खसखस और हींग बेच बेच कर लोदीपुर का राजा बन गया था सेठ हज़ारी साहू । उसकी परचून की दुकान में निरमा साबुन का गत्ता अभी पहुंचा ही था । ब्लैक एंड व्हाईट टीवी पर कल रात ही हज़ारीसाहू ने उस फ्राक वाली लड़की को नाचते देखा था । वही साबुन देख कर धनिये की गंध से भरी दुकान में ताजी हवा कहीं से गुज़र गई । तभी कलंदर केडिया तेल का गत्ता निरमा साबुन के गत्ते के ऊपर लाकर रख देता है । हज़ारी साहू का गुस्सा सातवें आसमान पर । तुमने निरमा गर्ल को नहीं देखा । उस पर तेल रख दिया । साले अठन्नी काट लूंगा ।
कलंदर घबरा गया । हज़ारीसाहू और परचून की दुकान को देखने लगा । चार साल पुराना कृष्ण जी वाला कैलेंडर वहीं था । बांसुरी बजाते हुए कन्हैया । इस दुकान में वक्त कभी कभी कैलेंडर के साथ ही बदलता था । कैलेंडर नहीं बदला मतलब वक्त नहीं बदला । कलंदर को लगा शायद ये साल कैलेंडर बदलने का है ।
गुस्से के बाद हज़ारीसाहू शांत हो गए । रूहआफ़ज़ा की शीशी पर हाथ फेरते हुए ठंढक महसूस करने लगे । पास में चल रही आटा चक्की से उड़ कर आ रही गेंहूं की गंध मोगरे की अगरबत्ती की महक में घुलकर मदहोश कर रही थी । हज़ारी साहू एक सपने में खो गए ।
दुनिया बदल गई है । परचून की दुकान से आटा चक्की गायब है । आटे प्लास्टिक की रंगीन बोरियों में बंद हैं । स्लीवलेस ब्लाउज़ में ललिता जी लाल बैग लिये खड़ी हैं । हंसते हुए बोलती हैं हज़ारी जी डिपार्टमेंटल स्टोर में क्या क्या है । हज़ारीसाहू फ्रीज़र से गर्दन निकालते हुए खड़े होते हैं । कहते हैं क्या नहीं है। जो नहीं है उसका होम डिलिवरी है। बस आर्डर कीजिए हम घर भी आएंगे । तभी ललिता जी के पीछे के रेक से सामानों के बीच आज की नारी को लगे न भारी वाले विज्ञापन की मॉडल सनसिल्क के शैम्पू उठाते दिख गई थी । फोन घनघना रहे थे। पुरानी परचून की दुकान में यह सुख कभी नहीं मिला करता था । आने वाले उधार लेकर जाते थे । बजाज स्कूटर से आते या रिक्शे पर सामान लाद कर ले जाते । औरतें तो कभी कभार ही आतीं थीं । भला हो निरमा साबुन और मैगी टू मिनट्स का। लड़कियां दुकानों पर आने लगी हैं । उनकी बेनूर दुकानदारी में रंग भर आए हैं । मोटे पेट वाले शर्मा, वर्मा जी की ड्यूटी आवर बढ़ गई है । वो अब दुकानों पर नहीं आते। फोन करते हैं । होम डिलिवरी के लिए । ललिता जी ने खुद ही बात कह दी । वक्त कितना बदल गया है । हज़ारी साहू कहते हैं आपके आने के बाद से ही वक्त बदला है । वर्ना हम तो हज़ार रुपये का सामान बेचकर ही हज़ारी हो गए । अपने नए डिपार्टमेंटल स्टोर में इस पुराने नाम से बोर हो गया हूं । ललिता जी कहती हैं हाऊ फनी ।
हज़ारी साहू और ललिता जी के इस संवाद में वक्त बदलता है । इस बार पूरी दुकान रिटेल हो जाती है । बाहर को बोर्ड बदल जाता है । बिग हज़ारी बाज़ार । कई मंजिला दुकान हो जाती है । रूह आफज़ा, हींग, हुर हुर्रे गायब हैं । मैगी, निरमा भी नए सामान नहीं है । अब तो आईएफबी का वाशिंग मशीन है । फर्नीचर है। तौलिया है । नीचे बेसमेंट में राशन का सामान है । फुल्के के बर्तन की जगह बोनचाइना के सस्ते नमूने हैं । ऊपर की मंज़िल में टोपी और बैगी पैंट्स मिलते हैं । खिलौने भी । औरते के लिए साड़ी और लहंगे भी । हज़ारी साहू ने अपना नाम भी पटियाला हाऊस में अर्जी देकर बदलवा लिया है । वो अब रिटेल साहू हो गए हैं । वो अब उधार नहीं देते । बल्कि उनके बहीखाते में उनके नाम हैं जो उन्हें उधार देते हैं । इनका एक कोड वर्ड है । एफडीआई। रिटेल साहू ने अपने बाल रंग लिये हैं । वजन कम करने के बाद वो जवान हो गए हैं । धोती की जगह सूट ने उम्र बढ़ा दी है । कलंदर केडी हो गया है । एसी कमरे में बैठकर सीसीटीवी पर लोगों को देख रहा है । निरमा की फ्राक वाली लड़कियां गार्नियर के शैम्पू में अपने बालों को धोकर लहराते हुए उड़ती चली जा रही हैं । केडी को भी सपने आने लगे हैं । क्रेडिट कार्ड के ज़माने में अठन्नी के काटे जाने का डर नहीं । केडिया तेल की जगह निविया डेओड्रेंट की हल्की महक बिग हज़ारी बाज़ार में दोपहर के वक्त आने वाली महिलाओं को कुछ देर तक दुकान में रुकने के लिए मजबूर करती हैं ।
तभी माइक पर रिटेल साहू की आवाज़ आती है । लेडिज़ एंड जेंटलमैन । इस साल परचून के दुकानदारों का आखिरी साल है । उन्हें बदलते वक्त के साथ बदलना होगा । अपनी यादों को साहित्यकारों के हवाले कर खुद को ज़िंदगी के हवाले करना होगा । रिटेल होना होगा । एक ही छत के नीचे सारा बाज़ार होगा । कई छतों के नीचे बाज़ार नहीं होगा। बेचने वाला एक होगा । अब फिर कोई हज़ारी साहू नहीं होगा । हम उधार देने के लिए पैदा नहीं हुए हैं । इंफ्लेशन बढ़े हमें क्या है । दस साल से वेतन वृद्धि की मांग करने वाले सरकारी कर्मचारियों को हम उधार पर सामान देकर उन्हें ज़िंदा रखने की कोशिश नहीं करेंगे । इससे उल्टा सरकार पर बोझ बढ़ता है । अब किसी की शादी में उधार पर बासमती चावल नहीं देंगे । संजना की शादी में लोगों ने कितना ऐश किया था । हम वो लोग थे जो वेतन मिलने से पहले कस्टमर को उधार दे देते थे । सामान दे देते थे । अब नहीं होगा । हम सूद नहीं डिस्काउंट रेट पर सामान बेचना चाहते हैं । शर्मा जी का नया नाम कंज्यूमर हैं । हमारा मकसद उन्हें फायदा पहुंचाना है । हमें किसी ने खरीद लिया है । ग़लत । सिर्फ चेन में बांधा है । रिटेल चेन में । हम अब सामानों को कतारों में सजाते हैं । निरमा साबुन के ऊपर केडिया तेल नहीं रखते हैं । परचून की दुकान पर बनने वाले चेन तोड़ दिए गए हैं । हम घरेलु समस्याओं के निदान के केंद्र नहीं बल्कि घर के कामकाज से बोर हो चुकी महिलाओं और कालेज से भागे लड़के लड़कियों के मनोरंजन केंद्र हैं । सामान भी बेचते हैं । किसी को कोई कंफ्यूजन हो तो वो मेरे मैनेजर केडी से मिल सकता है ।
वित्त मंत्री पी चिदंबरम ने संसद में घोषणा कर दी है। वालमार्ट आएगा । हज़ारी साहू जाएगा। परचून की दुकानों में लगे लकड़ी के दरवाज़े वालमार्ट के गोदामें में नहीं बल्कि कूड़ेदान में फेंक दिये जाएंगे । संपादक अखबार में लिख रहा है । रिटेल इज़ फ्यूचर ऑफ इंडिया । क्रिटिकल होकर भी लिखता है । इट्स सैड दैट देअर विल बी नो हज़ारी साहू । वामदलों का विरोध वाला प्रेस विज्ञप्ति से सबएडीटर विविध कालम में एक खबर डाल रहा है । इससे लाखों लोगों को वेतन मिलने से पहले मिलने वाले सामानों की सुविधा बंद हो जाएगी । बेरोजगारी बढ़ेगी । शट अप । रिटेल साहू अखबार पढ़ कर कहता है । हू केयर्स ।
कहानी जारी रहेगी । रवीश कुमार
ब्लागमुग्धता
ये आत्ममुग्धता का नया संस्करण है। जब से लिखने लगा हूं लगता है मुक्तिबोध या मोहन राकेश हो गया हूं। पता नहीं कहां से आ रही है यह ब्लागमुग्धता। एक चाहत सी उमड़ रही है कि मेरा लिखा अजर अमर होने वाला है। कहीं कोई आलोचक इनकी समीक्षा कर रहा होगा। किसी विश्वविद्यालय में कोई पीएचडी कर रहा होगा। विषय रवीश कुमार का ब्लागमन। क्या ब्लागमुग्धता से आप भी ग्रसित हो रहे हैं। मनोविज्ञान में इसका निदान अभी नहीं है। होम्योपैथी मे पता किया है। कोई ठीक जवाब नहीं दे रहा है। एक सुबह लगा कि काश अखबार निकलना बंद हो जाए और लोग सुबह उठ कर मेरा ही ब्लाग पढ़े। संसद में मेरे ब्लाग पर चर्चा हो। और चुनाव में मेरे ब्लाग को बजट में एलोकेशन देने का वादा हो। क्या मैं निरंकुश होने वाला हूं? क्या ब्लाग पर लिखना बंद कर दूं? ऐसा क्यों हो रहा है? मैं इनदिनों हर काम छोड़ कर ब्लाग पर लगा रहता हूं?
