रेलगाड़ी और सिनेमा

सिमरन आज भी भागना चाहती है मगर भगा कर ले जाने वाले राज के पाँव काँपते हैं । बाउजी के थप्पड़ों से राज के क्लिन शेव वाले गाल लाल हो उठते हैं । फ़िल्म आख़िर में पहुँचते पहुँचते बी ग्रेड होकर यादगार हो जाती है । राज किसी का दिल जीतने आया था किसी का दिल तोड़ने नहीं आया था । हम नहीं जानते थे या शायद जानते थे कि इस फ़िल्म से एक सुपर स्टार पैदा हो रहा है । समीक्षक ही बता सकेंगे कि इश्क़ मोहब्बत की वही फ़िल्म स्टार क्यों पैदा करती है जो बने हुए सिस्टम से बहुत ज़्यादा छेड़छाड़ नहीं करती है । कुछ ले दे के एडजस्ट कर जाती है । सिमरन जैसी लड़कियाँ हतप्रभ रह जाती हैं । राज जैसे प्रेमी माफी माँगने लगते हैं । वो उसी खाप का एक नरम विस्तार बन जाते हैं जो माँ बाप या समाज से अलग रास्ते पर चलकर प्यार के परवान चढ़ाने से डराते हैं और डर जाते हैं । जाते जाते राज सबसे माफी माँगते चलता है । प्रीति से । संगीत ही है कि लाज बचा लेती है । सिनेमा के घिसे पिटे यथार्थ से निकाल लो जाती है । राज हाल्ट पर पहुँचता है । एक प्लाट के तहत कि बाउजी खुद लेकर आएँगे । बस बस बस बस । अनुपम खेर चौधरी साहब को क्या रोकते हैं बस बस गूँजने लगता है । राज लात खाता है । गिर जाता है । फिर पलटता है । बंदूक के साथ । चीखते हुए । लाठियों को हटाने के सिनेमा के स्थायी और कालजयी दृश्य में प्रवेश करते हुए । एंग्री यंग मैन का खुदरा खुदरा चेहरे पर तैरता है । उधर हवेली में माँ दरवाज़ा खोलती है । चल सिमरन मेरे साथ । भारतीय रेल का यह छोटा सा हाल्ट एक साधारण सिनेमा के क्लाइमेक्स का मेट्रो स्टेशन बन जाता है । फाइट सीन । ढिशूम ढिशूम । टेबल फ़ैन की हवा से राज के गहरे काले बाल उड़ रहे हैं । ट्रेन आने वाली है । आ रही है । प्लेटफार्म पर लग रही है । वक्त कम है । बाप बेटे कोच में चढ़ने लगते हैं । नाॅन एसी कोच । नब्बे का मध्यमवर्ग आख़िरी बार देखता है । एसी थ्री में शिफ़्ट होने से पहले । बाप ऊपर और बेटा नीचे । फिर से वही संगीत का मायावी यथार्थ । बाउजी सिमरन की कलाई पर अपनी आख़िरी ताक़त आज़माते हैं । ट्रेन चल देती है । कलाई छूट जाती है । राज कोच के दरवाज़े पर है । जा सिमरन जा । इस लड़के से ज़्यादा प्यार तुझे कोई और नहीं कर सकता । जा जी ले अपनी ज़िंदगी । अमरीश पुरी खलनायक से एक उदार पिता बन जाते हैं । सिमरन दौड़ पड़ती है । दौड़ रही है । ट्रेन कमबख्त चल रही है । सब कुछ स्लो मोशन में है । सिमरन का लहंगा । राज का लेदर जैकेट । वायलीन या बैंजो का ट्यून ।  राज की बाहों में सिमरन । भारतीय रेल । नब्बे के दशक के एक सुपर स्टार को लेकर चलने लगती है । दुल्हनियाँ ऐसे बुज़दिलों को दिलवाले कब तक समझेगी । मसखरी आशिक़ी नहीं है । तमन्ना बेताब है । अब चैनल बदल चुका हूँ । इसी फार्मेट से पहले पैदा हो चुका सुपर स्टार गा रहा है । रे मीत न मिला रे मन का । गाने के बाद कहता है सैड सांग था । विरह गीत । सिगरेट के धुएँ से छल्ले बनाता है । अभिमान उस शोहरत के तमाशे का तमाशा है जिसका हीरो सुधीर कुमार एक लाख का ब्लैक मनी रखता है । शोहरत के साथ बंगला खरीदता बेचता है । हिन्दी फ़िल्म की कहानियाँ चलती रहती हैं । रेलगाड़ी की तरह । प्लेटफार्म पर खड़े लोग इस रेलगाड़ी में चढ़ते रहते हैं और गाड़ी से नीचे उतरता रहता है । दोपहर बर्फ़ी देख रहा था । बर्फ़ी की पहली महबूबा दौड़ती है भागती रेल को पकड़ने के लिए । पतली दुबली लड़की साड़ी में लिपटी अंधेरी लाइट के शेड्स में दौड़ रही है । कुछ दिन पहले रांझणा जैसी एक बेकार फ़िल्म देखी थी । बनारस में इसका हीरो भी प्लेटफार्म पर साइकिल से भाग रहा है । सोनम अलीगढ़ जा रही है । वही सेकेंड क्लास का डिब्बा । ऐसे सीन के लिए सेकेंड क्लास का डिब्बा ही काम आता है । सिनेमा की रेलगाड़ी में एसी कोच अभी तक क्यों नहीं आया । रांझणा का हीरो साइकिल लिये पटका जाता है । ज़ोया की गाड़ी अलीगढ़ । रेल का सीन भी फिक्स है भाई । टीटी को ले दे कर । 

