के किनारे फैला। दलितों की हिम्मत जो हमारे रास्ते से गुजर जाएं। डरपोक दलित तलवार से डर गए। कुछ इस्लाम की तरफ चले गए। और हम कुछ नहीं कर पाए। सहिष्णु हैं। अब कुछ करना चाहते हैं इसलिए सांप्रदायिक हो रहे हैं। अभिनव भारत बना रहे हैं। साध्वियों को काम पर लगा रहे हैं।
तो गप्प बंद करता हूं। आत्ममंथन कर रहा हूं। उपाध्याय और पुरोहित को नहीं जानता। साध्वी से नहीं मिला। तो क्या हुआ। तीनों हिंदू तो हैं। आरोप साबित नहीं हुआ तो क्या हुआ। आरोप तो हैं। जब आरोपों के दम पर पंद्रह करोड़ मुसलमान आत्ममंथन करने पर मजबूर किये जा सकते हैं तो सनातन और सहिष्णु हिंदुओं को खुद से करना चाहिए। आत्ममंथन के लिए सबसे ज़रूरी है अपना घर बेचकर जामिया नगर में मकान खरीदना चाहिए। मुसलमानों से घुलमिल कर रहना चाहिए। आखिर सारे हिंदू जामिया नगर से अलग क्यों रहते हैं। क्यों ग्रेटर कैलाश और फ्रैंड्स कालोनी में रहते हैं। एक जगह क्यों रहते हैं। एक जगह रहने से घेटोआइजेशन होता है। एक तरह की मानसिकता बनती है। आतंकवादी मानसिकता को बढ़ावा मिलता है। मैं कुछ नहीं कर रहा। बस पुरानी दलीलों और विश्वेषणों को साध्वी और पुरोहित के करतूत के बहाने वृहत हिंदू समाज पर अप्लाई यानी लागू कर रहा हूं। एक शब्द मे आत्मंथन कर रहा हूं।
माफ कीजिएगा। देर हो गई। आत्ममंथन की तरह अमृतमंथन के इतिहास से डर रहा था। अमृत मिला नहीं कि देवता और असुर आपस में भिड़ गए। तिकड़म करने लगे। जब से यह कहानी जानता हूं किसी भी तरह के मंथन से डर लगता है। कहीं कुछ मिल न जाए और लोग भिड़ न जाएं। लेकिन कोई बात नहीं। तिकड़म भी की जाएगी। पहले आत्मंथन तो कर
अश्वेत एक फटीचर शब्द है
राधा क्यों गोरी मैं क्यूं काला की जगह राधा क्यों श्वेत मैं क्यूं अश्वेत...क्या ऐसा सुनना पसंद करेंगे इस गाने को। अंग्रेज़ी में ब्लैक ही कहा जा रहा है हिंदी के मास्टरों ने अश्वेत बना दिया है। पता नहीं किस कूड़ेदान से इस शब्द को उठाकर अखबारों के पन्नों पर फेंक दिया गया है। राजनीतिक चेतना हमेशा ग़लत शब्दों के कारण फूहड़ हो जाती है।
जो काला है वो काला है। जो गोरा है वो गोरा है। अश्वेत कह कर आप किसी काले को ही संबोधित करना चाहते हैं। ठीक है कि काले की संवेदनशीलता का ख्याल रखा जाता है पर क्या वो नहीं जानता कि अश्वेत सिर्फ एक बहाना है। असल में आशय काला ही है। बराक ओबामा को हिंदी मीडिया के स्टाइल शीट प्रोफेसर क्या लिखें। अश्वेत या श्वेत। ओबामा की हर खबर में यह फटीचर शब्द आता है। अश्वेत। काला शब्द में खराबी नहीं। सिर्फ उसके पीछे की अवधारणा में है। जो लड़ाई लड़ी जा रही है वो काला शब्द के खिलाफ नहीं है बल्कि अवधारणा से होगी। वो अवधारणा जिसे समाज तय करता है।
तभी तो बोली मुसकाती मैया सुन मेरे प्यारे। गा गा कर यशोदा नंद के सवालों का जवाब नहीं देती। मगर यशोदा यह नहीं कहती कि काला होना खराब है। बेटे कान्हा तुम काले नहीं अश्वेत हो। राधा भी गोरी नहीं कान्हा, वो तो श्वेत है। ऑटोग्राफ का हिंदी में क्या शब्द हो। यह धारणा तो हिंदी की नहीं है न। मुझे नहीं लगता कि हनुमान ने राम और सीता का ऑटोग्राफ मांगा होगा या अकबर ने तानसेन। वर्ना इसका भी हिंदी शब्द होता ही। नहीं है तो ऑटोग्राफ कहने में क्या हर्ज़।
मुझे नहीं पता ओबामा क्या करेंगे। लेकिन उनकी जीत से जो असर होगा उसमें मेरी दिलचस्पी है। एक काला राष्ट्रपति बनेगा। हमारे यहां भी कई काले और गोरे राष्ट्रपति बन चुके हैं। लेकिन नस्ल का भेद यहां नहीं। रंग का है। शादियों में लड़का पूछता है कि दुल्हन गोरी है न। शादी के विज्ञापनों में लिखा होता है कन्या गौर वर्ण की है। ये एक और अति है। गौर वर्ण। मोरा गोरा रंग लई ले...मोहे श्याम रंग दई दे....रंगों का एक्सचेंज ऑफर है इस गाने में। मोरा श्वेत रंग लई ले नहीं है।
जो काला है वो काला है। जो गोरा है वो गोरा है। अश्वेत कह कर आप किसी काले को ही संबोधित करना चाहते हैं। ठीक है कि काले की संवेदनशीलता का ख्याल रखा जाता है पर क्या वो नहीं जानता कि अश्वेत सिर्फ एक बहाना है। असल में आशय काला ही है। बराक ओबामा को हिंदी मीडिया के स्टाइल शीट प्रोफेसर क्या लिखें। अश्वेत या श्वेत। ओबामा की हर खबर में यह फटीचर शब्द आता है। अश्वेत। काला शब्द में खराबी नहीं। सिर्फ उसके पीछे की अवधारणा में है। जो लड़ाई लड़ी जा रही है वो काला शब्द के खिलाफ नहीं है बल्कि अवधारणा से होगी। वो अवधारणा जिसे समाज तय करता है।
तभी तो बोली मुसकाती मैया सुन मेरे प्यारे। गा गा कर यशोदा नंद के सवालों का जवाब नहीं देती। मगर यशोदा यह नहीं कहती कि काला होना खराब है। बेटे कान्हा तुम काले नहीं अश्वेत हो। राधा भी गोरी नहीं कान्हा, वो तो श्वेत है। ऑटोग्राफ का हिंदी में क्या शब्द हो। यह धारणा तो हिंदी की नहीं है न। मुझे नहीं लगता कि हनुमान ने राम और सीता का ऑटोग्राफ मांगा होगा या अकबर ने तानसेन। वर्ना इसका भी हिंदी शब्द होता ही। नहीं है तो ऑटोग्राफ कहने में क्या हर्ज़।
मुझे नहीं पता ओबामा क्या करेंगे। लेकिन उनकी जीत से जो असर होगा उसमें मेरी दिलचस्पी है। एक काला राष्ट्रपति बनेगा। हमारे यहां भी कई काले और गोरे राष्ट्रपति बन चुके हैं। लेकिन नस्ल का भेद यहां नहीं। रंग का है। शादियों में लड़का पूछता है कि दुल्हन गोरी है न। शादी के विज्ञापनों में लिखा होता है कन्या गौर वर्ण की है। ये एक और अति है। गौर वर्ण। मोरा गोरा रंग लई ले...मोहे श्याम रंग दई दे....रंगों का एक्सचेंज ऑफर है इस गाने में। मोरा श्वेत रंग लई ले नहीं है।
ओ जाने वाले हो सके तो...
लिखने वाला कितना समझदार था। जानेवाले को यह नहीं कहा कि आ ही जाना। इतना कहा कि हो सके तो लौट के आना। अब तो हो सकने पर भी लौट कर नहीं आएंगे कुंबले। कुंबले ने सन्यास का एलान कर दिया।
कोटला और कुंबले का अब हिंदी टीवी पर अनुप्रास नहीं बन पाएगा। अब किसी और को ढूंढना होगा जंबो कहने के लिए। अठारह साल इंतज़ार करना होगा किसी को कुंबले बनने के लिए। कुंबले ने याद दिला दिया कि उन्हें देखते देखते अठारह साल निकल गए। हम कभी बोर नहीं हुए।
हिंदी पट्टी के टीवी चैनलों ने बवाल नहीं मचाया होता तो शायद ख्याल नहीं आता कि गांगुली और कुंबले को रिटायर होना है।
टीवी चैनल के क्रिकेट रिपोर्टर बोर हो गए। जो चिचियाते रहे कि कब जाएंगे कुबले? कब जाएंगे दादा? और ये सहवाग क्यों है टीम में?
क्रिकेट में ऐसे खूंखार सवालों के दौर में मेरी इस खेल से दिलचस्पी चली गई। जिस तरह से हम सब हिंदी भाषा के विशेषज्ञ हो जाते हैं उसी तरह से हर खेलने वाला क्रिकेट का विशेषज्ञ हो जाता है। अमेरिका लिखें या अमरीका वाली बहस के तर्ज पर हमने खिलाड़ियों की स्टाइल शीट बनानी शुरू कर दी। दिवाली के बाद जैसे सूप लेकर घरों से दरिद्र भगाते हैं वैसे ही अपने महान खिलाड़ियों को भगाने लगे। घर के बुजुर्ग को हम बहुत जल्दी दोस्तों के बीच बुढ़वा या बुढ़ऊ कहने लगते हैं।
कुंबले, गांगुली, सचिन और द्रविड़ का दौर जा रहा है। सब उस पहाड़ पर पड़े हुए खिलाड़ी की तरह बताये जा रहे हैं जहां चढ़ने के बाद उतरने का मन नहीं करता। थकान की वजह से या क्रिकेट रिपोर्टरों के अनुसार पैसे कमाने की आदत की वजह से। मुझे बहुत दुख हुआ। जाने वाले की विदाई के लिए आंसू होते हैं। सो इस्तमाल हुए। दराज़ से कुंबले का वो स्कोर कार्ड भी निकाला जिसपर हर विकेट के आगे कुंबले का नाम था। खेल पत्रकार गुलु एज़िक्येल ने मुझे फोटो स्टेट कापी थी। यह बचा रहा मेरे साथ।
कुंबले चले गए। अब वो ज़माना नहीं रहा कि इमरान ने सन्यास लिया फिर टीम में आ गए। उस खेल में जहां जवानी में रिटायर होना पड़ता है। खेलने वाला जानता है वो जाने के लिए आया है। जीने के लिए नहीं आया है। अनिल कुंबले को बहुत बहुत बधाई उन तमाम यादों के लिए जब मेरी तेज होती धड़कनों को वो अपने विकेट से थाम लेते थे। भारत को जीत दिला देते थे। उन तमाम बदहवाश पलों के लिए जब दांतों के बीच मेरे नाखुन पीसते रहते थे...और कुंबले बिना किसी तनाव के उंगलियों को बाहर निकाल देते थे। हार जीत के तनाव को उल्लास में बदलते रहने वाले कुंबले की उंगलियां चूम लेने का मन करता है।
मैंने क्रिकेट के मैच को अपने तमाम वहमों के साथ ही देखा है। खेल भावना से कभी नहीं देख पाया। लगता था कि कुर्सी से उठ गया तो कोई आउट हो जाएगा। लगता था कि मैच नहीं देखूंगा तो कुंबले को विकेट मिल जाएगा। बेवजह धर्म नहीं बना क्रिकेट। धर्म का एक बड़ा काम है वहमों को मान्यता दिलाना। क्रिकेट के खेल ने भी तमाम वहमों को मान्यता दी है। मेरे भीतर के तमाम वहमों के लिए कुंबले का शुक्रिया। उन वहमों के लिए जिनके कारण कुंबले ने जीत दिलाई और चेहरे पर मुस्कान बिखेर दी।
कोटला और कुंबले का अब हिंदी टीवी पर अनुप्रास नहीं बन पाएगा। अब किसी और को ढूंढना होगा जंबो कहने के लिए। अठारह साल इंतज़ार करना होगा किसी को कुंबले बनने के लिए। कुंबले ने याद दिला दिया कि उन्हें देखते देखते अठारह साल निकल गए। हम कभी बोर नहीं हुए।
हिंदी पट्टी के टीवी चैनलों ने बवाल नहीं मचाया होता तो शायद ख्याल नहीं आता कि गांगुली और कुंबले को रिटायर होना है।
टीवी चैनल के क्रिकेट रिपोर्टर बोर हो गए। जो चिचियाते रहे कि कब जाएंगे कुबले? कब जाएंगे दादा? और ये सहवाग क्यों है टीम में?
क्रिकेट में ऐसे खूंखार सवालों के दौर में मेरी इस खेल से दिलचस्पी चली गई। जिस तरह से हम सब हिंदी भाषा के विशेषज्ञ हो जाते हैं उसी तरह से हर खेलने वाला क्रिकेट का विशेषज्ञ हो जाता है। अमेरिका लिखें या अमरीका वाली बहस के तर्ज पर हमने खिलाड़ियों की स्टाइल शीट बनानी शुरू कर दी। दिवाली के बाद जैसे सूप लेकर घरों से दरिद्र भगाते हैं वैसे ही अपने महान खिलाड़ियों को भगाने लगे। घर के बुजुर्ग को हम बहुत जल्दी दोस्तों के बीच बुढ़वा या बुढ़ऊ कहने लगते हैं।
कुंबले, गांगुली, सचिन और द्रविड़ का दौर जा रहा है। सब उस पहाड़ पर पड़े हुए खिलाड़ी की तरह बताये जा रहे हैं जहां चढ़ने के बाद उतरने का मन नहीं करता। थकान की वजह से या क्रिकेट रिपोर्टरों के अनुसार पैसे कमाने की आदत की वजह से। मुझे बहुत दुख हुआ। जाने वाले की विदाई के लिए आंसू होते हैं। सो इस्तमाल हुए। दराज़ से कुंबले का वो स्कोर कार्ड भी निकाला जिसपर हर विकेट के आगे कुंबले का नाम था। खेल पत्रकार गुलु एज़िक्येल ने मुझे फोटो स्टेट कापी थी। यह बचा रहा मेरे साथ।
कुंबले चले गए। अब वो ज़माना नहीं रहा कि इमरान ने सन्यास लिया फिर टीम में आ गए। उस खेल में जहां जवानी में रिटायर होना पड़ता है। खेलने वाला जानता है वो जाने के लिए आया है। जीने के लिए नहीं आया है। अनिल कुंबले को बहुत बहुत बधाई उन तमाम यादों के लिए जब मेरी तेज होती धड़कनों को वो अपने विकेट से थाम लेते थे। भारत को जीत दिला देते थे। उन तमाम बदहवाश पलों के लिए जब दांतों के बीच मेरे नाखुन पीसते रहते थे...और कुंबले बिना किसी तनाव के उंगलियों को बाहर निकाल देते थे। हार जीत के तनाव को उल्लास में बदलते रहने वाले कुंबले की उंगलियां चूम लेने का मन करता है।
मैंने क्रिकेट के मैच को अपने तमाम वहमों के साथ ही देखा है। खेल भावना से कभी नहीं देख पाया। लगता था कि कुर्सी से उठ गया तो कोई आउट हो जाएगा। लगता था कि मैच नहीं देखूंगा तो कुंबले को विकेट मिल जाएगा। बेवजह धर्म नहीं बना क्रिकेट। धर्म का एक बड़ा काम है वहमों को मान्यता दिलाना। क्रिकेट के खेल ने भी तमाम वहमों को मान्यता दी है। मेरे भीतर के तमाम वहमों के लिए कुंबले का शुक्रिया। उन वहमों के लिए जिनके कारण कुंबले ने जीत दिलाई और चेहरे पर मुस्कान बिखेर दी।
अंतिम इच्छा का आखिरी साल
धनतेरस एक साल पहले भी आया था। अस्पताल से निकल कर घर आए थे बाबूजी। जीवनदान का अहसास लेकर कि अब शायद दुबारा जीने का मौका न मिले। अपने हिसाब से उन्होंने जीवन में सब कुछ कर लिया था। जितना कर सकते थे उतने का संतोष हो गया था। इसके बाद के बचे सपने किसी नेता की ज़ुबान की तरह उदघोषित होकर भुला दिये जाते थे। एक सपना बचा रहता था। तमाम घोषणाओं के बीच। नई कार का सपना।
वो अपनी कमाई के पैसे से खरीदना चाहते थे। आईसीयू में ही अखबार में शेवर्ले के स्पार्क्स का विज्ञापन देख लिया था। फोन पर बहुत उत्साहित थे। बता रहे थे कि हेवी डिस्काउंट है। पटना में लोग बुकिंग करा रहे हैं। मेरी पेशकश को हंस के टाल दिया। फिर मै कहने लगा कि क्या करेंगे कार लेकर। ज़रूरत नहीं है। कहने लगे कि मैं जानता हूं कि ज़रूरी नहीं है। तो जवाब मिला कि मैंने बुक कर दिया है। यह सुन कर मैं हैरान रह गया। आईसीयू से निकलते ही कार की बुकिंग। वही कर सकते थे। पेशन से लोन ले लिया। बाकी पैसा निकाला और कार के पैसे दे आए। कहने लगे कि अब पैसे की ज़रूरत नहीं है। तुम लोग संभाल ही लोगे। मुझे नई कार चाहिए।
ठीक एक साल पहले के दिन यानी धनतेरस के दिन लाल रंग की कार आ गई। पोते पोतियों को लेकर बाज़ार गए थे। उन्हें चाऊमिन खिलाने। मेरी बेटी को फोन पर कहा कि तुम्हारे दादा जी के पास नई कार है। तुम जब पटना आओगी तो इस पर खूब घूमना। आज सुबह मां का फोन आया। कार को देख कर वो अंदर चली आईं। रोने लगीं। कहने लगीं कि साल भी पूरा नहीं हुआ। भाभी कह रही थीं कि उस कार को लेकर बहुत खुश थे।
एक कार खरीदने की जल्दी अपने जीवन के आखिरी साल में। समझ के बाहर भी नहीं है यह बात। जिस समाज से वे आते थे,हर दिन एक ताने के साथ उन्हें गुज़रना पड़ता था कि सेकेंड हैंड कार से चलते हैं। उसी की डेंटिंग पेंटिग कराते रहते हैं। हैसियतदार रिश्तेदारों के तानों ने भीतर ही भीरत एक कार का सपना बुन दिया था। जवाब देने की ज़िद भी। उनके सभी बेटे बेटियों ने कार खरीदी। नई कार। कभी खुश नहीं हुए। वो तमाम तानों का हिसाब करते रहे अपने भीतर। कब जवाब देना है। मेरे समझाने पर रुके रहे कि ऐसी बातों का न तो प्रतिकार किया जाता है न मलाल। बाबूजी समझ भी जाते थे। लेकिन उस साल क्या हो गया जो उनका हौसला टूट गया।
नई कार लेकर अपने पुराने पड़ोसी से मिलने गए। चाचाजी बता रहे थे कि इतना खुश थे कि पूछो मत। चाचाजी ने बाबूजी से कहा भी कि आप बच्चों जैसी बातें करते हैं। अब क्या करेंगे कार लेकर। बाबूजी ने कहा कि सब हम पर ताना देता था। बर्दाश्त नहीं होता था। लेकिन बर्दाश्त करते रहे कि बच्चों की पढ़ाई का खर्चा उठाना है। उनका काम हो गया और यह पैसा बचा रह गया। अब ज्यादा दिन नहीं जीने वाला, तो बैंक और पेशन के इस पैसे का क्या काम। नई कार पर चढ़ लेते हैं।
कई लोगों ने बताया कि ललकी कार को लेकर काफी खुश थे। सबके यहां आने जाने लगे थे। बताते थे कि अपनी कमाई से खरीदे हैं। किसी बेटे से एक पैसा नहीं लिया। हमारे समाज में पिताओं की अजीब स्थिति है। ज़िंदगी भर यही सोच कर त्याग करते हैं कि बेटे बेटियां नौकरी कर लें। बुढ़ापे का सहारा सुनिश्चित हो जाए। लेकिन बुढ़ापे में खुश इस बात से होते हैं कि बेटे से या किसी से कुछ नहीं लिया। फिक्स्ड डिपाज़िट के साथ भी यही होता है। बुरे वक्त के लिए बचाते हैं मगर खुश इस बात से नहीं होते कि बुरे वक्त में काम आ गया बल्कि इस बात से होते हैं कि उसकी ज़रूरत नहीं पड़ी।
मार्च के महीने में जब आखिरी बार हम उन्हें लेकर गांव जा रहे थे, उनकी कार पीछे पीछे चल रही थी। अनुराग चला रहा था। तब तक मुझे अहसास नहीं हुआ था कि यह वही कार है जिसे वो अपनी ज़िंदगी के आखिरी साल में खरीदना चाहते थे। मैं उस कार को देखने लगा। स्टिरियो पर हाथ चला गया। एक गाना बज गया। बाबूजी को यही एक गाना गुनगुनाते सुना हूं। लेकिन कभी उन्होंने इसकी सीडी या कैसेट नहीं खरीदा। पुरानी गाड़ी में भी सुनने के लिए नहीं। नई कार में बजाने के लिए बाबूजी ने उस गाने की सीडी खरीद ली थी। गाना बज गया।
क्रांति फिल्म का गाना है। ज़िंदगी की न टूटे लड़ी,प्यार कर ले,घड़ी दो घड़ी,लंबी लंबी उमरिया को छोड़ो,प्यार कर ले घड़ी दो घड़ी। लाख गहरा हो सागर तो क्या, प्यार से कुछ भी गहरा नहीं। वो इसे ज़रूर कई बार सुनते होंगे। आखिरी बार भी सुनने लगे।
रात का सफर था। हल्की हल्की बारिश हो रही थी। ज़िंदगी की लड़ी टूट गई। बाबूजी की ललकी कार मेरे भीतर रोज़ चलती है। मुझे लेकर अचानक मुड़ जाती है। रुक जाती है। घूमाने लगती है। आज सुबह मां से बात के दौरान एक बार फिर खुद से स्टार्ट हो गई। मां कह रही थी कि बाहर खड़ी है लेकिन मैं देख पा रहा था कि वो चल रही है।