क्या आत्ममुग्धता और ब्लागमुग्धता किसी भी लिखने वालों के स्वाभाविक लक्षण हैं? क्या राही मासूम रज़ा को भी लगता होगा कि लोग कुछ न पढ़े सिर्फ आधा गांव पढ़ते रहें? कहीं श्रीलाल शुक्ल यह तो नहीं कहते होंगे कि आज की पीढ़ी नालायक है । ये लोग रागदरबारी तो पढ़ते नहीं पूरी ज़िंदगी एनसीईआरटी पढ़ने में लगा देते हैं। वैसे मैं बहुत खुश हं। ब्लाग पर लिखने से। इसका कागज़ खत्म नहीं होता। स्याही सूखती नहीं। क्या आपको भी ऐसा हो रहा है। ईमानदारी से बताइयेगा तो पता चल पाएगा। नहीं तो मैं क्यों हर ब्लाग के बाद अपने दोस्तों को बता रहा हूं कि भई पढ़ें। एसएमएस कर रहा हूं। ईमेल भेज रहा हूं कि मेरा एक ब्लाग है पढ़ना। और सुखी रहना। हर लेख के बाद मोहल्ला के अविनाश को फोन करता हूं। पढ़ा क्या। मुझे लगता है कि वो दफ्तर में काम क्यों कर रहे हैं। मेरा ब्लाग क्यों नहीं पढ़ रहे हैं। दोस्तों आप सच कहेंगे तो मैं सनकने से बच जाऊंगा।
क्या आत्ममुग्धता और ब्लागमुग्धता किसी भी लिखने वालों के स्वाभाविक लक्षण हैं? क्या राही मासूम रज़ा को भी लगता होगा कि लोग कुछ न पढ़े सिर्फ आधा गांव पढ़ते रहें? कहीं श्रीलाल शुक्ल यह तो नहीं कहते होंगे कि आज की पीढ़ी नालायक है । ये लोग रागदरबारी तो पढ़ते नहीं पूरी ज़िंदगी एनसीईआरटी पढ़ने में लगा देते हैं। वैसे मैं बहुत खुश हं। ब्लाग पर लिखने से। इसका कागज़ खत्म नहीं होता। स्याही सूखती नहीं। क्या आपको भी ऐसा हो रहा है। ईमानदारी से बताइयेगा तो पता चल पाएगा। नहीं तो मैं क्यों हर ब्लाग के बाद अपने दोस्तों को बता रहा हूं कि भई पढ़ें। एसएमएस कर रहा हूं। ईमेल भेज रहा हूं कि मेरा एक ब्लाग है पढ़ना। और सुखी रहना। हर लेख के बाद मोहल्ला के अविनाश को फोन करता हूं। पढ़ा क्या। मुझे लगता है कि वो दफ्तर में काम क्यों कर रहे हैं। मेरा ब्लाग क्यों नहीं पढ़ रहे हैं। दोस्तों आप सच कहेंगे तो मैं सनकने से बच जाऊंगा।
चुनाव
चुनाव में वादा करना तुम भी ज़रुर
सच बोलोगो तो चुनाव हार जाओगे
अपनी जात खुद से मत कहना तुम
जात छुपाओगे तो चुनाव हार जाओगे
आयोग को पैसे का हिसाब देना ज़रुर
सब दिखाओगे तो चुनाव हार जाओगे
घर घर शीश नवाना तुम भी ज़रुर
सर उठाओगे तो चुनाव हार जाओगे
सच बोलोगो तो चुनाव हार जाओगे
अपनी जात खुद से मत कहना तुम
जात छुपाओगे तो चुनाव हार जाओगे
आयोग को पैसे का हिसाब देना ज़रुर
सब दिखाओगे तो चुनाव हार जाओगे
घर घर शीश नवाना तुम भी ज़रुर
सर उठाओगे तो चुनाव हार जाओगे
सच का झूठ
मैं इनदिनों बहुत सच बोल रहा हूं
कसम झूठ की नहीं बोल रहा हूं
चुप रह कर मैं सच को तोल रहा हूं
कसम चुप की मैं सच बोल रहा हूं
कसम झूठ की नहीं बोल रहा हूं
चुप रह कर मैं सच को तोल रहा हूं
कसम चुप की मैं सच बोल रहा हूं
गोधरा में गांधी
(एक)
दंगाईयों का पीछा करते कैमरे में
तुम भी दिखे थे चौराहे पर
बेबस, बेजान ठिठके प्रतिमाओं में
पास में जल रहा था एक ठेला
और उस पर गाड़ीवान का परिवार
जो लौटा नहीं था चंपारण
डांडी में नमक बनाने के बाद
घेर लिया गया तुम्हारी ही प्रतिमाओं के नीचे
(दो)
इस बार नज़दीक से क्लोज़ अप में दिखे तुम
सचिवालय और थानों में टंगी तस्वीरों में
बेबस देखते दर्ज होते झूठे एफआईआर को
चुपचाप पढ़ते उन फर्ज़ी नामों को
और गिनते रहे लाशों को रात भर चुपचाप
कोई पूछेगा तो क्या बताओगे तुम
कहां थे उन ७२ घंटों में
नोआखली या अपनी तस्वीरों में दुबके रहे
(तीन)
इस बीच अभी अभी खबर मिली है
पत्थरों में विसर्जित गांधी को अब
पुरातत्व विभाग के हवाले कर दिया गया है
और गुजरात नरेंद्र मोदी को दे दिया गया है
७२ घंटों से भी ज़्यादा समय के लिए
और साबरमती में एक नया संत आया है
गोधरा होते हुए...
साबरमती एक्सप्रैस में सवार घूमता जा रहा है
पूरे गुजरात में...
सूत कातते चरखे की तरह
जिनपर काते जायेंगे अब खाकी निकर
(चार)
तब भी गलियों में बिखरे लाशों को छोड़ कर
उन्हीं भागते कैमरों की तस्वीरों में अचानक दिखे तुम
दबे पांव... चुपचाप गुजरात से निकलते हुए
बेजान और बेकार हो चुकी अपनी प्रतिमाओं को छोड़ कर
यह कविता मैंने ८ अप्रैल २००२ को लिखी थी। पहली बार सार्वजनिक कर रहा हूं)
दंगाईयों का पीछा करते कैमरे में
तुम भी दिखे थे चौराहे पर
बेबस, बेजान ठिठके प्रतिमाओं में
पास में जल रहा था एक ठेला
और उस पर गाड़ीवान का परिवार
जो लौटा नहीं था चंपारण
डांडी में नमक बनाने के बाद
घेर लिया गया तुम्हारी ही प्रतिमाओं के नीचे
(दो)
इस बार नज़दीक से क्लोज़ अप में दिखे तुम
सचिवालय और थानों में टंगी तस्वीरों में
बेबस देखते दर्ज होते झूठे एफआईआर को
चुपचाप पढ़ते उन फर्ज़ी नामों को
और गिनते रहे लाशों को रात भर चुपचाप
कोई पूछेगा तो क्या बताओगे तुम
कहां थे उन ७२ घंटों में
नोआखली या अपनी तस्वीरों में दुबके रहे
(तीन)
इस बीच अभी अभी खबर मिली है
पत्थरों में विसर्जित गांधी को अब
पुरातत्व विभाग के हवाले कर दिया गया है
और गुजरात नरेंद्र मोदी को दे दिया गया है
७२ घंटों से भी ज़्यादा समय के लिए
और साबरमती में एक नया संत आया है
गोधरा होते हुए...
साबरमती एक्सप्रैस में सवार घूमता जा रहा है
पूरे गुजरात में...
सूत कातते चरखे की तरह
जिनपर काते जायेंगे अब खाकी निकर
(चार)
तब भी गलियों में बिखरे लाशों को छोड़ कर
उन्हीं भागते कैमरों की तस्वीरों में अचानक दिखे तुम
दबे पांव... चुपचाप गुजरात से निकलते हुए
बेजान और बेकार हो चुकी अपनी प्रतिमाओं को छोड़ कर
यह कविता मैंने ८ अप्रैल २००२ को लिखी थी। पहली बार सार्वजनिक कर रहा हूं)
अब तक तीन सौ छप्पन
रात अंधेरे आतंकवाद के नाम पर लोगों को मार आने वाले दयानायक की कहानी नहीं कहने जा रहा हूं। दिन दहाड़े उत्तर प्रदेश में कोच की मेज़ पर हो रही नैतिकता के खेल में उतरने की कहानी कहने जा रहा हूं। कोच का नाम नहीं बताऊंगा। पार्टी का नाम बताता हूं। अखिल भारतीय कांग्रेस पार्टी। यह दया नायक की तरह सिर्फ छप्पन नहीं बल्कि तीन सौ छप्पन में यकीन रखती है। उत्तर प्रदेश के नैतिक संग्राम में इस खेल में उतरना चाहते हों तो मेरी तरफ से स्वागत।
सीन एक-
अगस्त २००३
मायावती का इस्तीफा। दलितों की पार्टी बीएसपी से भगवा दल बीजेपी की समर्थन वापसी। सरकार गिर जाती है।
सीन- दो
सांप्रदायिक दलों को रोकने के लिए धर्मनिरपेक्ष दल दलितों की पार्टी में सेंध लगाते हैं। तिहाई सेंध । सांप्रदायिक पार्टी अलग। दलितों की पार्टी से दौलत देकर लाए गए विधायकों को मिलाने का खेल। अनैतिकता के हथियार से धर्मनिरपेक्षता की रक्षा। देश को सिर्फ धर्मनिरपेक्षता चाहिए। इसके सापेक्ष में ही नैतिकता है। पहला नहीं तो दूसरा भी नहीं। कांग्रेस धर्मनिरपेक्षता की थ्योरी के तहत एक चिट्ठी मुलायम को सौंपती है। कांग्रेस दौलत से दलितों की पार्टी में सेंधमारी को दरकिनार कर देती है
सीन- तीन
कांग्रेस की चिट्ठी के बाद थ्योरी ऑफ धर्मनिरपेक्षता को किनारे कर केशरी नाथ त्रिपाठी का घर। मुलायम सिंह यादव के पीछे खड़े बीएसपी के बागी( बिके हुए) विधायकों को मान्यता। भगवा बीजेपी में जीवन बिताने वाले स्पीकर केशरी नाथ त्रिपाठी की कलम से भी धर्मनिरपेक्षता बच जाती है।
सीन- चार
नैतिकता का खेल पूरा होता है। फरवरी २००७। इस बीच अमर सिंह और सोनिया गांधी के बीच एक शाम घटित घटना को लेकर विवाद। धर्मनिरपेक्षता चिट्ठी में सुरक्षित। बयानबाज़ी। अमर सिंह की सीडी। सोनिया पर हमला। चुनौती। धर्मनिरपेक्षता की एक और अनचाही औलाद..तीसरा मोर्चा। चर्चा । वामदलों का सहारा। समाजवादी पार्टी का आत्मविश्वास।
सीन-पांच
फरवरी की एक रात। तीन सौ छप्पन की रात। नैतिकता पर निशाना। कांग्रेस ने कहा मुलायम नैतिकता के नाम पर इस्तीफा दे। रागदरबारी सड़क पर चिल्लाता है फिर बीएसपी से खरीद कर लाए विधायकों के दम पर बनने वाली सरकार को समर्थन क्यों दिया? क्या वह नैतिक था? संविधान में कहा गया है कि दलबदल अनैतिक है। फिर समर्थन क्यों? इस बार चिंता है कि २६ फरवरी को मुलायम विधायकों को खरीद लेंगे। अगस्त २००३ में क्या बीएसपी से आए विधायकों के दाम नहीं लगे थे? क्या ये लोग स्वेच्छा से धर्मनिरपेक्षता के लिए आए थे? अब कहां है? क्यों नहीं बोल रहे हैं? क्या कांग्रेस नहीं जानती थी ये सब खरीदे गए लोग है?