पागलनामा पार्ट नाइन

एक फलाने हैं जो चिलाने से मिलकर ढिमकाने को निपटाने में लगे हैं । विष्णु मुद्रा में लात पसार कर सोये हुए लोग अपना अवतार भेज कर काम करा रहे हैं । अवतार के साथ वरदान का पैकेज भी होता है । कभी वामन तो कभी रावण बनकर ये लोग काम करते हैं । राजनीति खाजनीति है । लोशन ही लोकतंत्र है । चुनाव आयेगा वोट मांगेगा तुम नोट से फंसना ज़रूर । उत्तराखंड की तबाही कवर करने गया रिपोर्टर पाँच किमी चल कर बड़ा काम कर गया है । मरे हुए लोगों के बीच वो जान पर खेल रहा है । पीठ ठुकाई हो रही है । तबाही की दो सौ कहानियों का स्पीड न्यूज़ बन चुका है । लेदी( चारा) की तरह ख़बरें कट रही हैं । दर्शक गाय की तरह टीवी की नाद में मुड़ी गड़ाये है । हनुमान चालीसा का एप्स बन गया है । स्टीव जाब के एप्पल फ़ोन पर चालीसा सुनो । कुंडली का भी पचपन रुपये का एप्स है । निर्मल बाबा टीवी पर आ गया है । तुम आयफोन पर चले जाओ । सोसायटी का मकान श्मशान लगता है । बूढ़े लोग टहलते जा रहे हैं । देश कौन चलायेगा । इसकी चिन्ता अख़बार से उठा लेते हैं । टीवी देख देख कर ज़ालिम लोशन हुए जाते हैं । खजुआते हैं फिर सहलाते हैं । हर दलील एक लोशन है । लोशन ही लोकतंत्र है । एंकर पिटी हुई फ़िल्म का हीरो है । प्रेशर कूकर के विज्ञापन का नायक है । पत्नी कूक करती है और एंकर नायक ठूंस कर मोटाता है । भारत को विश्व विजेता और विश्व गुरु होने की कुंठा ठेले जाते हैं । चीन होना ही होगा भारत को । वर्ना चीन कोई और हो जाएगा । चीन बनाने के लिए नेता पैदा हो रहे हैं । रात की बहस मरघट में जलती लकड़ियों की चरमराहट है । खोपड़ी फटती है और फट फुट की चिंगारी से हंगामा होता है । ब्रेक आ जाता है । देश में भ्रष्टाचार बहुत फैल गया है । जिन राजनीतिक दलों ने उसे फैलाया वही दूर करने का झंडू बाम बेच रहे हैं । बाम वाले तामझाम रोप रहे हैं । दर्शक खजुआते रह जाते हैं । देश पागलपन के दौर से गुज़र रहा है । प्रेमचंद पढ़कर हिन्दी बोलने वाला पाठक हो गया । बाँध बना बना कर हर ललिल का निबंध कर देता है । हर निबंध एक प्रबंध है । डिपार्टमेंट का गंध है । बोलने और हगने की एक ही शैली हर दिशा में है । हिन्दी पत्रकारिता फ़ेल हो चुकी है । हिन्दी के अख़बार प्रेम पत्र लगते हैं और चैनल मधुमति के गाने । इंडिया गेट पर विजय चौक क्यों हैं ? इस देश में हिन्दू और मुसलमान क्यों हैं । हिन्दू में मुसलमान और मुसलमान में हिन्दू क्यों नहीं हैं । पैराग्राफ़ मत बदलो । व्याकरण सबसे भ्रष्ट प्राधिकरण है । व्याकरण वाले लिंग निर्णय कराते हैं । अर्थ का राम नाम सत्य गाते हैं । मरी हुई भाषा के ज़िंदा लोग श्राद्ध खा रहे हैं । देश को विश्व गुरु नहीं बना पा रहे है । चेलों के जगत को जगत गुरु बनायेंगे, सौंगंध दुर्गन्ध की खाते हैं हम चीन बन जायेंगे । कोयले की दलाली में काला होकर भी सफ़ेद कुर्ता पहने नेताओं के गर्भ में ग्रोथ रेट पल रहा है । भ्रूण परीक्षण पर रोक लगाकर सब निश्चिंत हैं । किसी को क्या पता बेटा है कि बेटी है । यहाँ भी लिंग निर्णय है । निर्णय पर रोक है । भारी बारिश हो रही है । तानसेन का तानपुरा फट गया है । रहमान का घटिया म्यूज़िक शोर मचाये है । जाति जाति गिनती है । हाँ जी हाँ जी चलता है । लोकतंत्र तंत्र मंत्र है । झाड़ फूँक के लिए ओझाओं का जंत्र है । चौथा खंभा धँस गया है । इसी पर कबूतर हग रहा है । हम कितना अच्छा काम करते हैं कहने वाला कोई नहीं ।  कथा बांचने का कुछ तो श्रेय दे दो । वर्ना पहाड़ धँसने से पहले क्या हम अच्छा काम नहीं कर रहे थे । स्पीड न्यूज़ ही नियति है । जो रचेगा स्पीड न्यूज़ वही बचेगा मुक्ति बोध । नागार्जुन ठेला गए हैं ट्वीटर पर । बिजली आती नहीं है । जो विष्णु है वही सफल है । विष्णु न करवट बदलते हैं और न पैराग्राफ़ । अवतार का पैकेज भेज कर लोकतंत्र में नायक पैदा करते हैं । ब्रह्मा चुप हैं । शंकर तांडव कर रहे हैं । महामृत्युंजय का जाप करो । चाँदनी चौक से रोल गोल्ड का लौकेट ले आओ । पत्रकार को खत लिखो । भारत महान की दशा पर । बीस बीस पेज का । पैराग्राफ़ मत बदलो । चैनल बदलो । डाक टिकट जमा करो । आधी बात कान में बाक़ी बात श्मशान में । फ़लाना मिल गया चिलाना से । ढिमकाना ढह गया मलियाना में । 