वो अपनी कमाई के पैसे से खरीदना चाहते थे। आईसीयू में ही अखबार में शेवर्ले के स्पार्क्स का विज्ञापन देख लिया था। फोन पर बहुत उत्साहित थे। बता रहे थे कि हेवी डिस्काउंट है। पटना में लोग बुकिंग करा रहे हैं। मेरी पेशकश को हंस के टाल दिया। फिर मै कहने लगा कि क्या करेंगे कार लेकर। ज़रूरत नहीं है। कहने लगे कि मैं जानता हूं कि ज़रूरी नहीं है। तो जवाब मिला कि मैंने बुक कर दिया है। यह सुन कर मैं हैरान रह गया। आईसीयू से निकलते ही कार की बुकिंग। वही कर सकते थे। पेशन से लोन ले लिया। बाकी पैसा निकाला और कार के पैसे दे आए। कहने लगे कि अब पैसे की ज़रूरत नहीं है। तुम लोग संभाल ही लोगे। मुझे नई कार चाहिए।
ठीक एक साल पहले के दिन यानी धनतेरस के दिन लाल रंग की कार आ गई। पोते पोतियों को लेकर बाज़ार गए थे। उन्हें चाऊमिन खिलाने। मेरी बेटी को फोन पर कहा कि तुम्हारे दादा जी के पास नई कार है। तुम जब पटना आओगी तो इस पर खूब घूमना। आज सुबह मां का फोन आया। कार को देख कर वो अंदर चली आईं। रोने लगीं। कहने लगीं कि साल भी पूरा नहीं हुआ। भाभी कह रही थीं कि उस कार को लेकर बहुत खुश थे।
एक कार खरीदने की जल्दी अपने जीवन के आखिरी साल में। समझ के बाहर भी नहीं है यह बात। जिस समाज से वे आते थे,हर दिन एक ताने के साथ उन्हें गुज़रना पड़ता था कि सेकेंड हैंड कार से चलते हैं। उसी की डेंटिंग पेंटिग कराते रहते हैं। हैसियतदार रिश्तेदारों के तानों ने भीतर ही भीरत एक कार का सपना बुन दिया था। जवाब देने की ज़िद भी। उनके सभी बेटे बेटियों ने कार खरीदी। नई कार। कभी खुश नहीं हुए। वो तमाम तानों का हिसाब करते रहे अपने भीतर। कब जवाब देना है। मेरे समझाने पर रुके रहे कि ऐसी बातों का न तो प्रतिकार किया जाता है न मलाल। बाबूजी समझ भी जाते थे। लेकिन उस साल क्या हो गया जो उनका हौसला टूट गया।
नई कार लेकर अपने पुराने पड़ोसी से मिलने गए। चाचाजी बता रहे थे कि इतना खुश थे कि पूछो मत। चाचाजी ने बाबूजी से कहा भी कि आप बच्चों जैसी बातें करते हैं। अब क्या करेंगे कार लेकर। बाबूजी ने कहा कि सब हम पर ताना देता था। बर्दाश्त नहीं होता था। लेकिन बर्दाश्त करते रहे कि बच्चों की पढ़ाई का खर्चा उठाना है। उनका काम हो गया और यह पैसा बचा रह गया। अब ज्यादा दिन नहीं जीने वाला, तो बैंक और पेशन के इस पैसे का क्या काम। नई कार पर चढ़ लेते हैं।
कई लोगों ने बताया कि ललकी कार को लेकर काफी खुश थे। सबके यहां आने जाने लगे थे। बताते थे कि अपनी कमाई से खरीदे हैं। किसी बेटे से एक पैसा नहीं लिया। हमारे समाज में पिताओं की अजीब स्थिति है। ज़िंदगी भर यही सोच कर त्याग करते हैं कि बेटे बेटियां नौकरी कर लें। बुढ़ापे का सहारा सुनिश्चित हो जाए। लेकिन बुढ़ापे में खुश इस बात से होते हैं कि बेटे से या किसी से कुछ नहीं लिया। फिक्स्ड डिपाज़िट के साथ भी यही होता है। बुरे वक्त के लिए बचाते हैं मगर खुश इस बात से नहीं होते कि बुरे वक्त में काम आ गया बल्कि इस बात से होते हैं कि उसकी ज़रूरत नहीं पड़ी।
मार्च के महीने में जब आखिरी बार हम उन्हें लेकर गांव जा रहे थे, उनकी कार पीछे पीछे चल रही थी। अनुराग चला रहा था। तब तक मुझे अहसास नहीं हुआ था कि यह वही कार है जिसे वो अपनी ज़िंदगी के आखिरी साल में खरीदना चाहते थे। मैं उस कार को देखने लगा। स्टिरियो पर हाथ चला गया। एक गाना बज गया। बाबूजी को यही एक गाना गुनगुनाते सुना हूं। लेकिन कभी उन्होंने इसकी सीडी या कैसेट नहीं खरीदा। पुरानी गाड़ी में भी सुनने के लिए नहीं। नई कार में बजाने के लिए बाबूजी ने उस गाने की सीडी खरीद ली थी। गाना बज गया।
क्रांति फिल्म का गाना है। ज़िंदगी की न टूटे लड़ी,प्यार कर ले,घड़ी दो घड़ी,लंबी लंबी उमरिया को छोड़ो,प्यार कर ले घड़ी दो घड़ी। लाख गहरा हो सागर तो क्या, प्यार से कुछ भी गहरा नहीं। वो इसे ज़रूर कई बार सुनते होंगे। आखिरी बार भी सुनने लगे।
रात का सफर था। हल्की हल्की बारिश हो रही थी। ज़िंदगी की लड़ी टूट गई। बाबूजी की ललकी कार मेरे भीतर रोज़ चलती है। मुझे लेकर अचानक मुड़ जाती है। रुक जाती है। घूमाने लगती है। आज सुबह मां से बात के दौरान एक बार फिर खुद से स्टार्ट हो गई। मां कह रही थी कि बाहर खड़ी है लेकिन मैं देख पा रहा था कि वो चल रही है।
ये जो मन की सीमा रेखा है।
मगर है मन में छवि तुम्हारी
कि जैसे मंदिर में लौ दिये की
छुपा लो दिल में प्यार मेरा
कि जैसे मंदिर में लौ दिये की
हिंदी युग्म के ब्लाग पर यह गाना सुन रहा था। मगर है मन में छवि तुम्हारी। हम अपने मन को कितना जानते हैं। कितनी छवियां होती हैं मन में। कई रिश्ते मन के भीतर होते हैं। जो मन के बाहर होते हैं उससे भी ज़्यादा। हम जिनको सामने से देखते हैं उन्हें मन में क्यों अलग देखते हैं। क्यों चुपके से किसी को ढूंढ लेते हैं और क्यों मन ही मन उसके साथ जो जी में आता है करते चले जाते हैं। ये मन ही है जो इंसान को दोहरा बनाता है। झूठा नहीं बनाता। अक्सर दोहरा बनाने को हम दोगला समझते हैं। हेमंत कुमार का यह गाना कहता है कि मगर है मन में छवि तुम्हारी कि जैसे मंदिर में लौ दिये की। भरोसा दिला रहा है कि मन में भी वैसी छवि है कि जैसे मंदिर में लौ दिये की।
मन के रिश्तों को कोई बताता नहीं। अपना लेता है। अपने जैसा बना लेता है। हम सब मन ही मन कितनी बातें करते हैं। ज़ाहिर नहीं करते। तभी तो हम इंसान को बाहर से ही देखना चाहते हैं। कहने लगते हैं कहां खो गए हो। निकलो वहां से। सामने वाला जानता है कि मन के गुरुत्वाकर्षण ने उसे किसी अंतहीन दिशाओं की तरफ खींच लिया है। जिससे मिला नहीं और जिससे मिल नहीं सकता उसके साथ बैठ कर बतिया रहा है। प्रेम कर रहा है। झगड़ रहा है। कार चलाते चलाते वक्त अक्सर मन ही मन किसी को गोली देने लगता है। किसी को हल्के से छूने लगता है। एफएम पर गाने सुनते हुए बहुत खुश होने लगता है। उसका मन उसे बहला देता है। पता ही नहीं चलता। हम जागते हुए जितना बाहर बोलते हैं उससे कहीं ज़्यादा अपने भीतर बोलते हैं।
क्या ऐसा आपके साथ नहीं होता। जो मन के भीतर होता है वो बाहर वाले से अलग होता है। रहस्यमयी दुनिया बन जाती है। एक चोर की तरह छुपा कर रखना चाहते हैं। किसी को बताना नहीं चाहते। मुझे आज तक समझ नहीं आया कि मैं हर दिन उठता दिल्ली में हूं मगर आंख खुलती है गांव की उस मोड़ पर से जहां से मेरा घर दिखने लगता है। बांध के ढलाने से उतरती साइकिल। चेन से रगड़ खा कर निकलती आवाज़। अचानक स्कूल के मास्टर जी की शक्ल खड़ी हो जाती है।
ये सब कोई नहीं जानता। ऐसे अनगिनत लम्हें हैं जो मन के भीतर रोज़ आते हैं। कोई नहीं जान पाता। बहुत सारे रिश्ते गायब होते रहते हैं। नए नए बनते रहते हैं। कब आप वहीदा रहमान के साथ बातें करते हुए गाने लगते हैं पता नहीं चलता है। आज फिर जीने की तमन्ना है, आज फिर मरने का इरादा है। अपने ही बस में नहीं मैं। दिल है कहीं तो हूं कहीं मैं...
जीने के लिए मन की उड़ान ज़रूरी है। पर मन बताता क्यों नहीं। साथ वाले को, सामने वाले को। हम देखने में चाहे जैसे दिखें, बोलने में चाहे जैसा बोलें, लिखने में चाहे जैसा लिखें लेकिन मन में वैसे नहीं होते। ज़रा अपने मन के भीतर झांकना तो। और गाने लगना। कई बार यूं ही देखा है। ये जो मन की सीमा रेखा है। मन उसे तोड़ने लगता है।
कि जैसे मंदिर में लौ दिये की
छुपा लो दिल में प्यार मेरा
कि जैसे मंदिर में लौ दिये की
हिंदी युग्म के ब्लाग पर यह गाना सुन रहा था। मगर है मन में छवि तुम्हारी। हम अपने मन को कितना जानते हैं। कितनी छवियां होती हैं मन में। कई रिश्ते मन के भीतर होते हैं। जो मन के बाहर होते हैं उससे भी ज़्यादा। हम जिनको सामने से देखते हैं उन्हें मन में क्यों अलग देखते हैं। क्यों चुपके से किसी को ढूंढ लेते हैं और क्यों मन ही मन उसके साथ जो जी में आता है करते चले जाते हैं। ये मन ही है जो इंसान को दोहरा बनाता है। झूठा नहीं बनाता। अक्सर दोहरा बनाने को हम दोगला समझते हैं। हेमंत कुमार का यह गाना कहता है कि मगर है मन में छवि तुम्हारी कि जैसे मंदिर में लौ दिये की। भरोसा दिला रहा है कि मन में भी वैसी छवि है कि जैसे मंदिर में लौ दिये की।
मन के रिश्तों को कोई बताता नहीं। अपना लेता है। अपने जैसा बना लेता है। हम सब मन ही मन कितनी बातें करते हैं। ज़ाहिर नहीं करते। तभी तो हम इंसान को बाहर से ही देखना चाहते हैं। कहने लगते हैं कहां खो गए हो। निकलो वहां से। सामने वाला जानता है कि मन के गुरुत्वाकर्षण ने उसे किसी अंतहीन दिशाओं की तरफ खींच लिया है। जिससे मिला नहीं और जिससे मिल नहीं सकता उसके साथ बैठ कर बतिया रहा है। प्रेम कर रहा है। झगड़ रहा है। कार चलाते चलाते वक्त अक्सर मन ही मन किसी को गोली देने लगता है। किसी को हल्के से छूने लगता है। एफएम पर गाने सुनते हुए बहुत खुश होने लगता है। उसका मन उसे बहला देता है। पता ही नहीं चलता। हम जागते हुए जितना बाहर बोलते हैं उससे कहीं ज़्यादा अपने भीतर बोलते हैं।
क्या ऐसा आपके साथ नहीं होता। जो मन के भीतर होता है वो बाहर वाले से अलग होता है। रहस्यमयी दुनिया बन जाती है। एक चोर की तरह छुपा कर रखना चाहते हैं। किसी को बताना नहीं चाहते। मुझे आज तक समझ नहीं आया कि मैं हर दिन उठता दिल्ली में हूं मगर आंख खुलती है गांव की उस मोड़ पर से जहां से मेरा घर दिखने लगता है। बांध के ढलाने से उतरती साइकिल। चेन से रगड़ खा कर निकलती आवाज़। अचानक स्कूल के मास्टर जी की शक्ल खड़ी हो जाती है।
ये सब कोई नहीं जानता। ऐसे अनगिनत लम्हें हैं जो मन के भीतर रोज़ आते हैं। कोई नहीं जान पाता। बहुत सारे रिश्ते गायब होते रहते हैं। नए नए बनते रहते हैं। कब आप वहीदा रहमान के साथ बातें करते हुए गाने लगते हैं पता नहीं चलता है। आज फिर जीने की तमन्ना है, आज फिर मरने का इरादा है। अपने ही बस में नहीं मैं। दिल है कहीं तो हूं कहीं मैं...
जीने के लिए मन की उड़ान ज़रूरी है। पर मन बताता क्यों नहीं। साथ वाले को, सामने वाले को। हम देखने में चाहे जैसे दिखें, बोलने में चाहे जैसा बोलें, लिखने में चाहे जैसा लिखें लेकिन मन में वैसे नहीं होते। ज़रा अपने मन के भीतर झांकना तो। और गाने लगना। कई बार यूं ही देखा है। ये जो मन की सीमा रेखा है। मन उसे तोड़ने लगता है।
मार्च ऑन मार्च ऑन
उदारीकरण उदारीकरण
मार्च ऑन मार्च ऑन
खोलो ताले,खोल खजाने
पूंजी बांटो दना दन
उदारीकरण, उदारीकरण
उधार है तो प्यार है
टीवी में इश्तहार है
गिर गया इंटरेस्ट है
चढ़ गया एवरेस्ट है
नफाकरण,नफाकरण
उदारीकरण,उदारीकरण
मार्च ऑन मार्च ऑन
मूर्ख हैं जो गिर गए
बाज़ार में फिसल गए
मुद्रा स्थिति,मुद्रा स्फीति
मंदी की मार,मीठी छुरी
ऑपरेशन,ऑपरेशन
उदारीकरण उदारीकरण
मार्च ऑन मार्च ऑन
मुक्ति बोध मुक्ति बोध
मर रहे हैं हम अबोध
करो ज़िंदा हम मुर्दा को
पोस्टमार्टम पोस्टमार्टम
उदारीकरण उदारीकरण
मार्च ऑन मार्च ऑन
मार्च ऑन मार्च ऑन
खोलो ताले,खोल खजाने
पूंजी बांटो दना दन
उदारीकरण, उदारीकरण
उधार है तो प्यार है
टीवी में इश्तहार है
गिर गया इंटरेस्ट है
चढ़ गया एवरेस्ट है
नफाकरण,नफाकरण
उदारीकरण,उदारीकरण
मार्च ऑन मार्च ऑन
मूर्ख हैं जो गिर गए
बाज़ार में फिसल गए
मुद्रा स्थिति,मुद्रा स्फीति
मंदी की मार,मीठी छुरी
ऑपरेशन,ऑपरेशन
उदारीकरण उदारीकरण
मार्च ऑन मार्च ऑन
मुक्ति बोध मुक्ति बोध
मर रहे हैं हम अबोध
करो ज़िंदा हम मुर्दा को
पोस्टमार्टम पोस्टमार्टम
उदारीकरण उदारीकरण
मार्च ऑन मार्च ऑन
ग्यारह बजे का एसएमएस
तकीये के नीचे से आ रही थी पीली रौशनी
चुपके से बुलाया मेरे हाथ को अपनी तरफ
एक संदेशा चुपके से सिरहाने के नीचे
नाम ही देख कर लगा कितनी बातें
अधूरी रह गई हैं, दिन भर की
फिज़ूल की बातों में आज भी
बची हुई बातों का कहीं ये वही
अक्सर आने वाला एसएमएस तो नहीं
शाम होने से पहले ही बिहार में
२५ लाख विस्थापित हो चुके हैं
रात होते होते तमाम कंपनियों के
२५ हज़ार लोगों की नौकरियां खतम
सेंसेक्स और सेक्स के बीच झूलते
हुक्मरानों ने ताकत की दवा फेंक दी है
बाज़ार में खुलेआम सबके लिए मुफ्त
कल सुबह तुम्हारे सपनों की नौकरी
रात भर जागकर कर रही होगी इंतज़ार
गुलाबी रसीद वाले होठों से चूम लेगी तुमको
एक दम से गरीब नहीं होगे तुम, न खत्म होंगे
नौकरी में आसमान छूने के हमारे तुम्हारे सपने
उन बिस्तरों में कितनों ने कितनी करवटें
बदली होंगी साथ साथ रात भर जाग कर
गुलाबी रसीदों वाले होठों को चूमने के बाद
ख्वाबों से हमबिस्तर होने के लिए
आरबीआई की ताकत की दवा बेअसर हो रही थी रातों को
ग्यारह बजे का एसएमएस तभी क्यों आया
जब बाज़ार बंद हो चुके थे, दलाल सो चुके थे
बैंक का ताला सुबह दस बजे तक के लिए बंद
जेट एयरवेज़ के पायलटों का चेहरा एकदम से
विस्थापित किसानों की रैली में अचानक दिखा
मेरे सारे सपने उस एसएमएस की दो लाइनों में
टूट कर चूर चूर हो कर बिखरे पड़े थे
चुपके से बुलाया मेरे हाथ को अपनी तरफ
एक संदेशा चुपके से सिरहाने के नीचे
नाम ही देख कर लगा कितनी बातें
अधूरी रह गई हैं, दिन भर की
फिज़ूल की बातों में आज भी
बची हुई बातों का कहीं ये वही
अक्सर आने वाला एसएमएस तो नहीं
शाम होने से पहले ही बिहार में
२५ लाख विस्थापित हो चुके हैं
रात होते होते तमाम कंपनियों के
२५ हज़ार लोगों की नौकरियां खतम
सेंसेक्स और सेक्स के बीच झूलते
हुक्मरानों ने ताकत की दवा फेंक दी है
बाज़ार में खुलेआम सबके लिए मुफ्त
कल सुबह तुम्हारे सपनों की नौकरी
रात भर जागकर कर रही होगी इंतज़ार
गुलाबी रसीद वाले होठों से चूम लेगी तुमको
एक दम से गरीब नहीं होगे तुम, न खत्म होंगे
नौकरी में आसमान छूने के हमारे तुम्हारे सपने
उन बिस्तरों में कितनों ने कितनी करवटें
बदली होंगी साथ साथ रात भर जाग कर
गुलाबी रसीदों वाले होठों को चूमने के बाद
ख्वाबों से हमबिस्तर होने के लिए
आरबीआई की ताकत की दवा बेअसर हो रही थी रातों को
ग्यारह बजे का एसएमएस तभी क्यों आया
जब बाज़ार बंद हो चुके थे, दलाल सो चुके थे
बैंक का ताला सुबह दस बजे तक के लिए बंद
जेट एयरवेज़ के पायलटों का चेहरा एकदम से
विस्थापित किसानों की रैली में अचानक दिखा
मेरे सारे सपने उस एसएमएस की दो लाइनों में
टूट कर चूर चूर हो कर बिखरे पड़े थे
सिपाही का तो घर मत जलाओ
इंडियन एक्सप्रेस का पन्ना चार। एक ख़बर चीख रही थी। उन तमाम दलीलों के बीच जो सांप्रदायिकता को राष्ट्रवादी नज़र से देखते हैं और जो धर्मनिरपेक्षता को इंसानों की नज़र से। आरिफ हुसैन खाती। जम्मू कश्मीर में आतंकवाद से लड़ने के लिए तैनात बीएसएफ के एक जवान की कहानी।
महाराष्ट्र के धुले में दंगा। ५ अक्तूबर को आरिफ के घर पर हमला। ईद की छुट्टी मनाने घर गया था। हिंसा पर उतारू भीड़ ने आरिफ की वर्दी जला दी। बहादुरी के सर्टिफिकेट जला दिये। जिनसे कभी वो साबित कर पाता कि मुसलमान हो कर भी उसने इस भारत भूमि की सेवा की। पूरी ईमानदारी के साथ। इंडियन एक्सप्रेस की इस ख़बर में आरिफ के बयान बोलने लगते हैं।
मेरे ही पड़ोसी मेरा घर जला रहे थे। हज़ारों की संख्या में आए थे। मेरे भाई सिकंदर को जलती आग में फेंकेने की कोशिश कर रहे थे। मेरी पत्नी बेहोश हो गई। मैं गिड़गिड़ाने लगा। बोलने लगा कि मैं तो सिपाही हूं। मैं देश के लिए लड़ रहा हूं। उन्होंने कुछ नहीं सुना। ज़िंदगी में पहली बार ऐसा लगा कि मैं अकेला हूं। मुझे कहा गया कि मैं मुसलमान हूं और कुछ नहीं।
आरिफ का बोलना अभी खत्म नहीं हुआ है। उसने पुलिस से भी कहा। जिस पुलिस के सहारे हम आतंकवाद से लड़ रहे हैं। भगवान जाने आतंकवाद से लड़ रहे हैं या सांप्रदायिकता को मलहम लगा रहे हैं। ख़ैर।
आरिफ कहता है- हमें लग रहा था कि तनाव बढ़ रहा है। हमला हो सकता है। लेकिन एक भी पुलिसवाला हमें बचाने नहीं आया। हम पूरी रात थाने के बाहर बैठे रहे। हमारी शिकायत तक दर्ज नहीं हुई। पुलिस ने हमें यही कहा कि घर छोड़कर जल्दी भाग जाओ।
खाती को यह नौकरी अनुकंपा के आधार पर मिली थी। २००२ में उसके पिता रियाज़ खाती की ड्यूटी पर मौत हुई थी। खाती कहता है उसने आतंकावदियों के खिलाफ कई मोर्चे में जान की बाज़ी लगाई है। कभी डर नहीं लगा। लेकिन उस दिन मैं डर गया था। लगा कि मार दिया जाऊंगा।
महाराष्ट्र के धुले में दंगा। ५ अक्तूबर को आरिफ के घर पर हमला। ईद की छुट्टी मनाने घर गया था। हिंसा पर उतारू भीड़ ने आरिफ की वर्दी जला दी। बहादुरी के सर्टिफिकेट जला दिये। जिनसे कभी वो साबित कर पाता कि मुसलमान हो कर भी उसने इस भारत भूमि की सेवा की। पूरी ईमानदारी के साथ। इंडियन एक्सप्रेस की इस ख़बर में आरिफ के बयान बोलने लगते हैं।