सीन- छह
थ्यौरी ऑफ धर्मनिरपेक्षता के तहत भगवा पार्टी के केशरी नाथ त्रिपाठी की मांग- मुलायम नैतिकता के आधार पर इस्तीफा दें। और बीजेपी तीन सौ छप्पन का समर्थन करेगी। सियासी पोटा का इस्तमाल करेगी। मुलायम की चुनौती। कर के देखे कांग्रेस। सबको बता दूंगा। सबको से मतलब वो मुसलमानों को बता देंगे। कि कांग्रेस ने मुझ अनैतिक को हटाने के लिए धर्मनिरपेक्षता को छोड़ दिया। वह बीजेपी के करीब जा रही है।
सीन-सात
वाम दल..खबरदार अब और दयानायक नहीं चाहिए। बहतु हो चुका तीन सौ छप्पन। सदन के पटल पर सरकार बहुमत साबित करे। संविधान बड़ा है फिर धर्मनिरपेक्षता और फिर उसके बाद नैतिकता। कांग्रेस के दया नायक पिस्तौल वापस रख लेते हैं। तभी चुनाव आयोग का छापा पड़ता है। तारीख का एलान होता है। दयानायक फंस जाता है। फिल्म अब तक तीन सौ छप्पन का इंटरवल हो जाता है।
सीन एक-
अगस्त २००३
मायावती का इस्तीफा। दलितों की पार्टी बीएसपी से भगवा दल बीजेपी की समर्थन वापसी। सरकार गिर जाती है।
सीन- दो
सांप्रदायिक दलों को रोकने के लिए धर्मनिरपेक्ष दल दलितों की पार्टी में सेंध लगाते हैं। तिहाई सेंध । सांप्रदायिक पार्टी अलग। दलितों की पार्टी से दौलत देकर लाए गए विधायकों को मिलाने का खेल। अनैतिकता के हथियार से धर्मनिरपेक्षता की रक्षा। देश को सिर्फ धर्मनिरपेक्षता चाहिए। इसके सापेक्ष में ही नैतिकता है। पहला नहीं तो दूसरा भी नहीं। कांग्रेस धर्मनिरपेक्षता की थ्योरी के तहत एक चिट्ठी मुलायम को सौंपती है। कांग्रेस दौलत से दलितों की पार्टी में सेंधमारी को दरकिनार कर देती है
सीन- तीन
कांग्रेस की चिट्ठी के बाद थ्योरी ऑफ धर्मनिरपेक्षता को किनारे कर केशरी नाथ त्रिपाठी का घर। मुलायम सिंह यादव के पीछे खड़े बीएसपी के बागी( बिके हुए) विधायकों को मान्यता। भगवा बीजेपी में जीवन बिताने वाले स्पीकर केशरी नाथ त्रिपाठी की कलम से भी धर्मनिरपेक्षता बच जाती है।
सीन- चार
नैतिकता का खेल पूरा होता है। फरवरी २००७। इस बीच अमर सिंह और सोनिया गांधी के बीच एक शाम घटित घटना को लेकर विवाद। धर्मनिरपेक्षता चिट्ठी में सुरक्षित। बयानबाज़ी। अमर सिंह की सीडी। सोनिया पर हमला। चुनौती। धर्मनिरपेक्षता की एक और अनचाही औलाद..तीसरा मोर्चा। चर्चा । वामदलों का सहारा। समाजवादी पार्टी का आत्मविश्वास।
सीन-पांच
फरवरी की एक रात। तीन सौ छप्पन की रात। नैतिकता पर निशाना। कांग्रेस ने कहा मुलायम नैतिकता के नाम पर इस्तीफा दे। रागदरबारी सड़क पर चिल्लाता है फिर बीएसपी से खरीद कर लाए विधायकों के दम पर बनने वाली सरकार को समर्थन क्यों दिया? क्या वह नैतिक था? संविधान में कहा गया है कि दलबदल अनैतिक है। फिर समर्थन क्यों? इस बार चिंता है कि २६ फरवरी को मुलायम विधायकों को खरीद लेंगे। अगस्त २००३ में क्या बीएसपी से आए विधायकों के दाम नहीं लगे थे? क्या ये लोग स्वेच्छा से धर्मनिरपेक्षता के लिए आए थे? अब कहां है? क्यों नहीं बोल रहे हैं? क्या कांग्रेस नहीं जानती थी ये सब खरीदे गए लोग है?
सीन- छह
थ्यौरी ऑफ धर्मनिरपेक्षता के तहत भगवा पार्टी के केशरी नाथ त्रिपाठी की मांग- मुलायम नैतिकता के आधार पर इस्तीफा दें। और बीजेपी तीन सौ छप्पन का समर्थन करेगी। सियासी पोटा का इस्तमाल करेगी। मुलायम की चुनौती। कर के देखे कांग्रेस। सबको बता दूंगा। सबको से मतलब वो मुसलमानों को बता देंगे। कि कांग्रेस ने मुझ अनैतिक को हटाने के लिए धर्मनिरपेक्षता को छोड़ दिया। वह बीजेपी के करीब जा रही है।
सीन-सात
वाम दल..खबरदार अब और दयानायक नहीं चाहिए। बहतु हो चुका तीन सौ छप्पन। सदन के पटल पर सरकार बहुमत साबित करे। संविधान बड़ा है फिर धर्मनिरपेक्षता और फिर उसके बाद नैतिकता। कांग्रेस के दया नायक पिस्तौल वापस रख लेते हैं। तभी चुनाव आयोग का छापा पड़ता है। तारीख का एलान होता है। दयानायक फंस जाता है। फिल्म अब तक तीन सौ छप्पन का इंटरवल हो जाता है।
मुलायम के एकलव्य
एकलव्य फिल्म देख ली । फिल्म के साथ साथ इंटरवल में समाजवादी पार्टी का विज्ञापन भी देखा। पूरी फिल्म और विज्ञापन के अमिताभ में फर्क करना मुश्किल हो गया। दोनों ही जगहों पर अमिताभ सेवक यानी एकलव्य की तरह लग रहे थे। वैसे भी पर्दे के अमिताभ और असली ज़िंदगी के अमिताभ में फर्क करना मुश्किल होता है। सुपर स्टार भले ही इस अंतर को सहजता से जीते हों उनके दीवानों के लिए यह मुमकिन नहीं।
महाभारत की परंपरा में एकलव्य का किरदार एक बेईमान गुरु और एक मूर्ख शिष्य की कहानी है। द्रोण ने कपट किया और कम प्रतिभाशाली अर्जुन को अमर करवाया। होनहार धनुर्धर एकलव्य के पास मौका था नई परंपना गढ़ने का। मगर वह द्रोण की चालाकी में फंस गया। आज के सरकारी स्कूलों में पढ़ाने वाले मास्टर भी द्रोण है। वो सवाल करने की शिक्षा नहीं देते बल्कि सवालों का दक्षिणा मांग लेते हैं। एकलव्य ने अपना अंगूठा देकर इतिहास और दलितों को एक महानायक देने का मौका गंवा दिया। वो परंपराओं के अहसान तले दब गया। फिल्म की शुरुआत में उस एक लव्य को चुनौती दी जाती है । एक बच्चा कहता है मैं नहीं मानता एकलव्य सही था। बच्चे की आवाज़ में एकलव्य की मानसिकता को चुनौती दी जाती है। एक संदेश है कि धर्म वो नहीं जो शास्त्र और परंपरा है। धर्म वो है जो बुद्धि है।
अमर सिंह ने अमिताभ बच्चन का साथ दिया है। कांग्रेस ने भी अमिताभ की दोस्ती का इस्तमाल किया है। समाजवादी पार्टी ने पहले मदद की अब इस्तमाल कर रही है। फिल्म देखते देखते यही सब सवाल उठने लगते हैं। कि समाजवादी पार्टी के विज्ञापन वाले अमिताभ और एकलव्य के किरदार वाले अमिताभ में क्या फर्क है? क्या अमिताभ दोनों ही जगह अहसानों से दबे एकलव्य हैं? उनके सामने परंपरा मजबूरी खड़ी कर रही है। मदद करने वालों को भूला देने पर इतिहास कुछ और कहता है। इसलिए अमिताभ समाजवादी पार्टी के विज्ञापन में एक सेवक भाव की तरह नारे लगा रहे हैं। अहसान धर्म का भाव। एकलव्य भी यहीं मजबूर था। वो द्रोण की प्रतिमा का अहसानमंद हो गया। यहीं पर फिल्म और विज्ञापन का भेद मिटने लगता है। फिल्म का एकलव्य नौ पीढ़ियों के नाम पर धर्म की रक्षा करता है। हत्या करता है। सच को छुपाता है। झूठ के सहारे जीता है। सच कहने का साहस नहीं कर पाता। फिल्म के आखिर में पुलिस अफसर के झूठे चिट्ठी की बात पर भी धर्म का पालन कर सच नहीं बोलता। बल्कि झूठ के सहारे एक और ज़िंदगी जीने का रास्ता चुनता है। कहानी में एक जगह सैफ अली कहता है धर्म वो है जो बुद्धि है। मगर एकलव्य के रुप में एक सेवक बहादुरी से अपनी बुज़दिली को छुपाने की कोशिश करता है। सच से भाग जाता है।
मुलायम के एकलव्य भी विधु विनोद चोपड़ा के एकलव्य की तरह हैं। राजनीति से दूर रहने की बात करने वाला हमारे समय के इस महानायक को राजनीतिक विज्ञापन से परहेज़ नहीं है। वो सेवक की तरह सच को सामने रखता है। सिस्टम की बुराइयों से लड़ने की कहानियों से अमर हुआ यह महानायक सिस्टम की बुराइयों को आंकड़ों से झूठलाने के सियासी खेल में सेवक बन गया है। निठारी के मासूम बच्चों की तरफ नहीं देखता। उसमें अब बगावत नहीं है। सियासत है। नेता के प्रति परंपरागत समर्पण। यह एंग्री यंग मैन नहीं हो सकता। क्लेवर ओल्ड मैन लगता है। अमिताभ ने एंग्री यंग मैन के किरदारों से लाखों लोगों को दीवाना बनाया अब समाजवादी पार्टी के विज्ञापन से दीवानों को वोटर बना रहे हैं। द्रोण मुलायम ने एकलव्य अमिताभ का अंगूठा मांग लिया है।
मैं नहीं जानता कि विधु विनोद चोपड़ा ने महानायक के लिए सेवक का किरदार क्यों चुना? क्या उन्होंने आज के अमिताभ की हकीकत को एक किरदार के ज़रिये पर्दे पर उतार दिया है? या चोपड़ा अमिताभ को एक रास्ता दिखाना चाहते हैं? एकलव्य मत बनिये। हर दीवार को गिरा देने वाली दीवार फिल्म का विजय एकलव्य में सेवा की दीवार बनता है। यह एक महानायक का पतन तो नहीं? उससे कहीं ज़्यादा बड़ा किरदार संजय दत्त का है। एक दलित पुलिस अफसर का किरदार। वो देवीगढ़ के राणा के दो हज़ार साल के शाही विरासत को अपने पांच हज़ार साल के शोषण की मिसाल से चुनौती देता है। संजय दत्त के पुलिस अफसर ने एकलव्य की मजबूरी को निकाल फेंका है। यह एक दलित पुलिस अफसर का आत्मविश्वास नहीं बल्कि उसकी बुद्धि का इस्तमाल है। वो प्रतिभा और परंपरा में फर्क करता है। अपनी प्रतिभा के बल पर वर्तमान में जगह बनाता है। आने वाली दलित पीढ़ियों के लिए एक परंपरा बनाता है । वो कह रहा है मैं एकलव्य का मुरीद हो सकता हूं क्योंकि उससे छल हुआ मगर एकलव्य नहीं हो सकता। मुझे कोई मेरी जाति के नाम से गाली नहीं दे सकता ।काश अमिताभ संजय दत्ता वाला किरदार करते तो मेरी ज़हन में महानायक ही रहते। यूपी में दम है क्योंकि जुर्म बहुत कम है। इस विज्ञापन को देख कर अपने अंदर रोता रहा जैसे अमिताभ एकलव्य के किरदार में अपनी साहचर्य के मौत पर सिसकते रहे। क्या वो एकलव्य की मानसिकता से निकलता चाहते हैं? एकलव्य को कौन याद करता है। एकलव्य एक सबक है। जो छला गया वो एकलव्य है। महानायक नहीं।
