दरकता पंजाब

पंजाब एक अजीब संकट से गुज़र रहा है । इस बार वो पंजाब नहीं दिखा जिसके एक रूप को देखने का आदी रहा हूँ । राज्य में प्रवेश करते ही उसकी आबोहवा में एक किस्म का ठहराव दिखता है । सड़कों की हालत बुरी है । इतनी बुरी कि वापस ही आ गया । बीच बीच में दो चार किलोमीटर अच्छी सड़क मिलती थी तो लगता था कि चलो गड्ढे से निकल आए । लेकिन अचानक टूटा फूटा पैच आ जाता था । शहरों के भीतर भी सड़कों का हाल बुरा है । पंजाब के खेत पहले से ही संकटग्रस्त हैं । अब शहर भी हो गए हैं । निगम संस्थाएँ फ़ेल हो गईं है । ज़्यादातर लोग यही कहते मिले कि बारिश में घुटने तक पानी भर जाता है । शहरों के पाॅश इलाक़ों की सड़कें भी टूटी पड़ी हैं ।

कई बार लगा कि दस साल पहले के बिहार की सड़कों पर चल रहा हूँ । स्थानीय अख़बार भ्रष्टाचार की ख़बरों से भरे हैं । कहीं तीस करोड़ तो कहीं पचास करोड़ की हिरोइन के पकड़े जाने की ख़बरें हैं । भयंकर तरीके से राजनीतिक दल, पुलिस और स्मगलरों के नेक्सस से नशे का दौर चल रहा है । राशन की छोटी सी दुकान पर कोई चौदह पंद्रह साल के बच्चे को अमूल दूध की छोटी बोतल में शराब पीते देखा तो यक़ीं नहीं हुआ । लगा कि सेब का जूस पी रहा है । शराब थी । जिसके क़रीब माइक लेकर जाता था शराब की दुर्गंध आती थी । औरतों में इसे लेकर बहुत ग़ुस्सा है । कोई राजनीतिक दल औरतों के इस ग़ुस्से को आवाज़ नहीं दे रहा है ।

पंजाब ही वो राज्य है जहाँ अकाली बीजेपी बैकफ़ुट पर नज़र आई । यूपी बिहार में बहुत कम मिलते हैं यह कहने वाले कि वे कांग्रेस को वोट देंगे लेकिन पंजाब में ठीक उल्टा है । यहाँ कांग्रेस बेहतर कर गई तो हैरानी नहीं होनी चाहिए । देश के अन्य राज्यों की तुलना में यहाँ कांग्रेस चुनाव लड़ती दिख रही है । 

अमृतसर में कैप्टन अमरिंदर सिंह अरुण जेटली के बराबर बयान पैदा कर रहे हैं । चुनाव में देर है मगर जेटली की स्थिति कोई ख़ास मज़बूत नहीं लगी । बीजेपी ने आपरेशन ब्लू स्टार का मुद्दा उछाल कर ग़लती कर दी है । दिल्ली में बीजेपी कहती रही है कि कांग्रेस दंगों की बात कर विकास के सवालों का सामना नहीं करना चाहती । गुजरात माडल को वो दंगों की बात से कम करना चाहती है । पंजाब में बीजेपी क्यों आपरेशन ब्लू स्टार उभार रही है । वो बादल सरकार के पंजाब माडल की बात क्यों नहीं करती । 

कई पत्रकार अकाल तख़्त या एस जी पी सी के हवाले से प्रकाशित उस श्वेत पत्र को ढूँढ रहे हैं जिसके लेखक इनदिनों अज्ञातवास में है । अंग्रेज़ी में प्रकाशित इस किताब में बताया गया है कि कैसे बीजेपी के विधायक और नेता भी कथित रूप से सिख विरोधी गतिविधियों में शामिल थे । अमृतसर रेलवे स्टेशन के बाहर स्वर्ण मंदिर की अनुकृति को ध्वस्त कर दिया था । चूँकि किताब हाथ नहीं लग सकी इसलिए उसके बारे में पूरी बात नहीं लिखूँगा । 

यहाँ कांग्रेस को बेहतर स्थिति में एक और चीज़ पहुँचा रही है । बड़ी संख्या में दलितों का बसपा से मोहभंग हुआ है । ये दलित चाहते हैं कि बसपा कांग्रेस से समझौता कर पंजाब में भी यूपी की तरह वर्चस्व की शुरूआत करे । देश में सबसे ज़्यादा दलित पंजाब में हैं । अकाली दल ने पिछले लोक सभा में बीएसपी के हारे कई उम्मीदवारों को अपने में शामिल कर लिया है । कुछ को टिकट दिया है तो कुछ को पद । अकाली और कांग्रेस में से जो इस दलित वोट को अपने पाले में ले जायेगा पंजाब उसका होगा । फ़िलहाल मोहभंग वाले दलितों का बड़ा हिस्सा इस बार कांग्रेस की तरफ़ जाता दिख रहा है । पंजाब विधानसभा में तीस से ज़्यादा़ दलित विधायक हैं । इसलिए चुनावी रणनीति का बड़ा हिस्सा दलित वोट बैंक को बाँटने और लुभाने में आज़माया जा रहा है ।

कुल मिलाकर अकाली बीजेपी युति के प्रति लोगों की मौन नाराज़गी है । प्रकाश सिंह बादल भी ये चुनाव कथित मोदी लहर के सहारे पार करना चाहते है । इसलिए अपने हर पोस्टर पर मोदी का फोटो लगाया है । रेडियो पर मिनट मिनट में आने वाले  हर विज्ञापन में प्रकाश सिंह बादल मोदी के लिए अपील कर रहे हैं । उनमें मोदी की आवाज़ है । अगर यूपी बिहार की तरह पंजाब में मोदी लहर है तो प्रकाश सिंह बादल और बीजेपी की नैय्या पार हो जाएगी वर्ना नहीं और इसका सबसे बड़ा प्रमाण होगा अमृतसर । इस सीट पर जिस आक्रामकता से कैप्टन अमरिंदर सिंह जेटली से लड़ रहे हैं उसे अन्य राज्यों के हताश कांग्रेसियों को जाकर देखना और सीखना चाहिए । दोनों के बीच ज़ोरदार बयानी मुक़ाबला हो रहा है । जेटली ने अकाली बीजेपी ने अपनी पूरी ताक़त झोंक दी है तो कैप्टन ने बेज़ान पड़े कांग्रेसियों में जान और जोश फूँक दी है । सबको एक कर दिया है । अमृतसर में जो हारेगा वो पंजाब हार जाएगा और जो जीत गया वो पंजाब जीतेगा । दोनों ही स्थिति में पंजाब की हार है क्योंकि दोनों के मुद्दों में पंजाब नहीं है । पंजाब दरक रहा है । इसकी चिंता न पंजाब को है न उसके राजनीतिक दलों को ।

वर्दी की विवशता

काफी चुस्त लगा मुझे । कार से उतरते ही उसके कंधे पर हाथ रख दिया । काफी तगड़े मालूम होते हैं । हल्का मुस्कुराया । मैंने कहा कि वक्त कब मिलता है आप लोगों को । बस सर ऐसे ही है । इस छोटी सी अनौपचारिकता ने हमदोनों को इतना क़रीब ला दिया कि वो अपनी ड्यूटी छोड़ कर कुछ बताने के लिए बेचैन हो गया । उसके पास कहने के लिए इतना ही वक्त था जब तलक उसके साहब फ़ोन पर क्रिसी से बतिया रहे थे । 

साहब, मैं वर्दी में खड़ा रह गया । मेरी पुलिस और राजनीतिक दल के लोग मिलकर मेरे भाई को मारते रहे । बहुत बुरी हालत कर दी । विपक्ष के लोग ? नहीं साहब, रूलींग पार्टी वाले । बहुत मारा । उसने कारण भी बताया मगर ध्यान से सुन नहीं सका । कहा कि साथ में तस्वीर भी है सर । मैं लेकर चलता हूँ । साहब के कारण कई पत्रकार आते हैं तो दिखाता हूँ मगर कोई छापता नहीं । मार कर हाथ पैर तोड़ डाले सब । वो कार की तरफ़ बढ़ा भी लेकिन साहब को आता देख मैंने सतर्क कर दिया । वह सहम गया । देख लिया जाता तो पता नहीं साहब उसके साथ क्या करता । 

मैं अपनी कार में बैठ कर निकल गया । रास्ते में उसका चेहरा याद आता रहा । पंजाब पुलिस का सिपाही । क़द काठी से इतना मज़बूत था कि दो चार को पटक तो सकता ही था । ऊपर से वर्दी भी थी । धीरे धीरे उसके चेहरे की विवशता और कंपकपाहट उभरने लगी । वो एक डरा सहमा सिपाही था । सिस्टम का मामूली पुर्ज़ा । राजनीतिक दल के लोगों के सामने खड़े होकर अपने भाई को पीटते देखने की विवशता को आप नहीं समझ सकते ।  वर्दी की विवशता कि वो सत्ता की ताक़त के आगे कितना मामूली महसूस कर रहा होगा । 

पंजाब राज्य पुलिस का वो सिपाही है । दिल्ली आकर किसी ने व्हाट्स अप पर वीडियो भेजा है । टीचर प्रदर्शन कर रहे हैं और राज्य के शिक्षा मंत्री और उनके गुंडे प्रदर्शनकारियों को पटक कर मार रहे हैं । भेजने वाले ने दावा किया है कि शिक्षा मंत्री हैं । मैं अपने स्तर पर सत्यापित नहीं कर सका । बस याद दिलाने को लिए लिख रहा हूँ कि प्रचार से सत्ता का चरित्र नहीं बदलता । 