पागलनामा पार्ट आठ

आता हुआ अख़बार कितनी कशिश पैदा करता है । खुश्बू से लिपटी हुई ख़बरों में इतराता दोहरा तिहरा होता कुम्हलाता है । परतों में परती पड़ी उसकी ज़मीन पर घास की तरह ख़बरें खुरदरी उगी नज़र आती है । कतरनें घुसी पड़ी होती हैं दुकानों और मकानों के पते की । एक अख़बार से कितने ठोंगे बनते हैं इसका हिसाब किसी संपादक को नहीं मालूम । पत्रकार पान की पीक से होंठ लाल कर ख़बर काली कर रहा है । अख़बार दैनिक बोख़ार है । चढ़ता है पर उतर जाता है । सरकार लोकतंत्र का बोख़ार है । जिसके एक खंभे पर टिका अख़बार है । चौथा है तो हर दिन इसका चौथा है । पन्ना पन्ना बंट जाता है । रूह किसी के हाथ में जिस्म किसी और की बाँहों में ।  जो जहाँ,जैसा है,ऐसा है,वैसा है । पहले कोमा है फिर फुलस्टाप है । नहाकर आई नायिका के बालों को काला करने वाली दवा की तरह ख़बर छपती है और उतर जाती है । सफ़ेद बालों पर कोई और सूचना सपना बनाकर बिठा दी जाती है । लेटी हुई नायिका के लिए टिप्स है अख़बार । संपादक का पाचक है अख़बार । पाठक पादक है । उसका हाज़मा ख़राब है । मर गया मर गया । जल गया जल गया । खंभा जो चौथा है । पोथा है बकवासों का । सब दलाल सब हलाल । सब माई के लाल । सूचना अनाथ है । लोकतंत्र केदारनाथ । बच जाता है । बाक़ी बह जाता है । टीवी के स्टुडियो में उतराता रहता है । एंकर भोले शंकर हैं । तांडव करते हैं । संपादक विष्णु हैं । लेटे हैं लक्ष्मी के साथ नाग के बिछौने पर । हाहाकार ही जयकार है । साधन बदलने से ज़माना नहीं बदलता । अख़बार के आने से हगने का टाइम नहीं बदलता । साथ साथ जाता है अख़बार । शोचालय का सच्चा साथी । लोकतंत्र का मदन मंजरी । पत्रकार खम्भे से लटका सरकार है । सैलरी साली है । नौकरी भाभी । मरेगा साला । दलाल बन जाए तो बच जाएगा । सेट होना ज़रूरी है । नहीं होता है तो कर देना चाहिए सेट । हेडलाइन ब्लूलाइन है । कुचलकर बासी हो जाती है । पैराग्राफ़ बिना बदले ही अख़बार छापो । पन्ना और पैराग्राफ़ मत बदलो । जूते के दराज़ में बिछाओ साले अख़बार को जिस पर बांचता पत्रकार है । टीवी में डालो इसको । बचाएगा जाकर लापता लोगों को । टूं टूं संगीत बजाएगा । दशहरी आम क्यों नहीं कोई खाता है । मनमोहन क्या खाता है मोदी क्या खाता है । लालू कितना खा गया । संजय दत्त जेल में पीता है । लोकतंत्र ने जब अपना अख़बार निकाला है हर दिन उसका मज़ार बना है । पैराग्राफ़ बदल लिये कि ठीक हो जाओगे । मत बदलो । सारे बाबू डाकू हैं । दो चार बौड़म साधो हैं । कबीर तो बच्चों के कैट नाम हैं । कबीर न किसी की तक़दीर है न बग़ावत की लकीर है । माला जपो । माल कमाओ । अख़बार पढ़ोगे तो तलवार कबाड़ में बेचोगे । 