मेरे ही पड़ोसी मेरा घर जला रहे थे। हज़ारों की संख्या में आए थे। मेरे भाई सिकंदर को जलती आग में फेंकेने की कोशिश कर रहे थे। मेरी पत्नी बेहोश हो गई। मैं गिड़गिड़ाने लगा। बोलने लगा कि मैं तो सिपाही हूं। मैं देश के लिए लड़ रहा हूं। उन्होंने कुछ नहीं सुना। ज़िंदगी में पहली बार ऐसा लगा कि मैं अकेला हूं। मुझे कहा गया कि मैं मुसलमान हूं और कुछ नहीं।
आरिफ का बोलना अभी खत्म नहीं हुआ है। उसने पुलिस से भी कहा। जिस पुलिस के सहारे हम आतंकवाद से लड़ रहे हैं। भगवान जाने आतंकवाद से लड़ रहे हैं या सांप्रदायिकता को मलहम लगा रहे हैं। ख़ैर।
आरिफ कहता है- हमें लग रहा था कि तनाव बढ़ रहा है। हमला हो सकता है। लेकिन एक भी पुलिसवाला हमें बचाने नहीं आया। हम पूरी रात थाने के बाहर बैठे रहे। हमारी शिकायत तक दर्ज नहीं हुई। पुलिस ने हमें यही कहा कि घर छोड़कर जल्दी भाग जाओ।
खाती को यह नौकरी अनुकंपा के आधार पर मिली थी। २००२ में उसके पिता रियाज़ खाती की ड्यूटी पर मौत हुई थी। खाती कहता है उसने आतंकावदियों के खिलाफ कई मोर्चे में जान की बाज़ी लगाई है। कभी डर नहीं लगा। लेकिन उस दिन मैं डर गया था। लगा कि मार दिया जाऊंगा।
मैं नामर्द नहीं हूं।
मैं(इन पंक्तियों के लेखक)तो मर्द हूं। अब वो भी हैं। आज मुंबई के शिवाजी पार्क में उद्धव ठाकरे ने साफ कर दिया कि वे नामर्द नहीं है। वो बोलते जा रहे थे और न्यूज़ चैनलों पर फ्लैश चमकते जा रहा था।
1. मैं नामर्द नहीं हूं
2. मुंबई मेरे बाप की है
3. मेरे बाप ने शेर को जन्म दिया है।
बयान है या खंडन पता नहीं। उद्धव ठाकरे ने बता दिया कि वे मर्द हैं। किसने कहा कि वे मर्द नहीं है पता नहीं चला। उद्धव को उकसाने वाले को सज़ा मिलनी चाहिए। उद्दव मर्द थे और हैं और आगे भी रहेंगे। शांत से दिखने वाले शौक से फोटोग्राफी करने वाले इस युवा नेता को किसने क्या कह दिया। वो चिल्लाने लगा कि मेरे बाप ने शेर को जन्म दिया है। मर्दानगी का चरम शेर होना है। राजनीति के इस जंगलवाद में उपमाओं का शूरमा है अपना शेर। जंगलों से मिट गया है मगर शिवाजी पार्क में खुला घूम रहा है। शेर ने खुद को शेर नहीं कहा होगा। प्रागैतिहासिक काल में किसी इंसान ने ही कहा होगा कि ये शेर है। जब इंसान जानवर को शेर कह सकता है तो खुद को क्यों नहीं। इसी तरह उसने भारत से विलुप्त हो रहे शेरों का संरक्षण कर दिया है। अब शेरों की आबादी एक अरब से ज़्यादा है। वाह यूनेस्कों का कोई पुरस्कार दिलवाओ भाई।
मर्द फिर शेर और अब बारी थी हिंदुत्व की। उसका नंबर बाद में आया पहले कहा कि महाराष्ट्र में हम मराठी हैं और देश में हिंदू। ये शानदार परिभाषा है। जिस महाराष्ट्र से देश के बाकी हिंदुओं को लतिया के, गरिया के और धकिया के निकाल दिया उससे देश के स्तर पर रिश्ता जोड़ने की यह उदारता उद्धव ही कर सकते हैं। दक्षिण भारतीयों को उनके पिता ने निकालने की कोशिश की। जिस दक्षिण भारतीयों को वे मुंबई में बर्दाश्त नहीं कर सके उनके यहां जाकर ठाकरे जी हिंदू होना चाहते हैं। मैं जानता था यही हिंदुत्व की औकात है। पहले पेट भरेंगे फिर माला फेरेंगे। पूर्वांचल के भैयों, बिहार के मज़दूरों लगा लेना गले उद्धव भाई को। उद्धव कोई पराये नहीं हैं। कम से कम हिंदू तो हैं। देश में।
नोट- औरतों को जल्दी बुलाओ। आरक्षण छोड़ो। राजनीति में कूदो। लेकिन औरतें क्या कहेंगी..मैं मर्द नहीं हूं। हमारी राजनीति की बोली में औरतों के लिए जगह नहीं है। उन्हें अपनी जगह बनानी होंगी। ब्लॉगर महिलाओं कूदों इस आग में। बोल देना दुनिया से कि न हम नामर्द हैं और न मर्द हैं।
1. मैं नामर्द नहीं हूं
2. मुंबई मेरे बाप की है
3. मेरे बाप ने शेर को जन्म दिया है।
बयान है या खंडन पता नहीं। उद्धव ठाकरे ने बता दिया कि वे मर्द हैं। किसने कहा कि वे मर्द नहीं है पता नहीं चला। उद्धव को उकसाने वाले को सज़ा मिलनी चाहिए। उद्दव मर्द थे और हैं और आगे भी रहेंगे। शांत से दिखने वाले शौक से फोटोग्राफी करने वाले इस युवा नेता को किसने क्या कह दिया। वो चिल्लाने लगा कि मेरे बाप ने शेर को जन्म दिया है। मर्दानगी का चरम शेर होना है। राजनीति के इस जंगलवाद में उपमाओं का शूरमा है अपना शेर। जंगलों से मिट गया है मगर शिवाजी पार्क में खुला घूम रहा है। शेर ने खुद को शेर नहीं कहा होगा। प्रागैतिहासिक काल में किसी इंसान ने ही कहा होगा कि ये शेर है। जब इंसान जानवर को शेर कह सकता है तो खुद को क्यों नहीं। इसी तरह उसने भारत से विलुप्त हो रहे शेरों का संरक्षण कर दिया है। अब शेरों की आबादी एक अरब से ज़्यादा है। वाह यूनेस्कों का कोई पुरस्कार दिलवाओ भाई।
मर्द फिर शेर और अब बारी थी हिंदुत्व की। उसका नंबर बाद में आया पहले कहा कि महाराष्ट्र में हम मराठी हैं और देश में हिंदू। ये शानदार परिभाषा है। जिस महाराष्ट्र से देश के बाकी हिंदुओं को लतिया के, गरिया के और धकिया के निकाल दिया उससे देश के स्तर पर रिश्ता जोड़ने की यह उदारता उद्धव ही कर सकते हैं। दक्षिण भारतीयों को उनके पिता ने निकालने की कोशिश की। जिस दक्षिण भारतीयों को वे मुंबई में बर्दाश्त नहीं कर सके उनके यहां जाकर ठाकरे जी हिंदू होना चाहते हैं। मैं जानता था यही हिंदुत्व की औकात है। पहले पेट भरेंगे फिर माला फेरेंगे। पूर्वांचल के भैयों, बिहार के मज़दूरों लगा लेना गले उद्धव भाई को। उद्धव कोई पराये नहीं हैं। कम से कम हिंदू तो हैं। देश में।
नोट- औरतों को जल्दी बुलाओ। आरक्षण छोड़ो। राजनीति में कूदो। लेकिन औरतें क्या कहेंगी..मैं मर्द नहीं हूं। हमारी राजनीति की बोली में औरतों के लिए जगह नहीं है। उन्हें अपनी जगह बनानी होंगी। ब्लॉगर महिलाओं कूदों इस आग में। बोल देना दुनिया से कि न हम नामर्द हैं और न मर्द हैं।
प्रेम-पत्र वाले मुंशी जी का ख़त
(प्रकाश पब्लिकेशन, गली नंबर १३, कैलाश नगर दिल्ली की इस हस्त पुस्तिका के पहले पन्ने पर लिखा है प्रेम-पत्र रोमांटिक लव लेटर। लेखक हैं अवधेश कुमार उर्फ मुंशी जी।)
मुंशी जी सही मायने में प्रेमचंद हैं। प्रेम के तमाम एंगल पर ख़त लिखने का हुनर किसी साहित्य अकादमी वालों की नज़र से नहीं गुजरता। देश की गलियों में पलते हुए बुढ़ा रही तमाम प्रतिभाओं के सम्मान में कस्बा में बिना मुंशीजी से पूछे उनकी एक महान रचना को इंटरनेट पर पेश किया जा रहा है। मुंशी जी की दुनिया में आज भी ख़त पत्र है।
शीर्षक- अनजाने प्रेमी का पत्र
जाने सनम,
जब से मैंने आपके सौंदर्य को एक नज़र निहारा है तब से दिल बेकरार है। अब आप को बग़ैर जाने पहिचाने ही कैसे किसी पर मोहित होकर प्यार जताने का अधिकार है। सवाल ठीक है परन्तु दिल जब आ जाता है तो किसी से रोके नहीं रुकता। अब सवाल यह उठता है कि प्यार अनजाने क्यों किया?मेरी जान,प्यार करने से नहीं बल्कि हो ही जाता है चाहे किसी से भी हो जाए तभी तो जब से आपको देखा है तब से पहलू में दिल बेचैन है,मैं स्वयं भी समझने में असमर्थ हूं क्योंकि-
दिल आ गया तुम पर, दिल ही तो है।
तड़पे क्यों न, बिसमिल ही तो है।।
मैं क्या बताऊं कि मुझे क्या हो गया। हर समय दिल काबू से बाहर हो गया। माइन्ड पर कंट्रोल नहीं रहा है। मेरे दिल की मलिका, मैंने आपको जब से सुभाष पार्क में गांधी जयंती में अपने परिवार के साथ टहलते देखा तब से ही ह्रदय में एक हलचल पैदा हो गई जिसे मैं रोकने में असमर्थ हूं और बहुत देर से न्योछावर करता हूं। यूं तो आज तक लाखों हसीना मेरी आंखों के आगे गुज़रे होंगे परन्तु ईश्वर ने आपकी अदा ही निराली बक्शी है। जिसने मुझे दीवाना बना दिया।
देखा जो हुश्न आपका, तबियत मचल गई।
आँखों का था कसूर, छुरी दिल में चल गई।।
प्रिय जाने मन और गुलबदन तुम क्या जानो कि आपको वियोग में हमारे दिल पर क्या क्या गुजर रही है। दिन पर दिन दहशत बढ़ती जा रही है। ख्याल बदलते जाते हैं। आखिर दिल बेचैन हो कर यही कहता है-
तुझे क्या खबर वे मुर्ब्बत किसी की।
हुई तेरे गम में क्या, हालत किसी की।।
इतना ही नहीं इश्क के सिद्धांत यहां तक बढ़ गई कि पागलों की तरह मारा मारा आपकी कोठरी के इर्द-गिर्द फिरता हूं। इस ख्याल में कि एक बार वो चांद सा मुखड़ा देखने का अवसर मिल जाए ताकि ये तड़पता हुआ दिल किसी तरह तस्कीन पाए।
रात दिन सोचते हुए समय व्यतीत कर दिया, फैसला हो न सका। आखिर आत्मघात कर लेने का विचार किया परन्तु आपका प्रेम और दर्शन की आशा ने मुझे मरने भी नहीं दिया।आपको कालिज पहुंचाने को आपका ड्राइवर कार लाया और आपको बुलाने ज्यों ही अंदर गया बस मेरी आत्मा प्रफुल्लित हो गई। मैंने शीघ्र ही यह प्रेम पत्र जान बूझकर सुन्दर लिफाफे में बन्द करके आपकी सीट पर डाल दिया। अब इंतजार पत्र के उत्तर पाने को है। अब आप चाहे जो कहें मगर मैं तो यही कहूंगा-
जवानी दीवानी गजब ढा रही है।
मोहब्बत के पहलू में लहरा रही है।।
किया खत का मजमून खतम चुपके चुपके।।
रुकी अब कलम यहीं पर चुपके चुपके।
अधिक क्या लिखूं रंग लाने को ही बहुत है।
आपका अनजाना प्रेमी सतीश
पहचान का स्थायी पता
पहचाने जाने के डर से मैंने एक पहचान बना ली
बालों को छोटा कर लिया और दाढ़ी कटवा ली
जिन्स पहनकर अपने कानों में लटका ली बाली
इस नई पहचान से मैं तमाम नौजवानों सा हो गया
हुलिया बदल कर नए ज़माने का मुसलमान हो गया
नहीं बदली तो आदत पांच वक्त नमाज़ पढ़ने की
रोज़े के तीस दिन भूखे रहने और ईद मनाने की
कहने वालों ने तब भी कहा कट्टर होता है मुसलमान
बदल कर भी नहीं बदलता, रह जाता है मुसलमान
ऐसा क्यों होता है कि शहर बदल जाने के बाद भी
हर फार्म में स्थायी पता का नंबर पहले आता है
होली में हम चाहे कितना भी लगा लें रंग गुलाल
झटका खाने वाले हमको कहते हैं हलाल मुसलमान
बदल कर भी नहीं बदलता, रह जाता है मुसलमान
हमारी इबादत की हर आदत पर रंज हैं उनको
एक सांस में जल उठाकर दौड़ने की आदत जिनको
उनकी भक्ति का रंग हमने भी देखा है कई बार
भोले की भक्ति हो या फिर नौ दिन माता का त्योहार
हमने कभी नहीं कहा तुम बदल दो अपनी पहचान
क्यों करते हो साल के बारहों महीने पूजा भगवान की
क्यों नहीं बदल देते हो अपने हिंदू होने के पहचान की
बदल कर भी नहीं बदलता, रह जाता है मुसलमान
ये सियासत वाले हैं जो मुल्क को बदलने निकले हैं
मुल्क बहाना है, हिंदू मुसलमान को बदलने निकले हैं
बालों को छोटा कर लिया और दाढ़ी कटवा ली
जिन्स पहनकर अपने कानों में लटका ली बाली
इस नई पहचान से मैं तमाम नौजवानों सा हो गया
हुलिया बदल कर नए ज़माने का मुसलमान हो गया
नहीं बदली तो आदत पांच वक्त नमाज़ पढ़ने की
रोज़े के तीस दिन भूखे रहने और ईद मनाने की
कहने वालों ने तब भी कहा कट्टर होता है मुसलमान
बदल कर भी नहीं बदलता, रह जाता है मुसलमान
ऐसा क्यों होता है कि शहर बदल जाने के बाद भी
हर फार्म में स्थायी पता का नंबर पहले आता है
होली में हम चाहे कितना भी लगा लें रंग गुलाल
झटका खाने वाले हमको कहते हैं हलाल मुसलमान
बदल कर भी नहीं बदलता, रह जाता है मुसलमान
हमारी इबादत की हर आदत पर रंज हैं उनको
एक सांस में जल उठाकर दौड़ने की आदत जिनको
उनकी भक्ति का रंग हमने भी देखा है कई बार
भोले की भक्ति हो या फिर नौ दिन माता का त्योहार
हमने कभी नहीं कहा तुम बदल दो अपनी पहचान
क्यों करते हो साल के बारहों महीने पूजा भगवान की
क्यों नहीं बदल देते हो अपने हिंदू होने के पहचान की
बदल कर भी नहीं बदलता, रह जाता है मुसलमान
ये सियासत वाले हैं जो मुल्क को बदलने निकले हैं
मुल्क बहाना है, हिंदू मुसलमान को बदलने निकले हैं
वेलकम टू सज्जनपुर
मामूली खुशियों की दुनिया में लौटा लेने आई है श्याम बेनेगल की फिल्म वेलकम टू सज्जनपुर। हमारी ज़िंदगी के बीच से बहुत सारी चीज़े गायब होती जा रही हैं, अपनी इस फिल्म के ज़रिये बेनेगल उन्हें ढूंढने की कोशिश कर रहे हैं। चिट्टी आती नहीं और डाकिया अब परिवार नियोजन से लेकर कूरियर तक के काम में लगा दिया जा रहा है। गली की मोड़ से लाल बक्सा गायब होता जा रहा है। ई-मेल और एस एम एस के ज़माने में शब्द सिर्फ एक बीप साउंड बन कर रह गए हैं। हमें मालूम ही नहीं शब्दों का इस्तमाल और लिखने का अंदाज़।
बेनेगल का किरदार महादेव याद दिलाता है कि शब्द सबके बस की बात नहीं। वेलकम टू सज्जनपुर का किरदार महादेव कहता है एक एक शब्द के पीछे भावना होती है। यूं ही नहीं लिख देता है कोई चिट्ठी। रात भर जाग कर जब वह शब्दों में भाव भरता है तो फ्लैश बैक में प्रेम के बिल्कुल सादे क्षण बन जाते हैं। जहां आडंबर नहीं है, कोई बड़ी बात नहीं है। सिर्फ प्रेम की चाहत है। मामूली चाहत।
बहुत दिनों के बाद एक ऐसी फिल्म आई है जो वासु चटर्जी, ह्रषिकेश मुखर्जी की याद दिलाती है। श्रेयस तलपडे आज के अमोल पालेकर लगते हैं। आम आदमी का हीरो। गमछा और कुर्ता और साइकिल। गांव की पगडंडिया। कभी खुशी कभी गम, तारा रम पम पम, हंसो और हंसाया करो। थोड़ा है थोड़े की ज़रूरत है, ज़िंदगी फिर भी यहां खूबसूरत है। कुछ इसी तरह के साधारण गाने हैं वेलकम टू सज्जनपुर के। नब्बे के दशक में हमारी चाहत बड़ी होती चली गई। आर्थिक उदारीकरण ने हमारे सपनों को उदार बना दिया। हम गाने लगे थोड़ी सी तो लिफ्ट करा दे। हमारा हीरो बड़ी कामयाबी हासिल करने लगा। महानगरों और मल्टीप्लेक्स का होने लगा। मल्टीप्लेक्स के हिसाब से फिल्में बनने लगी। शहरी और मध्यमवर्गीय फिल्में। गांवों को ग़ायब कर दिया गया। हमने मान लिया कि देश साक्षर हो चुका है। गांव शहर हो चुके हैं।
श्याम बेनेगल की यह फिल्म उन गांवों की कहानी है जहां आज भी बहुत कुछ नहीं बदला। डिस्पेंसरी की दीवार पर चिपका सरकारी नारा हम दो हमारे एक। डॉक्टर गायब है और कंपाउंडर इलाज कर रहा है। दिल्ली और मुंबई के कई अपार्टमेंट को आबाद करने वाले मध्यमवर्ग के भीतर आज भी गांव छुपा हैं। वो स्वीकार नहीं करना चाहते। बेनेगल याद दिलाते हैं। हैदराबाद में मध्यप्रदेश के बघेलखंड की पृष्ठभूमि तैयार कर देते हैं और इस तरह यह गांव पूरे भारत का गांव बन जाता है। धीरे धीरे कहानी खुलती है और बताती हैं बड़े सपनों की चाहत में हम छोटी खुशियों को कैसे भूल गए हैं। बॉल पेन को खारिज कर महादेव जब स्याही की कलम से ख़त लिखता है तो किसी पुराने ज़माने में छूट गया इंसान नहीं लगता। दुकानदार कहता है तुम अपना नाम महादेव से भ्रम देव रख लो। महादेव कहता है कि वो इस कलम से मोहब्बत करता है। फिल्म बहुत ही सहज रूप से बता रही है कि हम सब के भीतर महादेव है जो स्याही की कलम को प्यार कर सकता है। मगर हम सब दुनिया की दौड़ में बॉल पेन और कंप्यूटर की-बोर्ड पर शब्दों को टाइप किये जा रहे हैं। भावनाएं खत्म हो रही हैं।
लेकिन यह फिल्म गांव की याद दिलाने के लिए ही नहीं बनी है। कामेडी है। मगर कामेडी के ज़रिये उन मुद्दों पर फिर से बहस करा देती हैं जिन्हें हम बोरियत भरा मान कर उन न्यूज़ चैनलों को देखने लगते हैं जहां दुनिया के खात्मे का एलान हर दिन कोई बेलमुंड ज्योतिष करने लगता है। वेलकम टू सज्जनपुर जन के द्वारा जन के लिए लोकतंत्र की बात करती है। मुखिया के चुनाव में होने वाले प्रपंच को प्रहसन में बदल कर उस कुंठा को हल्का किया जाता है जो हमें यही याद दिलाती है कि इस देश का कुछ नहीं हो सकता।
हंसते हंसाते बेनेगल बताते हैं कि बहुत कुछ हो सकता है। वो भी आसानी से। सिर्फ हम अपने बोल बदल दें। शब्दों को ठीक जगह पर इस्तमाल करें। तभी तो दबंग रामसिंह कलेक्टर को चिट्ठी भेज कर अपने प्रतिद्वंदि को पाकिस्तानी जासूस बना देता है। लिखने वाला तो महादेव ही है। अगली बार महादेव राम सिंह की चिट्ठी की भाषा बदल देता है और कलेक्टर रामसिंह पर शक करने लगता है। मुन्नी देवी का किरदार कामेडी के बाद गंभीर होता हुआ लोकतंत्र की लड़ाई को जन की लड़ाई में बदल देता है। मुन्नी देवी कहती है मैं तो ऐसी तैसी नहीं जानती, डेमोक्रेसी जानती हूं।
यहीं पर श्याम बेनेगल भाषा का फर्क सीखा रहे हैं। राम सिंह की भाषा और मुन्नी देवी की भाषा का फर्क। जब एक प्रसंग में मुन्नी देवी कलेक्टर को ख़त लिखती है तो उसकी भाषा बता रही है कि बहुत कुछ बचा है। कलेक्टर को हुजूर कहते वक्त मुन्नी देवी सिस्टम के सामंतवादी ढर्रे में आस्था नहीं जताती बल्कि एक जनसेवक से उम्मीद लगा बैठती है कि हुजूर इंसाफ करेंगे।
ख़त लिखने के बहाने श्याम बेनेगल किसी नोस्ताल्जिया को उतारने की कोशिश नहीं कर रहे हैं। वह शब्दों की अहमियत पर ज़ोर दे रहे हैं। उदासी और हताशा के दौर में वो आस्था पैदा कर रहे हैं। अच्छे शब्दों से निकले नारे से जनता मुन्नी देवी के लिए खड़ी हो जाती है। फिल्म में लोकतंत्र जीतता है तो यही बताने के लिए अपनी मामूली समस्याओं के बाद भी लोक जी रहा है। मरता नहीं है।