चिट्टी आई है

  1. Ravish Sir kabhi Moka mile to meri kahani bhi padh dena TV pe, is jahreele chunaw main jaroori hai..


    अंजाना डर

    मैं एक हिन्दू हूँ और ये मेरी सच्ची कहानी है 
    मैं पैदा हुआ, मुझे नहीं पता था कि हिन्दू क्या है और मुस्लमान क्या है
    जब थोडा बड़ा हुआ तो स्कूल मैं पढ़ाया गया, हिन्दू मुस्लिम सिख ईसाई , आपस मैं सब भाई भाई. थोडा दिम्माग मैं आया कि अछा हिन्दू मुस्लिम सिख ईसाई कुछ होते हैं.
    थोडा और बड़ा हुआ, निबंद "एस्से" लिखा, कुछ लिखा हिन्दू मुस्लमान के बारे मैं
    कभी धरातल पे हमे अवगत नहीं कराया गया कि हिन्दू क्या है और मुस्लमान क्या है. इतना पता चल गया था कि हम मंदिर जाते है मुस्लमान मस्जिद जाते हैं.
    धीरे धीरे हमे ये अहसास दिलाया गया , किसी एक ने नहीं समाज ने (जाने अनजाने), कि मुस्लिम कोई हौवा है, मंदिर मैं आया तो पता नहीं क्या हो जायेगा.
    बाबरी टूटी, हम स्कूल मैं थे , न्यूज़ देखि, जयादा समझ नहीं आया, हमे जाने अनजाने बताया गया कि अच्छा हुआ हमने हिंदुओं कि जमीन वापस ले ली.
    कुल मिला के धीरे धीरे मेरे मन मैं एक अंजना से दूरी बना दी गयी मुस्लिम्स के लिए, और मैंने जयादा कभी सोचा नहीं. फिल्मे बनी थी नाना पटेगर वाली लेकिन समझ नहीं आती थी उस समय
    क्योंकि आप हिन्दू मेजोरिटी एरिया मैं रहते हो, तो अधिकतर दोस्त हिन्दू होते हैं, कभी कोई न्यूज़ मिलेगी दोस्त से मुस्लिम कि तो हेट स्पीच्च कि मिलेगे आपको. दूरियां और बढ़ेंगी 
    मैं इंग्लैंड आया जॉब मैं ट्रान्सफर होकर, काफी मुस्लिम्स से रूबरू हुआ , मेरे ऑफिस मैं "आई आई टी" का एक बंदा था " आईटी हेड Ekh….. Bari ... मैं उससे मिला , उसके साथ खाना खाया, मौज मस्त भी कि, धीरे धीरे और काफी लोगो से मिला. पता चला कि जो अंजाना डर दिल मैं था वो झूठा था
    अब ३४ साल का हुआ तो समझ आया कि पॉलिटिक्स का किया धरा है, ये फ़िल्म मैं ही नहीं असलियत मैं है.
    हिन्दू मुस्लिम आजादी से पहले एक थे, साथ मिलके लड़े थे, क्या कोई कारन है कि हिन्दू मुस्लिम आपस मैं बैर करें? अंग्रेज़ों कि लगायी आग है जिसमें आज राजनेतिक पार्टिया घी डाल रही है. 
    मेरा निवेदन है ऐसे घटिया पॉलिटिक्स को जड़ से उखाड़ के फेंक दो, दिल के अनजाने डर को निकाल दो.
    ये मेरी सची कहानी है और मैं एक आम आदमी हूँ, गवार नहीं हूँ, अनपढ़ नहीं हूँ, बेरोजगार भी नहीं हूँ, कुछ BJP वाले बोलते हैं ऐसा इसलिए पहले ही सफाई दे रहा हूँ .

    मेरा नाम रविंदर दहिया है

    ( दिलबाग चायवाला लेख में यह टिप्पणी देखी तो सोचा आपके नज़र कर दूँ )

आज कुछ तूफ़ानी करते हैं

लुधियाना की एक गली में तूफ़ानी साहब छोले कुल्चा का ठेला लिये जा रहे थे । साफ़ सफ़ाई देखकर दिल ख़ुश हो गया । पहले नज़र पड़ी ठेले पर लिखे 'भटूरा शायरी' पर । बताया कि पेंटर ने अपनी पसंद का लिख दिया है । मैं शायर नहीं हूँ । 


दूसरी बात जो मुझे तूफ़ानी से सीखने लायक लगी वो है अपने काम को गंभीरता और संपूर्णता से करना । कहा कि मुझे गंदे ठेले पसंद नहीं । दिन भर साफ़ करता रहता हूँ । खाने में भी स्टैंडर्ड का सामान इस्तमाल करता हूँ । ठेले पर पीने के लिए पानी का एक जार भी कमाल तरीके से लगा देखा तो उसकी भी तस्वीर लो ली । यह जार भी साफ़ सुथरा था । कहानी का सार यह है कि अपने काम और रोज़गार को मोहब्बत से करना चाहिए ।

दास्तान ए आम आदमी

लुधियाना के बलराज गेट के पास अब्दुल्ला नगर बस्ती है । चाय पीने गया था । साइकिल पर जूता पालिश करने का सामान देखा तो तस्वीर लेने लगा । आमतौर पर जूता पालिश करने वाले किसी कोने में एक जगह पर बैठे दिखते हैं । लेकिन इस साइकिल को चलती फिरती शू पालिश दुकान में बदल दिया गया है । साइकिल के आगे चप्पलों के रंगीन फ़ीते लगे हैं । हम भले अब फ़ीते टूट जाने पर चप्पलों की मरम्मत नहीं कराते लेकिन इसे देख कर ध्यान आया कि कितना बड़ा तबक़ा बचा हुआ है जो चप्पलों को जतन से पहनता है । वैसे आदर्श तरीक़ा तो यही है कि आप किसी वस्तु का महत्तम उपभोग करें । 


जब इन तस्वीरों को उतार रहा था तब मुकेश भागा भागा आया । डर गया । ऐसी तस्वीरें या सवालों से बस्ती के लोग डर जाते हैं । उन्हें लगता है कि कहीं सरकार विस्थापन या पकड़ने की तैयारी तो नहीं कर रही है । जब बताया कि पत्रकार हूँ तो मुकेश खुल कर बातें करने लगा । कहा कि एक जगह बैठकर कमाई नहीं हो पाती है । इसलिए दिन भर में पचीस किलोमीटर साइकिल चलाता हूँ । दिन में सौ या डेढ़ सौ रुपये कमा लेता हूँ । मैंने कहा कि इससे पुलिस वाले वसूली नहीं कर पाते होंगे तो कहा कि उसका दूसरा तरीक़ा निकाल लिया है । रोज़ एक या दो पुलिस वाले मुफ़्त की पालिश कराते हैं । मुकेश जैसे कितने लोग लुधियाना में यह काम करते हैं । एक अनुमान लगाया तो लगा कि कहीं पूरे शहर की पुलिस के जूते ऐसी हरामखोरियों से न चमकते हों ।


फिर बात राजनीति की होने लगी । कहा कि कुछ बदलता तो नहीं है साहब । अब देखिये हमारी बस्ती में एक ने एक साथ तीन जवान बेटियों की शादी की । पैसे ही पूरे नहीं हुए । बस्ती के कई लोगों ने दो दो हज़ार रुपये तक दिये । फिर भी पैसे कम पड़ गए । सरकार फ़्री में जो देती है उसका कुछ तो फ़ायदा होता है मगर हालात नहीं बदलते । सरकार को हमें किश्तों पर पैसे देने चाहिए ताकि हम कुछ कर सकें । 

दिलबाग चायवाला

अमृतसर की गलियों में दिलबाग सिंह रहते हैं । गली की दीवार से एक आदमी के बैठने भर की पटरी लगाकर चाय बेच रहे हैं । 12 साल की उम्र से चाय बेचते बेचते 67 के हो गए हैं । दिलबाग सिंह के लिए अमृतसर ही दुनिया है । इस शहर के भी कई हिस्सों में नहीं गए हैं । कई बार पूछा तो याद करके बता सके कि एक बार शादी में जालंधर, चंडीगढ़ और वैष्णों देवी गए हैं । इसके अलावा उनकी इसी पटरी पर सुबह होती है और शाम होती है ।


दिलबाग सिंह के पास जानकारी का एकमात्र ज़रिया अख़बार या टीवी है । अपने देखे या भोगे हुए यथार्थ की एक सीमा है । पूछने पर कि क्या बदला है छाती नहीं पीटने लगे । क़ीमतों के सहारे बदलाव बताने लगे कि पहले ताँबा तीस रुपये किलो था अब हज़ार रुपये हो गया है । बच्चे पढ़ लिख गए और अपना करते हैं ।एक मकान बनाया है । उनकी दुकान पर विशालकाय ताम्बे की केतली देखकर पूछा कि ये कब का है । तीस साल पुराना है जनाब । बीस लीटर पानी आता है । जो शख़्स तीस साल केतली संभाल कर रख सकता है उसे मौक़ा मिलता तो न जाने क्या क्या करता । 

अमृतसर की इन गलियों में अल्युमुनियम की ऐसी केतलियां काफी दिखीं । बड़ी बड़ी । हर शहर में बर्तनों की अपनी शैली होती है । उनका अपना सिलसिला बन जाता है । एक और दुकान पर केतली दिखी । तीस साल पुरानी । दिलबाग जैसे चाय वाले की तमाम दास्तानों पर एक चाय वाले का क़ब्ज़ा हो गया है । अरबों रुपये के विज्ञापन से बता रहा है कि वो चाय वाला है । अगर चाय वालों के अनुभवों को हम देखें तो सिर्फ दुख भरी दास्तान नहीं मिलेगी जिसे भुना कर या बता कर कोई देश का नेतृत्व मांग रहा है । 

अमृतसर की गलियों में सोने चाँदी की खूब दुकानें हैं । यहाँ भी करोलबाग की तरह बंगाल से सोने के कारीगर आकर रहते हैं । घोर पंजाबियत से भरी इस जगह में अब क़रीब पचीस हज़ार बंगाली रहते हैं । बीस साल पहले जब सोने का आयात खुला था तब खूब सोना आया । इसके लिए सोनार जाति के कारीगर कम पड़ गए । बंगाल से कई जातियों के कारीगर इस पेशे में आए । बंगाली ब्राह्मण भी खुद को सोनार कहते हैं । स्वर्ण मंदिर के सामने बांग्ला सुन सकते हैं । हमारे शहर बदल रहे हैं । उनकी राजनीतिक ज़रूरतें भी बदलेंगी ।

आपका प्यार आपका इसरार

तभी कहूँ कि सबके फोन आ रहे हैं अरोड़ा साहब का फोन नहीं आ रहा । रवीश की रिपोर्ट के दौरान उनका फ़ोन खूब आता था । आज अश्क़ साहब का फ़ोन आया तो कहने लगे कि पंजाब आये और बताया नहीं । माफ़ी माँगते हुए कहने लगा कि सर वक्त नहीं होता । पर हमारा घर तो हाईवे पर है । गोविंदगढ़ के पास । नाश्ता या लंच पर आ जाते । 

इन आवाज़ों से मुलाक़ात नहीं मगर पहचानता हूँ । अश्क़ साहब ने कहा कि आपके अरोड़ा साहब इस दुनिया में नहीं है । जिन दर्शकों ने मेरी हर बार हौसला अफ़ज़ाई की उनमें अरोड़ा साहब भी थे । मुलाक़ात तो नहीं थी मगर नाता तो बन ही गया था । अच्छा तो नहीं लगा । काश एक बार मुलाक़ात तो होती । मुझे देखने वाला चुपचाप चला गया ।

मैंने जितना अपने दर्शकों को नहीं दिया उससे कहीं ज़्यादा दर्शकों ने दिया । पवन अरोड़ा साहब पर तो चिल्लाना पड़ा कि नहीं आप कुछ लेकर नहीं आएँगे । तीन घंटे में एक घंटे की डाक्यूमेंट्री शूट करते वक्त औपचारिकता नहीं निभा सकता । मगर अरोड़ा साहब ने पचास बार फ़ोन किया । कहने लगे कि बच्चों के लिए साइकिल ला रहा हूँ । बहुत मुश्किल से माने । फैक्ट्री छोड़ कर आ ही गए । शहर के बाहर पकड़ लिया । खूब सारी मिठाई और बहू के लिए शाल । हम टीवी के ज़रिये कितने पिताओं, माताओं, बहनों और महबूबाओं को हासिल कर लेते हैं पता नहीं होता । शाल ले आए । कोई मुलाक़ात नहीं । बस कार्यक्रम के ज़रिये वर्षों से बात करता रहा हूँ । आज पहली बार मुलाक़ात हुई । मुझे इन चीज़ों को देने के लिए उन्होंने कितनी मेहनत की बता नहीं सकता । 