पागलनामा पार्ट सेवन

हफ़्ता ख़ाली गुज़रा है । वैसे अब भरता ही कहाँ है । छत को आसमान समझ कर ज़मीन पर तारे गिनते गिनते कोने में पड़ी एक गेंद पर नज़र पड़ी । स्थूल । जैसे किसी ने बहुत दिनों से खेला ही नहीं । अब खेलना भी कहाँ होता है । कुछ खेलते हैं बाक़ी दर्शक बनकर खेलने वाले के साथ खेलते हैं । स्टेडियम की बेंच पर बैठे चिप्स खाते मोटाते रहे । खेलना आभासी है । टीवी विचित्र है । आलोचना आसमान में थूके जैसा चेहरे पर गिर आती है । जीवन चंदा नहीं है । जीवन धंधा है । बाक़ी सब गंदा है । जीवन को धंधे की तरह जीयो । नफ़ा नुक़सान देखकर । कविता हिन्दी में लिखो पर काम अंग्रेज़ी में करो । सब अंग्रेज़ी बोल रहे हैं । हिन्दी के शो में अंग्रेज़ी बोल रहे हैं । तो हिन्दी में पूरा का पूरा अंग्रेज़ी क्यों न बोली जाए । ब्रेड बटर ने और मोटा कर दिया है । कौन है जो चिट्ठी लिखता है और कौन है जो पत्रकार से बात करना चाहता है । भाग भाग कर बोलने आ जाते हैं । बोलते बोलते भाग जाते हैं । बोला नहीं कि पहले का बोला बोल दिया जाता है । अजीब सा माहौल है । क्या हो गया बोलने से और क्या नहीं हुआ नहीं बोलने से । तभी पैराग्राफ़ बदलने का मन नहीं करता । जिस कुर्सी पर बैठे हो उसी से रिटायर हो जाओ । नेमप्लेट बदल लो मगर कमरा मत बदलो । कुछ बदलता नहीं । झुर्रियाँ जुड़ती हैं । जिगर से लेकर फ़ीगर तक घट जाता है । भात खा लो वर्ना डाक्टर मना कर देगा । मौक़ा देखकर सेट हो जाओ । नहीं हो पाओ तो चलते रहो । धर्मगुरुओं की तरह । एक सरकार से दूसरी सरकार में फिर अपनी सरकार बना लो । भरते रहो खुद को । ख़ाली मत रहो । नींद नहीं आए तो जागो । अगला हफ्ता भी वैसे ही गुज़रेगा । ख़ाली बर्तन फिर बजेगा । ख़ाली बर्तन फिर बजेगा । जो सुनेगा वो ख़ाली हो जाएगा । बर्तन बचा रह जाएगा । टीवी बोलता रह जाएगा । 