महादेव का प्रेम, कमला का इंतज़ार और मौसी की बेकरारी। मुंबई गए एक मज़दूर की व्यथा। अपनी बाल विधवा बहू के प्रेमी को पाकर रोते बिलखते सूबेदार। इसके बाद भी सज्जनपुर सबका स्वागत करता है। याद दिलाता है कि हो सके तो कभी लौट आइयेगा अपनी उस पुरानी दुनिया में। जिसे हम छोड़ कभी बड़े सपनों को हासिल करने चले गए हैं। यह एक अद्भुत फिल्म है। हंसाती है, रुलाती है और खुशियों से भर देती है। जीवन यहां किसी राष्ट्रीय समस्या को निपटाने का संघर्ष नहीं है बल्कि छोटी छोटी खुशियों को पाने की ज़िद है।
इस फिल्म की कहानी, किरदार और संवाद किसी कल्पना की उपज नहीं है। आम जीवन से बस उठा लिये गए हैं। साधारण से संवाद हैं और बाते बड़ी बड़ी नहीं हैं। यह फिल्म सरपंची के चुनाव को इतना मार्मिक बना देती है कि मुन्नी देवी के साथ साथ रोने का मन करता है। कमला की खुशी के लिए जब महादेव अपनी ज़मीन गिरवी रख देता है तो याद आता है कि तमाम कामयाबियों के बीच हम किसी के लिए कुछ करने की आदत को किस तरह से भूलते जा रहे हैं। इन्हीं सब बातों को याद दिलाने के लिए श्याम बेनेगल आप सभी का स्वागत कर रहे हैं। वेलकम टू सज्जनपुर।
(आज के अमरउजाला में यह लेख छपा है)
बेनेगल का किरदार महादेव याद दिलाता है कि शब्द सबके बस की बात नहीं। वेलकम टू सज्जनपुर का किरदार महादेव कहता है एक एक शब्द के पीछे भावना होती है। यूं ही नहीं लिख देता है कोई चिट्ठी। रात भर जाग कर जब वह शब्दों में भाव भरता है तो फ्लैश बैक में प्रेम के बिल्कुल सादे क्षण बन जाते हैं। जहां आडंबर नहीं है, कोई बड़ी बात नहीं है। सिर्फ प्रेम की चाहत है। मामूली चाहत।
बहुत दिनों के बाद एक ऐसी फिल्म आई है जो वासु चटर्जी, ह्रषिकेश मुखर्जी की याद दिलाती है। श्रेयस तलपडे आज के अमोल पालेकर लगते हैं। आम आदमी का हीरो। गमछा और कुर्ता और साइकिल। गांव की पगडंडिया। कभी खुशी कभी गम, तारा रम पम पम, हंसो और हंसाया करो। थोड़ा है थोड़े की ज़रूरत है, ज़िंदगी फिर भी यहां खूबसूरत है। कुछ इसी तरह के साधारण गाने हैं वेलकम टू सज्जनपुर के। नब्बे के दशक में हमारी चाहत बड़ी होती चली गई। आर्थिक उदारीकरण ने हमारे सपनों को उदार बना दिया। हम गाने लगे थोड़ी सी तो लिफ्ट करा दे। हमारा हीरो बड़ी कामयाबी हासिल करने लगा। महानगरों और मल्टीप्लेक्स का होने लगा। मल्टीप्लेक्स के हिसाब से फिल्में बनने लगी। शहरी और मध्यमवर्गीय फिल्में। गांवों को ग़ायब कर दिया गया। हमने मान लिया कि देश साक्षर हो चुका है। गांव शहर हो चुके हैं।
श्याम बेनेगल की यह फिल्म उन गांवों की कहानी है जहां आज भी बहुत कुछ नहीं बदला। डिस्पेंसरी की दीवार पर चिपका सरकारी नारा हम दो हमारे एक। डॉक्टर गायब है और कंपाउंडर इलाज कर रहा है। दिल्ली और मुंबई के कई अपार्टमेंट को आबाद करने वाले मध्यमवर्ग के भीतर आज भी गांव छुपा हैं। वो स्वीकार नहीं करना चाहते। बेनेगल याद दिलाते हैं। हैदराबाद में मध्यप्रदेश के बघेलखंड की पृष्ठभूमि तैयार कर देते हैं और इस तरह यह गांव पूरे भारत का गांव बन जाता है। धीरे धीरे कहानी खुलती है और बताती हैं बड़े सपनों की चाहत में हम छोटी खुशियों को कैसे भूल गए हैं। बॉल पेन को खारिज कर महादेव जब स्याही की कलम से ख़त लिखता है तो किसी पुराने ज़माने में छूट गया इंसान नहीं लगता। दुकानदार कहता है तुम अपना नाम महादेव से भ्रम देव रख लो। महादेव कहता है कि वो इस कलम से मोहब्बत करता है। फिल्म बहुत ही सहज रूप से बता रही है कि हम सब के भीतर महादेव है जो स्याही की कलम को प्यार कर सकता है। मगर हम सब दुनिया की दौड़ में बॉल पेन और कंप्यूटर की-बोर्ड पर शब्दों को टाइप किये जा रहे हैं। भावनाएं खत्म हो रही हैं।
लेकिन यह फिल्म गांव की याद दिलाने के लिए ही नहीं बनी है। कामेडी है। मगर कामेडी के ज़रिये उन मुद्दों पर फिर से बहस करा देती हैं जिन्हें हम बोरियत भरा मान कर उन न्यूज़ चैनलों को देखने लगते हैं जहां दुनिया के खात्मे का एलान हर दिन कोई बेलमुंड ज्योतिष करने लगता है। वेलकम टू सज्जनपुर जन के द्वारा जन के लिए लोकतंत्र की बात करती है। मुखिया के चुनाव में होने वाले प्रपंच को प्रहसन में बदल कर उस कुंठा को हल्का किया जाता है जो हमें यही याद दिलाती है कि इस देश का कुछ नहीं हो सकता।
हंसते हंसाते बेनेगल बताते हैं कि बहुत कुछ हो सकता है। वो भी आसानी से। सिर्फ हम अपने बोल बदल दें। शब्दों को ठीक जगह पर इस्तमाल करें। तभी तो दबंग रामसिंह कलेक्टर को चिट्ठी भेज कर अपने प्रतिद्वंदि को पाकिस्तानी जासूस बना देता है। लिखने वाला तो महादेव ही है। अगली बार महादेव राम सिंह की चिट्ठी की भाषा बदल देता है और कलेक्टर रामसिंह पर शक करने लगता है। मुन्नी देवी का किरदार कामेडी के बाद गंभीर होता हुआ लोकतंत्र की लड़ाई को जन की लड़ाई में बदल देता है। मुन्नी देवी कहती है मैं तो ऐसी तैसी नहीं जानती, डेमोक्रेसी जानती हूं।
यहीं पर श्याम बेनेगल भाषा का फर्क सीखा रहे हैं। राम सिंह की भाषा और मुन्नी देवी की भाषा का फर्क। जब एक प्रसंग में मुन्नी देवी कलेक्टर को ख़त लिखती है तो उसकी भाषा बता रही है कि बहुत कुछ बचा है। कलेक्टर को हुजूर कहते वक्त मुन्नी देवी सिस्टम के सामंतवादी ढर्रे में आस्था नहीं जताती बल्कि एक जनसेवक से उम्मीद लगा बैठती है कि हुजूर इंसाफ करेंगे।
ख़त लिखने के बहाने श्याम बेनेगल किसी नोस्ताल्जिया को उतारने की कोशिश नहीं कर रहे हैं। वह शब्दों की अहमियत पर ज़ोर दे रहे हैं। उदासी और हताशा के दौर में वो आस्था पैदा कर रहे हैं। अच्छे शब्दों से निकले नारे से जनता मुन्नी देवी के लिए खड़ी हो जाती है। फिल्म में लोकतंत्र जीतता है तो यही बताने के लिए अपनी मामूली समस्याओं के बाद भी लोक जी रहा है। मरता नहीं है।
महादेव का प्रेम, कमला का इंतज़ार और मौसी की बेकरारी। मुंबई गए एक मज़दूर की व्यथा। अपनी बाल विधवा बहू के प्रेमी को पाकर रोते बिलखते सूबेदार। इसके बाद भी सज्जनपुर सबका स्वागत करता है। याद दिलाता है कि हो सके तो कभी लौट आइयेगा अपनी उस पुरानी दुनिया में। जिसे हम छोड़ कभी बड़े सपनों को हासिल करने चले गए हैं। यह एक अद्भुत फिल्म है। हंसाती है, रुलाती है और खुशियों से भर देती है। जीवन यहां किसी राष्ट्रीय समस्या को निपटाने का संघर्ष नहीं है बल्कि छोटी छोटी खुशियों को पाने की ज़िद है।
इस फिल्म की कहानी, किरदार और संवाद किसी कल्पना की उपज नहीं है। आम जीवन से बस उठा लिये गए हैं। साधारण से संवाद हैं और बाते बड़ी बड़ी नहीं हैं। यह फिल्म सरपंची के चुनाव को इतना मार्मिक बना देती है कि मुन्नी देवी के साथ साथ रोने का मन करता है। कमला की खुशी के लिए जब महादेव अपनी ज़मीन गिरवी रख देता है तो याद आता है कि तमाम कामयाबियों के बीच हम किसी के लिए कुछ करने की आदत को किस तरह से भूलते जा रहे हैं। इन्हीं सब बातों को याद दिलाने के लिए श्याम बेनेगल आप सभी का स्वागत कर रहे हैं। वेलकम टू सज्जनपुर।
(आज के अमरउजाला में यह लेख छपा है)
तुम बहुत मोटे हो गए हो..व्हाट इज़ रांग विद यू
इक दिन जब मैं पतला हो जाऊंगा, हवायें ले उड़ेंगी मुझे
बादलों पे मेरा घर होगा, भूख से बिलखते इंसानों की तरह
अंदर धंसा हुआ पेट होगा, गड्ढे हो जायेंगे दोनों गालों में
ग़रीबी रेखा से नीचे के रहने वालों जैसा मेरा स्तर होगा
खाये पीये अघाये लोगों के बीच मैं किसी हीरो की तरह
बड़े आदर के साथ, मचलती नज़रों के बीच बुलाया जाऊंगा
इक जिन जब मैं पतला हो जाऊंगा, हवायें ले उड़ेंगी मुझे
बादलों पे मेरा घर होगा, भूख से बिलखते इंसानों की तरह
अंदर धंसा हुआ पेट होगा, गड्ढे हो जायेंगे दोनों गालों में
ग़रीबी रेखा से नीचे के रहने वालों जैसा मेरा स्तर होगा
खाये पीये अघाये लोगों के बीच मैं किसी हीरो की तरह
बड़े आदर के साथ, मचलती नज़रों के बीच बुलाया जाऊंगा
इक जिन जब मैं पतला हो जाऊंगा, हवायें ले उड़ेंगी मुझे
मेरी दलील तेरी दलील से सफेद
तर्कबाजों हम ये बहस किस लिये कर रहे हैं? विश्वास का कोई नया रास्ता ढूंढने के लिए या फिर अपने पूर्वाग्रहों को सच साबित करने के लिए। देखा मैं कहता था न ये ...ऐसे ही होते हैं। सच साबित हो गई। कहीं हम अलग अलग पार्टी लाइन के हिसाब से तो दलीलबाज़ी नहीं कर रहे। किस ओर की दलील में खामियां नहीं हैं। क्या हम इन खामियों के सहारे दंभ भर रहे हैं कि वो तो होते ही ऐसे हैं। अविश्वास को कई बार सच की परछाइयां मिल जाती हैं। इससे सच नहीं बन जाता। दिल्ली धमाकों के बाद बहस ऐसे हो रही है मानो भूत हमने देखा है। दूसरा कह रहा है...भूत का अस्तित्व नहीं होता। कोई महाभारत कोट कर रहा है तो कोई आइंस्टाइन।
या फिर हम सांप्रदायिकता पर होने वाली बहसों से बोर हो चुके हैं। नई चीज़ की तलाश में फिर से अपने पूर्वाग्रहों की ओर लौट रहे हैं। क्या हम अपनी हार मना रहे हैं या दोनों तरफ के फिरकापरस्तों की जीत में शामिल होना चाहते हैं? यह कहा जा रहा है कि मुसलमान आत्ममंथन करे। कहने वाला कौन है? जिसका बहुमत है? जो मुखिया बनना चाहता है? हम चाहते हैं तुम आत्ममंथन करो। किस बात का आत्ममंथन। आत्ममंथन के समर्थक कहते हैं कब तक जामिया ओखला बसेगा? ये एक ही जगह क्यों रहते हैं? क्यों नहीं कोई हिंदू जा रहा है जामिया में बसने। कि हम रहेंगे मुसलमानों के बीच। उन्हें जानेंगे? अब यह मत बताइये कि वहां हिंदूं रहते हैं क्योंकि हिंदुओं के बीच रहने वाले मुसलमान भी कम नहीं? ये बसावट किसकी देन है? विशुद्द हिंदूवादी और जातिवादी। जिस देश की हर बस्ती जात के आधार पर बसी हो वहां कोई धर्म के नाम पर जाकर कैसे एक दूसरे से घुलमिल सकता है। तभी मैंने बहुत पहले लिखा था कि भारत के गांवों पर बुलडोज़र चलवा दो। ठाकुर बस्ती, ब्राह्मण बस्ती और दलित बस्ती को मटियामेट कर दो। नई बस्ती बसाए। एक घर ठाकुर का,बगलवाला दलित का, उसके साथ वाला मुसलमान का। आत्ममंथन कर इसपर सहमति बना लीजिए। कोई बात हुई। सवर्ण मानसिकता ही चलाती है सांप्रदायिक सोच को। तभी तो दलित निकल भागे और यूपी में ही कमंडल को पटक कर दे मारा। बाद में जाना पड़ा ब्राह्मणों को हाथ मिलाने के लिए। सत्ता चाहिए थी। पहले इनके बिना सत्ता मिलती थी तो भगा कर रखते थे। अब इनसे मिलने लगी है तो घरों में आने जाने लगे हैं।
सवाल यही है कि क्या यह अकेले का आत्ममंथन है? अगर हां तो क्यों? किस आधार पर कहा जा रहा है कि मुस्लिम समाज आतंकवाद के समर्थन में है?उसे ही कुछ करना होगा? ये आत्ममंथन का क्या तरीका होना चाहिए? अपने बेटों से पूछें कि कहीं तुम तो आतंकवाद के रास्ते पर नहीं जा रहे? कैसे पता कि जामिया की घटना के बाद मां बाप ने नहीं पूछा होगा? उन्हें डर नहीं लगा होगा कि कहीं मेरा आरिफ,साजिद( अगर हैं) आतंकवाद के रास्ते पर तो नहीं भटक रहा। क्या हम अपनी सोच सिर्फ तर्कों से बना रहे हैं या तथ्यों से। या दोनों का घालमेल कर।
आत्ममंथन का सिद्धांत क्या यह मान कर चलता है कि मुसलमान आतंकवादी हैं उन्हें अपने भीतर झांकना चाहिए। क्या यह समस्या नहीं है? क्या हिंदू आत्ममंथन कर रहे हैं कि बजरंगी क्या कर रहे हैं? क्या किया उन्होंने अयोध्या में? जिसे तोड़ने के लिए सर पर पट्टी बांध कर घूमा करते थे,तोड़ देने के बाद गुम हो गए? कहां गुम हो गए? आत्ममंथन करने वालों की गोद में? गोधरा को जलाने वाले और गुजरात के जलाने वालों को लेकर कौन आत्ममंथन कर रहा है? भागलपुर को लेकर क्या कांग्रेस आत्ममंथन कर पाई? क्या कांग्रेस और बीजेपी को लोगों ने सजा दी? आप कहेंगे सत्ता से हटा दिया? ये वही सजा है जैसे किसी अफसर को निलंबित किया जाता है बाद में बहाली कर दी जाती है। बहस करने वालों को साफ करना चाहिए कि वह किस पार्टी का है। किसी पार्टी की तरफ से दलील न दे। दे तो नाम बता दे। किया तो था मुसलमानों ने आत्ममंथन। दिल्ली से लेकर अहमदाबाद और सहारपुर में मौलवियों की बड़ी रैली हुई। आतंकवाद की निंदा हुई। तब भी कुछ लोग आतंकवाद के रास्ते पर चल निकले। सच या झूठ अभी फैसला नहीं हुआ है। मगर क्या आत्ममंथन को भी हम अपनी सुविधा से स्वीकार करने लगे हैं? यह सबसे बड़ा झूठ है कि मुस्लिम समाज आत्ममंथन नहीं कर रहा?
हम सब की आधी से ज़्यादा दलीलें पुरानी और बेकार हो चुकी हैं। पीठ की तरफ दौड़ने का प्रयास करते हैं। आतंकवाद किसी एक समाज के आत्ममंथन से नहीं हल होगा। आधा रास्ता चलकर क्या हासिल कर लेंगे? पूरा रास्ता चलना होगा? नहीं चलेंगे? क्योंकि तब फिर कांग्रेस को सही और बीजेपी को गलत कैसे साबित करेंगे? कैसे हम अपने अपने समाज के खलनायकों को बचायेंगे?
या फिर हम सांप्रदायिकता पर होने वाली बहसों से बोर हो चुके हैं। नई चीज़ की तलाश में फिर से अपने पूर्वाग्रहों की ओर लौट रहे हैं। क्या हम अपनी हार मना रहे हैं या दोनों तरफ के फिरकापरस्तों की जीत में शामिल होना चाहते हैं? यह कहा जा रहा है कि मुसलमान आत्ममंथन करे। कहने वाला कौन है? जिसका बहुमत है? जो मुखिया बनना चाहता है? हम चाहते हैं तुम आत्ममंथन करो। किस बात का आत्ममंथन। आत्ममंथन के समर्थक कहते हैं कब तक जामिया ओखला बसेगा? ये एक ही जगह क्यों रहते हैं? क्यों नहीं कोई हिंदू जा रहा है जामिया में बसने। कि हम रहेंगे मुसलमानों के बीच। उन्हें जानेंगे? अब यह मत बताइये कि वहां हिंदूं रहते हैं क्योंकि हिंदुओं के बीच रहने वाले मुसलमान भी कम नहीं? ये बसावट किसकी देन है? विशुद्द हिंदूवादी और जातिवादी। जिस देश की हर बस्ती जात के आधार पर बसी हो वहां कोई धर्म के नाम पर जाकर कैसे एक दूसरे से घुलमिल सकता है। तभी मैंने बहुत पहले लिखा था कि भारत के गांवों पर बुलडोज़र चलवा दो। ठाकुर बस्ती, ब्राह्मण बस्ती और दलित बस्ती को मटियामेट कर दो। नई बस्ती बसाए। एक घर ठाकुर का,बगलवाला दलित का, उसके साथ वाला मुसलमान का। आत्ममंथन कर इसपर सहमति बना लीजिए। कोई बात हुई। सवर्ण मानसिकता ही चलाती है सांप्रदायिक सोच को। तभी तो दलित निकल भागे और यूपी में ही कमंडल को पटक कर दे मारा। बाद में जाना पड़ा ब्राह्मणों को हाथ मिलाने के लिए। सत्ता चाहिए थी। पहले इनके बिना सत्ता मिलती थी तो भगा कर रखते थे। अब इनसे मिलने लगी है तो घरों में आने जाने लगे हैं।
सवाल यही है कि क्या यह अकेले का आत्ममंथन है? अगर हां तो क्यों? किस आधार पर कहा जा रहा है कि मुस्लिम समाज आतंकवाद के समर्थन में है?उसे ही कुछ करना होगा? ये आत्ममंथन का क्या तरीका होना चाहिए? अपने बेटों से पूछें कि कहीं तुम तो आतंकवाद के रास्ते पर नहीं जा रहे? कैसे पता कि जामिया की घटना के बाद मां बाप ने नहीं पूछा होगा? उन्हें डर नहीं लगा होगा कि कहीं मेरा आरिफ,साजिद( अगर हैं) आतंकवाद के रास्ते पर तो नहीं भटक रहा। क्या हम अपनी सोच सिर्फ तर्कों से बना रहे हैं या तथ्यों से। या दोनों का घालमेल कर।
आत्ममंथन का सिद्धांत क्या यह मान कर चलता है कि मुसलमान आतंकवादी हैं उन्हें अपने भीतर झांकना चाहिए। क्या यह समस्या नहीं है? क्या हिंदू आत्ममंथन कर रहे हैं कि बजरंगी क्या कर रहे हैं? क्या किया उन्होंने अयोध्या में? जिसे तोड़ने के लिए सर पर पट्टी बांध कर घूमा करते थे,तोड़ देने के बाद गुम हो गए? कहां गुम हो गए? आत्ममंथन करने वालों की गोद में? गोधरा को जलाने वाले और गुजरात के जलाने वालों को लेकर कौन आत्ममंथन कर रहा है? भागलपुर को लेकर क्या कांग्रेस आत्ममंथन कर पाई? क्या कांग्रेस और बीजेपी को लोगों ने सजा दी? आप कहेंगे सत्ता से हटा दिया? ये वही सजा है जैसे किसी अफसर को निलंबित किया जाता है बाद में बहाली कर दी जाती है। बहस करने वालों को साफ करना चाहिए कि वह किस पार्टी का है। किसी पार्टी की तरफ से दलील न दे। दे तो नाम बता दे। किया तो था मुसलमानों ने आत्ममंथन। दिल्ली से लेकर अहमदाबाद और सहारपुर में मौलवियों की बड़ी रैली हुई। आतंकवाद की निंदा हुई। तब भी कुछ लोग आतंकवाद के रास्ते पर चल निकले। सच या झूठ अभी फैसला नहीं हुआ है। मगर क्या आत्ममंथन को भी हम अपनी सुविधा से स्वीकार करने लगे हैं? यह सबसे बड़ा झूठ है कि मुस्लिम समाज आत्ममंथन नहीं कर रहा?
हम सब की आधी से ज़्यादा दलीलें पुरानी और बेकार हो चुकी हैं। पीठ की तरफ दौड़ने का प्रयास करते हैं। आतंकवाद किसी एक समाज के आत्ममंथन से नहीं हल होगा। आधा रास्ता चलकर क्या हासिल कर लेंगे? पूरा रास्ता चलना होगा? नहीं चलेंगे? क्योंकि तब फिर कांग्रेस को सही और बीजेपी को गलत कैसे साबित करेंगे? कैसे हम अपने अपने समाज के खलनायकों को बचायेंगे?