महाभारत की परंपरा में एकलव्य का किरदार एक बेईमान गुरु और एक मूर्ख शिष्य की कहानी है। द्रोण ने कपट किया और कम प्रतिभाशाली अर्जुन को अमर करवाया। होनहार धनुर्धर एकलव्य के पास मौका था नई परंपना गढ़ने का। मगर वह द्रोण की चालाकी में फंस गया। आज के सरकारी स्कूलों में पढ़ाने वाले मास्टर भी द्रोण है। वो सवाल करने की शिक्षा नहीं देते बल्कि सवालों का दक्षिणा मांग लेते हैं। एकलव्य ने अपना अंगूठा देकर इतिहास और दलितों को एक महानायक देने का मौका गंवा दिया। वो परंपराओं के अहसान तले दब गया। फिल्म की शुरुआत में उस एक लव्य को चुनौती दी जाती है । एक बच्चा कहता है मैं नहीं मानता एकलव्य सही था। बच्चे की आवाज़ में एकलव्य की मानसिकता को चुनौती दी जाती है। एक संदेश है कि धर्म वो नहीं जो शास्त्र और परंपरा है। धर्म वो है जो बुद्धि है।
अमर सिंह ने अमिताभ बच्चन का साथ दिया है। कांग्रेस ने भी अमिताभ की दोस्ती का इस्तमाल किया है। समाजवादी पार्टी ने पहले मदद की अब इस्तमाल कर रही है। फिल्म देखते देखते यही सब सवाल उठने लगते हैं। कि समाजवादी पार्टी के विज्ञापन वाले अमिताभ और एकलव्य के किरदार वाले अमिताभ में क्या फर्क है? क्या अमिताभ दोनों ही जगह अहसानों से दबे एकलव्य हैं? उनके सामने परंपरा मजबूरी खड़ी कर रही है। मदद करने वालों को भूला देने पर इतिहास कुछ और कहता है। इसलिए अमिताभ समाजवादी पार्टी के विज्ञापन में एक सेवक भाव की तरह नारे लगा रहे हैं। अहसान धर्म का भाव। एकलव्य भी यहीं मजबूर था। वो द्रोण की प्रतिमा का अहसानमंद हो गया। यहीं पर फिल्म और विज्ञापन का भेद मिटने लगता है। फिल्म का एकलव्य नौ पीढ़ियों के नाम पर धर्म की रक्षा करता है। हत्या करता है। सच को छुपाता है। झूठ के सहारे जीता है। सच कहने का साहस नहीं कर पाता। फिल्म के आखिर में पुलिस अफसर के झूठे चिट्ठी की बात पर भी धर्म का पालन कर सच नहीं बोलता। बल्कि झूठ के सहारे एक और ज़िंदगी जीने का रास्ता चुनता है। कहानी में एक जगह सैफ अली कहता है धर्म वो है जो बुद्धि है। मगर एकलव्य के रुप में एक सेवक बहादुरी से अपनी बुज़दिली को छुपाने की कोशिश करता है। सच से भाग जाता है।
मुलायम के एकलव्य भी विधु विनोद चोपड़ा के एकलव्य की तरह हैं। राजनीति से दूर रहने की बात करने वाला हमारे समय के इस महानायक को राजनीतिक विज्ञापन से परहेज़ नहीं है। वो सेवक की तरह सच को सामने रखता है। सिस्टम की बुराइयों से लड़ने की कहानियों से अमर हुआ यह महानायक सिस्टम की बुराइयों को आंकड़ों से झूठलाने के सियासी खेल में सेवक बन गया है। निठारी के मासूम बच्चों की तरफ नहीं देखता। उसमें अब बगावत नहीं है। सियासत है। नेता के प्रति परंपरागत समर्पण। यह एंग्री यंग मैन नहीं हो सकता। क्लेवर ओल्ड मैन लगता है। अमिताभ ने एंग्री यंग मैन के किरदारों से लाखों लोगों को दीवाना बनाया अब समाजवादी पार्टी के विज्ञापन से दीवानों को वोटर बना रहे हैं। द्रोण मुलायम ने एकलव्य अमिताभ का अंगूठा मांग लिया है।
मैं नहीं जानता कि विधु विनोद चोपड़ा ने महानायक के लिए सेवक का किरदार क्यों चुना? क्या उन्होंने आज के अमिताभ की हकीकत को एक किरदार के ज़रिये पर्दे पर उतार दिया है? या चोपड़ा अमिताभ को एक रास्ता दिखाना चाहते हैं? एकलव्य मत बनिये। हर दीवार को गिरा देने वाली दीवार फिल्म का विजय एकलव्य में सेवा की दीवार बनता है। यह एक महानायक का पतन तो नहीं? उससे कहीं ज़्यादा बड़ा किरदार संजय दत्त का है। एक दलित पुलिस अफसर का किरदार। वो देवीगढ़ के राणा के दो हज़ार साल के शाही विरासत को अपने पांच हज़ार साल के शोषण की मिसाल से चुनौती देता है। संजय दत्त के पुलिस अफसर ने एकलव्य की मजबूरी को निकाल फेंका है। यह एक दलित पुलिस अफसर का आत्मविश्वास नहीं बल्कि उसकी बुद्धि का इस्तमाल है। वो प्रतिभा और परंपरा में फर्क करता है। अपनी प्रतिभा के बल पर वर्तमान में जगह बनाता है। आने वाली दलित पीढ़ियों के लिए एक परंपरा बनाता है । वो कह रहा है मैं एकलव्य का मुरीद हो सकता हूं क्योंकि उससे छल हुआ मगर एकलव्य नहीं हो सकता। मुझे कोई मेरी जाति के नाम से गाली नहीं दे सकता ।काश अमिताभ संजय दत्ता वाला किरदार करते तो मेरी ज़हन में महानायक ही रहते। यूपी में दम है क्योंकि जुर्म बहुत कम है। इस विज्ञापन को देख कर अपने अंदर रोता रहा जैसे अमिताभ एकलव्य के किरदार में अपनी साहचर्य के मौत पर सिसकते रहे। क्या वो एकलव्य की मानसिकता से निकलता चाहते हैं? एकलव्य को कौन याद करता है। एकलव्य एक सबक है। जो छला गया वो एकलव्य है। महानायक नहीं।
अटारी वाया अटैची
घर से निकलते वक्त हमेशा अटैची साथ हो जाती है। कुछ सामान को रख लेती है। रात से लेकर सुबह का सामन। अटैची होती है तो भरोसा होता रहता है कि सफर में भी एक घर है। ट्रेन की खिड़की से दिखते नज़ारे इससे पहले कि किसी और दुनिया में ले जाएं नीचे रखी अटैची पर अचानक गया ध्यान अहसास करा देता है कि किस दुनिया से आ रहे हैं और कहां जाना है। सफर की सबसे भरोसेमंद साथी अटैची। अगर टिकाऊ हो तो लगता है कि कुछ नहीं होगा। मेरे साथ मज़बूत अटैची है। उसका ताला किसी से नहीं खुलेगा। आप धीरे धीरे अटैची पर भरोसा भी करने लगते हैं।
ऐसी ही कुछ अटैचियां समझौता एक्सप्रैस में रख दी गई थीं। इन्हें रखने वाला इनसे दगा कर रहा था। वो खुद इस सफर में नहीं था। मगर अटैची को किसी और अटैची के बीच मिलाकर रख आया था। भरोसे की बात होगी कि किसी को शक नहीं हुआ होगा । नज़र पड़ी भी होगी कि यात्रियों ने सोचा होगा कि अपनी अटैची पर तो इतना भरोसा करते हैं, दूसरों की अटैची पर क्यों शक करें। यहीं कहीं होगा इसे लाने वाला भी। आखिर हम भी तो अपनी अटैची से ज़्यादा दूर नहीं रह सकते। हम क्या सभी अटैची के करीब होते हैं। लोगों ने सोचा होगा भीड़ में दबा हुआ इसका वारिस चोरी छिपे देख रहा होगा। मगर नहीं हुआ होगा।
भरोसे की इसी आदत का फायदा उठाया होगा आतंकवादियों ने। यह समझ कर जब तक कोई इन पर शक करेगा..अटैचियां उनके भरोसे को हमेशा हमेशा कि लिए खत्म कर चुकीं होंगी। समझौता एक्सप्रैस में सभी अटैचियां विश्वासघाती नहीं थीं। वो बड़े भरोसे के साथ अपने सामान को ले जा रही थीं। इनका पहुंचना ही होता है सफर का पूरा होना। घर पहुंचते ही किस तरह परिवार के लोग खोलने के लिए बेताब हो जाते हैं। तह किए गए सामानों के निकलने का इंतज़ार करते हैं। एक भरोसे को सब आपस में बांटते हैं। ये मेरा सामान है। ये मेरे लिए है। कितनी खुशियां बांट देती है ये अटैची।
सब आराम से सो रहे होंगे। आखिर जिस सफर में भरोसे की इतनी अटैचियां हो उसमें एक दो पर शक कर क्यों कोई अपनी रात खराब करता। सब सपने देखना चाहते होंगे। पहुंच कर कुछ कहने और कुछ करने के सपने। तभी एक अटैची तमाम अटैचियों से गद्दारी करते हुए फट पड़ी होगी। सब कुछ जल गया। सब कुछ जल जाने के बाद ही तो हम पहुंचे थे कैमरा लेकर। मौत की संख्या और घायलों का हाल बताने के लिए। हम बहुत भरोसा करते हैं। जहां भरोसा करते हैं वहीं नज़र होती है दंगा करने वालों की, आतंक फैलाने वालों की। आतंकवादियों ने बहुत सोच समझ कर अटैची को हथियार बनाया। भरोसे की ऐसी आग लगी कि सब जल गए। राख हो गए। जानकार कहते रहे कि ये हमला भारत और पाकिस्तान की दोस्ती पर हुआ है। रिश्तों पर आंच नहीं आने देंगे। मैं सोचता रहा कि ये हमला मुल्कों के भरोसे को तोड़ने के लिए नहीं था। बल्कि सफर के भरोसे को हमेशा के लिए खत्म कर देने के लिए था।
ऐसी ही कुछ अटैचियां समझौता एक्सप्रैस में रख दी गई थीं। इन्हें रखने वाला इनसे दगा कर रहा था। वो खुद इस सफर में नहीं था। मगर अटैची को किसी और अटैची के बीच मिलाकर रख आया था। भरोसे की बात होगी कि किसी को शक नहीं हुआ होगा । नज़र पड़ी भी होगी कि यात्रियों ने सोचा होगा कि अपनी अटैची पर तो इतना भरोसा करते हैं, दूसरों की अटैची पर क्यों शक करें। यहीं कहीं होगा इसे लाने वाला भी। आखिर हम भी तो अपनी अटैची से ज़्यादा दूर नहीं रह सकते। हम क्या सभी अटैची के करीब होते हैं। लोगों ने सोचा होगा भीड़ में दबा हुआ इसका वारिस चोरी छिपे देख रहा होगा। मगर नहीं हुआ होगा।