पागलनामा पार्ट सिक्स

आसमान नीला लग रहा है ।हवा आँधियों के गुज़र जाने की बाद की लग रही है । भारत की समस्याओं के दो रूप पावडर पोत पोत कर सफ़ेद होने की तैयारी कर रहे हैं। दोनों की पूँछ में कार्यकर्ता तेल लगा रहे हैं । पुष्पक विमान उड़ा जा रहा है । गरूड़ नीचे गिरे पड़े है । सत्य के दो दल हैं । दोनों दलों के दलबल हैं । दलबल में दलाल हैं । दलील ज़लील होती है । जाहिल ज़ाहिर है । सत्य माहिर है । सत्य ही सियासत है । सत्य बहुमत है । सत्य महत्वकांक्षा है । भारत की समस्याओं के दो रूप एक ही रंगमंच के दो ड्रामे हैं । दोनों का अतीत और वर्तमान एक सा है । दोनों के खाते में बराबर या नहीं तो कम बेस आरोप जमा हैं । मार मची है । आपका हर कहा ख़रबूज़ है, गिरेगा चाक़ू पर ही है । घात लगाकर बैठे दलाल आपको भक्त बना देंगे । गालियों के रोली चंदन से टीक देंगे । दोनों के झंडे में कुछ रंग समान है । दोनों के झंडे का डंडा भी समान है । एक जाता है तो सबसे पूछवाता है वो कहाँ हैं । दूसरा जाता है तो जताता है कि वो आया था किसलिए । दोनों तरफ़ देश है । दोनों तरफ़ दंगा है । तराज़ू बराबर है । निर्लज्जता बराबर है । ये मारा वो मारा । जो बोलेगा वो गिरेगा चाक़ू पर । पागलों की दौड़ है । पागलों के पास ख़ूब आँकड़े हैं । इनसे इनके अपने भी कट रहे हैं । इनसे इनके परा़ये भी लुट रहे हैं । उनसे इनका चल रहा है । अजब हिंसा का दौर है । तू इसकी हाँ कहेगा तो तेरी माँ बहन । तू उसकी हाँ कहेगा तो सबकी माँ बहन । गालियों से भारत की समस्याओं के दो रूप सजाये जा रहे हैं । सत्ता हिंसा माँगती है । सत्ता लाश माँगती है । जो मर गया वो भुन गया ।जो बच गया वो धुल गया । तो आसमान नीला लग रहा है । हवाओं मे वो कशिश नहीं है । गालियों की आँधियाँ चल रही हैं । दलीलों का भंडारा बंट रहा है । काट पर काट है । लात पर लात है । लाद पर लाश है । हर हर महादेव है । अल्लाहू अकबर है । उसके बाद ईद मिलन है । उससे पहले होली मिलन है । पुष्पक विमान उड़ रहे हैं । मंदाकिनी का हरा पानी लाल होने वाला है । दो ब्रह्मांड हैं । दोनों के चारों तरफ़ भांड हैं । हाहाकार है । टीवी बंद कर दो । पैराग्राफ़ मत बदलो । चलते रहो । दोनों रूपों के पीछे पीछे । भारत की आत्मा को मुक्त करने । रिमोट फेंक दो । असली रिमोट किसी और के पास है । गालियां दो , लाठियाँ फेंक दो । महान महान महान जपो । हर हर महादेव तज दो । भागो उसके मंदिर के पीछे से मलबा चला आ रहा है । जान बचा लो। मर जाओ तो पड़े रहना । भारत की समस्याओं के दो रूप चले आयेंगे । शांति शांति शांति । नहीं नहीं । दे गाली दे गाली । इनबाक्स में गाली । आउटबाक्स में गाली ।  गाली हवन है । गाली यवन है । गाली पताका है । गाली महत्वकांक्षा है । सत्ता गाली की साली है । 