चंडीगढ़ में बीजेपी दफ़्तर में पूर्व भाजपा अध्यक्ष मिल गईं । सब पूछा । कुछ खा लो । चाय पी लो । वक्त कम रहता है तो मना करता रहता हूँ । बस हाथ पकड़ कर कह दिया कि तुम छोटे भाई से लगते हो । मैं बड़ी बहन हूँ । उनकी आँखें भर आईं । उनका दिल हल्का करने के लिए कह दिया कि अरे मैं तो आपकी पार्टी के नेताओं को छोड़ता भी नहीं । फिर भी नहीं हँसी । कह दिया कि तुम अपना काम ठीक करते हो । कोई शिकायत नहीं । बस बिना खाये जाओगे तो बुरा लगेगा । क्या करता । हाँ कह दिया । बीजेपी कार्यकर्ताओं के लिए मँगाये गए भोजन से मेरे लिए ग्लास में रायता भर कर आ गया । शुक्रिया दीदी । पता नहीं कभी मिलूँगा या नहीं पर अचानक एक दर्शक का कलाई पकड़ कर बहन बन जाना अच्छा तो लगा ही । 

टीवी ने मुझे बहुत दिया । बेशुमार प्यार । भाजपा दफ़्तर के बाहर वो नेपाली ड्राईवर गले लग गया । मेरी गाड़ी आगे बढ़ी तो रोने लगा । कहने लगा कि सोचा था कि एक दिन दिल्ली जाकर मिलूँगा आपसे । पर आप तो यहीं मिल गए । गाड़ी रफ़्तार पकड़ रही थी । उसके हाथ ढीले ही नहीं पड़ रहे थे । कार रोक कर उतरा और उसे गले लगा लिया । मुझसे नहीं सम्भलेगा ये भरोसा । मुझे तोड़ना ही पड़ेगा । 

काश अरोड़ा साहब से भी ऐसे ही मुलाक़ात हो जाती । चोपड़ा साहब की मिठाई खा ली है । शाल भी लेकर जा रहा हूँ । तलवार साहब की बहू ने खाना भी बना दिया था । बस उसी दिन शूट कर एक घंटे का शो बनाना आसान नहीं होता । इसलिए खाना छूट गया । वो रिश्ता बनते बनते रह गया । जल्दी से पीने के लिए कुछ ले आईं । पहली मुलाक़ात ऐसी कि जैसे वर्षों से मिलते हों । घर के हर कोने में ऐसे चला गया जैसे यहाँ रोज़ आता जाता रहा हूँ । किसी ने पर्दा गिराया न कपड़ा हटाया । हर दरवाज़े का रास्ता बताते चले गए सब । अमृतसर की गलियों में कितनों ने कहा कि चाय पीते जाओ । हम रोज़ देखते हैं । जब मजबूरी समझाई तो कहने लगे कि हाँ हम समझते हैं । एक दुकान से भाग कर पानी ही ले आए । पी लिया । 

मैं इस बेपनाह मोहब्बत का सिर्फ शुक्रगुज़ार नहीं हो सकता । आप सब मेरी ज़िंदगी का हिस्सा हैं । मैं आपका हिस्सा हूँ । जो मेरा है वो आपका दिया है । प्यार के बदले प्यार होता नहीं । वो बस होता है । आपके प्यार पर मैं कौन होता हूँ कुछ बोलने वाला । क्या मैं त्यागी जी को बोल सकता हूँ कि आपने गुड़ के पैकेट क्यों दिये और दलिया क्यों दिया । क्या मैं गणेश को बोल सकता हूँ कि तुम मेरे लिए पानी की बोतलें ओर बिस्कुट न ख़रीदा करो । मानता ही नहीं है । पार्किंग में कितना कमा लेता होगा पर उसके इस प्यार को ठुकराने वाला मैं कौन होता हूँ । मानता ही नहीं है । बस एक दिन पानी की बोतल सीट पर रखते हुए कह दिया उस दिन शो में मज़ा नहीं आया । कम तैयारी थी । 

सफ़र

पोंटा साहिब से होते हुए वाया हिमाचल प्रदेश चंडीगढ़ का रास्ता मौसम के कारण विहंगम और ख़ूबसूरत हो गया । बारिश और तेज़ हवाओं ने सफ़र को मुश्किल तो कर दिया मगर अपना देश हैरान करता रहा । उसके अनजान रास्ते किसी ख़्वाब से कम नहीं । 








सफ़र

पोंटा साहिब से होते हुए वाया हिमाचल प्रदेश चंडीगढ़ का रास्ता मौसम के कारण विहंगम और ख़ूबसूरत हो गया । बारिश और तेज़ हवाओं ने सफ़र को मुश्किल तो कर दिया मगर अपना देश हैरान करता रहा । उसके अनजान रास्ते किसी ख़्वाब से कम नहीं । 








साड़ियों की तलबगार महिलायें

हमारे मोहल्ले में तीन माॅल हैं । महागुन माॅल में मीना बाज़ार नाम का साड़ी की एक दुकान है । अक्सर सोचता था कि कौन ख़रीदता होगा यहाँ की गोटेदार साड़ियों को । सलमा सितारे से लैस । शनिवार की सुबह देखा कि मोहतरमाओं की क़तार लगी है । दुकान के अंदर भी भीड़ है । इतनी भीड़ है कि लोगों को बाहर रोक दिया गया है । तंगी की दुर्दशा झेल रहा हिन्दुस्तान का यह तबक़ा साड़ियों की दुकान के बाहर तो इंतज़ार कर सकता है मगर मुल्क के लिए साठ साल बहुत लगता है । जैसे हिन्दुस्तान के वजूद का सारा संदर्भ साठ साल हो गया है । 


सुखदेव ढाबा

सोनिपत के पास हाईवे पर यह ढाबा पाया जाता है । कुछ साल पहले चंडीगढ़ हाईवे पर ढाबों में आ रहे बदलाव पर स्पेशल रिपोर्ट बनाते हुए यहाँ आया था । तब इसकी ख़ासियत यह थी कि पंजाब से दिल्ली हवाई अड्डा जाने वाले यात्री यहाँ ठहरते थे। पूरा ढाबा अंतर्राष्ट्रीय उड़ानों के समय और यात्रियों की ज़रूरतों में ढल गया था । कपड़े बदलने के कमरे से लेकर दो चार ठहरने के कमरे थे । दूर से आने वाले यात्रियों के लिए मालिश वाले मिलते थे । बड़ी संख्या में क्वालिस टैक्सियाँ रूका करती थीं । आज यहाँ रूकने वालों की गाड़ियों की शक्लें बदल गई हैं ।
 

पिछले दस साल में हिन्दुस्तान बदला है । इस रास्ते के कई ढाबे प्रतियोगिता से बाहर भी हो गए । कारण एक्सप्रेस वे टाइप हाईवे के बन जाने से पराँठों के केंद्र के रूप में विकसित मुरथल के ढाबे ख़त्म भी हुए । आपको मथुरा और मुरादाबाद के रास्ते में मुरथल के पराठे वाले ढाबे दिखेंगे । सुखदेव ढाबा टिक गया । टिका ही नहीं पूरी तरह से बदल गया ।

अब यहाँ किसी हल्दीराम या बीकानेरवाले की तरह चहल पहल दिखती है । गाड़ियों का अंबार । फ़ाइव स्टार ढाबा है । बाथरूम की सफ़ाई किसी फ़ाइव स्टार की तरह है । हर तरह खाना है और खाने वालों का हुजूम । इतना कि तीन तीन हाल हैं खाने के । एक ख़ास आर्थिक स्केल के बैंड विथ में आने वाले लोग दिखे । जीवन को 'एन्जवाय' करने वाले । यहाँ की चहल पहल को देखकर लगता ही नहीं कि इस देश में कुछ नहीं हुआ है । पराठे और सफ़ेद मक्खन खाने वाले अब नाना प्रकार के व्यंजनों पर पैसे लुटा रहे हैं । फ़ाइव स्टार ढाबा होने के बाद भी चाय पीने का वही स्टाइल है । देग भर भर के चाय बन रही है ।

मनोरंजन भारती अपने बाबा का ढाबा के लिए यहाँ गए थे तो बता रहे थे कि सुखदेव ढाबा बनाने वाले अब भी उसी सादगी से वहाँ नज़र आ जाते हैं । उनका बेटा इंग्लैंड से पढ़कर आया है । सज्जन है और बिज़नेस को दूसरे मुक़ाम पर ले गया है । उन्होंने मनोरंजन को बताया कि हम बस लोगों की मांग और ज़रूरतों के हिसाब से बदलते रहे । उसका असर है यहाँ रूकने वालों की भीड़ । 

ताकि सनद रहे

'अब मीडिया के विशिष्ट लोग भी देश में स्थिर सरकार बनाने की मुहिम में भाजपा की सदस्यता स्वीकार कर रहे हैं- राजनाथ सिंह ( पूर्व कांग्रेसी पत्रकार और पूर्व पत्रकार एम जे अकबर के बीजेपी में शामिल होने पर )

कुछ दिन तो गुज़ारो इटावा में !

तुम मुझे लकड़बग्घा दो मैं तुम्हें शेर दूँगा । इस चुनाव में लकड़बग्घा और सिंह को मतदान का अधिकार होता तो दोनों इस बात पर मतदान करते कि यूपी से आकर राजकोट कैसा लग रहा है और गुजरात से आकर इटावा में कैसा फ़ील हो रहा है । एक सामान्य प्रक्रिया के तहत चिड़ियाघरों और राष्ट्रीय पार्कों के जानवर राज्य बदलते रहते हैं मगर कोई मुख्यमंत्री इन्हें लेकर सियासी बयानबाज़ी नहीं करता । 

बहराइच की रैली में नरेंद्र मोदी ने यूपी सरकार को खींच लिया कि लायन सफ़ारी के लिए शेर मांग रहे हैं काश अमूल का प्लांट माँगा होता । लो कल्लो बात । गूगल मारा तो पिछले साल जुलाई अगस्त के अख़बार इस विवाद से भरे थे कि मोदी शिवराज सिंह को सुप्रीम कोर्ट के कहने पर भी गिरवन के सिंह नहीं दे रहे हैं । ऐसा कह रहे हैं ये गुजरात के गौरव हैं । काश इन सिंहों,बाघों,लकड़बग्घों को भी पता होता कि इनका कोई 'नेशन स्टेट' भी  होता है तो कम से कम ये हिन्दुस्तानियों को नहीं खाते । गुजरात के गौरव को मध्य प्रदेश को देने में आनाकानी की और यूपी को चट दे दिया । क्यों ? रैली में बताने के लिए । 


ऐसे ही किसी रोज़ अखिलेश यादव से पूछ लिया कि आपके यहाँ तेंदुआ फ्री में मेरठ मुरादाबाद किये फिर रहा है और सफ़ारी लिए सिंह काहे माँगते हैं । एकाध तेंदुआ उधरो पठा दीजिये तो ! जनाब कहने लगे कि अब हम किससे कहें और क्या कहें । यह भी कहने की बात है । आप पत्रकार होमवर्क नहीं करते । 


होमवर्क और गूगल किया तो पता चला कि ़यूपी के तीन घड़ियाल राजकोट चिड़ियाघर में सुस्ता रहे हैं ।  एक नर और दो मादा घड़ियाल । कुकरैल को मिस करते होंगे बेचारे । एक लकड़बग्घा भी है । ब्लैक, सिल्वर, गोल्डन फिज़न्ट( चिड़िया) रोज़ी पेलिकन, बिजू( .palm civet) काकटेल । यह सब यूपी ने दिया है गुजरात को । एक जोड़े सिंह के लिए । फ्री में नहीं आए गिर के लायन भाई । फिज़न्ट कहीं ग़लती से अखिलेश अखिलेश न बोल दे पता चला कि वापस बुलंदशहर भेज दिया गया । 

यूपी से लकड़बग्घा और घड़ियाल ले लिया और बताया तक नहीं । क्या गुजरात में लकड़बग्घा नहीं हो सकते । अखिलेश को भी सबको बताना चाहिए ताकि गुजरात के लोग यह तो जाने कि ये यूपी से आया है । सब गुजरात से नहीं जाता, यूपी से भी कुछ जाता है । मगर मोदी की मार्केटिंग से लाभ यह होगा कि अखिलेश के इटावा में जब भी लोग गिर के सिंह को देखने जायेंगे ये ज़रूर कहेंगे कि देखो देखो गुजरात से आया है । कुछ दिन तो गुज़ारो इटावा में ! लायन यादव जी ! 