भरोसे की इसी आदत का फायदा उठाया होगा आतंकवादियों ने। यह समझ कर जब तक कोई इन पर शक करेगा..अटैचियां उनके भरोसे को हमेशा हमेशा कि लिए खत्म कर चुकीं होंगी। समझौता एक्सप्रैस में सभी अटैचियां विश्वासघाती नहीं थीं। वो बड़े भरोसे के साथ अपने सामान को ले जा रही थीं। इनका पहुंचना ही होता है सफर का पूरा होना। घर पहुंचते ही किस तरह परिवार के लोग खोलने के लिए बेताब हो जाते हैं। तह किए गए सामानों के निकलने का इंतज़ार करते हैं। एक भरोसे को सब आपस में बांटते हैं। ये मेरा सामान है। ये मेरे लिए है। कितनी खुशियां बांट देती है ये अटैची।
सब आराम से सो रहे होंगे। आखिर जिस सफर में भरोसे की इतनी अटैचियां हो उसमें एक दो पर शक कर क्यों कोई अपनी रात खराब करता। सब सपने देखना चाहते होंगे। पहुंच कर कुछ कहने और कुछ करने के सपने। तभी एक अटैची तमाम अटैचियों से गद्दारी करते हुए फट पड़ी होगी। सब कुछ जल गया। सब कुछ जल जाने के बाद ही तो हम पहुंचे थे कैमरा लेकर। मौत की संख्या और घायलों का हाल बताने के लिए। हम बहुत भरोसा करते हैं। जहां भरोसा करते हैं वहीं नज़र होती है दंगा करने वालों की, आतंक फैलाने वालों की। आतंकवादियों ने बहुत सोच समझ कर अटैची को हथियार बनाया। भरोसे की ऐसी आग लगी कि सब जल गए। राख हो गए। जानकार कहते रहे कि ये हमला भारत और पाकिस्तान की दोस्ती पर हुआ है। रिश्तों पर आंच नहीं आने देंगे। मैं सोचता रहा कि ये हमला मुल्कों के भरोसे को तोड़ने के लिए नहीं था। बल्कि सफर के भरोसे को हमेशा के लिए खत्म कर देने के लिए था।
अगर मैं प्रधानमंत्री होता
अक्सर लेख का यह विषय स्कूल में मिल जाया करता था। २० अंकों का लेख। मास्टर जी क्लास में इधर उधर देखे बिना लिखने को कहते थे। १३-१४ साल की उम्र में इस अनजान सपने को देखते हुए हम लिखने लगते थे। बिना भूगोल और लोग को जाने हम लिखते रहते थे। अगर मैं प्रधानमंत्री होता तो भारत को आधुनिक बना देता। जहां कोई गरीब नहीं होता। सबके पास काम और पढ़ाने के लिए मास्टर होता। विज्ञान के क्षेत्र में भारत का नाम रौशन करता। सड़के बनवाता। बिजली पहुंचाता। वगैरह, वगैरह।
१५ साल बाद अगर मास्टर जी यह लेख लिखने के लिए तो आप कैसे लिखेंगे। शायद मैं यूं लिखता कि अगर मैं प्रधानमंत्री होता तो अपने सात पुश्तों का इंतज़ाम करता । पार्टी हाईकमान के कहने पर सरकार गिरा देता। झूठे वादे करता कि हजारों नौकरियां हम दे रहें हैं आप बस लाखों वोट दे दीजिए। प्रधानमंत्री बनने के बाद गरीबी रेखा से नीचे के आंकड़ों में हेर फेर करता और गरीबों को आंकड़ों से गायब कर देता। अगर मैं प्रधानमंत्री होता तो अयोघ्या से लेकर गुजरात तक के दंगों में मौन हो जाता । अगर मैं प्रधानमंत्री होता तो अपनी सरकार को बचाए रखने के लिए ब्रीफकेस में नोट भर कर सांसद खरीदता। अगर मैं प्रधानमंत्री होता तो पुरानी लिखी कविताओं को सुनाता रहता। अगर मैं प्रधानमंत्री होता तो प्रधानमंत्री बनने वाले संभावितों को फंसाता रहता । अरे हां विकास, बिजली और विज्ञान की भी बातें करता। अगर मैं प्रधानमंत्री होता तो भारत के फटे हाल लोगों का हाल छोड़ कर अपना हाल ठीक करता ।
शायद यह सब इसलिए लिखता क्योंकि अब प्रधानमंत्री के बारे में हम यही सब जानते हैं। स्कूल वाले लेख में वो बातें इसलिए लिखते क्योंकि एनसीईआरटी की किताबों में भारत के बारे में यही पढ़ाया जाता रहा था। प्रधानमंत्री को एक आदर्श संवैधानिक आचरण वाला शख्स बताया जाता रहा था। पत्रकार बनने के बाद न जाने क्यों हर वक्त सरकारों पर शक होता रहता है। मंत्रियों के कारनामे काले ही लगते हैं। इसलिए अब मैं दावे के साथ नहीं कह सकता हूं कि स्कूल के १५ साल के अनुभवों के बाद मैं वैसा मासूम लेख फिर से लिख पाऊंगा। कि अगर मैं प्रधानमंत्री होता....रवीश कुमार
१५ साल बाद अगर मास्टर जी यह लेख लिखने के लिए तो आप कैसे लिखेंगे। शायद मैं यूं लिखता कि अगर मैं प्रधानमंत्री होता तो अपने सात पुश्तों का इंतज़ाम करता । पार्टी हाईकमान के कहने पर सरकार गिरा देता। झूठे वादे करता कि हजारों नौकरियां हम दे रहें हैं आप बस लाखों वोट दे दीजिए। प्रधानमंत्री बनने के बाद गरीबी रेखा से नीचे के आंकड़ों में हेर फेर करता और गरीबों को आंकड़ों से गायब कर देता। अगर मैं प्रधानमंत्री होता तो अयोघ्या से लेकर गुजरात तक के दंगों में मौन हो जाता । अगर मैं प्रधानमंत्री होता तो अपनी सरकार को बचाए रखने के लिए ब्रीफकेस में नोट भर कर सांसद खरीदता। अगर मैं प्रधानमंत्री होता तो पुरानी लिखी कविताओं को सुनाता रहता। अगर मैं प्रधानमंत्री होता तो प्रधानमंत्री बनने वाले संभावितों को फंसाता रहता । अरे हां विकास, बिजली और विज्ञान की भी बातें करता। अगर मैं प्रधानमंत्री होता तो भारत के फटे हाल लोगों का हाल छोड़ कर अपना हाल ठीक करता ।
शायद यह सब इसलिए लिखता क्योंकि अब प्रधानमंत्री के बारे में हम यही सब जानते हैं। स्कूल वाले लेख में वो बातें इसलिए लिखते क्योंकि एनसीईआरटी की किताबों में भारत के बारे में यही पढ़ाया जाता रहा था। प्रधानमंत्री को एक आदर्श संवैधानिक आचरण वाला शख्स बताया जाता रहा था। पत्रकार बनने के बाद न जाने क्यों हर वक्त सरकारों पर शक होता रहता है। मंत्रियों के कारनामे काले ही लगते हैं। इसलिए अब मैं दावे के साथ नहीं कह सकता हूं कि स्कूल के १५ साल के अनुभवों के बाद मैं वैसा मासूम लेख फिर से लिख पाऊंगा। कि अगर मैं प्रधानमंत्री होता....रवीश कुमार
आधुनिक रसोई
माइक्रोवेव की हल्की गर्मी में तप रही थी रोटी
हमने भी गांव के चूल्हे को अलविदा कह दिया
रसोई की कब्र पर बने मेरे किचन में आना तुम
हमने भी मां के भाजी,भर्ते को अलविदा कह दिया
अपार्टमेंट में रहने वाले दिल्ली के आधुनिक लोग है हम
किसी औरत की झुकी कमर को किचन से विदा कर दिया
अब हमारे किचन में पकता नहीं है खाना यारो
यारो की पार्टी में हमने उनका खाना गरम कर दिया
हमने भी गांव के चूल्हे को अलविदा कह दिया
रवीश कुमार
हमने भी गांव के चूल्हे को अलविदा कह दिया
रसोई की कब्र पर बने मेरे किचन में आना तुम
हमने भी मां के भाजी,भर्ते को अलविदा कह दिया
अपार्टमेंट में रहने वाले दिल्ली के आधुनिक लोग है हम
किसी औरत की झुकी कमर को किचन से विदा कर दिया
अब हमारे किचन में पकता नहीं है खाना यारो
यारो की पार्टी में हमने उनका खाना गरम कर दिया
हमने भी गांव के चूल्हे को अलविदा कह दिया
रवीश कुमार
झांसा
उसने कहा था यकीन करने के लिए
हम भी यकीन करते रहे कहने के लिए
वो कहते रहे दो कदम चलने के लिए
हम भी चलते रहे चलने के लिए
उसने कहा था तुम दोस्त हो मेरे
हम भी समझते रहे दोस्ती के लिए
मेरा सामान लेकर उसने अपना दाम लगा दिया
हम भी देखते रहे चुपचाप सरे बाज़ार के लिए
रवीश कुमार
हम भी यकीन करते रहे कहने के लिए
वो कहते रहे दो कदम चलने के लिए
हम भी चलते रहे चलने के लिए
उसने कहा था तुम दोस्त हो मेरे
हम भी समझते रहे दोस्ती के लिए
मेरा सामान लेकर उसने अपना दाम लगा दिया
हम भी देखते रहे चुपचाप सरे बाज़ार के लिए
रवीश कुमार
हिंदी की नागरिता बनाम हिंदी की मानसिकता
अंग्रेजी चैनल के लोगों के साथ काम करते करते या तो मैं बदल गया हूं या फिर मैं भी हिंदी को अलग से देखने के उनकी चाल में फंस गया हूं। मगर क्या वाकई में हिंदी की मानसिकता इस देश में कोई अळग प्रदेश है। जिसके सरोकार सिर्फ अंग्रेजी बोलने से बदल जाते होंगे। या फिर अंग्रेजी बोलने से पहले तक अळग रहते हैं। फिर उस आदमी के सरोकार कहां फिट बैठते होंगे जो अंग्रेजी और हिंदी दोनों जानता है। खैर ये सवाल है जिस पर बड़े बड़े लोग सालों से माथापच्ची कर रहे हैं ।
हम अभी तक अंग्रेजी को सिर्फ आर्थिक वर्ग की भाषा ही समझते आए हैं। इस पर ध्यान नहीं जा रहा है कि अंग्रेजी का हिंदीकरण हो गया है। हिंदी पटटी के लोग बड़ी संख्या में बोरे से उठा कर इंग्लिश मीडियम स्कूलों के बेंच पर बिठाये जा रहे हैं। तो क्या उनके सरोकार बदल रहे हैं। इस पर सिर्फ धारणा है या कोई प्रमाणिक तथ्य भी हैं हमारे पास। इतना ही कपड़ों का भी लोकतांत्रिकरण हुआ है। हिंदी और अंग्रेजी के लोग अब एक जैसा कपड़ा पहनते हैं। जींस के अच्छे से लेकर फुटपथिया ब्रांड तक दिल्ली और मोतिहारी में बिकने लगे हैं। मगर क्या इसके बाद भी दोनों का मानस अलग है। मैंने हिंदी के पत्रकारों को भी गोवन वाइन पीते देखा है जो अंग्रेजी बोलने वाले लोग पीया करते थे। तो क्या वो अंग्रेजी की तरह हो गए हैं ? क्या वाकई में हम हिंदी के लोग अंग्रेजी के लोगों से अलग है?