पागलनामा- पार्ट पाँच

सोर्टीज़ । उत्तराखंड में आई आपदा में यह शब्द यूं हवा में तैर रहा है जैसे हम सब रोज़ अपनी छत पर हेलिकाप्टर उड़ाते रहे हैं । हर रिपोर्टर हर चैनल इतना सोर्टीज़ सोर्टीज़ जप रहे हैं कि पूछिये मत । मरने वालों,फंसे लोगों और बचाये गए लोगों की संख्या के साथ सोर्टीज़ की गिनती भी बढ़ गई है । इस आपदा के बहाने यह शब्द हिन्दी और अंग्रेज़ी के दर्शकों में ठेल दिया गया है । कोई नहीं बता रहा है कि इस गिनती में सोर्टीज़ क्यों महान है । क्यों इसकी चर्चा हो रही है । एक सोर्टीज़ में कितना वक्त और जोखिम शामिल है । जब सौ पचास हेलीकाप्टर उड़ेंगे तो उनके सौ डेढ़ सौ उड़ाने ज़रूर होंगी । मैंने कुछ लोगों से पूछा भी कि भाई सोर्टीज़ क्या होती है । कोई जवाब नहीं मिला । आप लोगों की तकलीफों से जुड़ी ख़बरों के बीच अचानक एक ऐसे शब्द से टकराते हैं जिसका आपके जीवन से कोई लेना देना नहीं । इस्तमाल करने वाला भी नहीं बताता कि सोर्टीज़ का मतलब क्या है । अगर हम यह कह देंगे कि हेलिकाप्टरों ने इतने फेरे लगाए हैं तो कुछ कम पढ़े लिखे लगेंगे क्या । कांग्रेस की प्रवक्ता रेणुका चौधरी से लेकर सेना के बनाये बेस तक से रिपोर्टर सोर्टीज़ सोर्टीज़ बोल रहे है । आज हेलीकाप्टरों ने अस्सी सोर्टीज़ लगाईं । अबे कितने हेलीकाप्टरों ने ये सोर्टीज मारे ये भी तो बता । क्या ये हेलिकाप्टर इतनी सोर्टीर्ज़ लगाने के योग्य नहीं है । क्या इस संकट में मार मार कर हेलिकाप्टरों से सोर्टीज़ लगवाई जा रही है । हिन्दी के पत्रकार भी सोर्टीज़ ऐसे बोल रहे हैं जैसे उनके ख़ानदान में किसी का हेलीकाप्टर का गराज रहा हो । क्या मतलब है सोर्टीज़ का । ये सोर्टीज़ भी सिर्फ सेना के हेलीकाप्टरों की ज़्यादा गिनी जा रही है । एनडीआरएफ और आईटीबीपी की चर्चा सेना के मुक़ाबले कम है । रिपोर्टर धड़ाक से सेना के पास पहुँचते और वहाँ रहते वक्त सेना का गुणगान करते हैं । मैं भी सेना का क़ायल हूँ और इस आपदा में भी सेना का योगदान स्वर्णिम रहा है । लेकिन क्या  किसी ने यह देखने या दिखाने का प्रयास किया कि जो राष्ट्रीय आपदा रिसपांस फ़ोर्स बनी है वो कैसे काम कर रही है । बीस हज़ार की संख्या में यह फ़ोर्स है । इसे कुछ तो ट्रेनिंग मिली होगी । ये भी तो कुछ कर रहे होंगे । इनकी क्या तैयारी है ।  सीमा सड़क सुरक्षा बल के प्रयासों की भी चर्चा सेना के मुक़ाबले कम है । साफ़ है कैमरे वालों को ख़बर या सूचना की विविधता की चिंता कम है वे शानदार से दिखने वाले हेलीकाप्टरों और वर्दी में स्मार्ट और जाबांज़ दिखने वाले सैनिक अफ़सरों के अति प्रभाव में हैं । सबने उनकी भाषा सोर्टीज़ को आत्मसात कर लिया है । ताकि आप दर्शकों को यह न लगे कि आपका रिपोर्टर हेलीकाप्टर के कलपुर्जों की जानकारी नहीं रखता है । ऐसा तो हो नहीं सकता कि स्थानीय प्रशासन या पुलिस कोई काम ही न कर रही हो । ठीक है कि इनकी लापरवाही रही है पर ये भी तो कुछ कर ही रहे होंगे । इनके बारे में कोई रिपोर्टिंग नहीं है ।  जब देखो तब किसी ब्रिगेडियर या विंग कमांडर की बाइट चल रही है । ऐसा लगता है कि सेना की आंतरिक बुलेटिन जारी की जा रही है । हम सब सेना के अति प्रभाव में रहने वाले लोग हैं । पर अगर इस आपदा राहत में लगे सभी अंगों पर बराबर से ध्यान जाता तो ज़्यादा विविधता पैदा होती । सेना का जनसंपर्क अच्छा है इसमें कोई शक नहीं पर क्या हम ज़रूरत से ज़्यादा सेना सेना नहीं कर रहे हैं । एक अंग्रेज़ी के रिपोर्टर ने किसी पायलट से पूछा तो उनका टका सा जवाब था इसी की तो हमें ट्रेनिंग मिली है । लीजिये । लगाइये और सोर्टीज़ । पैराग्राफ़ मत बदलो लाइफ़ में । न ही लाइन । जो सब कर रहे हैं वही करो । वर्ना लिखोगे पागलनामा । सोर्टीज़ ले लो । सोर्टीज़ गिन लो । सुबह से लेकर रात तक सोर्टीज़ । माथा ख़राब कर दिया है सब । हेलीकाप्टर है त उड़बे न करेगा जी । उड़ेगा त सोर्टीज़वा होबे न करेगा रे । 