बेचारा लकड़बग्घा कितना लोनली फ़ील करता होगा । अपना नमक तो सबको बताया मगर यूपी का नमक किसी को नहीं । अच्छा है इसी बहाने बाघ बकरी का भी यूपी गुजरात हो जायें । राजस्थान की बकरियों की नस्ल यूपी बिहार में हिट है । वसुंधरा को भी जाकर कहना चाहिए क्या यूपी की बकरी का नस्ल अच्छा नहीं हो सकता । यहाँ की जातिवादी राजनीति ने( जैसे राजस्थान गुजरात में जातिवादी राजनीति नहीं होती) ने बकरियों का विकास नहीं होने दिया । आगरा के पास बकरियों पर अध्ययन के लिए एक केंद्र भी है वैसे । जीडीपी में बाइस हज़ार करोड़ का योगदान है बकरी के माँस और दूध का । 

हमारी राजनीति चिड़ियाघर से होती हुई अजायब घरों और अप्पू घरों में पहुँच गई है । किसी दिन राज्यों के मुख्यमंत्री लिस्ट लेकर प्रेस कांफ्रेंस करेंगे । इत्ती हल्दी दी, धनिया दी, गुड़ दिया,मूली भिजवाई इनके गुजरात को । उधर से कोई कहेगा सिंह दिया, नमक दिया, दूध दिया । फिर कोई आम आदमी पार्टी कहेगी दोनों ने मिलकर जनता का घी निकाल लिया जी । हम बस इनका तेल निकालने आए हैं । और इन सबके बीच चचा आज़म ख़ान की भैंस चुराने वाला लकड़बग्घा चुराकर सर दर्द पैदा कर देगा । चचा बोल रहे होंगे कि देखिये गुजरात में क़ानून व्यवस्था ख़राब है । हमारे सेकुलर लकड़बग्घे के साथ दुर्व्यवहार हुआ है । मगरमच्छ भी इंसानों के आँसू रोने लगेंगे । 


ये अच्छी बात नहीं है

आदरणीय मोदी जी,

कई नेताओं को पत्र लिखा मगर आपको पहली बार लिख रहा हूँ । सोचा था आपकी जीत के बाद लिखूँगा । लेकिन आज सुबह जब एक कार के स्क्रीन कवर पर विज्ञापन देखा तो बतौर मतदाता मेरा मन उखड़ गया । मैं ख़ुद इस बात को मानता रहा हूँ कि इस चुनाव में आपके विज्ञापन की टीम ने शानदार काम किया है । नारों में एक आक्रामक स्पष्टता बनाये रखते हुए आपके नेतृत्व को उभारा है । आपकी जीत में उनका बहुत योगदान होगा । इसके पीछे कितने अरब ख़र्च हुए यह सवाल बेमानी है क्योंकि इसका जवाब न तो आप देंगे न आपके तमाम विरोधी दल । मानकर चलता हूँ कि तमाम राजनीतिक दल विज्ञापनों पर जो ख़र्च करते हैं वो सफ़ेद धन ही होगा । हालाँकि ऐसा मानने पर मेरी यहीं जमकर धुलाई हो जाएगी लेकिन क्या करें अगर यह कह दें कि इसमें काला धन है तो आपके नमो फ़ैन्स मेरी धुलाई कर देंगे । दोनों ही हालत में मेरा बचना मुश्किल है । आप नई राजनीति करने निकले हैं बता दीजिये आचार संहिता से पहले के चुनाव प्रचारों पर कितना ख़र्च हुआ ।

मुझे इस विज्ञापन और इसके नारे से क्यों एतराज़ हुआ । किसे चुनेंगे ? भीख या स्वाभिमान ? । भीख वाली बात चुभ गई । मतदाता का विवेक अगर महान होता है तो वो दोनों तरह के मतदाता का होता है । एक जो विजेता को चुनता है और एक जो विजेता को नहीं चुनता है । क्या आपको मत नहीं देने वाला भीख को चुनने वाला है । आप खुद इस जुमले को निर्विकार भाव से देखियेगा तभी समझ पायेंगे कि मैं क्या कह रहा हूँ । ऐसा लगता है कि कोई मतदाता को धमका रहा है ।

आप ये दावा कर सकते हैं कि आप ही स्वाभिमान का प्रतिनिधित्व करते हैं पर यह कैसे मान लिया जाए कि जो आपके िवरोध में है उसका कोई स्वाभिमान नहीं । मैं आज भी फेंके हुए पैसे नहीं उठाता । दीवार फिल्म में सेठ ने उस किशोर के काम को भीख ही समझ लिया था मगर टकरा गया उसके स्वाभिमान से । राजनीति सिर्फ स्वाभिमान से होती तो ये कैसा स्वाभिमान है कि आपने चौबीस घंटे सुबह शाम आपको गरियाने वाले रामविलास पासवान, जगदंबिका पाल, सतपाल महाराज को पार्टी या गठबंधन में ले लिया । क्या इन लोगों ने आपसे माफ़ी माँगी या आपने अपनी तरफ़ माफ़ कर दिया । राजनीति स्वाभिमान से नहीं व्यावहारिकता से चल रही है । स्वाभिमान से चलती तो आपकी पार्टी अपने कार्यकर्ता का स्वाभिमान ठुकरा कर किसी दलबदलू को टिकट नहीं देती । ख़ैर ये तो सब करते हैं । 

इसलिए इस विज्ञापन को हटवा दीजिये । कोई भीख का चुनाव नहीं करता है । सबके विवेक का सम्मान होना चाहिए । आप भले भीख मतलब उन अधिकार या गारंटी योजनाओं को समझते होंगे पर ऐसी योजनाएँ तो छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश में आपकी सरकारों में भी चल रही हैं । आपकी ही पार्टी खाद्य सुरक्षा गारंटी की बहस के समय छत्तीसगढ़ का उदाहरण देती थी । आपके आलोचक भी छत्तीसगढ़ की चावल योजना की सराहना करते हैं । फिर भी आप इन योजनाओं से इत्तफ़ाक़ नहीं रखते तो इनकी बात होनी चाहिए । कहिये कि आप इन्हें समाप्त कर देंगे । इसलिए इस विज्ञापन के ज़रिये भीख बताकर उन लाखों भूखे लोगों का अपमान होना चाहिए जो राज्य की नीतियों के शिकार रहे हैं । वो भीख नहीं है । इंसाफ़ है । राज्य अगर अपने संसाधनों का वितरण कमज़ोर तबके में नहीं करेगा तो राज्य ही नहीं रहेगा ।

इसलिए इस विज्ञापन का स्वाद अच्छा नहीं है । अटल जी की शैली में कहूँ तो ये अच्छी बात नहीं है । अति स्वामिभक्ति के उत्साह में किसी ने लिख दिया होगा । इस विज्ञापन में गुजरात पूरे देश को नमक खिलाता है वाला भाव है जो आपने दिल्ली के एक कालेज में कहा था । मैंने एतराज़ भरे ट्वीट किये थे । नमो फ़ैन्स की गाली के बाद भी यक़ीन था कि आप दोबारा नमक का ज़िक्र नहीं करेंगे । आपका बहुत बहुत शुक्रिया कि आपने ऐसा ही किया । लोकतंत्र में विरोधी मत का भी स्वाभिमान होता है । । और हाँ हो सके तो पोस्टरों में अब मुस्कुराते हुए अपनी तस्वीर लगाइये । नेता में सख़्ती के साथ सौम्यता भी होनी चाहिए । आठ मार्च को महिलाओं के साथ चाय चर्चा में आप मुस्कुराते हुए अपनी सख़्त तस्वीरों से कहीं ज़्यादा सौम्य लग रहे थे । दिल्ली के पोस्टरों में ऐसा लगता है जैसे आप घूर रहे हों कि वोट न दिया तो समझ लेना । आँखें ग़ुस्से से भरी लगती हैं । खुद से देखिये इन पोस्टरों को ।बाक़ी तो है सो हइये हैं । भीख या स्वाभिमान वाला पोस्टर हटवा दीजियेगा ।

आपका 
रवीश कुमार 'एंकर'

एक मुस्लिम बहुल गाँव की दास्तान

पश्चिम उत्तर प्रदेश के एक गाँव देहरा गया था । यह एक मुस्लिम बहुल गाँव है । गाँव वालों को तारीख़ और साल तो याद नहीं मगर पिछले कुछ सालों में यहाँ के मकान पक्के बन गए हैं । मकान के भीतर उपभोक्ता सामान तो बहुत नहीं हैं मगर दीवारों पर रंग रोगन है । पक्की सड़क है और बिजली के खम्भे हैं । 

यह सब हुआ पलायन से । पिछले दस सालों में पलायन बढ़ा है । भैय्या भगाओ जैसे छिटपुट हिंसक घटनाओं को छोड़ दे यह दशक शांति से गुज़रा है । दंगे ज़रूर हुए मगर उन जगहों पर नहीं जहाँ रोज़गार के नए नए अवसर पैदा हो रहे थे । ऐसे कई शहरों में, जो पश्चिम से लेकर दक्षिण भारत तक फैले हुए हैं, मुस्लिम मज़दूरों को भी जाने का मौक़ा मिला । इस शांति काल में जगह और अवसर में मुस्लिम मज़दूरों की हिस्सेदारी बढ़ी जिसके कारण गाँवों में पैसा आया । कुछ साल पहले तक मुस्लिम बहुल गाँवों की मस्जिदें चमका करती थीं अब घर भी चमक रहे हैं । देहरा गाँव में भी ज़्यादातर मज़दूर लोग हैं जो बाहर कमाने गए हैं । 

नतीजा यह हुआ है कि औरतों के हाथ में पैसा आया है । इस गाँव में मुझे सूट और साड़ी की चार पाँच दुकानें दिखीं । मेकअप की भी । सब्ज़ी की दुकान दिल्ली मुंबई जैसी । इलेक्ट्रानिक तराज़ू और प्लास्टिक के कैरेट में सब्ज़ियाँ रखी हुईं थीं । बिजली के सामान की दुकान । एक मिठाई की दुकान । एक दवा की दुकान । बच्चों के पास अपनी साइकिल और स्कूल आते जाते बच्चे । 