इस पुराने और घिसे पिटे सवालों से इसिलए जूझ रहा हूं क्योंकि हाल के दिनों मे जेसिका हत्याकांड औऱ नितीश कटारा हत्याकांड में इंसाफ को लेकर लोग सड़कों पर उतरे । मोमबत्तियां लेकर इंडिया गेट आ गए और ई मेल लेकर
बरखा दत्त के वी द पिपुल में आ गए। हिंदी के लोग नहीं थे। उज्जैन में एक प्रोफेसर की हत्या हो जाती है। लोग कांग्रेसी और भाजपाई खेमे में बंट जाते हैं। साथी प्रोफेसर भाग खड़े होते हैं। इस बीच अंग्रेजी के चैनलों पर इसे लेकर आंदोलन होने लगता है। अंग्रेजी का दर्शक उसे टीआरपी से समर्थन देता है। देखता है। हिंदी का दर्शक शिल्पा शेट्टी के ब्लाउज के धागे को गिनने के लिए चैनल बदल देता है। तभी हिंदी के चैनलों पर अब भूख, गरीबो और किसानों की आत्महत्या की खबरें कम हो गई हैं। हर चैनल शनि के प्रकोप से लोगों को ड़रा रहा है। क्या यह इस बात का संकेत है कि हिंदी नागरिकता की मानसिकता अलग है। या फिर हिंदी मानसिकता ने अपनी नागरिकता बनाई ही नहीं।
हम जानते हैं कि कई जगहों पर गरीब किसान संघर्ष कर रहे हैं। वो अंग्रेजी नहीं जानते होंगे अपने अधिकारों को जानते हैं। मगर जेसिका के लिए मोमबत्तियां जलाने वालों में हिंदी का प्रोफेसर, बड़ा नाम,कवि मौजूद था ? क्या हम सामाजिक सरोकारों को लेकर सड़क पर उतरते हैं? मेरी कोई राय नहीं है बल्कि सवाल हैं जिस पर मैं बहस चाहता हूं।
ऐसा भी नहीं है कि हिंदी के लोग गरीबी में जी रहे हैं। हिंदी पट्टी के लाखो लोग अंग्रेजी सीख कर साफ्टवेयर इंजीनियर हो चुके है । क्या उनके सरोकारों से हिंदी पट्टी को कोई लाभ मिल रहा है? क्या ये लोग ई मेल के ज़रिये
अपने इलाके के सवालों को लेकर जनमत बना रहे हैं? या सिर्फ इलाके में लौट कर रिश्तेदारों, पड़ोसियों और परिवार के लोगों को यही बता रहे हैं कि उन्होंने जीवन में बड़ा तीर मारा है। वो कितना आगे निकल गए हैं। क्या हर अंग्रेजी मानसिकता के पीछे हिंदी मानसिकता नहीं है? फिर क्यों हिंदी मानसिकता सामने नहीं आती ? वो क्यों छुप कर रहना चाहती है? जेसिका मामले में जब लोग मोमबत्तियां लेकर इंडिया गेट आए तो कई सवाल उठे । कि ये एक वर्ग की चिंता और लड़ाई है। जेएनयू के छात्र नेता चंद्रशेखर को कुछ गुंडों ने मार दिया । आज तक उसकी बूढ़ी मां इंसाफ के लिए अकेली लड़ रही है। क्या किसी हिंदी के पत्रकार , साहित्यकार ने ई मेल कैंपेन किया । इंडिया गेट गया । और इंडिया गेट जाने वालों में कोई बड़ा नाम भी तो नहीं था। आम लोग थे। क्या हिंदी मानसिकता जाति, रिश्वतखोरी और पूजा पाठ में हो रहे ढोंग को देखते देखते बनती है? क्या हिंदी मानसकिता अपने लिए जीती है? क्या हिंदी मानसिकता की कोई नागरिकता बन पाई है? उसका कोई नागरिक बोध है। या वो सिर्फ जाति बोध को ही पालती पोसती है? क्या हिंदी की मानसकिता अपने लिए जीती है ? उसका कोई नागरिक बोध है? या सिर्फ वह अपने जाति बोध के अहंकार में ही है? बहस होनी चाहिए
हम अभी तक अंग्रेजी को सिर्फ आर्थिक वर्ग की भाषा ही समझते आए हैं। इस पर ध्यान नहीं जा रहा है कि अंग्रेजी का हिंदीकरण हो गया है। हिंदी पटटी के लोग बड़ी संख्या में बोरे से उठा कर इंग्लिश मीडियम स्कूलों के बेंच पर बिठाये जा रहे हैं। तो क्या उनके सरोकार बदल रहे हैं। इस पर सिर्फ धारणा है या कोई प्रमाणिक तथ्य भी हैं हमारे पास। इतना ही कपड़ों का भी लोकतांत्रिकरण हुआ है। हिंदी और अंग्रेजी के लोग अब एक जैसा कपड़ा पहनते हैं। जींस के अच्छे से लेकर फुटपथिया ब्रांड तक दिल्ली और मोतिहारी में बिकने लगे हैं। मगर क्या इसके बाद भी दोनों का मानस अलग है। मैंने हिंदी के पत्रकारों को भी गोवन वाइन पीते देखा है जो अंग्रेजी बोलने वाले लोग पीया करते थे। तो क्या वो अंग्रेजी की तरह हो गए हैं ? क्या वाकई में हम हिंदी के लोग अंग्रेजी के लोगों से अलग है?