सिनेमा का एक पर्दा

सिनेमा का एक पर्दा 
सत्तर एम एम का 
बिल्कुल मोना सिनेमा सा 
पटना का 
थरथराता है मेरे भीतर डोल्बी साउंड से 
कि मेरी एक कहानी होगी कभी 
पर्दे पर टुकड़े टुकड़े में 
मेरे भीतर दबे तमाम किस्से 
जब भर जायेंगे रंगों से 
वाइड लैंस का कैमरा झांकेंगा जिसमें 
दौड़ती मचलती मेरी कहानियाँ 
रूलाती हंसाती और भगाती 
जैसी छोटी लाइन की रेलगाड़ियाँ 
छुक छुक छुक छुक
एक पर्दा है 
सिमटता खुलता रहता है 
सत्तर एम एम का
बंद बक्से में सालों से रहता है 
ख़्वाबों के शहर में
अधूरा सा 
पूरा होते होते सो जाता है 
टन टन भाजा पोटैटो चिप्स 
की लोरी सुनते सुनते 
घर आ जाता है 

पागलनामा- पार्ट फ़ोर

फ़ेसबुक पर न्यूज़ चैनलों की रिपोर्टिंग को लेकर प्रतिक्रियाएँ पढ़ रहा हूँ । अब इतना कम टीवी देखता हूँ कि पढ़ते हुए लगा कि लोग क्यों देख रहे हैं । ये बातें कहीं दस साल पहले तो नहीं पढ़ीं । जब चैनल उनकी अपेक्षाओं पर खरे ही नहीं उतर रहे, उल्टा उनके भीतर चिढ़ पैदा कर रहे हैं तो उन्हें बंद कर मेरी तरह अख़बार का इंतज़ार करना चाहिए । अख़बार में भी कोई स्वर्ण युग नहीं है । फिर भी हर घटना में चैनलों का आपको बेवकूफ बनाना, आपका चैनलों के संग बेवकूफ बनना 'लव हेट ' रिलेशनशिप बन गया है । चैनल ऐसे ही रहेंगे । जो अपवाद हैं वो इस गंध में इधर उधर से निकल कर आते रहेंगे । एकाध छक्का तो हरभजन भी मार देता है । हम पहले पहुँचे, हमारी तस्वीर पहली है, हमने ही पहले बताया था । एक अंग्रेज़ी का रिपोर्टर यह बोल रहा था कि उसके सूत्रों ने बताया है कि आने वाले पलों में बारिश होगी । मुझे तो लगा कि इंद्र के दरबार में भी सूत्र है । सही है कि हमारी भाषा संरचना में चमत्कार और दैवी कृपा ऐसे ठूँसे पड़े हैं कि उन्हें जब सामान्य दिनों में निकाल नहीं पाते तो केदारनाथ को देखकर कैसे निकालेंगे । क्या पता कि अख़बार वाला भी इसी भाषा में लिख रहा हो । कितने रिपोर्टर गाँव गाँव भटक रहे हैं । टीवी के रिपोर्टर का पहुँचना ही घटना है । दिखाने की सुविधा होने के कारण वो खुद को घटना बनाता है ताकि पहले से घट चुकी घटना की भयावह़ता का वो हिस्सा बनकर नायक हो जाए । इसका कुछ नहीं किया जा सकता । केदारनाथ के ढहने पर चैनलों का टी सीरीज़ में बदल जाना मुझे हैरान नहीं करता । टीका अँगूठी ताबीज़ पहने ये रिपोर्टर ऐसी भाषा में नहीं बोलेंगे तो कौन बोलेगा । क्या ये केदारनाथ की वेदपाठी की परंपरा के विस्तार नहीं है? बिल्कुल ये रिपोर्टर उम्मीदों पर खरे उतरे हैं ।  जो भी टीवी में काम करने आ रहा है वो इसी तरह की भाषा और शैली का अनुसरण करे । आलोचक आपके संपादक नहीं हैं । गंध में गंध की तरह रहो । कीचड़ में कमल खिल जाने से कीचड़ की नियति नहीं बदलती । कमल व्यक्तिगत है । उस पर भी तोहमत है कि कीचड़ में ही खिला है । खुलकर गंध कीजिये । इससे नवोदित पत्रकार शुरू से ही सिस्टम के अनुकूल रहेंगे और कैरियर कम तनाव में गुज़रेगा । ज़्यादा पत्रकारिता के मानक सीखने में समय न लगायें । एडजस्ट कीजिये । जिसको देखने में तकलीफ़ हो रही है उसकी चिंता मत कीजिये । वो खाली बैठा है टीवी के सामने । दस साल के अनुभव से बता रहा हूँ । एक आलोचना का असर होते नहीं देखा है । जब आपके बड़े भी यही मिसाल छोड़ गए हैं तो खुलकर बिना किसी नैतिक संकट के करो । बल्कि केदारनाथ से हिन्दू संकट का एलान कर दो । दहाड़ मार कर रोना शुरू कर दो कि शिव का मंदिर बच गया है । इस ज्योतिर्लिंग में शक्ति है । आइये फिर से नई आस्था के साथ माँगने चढ़ाने आ जाइये । तमाशा है टीवी तो तमाशबीन है दर्शक । खुद घर में कंठी पहनकर बैठा होगा और आपसे कहेगा कि आप मंदिर के चमत्कार में न बहो । अपनी सेटिंग संपादक और शंकर से रखो । दर्शक क्या होता है । इससे पहले की कौन सी ऐसी घटना थी जिसमें टीवी ने ऐसी हरकत नहीं की थी । वो ऐसे ही करेगा । इसीलिए इतनी बड़ी घटना होने के बाद भी मैं बीस मिनट भी टीवी नहीं देखा । हल्का फुल्का देखकर उसके बाद एम टीवी । अब अगर ये पता नहीं है कि नौटंकी होगी तो इसका मतलब लोगों को टीवी देखना नहीं आता । साल भर तमाशा देखो और एक दिन चाहो कि संवेदना और ज़िम्मेदारी से भरपूर वाला हो जाए तो हद ही है न । कई बार लगता है कि लोग फ़ेसबुक पर स्टेटस लिखने के लिए पाँच मिनट चैनल देखते हैं । पता चलता है कि ये भी गंध ढूंढ रहे हैं लिखने के लिए । अपना कान खुजाकर सूंघने वाले हैं ये । हालाँकि बातें इन्हीं की ठीक लगती हैं पर जिन बातों का कोई असर न हो उनका रास्ता छोड़ देना चाहिए । गटरकाल है पत्रकारिता का । गटर की गंध का अपमान मत करो । आपदा आई है । टीवी का प्रदर्शित दुख अपने आप में एक आपदा है । सब रिपोर्टर ऐसे बोल रहे हैं जैसे यही शुभचिंतक ठहरे । सर पीटो, माथा फोड़ लो बात एक ही है । कुछ सही में जवाबदेही से बोलते होंगे । पर क्या करना है । क़समें वादे प्यार वफ़ा सब बातें हैं बातों का क्या । रेटिंग आ जाएगी सब धुल जायेगा । अगले हफ्ते प्रोमो चलेगा कि इस घटना के कवरेज ने सबसे ज्यादा हम पर भरोसा किया । अभी एक महीना और एक साल की बरसी बाकी है । चैनल बदल कर करोगे क्या । हर तरफ अब यही अफसाने हैं । हम तो तेरी आंखों के दीवाने हैं । लाइफ़ और लेखन में पैराग्राफ़ मत बदलो । 