टैक्स पेयर के पैसे का सांप्रदायिकरण
इसी साल फरवरी के महीने में सहारनपुर के देवबंद में तमाम उलेमा जुटे थे। आतंकवाद की निंदा करने। जो मुसलमान आतंकवाद की वकालत करता है वो इस्लाम का दुश्मन है। इससे मिलते जुलते हर नारे पर तालियां बज रही थीं। तब दो सवाल मुझे परेशान कर रहे थे। कहीं यह सबूत देने के लिए तो नहीं कि मुसलमान आतंकवादी नहीं है। अगर ऐसा है तो यह किसी भी देश के लिए यह शर्मनाक स्थिति है। इससे पहले भी पंजाब में आतंकवाद के दौर में सिखों को सबूत देना पड़ता था। लेकिन आतंकवाद के खात्मे और मुख्यधारा में खुले दिल से स्वागत करने का नतीजा यह है कि प्रधानमंत्री की कुर्सी पर मनमोहन सिंह बैठे हैं। किसी को शक नहीं होता बल्कि गर्व होता। यही सोचते सोचते ख्याल आया कि एक दिन तो ऐसा आएगा जब मुसलमानों को भी नहीं कहना पड़ेगा कि हम आतंकवाद का समर्थन नहीं करते हैं। विश्वास का माहौल दोनों तरफ से बनता है।
फर्क सिर्फ इतना है कि सिखों के साथ वक्त कम लगा लेकिन मुसलमानों के साथ इंतज़ार लंबा होता जा रहा है। दिल्ली में सिखों को हिंदुओं(दूसरी पार्टी के हिंदू) ने घरों से निकाल निकाल कर मारा,तो एक राजनीति कांग्रेस के खिलाफ सामने आई। उसने कांग्रेस को घेरा लेकिन हिंदुओं की इस असहिष्णुता पर सवाल खड़े नहीं किये। आज इसी कौम की एक राजनीतिक धारा के लोग( बजरंग दल) उड़ीसा और कर्नाटक में मार रहे हैं। हिंसा से मुसलमान और हिंदू दोनों जूझ रहे हैं। लेकिन बदनाम सिर्फ मुसलमान है।
बहरहाल, देवबंद की उस सुबह जो दूसरा सवाल परेशान कर रहा था, वो यह कि उलेमा कहीं इस बात से तो परेशान नहीं कि आतंकवाद उनके बीच पहुंच चुका है। कहीं वो उस निराश मानसिकता को झकझोर तो नहीं रहे थे कि बाबरी और गुजरात के बाद भी यकीन के हज़ारों तार अब भी कायम है। अब भी आतंकवाद का रास्ता मुनासिब नहीं है। तब एक मौलाना ने कहा कि उलेमा इसलिए जमा हुए हैं ताकि समाज में यह संदेश जाए कि मज़हबी नेता आतंकवाद के खिलाफ है और दूसरों को कहने का मौका न मिले कि इस्लाम आतंकवाद का समर्थन करता है।
उसके ठीक एक महीने बाद गुजरात के चुनावों के दौरान अहमदाबाद की एक मस्जिद। मौलाना जुम्मे की नमाज़ से पहले तकरीर कर रहे थे। बोल रहे थे कि बच्चों को अंग्रेज़ी पढ़ाओ। जब तक वो पढेंगे नहीं हालात नहीं बदलेंगे। खुतबा पढ़ने वाले मौलवी साहब ने अपने बच्चे को मदरसे से हटाकर पब्लिक स्कूल में डाल दिया था। उसी से ठीक पच्चीस किमी दूर एक मौलवी ने मस्जिद का काम छोड़ दिया। अरुणाचल से आया यह मौलवी अपनी बेटी को बीए कराना चाहता था। आस पास के लोग ताने देने लगे थे कि मौलवी हो कर अंग्रेजी तालीम दिला रहा है। बेटी बेपर्दा हो जाएगी। इस कहानी ने मुझे देवबंद के उस जुलूस की याद दिला दी।
इन दोनों घटनाओं के बीच जुलाई २००७ का वो हादसा गुज़र चुका था। लंदन के ग्लासगो धमाके में मोहम्म कफील, मोहम्मद सबील का नाम आया था। सबील ने बंगलूरु में अपने पिता को ई मेल किया था कि ग्लोबल वार्मिंग पर काम कर रहा हूं। बाद में आस्ट्रेलिया में पढ़ रहे रिश्ते के एक और भाई मोहम्मद हनीफ को भी गिरफ्तार कर लिया गया। हनीफ अब सभी आरोपों से मुक्त है। यह घटना बता रही थी कि आतंकवाद अब अनपढ़ों की बस्ती में नहीं पनप सकता। कंप्यूटर से लेकर सर्किट बनाना अनपढ़ों के बस की बात नहीं रही।
लेकिन हम सब भूल गए कि आतंकवाद ने रास्ता बना लिया है। पाकिस्तान में बैठे आकाओं के झांसे में पढ़े लिखे नौजवान आ गए हैं। देवबंद के उलेमा इसलिए एलान कर रहे थे कि कोई मौलवी को आतंकवादी या आतंकवाद का समर्थक न समझे। उन्हें भी अंदाज़ा नहीं होगा कि आतंकवाद ने मस्जिदों की आड़ लेना बंद कर दिया है। वो उन्हें ढूंढ रहा है जिन्हें बताया जा सके कि बाबरी मस्जिद या फिर गुजरात दंगों के बाद किस तरह की नाइंसाफी हुई। किसी को सज़ा नहीं मिली। गोधरा का ज़िक्र कर बाकी मुसलमानों को मारने का लाइसेंस दे दिया गया। राजनीति दोनों तरह की हिंसा के खिलाफ खड़ी हो सकती थी लेकिन एक को छोड़ दूसरे का साथ देने में उसका अपना फायदा था। इसलिए राजनीति ने अपना फायदा सोचा। मासूम ज़िंदगी और मुल्क के मुस्तकबिल का फायदा नहीं।
बाबरी मस्जिद की घटना और गुजरात के दंगों ने मुस्लिम समाज को दो बार बदला। बाबरी की घटना के बाद वे राष्ट्रीय राजनीति की धारा ( कांग्रेस) को छोड़ क्षेत्रिय दलों के साथ हो लिये। राजनीति में उनकी राष्ट्रीय पहचान खत्म हो गई। वोट बैंक बन गए। गुजरात के दंगों ने मुसलमानों को तालीम की तरफ धकेला। बड़ी संख्या में मुस्लिम इलाकों में पब्लिक स्कूल खुले। हैदराबाद के अखबार सियासत ने मुस्लिम लड़कियों और लड़कों को साफ्टवेयर की ट्रेनिंग देनी शुरु कर दी। आईटी क्षेत्र में मुस्लिम नौजवानों की संख्या धीरे धीरे बढ़ने लगी। मुसलमान मुख्यधारा से जुड़ रहा था। वो सच्चर कमेटी का इंतज़ार नहीं कर रहा था।
दिल्ली धमाकों ने मुस्लिम समाज के सामने एक नई चुनौती खड़ी कर दी। पढ़ाई के ज़रिये आगे बढ़ने की उनकी कोशिशों पर आतंकवाद की नज़र लग गई। एक बार फिर मुस्लिम समाज का भविष्य दांव पर लग गया है। शायद इसीलिए वो दिल्ली के जामियानगर के एक मकान में मारे गए आतंकवादी और उसके बाद पकड़े गए लड़कों को लेकर परेशान है। यकीन करना मुश्किल हो रहा है कि जिस पढ़ाई को मुस्तबिल बनाया वो आतंक के रास्ते पर कैसे चला गया।
लेकिन इस बार भी मुसलमानों के इस प्रारंभिक अविश्वास का गलत इस्तमाल किया जा रहा है। एक बार फिर से उनकी चिंता को आतंकवाद के समर्थन में देखने की नापाक कोशिश की जा रही है। आस्ट्रेलिया में मोहम्मद हनीफ भी तो बेकसूर छूट गया। उसे भी तो पहले आतंकवादी बताया गया था। तो क्या किसी को इतना भी हक नहीं कि वो इस शक को जगह दे सके। क्या पता इतनी बड़ी संख्या में पकड़े गए लड़कों में से कोई एक मोहम्मद हनीफ की तरह बेकसूर भी हो सकता है। लेकिन इतनी सी बात को ऐसे पेश किया जा रहा है कि पूरा मुस्लिम समाज आतंकवाक का समर्थन कर रहा है। दिल्ली पुलिस दावा कर रही है कि इस बार उसने सही लोगों को मारा है और पकड़ा है। अगर पुलिस को इतना यकीन है तो यह उसके लिए भी अच्छा मौका है। अपनी साख हासिल करने का कि इस बार सही लोग पकड़े गए हैं। जब ऐसी बात है तो फिर किसी को इसमें क्या एतराज़ कि सैफ के लिए वकील होना चाहिए या नहीं। सैफ के वकील भी देख लेंगे। लेकिन अदालत में जिरह से पहले वकील करने वाले पर शक बता रहा है कि हम सबने फैसला कर लिया है।
कुछ दलील यह दी जा रही है कि मोहन चंद शर्मा की शहादत न होती तो एनकाउंटर को फर्ज़ी बता दिया जाता। यह एक बकवास तर्क है। क्या अब तक हुए एनकाउंटरों को इसी आधार पर फर्ज़ी करार दिया जाता रहा है। आखिर ऐसा कैसे हो गया कि एनकाउंटर करने वाले( मोहन चंद शर्मा को छोड़ कर) राजबीर से लेकर मुंबई पुलिस के सुपर कॉप( नाम याद नहीं आ रहा) तक या तो आपसी रंजिश में मार दिये गए या फिर सस्पेंड कर दिये गए। मोहन चंद शर्मा अपवाद हो सकते हैं। क्या राजबीर सिंह भी अपवाद थे? अपवाद थे तो क्यों पुलिस के अफसर उनकी चिता पर आग देने नहीं गए। ज़ाहिर है एनकाउंटर करने वाली टीम में सारे दूघ के धुले अफसर नहीं होते। जिस दिल्ली पुलिस का इतना हाई प्रोफाइल अफसर राजबीर सिंह प्रोपर्टी डीलर के ठेके पर मार दिया जाए उस पुलिस के किसी काम पर सवाल ही उठा दिया गया तो क्या बवाल। अतीत में पुलिस की यही करतूत रही है। सवाल पर परेशानी इसलिए है कि हम आतंकवाद के मुद्दे का सांप्रदायिकरण कर रहे हैं। मोहन चंद शर्मा की शहादत( मैं सवाल नहीं उठा रहा) सिर्फ आतंकवाद के खिलाफ ही नहीं, उस पुलिस और पोलिटिकल सिस्टम के खिलाफ भी समझी जानी चाहिए जिसकी करनी की प्रतिक्रिया में आतंकवाद फैलता है।
एक और दलील दी जा रही है। टैक्स पेयर के पैसे से जामिया या दिल्ली अल्पसंख्यक आयोग वकील कैसे कर सकते हैं? इनके फैसले से एतराज़ हो सकता है लेकिन टैक्स पेयर को लेकर सवाल? क्या टैक्स पेयर सिर्फ हिंदू है? जेटली अपनी इस दलील से क्या यह कहना चाहते हैं कि टैक्स पेयर हिंदू है। पहली बार टैक्स पेयर का सांप्रदायिकरण हो रहा है। यह बेतुकी दलील और आगे बढ़ती है। अदालत आरोपियों को वकील देती है। तो क्या इस वकील का खर्चा टैक्स पेयर के पैसे से नहीं आएगा?
बात दोषी या निर्दोष का नहीं...बात है सांप्रदायिक पूर्वाग्रहों को ऐसी दलीलों से मांजने की। तराशने की। तथाकथित पुलिस और तथाकथित चश्मदीद के दावे सच की तरह पेश किये जा रहे हैं। यह समस्या है। दोनों के बीच के ग्रे एरिया की बात करें तो सांप्रदायिक राजनीति मोहन चंद शर्मा को आगे कर अपना काम करने लगती है।
तब भी जिनके बच्चे पकड़े गए हैं उन्होनें पुलिस मुर्दाबाद के नारे नहीं लगाए। जामियानगर के कुछ लोगों ने लगाए। मुंबई में तौकीर की मां और आज़मगढ़ में सैफ के पिता ने साफ साफ कहा है कि अगर मेरा बेटा दोषी है तो गोली मार दी जाए। देवबंद के उलेमा और इन मां बाप की आवाज़ एक ही है। अफसोस इतना कि राजनीति की आवाज़ अलग अलग है।
फर्क सिर्फ इतना है कि सिखों के साथ वक्त कम लगा लेकिन मुसलमानों के साथ इंतज़ार लंबा होता जा रहा है। दिल्ली में सिखों को हिंदुओं(दूसरी पार्टी के हिंदू) ने घरों से निकाल निकाल कर मारा,तो एक राजनीति कांग्रेस के खिलाफ सामने आई। उसने कांग्रेस को घेरा लेकिन हिंदुओं की इस असहिष्णुता पर सवाल खड़े नहीं किये। आज इसी कौम की एक राजनीतिक धारा के लोग( बजरंग दल) उड़ीसा और कर्नाटक में मार रहे हैं। हिंसा से मुसलमान और हिंदू दोनों जूझ रहे हैं। लेकिन बदनाम सिर्फ मुसलमान है।
बहरहाल, देवबंद की उस सुबह जो दूसरा सवाल परेशान कर रहा था, वो यह कि उलेमा कहीं इस बात से तो परेशान नहीं कि आतंकवाद उनके बीच पहुंच चुका है। कहीं वो उस निराश मानसिकता को झकझोर तो नहीं रहे थे कि बाबरी और गुजरात के बाद भी यकीन के हज़ारों तार अब भी कायम है। अब भी आतंकवाद का रास्ता मुनासिब नहीं है। तब एक मौलाना ने कहा कि उलेमा इसलिए जमा हुए हैं ताकि समाज में यह संदेश जाए कि मज़हबी नेता आतंकवाद के खिलाफ है और दूसरों को कहने का मौका न मिले कि इस्लाम आतंकवाद का समर्थन करता है।
उसके ठीक एक महीने बाद गुजरात के चुनावों के दौरान अहमदाबाद की एक मस्जिद। मौलाना जुम्मे की नमाज़ से पहले तकरीर कर रहे थे। बोल रहे थे कि बच्चों को अंग्रेज़ी पढ़ाओ। जब तक वो पढेंगे नहीं हालात नहीं बदलेंगे। खुतबा पढ़ने वाले मौलवी साहब ने अपने बच्चे को मदरसे से हटाकर पब्लिक स्कूल में डाल दिया था। उसी से ठीक पच्चीस किमी दूर एक मौलवी ने मस्जिद का काम छोड़ दिया। अरुणाचल से आया यह मौलवी अपनी बेटी को बीए कराना चाहता था। आस पास के लोग ताने देने लगे थे कि मौलवी हो कर अंग्रेजी तालीम दिला रहा है। बेटी बेपर्दा हो जाएगी। इस कहानी ने मुझे देवबंद के उस जुलूस की याद दिला दी।
इन दोनों घटनाओं के बीच जुलाई २००७ का वो हादसा गुज़र चुका था। लंदन के ग्लासगो धमाके में मोहम्म कफील, मोहम्मद सबील का नाम आया था। सबील ने बंगलूरु में अपने पिता को ई मेल किया था कि ग्लोबल वार्मिंग पर काम कर रहा हूं। बाद में आस्ट्रेलिया में पढ़ रहे रिश्ते के एक और भाई मोहम्मद हनीफ को भी गिरफ्तार कर लिया गया। हनीफ अब सभी आरोपों से मुक्त है। यह घटना बता रही थी कि आतंकवाद अब अनपढ़ों की बस्ती में नहीं पनप सकता। कंप्यूटर से लेकर सर्किट बनाना अनपढ़ों के बस की बात नहीं रही।
लेकिन हम सब भूल गए कि आतंकवाद ने रास्ता बना लिया है। पाकिस्तान में बैठे आकाओं के झांसे में पढ़े लिखे नौजवान आ गए हैं। देवबंद के उलेमा इसलिए एलान कर रहे थे कि कोई मौलवी को आतंकवादी या आतंकवाद का समर्थक न समझे। उन्हें भी अंदाज़ा नहीं होगा कि आतंकवाद ने मस्जिदों की आड़ लेना बंद कर दिया है। वो उन्हें ढूंढ रहा है जिन्हें बताया जा सके कि बाबरी मस्जिद या फिर गुजरात दंगों के बाद किस तरह की नाइंसाफी हुई। किसी को सज़ा नहीं मिली। गोधरा का ज़िक्र कर बाकी मुसलमानों को मारने का लाइसेंस दे दिया गया। राजनीति दोनों तरह की हिंसा के खिलाफ खड़ी हो सकती थी लेकिन एक को छोड़ दूसरे का साथ देने में उसका अपना फायदा था। इसलिए राजनीति ने अपना फायदा सोचा। मासूम ज़िंदगी और मुल्क के मुस्तकबिल का फायदा नहीं।
बाबरी मस्जिद की घटना और गुजरात के दंगों ने मुस्लिम समाज को दो बार बदला। बाबरी की घटना के बाद वे राष्ट्रीय राजनीति की धारा ( कांग्रेस) को छोड़ क्षेत्रिय दलों के साथ हो लिये। राजनीति में उनकी राष्ट्रीय पहचान खत्म हो गई। वोट बैंक बन गए। गुजरात के दंगों ने मुसलमानों को तालीम की तरफ धकेला। बड़ी संख्या में मुस्लिम इलाकों में पब्लिक स्कूल खुले। हैदराबाद के अखबार सियासत ने मुस्लिम लड़कियों और लड़कों को साफ्टवेयर की ट्रेनिंग देनी शुरु कर दी। आईटी क्षेत्र में मुस्लिम नौजवानों की संख्या धीरे धीरे बढ़ने लगी। मुसलमान मुख्यधारा से जुड़ रहा था। वो सच्चर कमेटी का इंतज़ार नहीं कर रहा था।
दिल्ली धमाकों ने मुस्लिम समाज के सामने एक नई चुनौती खड़ी कर दी। पढ़ाई के ज़रिये आगे बढ़ने की उनकी कोशिशों पर आतंकवाद की नज़र लग गई। एक बार फिर मुस्लिम समाज का भविष्य दांव पर लग गया है। शायद इसीलिए वो दिल्ली के जामियानगर के एक मकान में मारे गए आतंकवादी और उसके बाद पकड़े गए लड़कों को लेकर परेशान है। यकीन करना मुश्किल हो रहा है कि जिस पढ़ाई को मुस्तबिल बनाया वो आतंक के रास्ते पर कैसे चला गया।
लेकिन इस बार भी मुसलमानों के इस प्रारंभिक अविश्वास का गलत इस्तमाल किया जा रहा है। एक बार फिर से उनकी चिंता को आतंकवाद के समर्थन में देखने की नापाक कोशिश की जा रही है। आस्ट्रेलिया में मोहम्मद हनीफ भी तो बेकसूर छूट गया। उसे भी तो पहले आतंकवादी बताया गया था। तो क्या किसी को इतना भी हक नहीं कि वो इस शक को जगह दे सके। क्या पता इतनी बड़ी संख्या में पकड़े गए लड़कों में से कोई एक मोहम्मद हनीफ की तरह बेकसूर भी हो सकता है। लेकिन इतनी सी बात को ऐसे पेश किया जा रहा है कि पूरा मुस्लिम समाज आतंकवाक का समर्थन कर रहा है। दिल्ली पुलिस दावा कर रही है कि इस बार उसने सही लोगों को मारा है और पकड़ा है। अगर पुलिस को इतना यकीन है तो यह उसके लिए भी अच्छा मौका है। अपनी साख हासिल करने का कि इस बार सही लोग पकड़े गए हैं। जब ऐसी बात है तो फिर किसी को इसमें क्या एतराज़ कि सैफ के लिए वकील होना चाहिए या नहीं। सैफ के वकील भी देख लेंगे। लेकिन अदालत में जिरह से पहले वकील करने वाले पर शक बता रहा है कि हम सबने फैसला कर लिया है।
कुछ दलील यह दी जा रही है कि मोहन चंद शर्मा की शहादत न होती तो एनकाउंटर को फर्ज़ी बता दिया जाता। यह एक बकवास तर्क है। क्या अब तक हुए एनकाउंटरों को इसी आधार पर फर्ज़ी करार दिया जाता रहा है। आखिर ऐसा कैसे हो गया कि एनकाउंटर करने वाले( मोहन चंद शर्मा को छोड़ कर) राजबीर से लेकर मुंबई पुलिस के सुपर कॉप( नाम याद नहीं आ रहा) तक या तो आपसी रंजिश में मार दिये गए या फिर सस्पेंड कर दिये गए। मोहन चंद शर्मा अपवाद हो सकते हैं। क्या राजबीर सिंह भी अपवाद थे? अपवाद थे तो क्यों पुलिस के अफसर उनकी चिता पर आग देने नहीं गए। ज़ाहिर है एनकाउंटर करने वाली टीम में सारे दूघ के धुले अफसर नहीं होते। जिस दिल्ली पुलिस का इतना हाई प्रोफाइल अफसर राजबीर सिंह प्रोपर्टी डीलर के ठेके पर मार दिया जाए उस पुलिस के किसी काम पर सवाल ही उठा दिया गया तो क्या बवाल। अतीत में पुलिस की यही करतूत रही है। सवाल पर परेशानी इसलिए है कि हम आतंकवाद के मुद्दे का सांप्रदायिकरण कर रहे हैं। मोहन चंद शर्मा की शहादत( मैं सवाल नहीं उठा रहा) सिर्फ आतंकवाद के खिलाफ ही नहीं, उस पुलिस और पोलिटिकल सिस्टम के खिलाफ भी समझी जानी चाहिए जिसकी करनी की प्रतिक्रिया में आतंकवाद फैलता है।
एक और दलील दी जा रही है। टैक्स पेयर के पैसे से जामिया या दिल्ली अल्पसंख्यक आयोग वकील कैसे कर सकते हैं? इनके फैसले से एतराज़ हो सकता है लेकिन टैक्स पेयर को लेकर सवाल? क्या टैक्स पेयर सिर्फ हिंदू है? जेटली अपनी इस दलील से क्या यह कहना चाहते हैं कि टैक्स पेयर हिंदू है। पहली बार टैक्स पेयर का सांप्रदायिकरण हो रहा है। यह बेतुकी दलील और आगे बढ़ती है। अदालत आरोपियों को वकील देती है। तो क्या इस वकील का खर्चा टैक्स पेयर के पैसे से नहीं आएगा?