इस पुराने और घिसे पिटे सवालों से इसिलए जूझ रहा हूं क्योंकि हाल के दिनों मे जेसिका हत्याकांड औऱ नितीश कटारा हत्याकांड में इंसाफ को लेकर लोग सड़कों पर उतरे । मोमबत्तियां लेकर इंडिया गेट आ गए और ई मेल लेकर
बरखा दत्त के वी द पिपुल में आ गए। हिंदी के लोग नहीं थे। उज्जैन में एक प्रोफेसर की हत्या हो जाती है। लोग कांग्रेसी और भाजपाई खेमे में बंट जाते हैं। साथी प्रोफेसर भाग खड़े होते हैं। इस बीच अंग्रेजी के चैनलों पर इसे लेकर आंदोलन होने लगता है। अंग्रेजी का दर्शक उसे टीआरपी से समर्थन देता है। देखता है। हिंदी का दर्शक शिल्पा शेट्टी के ब्लाउज के धागे को गिनने के लिए चैनल बदल देता है। तभी हिंदी के चैनलों पर अब भूख, गरीबो और किसानों की आत्महत्या की खबरें कम हो गई हैं। हर चैनल शनि के प्रकोप से लोगों को ड़रा रहा है। क्या यह इस बात का संकेत है कि हिंदी नागरिकता की मानसिकता अलग है। या फिर हिंदी मानसिकता ने अपनी नागरिकता बनाई ही नहीं।
हम जानते हैं कि कई जगहों पर गरीब किसान संघर्ष कर रहे हैं। वो अंग्रेजी नहीं जानते होंगे अपने अधिकारों को जानते हैं। मगर जेसिका के लिए मोमबत्तियां जलाने वालों में हिंदी का प्रोफेसर, बड़ा नाम,कवि मौजूद था ? क्या हम सामाजिक सरोकारों को लेकर सड़क पर उतरते हैं? मेरी कोई राय नहीं है बल्कि सवाल हैं जिस पर मैं बहस चाहता हूं।
ऐसा भी नहीं है कि हिंदी के लोग गरीबी में जी रहे हैं। हिंदी पट्टी के लाखो लोग अंग्रेजी सीख कर साफ्टवेयर इंजीनियर हो चुके है । क्या उनके सरोकारों से हिंदी पट्टी को कोई लाभ मिल रहा है? क्या ये लोग ई मेल के ज़रिये
अपने इलाके के सवालों को लेकर जनमत बना रहे हैं? या सिर्फ इलाके में लौट कर रिश्तेदारों, पड़ोसियों और परिवार के लोगों को यही बता रहे हैं कि उन्होंने जीवन में बड़ा तीर मारा है। वो कितना आगे निकल गए हैं। क्या हर अंग्रेजी मानसिकता के पीछे हिंदी मानसिकता नहीं है? फिर क्यों हिंदी मानसिकता सामने नहीं आती ? वो क्यों छुप कर रहना चाहती है? जेसिका मामले में जब लोग मोमबत्तियां लेकर इंडिया गेट आए तो कई सवाल उठे । कि ये एक वर्ग की चिंता और लड़ाई है। जेएनयू के छात्र नेता चंद्रशेखर को कुछ गुंडों ने मार दिया । आज तक उसकी बूढ़ी मां इंसाफ के लिए अकेली लड़ रही है। क्या किसी हिंदी के पत्रकार , साहित्यकार ने ई मेल कैंपेन किया । इंडिया गेट गया । और इंडिया गेट जाने वालों में कोई बड़ा नाम भी तो नहीं था। आम लोग थे। क्या हिंदी मानसिकता जाति, रिश्वतखोरी और पूजा पाठ में हो रहे ढोंग को देखते देखते बनती है? क्या हिंदी मानसकिता अपने लिए जीती है? क्या हिंदी मानसिकता की कोई नागरिकता बन पाई है? उसका कोई नागरिक बोध है। या वो सिर्फ जाति बोध को ही पालती पोसती है? क्या हिंदी की मानसकिता अपने लिए जीती है ? उसका कोई नागरिक बोध है? या सिर्फ वह अपने जाति बोध के अहंकार में ही है? बहस होनी चाहिए
सर्वे का सच
दोस्तों कभी मेरा सर्वे नहीं हुआ। न मोबाइल और सेक्स के मामले में, न वोटिंग के बाद एक्जिट पोल के मामले में। अक्सर टीवी और अखबारों में छपने वाले सर्वे के प्रतिशतों में खुद को ढूंढते हुए बुढ़ाता जा रहा हूं । इधर सर्वे के सैंपलों के लगातार बढ़ने के बाद भी कोई मुझसे नहीं पूछ रहा है। शादी के बाद के संबंधों पर हुए सर्वे पर मुझसे पूछा जाता तो मैं काफी कुछ बता सकता था। अपने बारे में नहीं उनके बारे में जिनके संबंधों के बारे में सब जानते हैं। मैं बताता कि कैसे सेक्स और संबंध एक अफवाह की तरह समाज में फैलते हैं । हर शादीशुदा संकट में है। नौकरी का तनाव है। वो जंक फूड खाता है। न बीबी पति के लिए पकाती है न पति बीबी के लिए। खाना आर्डर होता है। पत्नी काम के अधिक घंटे के बाद काम करने वाले सहयोगी के साथ भावुक रिश्ता जोड़ लेती है। और पति भी घर लौटते हुए अपनी गाड़ी में किसी को कहीं छोड़ आता है। शह और मात का खेल जारी है। कहीं कोई टिकाऊ नहीं है। जो है बिकाऊ है। सर्वे है।
बदलते समाजों के सवालों का सर्वे हो रहा है और हमसे पूछा तक नहीं जा रहा है। बिल्कुल ग़लत बात है। वैलेंटाइन डे के एक दिन पहले हुए सर्वे में महानगर के तमाम युवाओं ने कहा था कि हम मां बाप की मर्जी से शादी करेंगे । यह सर्वे वैलेंटाइन डे के मौके पर बदलते वक्त की धारणाओं को चिढ़ा रहा था कि देखों अब भी युवा अपने पसंद नहीं मां बाप की पसंद को तरजीह देता है। ठीक ही होगा। पर सर्वे में युवाओं ने यह नहीं बताया कि उन्होंने अपने एकांत में देखे गए सपनों में कितनी लड़कियों को आगोश में लिया। लड़कियों ने यह नहीं बताया कि अक्सर लिफ्ट में अकेले सोचते सोचते वो क्यों मुस्कुरा उठतीं थीं। किससे पूछ कर और किसकी याद में। सर्वे झूठ बोलता है या सच बोलने का मौका ही नहीं देता।
कई बार सर्वे गलत हो जा रहे हैं। सवाल गलत थे या पूछने वाले गलत थे साफ नहीं हो पाता । हमने दरभंगा में देखा था..चुनावों की मारपीट के बीच मेडिकल कालेज के लड़के मां बाप की मर्जी को तोड़ने के लिए बेताब थे। अंग्रेजी गानों पर नाच रहे थे। जहां नाच रहे थे वहां लड़कियां नहीं थीं। वो दूर समूह में लाउडस्पीकर से आने वाली आवाज़ों से सिहर रहीं थीं। लाउडस्पीकर कहता था प्रतिमा तुम मेरी हो। तुम जहां भी हो आ जाओ। मैं इस आवाज़ को सुनता हुआ लड़कियों के खेमे में था। उनके चेहरे को देख रहा था। खुशी तैर रही थी। हंसते हुए सबके कंधे आपस में टकराने लगे थे । सर्वे इन भावनाओं को नहीं पकड़ता जो बिना किसी की मर्जी के अपने आप उमड़ रही थीं। दिल्ली से दूर चंद लड़के नथिंग गॉना चेंज माय लव फार यू..के गाने पर मदहोश हुए जा रहे थे। सर्वे कहां पकड़ता है ऐसे उतार चढ़ावों को। वो तो सवाल करता है। उम्र पूछता है। फैसला पूछता है। फैसले के पहले के चोरी छुपे सजायी गई कल्पनाओं को नहीं पकड़ता । हमारा समाज सिर्फ नतीजे में नहीं बदलता । वह अपने दोहरेपन में भी बदलता है। आप रात को सपने में किसी के साथ सोते हैं। दिन में मां बाप की मर्जी पर चलने का एलान करते हैं। सर्वे बकवास है।
बदलते समाजों के सवालों का सर्वे हो रहा है और हमसे पूछा तक नहीं जा रहा है। बिल्कुल ग़लत बात है। वैलेंटाइन डे के एक दिन पहले हुए सर्वे में महानगर के तमाम युवाओं ने कहा था कि हम मां बाप की मर्जी से शादी करेंगे । यह सर्वे वैलेंटाइन डे के मौके पर बदलते वक्त की धारणाओं को चिढ़ा रहा था कि देखों अब भी युवा अपने पसंद नहीं मां बाप की पसंद को तरजीह देता है। ठीक ही होगा। पर सर्वे में युवाओं ने यह नहीं बताया कि उन्होंने अपने एकांत में देखे गए सपनों में कितनी लड़कियों को आगोश में लिया। लड़कियों ने यह नहीं बताया कि अक्सर लिफ्ट में अकेले सोचते सोचते वो क्यों मुस्कुरा उठतीं थीं। किससे पूछ कर और किसकी याद में। सर्वे झूठ बोलता है या सच बोलने का मौका ही नहीं देता।
कई बार सर्वे गलत हो जा रहे हैं। सवाल गलत थे या पूछने वाले गलत थे साफ नहीं हो पाता । हमने दरभंगा में देखा था..चुनावों की मारपीट के बीच मेडिकल कालेज के लड़के मां बाप की मर्जी को तोड़ने के लिए बेताब थे। अंग्रेजी गानों पर नाच रहे थे। जहां नाच रहे थे वहां लड़कियां नहीं थीं। वो दूर समूह में लाउडस्पीकर से आने वाली आवाज़ों से सिहर रहीं थीं। लाउडस्पीकर कहता था प्रतिमा तुम मेरी हो। तुम जहां भी हो आ जाओ। मैं इस आवाज़ को सुनता हुआ लड़कियों के खेमे में था। उनके चेहरे को देख रहा था। खुशी तैर रही थी। हंसते हुए सबके कंधे आपस में टकराने लगे थे । सर्वे इन भावनाओं को नहीं पकड़ता जो बिना किसी की मर्जी के अपने आप उमड़ रही थीं। दिल्ली से दूर चंद लड़के नथिंग गॉना चेंज माय लव फार यू..के गाने पर मदहोश हुए जा रहे थे। सर्वे कहां पकड़ता है ऐसे उतार चढ़ावों को। वो तो सवाल करता है। उम्र पूछता है। फैसला पूछता है। फैसले के पहले के चोरी छुपे सजायी गई कल्पनाओं को नहीं पकड़ता । हमारा समाज सिर्फ नतीजे में नहीं बदलता । वह अपने दोहरेपन में भी बदलता है। आप रात को सपने में किसी के साथ सोते हैं। दिन में मां बाप की मर्जी पर चलने का एलान करते हैं। सर्वे बकवास है।
कविता
तुम जो छुरी चलाते हो। हमारी पीठ झुक जाती है।
हम जो उफ करते हैं । तुम्हारी छुरी पार हो जाती है।
रिश्तों का शायर है वो। रिश्ते तो कायर हैं।
मुनव्वर से पूछो । पीठ पर कोई रिश्ता रहता है ?
अक्सर भरोसे वाला ही क्यों भोंकता रहता है
रवीश कुमार
हम जो उफ करते हैं । तुम्हारी छुरी पार हो जाती है।
रिश्तों का शायर है वो। रिश्ते तो कायर हैं।
मुनव्वर से पूछो । पीठ पर कोई रिश्ता रहता है ?