इस गाँव की दीवारों पर स्कूल का विज्ञापन चिपका था । इश्तहार में जो लिखा है उसकी तस्वीर दे रहा हूँ । आप खुद पढ़िये । कैसे एक स्कूल मुसलमानों के गाँव में अपना प्रचार करने से पहले तालीम पर ज़ोर दे रहा है । जैसे पहली बार यहाँ शिक्षा का प्रचार प्रसार हो रहा हो । इश्तहार में कंप्यूटर लाइब्रेरी और मैदान का ज़िक्र है । मुस्लिम युवाओं की अब यही ज़रूरत है । पढ़ाई लिखाई पर ज़ोर तो बढ़ा है मगर इनके पास गुणवत्ता वाले सरकारी और प्राइवेट स्कूल नहीं हैं । गाँव में एक भी मौलाना मौलवी की तक़रीर वाले पोस्टर नहीं दिखे । बहरहाल इन इश्तहारों को पढ़िये और बदलते हिन्दुस्तान का लुत्फ़ लीजिये । 



मीडिया और मुसलमान

मुसलमान बदल गए मगर मीडिया के कैमरों का मुसलमान आज तक नहीं बदला । उसके लिए मुसलमान वही है जो दाढ़ी, टोपी और बुढ़ापे की झुर्रियाँ के साथ दिखता है । इस चुनाव के कवरेज में मीडिया ने एक और काम किया है ।मोदी के ख़िलाफ़ विपक्ष बना दिया है । जैसे बाक़ी समुदायों में मोदी को लेकर शत् प्रतिशत सहमति है सिर्फ मुसलमान विरोध कर रहे हैं । पूरे मुस्लिम समुदाय का एक ख़ास तरह से चरित्र चित्रण किया जा रहा है ताकि वह मोदी विरोधी दिखते हुए सांप्रदायिक दिखे । जिसके नाम पर मोदी के पक्ष में ध्रुवीकरण की बचकानी कोशिश हो ।

जिन सर्वे में बीजेपी विजयी बताई जा रही है उन्हीं में कई राज्य ऐसे भी हैं जहाँ बीजेपी को शून्य से लेकर दो सीटें मिल रही हैं । तो क्या मीडिया का कैमरा उड़ीसा के ब्राह्मणों या दलितों से पूछ रहा है कि आप मोदी को वोट क्यों नहीं दे रहे हैं । क्या मीडिया का कैमरा तमिलनाड के पिछड़ों से पूछ रहा है कि आप मोदी को वोट क्यों नहीं दे रहे हैं । क्या मीडिया लालू या मुलायम समर्थक यादवों से पूछ रहा है कि आप मोदी को वोट क्यों नहीं दे रहे हैं । मीडिया का कैमरा सिर्फ मुसलमानों से क्यों पूछ रहा है ।

ऐसे सवालों से यह भ्रम फैलाने का प्रयास होता है कि मोदी के साथ सब आ गए हैं बस मुसलमान ख़िलाफ़ हैं । जबकि हक़ीक़त में ऐसा नहीं है । ग़ैर मुस्लिम समाज में भी अलग अलग दलों को वोट देने का चलन है उसी तरह मुस्लिम समाज भी अलग अलग दलों को वोट देता है । अलग अलग दलों को एक एक मुस्लिम वोट के लिए संघर्ष करना पड़ता है । जबकि यह भी एक तथ्य है कि मुसलमान बीजेपी को वोट देते हैं । हो सकता है प्रतिशत में बाक़ी समुदायों की तुलना में कम ज़्यादा हो । 

लेकिन ऐसे सवालों के ज़रिये मुसलमानों की विशेष रूप से पहचान की की जा रही है कि अकेले वही हैं जो मोदी का विरोध कर रहे हैं । सब जानते हैं कि मुसलमान वोट बैंक नहीं रहा । उसने यूपी में बसपा को हराने के लिए समाजवादी पार्टी को इसलिए चुना क्योंकि अन्य समुदायों की तरह उसे लगा कि सपा ही स्थिर सरकार बना सकती है  । बिहार में उसने शहाबुद्दीन जैसे नेताओं को हराकर नीतीश का साथ इसलिए दिया क्योंकि वह एक समुदाय के तौर पर विकास विरोधी नहीं है । वह भी विकास चाहता है। मुसलमान सांप्रदायिकता का विरोधी ज़रूर है जैसे अन्य समुदायों में बड़ी संख्या में लोग सांप्रदायिकता का विरोध करते हैं । जहाँ बीजेपी सरकार बनाती है वहाँ मुसलमान उसके काम को देखकर वोट करते हैं । मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह चौहान के बारे में तो कोई नहीं कहता कि मुसलमान उन्हें वोट नहीं करता । राजस्थान में मुसलमानों ने कांग्रेस की नरम सांप्रदायिकता को सबक़ सीखाने के लिए बीजेपी को वोट किया । वहाँ बीजेपी ने चार उम्मीदवारों को टिकट दिया था और दो जीते । 

इस पूरे क्रम में बीजेपी और संघ परिवार की नीतियों के संदर्भ में उसे नहीं देखा जाता है । किसी नेता या विचारधारा से उसका एतराज़ क्यों नहीं हो सकता । क्या मुसलमान सिर्फ एक राज्य के दंगों की वजह से संदेह करता है । राजनीति का इतना भी सरलीकरण नहीं करना चाहिए । क्या मीडिया को मुसलमानों से ऐसे सवाल करने से पहले उसके एतराज़ के इन सवालों को नहीं उठाना चाहिए । टीवी की चर्चाओं में युवा मतदाता है पर उनमें युवा मुस्लिम मतदाता क्यों नहीं है । दलित युवा आदिवासी युवा क्यों नहीं है । इसलिए मीडिया को किसी समुदाय को रंग विशेष से रंगने का प्रयास नहीं करना चाहिए ।

बीजेपी ने यूपी के जिन चौवन उम्मीदवारों को टिकट दिये उनमें एक भी मुसलमान नहीं है । बिना भागीदारी मिले सिर्फ मुसलमानों से यह सवाल क्यों किया जाता है कि आप अमुक पार्टी को वोट क्यों नहीं करते । राजनीतिक गोलबंदी बिना भागीदारी के कैसे हो सकती है । देवरिया से कलराज मिश्र को टिकट मिले पर शाही समर्थकोँ को नाराज़ होने की छूट है तो एक भी टिकट न मिलने पर मुसलमानों को नाराज़ होने की छूट क्यों नहीं है । 

मीडिया को मुसलमानों को चिन्हित नहीं करना चाहिए । उसके हाथ से यह काम जाने अनजाने में हो रहा है । नतीजा यह हो रहा है कि चुनाव मुद्दों से भटक रहा है । ध्रुवीकरण के सवालों में उलझ रहा है जिससे हिन्दू को लाभ है न मुस्लिम को । अब मीडिया को बनारस बनाम आज़मगढ़ के रूप में ऐसे रूपक गढ़ने के और बहाने मिल गए हैं । पाठक दर्शक और मतदाता को इससे सचेत रहना चाहिए । मतदान के साथ साथ सामाजिक सद्भावना कम महत्वपूर्ण नहीं है । बल्कि ज़्यादा महत्वपूर्ण है । 
(यह लेख आज के प्रभात ख़बर में प्रकाशित हो चुका है) 








साठा चौरासी

आज पश्चिम उत्तर प्रदेश के उन इलाक़ों में गया जिसे साठा चौरासी कहते हैं । साठा चौरासी साठ और चौरासी गाँवों के समूह को कहते है । इन गाँवों को तोमर और सिसोदिया राजपूतों का गढ़ माना जाता है । तोमर और सिसोदिया राजपूत हिन्दू भी हैं और मुसलमान भी । धर्म अलग होने के बाद भी दोनों के जातीय संबंध अद्भुत हैं । तोमर राजपूतों की पगड़ी मुस्लिम तोमर के गाँव से आती है जिसे हिन्दू राजपूत अपना चौधरी मानते हैं । इसी तरह सिसोदिया राजपूतों के यहाँ भी पगड़ी मुस्लिम सिसोदिया गाँव से आती है । मुस्लिम नामों के अंत में राणा, सिसोदिया और तोमर नाम सामान्य होते हैं ।  इसी क्षेत्र के तोमर महमूद अली ख़ां मध्यप्रदेश के राज्यपाल भी रहे हैं । चरण सिंह के ज़माने तक मुस्लिम राजपूतों का राजनीतिक प्रतिनिधित्व ठीक ठाक रहा मगर बाद में कम होता चला गया ।

साठा चौरासी यानी एक सौ चवालीस गाँवों के राजपूत ग़ाज़ियाबाद, बुलंदशहर और हापुड़ संसदीय सीट पर असर रखते हैं मगर ग़ाज़ियाबाद पर इनकी पकड़ ज़्यादा है । इस इलाक़े में राजपूतों के गाँव 32, 60 और 84 गाँवों के समूह में पाये जाते हैं । एक सज्जन ने कहा कि पूरे उत्तर प्रदेश में राजपूतों की ऐसी पट्टी नहीं है । ऐसा नहीं कि साठा चौरासी ने ग़ैर राजपूत उम्मीदवारों का समर्थन नहीं किया मगर यहाँ के लोग मानते हैं कि कोई राजपूत उम्मीदवार आता है और वो योग्य है तो झुकाव हो जाता है । इन गाँवों के बड़े बुज़ुर्ग मिलकर फ़ैसला करते हैं कि किस चुनाव में किसे वोट देना है । इसीलिए किसी भी दल का राजपूत उम्मीदवार यहाँ आते ही पगड़ी, टीका और तलवार पकड़ लेता है । इन गाँवों के दरवाज़े पर महाराणा प्रताप की विशालकाय प्रतिमा लगी होती है । यहाँ तक कि मुस्लिम तोमर के गाँवों के प्रवेश द्वार पर भी महाराणा प्रताप की मूर्ति बनी होती है । एक मुसलमान बुज़ुर्ग ने कहा कि महाराणा प्रताप हमारे बूढ़े हैं । हमारी शक्ल बदल गई है मगर नस्ल तो वही है ।

साठा चौरासी के एक गाँव के हिन्दू राजपूत ने बताया कि स्थानीय चुनाव में मुस्लिम और हिन्दू राजपूत मिलकर राजपूत उम्मीदवार के बारे में फ़ैसला करते हैं । संसदीय चुनावों में भी थोड़ी बहुत एकता रहती है मगर यहाँ दोनों के रास्ते अलग हो जाते हैं । राजनीति इनकी इस ताक़त को पहचानने लगी है इसलिए ध्रुवीकरण के बीज बोये जा रहे हैं । सदियों से मज़हब की दीवारों को पार कर अपने जातीय सम्बंधों और सरोकारों के बल पर जीने वाले इन लोगों के बीच मौक़ापरस्त राजनीति भेद पैदा करने लगी है । पहले कौन या ज़्यादा कौन टाइप के बहानों को लेकर मिथक गढ़ने की प्रक्रिया शुरू हो गई है । 

ग़नीमत है कि सामाजिक संबंध इतने गहरे हैं कि ये भेदभाव चुनाव तक ही सीमित रह पाता है । दुहेरा मुस्लिम राजपूत बहुल गाँव है ।  यहाँ मस्जिद और दुर्गा मंदिर साथ साथ हैं । क़रीब सौ साल से । मुसलमान ही मंदिर के रख रखाव का इंतज़ाम करते हैं । हिन्दू समाज की आबादी बीस पचीस परिवार की है । शान से हर घर के दरवाज़े पर मुसलमान और हिन्दू मुखिया के नाम लिखे हैं । गाँव वालों ने कहा कि देख लीजिये हम कैसे मिलजुल कर रहते हैं । हमारे लिए संबंध महत्वपूर्ण है संख्या नहीं । कभी कोई विवाद नहीं हुआ । साठा चौरासी इसी तरह अपनी गौरवशाली परंपरा बनाये रखे ।