बात दोषी या निर्दोष का नहीं...बात है सांप्रदायिक पूर्वाग्रहों को ऐसी दलीलों से मांजने की। तराशने की। तथाकथित पुलिस और तथाकथित चश्मदीद के दावे सच की तरह पेश किये जा रहे हैं। यह समस्या है। दोनों के बीच के ग्रे एरिया की बात करें तो सांप्रदायिक राजनीति मोहन चंद शर्मा को आगे कर अपना काम करने लगती है।
तब भी जिनके बच्चे पकड़े गए हैं उन्होनें पुलिस मुर्दाबाद के नारे नहीं लगाए। जामियानगर के कुछ लोगों ने लगाए। मुंबई में तौकीर की मां और आज़मगढ़ में सैफ के पिता ने साफ साफ कहा है कि अगर मेरा बेटा दोषी है तो गोली मार दी जाए। देवबंद के उलेमा और इन मां बाप की आवाज़ एक ही है। अफसोस इतना कि राजनीति की आवाज़ अलग अलग है।
बाढ़ पर स्पेशल रिपोर्ट ख़बर डॉट कॉम पर
बाढ़ के गुनहगार स्पेशल रिपोर्ट इस वक्त ख़बर डॉट कॉम पर अपलोड कर दिया गया है। आप वीडियो सेक्शन में देख सकते हैं।
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वीरेंद्र कुमार बरनवाल से मुलाकात
इन दिनों पत्रकार साहित्यकारों से कम मिलते हैं। ऐसे ही एक बेशकीमती वक्त में आज सुबह बीरेंद्र कुमार बरनवाल जी से मुलाकात हो गई। कृष्णमोहन झा हमारे घर आए थे जाते वक्त हमें भी साथ ले गए। बहुत बातें हो गईं। पंडित रामनरेश त्रिपाठी का संकलन ग्रामगीत मेज़ पर रखा था। बरनवाल जी ने कहा कि हिंदी कविता के आदि पुरुष हैं पंडित रामनरेश त्रिपाठी। गांधीजी से भी उनका संवाद हुआ करता था। हिंदी के साहित्यकारों की एक उदारता बेमिसाल है। उनकी किताब भले ही प्रकाशक लाइब्रेरी की कालकोठरी में डाल दें और दुनिया के बाज़ार से गायब कर दें लेकिन हिंदी का साहित्यकार अपनी किताब मुफ्त में भेंट कर देता है। बिना मुझसे पूछे,बरनवाल जी ने जिन्ना एक पुनर्दृष्ठि भेंट कर दी और इसी के साथ अश्वेत साहित्यकार और नोबेल पुरस्कार विजेता नाइजीरिया के कवि वोले शोयिंका की किताब भी दी। कहा अश्वेत साहित्य के बारे में बहुत कुछ पता चलेगा। अंग्रेजी के कुछ साहित्यकारों व लेखकों से मिलना हो जाता है। वो कभी अपनी किताब मुफ्त में भेंट नहीं करते। अक्सर दुकान का पता बताते हैं। कहते हैं ज़रूर खरीदों। इससे एक लेखक की ज़िंदगी जुड़ी है। बहरहाल मुफ्त की किताब मेरे लिए बेशकीमती हो गई है।
जिन्ना एक पुनर्दृष्टि काफी चर्चित रचना है। हंस से लेकर किताब में ढलने के बाद भी इसकी अहमियत है। किताब की भूमिका के कुछ अंश दे रहा हूं।
जिन्ना सच्चे तत्वों से बनें हैं। सांप्रदायिक पूर्वाग्रह से मुक्त वह हिंदू-मुस्लिम एकता के सर्वश्रेष्ठ राजदूत हैं। गोपाल कृष्ण गोखले।
जिन्ना मुझे उस शख्स की याद दिलाते हैं, जो अपने मां-बाप दोनों को कत्ल कर अदालत से इस बिना पर माफी चाहता है, कि वह यतीम है। जवाहर लाल नेहरू
इतिहास सामान्यत ग्लेशियर की अदृश्य मन्थर गति से रेंगता हुआ चलता है, पर कभी-कभी उसमें प्रपात का आवेश-भरा वेग भी आ जाता है। कुछ ऐसा ही अप्रतिम वेग भारतीय उपमहाद्वीप के इतिहास की धारा में सन १९३७ से लेकर १९४७ के दौरान आया, जिसने विश्व के लगभग पांचवें हिस्से की नियति को बड़ी गहराई से प्रभावित किया।
इसी भूमिका में बरनवाल जी अपनी मां की कथरी पर लिखी दो पंक्तियों की एक कविता का भी ज़िक्र करते हैं।
हम ग़रीबों के गले का हार वन्दे मातरम
छीन सकती है नहीं सरकार वन्दे मातरम।
बरनवाल जी से मुलाकात अच्छी रही। कृष्णमोहन झा ने कविता संग्रह भेंट की। मैथिली में आई है यह कविता संग्रह। एक टा हेरायल दुनिया। अंतिका प्रकाशन का कारनामा है।
जिन्ना एक पुनर्दृष्टि काफी चर्चित रचना है। हंस से लेकर किताब में ढलने के बाद भी इसकी अहमियत है। किताब की भूमिका के कुछ अंश दे रहा हूं।
जिन्ना सच्चे तत्वों से बनें हैं। सांप्रदायिक पूर्वाग्रह से मुक्त वह हिंदू-मुस्लिम एकता के सर्वश्रेष्ठ राजदूत हैं। गोपाल कृष्ण गोखले।
जिन्ना मुझे उस शख्स की याद दिलाते हैं, जो अपने मां-बाप दोनों को कत्ल कर अदालत से इस बिना पर माफी चाहता है, कि वह यतीम है। जवाहर लाल नेहरू
इतिहास सामान्यत ग्लेशियर की अदृश्य मन्थर गति से रेंगता हुआ चलता है, पर कभी-कभी उसमें प्रपात का आवेश-भरा वेग भी आ जाता है। कुछ ऐसा ही अप्रतिम वेग भारतीय उपमहाद्वीप के इतिहास की धारा में सन १९३७ से लेकर १९४७ के दौरान आया, जिसने विश्व के लगभग पांचवें हिस्से की नियति को बड़ी गहराई से प्रभावित किया।
इसी भूमिका में बरनवाल जी अपनी मां की कथरी पर लिखी दो पंक्तियों की एक कविता का भी ज़िक्र करते हैं।
हम ग़रीबों के गले का हार वन्दे मातरम
छीन सकती है नहीं सरकार वन्दे मातरम।
बरनवाल जी से मुलाकात अच्छी रही। कृष्णमोहन झा ने कविता संग्रह भेंट की। मैथिली में आई है यह कविता संग्रह। एक टा हेरायल दुनिया। अंतिका प्रकाशन का कारनामा है।
बाढ़ का एक महीना और आज रात स्पेशल रिपोर्ट
दोस्तों, आज बिहार में आई बाढ़ का एक महीना हो गया। बाढ़ के लिए कौन कसूरवार है यह जानने में छह महीना लगेगा। क्योंकि बिहार सरकार ने जो जांच कमेटी बनाई है वो छह महीने में अपनी रिपोर्ट देगी। मैंने बाढ़ के गुनहगार पर एक स्पेशल रिपोर्ट तैयार की है। आप सभी कोसी में आई बाढ़ को लेकर चिंतित रहे हैं। मेरी गुज़ारिश है कि आप इसे देखें। पिछले शनिवार को दिल्ली धमाके के कारण नहीं प्रसारित हो सका था। आज रात साढ़े नौ बजे किया जा रहा है। एनडीटीवी इंडिया पर।
धमाकों के बाद सामान्य होती ज़िंदगी
२९ अक्तूबर २००५ की शाम थी। हमने पत्रकारों ने धमाके के बाद चीखना शुरू कर दिया था। यहां धमाका वहां धमाका। पहाड़गंज से लेकर सरोजिनी नगर तक। ६७ लोगों की मौत। सैंकड़ो घायल। मैं सफदरजंग अस्पताल की खिड़की पर खड़ा था। अंदर झांक रहा था। लाशों को गिनने के लिए। संख्या बढ़ती जा रही थी। हर लाश किसी न किसी कैमरे के फ्रेम में कैद हो रहा था। चमकते फ्लैश के बीच ज़िंदगी का अंधेरा गुम हो रहा था। लाइव फोनो है। देखिये हमने देखा है कि अभी यहां पच्चीस लाशें हैं। नहीं रुकिये। दो और शव आ चुके हैं। संख्या सत्ताईस हो चुकी है। अफरातफरी, धमाका, आतंक ये सारे शब्द किसी टेलीप्रिंटर से होते हुए मेरी ज़बान पर और फिर दर्शकों के घर में पहुंच रहे थे। पूरी रात इस घर से लेकर उस घर तक। हम कुछ ढूंढने की कोशिश कर रहे थे। लाश और ख़बर के बीच की कोई चीज़ थी।
सरोजिनी नगर का जूस कार्नर। ठीक उसके सामने फ्रीज कवर बेचने वाले न जाने कितनी बार टोका होगा। तब भी जब फ्रिज नहीं था और तब भी जब फ्रिज आ चुका था। वहीं से जली हुई प्लास्टिक की गंध आ रही थी। वो वक्त था जब आतंक की हर घटना के बाद मीडिया शहर के जज़्बे को ढूंढ रहा था। सलाम दिल्ली की कहानी। हम यही समझते रहे कि आतंकवाद हिंदू और मुस्लिम को बांटने की साज़िश है। हम भूलते रहे कि बंटे हुए हिंदू मुस्लिम समाज की ज़मीन पर आतंकवाद पनपता है। २००५ की शाम से तीन साल पहले गोधरा और गुजरात में जो जला उसका धुंआ इन तमाम धमाकों के विश्लेषण में आता रहा। धमाके के बाद कहीं कोई नहीं बंटा। भारत की अखंडता तमाम ऐसे हमलों से बची रह गई है। बंटे हुए समाज और बांटने वाली राजनीति के साथ भारत की अखंडता भी एडजस्ट हो चुकी है।
ख़बरों में अगली सुबह की ज़िंदगी सामान्य हो जाया करती थी। २९ अक्तूबर के अगले दिन दीवाली थी। खिड़की से हवा में उड़ती फूलझड़ियां रंग बिखेर रही थीं। मीडिया कह रहा था कि नहीं टूटा दिल्ली का हौसला।
ज़िंदगी किसी सिनेमाई हौसले से नहीं चलती। रोज़मर्रा की ज़िंदगी ज़िंदा बचे लोगों को चलाती रहती है अपने आप। उसमें धमाके के बाद की अगली सुबह कोई नई ऊर्जा नहीं भरती। अब आतंकवाद सिर्फ एक ख़बर है। मरने वालों की संख्या और घायलों की स्थिति की ख़बर। सारे विश्लेषण बेकार होते हुए सरकार पर आकर ठहर गए हैं। पहाड़गंज का वो घर अच्छी तरह याद है। चाट दुकान के ठीक सामने का एक घर। शीशे टूटे हुए थे और सुबह सुबह घर का मालिक अपने उजड़े हुए सामानों के बीच अखबार लिये नीचे झांक रहा था। यह एक सामान्य सा दृश्य था। लेकिन मीडिया ने इसमें भी कहानी खोज लिया। सामान्य होती ज़िंदगी की कहानी।
तीन साल बाद सितंबर के महीने में धमाका हुआ है। कोई दिन का संयोग मिला रहा था तो कोई टाईमर और अमोनियम का संयोग। बम किसी फोटोस्टेट मशीन पर नहीं छपा करते। आतंकवाद के हमले के बाद की ख़बरें अब सड़ने लगी हैं। शोर करने लगी हैं। उन सवालों को छोड़ने लगी हैं जिनसे हो कर आतंकवाद के पनपने की कहानी बनती है। तीन साल बाद दिल्ली दहली तो अगली सुबह कनाट प्लेस के सेट्रल पार्क में लोग ट्रैक सूट पहन कर जॉगिंग कर रहे थे। मेरी ज़बान लड़खड़ा गई। मैं समझ गया। ये सामान्य ज़िंदगी के लक्षण नहीं हैं। बल्कि उस ज़िंदगी के लक्षण हैं जो सामान्य ही है। जिसे न सवाल समझ में आते हैं न समाज का पता है।
आतंकवाद किसी को नहीं बांटता। वो चंद लोगों को मार देता है बस। मार कर दूसरे शहर की योजना बनाने में व्यस्त हो जाता है। मीडिया के लिए ज़िंदगी सामान्य हो जाती है। मोदी मसीहा बनने लगते हैं और शिवराज मर्सिया पढ़ने लगते हैं। १३ सितंबर की शाम धमाके के बाद तेज कार चलाता हुआ दफ्तर की तरफ भाग रहा था। कार भी वही थी और वही रास्ता जब २९ अक्तूबर २००५ की शाम दफ्तर की तरफ भाग रहा था। एफएम रेडियो स्टेशनों पर गाने चल रहे थे। धमाके की ख़बर आ कर जा रही थी। बचे हए लोग घर जा रहे थे मीडिया की ख़बरें सुनने।
इस बार ज़िंदगी धमाके की शाम ही सामान्य हो चुकी थी। अगली सुबह के इंतज़ार करने की रवायत ख़त्म हो चुकी है। जिनके यहां मौत होती है वो कभी सामान्य नहीं होते। सरोजिनी नगर के जूस कार्नर में जिसकी मौत हुई थी उसकी पत्नी से मिला था अगले दिन। तभी कहा था कि कोई अपने को नहीं भूल पाता। हमें पता नहीं कि यह आखिरी धमाका है। जब धमाके होंगे हमें हमारे हसबैंड याद आते रहेंगे। कनाट प्लेस पर अगली सुबह यानी रविवार को उनकी बात याद आ रही थी। फिर घूमने लगे चेहरे, अहमदाबाद, हैदराबाद, मालेगांव और जयपुर के मारे गए लोगों के परिवारवालों के। सिहरने लगा कि इन घरों में सारी रात कोई नहीं सोया होगा। पत्थर हो गए होंगे। मौत की हर गिनती की ख़बरों में अपनों को भी गिन रहे होंगे।
सरोजिनी नगर का जूस कार्नर। ठीक उसके सामने फ्रीज कवर बेचने वाले न जाने कितनी बार टोका होगा। तब भी जब फ्रिज नहीं था और तब भी जब फ्रिज आ चुका था। वहीं से जली हुई प्लास्टिक की गंध आ रही थी। वो वक्त था जब आतंक की हर घटना के बाद मीडिया शहर के जज़्बे को ढूंढ रहा था। सलाम दिल्ली की कहानी। हम यही समझते रहे कि आतंकवाद हिंदू और मुस्लिम को बांटने की साज़िश है। हम भूलते रहे कि बंटे हुए हिंदू मुस्लिम समाज की ज़मीन पर आतंकवाद पनपता है। २००५ की शाम से तीन साल पहले गोधरा और गुजरात में जो जला उसका धुंआ इन तमाम धमाकों के विश्लेषण में आता रहा। धमाके के बाद कहीं कोई नहीं बंटा। भारत की अखंडता तमाम ऐसे हमलों से बची रह गई है। बंटे हुए समाज और बांटने वाली राजनीति के साथ भारत की अखंडता भी एडजस्ट हो चुकी है।
ख़बरों में अगली सुबह की ज़िंदगी सामान्य हो जाया करती थी। २९ अक्तूबर के अगले दिन दीवाली थी। खिड़की से हवा में उड़ती फूलझड़ियां रंग बिखेर रही थीं। मीडिया कह रहा था कि नहीं टूटा दिल्ली का हौसला।
ज़िंदगी किसी सिनेमाई हौसले से नहीं चलती। रोज़मर्रा की ज़िंदगी ज़िंदा बचे लोगों को चलाती रहती है अपने आप। उसमें धमाके के बाद की अगली सुबह कोई नई ऊर्जा नहीं भरती। अब आतंकवाद सिर्फ एक ख़बर है। मरने वालों की संख्या और घायलों की स्थिति की ख़बर। सारे विश्लेषण बेकार होते हुए सरकार पर आकर ठहर गए हैं। पहाड़गंज का वो घर अच्छी तरह याद है। चाट दुकान के ठीक सामने का एक घर। शीशे टूटे हुए थे और सुबह सुबह घर का मालिक अपने उजड़े हुए सामानों के बीच अखबार लिये नीचे झांक रहा था। यह एक सामान्य सा दृश्य था। लेकिन मीडिया ने इसमें भी कहानी खोज लिया। सामान्य होती ज़िंदगी की कहानी।
तीन साल बाद सितंबर के महीने में धमाका हुआ है। कोई दिन का संयोग मिला रहा था तो कोई टाईमर और अमोनियम का संयोग। बम किसी फोटोस्टेट मशीन पर नहीं छपा करते। आतंकवाद के हमले के बाद की ख़बरें अब सड़ने लगी हैं। शोर करने लगी हैं। उन सवालों को छोड़ने लगी हैं जिनसे हो कर आतंकवाद के पनपने की कहानी बनती है। तीन साल बाद दिल्ली दहली तो अगली सुबह कनाट प्लेस के सेट्रल पार्क में लोग ट्रैक सूट पहन कर जॉगिंग कर रहे थे। मेरी ज़बान लड़खड़ा गई। मैं समझ गया। ये सामान्य ज़िंदगी के लक्षण नहीं हैं। बल्कि उस ज़िंदगी के लक्षण हैं जो सामान्य ही है। जिसे न सवाल समझ में आते हैं न समाज का पता है।
आतंकवाद किसी को नहीं बांटता। वो चंद लोगों को मार देता है बस। मार कर दूसरे शहर की योजना बनाने में व्यस्त हो जाता है। मीडिया के लिए ज़िंदगी सामान्य हो जाती है। मोदी मसीहा बनने लगते हैं और शिवराज मर्सिया पढ़ने लगते हैं। १३ सितंबर की शाम धमाके के बाद तेज कार चलाता हुआ दफ्तर की तरफ भाग रहा था। कार भी वही थी और वही रास्ता जब २९ अक्तूबर २००५ की शाम दफ्तर की तरफ भाग रहा था। एफएम रेडियो स्टेशनों पर गाने चल रहे थे। धमाके की ख़बर आ कर जा रही थी। बचे हए लोग घर जा रहे थे मीडिया की ख़बरें सुनने।
इस बार ज़िंदगी धमाके की शाम ही सामान्य हो चुकी थी। अगली सुबह के इंतज़ार करने की रवायत ख़त्म हो चुकी है। जिनके यहां मौत होती है वो कभी सामान्य नहीं होते। सरोजिनी नगर के जूस कार्नर में जिसकी मौत हुई थी उसकी पत्नी से मिला था अगले दिन। तभी कहा था कि कोई अपने को नहीं भूल पाता। हमें पता नहीं कि यह आखिरी धमाका है। जब धमाके होंगे हमें हमारे हसबैंड याद आते रहेंगे। कनाट प्लेस पर अगली सुबह यानी रविवार को उनकी बात याद आ रही थी। फिर घूमने लगे चेहरे, अहमदाबाद, हैदराबाद, मालेगांव और जयपुर के मारे गए लोगों के परिवारवालों के। सिहरने लगा कि इन घरों में सारी रात कोई नहीं सोया होगा। पत्थर हो गए होंगे। मौत की हर गिनती की ख़बरों में अपनों को भी गिन रहे होंगे।
बाढ़ पर स्पेशल रिपोर्ट आज रात साढ़े नौ बजे
एनडीटीवी इंडिया पर देख सकते हैं। आपकी प्रतिक्रिया का इंतज़ार रहेगा।
हमारे लायक कोई सेवा....