अक्सर भरोसे वाला ही क्यों भोंकता रहता है
रवीश कुमार
कस्बों और शहरों का रोमांस
रवीश कुमार
कस्बों को देखने समझने की परंपरा साहित्य से ज़्यादा विकसित हुई। हम अक्सर इन जगहों की बातें करते हुए रोमांटिक हो जाते हैं। किसी गली के नुक्कड़ पर पान की दुकान पर जमा होने वाले चार पांच बेकार किस्म के लोगों के साथ हुई चर्चाओं को मौज मस्ती का नाम देने लगते हैं। किसी जीप में लदे पटे लोगों के बीच दबे हुए सफर करने का लुत्फ बयां करने लगते हैं। हर बेकार आदमी किरदार बन जाता है। कस्बों और छोटे शहरों का रोमांस शुरु हो जाता है। मुझे लगता है अब इस नज़रिये पर बहस होनी चाहिए। क्या वाकई छोटे शहरों और कस्बों में सब अच्छा ही होता है। मुगलों ने सराय बनाये, तो अंग्रेज़ो ने ब्लाक या मुफस्सिल टाउन। ये जगह शहरीकरण के परिवार में बड़े शहरों के छोटे भाई की तरह पहचाने जाने लगे। हमने छोटे कस्बों को पुचकारना शुरु कर दिया। सुविधाएं हड़पता रहा बड़ा भाई यानी बड़े शहर और पुचकार मिलती रही छोटे भाई यानी कस्बों को। ये ठगे गये बेवकूफ किस्म की जगह से ज़्यादा नहीं। इसीलिए बड़े शहर के लोग कस्बों के लोगों को बेवकूफ समझते हैं। उन्हें एक तरह से सेकेंड हैंड माल का थर्ड हैंड उपभोक्ता समझते हैं । साहित्य न होता तो कस्बों की बात ही नहीं होती । मगर समस्या वही कि इतना रोमांटिक कर दिया गया कि कस्बे तमाम तरह की बुराइयों से दूर स्वर्ग जाने के रास्ते में हाल्ट की तरह लगते हैं। कस्बों के लोग सच्चे होते हैं। उनमें छल नहीं होता। कस्बे के दोस्तों की क्या बात। दुकानदारों की क्या बात। हर माल उधार देते हैं। रोमांस की भी कोई हद होती है।
मुझे लगता है कस्बे फ्राड किस्म की शहरी अवधारणाओं की देन है, जो कलेक्टर के अपने ज़िला मुख्यालय से किसी गांव में कर वसूली के लिए जाने के रास्ते में पड़ने वाली जगह से ज़्यादा कुछ नहीं हैं। यहां सुविधा इतनी ही होती है कि गांव के किसी मरीज़ को बैलगाड़ी पर लाद कर यहां आइए तो ज़िले तक जाने की बस मिल जाती है । कस्बों के स्कूलों में पढ़ाने वाले मास्टर थर्ड क्लास के होते हैं। वो सिर्फ इसलिए मशहूर होते हैं कि इन बेवकूफ मास्टरों से पढ़ कर निकली कई पीढ़ियां स्कूल के आस पास या तो बेरोज़गार होकर भटकती रहती है या स्वरोज़गार पाकर मिठाई बेच रही होती है। ज़ाहिर है जब मास्टर और चेले एक ही जगह पर ठहरे पानी की तरह रहेंगे तो लोग याद ही करेंगे। हम इन सब चीज़ों के रोमांस में कभी नहीं देखते कि मास्टर कैसा है। बस उसे एक किरदार बना देते हैं। जिसे खारिज कर दिया जाना चाहिए था वो राग दरबारी में जगह पाकर अमर हो जाता है। तो बात यही है कि दिल्ली से निकली विकास की गाड़ी कई पंचवर्षीय योजनाओं के बीत जाने के बाद भी कस्बों तक नहीं पहुंचती। कस्बे बूथ लुटेरों, घटिया किस्म के नेताओं, चोर ठेकेदारों के सामाजिक अड्डे भर हैं। हमें गर्व नहीं करना चाहिए। बल्कि थूक देना चाहिए। क्या है वहां। ताज़ा हवा और मिट्टी की महक। ये क्या होती है। क्या दिल्ली के लोग मर गये हैं। मिट्टी की महक का क्या करना है। मुझे ये सब बकवास लगता है। सड़कें टूटी हैं। लड़कियों का कोई जीवन नहीं। बच्चों को पता नहीं कि दुनिया कहां जा रही है। और हद तो तब हो जाती है जब आजकल इन गलीज़ जगहों से निकला कोई लड़का इंडियन टीम में पहुंच जाता है । हम गाने लगते हैं छोटे शहर के कैफ, रैना इंडियन टीम में आ गये है। तो क्या कैफ और रैना के पहले छोटे शहर और कस्बे इंडिया में नहीं थे। एक पहचान भी नहीं है इन जगहों के पास। मैं जानता हूं कि मैं कस्बों को गरिया रहा हूं। मुझे लगता है ठीक कर रहा हूं। जहां कुछ नहीं। सामंतवाद पलता है। आज़ादी इतनी कि आप बिना काम के आवारा की तरह घूमते रहे और उसे साहित्य में बताते रहे कि मस्ती के दिन दिल्ली में कहां हैं। कोई बात हुई क्या।
मुझे लगता है कि कस्बों को लेकर रोमांस बंद होना चाहिए। उन्हें हर चीज़ से पीछे छूट गयी बैलगाड़ी की तरह देखा जाना चाहिए। जहां के स्कूलों का न तो कोई स्तर है न डाक्टरों का, न तथाकथित बड़े लोगों का। सारी योजनाओं को खा पीकर छुप जाने की जगह है कस्बा। भ्रष्टाचारी नेताओं की जन्मभूमि है। मैं यह नहीं कह रहा कि महानगरों में ये सब नहीं है। है भई। लेकिन हम गुणगान क्यों करते हैं। और गुणगान का पैमाना क्यों नहीं बनाते। कब तक चलेगा कि मैं छोटे शहर से आया हूं और अब ये करने लगा हूं। दुनिया मेरी उपलब्धि को दस प्वाइंट अलग से दे। क्यों। क्योंकि मैं छोटे शहर से आया हूं। कस्बों को रहने दो। उन्हें पहले लड़कर बड़ा बनने दो। फिर कस्बों को बात करने दो। कस्बों से रोमांस बंद करो।
कस्बों को देखने समझने की परंपरा साहित्य से ज़्यादा विकसित हुई। हम अक्सर इन जगहों की बातें करते हुए रोमांटिक हो जाते हैं। किसी गली के नुक्कड़ पर पान की दुकान पर जमा होने वाले चार पांच बेकार किस्म के लोगों के साथ हुई चर्चाओं को मौज मस्ती का नाम देने लगते हैं। किसी जीप में लदे पटे लोगों के बीच दबे हुए सफर करने का लुत्फ बयां करने लगते हैं। हर बेकार आदमी किरदार बन जाता है। कस्बों और छोटे शहरों का रोमांस शुरु हो जाता है। मुझे लगता है अब इस नज़रिये पर बहस होनी चाहिए। क्या वाकई छोटे शहरों और कस्बों में सब अच्छा ही होता है। मुगलों ने सराय बनाये, तो अंग्रेज़ो ने ब्लाक या मुफस्सिल टाउन। ये जगह शहरीकरण के परिवार में बड़े शहरों के छोटे भाई की तरह पहचाने जाने लगे। हमने छोटे कस्बों को पुचकारना शुरु कर दिया। सुविधाएं हड़पता रहा बड़ा भाई यानी बड़े शहर और पुचकार मिलती रही छोटे भाई यानी कस्बों को। ये ठगे गये बेवकूफ किस्म की जगह से ज़्यादा नहीं। इसीलिए बड़े शहर के लोग कस्बों के लोगों को बेवकूफ समझते हैं। उन्हें एक तरह से सेकेंड हैंड माल का थर्ड हैंड उपभोक्ता समझते हैं । साहित्य न होता तो कस्बों की बात ही नहीं होती । मगर समस्या वही कि इतना रोमांटिक कर दिया गया कि कस्बे तमाम तरह की बुराइयों से दूर स्वर्ग जाने के रास्ते में हाल्ट की तरह लगते हैं। कस्बों के लोग सच्चे होते हैं। उनमें छल नहीं होता। कस्बे के दोस्तों की क्या बात। दुकानदारों की क्या बात। हर माल उधार देते हैं। रोमांस की भी कोई हद होती है।
मुझे लगता है कस्बे फ्राड किस्म की शहरी अवधारणाओं की देन है, जो कलेक्टर के अपने ज़िला मुख्यालय से किसी गांव में कर वसूली के लिए जाने के रास्ते में पड़ने वाली जगह से ज़्यादा कुछ नहीं हैं। यहां सुविधा इतनी ही होती है कि गांव के किसी मरीज़ को बैलगाड़ी पर लाद कर यहां आइए तो ज़िले तक जाने की बस मिल जाती है । कस्बों के स्कूलों में पढ़ाने वाले मास्टर थर्ड क्लास के होते हैं। वो सिर्फ इसलिए मशहूर होते हैं कि इन बेवकूफ मास्टरों से पढ़ कर निकली कई पीढ़ियां स्कूल के आस पास या तो बेरोज़गार होकर भटकती रहती है या स्वरोज़गार पाकर मिठाई बेच रही होती है। ज़ाहिर है जब मास्टर और चेले एक ही जगह पर ठहरे पानी की तरह रहेंगे तो लोग याद ही करेंगे। हम इन सब चीज़ों के रोमांस में कभी नहीं देखते कि मास्टर कैसा है। बस उसे एक किरदार बना देते हैं। जिसे खारिज कर दिया जाना चाहिए था वो राग दरबारी में जगह पाकर अमर हो जाता है। तो बात यही है कि दिल्ली से निकली विकास की गाड़ी कई पंचवर्षीय योजनाओं के बीत जाने के बाद भी कस्बों तक नहीं पहुंचती। कस्बे बूथ लुटेरों, घटिया किस्म के नेताओं, चोर ठेकेदारों के सामाजिक अड्डे भर हैं। हमें गर्व नहीं करना चाहिए। बल्कि थूक देना चाहिए। क्या है वहां। ताज़ा हवा और मिट्टी की महक। ये क्या होती है। क्या दिल्ली के लोग मर गये हैं। मिट्टी की महक का क्या करना है। मुझे ये सब बकवास लगता है। सड़कें टूटी हैं। लड़कियों का कोई जीवन नहीं। बच्चों को पता नहीं कि दुनिया कहां जा रही है। और हद तो तब हो जाती है जब आजकल इन गलीज़ जगहों से निकला कोई लड़का इंडियन टीम में पहुंच जाता है । हम गाने लगते हैं छोटे शहर के कैफ, रैना इंडियन टीम में आ गये है। तो क्या कैफ और रैना के पहले छोटे शहर और कस्बे इंडिया में नहीं थे। एक पहचान भी नहीं है इन जगहों के पास। मैं जानता हूं कि मैं कस्बों को गरिया रहा हूं। मुझे लगता है ठीक कर रहा हूं। जहां कुछ नहीं। सामंतवाद पलता है। आज़ादी इतनी कि आप बिना काम के आवारा की तरह घूमते रहे और उसे साहित्य में बताते रहे कि मस्ती के दिन दिल्ली में कहां हैं। कोई बात हुई क्या।
मुझे लगता है कि कस्बों को लेकर रोमांस बंद होना चाहिए। उन्हें हर चीज़ से पीछे छूट गयी बैलगाड़ी की तरह देखा जाना चाहिए। जहां के स्कूलों का न तो कोई स्तर है न डाक्टरों का, न तथाकथित बड़े लोगों का। सारी योजनाओं को खा पीकर छुप जाने की जगह है कस्बा। भ्रष्टाचारी नेताओं की जन्मभूमि है। मैं यह नहीं कह रहा कि महानगरों में ये सब नहीं है। है भई। लेकिन हम गुणगान क्यों करते हैं। और गुणगान का पैमाना क्यों नहीं बनाते। कब तक चलेगा कि मैं छोटे शहर से आया हूं और अब ये करने लगा हूं। दुनिया मेरी उपलब्धि को दस प्वाइंट अलग से दे। क्यों। क्योंकि मैं छोटे शहर से आया हूं। कस्बों को रहने दो। उन्हें पहले लड़कर बड़ा बनने दो। फिर कस्बों को बात करने दो। कस्बों से रोमांस बंद करो।
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