Ravish Kumar

कैफ़ी आज़मी

चलता हूँ थोड़ी दूर हर इक तेज़ रौ के साथ,
पहचानता नहीं हूँ अभी राहबर को मैं ।
- कैफ़ी आज़मी 
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लीडर की आमद
शोर है ख़त्म चार तरफ़ राहनुमा आता है
मुश्किलें ख़त्म हुई उक़दाकुशा आता है
(उक़दाकुशा -कष्ट निवारक) 
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सोमनाथ 

दिल पे यह सोच के पथराव करो दीवानों 
के जहाँ हमने सनम अपने छिपा रक्खे हैं
वहीं ग़ज़नी के ख़ुदा रक्खे हैं 

बुत जो टूटे तो किसी तरह बना लेंगे उन्हें 
टुकड़े टुकड़े सही दामन में उठा लेंगे उन्हें 
फिर से उजड़े हुए सीने में सज़ा लेंगे उन्हें 

गर ख़ुदा टूटेगा हम तो न बना पायेंगे 
उस के बिखरे हुए टुकड़े न उठा पायेंगे 

तुम उठालो तो उठालो शायद 
तुम बना लो तो बना लो शायद 

तुम बनाओ तो ख़ुदा जाने बनाओ क्या
अपने जैसा ही बनाया तो कियामत होगी 
प्यार होगा न ज़माने में मुहब्बत होगी
दुश्मनी होगी अदावत होगी 
हम से उस की न इबादत होगी ।
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जागना भागना है

कुत्तों के बीच किसी बात को लेकर झगड़ा हो गया है । एक दूसरे को देखकर भौंक रहे हैं । इस शोर में मेरी नींद उड़ गई है । कभी भौंकने की आवाज़ दूर चली जाती है तो कभी नज़दीक़ आ जाती है । कहीं ऐसा तो नहीं कि मैं ही पहले से जाग रहा हूँ इसलिए कुत्तों की आवाज़ ज़ोर से सुनाई देने लगी है । आनंद विहार स्टेशन की तरफ़ जाने वाली रेलगाड़ियों के इंजन की आवाज़ें भी आ रही है । 

पिछले एक घंटे से करवट बदलते बदलते थक गया ।   सोचने की सीमा नहीं होती । अकेले जागते जागते आप मनलोक में विचरण करने लगते हैं । मनजगत जब जागृत होता है तब आप ख़ुद में भटकने लगते हैं । पुराने दोस्तों के बारे में सोचने लगते हैं तो टीवी के किसी शो के लिए ख़ास लाइनें या तस्वीरों का ख़्याल आने लगता है । हम सब एक निरंतर असुरक्षा  की स्थिति में जीने लगे हैं पर क्या सुरक्षित व्यक्ति हमेशा गहरी नींद में ही सोया रहता होगा । ऐसा तो हो नहीं सकता । पर आज ऐसा क्या हुआ कि तीन बजे सुबह ही नींद टूट गई है और मैं प्राइम टाइम का इंट्रो सोचने लगा । मैं क्यों अपने आप से कहने लगा हूँ कि लोगों को टीवी और अख़बार से कम से कम नाता रखना चाहिए । पर इससे क्या बदल जाएगा । कोई कह सकता है कि इन्हीं माध्यमों ने अच्छे काम भी किये हैं और करते भी हैं । पर मेरी सैलरी का क्या होगा और पेंशन नहीं मिलेगा तो बुढ़ापा कैसे कटेगा । क्या ये सब सोचने का यही वक्त है । 

मूल बात यह है कि नींद नहीं आ रही है । बड़बड़ाने की अवस्था में ब्लाग लिखने लगा हूँ । मन उचट गया है । ऐसा लगता है आप चारों तरफ़ शून्य से घिरे हैं । भरने की कोशिश कर रहे हैं मगर भर नहीं रहा । हाथ का दर्द लगातार लिखने से बढ़ता जा रहा है । फिर भी लिखे बिना रहा नहीं जाता । इस दर्द के कारण ट्वीटर फ़ेसबुक बंद कर देता हूँ मगर ब्लाग लिखने लगता हूँ । जितना दर्द बढ़ता है उतना लिखने लगता हूँ । कील और तार की जगह जलन होने लगी है । 

कहीं मैं बचपन में देखे उस शख़्स की तरह तो नहीं हो गया जो पटना शहर के खंभों और दीवारों पर कोयले से लिखता रहता था । हिन्दी और अंग्रेज़ी में । एक वाक्य का दूसरे वाक्य से कोई रिश्ता नहीं होता है । एक वाक्य में भी क्रियाएँ नहीं होती थीं । इंदिरा गांधी और आपातकाल को लेकर गालियाँ होती थीं और फिर दुनिया भर की बातें । यह शख़्स मेरे लिखने के लम्हों में याद आता रहता है । टोबा टेक सिंह की तरह । 

फ़िलहाल तो जाग रहा हूँ यह सोचते हुए कि जागा रहा तो रात नौ बजे प्राइम टाइम कैसे करूँगा । क्या होगा । अजीब है । जागना कितनी तकलीफ़देह है । 


मैं अशोक रोहिला चपरासी बोल रहा हूँ

मैं अशोक रोहिला, चपरासी सर । कई साल पहले नेशनल इंस्टिट्यूट आफ ओपन स्कूल के सामान्य परिचय समारोह में एक शख्स ने जब अपना परिचय दिया तो सब सन्न रह गए । उसके परिचय के इस अंदाज़ ने माहौल की रूटीन गरिमा को ध्वस्त कर दिया था । पिछले आठ साल से अशोक रोहिला के किस्से सुन रहा हूँ । आज मुलाक़ात हुई । अब आप सुनिये । उसी की ज़ुबानी । 

" सर छठी सातवीं आठवीं में फ़ेल बहुत हुआ । पढ़ने का शौक़ तो बहुत था मगर अंग्रेज़ी और गणित में फ़ेल होने के कारण पढ़ाई छोड़ दी । तब मेरे पिता दिल्ली के डीसीएम फैक्ट्री में काम करते थे । मज़दूर थे । मैं शाहदरा के किसी डाक्टर के यहाँ काम पर लग गया । रोज़ सात बजे किशनगंज से शाहदरा अठारह किमी साइकिल चलाकर जाता था । अठारह महीने नौकरी की लेकिन कभी क्लिनिक देर से नहीं खोला । मगर पढ़ाई से ध्यान गया नहीं । 

मैं पहलवानी भी करता था । सुबह पाँच बजे उठ कर रेलवे के अखाड़े में जाता था । इसी कारण रेलवे के होमगार्ड में लग गया । पटरी से लाश उठाकर मोर्चरी तक पहुँचाने का काम करता था । इस काम में सिस्टम पुलिस और जीवन की क्रूरता और अच्छाई को क़रीब से समझा । उस वक्त भी साइकिल से दिल्ली के दफ़्तरों में जाकर पता करता था कि वैकेंसी कैसे निकलती है । मेरे दोस्त ने बताया कि रोज़गार कार्यालय में रजिस्टर करा लो । वहाँ से नेशनल ओपन स्कूल में डेली वेज पर लग गया ।

इस बीच में मेरी शादी हो गई । लड़की एम ए पास थी समाजविज्ञान में । बड़े घर की थी । उसके नाना १९२२ में रूड़की से इंजीनियर हुए और दादा लाहौर रेलवे स्टेशन के स्टेशन मास्टर से रिटायर हुए थे । लड़की मंगली थी और घर वालों को मँगला लड़का नहीं मिल रहा था तो मुझसे शादी कर दी । मैं मँगला था । 

शादी के समय मैं बारहवीं पास हो गया था । नेशनल ओपन स्कूल से ही । दसवीं में पहली बार सारे विषय में पास हो गया मगर यहाँ भी अंग्रेज़ी में फ़ेल हो गया । खैर बारहवीं पास होने के बाद इग्नू से सी आई सी की डिग्री ली, लाइब्रेरी साइंस में बीए और एम ए किया और नेशनल पिछले सात आठ सालों से नेशनल ओपन स्कूल में लाइब्रेरी असिस्टेंट बन गया । 

लाइब्रेरी ने मेरे लिए किताबों की दुनिया उपलब्ध करा दी । मैं उन बच्चों के बारे में सोचने लगा जिनकी पढ़ाई मेरे जैसे हालात में छूट जाती है । पहले दिल्ली की एक बस्ती में लाइब्रेरी खोल दी । वहाँ पर चल नहीं सकी । तभी मीडिया में 1857 के डेढ़ सौ साल पर खूब लेख छप रहे थे । मैं दरियागंज से ढाई सौ रुपये में टाफी का डब्बा ले आया । बच्चों से कहा कि जो 1857 पर आर्टिकल की कटिंग लाएगा उसे टाफी मिलेगी । अख़बार वाले से कहा कि पिछले दिन का अख़बार दे जाए । किसी भी भाषा का । बच्चे इन्हीं अख़बारों में जहाँ भी 1857 लिखा देखते घेरा लगा देते थे । इस बहाने सात सौ लेख जमा हो गए । इन लेखों को लेकर मैंने लक्ष्मीनगर में प्रदर्शनी लगा दी । हिट हो गया । नेहरू युवा केंद्र ने चालीस हज़ार इनाम में दिये जिससे हमारा तीन साल का ख़र्चा निकल गया ।

अब पूर्वी दिल्ली के नंदनगरी के पास अशोकनगर में चौदह सौ रुपये महीने पर एक छोटा सा कमरा ले लिया है । वहाँ लाइब्रेरी बना दी है । हज़ार के आय पास किताबें हैं । चम्पक, चकमक, सरिता, गृहशोभा जैसी पत्रिका मँगाता हूँ । बच्चें की माएँ उनसे ये पत्रिका मँगा कर पढ़ती हैं । इसके साथ साथ छोटी बहन को भी पढ़ाने लगा । मेरे ख़ानदान में पढ़ने में वही अच्छी थी । गणित में चालीस में चालीस लाती थी । अब वह बीए हो गई । ससुराल वालों ने कह दिया कि हमारे घर में ज़्यादा पढ़ाई पढ़ाई मत करो तो बहन का घर था इसलिए छोड़ दिया । पर अब यही बहन शाम को दो घंटे लाइब्रेरी खोल देती है । 

मैं लाइब्रेरी में मज़दूरों के बच्चों को बुलाकर पढ़ाता हूँ । हालाँकि अब स्कूल के बच्चे ज्यादा आते हैं । एक सौ तीस बच्चों के पास लाइब्रेरी के कार्ड हैं । पंद्रह बीस बच्चे आ कर पढ़ते हैं । "

अशोक की लाइब्रेरी बनाने की कहानी ग़ज़ब की है । 
 वो अब मनरेगा के मज़दूर बच्चों को जमा कर दिल्ली लाना चाहता है । उसने दिल्ली के बाईस म्यूज़ियम का रूट बना रखा है इसमें कुछ आर्ट गैलरी भी है । अशोक स्कूल के दिनों में दो बार गांधी दूत बना था । ये राजघाट पर चलने वाला कोई कार्यक्रम है । जिसके तहत उसे पुणे का आगा खान पैलेस और वर्धा का गांधी आश्रम देखने को मिला था । अशोक ने कहा कि वास्को डिगामा, बुद्ध इन सबने भ्रमण से सत्य और दुनिया को खोजा था । अशोक वही चीज़ बच्चों को लौटाना चाहता है । उसके पास ग़रीब बच्चों की पढ़ाई को लेकर अनेक आइडिया हैं । 