यह तस्वीर महेशखूंट की है। यहीं से बायें की तरफ एक रास्ता मुड़ता है जिससे आप सहरसा पहुंचते हैं। राजनीति में यह नया नुस्खा लगता है। आप से ही पूछ रहे हैं कि कोई हो तो बता दीजिए। इनके पास झूठे वादे करने के लिए कोई काम नहीं है।
वैसे आलोक ने बताया है कि अनिता बिहारी मशहूर गायक और गीतकार छैला बिहारी की पत्नी हैं। छैला बिहारी मनोज तिवारी के टक्कर के गायक हैं। मुंबई में रहते हैं और ठाठ से अंगिका और भोजपुरी में गाते हैं। यह पोस्टर उस जगह पर लगा है जहां बाढ़ नहीं है और यह बाढ़ से पहले लगा है।
जनमानस की कल्पना में कोसी
यह तस्वीर सुपौल के किसी जगह पर ली थी। रिक्शे पर कोशी प्रोजेक्ट लिखा देखा तो रहा न गया। जिस प्रोजेक्ट ने सब कुछ छिन लिया वो किसी की कल्पना का सुंदर चित्र भी हो सकता है यकीन नहीं हुआ। उसके बाद नज़र अपने आप वहां जाने लगी जहां कोसी से जुड़ा कुछ भी लिखा होता था। न्यू कोसी जनरल स्टोर,होटल कोसी निवास,कोसी ट्रैवल्स,कोसी मेडिकोज़ आदि आदि। बाढ़ से इस तस्वीर का बहुत गहरा रिश्ता है।
अमरीकी मीडिया का फुटनोट्स- इंडिया का इतिहास
जिस वक्त टीवी चैनलों पर परमाणु करार की ख़बरें खुद ही ऐतिहासिक ऐलान करती हूईं छलक रही थीं, अमरीकी मीडिया प्रमुख सीएनएन पर अफगानिस्तान पर अच्छी रिपोर्ट आ रही थी। नीचे कुछ स्क्राल चल रहे थे। एशिया की तरफ से एक ही खबर थी कि ज़रदारी पाकिस्तान के राष्ट्रपति बन गए। बीबीसी का भी यही हाल था। उसके बाद भारतीय समय के अनुसार साढ़े पांच बजे सीएनएन और बीबीसी की खबरें शुरू हुईं। पाकिस्तान के राष्ट्रपति बनने की खबर पहली हेडलाइन थी लेकिन भारत में इतिहास बना उसकी चर्चा तक नहीं।
इतिहास अब तत्काल बनने लगा है। यही हाल रहा तो कुछ दिनों बाद इतिहासकार की ज़रूरत नहीं पड़ेगी। कोई कह देगा कि आप २०५० में परमाणु करार को ऐतिहासिक बता रहे हैं वो तो उसी दिन टीवी चैनलों ने ऐतिहासिक बता कर फ्लैश कर दिया था। चलिये भागिये यहां से। इतिहास लिखने आए हैं।
ठीक है कि हर मुल्क अपने नज़रिये से अपना इतिहास तय करता है। करना भी चाहिए। मगर इतिहास का पैमाना नहीं बदल सकता। अगर बदलेगा तो वर्तमान किसे कहेंगे। भविष्य को क्या कहेंगे। सीएनएन और बीबीसी के लिए न्यूक्लियर डील जैसी हाई प्रोफाइल खबर बड़ी खबर क्यों नहीं है खासकर जब एनएसजी में अमरीका, चीन और फ्रांस जैसे देश शामिल हैं। किसने और किस आधार पर तय किया है कि यह डील ऐतिहासिक है। ऐतिहासिक होना अजीब हो गया है। ब्रेकिंग न्यूज़ में जो फ्लैश नहीं होगा वो इतिहास नहीं बनेगा। अच्छा हुआ शाहजहां ताजमहल बना कर कब के चले गए। आज बनाते तो उनके ठेकेदारों का नाम हो जाता। बेचारे शाहजहां को प्रेसकांफ्रेस कर ख़बर ब्रेक करनी पड़ती कि इसे मुगल सल्तनत ने बनवाया है, ताज कंस्ट्रक्शन कंपनी ने नहीं और यह इमारत ऐतिहासिक है।
इतिहास अब तत्काल बनने लगा है। यही हाल रहा तो कुछ दिनों बाद इतिहासकार की ज़रूरत नहीं पड़ेगी। कोई कह देगा कि आप २०५० में परमाणु करार को ऐतिहासिक बता रहे हैं वो तो उसी दिन टीवी चैनलों ने ऐतिहासिक बता कर फ्लैश कर दिया था। चलिये भागिये यहां से। इतिहास लिखने आए हैं।
ठीक है कि हर मुल्क अपने नज़रिये से अपना इतिहास तय करता है। करना भी चाहिए। मगर इतिहास का पैमाना नहीं बदल सकता। अगर बदलेगा तो वर्तमान किसे कहेंगे। भविष्य को क्या कहेंगे। सीएनएन और बीबीसी के लिए न्यूक्लियर डील जैसी हाई प्रोफाइल खबर बड़ी खबर क्यों नहीं है खासकर जब एनएसजी में अमरीका, चीन और फ्रांस जैसे देश शामिल हैं। किसने और किस आधार पर तय किया है कि यह डील ऐतिहासिक है। ऐतिहासिक होना अजीब हो गया है। ब्रेकिंग न्यूज़ में जो फ्लैश नहीं होगा वो इतिहास नहीं बनेगा। अच्छा हुआ शाहजहां ताजमहल बना कर कब के चले गए। आज बनाते तो उनके ठेकेदारों का नाम हो जाता। बेचारे शाहजहां को प्रेसकांफ्रेस कर ख़बर ब्रेक करनी पड़ती कि इसे मुगल सल्तनत ने बनवाया है, ताज कंस्ट्रक्शन कंपनी ने नहीं और यह इमारत ऐतिहासिक है।
कोसी ढूंढ रही है सबको
( दोस्तों,सहरसा,सुपौल और मधेपुरा से लौट आया हूं । मेरा अब भी मानना है कि बाढ़ प्राकृतिक नहीं है। ऐसे तर्को से सावधान रहने की ज़रूरत है कि कोई भी सरकार इतनी बड़ी तबाही में क्या कर सकती है। इस तर्क से दोषियों को चेहरा छुपाने के लिए पर्दा मिल जाता है। नितांत भाग्यवादी तर्कों से बचा जाना चाहिए। भ्रष्ट लोगों की वजह से बाढ़ आई है। इसलिए इस आपदा में कारण बड़ी खबर है राहत नहीं। मानवीय खबरें बड़ी खबर नहीं है न ही बचाव में लगे किसी नायक की खोज। बल्कि बड़ी ख़बर सिर्फ यही है कि जिनकी वजह से बाढ़ आई वो कहां हैं। मुझे जो कुछ भी दिखा, लगा मैं यहां आपके सामने रखूंगा। यह मेरा पहला लेख है।)
माइक और कैमरा बंद कर दिया है। अब आप सच बताइये। कहते ही कुशहा में तैनात इंजीनियर के चेहरे पर भय की रेखाएं निकल आईं। सच। हां,कैमरे पर कही गई बहुत बातें पर्दे में ही होती हैं। मैं ये अपने लिए जानना चाहता हूं। किसी को बताने के लिए नहीं। आपके बाल बच्चे होंगे। घर होगा। ईमान भी होगा। बता दीजिए कि कुशहा में जहां आप तटबंध का कटाव रोक रहे हैं वो काम पंद्रह दिन पहले हो सकता था या नहीं। इंजीनियर अब सच बोलना चाहता था। मुझे अकेले में ले गया। पत्रकार साहब,लोगों के शरीर में कीड़े पड़ेंगे। यहां जब हम आए तो लगा ही नहीं कि कुछ भी युद्ध स्तर पर किया जा रहा था। अगर बचाये जाने की कोशिश होती तो बचाया जा सकता था। कोई बड़ी बात नहीं थी। विभाग और सरकार से पाप हुआ है। लेकिन मेरा नाम मत छापियेगा। मेरी नौकरी चली जाएगी। मैं तो चौबीस तारीख के बाद पटना से आया हूं। मेरा कोई कसूर नहीं है। वो सच बोल चुका था। लेकिन बोलने के बाद भी उसका मन हल्का नहीं हुआ। क्योंकि उसके ठीक सामने से कोशी पूर्वी किनारे को तोड़ उन अधिकारियों,नेताओं और ठेकेदारों को ढूंढने पूर्णिया,सहरसा,अररिया,मधेपुरा,सुपौल तक जा चुकी थी। वो खेतो में,सड़कों पर,गांवों में,घरों की छत पर,हर तरफ ढूंढ रही थी।
कोसी का गुस्सा बढ़ता जा रहा था। वो उस समाज को भी ढूंढने लगी जिसने ऐसी चोर व्यवस्था चुनी है। उस मतदाता को भी ढूंढने लगी जो भ्रष्ट राजनेता चुनती है,उस नागरिक को भी ढूंढने लगी जिसके बेखबर होने से अफसरशाही भ्रष्ट होती है। कोसी इन्हीं को लोगों को ढूंढते ढूंढते बर्बादी ला रही थी। कोसी ने चालीस पचास निकम्मे और चोर नेताओं और अफसरों की सजा उन लाखों लोगों को भी दी है जिनकी एक उंगली इन्हें चुनती है। कोशी को समाज की सड़न या उसकी मजबूरियों से मतलब नहीं था। वो इन मजबूरियों को तटबंध से निकल कर ढहा देना चाह रही है। कोशी ने लाखों मासूम लोगों को मासूम बने रहने की सज़ा दी है। इंजीनियर सच बोलकर भी हल्का नहीं हुआ तो सिर्फ इसीलिए क्योंकि वह कोसी के इरादे को जान गया था।
बिहार सरकार और नीतीश कुमार रात दिन झूठ बोल रहे हैं। चेहरा गंभीर होता है लेकिन झूठ बोलते हैं। वे बाढ़ और राहत कार्य में व्यस्त होने के बहाने कारण पर बात नहीं करना चाहते। वे जानते हैं कि कारण पर चर्चा की तो गर्दन उनकी भी फंस जाएगी और कोशी ने जिन लाखों लोगों को उजाड़ा है वे कोसी का गुस्सा नीतीश कुमार पर उतार देंगे। हर मुख्यमंत्री राहत काम में व्यस्त होता है लेकिन किसकी वजह से टूटा ये क्या वो चार साल बाद बतायेगा। १७ अगस्त को कोसी प्रोजेक्ट के चीफ इंजीनियर का तबादला किया जाता है। चीफ इंजीनियर एक बड़ा अफसर होता है। इसकी तैनाती या तबादला बिना मुख्यमंत्री की जानकारी या दस्तखत के नहीं होता। अगर जलसंसाधन मंत्री की कलम से भी होता है तो साफ हो जाता है कि बिजेंद्र यादव एक रुटीन तबादले में व्यस्त थे। वैसे चीफ इंजीनियर के तबादले की फाइल कैबिनेट में जाती है और मुख्यमंत्री मंजूरी देते हैं। ध्यान रहे कि चीफ इंजीनियर को किसी लापरवाही के चलते नहीं हटाया गया था बल्कि कोई और कारण रहे होंगे। साफ है कि किसी को मालूम नहीं था।
मालूम इसलिए नहीं था क्योंकि जिस जगह पर तटबंध टूटा है वहां जाकर साफ हो गया कि आने जाने का रास्ता ही नहीं है। जंगल देखकर और बुरी तरह से टूटे रास्ते से पता चल गया कि यहां कोई आया ही नहीं होगा। रास्ते की हालत बता रही थी कि यहां किसी भी प्रयास से युद्ध स्तर के प्रयास हो ही नहीं सकते थे।
किसी ने पूछा है कि निराशाजनक कहानी के बीच में कोई तो होगा जो अच्छा काम कर रहा होगा। ऐसे बहुत लोग है। लेकिन ये बाद की कहानी है। उनके अच्छा काम करने से से बाढ़ ग्रस्त इलाके की हकीकत में कोई बदलाव नहीं होता। जो अपने घरों में बैठे टीवी देख रहे हैं उन्हें शायद पोज़िटीव स्टोरी से राहत मिले लेकिन क्या जिनके घर उजड़ गए हैं उन्हें ह्यूमन या मानवीय या सकारात्मक स्टोरी से राहत मिलेगी। और इस जानकारी का क्या महत्व है। इस पर बहस अगले लेख में करूंगा।
मेरी राय में कोसी को पटना तक आना चाहिए। इस सड़े हुए प्रदेश को सिरे से उजाड़ देना चाहिए। किसी को बिहार की ऐसी छवि से परेशानी हो सकती है लेकिन कोसी जानती है कि बिहार को एक दिन नई छवि बनानी होगी तब तक के लिए वो तटबंधों को तोड़ ऐसे भ्रष्ट समाज और सरकार को ढूंढने के लिए तबाही लाती रहेगी।
माइक और कैमरा बंद कर दिया है। अब आप सच बताइये। कहते ही कुशहा में तैनात इंजीनियर के चेहरे पर भय की रेखाएं निकल आईं। सच। हां,कैमरे पर कही गई बहुत बातें पर्दे में ही होती हैं। मैं ये अपने लिए जानना चाहता हूं। किसी को बताने के लिए नहीं। आपके बाल बच्चे होंगे। घर होगा। ईमान भी होगा। बता दीजिए कि कुशहा में जहां आप तटबंध का कटाव रोक रहे हैं वो काम पंद्रह दिन पहले हो सकता था या नहीं। इंजीनियर अब सच बोलना चाहता था। मुझे अकेले में ले गया। पत्रकार साहब,लोगों के शरीर में कीड़े पड़ेंगे। यहां जब हम आए तो लगा ही नहीं कि कुछ भी युद्ध स्तर पर किया जा रहा था। अगर बचाये जाने की कोशिश होती तो बचाया जा सकता था। कोई बड़ी बात नहीं थी। विभाग और सरकार से पाप हुआ है। लेकिन मेरा नाम मत छापियेगा। मेरी नौकरी चली जाएगी। मैं तो चौबीस तारीख के बाद पटना से आया हूं। मेरा कोई कसूर नहीं है। वो सच बोल चुका था। लेकिन बोलने के बाद भी उसका मन हल्का नहीं हुआ। क्योंकि उसके ठीक सामने से कोशी पूर्वी किनारे को तोड़ उन अधिकारियों,नेताओं और ठेकेदारों को ढूंढने पूर्णिया,सहरसा,अररिया,मधेपुरा,सुपौल तक जा चुकी थी। वो खेतो में,सड़कों पर,गांवों में,घरों की छत पर,हर तरफ ढूंढ रही थी।
कोसी का गुस्सा बढ़ता जा रहा था। वो उस समाज को भी ढूंढने लगी जिसने ऐसी चोर व्यवस्था चुनी है। उस मतदाता को भी ढूंढने लगी जो भ्रष्ट राजनेता चुनती है,उस नागरिक को भी ढूंढने लगी जिसके बेखबर होने से अफसरशाही भ्रष्ट होती है। कोसी इन्हीं को लोगों को ढूंढते ढूंढते बर्बादी ला रही थी। कोसी ने चालीस पचास निकम्मे और चोर नेताओं और अफसरों की सजा उन लाखों लोगों को भी दी है जिनकी एक उंगली इन्हें चुनती है। कोशी को समाज की सड़न या उसकी मजबूरियों से मतलब नहीं था। वो इन मजबूरियों को तटबंध से निकल कर ढहा देना चाह रही है। कोशी ने लाखों मासूम लोगों को मासूम बने रहने की सज़ा दी है। इंजीनियर सच बोलकर भी हल्का नहीं हुआ तो सिर्फ इसीलिए क्योंकि वह कोसी के इरादे को जान गया था।
बिहार सरकार और नीतीश कुमार रात दिन झूठ बोल रहे हैं। चेहरा गंभीर होता है लेकिन झूठ बोलते हैं। वे बाढ़ और राहत कार्य में व्यस्त होने के बहाने कारण पर बात नहीं करना चाहते। वे जानते हैं कि कारण पर चर्चा की तो गर्दन उनकी भी फंस जाएगी और कोशी ने जिन लाखों लोगों को उजाड़ा है वे कोसी का गुस्सा नीतीश कुमार पर उतार देंगे। हर मुख्यमंत्री राहत काम में व्यस्त होता है लेकिन किसकी वजह से टूटा ये क्या वो चार साल बाद बतायेगा। १७ अगस्त को कोसी प्रोजेक्ट के चीफ इंजीनियर का तबादला किया जाता है। चीफ इंजीनियर एक बड़ा अफसर होता है। इसकी तैनाती या तबादला बिना मुख्यमंत्री की जानकारी या दस्तखत के नहीं होता। अगर जलसंसाधन मंत्री की कलम से भी होता है तो साफ हो जाता है कि बिजेंद्र यादव एक रुटीन तबादले में व्यस्त थे। वैसे चीफ इंजीनियर के तबादले की फाइल कैबिनेट में जाती है और मुख्यमंत्री मंजूरी देते हैं। ध्यान रहे कि चीफ इंजीनियर को किसी लापरवाही के चलते नहीं हटाया गया था बल्कि कोई और कारण रहे होंगे। साफ है कि किसी को मालूम नहीं था।
मालूम इसलिए नहीं था क्योंकि जिस जगह पर तटबंध टूटा है वहां जाकर साफ हो गया कि आने जाने का रास्ता ही नहीं है। जंगल देखकर और बुरी तरह से टूटे रास्ते से पता चल गया कि यहां कोई आया ही नहीं होगा। रास्ते की हालत बता रही थी कि यहां किसी भी प्रयास से युद्ध स्तर के प्रयास हो ही नहीं सकते थे।
किसी ने पूछा है कि निराशाजनक कहानी के बीच में कोई तो होगा जो अच्छा काम कर रहा होगा। ऐसे बहुत लोग है। लेकिन ये बाद की कहानी है। उनके अच्छा काम करने से से बाढ़ ग्रस्त इलाके की हकीकत में कोई बदलाव नहीं होता। जो अपने घरों में बैठे टीवी देख रहे हैं उन्हें शायद पोज़िटीव स्टोरी से राहत मिले लेकिन क्या जिनके घर उजड़ गए हैं उन्हें ह्यूमन या मानवीय या सकारात्मक स्टोरी से राहत मिलेगी। और इस जानकारी का क्या महत्व है। इस पर बहस अगले लेख में करूंगा।
मेरी राय में कोसी को पटना तक आना चाहिए। इस सड़े हुए प्रदेश को सिरे से उजाड़ देना चाहिए। किसी को बिहार की ऐसी छवि से परेशानी हो सकती है लेकिन कोसी जानती है कि बिहार को एक दिन नई छवि बनानी होगी तब तक के लिए वो तटबंधों को तोड़ ऐसे भ्रष्ट समाज और सरकार को ढूंढने के लिए तबाही लाती रहेगी।
ज़हर खाये मरीज़ों का अस्पताल और भिवानी
ज़हर खाये मरीज़ों के लिए आईसीयू की विशेष सुविधा। भिवानी के प्राइवेट अस्पतालों में ज़हर खाये मरीज़ों के लिए अलग से प्रचार के लिए जगह बनाई जाती है। ऐसे मरीज़ों को लेकर काफी प्रतिस्पर्धा है। इनसे कमाई काफी होती है। भिवानी में ऐसे मरीज़ों की संख्या भी कम नहीं। हमने वहां के एक डॉक्टर जे बी गुप्ता से पूछा कि ज़हर खाये मरीज़ों का अस्पताल कुछ समझ में नहीं आया तो गुप्ता ने जो बताया उसे यहां लिखना चाहूंगा।
भिवानी में हर दिन एक या दो केस ज़हर खाने के आते हैं। कुछ समय पहले तक दहेज की सताई महिलायें और कर्ज के मारे किसानों की संख्या अधिक थी। लेकिन अब बेवफा मर्दों के कारण पत्नियां सल्फास खा लेती हैं। विवाहेत्तर संबंध पारिवारिक तनाव का बड़ा कारण बन रहे हैं। सुसाइड करने वाली ज़्यादातर औरतें इसी मामले से जुड़ी होती हैं। डॉक्टर जी बी गुप्ता ने बताया कि हर दिन एक या दो केस आता है। यह वो संख्या है जिसे हम बचने लायक मान कर भर्ती करते हैं। वो संख्या नहीं है जिन्हें मृत मानकर वापस भेज देते हैं। ज़िला अस्पताल में भी सुसाइड के केस काफी आते हैं।
बस हमारी दिलचस्पी बढ़ने लगी। हम और जानना चाहते थे। इससे पहले किसी भी शहर में ज़हर खाये मरीज़ों के लिए अलग से सुविधा जैसी बोर्ड पर मेरी नज़र नहीं पड़ी होगी। मैं भिवानी को बिजेंद्र और जितेंद्र की कामयाबी की कहानी के पार जाकर देखने की कोशिश कर रहा था।
पता चला कि बेवफाई की मारी पत्नियों के अलावा कुंवारी लड़कियों का नंबर आता है। ये वो कुंवारी लड़कियां हैं जो इम्तहानों में फेल हो जाती हैं। इनकी पढ़ाई चौपट होती है। घर में मां बाप लाठी लेकर पिल जाते हैं क्योंकि फिर से खर्च करना होगा। इससे भी ज़्यादा तनाव इस बात को लेकर हो जाता है कि फेल होने से शादी में दिक्कत होगी। बिहार में हमने देखा था कि किस तरह से गार्जियन( मां बाप का एक संभ्रांत नाम) अपनी बेटियों को पास कराने के लिए कॉपी चेक करने वाले मास्टर के पांव पड़ते हैं। उनकी दलील होती है कि पास कर दीजिए नहीं तो शादी नहीं होगी। लड़के वाले को पढ़ी लिखी लड़की चाहिए। बेटी का बाप मास्टर पिघल जाता था।
ख़ैर डॉ गुप्ता ने बताया कि इस दोहरे तनाव के कारण नतीजों के महीनों में रोज़ानो सुसाइड करने वाली लड़कियां लायी जाती हैं। हमने पूछा कि फेल करने वाले लड़के नहीं होते तो जवाब मिला नहीं होते। जबकि तीसरे नंबर पर नौजवान ही आते हैं। लेकिन इनका कारण फेल करना नहीं होता। बाप से मोबाइल या मोटरसायकिल नहीं मिलने के कारण नौजवान आत्महत्या तक की कोशिश कर लेते हैं। इस सामाजिक आर्थिक आकांक्षा का विश्लेषण किया जाना बाकी है। जिस शहर में एक भी सिनेमा घर न हो वहां इस तरह बंबईया शौक कैसे युवाओं को आत्महत्या की तरफ धकेल रहे हैं। भिवानी में तीन सिनेमा हॉल थे जो अब बंद हो चुके हैं। यहां के लोग पायरेटेड डीवीडी के भरोसे फिल्म देख रहे हैं। इनसे मनोरंजन का सार्वजनिक अधिकार भी छिन लिया गया है। मल्टीप्लेक्स दौर ने छोटे शहरों को सिनेमा से वंचित कर दिया है। इसके बाद भी मरने और जी कर कुछ कर जाने की तमन्ना को बड़े शहरों वाले अपने पैमाने से समझना चाहते हैं।
भिवानी की कामयाबी पर जश्न के साथ साथ इन सवालों से भी टकराना होगा। पूछना होगा कि कहीं ओलिंपिक की कामयाबी के बहाने हम इन शहरों के यथार्थ से मुंह मोड़ने की कोशिश तो नहीं कर रहे। आखिर बिजेंद्र को मेडल दिलाने में इन शहरों ने क्या दिया होगा। कोच के अलावा। यहां की टूटी सड़कें, बिजली का न होना, बसों की छत पर सफर ये सब किसी कामयाबी का फार्मूला हैं या अरबों रुपये की पंचवर्षीय योजनाओं की नाकामी की तस्वीर। न होती तो ज़हर खाये मरीज़ों के लिए आईसीयू की सुविधा जैसे बोर्ड न होते।
कॉरपोरेट पूंजी से फैलता अंधविश्वास
बिल गेट्स का एक लेख दैनिक भास्कर में छपा था। बिल गेट्स ने कंपनियों से अपील की है कि वे सृजनात्मक पूंजीवाद को अपनायें। कुल मिलाकर उस लेख से यही समझा कि बिल गेट्स यह कह रहे हैं कि ठेले वाले,दिहाड़ी मज़दूर के अंटी में भी दस पांच रुपया रहता है। इनके लिए ज़रूरतें पैदा करों और फिर माल बना कर दस पांच पैसे को भी बटोर लो। बिल गेट्स उपभोक्तावाद को वहां तक ले जाना चाहते हैं जिसके पास उपभोग के नाम पर संतोष ही बचा है। इसी लेख में बिल गेट्स उन कंपनियों का भी ज़िक्र करते हैं जो अच्छा काम करती हैं। और लोगों से अपील करते हैं कि चूंकि ये कंपनियां अच्छा काम करती हैं तो इनका माल खरीद कर हौसला बढ़ाना चाहिए।