जाते जाते कहने लगा कि उसने अलग अलग अख़बारों और पत्रिकाओं में नैनो कार पर छपे पंद्रह सौ आर्टिकल जमा किये हैं । नैनो कार कंपनी का एक मैनेजर पैसे देकर मांग रहा था । शर्त रख दी कि नाम अशोक का नहीं रहेगा । इंकार कर दिया । अशोक का कहना है कि वह ये लेख रतन टाटा को देगा । काश मैं रतन टाटा को जानता तो अशोक की ये इच्छा पूरी कर देता । कोई टाटा कंपनी का यह लेख पढ़ रहा है तो प्लीज़ रतन टाटा तक अशोक की बात पहुंचा दे । 

अशोक अपनी लाइब्रेरी में कई मुद्दों पर बहस कराता है । कुछ साल पहले टीवी की उपयोगिता पर बहस कराई । नौवीं का एक लड़का तैयारी करके आया । वो इकोनोमिस्ट बनना चाहता था । उस लड़के ने कहा कि टीवी हम ख़रीदें । रखने का जगह भी दें । बिजली का बिल हम दें । केबल का किराया भी दें । मगर किस लिए ? चौदह मिनट का सीरीयल और सोलह मिनट का विज्ञापन देखने के लिए । वो लड़का इकोनोमिस्ट नहीं बन पाया । पटरी पर चप्पल की दुकान लगाता है । काश ! 

है न कमाल की कहानी । हम पत्र पत्रिकाओं को कितनी आसानी से फेंक देते हैं । अशोक ने लीफ़ फ़ाउंडेशन बनाया है । योजना है कि बीस साल की नौकरी होते ही छोड़ देगा और पेंशन से बच्चों के लिए काम करेगा । मैंने आज बहुत सी किताबें दी हैं । 
तबसे सोच रहा हूँ कि इस देश को चला कौन रहा है । मोदी राहुल या अशोक । 

नोट: अशोक की संस्था की वेबसाइट है जो पैसे की कमी के कारण बंद हो गई है । अशोक का नंबर दो रहा हूँ 

09213976949 कई लोग संपर्क का ज़रिया पूछ रहे हैं । 

सेकुलर भगदड़

नरेंद्र मोदी के पक्ष में लहर है या नहीं इस पर अनेक मत हो सकते हैं मगर इस पर कोई दो मत नहीं हो सकता कि इस चुनाव में सेकुलर भगदड़ है । सेकुलर विचारधारा के नाम पर बीजेपी का विरोध करने वाली पार्टियों की प्राथमिकता नरेंद्र मोदी को हराना नहीं है । ये सभी दल इस चुनाव में एक दूसरे को हराने में लगी हुई हैं । गणित का कोई मास्टर इस बात को एक लाइन में कह देगा । समाजवादी सेकुलर भगदड़ बराबर मोदी लहर ।

मोदी लहर है या नहीं मगर मोदी का लक्ष्य साफ़ है । कांग्रेस के साथ समाजवादी सेकुलर दलों को साफ़ कर देना । समाजवादी सेकुलर दलों का लक्ष्य भी एकदम साफ़ है । कांग्रेस को साफ़ करते हुए एक दूसरे को साफ़ कर देना । एक तरह से समाजवादी सेकुलर दल नरेंद्र मोदी की मदद करने में लगे हैं । नरेंद्र मोदी की नैतिक और रणनीतिक विजय यही है कि उन्होंने साल भर पहले से कांग्रेस पर धुआँधार हमले शुरू कर दिये थे । ये हालत कर दी कि आर जो डी को छोड़ कोई समाजवादी सेकुलर दल कांग्रेस के क़रीब जाने का साहस नहीं कर पाया । इनमें से कौन कितना सेकुलर है इस पर भी बहस है ।

बीजेपी या मोदी विरोधी मोर्चा इतना बिखर गया कि वो तब भी नहीं खड़ा हो सका जब मोदी ने आरोपी, परिवारवादी और जातिवादी नेताओं दलों को मिलाना शुरू कर दिया ।  यहाँ तक राज ठाकरे से रणनीतिक समझौता करने से शिवसेना ही ज़्यादा बौखलाई हुई है । सपा,बसपा, लोजपा, राजद, जदयू चुप हैं । लेफ़्ट की भूमिका भी साफ़ नहीं है बल्कि बेहद लचर है । कांग्रेस हटाओ और बीजेपी हराओ का नारा भ्रामक है । एक साथ दो राष्ट्रीय दलों को आप इस तरह के नारे से हरा नहीं सकते । ऐसे भ्रामक स्लोगन से आप बाज़ार में गंजी नहीं बेच सकते । कांग्रेस को हटा और बीजेपी को हराकर किसे लाओ ये कोई भी जानना चाहेगा ।

इसका नतीजा यह हुआ कि राष्ट्रीय चुनाव में ये दल बिना लक्ष्य के नज़र आने लगे । नीतीश लालू को भी हराने में लगे हैं और लालू नीतीश को भी । पासवान ये खेल छोड़ अपनी गोटी मोदी से सेट कर चुके हैं । यूपी में सपा बसपा और कांग्रेस के अलग लड़ने और कांग्रेस विरोधी लहर के कारण बीजेपी की बढ़त बताई जाने लगी है । सेकुलर भगदड़ या बिखराव बीजेपी की जीत के लिए लाल क़ालीन बिछा रहा है । जनता के सामने साफ़ नहीं है कि ये दल किस मक़सद से लड़ रहे हैं । ममता, मुलायम और मायावती तीनों पर बीजेपी को बाहर से समर्थन देने का शक किया जाता है । 

नरेंद्र मोदी जीतने के लिए लड़ रहे हैं । एक साल से घूम घूम कर रैलियाँ कर रहे हैं । इसके पीछे संसाधन, प्रचार और प्रोपेगैंडा को लेकर बहस हो रही है मगर इसमें क्या शक कि वे लगातार काम कर रहे हैं । उन जगहों पर रैलियाँ कर रहे हैं जहाँ उन्हें कोई नहीं जानता । बीजेपी के सभी मुख्यमंत्री लड़ रहे हैं । आर एस एस भी कांग्रेस के हटाने का लक्ष्य लेकर मोदी की खुल कर मदद कर रहा है । नीतीश को छोड़ विरोधी किसी ने मोदी के भाषणों को सुनकर जवाब नहीं दिया है । इलाहाबाद की रैली में मुलायम ज़रूर तैयारी करके आए थे। लालू और मायावती अभी भी पुरानी बातें कर रहे हैं । कांग्रेस के जवाब से नहीं लगता कि उनका कोई नेता मोदी के भाषण को सुनता भी है । 

इस चुनाव में जीत के बाद मेरी मोदी से एक ही अपील है कि वे इन तमाम समाजवादी सेकुलर दलों को शुक्रिया ज़रूर कहें और ज़्यादा नहीं तो एक गुलाब का फूल भिजवा दें । जिनकी वजह से जीतेंगे उनके लिए इतना तो बनता है ।
( यह लेख आज के प्रभात ख़बर में छप चुका है) 

चंडीगढ़, नेहरू, मीडिया़ और केजरीवाल

" द ट्रिब्यून जैसे बड़े अख़बार ने चण्डीगढ़ बनने के दौरान नेहरू द्वारा किये गए दौरों को तो काफी जगह दी लेकिन इस परियोजना के ख़िलाफ़ हो रहे विरोध प्रदर्शनों को कोई ख़ास तवज्जो नहीं दी । पचास और साठ के दशक में चण्डीगढ़ शहर की वजह से राज्य द्वारा विस्थापित किये गए किसानों की कहानी का यदि कोई लेखा जोखा बचा है तो वह यहाँ के बड़े बूढ़ों का मौलिक इतिहास ही है । राज्य के पूरे विमर्श ने, जिसके मुख्य प्रवक्ता जवाहरलाल नेहरू थे, इन विरोध प्रदर्शनों को राष्ट्र राज्य निर्माण के शोरगुल में दरकिनार करना ही उचित समझा । "

"नेहरू ने कांग्रेस को मिले वोटों का तात्पर्य नागरिकों द्वारा नेहरूवादी आधुनिकता को दी गया सहमति के रूप में ग्रहण किया था । कांग्रेस की चुनावी जीत को उत्तर औपनिवेशिक राज्य में आधुनिकता लाने के इरादे से शुरू की गयी बड़ी परियोजनाओं के प्रति लोगों की पूर्ण सहमति मान लिया गया था । इसी चक्कर में राज्य व्यवस्था ने विरोध के सभी स्वरों को ख़ारिज कर दिया । ये विरोधी स्वर उन सभी विस्थापितों के थे जिनके खेत खलिहानों को ज़बरदस्ती अधिग्रहीत कर राज्य ने देश के विभिन्न भागों में ऐसी योजनाएँ तथा परियोजनाएँ शुरू की थीं ।"

मीडिया तब भी वैसा ही था । विरोध की आवाज़ राष्ट्र निर्माता के स्वप्न से कमतर लगती थी । हम अभी तक एक मीडिया समाज के तौर पर महानायकी का गुणगान करने की आदत से बाज़ नहीं आए । आज भी शहर के बसने और गाँवों के उजड़ने के क़िस्सों को दर्ज करने में मीडिया असंतुलन बरतता है । कोई कराता है या अपने आप हो जाता है इस पर विवाद हो सकता है । उस दौरान विस्थापित हुए लोगों की पीढ़ियां मीडिया और राज्य व्यवस्था की इस नाइंसाफ़ी से कैसे उबर पाई होंगी आप अंदाज़ा लगाने के लिए अपने आज के समय को देख सकते हैं । 

शुरू के दो उद्धरण मैंने नवप्रीत कौर के लेख से लिये हैं । यह लेख सी एस डी एस और वाणी प्रकाशन के सहयोग से प्रकाशित हिन्दी जर्नल 'प्रतिमान' में छपा है । 'प्रतिमान' हिन्दी में ज्ञान के विविध रूपों को उपलब्ध कराने का अच्छा प्रयास है । इसके प्रधान सम्पादक अभय कुमार दुबे हैं । साल में इसके दो अंक आते हैं और काफी कड़ाई से इसमें लेख छपने योग्य समझा जाता है । नवप्रीत कौर चंडीगढ़ के इतिहास पर काम करती हैं । 

भारत में उत्तर औपनिवेशिक शहर बनाने का सपना आज कहाँ खड़ा है । चंडीगढ़ हमारे आज के शहरी विमर्श की मुख्यधारा में भी नहीं है । उसके बाद के बने शहर चंडीगढ़ को न अतीत मानते हैं न भविष्य । लवासा, एंबी वैली, सहारा शहर, नया रायपुर, गांधीनगर, ग्रेटर नोएडा, नोएडा, गुड़गाँव, नवी मुंबई, इन नए शहरों ने हमारी शहरी समझ को कैसे विस्तृत किया है या कर रहा है हम ठीक से नहीं जानते । बल्कि अब इस देश में हर तीन महीने में कोई नया शहर लाँच हो जाता है । उस शहर का निर्माता कोई बिल्डर होता है । नेहरू न मोदी । 

नरेंद्र मोदी भी सौ स्मार्ट सिटी लाने का सपना दिखा रहे हैं । यूपीए सरकार ने भी सोलह हज़ार करोड़ का बजट रखा है । केरल के कोच्चि में स्मार्ट सिटी की आधारशिला रखी जा चुकी है । छह सात स्मार्ट सिटी बनाने का एलान उसी बजट में किया गया था । स्मार्ट सिटी से मंदी नहीं आएगी या अर्थव्यवस्था कैसे चमक जाएगी इसका कोई प्रमाणिक अध्ययन सार्वजनिक विमर्श के लिए उपलब्ध नहीं है । कुछ हफ़्ते पहले पुणे की एक राजनीति विज्ञानी ने इंडियन एक्सप्रेस में एक छोटा सा लेख ज़रूर लिखा था उम्मीद है " स्वतंत्र और निष्पक्ष " मीडिया इस बार विस्थापन के सवालों पर नेहरू के स्वर्ण युग वाले दौर की तरह ग़लती नहीं करेगा । स्मार्ट सिटी की परिकल्पना पर सूचनाप्रद बहस शुरू करेगा । 

अच्छा लग रहा है जिन दलों के नेता मीडिया के सवालों का सामना नहीं करते वे आजकल केजरीवाल के बयान के बहाने मीडिया की आज़ादी की लड़ाई लड़ रहे हैं । इंटरव्यू तक नहीं देते मगर चौथे खंभे का सम्मान करते हैं । पत्रकार सीमा आज़ाद को जेल भेजने वाली सरकारों के नेता कहते नहीं है । चुपचाप जेल भेज देते हैं । यही फ़र्क है । ज़रा गूगल कीजिये । नमो से लेकर रागा फ़ैन्स के बहाने इन दलों ने आलोचना की आवाज़ को कैसे कुचलने का प्रयास किया है । किस तरह की गालियाँ दी और इनके नेता चुप रहे । नमो फ़ैन्स और रागा फ़ैन्स की भाषा देखिये । किराये पर काल सेंटर लेकर अपने फ़ैन्स के नाम पर हमले कराना अब स्थापित रणनीति हो चुकी है ।

कपिल सिब्बल जो सोशल मीडिया पर अंकुश लगा रहे थे वे अरविंद के बयान की मज़म्मत के बहाने मीडिया के चैंपियन हो रहे हैं । महाराष्ट्र सरकार ने उस लड़की के साथ क्या किया था जिसने फेसबुक पर बाल ठाकरे के निधन के बाद टिप्पणी की थी । महाराष्ट्र में लोकमत के दफ़्तर पर हमला करने वाले कौन लोग थे । इन दलों ने पत्रकारों और मीडिया संस्थानों के मालिकों को लोक सभा से लेकर राज्य सभा दिये कि नहीं दिये । दे रहे हैं कि नहीं दे रहे हैं । इन राजनीतिक दलों के उभार के इतिहास में मीडिया कैसे सहयात्री बना रहा इसके लिए इतिहास पढ़िये । राबिन ज्येफ्री की किताब है  । नाम याद नहीं आ रहा । बाबरी मस्जिद के ध्वंस के समय हिन्दी पट्टी के अख़बार क्या कर रहे थे राबिन ज्येफ्री की किताब में है । भाजपाई मीडिया और कांग्रेसी मीडिया का आरोप और द्वंद अरविंदागमन के पहले से रहा है । 

मीडिया को अपनी लड़ाई खुद के दम पर लड़नी चाहिए न कि अलग अलग समय और तरीक़ों से उन पर अंकुश लगाने वालों की मदद से । मीडिया को अपने भीतर के सवालों पर भी वैसी ही प्रतिक्रिया व्यक्त करनी चाहिए जैसी अरविंद के हमले के बाद की जा रही है । स्ट्रींगरों के शोषण से लेकर छँटनी और ज़िला पत्रकारों के वेतन के सवाल पर भी उन मीडिया संगठनों को बोलना चाहिए जो इनदिनों मीडिया की तरफ़ से बयान जारी कर रहे हैं । रही बात जेल भेजने की तो यह काम कई तरीके से हो रहा है । राज्यों की मीडिया संस्थानों को विज्ञापनों के ज़रिये जेल में रखा जा रहा है । कोई जेल भेजने की बात कर रहा है तो कोई विज्ञापनों या स्वभक्ति के नाम पर अपने आप जहाँ है वहीं पर खुशी खुशी निर्विकार जेल में रह रहा है । विज्ञापन का विकल्प क्या है । पूरी दुनिया में ऐसे आरोप लग रहे हैं और इनका अध्ययन हो रहा है । 

मीडिया प्रवक्ताओं को बताना चाहिए कि राज्यों में अख़बारों को लेकर ऐसी अवधारणा क्यों है । सही है या ग़लत है । पाठकों को अहमदाबाद, पटना, राँची लखनऊ और भोपाल के अख़बारों का खुद अध्ययन करना चाहिए और देखना चाहिए कि उनमें जनपक्षधरता कितनी है । मुख्यमंत्री का गुणगान कितना है और सवाल या उजागर करने वाली रिपोर्ट कितनी छपती है । 

इस बार जब चुनाव आयोग ने कहा कि इस चुनाव में मुक्त और निष्पक्ष चुनाव को सबसे बड़ा ख़तरा पेड न्यूज़ से है तब किस किस ने क्या कहा ज़रा गूगल कीजिये । मुख्य चुनाव आयुक्त ने सम्पादकों को चिट्ठी लिखकर आगाह किया है और सरकार से क़ानून बनाने की बात की है । डर है कि कहीं अरविंद के इस बयान के सहारे कवरेज़ में तमाम तरह के असंतुलनों को भुला न दिया जाए । पेड मीडिया एक अपराध है जिसे मीडिया ने पैदा किया । 

आज हर बात में कोई भी पेड मीडिया बोलकर चला जाता है । मीडिया को लेकर बयानबाज़ी में हद दर्जे की लापरवाही है । सब अपने अपने राजनीतिक हित के लिए इसे मोहरा और निशाना बनाते हैं । आख़िर कई महीनों तक चैनलों ने क्यों नहीं बताया कि मोदी की रैली में झूमती भीड़ के शाट्स बीजेपी के कैमरे के हैं । उस चैनल के नहीं । लोगों को लगा कि क्या भीड़ है और कितनी लहर है । तब हर चैनल पर मोदी का एक ही फ़्रेम और शाट्स लाइव होता था । अब जाकर आजकल  सौजन्य बीजेपी या सौजन्य कांग्रेस लिखा जाने लगा है । क्या मीडिया ने खुद जिमी जिब कैमरे लगाकर अन्ना अरविंद आंदोलन के समय आई भीड़ को अतिरेक के साथ नहीं दिखाया । जंतर मंतर में जमा पाँच हज़ार को पचीस हज़ार की तरह नहीं दिखाया । क्या इस तरह का अतिरिक्त प्रभाव पैदा करना ज़रूरी था । याद कीजिये तब कांग्रेस बीजेपी इसी मीडिया पर कैसे आरोप लगाती थी । बीजेपी के नेताओं ने ऐसे आरोप दिसंबर में आम आदमी की सरकार बनने के बाद के कवरेज पर भी लगाए । तीन राज्यों में जहाँ बीजेपी को बहुमत मिला उसे न दिखाकर अरविंद को दिखाया जा रहा है । जेल भेजने की बात नहीं की बस । शुक्रिया । जबकि उन्हीं चैनलों पर महीनों मोदी की हर रैली का एक एक घंटे का भाषण लाइव होता रहा है । मोदी की रैली के प्रसारण के लिए सारे विज्ञापन भी गिरा दिये जाते रहे । किसी ने बोला कि ऐसा क्यों हो रहा है । याद कीजिये । यूपी विधानसभा चुनावों से पहले राहुल की पदयात्राओं कवर करने के लिए कितने ओबी वैन होते हैं । राहुल जितनी बार अमेठी जाते हैं न्यूज़ फ़्लैश होती है । क्यों ? बाक़ी सांसद भी तो अपने क्षेत्र जाते होंगे । इन सवालों पर चुप रहते हुए क्या मीडिया पर उठ रहे सवालों का जवाब दिया जा सकता है ? 


अरविंद को ऐसे हमलों से बचना चाहिए । सबको गाली और दो चार को ईमानदार कह देने से बात नहीं बनती है । दो चार नहीं बल्कि बहुत लोग ईमानदारी से इस पेशे में हैं । वो भले मीडिया को बदल न पा रहे हों मगर किसी दिन बदलने के इंतज़ार में रोज़ अपने धीरज और हताशा को समेटते हुए काम कर रहे हैं । हम रोज़ फ़ेल होते हैं और रोज़ पास होने की उम्मीद में जुट जाते हैं । अरविंद अपने राजनीतिक अभियान में मीडिया को पार्टी न बनायें । मीडिया को लेकर उनके उठाये सवाल जायज़ हो सकते हैं मगर तरीक़ा और मौक़ा ठीक नहीं । जेल भेजने की बात बौखलाहट है । पेड न्यूज़ वालों को जेल तो भेजना ही चाहिए । अरविंद की बात पर उबलने वालों को मीडिया को लेकर कांशीराम के बयानों को पढ़ना चाहिए । यह भी देखना चाहिए कि मीडिया उनके साथ उस वक्त में कैसा बर्ताव कर रहा था । किस तरह से नई पार्टी का उपहास करने के क्रम में अपनी उच्च जातिवादी अहंकारों का प्रदर्शन कर रहा था । कांशीराम भी तब मीडिया को लेकर बौखला जाते थे । 

आज मायावती खुलेआम कह जाती हैं कि मैं इंटरव्यू नहीं दूँगी । पार्टी के लोगों को सोशल मीडिया के चोंचलेबाज़ी से बचना चाहिए ।मीडिया में कोई आहत नहीं होता क्योंकि मायावती अब एक ताक़त बन चुकी हैं । अरविंद बसपा से सीख सकते हैं । बसपा न अब मीडिया को गरियाती है न मीडिया के पास जाती है । जब कांशीराम बिना मीडिया के राजनीतिक कमाल कर सकते हैं तो केजरीवाल क्यों नहीं । योगेंद्र यादव भी तो आप की रणनीतियों के संदर्भ में कांशीराम का उदाहरण देते रहते हैं । जिस माध्यम पर विश्वास नहीं उस पर मत जाइये । उसे लेकर जनता के बीच जाइये । जाना है तो । 

और जिन लोगों को लगता है कि मीडिया को लेकर आजकल गाली दी जा रही है उनके लिए अख़बारों के बारे में गांधी जी की राय फिर से दे रहा हूँ । 


"कोई कितना भी चिल्लाता रहे अख़बार वाले सुधरते नहीं । लोगों को भड़काकर इस प्रकार अख़बार की बिक्री बढ़ाकर कमाई करना, यह पापी तरीक़ा अख़बार वालों का है । ऐसी झूठी बातों से पन्ना भरने की अपेक्षा अख़बार बंद हो जायें या संपादक ऐसे काम करने के बजाय पेट भरने का कोई और धंधा खोज लें तो अच्छा है । "
12.2.1947- महात्मा गांधी( सौजन्य: वरिष्ठ पत्रकार श्रीकांत)