तालियां। वाह वाह। तो क्या बिल गेट्स की इस दलील को हिंदुस्तान की कंपनियों पर लागू कर दें। नोकिया,पैराशूट नारियल, सैमसन मोबाइल,अमूल दूघ और न जाने क्या क्या। ये किस नीयत से अपना विज्ञापन उन कार्यक्रमों में दे रही हैं जो अंधविश्वास को बढ़ावा दे रही हैं। अच्छा काम नहीं कर रही हैं। तो क्या उस बाज़ार से पूछा नहीं जाना चाहिए कि तुमने किस हक से ऐसे कार्यक्रमों का स्पांसर बनना तय किया जहां यह बताया जाता है कि एक ग्रह आपके पीछे पड़ा है। आपको कर सकता है बर्बाद। लेकिन बचने के हैं रास्ते। एक रत्न है ऐसा। तो कहीं यह बताया जा रहा था कि राखी के दिन कौन से कपड़े पहले। शाकाल से लगते बेलमुंड ज्योतिषियों को अगर कोई समर्थन दे रहा है तो वो है हिंदुस्तान के कॉरपोरेट जगत। इनकी सामाजिक ज़िम्मेदारी तय करने का वक्त आ गया है। मैं चाहूंगा कि ब्लॉगर अब ऐसी कंपनियों के नाम की सूची अपने ब्लॉग पर डाले जो भूत प्रेत या वहीशपन वाले कार्यक्रम को आर्थिक समर्थन देते हैं। इन कंपनियों के ब्रांड मैनेजर को ईमेल करें कि महोदय आप क्यों ऐसे कार्यक्रमों में अपना विज्ञापन देते हैं। बस टीआरपी की आड़ में चल रहे इस खेल का भंडाफोड़ हो जाएगा।
आखिर इन कंपनियों के ब्रांड मैनेजर सिर्फ टीआरपी का आंकड़ा ही क्यों देखते हैं। तो फिर ये करते क्या है। पढ़े लिखे घरों के ये लड़के लड़कियां आईआईएम अहमदाबाद जैसे संस्थानों से पास होते हैं। लाखों की नौकरी लेते हैं और करोड़ों का विज्ञापन देने के लिए सिर्फ पांच पन्ने की टीआरपी के आंकड़े देखते हैं। मुझे लगता है कि इनकी लापरवाही की वजह से ही समाज में मीडिया से ज़रिये गंध फैल रहा है। मार्केटिंग के एक व्यक्ति से बात हो रही थी। उन्होंने कहा कि विज्ञापन दाताओं के दफ्तर के लोग टीवी नहीं देखते। वे सिर्फ आंकड़े देखते हैं। जो हमारे आपके ईमेल पर उपलब्ध होता है। उसी के आधार से विज्ञापन दे देते हैं। उनके कमरे में न तो टीवी होता है न ही टीवी देखने का वक्त। यह एक तरह का आर्थिक घपला है।
यानी अरबों रुपये के विज्ञापन उद्योग में लापरवाह लोग भरे हुए हैं। जिन्हें नहीं मालूम कि उनका विज्ञापन कहां जा रहा है। वो सिर्फ इतना जानते हैं कि उनका विज्ञापन नंबर वन चैनल में जा रहा है। क्या विज्ञापन देने का कोई ज़िम्मेदार पैमाना नहीं होना चाहिए।
हमारा उद्योग जगत पूंजीवाद में यकीन रखते हुए आज़ादी की लड़ाई से भी जुड़ा रहा। बहुत सारे सामाजिक सरोकार के काम भी किये जाते हैं। मित्तल ट्रस्ट ने अभिनव बिंद्रा का खर्चा उठाया। ट्रेनिंग दिलवाई। क्या किसी टीवी चैनल की तरह अभिनव की टीआरपी देखकर ऐसा किया? अभिनव ने तो तब ओलिंपिक का पदक भी नहीं जीता था। ऐसी बहुत सी कंपनियां हैं जो नाम या क्या पता पैशन के लिए सामाजिक सरोकार से जुड़ी रहती हैं। लेकिन इन्हीं कंपनियों के विज्ञापन उन कार्यक्रमों में कैसे चले जाते हैं जो अंधविश्वास फैला रहे हैं। बिल गेट्स के सृजनात्मक पूंजीवाद की अवधारणा पर बहस फिर कभी लेकिन यह अब सोचा जाना चाहिए कि कंपनियां विज्ञापन के पैसे को कहां कहां खर्च कर रही हैं। अमेरिका में बहुत सी कंपिनयां अपने उत्पाद पर लिखती हैं कि वे अफरमेटिंग एक्शन में यकीन रखती हैं। फिर इनका माल खरीदने में वो लोग ज़रूर प्राथमिकता देते हैं जिनका इसमें यकीन होता है। तो क्या भारत में भी कंपनियों को अपने उत्पाद पर नहीं लिखना चाहिए कि उनके उत्पाद का इस्तमाल अंधविश्वास या पत्रकारिता के स्तर को गिराने वाले कार्यक्रमों के विज्ञापन में नहीं होता है। वर्ना तो लोग आसमान में एलियन की चपेट में आई गाय और न जाने क्या क्या दिखाते रहेंगे। सुना है किसी ने हवा में हनुमान की आकृति को भी दिखा दिया।
अब आलोचना बदलने का वक्त आ गया है। चैनलकर्ताओं ने यह कह कर अपना पल्ला झाड़ लिया है कि टीआरपी के आगे कुछ नहीं कर सकते। इसी के आंकड़ों पर टिकी होती है चैनल और उसमें काम करने वाले हज़ारों लोगों की ज़िंदगी। इसके अलावा उनके पास जवाब देने के लिए कुछ नहीं है। तो क्यों न अब उन कंपनियों पूछा जाए कि भई आप क्यों देते हैं ऐसे कार्यक्रमों को समर्थन। क्या हिंदुस्तान लीवर किसी ज्योतिष या ग्रह रत्न के कार्यक्रमों का प्रायोजक बनना चाहेगा या क्या उसे मालूम है कि वह किस तरह के कार्यक्रमों या चैनलों का प्रायोजक बन रहा है।
( लेख में जिन कंपनियों का नाम दिया गया है वो सिर्फ संदर्भ की पुष्टि के लिए हैं। आने वाले दिनों में पूरे शोध के साथ उनकी सूची दी जाएगी जो भूत प्रते, तंत्र मंत्र और तारे वारे जैसे कार्यक्रमों को प्रायोजित करते हैं।)
तालियां। वाह वाह। तो क्या बिल गेट्स की इस दलील को हिंदुस्तान की कंपनियों पर लागू कर दें। नोकिया,पैराशूट नारियल, सैमसन मोबाइल,अमूल दूघ और न जाने क्या क्या। ये किस नीयत से अपना विज्ञापन उन कार्यक्रमों में दे रही हैं जो अंधविश्वास को बढ़ावा दे रही हैं। अच्छा काम नहीं कर रही हैं। तो क्या उस बाज़ार से पूछा नहीं जाना चाहिए कि तुमने किस हक से ऐसे कार्यक्रमों का स्पांसर बनना तय किया जहां यह बताया जाता है कि एक ग्रह आपके पीछे पड़ा है। आपको कर सकता है बर्बाद। लेकिन बचने के हैं रास्ते। एक रत्न है ऐसा। तो कहीं यह बताया जा रहा था कि राखी के दिन कौन से कपड़े पहले। शाकाल से लगते बेलमुंड ज्योतिषियों को अगर कोई समर्थन दे रहा है तो वो है हिंदुस्तान के कॉरपोरेट जगत। इनकी सामाजिक ज़िम्मेदारी तय करने का वक्त आ गया है। मैं चाहूंगा कि ब्लॉगर अब ऐसी कंपनियों के नाम की सूची अपने ब्लॉग पर डाले जो भूत प्रेत या वहीशपन वाले कार्यक्रम को आर्थिक समर्थन देते हैं। इन कंपनियों के ब्रांड मैनेजर को ईमेल करें कि महोदय आप क्यों ऐसे कार्यक्रमों में अपना विज्ञापन देते हैं। बस टीआरपी की आड़ में चल रहे इस खेल का भंडाफोड़ हो जाएगा।
आखिर इन कंपनियों के ब्रांड मैनेजर सिर्फ टीआरपी का आंकड़ा ही क्यों देखते हैं। तो फिर ये करते क्या है। पढ़े लिखे घरों के ये लड़के लड़कियां आईआईएम अहमदाबाद जैसे संस्थानों से पास होते हैं। लाखों की नौकरी लेते हैं और करोड़ों का विज्ञापन देने के लिए सिर्फ पांच पन्ने की टीआरपी के आंकड़े देखते हैं। मुझे लगता है कि इनकी लापरवाही की वजह से ही समाज में मीडिया से ज़रिये गंध फैल रहा है। मार्केटिंग के एक व्यक्ति से बात हो रही थी। उन्होंने कहा कि विज्ञापन दाताओं के दफ्तर के लोग टीवी नहीं देखते। वे सिर्फ आंकड़े देखते हैं। जो हमारे आपके ईमेल पर उपलब्ध होता है। उसी के आधार से विज्ञापन दे देते हैं। उनके कमरे में न तो टीवी होता है न ही टीवी देखने का वक्त। यह एक तरह का आर्थिक घपला है।
यानी अरबों रुपये के विज्ञापन उद्योग में लापरवाह लोग भरे हुए हैं। जिन्हें नहीं मालूम कि उनका विज्ञापन कहां जा रहा है। वो सिर्फ इतना जानते हैं कि उनका विज्ञापन नंबर वन चैनल में जा रहा है। क्या विज्ञापन देने का कोई ज़िम्मेदार पैमाना नहीं होना चाहिए।
हमारा उद्योग जगत पूंजीवाद में यकीन रखते हुए आज़ादी की लड़ाई से भी जुड़ा रहा। बहुत सारे सामाजिक सरोकार के काम भी किये जाते हैं। मित्तल ट्रस्ट ने अभिनव बिंद्रा का खर्चा उठाया। ट्रेनिंग दिलवाई। क्या किसी टीवी चैनल की तरह अभिनव की टीआरपी देखकर ऐसा किया? अभिनव ने तो तब ओलिंपिक का पदक भी नहीं जीता था। ऐसी बहुत सी कंपनियां हैं जो नाम या क्या पता पैशन के लिए सामाजिक सरोकार से जुड़ी रहती हैं। लेकिन इन्हीं कंपनियों के विज्ञापन उन कार्यक्रमों में कैसे चले जाते हैं जो अंधविश्वास फैला रहे हैं। बिल गेट्स के सृजनात्मक पूंजीवाद की अवधारणा पर बहस फिर कभी लेकिन यह अब सोचा जाना चाहिए कि कंपनियां विज्ञापन के पैसे को कहां कहां खर्च कर रही हैं। अमेरिका में बहुत सी कंपिनयां अपने उत्पाद पर लिखती हैं कि वे अफरमेटिंग एक्शन में यकीन रखती हैं। फिर इनका माल खरीदने में वो लोग ज़रूर प्राथमिकता देते हैं जिनका इसमें यकीन होता है। तो क्या भारत में भी कंपनियों को अपने उत्पाद पर नहीं लिखना चाहिए कि उनके उत्पाद का इस्तमाल अंधविश्वास या पत्रकारिता के स्तर को गिराने वाले कार्यक्रमों के विज्ञापन में नहीं होता है। वर्ना तो लोग आसमान में एलियन की चपेट में आई गाय और न जाने क्या क्या दिखाते रहेंगे। सुना है किसी ने हवा में हनुमान की आकृति को भी दिखा दिया।
अब आलोचना बदलने का वक्त आ गया है। चैनलकर्ताओं ने यह कह कर अपना पल्ला झाड़ लिया है कि टीआरपी के आगे कुछ नहीं कर सकते। इसी के आंकड़ों पर टिकी होती है चैनल और उसमें काम करने वाले हज़ारों लोगों की ज़िंदगी। इसके अलावा उनके पास जवाब देने के लिए कुछ नहीं है। तो क्यों न अब उन कंपनियों पूछा जाए कि भई आप क्यों देते हैं ऐसे कार्यक्रमों को समर्थन। क्या हिंदुस्तान लीवर किसी ज्योतिष या ग्रह रत्न के कार्यक्रमों का प्रायोजक बनना चाहेगा या क्या उसे मालूम है कि वह किस तरह के कार्यक्रमों या चैनलों का प्रायोजक बन रहा है।
( लेख में जिन कंपनियों का नाम दिया गया है वो सिर्फ संदर्भ की पुष्टि के लिए हैं। आने वाले दिनों में पूरे शोध के साथ उनकी सूची दी जाएगी जो भूत प्रते, तंत्र मंत्र और तारे वारे जैसे कार्यक्रमों को प्रायोजित करते हैं।)
होस्टल चाहिए?
यह तस्वीर ग्रेटर नोएडा की है। इस उपनगर को इतने विस्तार में बसाया गया है कि एक अपार्टमेंट से दूसरे अपार्टमेंट के बीच नदी जैसी चौड़ी सड़के हैं। यू टर्न का अभाव है इसलिए आपके पास सीधे चलते जाने के अलावा कोई रास्ता नहीं। ऊपर से जब कोई बसावट नई होती है तो वहां लोग कम होते हैं। बसने वाले लोगों को सारा वक्त लंबी दूरी तय करने में ही खप जाता है इसलिए मेलजोल का वक्त नहीं होता। ऐसे में विज्ञापन एक मुश्किल काम हो जाता है।
ग्रेटर नोएडा में सैंकड़ों कमरे खाली पड़े हैं। इन्हें किराये पर देने के लिए लोगों को कितनी मेहनत करनी पड़ रही है इसका नमूना है कार के पीछे लगा बैनर। इस इलाके में कई संस्थान खुल गए हैं। यहां पढ़ रहे लड़के ही इन खाली मकानों की उम्मीद हैं। इसलिए ग्रेटर नोएडा में कार के पीछे इस तरह के बैनर दिखाई देते हैं। मेरे मित्र मनहर ने बताया कि चाट की दुकान से लेकर परचून की दुकान तक का विज्ञापन इसी तरह किया जाता
करार के लिए बेकरार फिल्म पत्रकारिता
एम्बेडेड जर्नलिज़्म की चर्चा तब हुई थी जब इराक युद्ध में अमीरीकी टैंकों में टीवी रिपोर्टर ढूंस दिये गए थे। टैंक के बिल से गिरते गोलों की धमक को कैद करने के लिए। शर्त मामूली थी। जो टैंक वाला कहेगा वैसा ही लिखना है। वाह क्या गोले हैं। वाह इस गोले ने तो कमाल ही कर दिया। मार दिया पचास साठ लोगों को। जल्दी से टैंक को रोको। शाट्स को अपलिंक करो।
शांतिप्रिय मुल्क भारत में एम्बेडेड जर्नलिज़्म का अंदाज़ दूसरा है। इसका एक स्वरुप आप राजनीतिक पत्रकारिता में देखते हैं। खासकर अधिवेशन, महाअधिवेशनों के वक्त। दिल्ली से भर कर पत्रकार ले जाये जाते हैं। इस तरह के एम्बेडेड प्रयोजन का लाभ ज़्यादा दिल्ली के ही पत्रकारों को मिलता है। क्योंकि वो तो कहीं जाते नहीं हैं इसलिए ले जाए जाते हैं। पंचमढ़ी हो या कानपुर में आडवाणी की रैली। अब इतना तो चलता ही है कि लौटती ट्रेन में अच्छी शराब हो। अब तो यह इतना चलने लगा है कि कोई पर बात नहीं करना चाहता। इसलिए नहीं करना चाहता क्योंकि उसका विकल्प नज़र नहीं आता। इस मजबूरी के बहाने राजनीतिक पत्रकारिता किसी जेटली, किसी जैन और किसी तिवारी के भरोसे हो गई है। सौ पत्रकार हैं और पूरी पार्टी का एक ही सूत्र। होता यह है कि यह इकलौता सूत्र सौ पत्रकारों को नचा रहा है। वे नाच भी रहे हैं।
इन सबके बावजूद राजनीतिक पत्रकारिता में इतना तो बचा ही है कि रिपोर्टर किसी नेता की खिंचाई कर देता है। उसकी पार्टी को लताड़ देता है। कुछ घोटाला फोड़ देता है। वह दबाव से निकलने के अपने अंतिम रास्ते को बंद कर ट्रेन में सवार नहीं होता। कानपुर की रैली के लिए।
लेकिन फिल्म पत्रकारिता तो अब जूते चाटने की नौबत तक पहुंच गई है। टीवी में फिल्म पत्रकारिता अब प्रमोशन है। इंटरव्यू से पहले तय होता है सवाल कैसे होंगे, पर्सनल से नहीं होंगे, फिल्म के बारे में होंगे। हकीकत तो यह है कि रीलीज़ होने से पहले ऐसी कोई सुविधा भी नहीं कि एंकर फिल्म देख ले। तिस पर से चाहत ऐसी कि एंकर फिल्म के बारे में ही बात करे। और जब एंकर सवाल पूछ भी देती है तो जवाब जो मिलता है उससे पता चलता है कि दर्शकों का कितना बड़ा वर्ग मूर्ख है। एंकर पूछती है फिल्म की कहानी क्या है। निर्देशक बकता है बिल्कुल नई है। हा..हा...हा..।
और तो और फिल्म कंपनियों के पी आर एजेंट कुछ क्लिप बांटते हैं। मुफ्त। नेताओं की शराब की तरह। उस क्लिप में झांकिये और फिल्म को समझ लीजिए। आप ही बताइये कि कोई कैसे फिल्म के बारे में बात कर सकता है। लेकिन करना पड़ता है।
बात यहीं तक खत्म नहीं होती। ये पीआर एजेंट अब तो यह भी डील करने लगे हैं कि स्टार के स्टुडियो आने का किराया भी दीजिए। हर स्टुडियो में जाते हैं और कहते हैं हम आपको एक्सक्लूसिव इंटरव्यू दे रहे हैं। इंटरव्यू में होता है कूड़ा। बिपाशा आपको सलमान के साथ कैसा लगा? सलमान आपको कैसा लगा? निर्देशक से भी यही सवाल आपको कैसा लगा? बीच बीच में बिपाशा अपने बचे खुचे कपड़ों को तानती रहती है कि तन ढंका रहे। सलमान अपने बालों को झटकते रहता है। बात शुरू नहीं हुई कि फिल्म का क्लिप आ जाता है।
अब तो बकायदा हर फिल्म के हिसाब से मीडिया पार्टनर तय किये जाते हैं। सोच कर देखिये कल कोई राजनीतिक दल किसी न्यूज़ चैनल को अपना पार्टनर बना लें। कुछ चैनल तो हैं जिन्हें राजनीतिक दल ही चला रहे हैं। लेकिन फिल्म कंपनियों ने अपना कोई चैनल नहीं बनाया। वो दूसरे चैनलों को बता रहे हैं कि आप लालू यादव को गरिया सकते हैं, मायावती को गरिया सकते हैं लेकिन रणवीर को नहीं गरिया सकते। सैफ अली से तो आप वही सवाल पूछिये जिससे सैफ को गुदगुदी हो।
अब तो हिंदी के कई ब्लॉग बालीवुड पर लिख रहे हैं। अच्छा होता कि वहां इस पर बहस चलती। चवन्नी छाप हो या इंडियन बायस्कोप। ज़रूरी है कि इस तरह के एम्बेडड यानी गुलाम पत्रकारिता के बारे में लिखा जाए। जो पत्रकारिता कम है, रणनीति ज़्यादा।
शांतिप्रिय मुल्क भारत में एम्बेडेड जर्नलिज़्म का अंदाज़ दूसरा है। इसका एक स्वरुप आप राजनीतिक पत्रकारिता में देखते हैं। खासकर अधिवेशन, महाअधिवेशनों के वक्त। दिल्ली से भर कर पत्रकार ले जाये जाते हैं। इस तरह के एम्बेडेड प्रयोजन का लाभ ज़्यादा दिल्ली के ही पत्रकारों को मिलता है। क्योंकि वो तो कहीं जाते नहीं हैं इसलिए ले जाए जाते हैं। पंचमढ़ी हो या कानपुर में आडवाणी की रैली। अब इतना तो चलता ही है कि लौटती ट्रेन में अच्छी शराब हो। अब तो यह इतना चलने लगा है कि कोई पर बात नहीं करना चाहता। इसलिए नहीं करना चाहता क्योंकि उसका विकल्प नज़र नहीं आता। इस मजबूरी के बहाने राजनीतिक पत्रकारिता किसी जेटली, किसी जैन और किसी तिवारी के भरोसे हो गई है। सौ पत्रकार हैं और पूरी पार्टी का एक ही सूत्र। होता यह है कि यह इकलौता सूत्र सौ पत्रकारों को नचा रहा है। वे नाच भी रहे हैं।
इन सबके बावजूद राजनीतिक पत्रकारिता में इतना तो बचा ही है कि रिपोर्टर किसी नेता की खिंचाई कर देता है। उसकी पार्टी को लताड़ देता है। कुछ घोटाला फोड़ देता है। वह दबाव से निकलने के अपने अंतिम रास्ते को बंद कर ट्रेन में सवार नहीं होता। कानपुर की रैली के लिए।
लेकिन फिल्म पत्रकारिता तो अब जूते चाटने की नौबत तक पहुंच गई है। टीवी में फिल्म पत्रकारिता अब प्रमोशन है। इंटरव्यू से पहले तय होता है सवाल कैसे होंगे, पर्सनल से नहीं होंगे, फिल्म के बारे में होंगे। हकीकत तो यह है कि रीलीज़ होने से पहले ऐसी कोई सुविधा भी नहीं कि एंकर फिल्म देख ले। तिस पर से चाहत ऐसी कि एंकर फिल्म के बारे में ही बात करे। और जब एंकर सवाल पूछ भी देती है तो जवाब जो मिलता है उससे पता चलता है कि दर्शकों का कितना बड़ा वर्ग मूर्ख है। एंकर पूछती है फिल्म की कहानी क्या है। निर्देशक बकता है बिल्कुल नई है। हा..हा...हा..।
और तो और फिल्म कंपनियों के पी आर एजेंट कुछ क्लिप बांटते हैं। मुफ्त। नेताओं की शराब की तरह। उस क्लिप में झांकिये और फिल्म को समझ लीजिए। आप ही बताइये कि कोई कैसे फिल्म के बारे में बात कर सकता है। लेकिन करना पड़ता है।
बात यहीं तक खत्म नहीं होती। ये पीआर एजेंट अब तो यह भी डील करने लगे हैं कि स्टार के स्टुडियो आने का किराया भी दीजिए। हर स्टुडियो में जाते हैं और कहते हैं हम आपको एक्सक्लूसिव इंटरव्यू दे रहे हैं। इंटरव्यू में होता है कूड़ा। बिपाशा आपको सलमान के साथ कैसा लगा? सलमान आपको कैसा लगा? निर्देशक से भी यही सवाल आपको कैसा लगा? बीच बीच में बिपाशा अपने बचे खुचे कपड़ों को तानती रहती है कि तन ढंका रहे। सलमान अपने बालों को झटकते रहता है। बात शुरू नहीं हुई कि फिल्म का क्लिप आ जाता है।
अब तो बकायदा हर फिल्म के हिसाब से मीडिया पार्टनर तय किये जाते हैं। सोच कर देखिये कल कोई राजनीतिक दल किसी न्यूज़ चैनल को अपना पार्टनर बना लें। कुछ चैनल तो हैं जिन्हें राजनीतिक दल ही चला रहे हैं। लेकिन फिल्म कंपनियों ने अपना कोई चैनल नहीं बनाया। वो दूसरे चैनलों को बता रहे हैं कि आप लालू यादव को गरिया सकते हैं, मायावती को गरिया सकते हैं लेकिन रणवीर को नहीं गरिया सकते। सैफ अली से तो आप वही सवाल पूछिये जिससे सैफ को गुदगुदी हो।
अब तो हिंदी के कई ब्लॉग बालीवुड पर लिख रहे हैं। अच्छा होता कि वहां इस पर बहस चलती। चवन्नी छाप हो या इंडियन बायस्कोप। ज़रूरी है कि इस तरह के एम्बेडड यानी गुलाम पत्रकारिता के बारे में लिखा जाए। जो पत्रकारिता कम है, रणनीति ज़्यादा।
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