फ़िल्म देखते हुए

रति अग्निहोत्री और मिथुन की एक पुरानी फ़िल्म देख रहा हूँ । केबल पर आ रही है । पसंद अपनी अपनी । मिथुन एक सीन में रति के भाई को पार्कर पेन दे रहे है । उससे पहले के एक सीन में जब वे दर्ज़ी से मिलने जाते हैं तो थम्स अप का बोर्ड रखा है । विज्ञापन ने सिनेमा के प्रसंगों में इसी तरह से दस्तक दी होगी । रति पतली दुबली लग रही हैं । तब शायद कृशकायी अभिनेत्रियों को साइज़ ज़ीरो नहीं कहा जाता था । रति की चप्पल टूटने का एक सीन है । छोटा भाई कहता है कि दीदी कील ठोंक देता हूँ । लकड़ी के सोल वाले चप्पलों से फ़ीता ऐसे ही निकल जाता था । 
मदन मंजरी नाम का नाटक है या शायद नाटक कंपनी । इस फ़िल्म में एक फ़िल्म पत्रकार भी है । जो रति के कमरे पर दस्तक देता है । जी मैं फ़िल्म पत्रकार हूँ और गीता जी से मिलना चाहता हूँ । मिथुन मना कर देते हैं । जब पत्रकार साहब पूछते हैं कि आप कौन है तो मिथुन अपना नाम बताते हैं संदीप आनंद । शहर के बड़े उद्योगपति का बेटा का ना है संदीप आनंद । नाम सुनकर ही पत्रकार का चेहरा खिल उठता है जैसे उसे कोई स्कूप मिल गया हो । फ़िल्म सचमुच दस्तावेज़ है । न्यूज़ से दिल भर गया है । हर वो चीज़ जो चैनलों की दुनिया से अलग है आकर्षित करती है । बिना पैराग्राफ़ बदले लिखने का जुनूँ शायद उसी विरक्ति से पैदा होती है । मिथुन और गीता वुडलैंड गार्डन कैफ़े से निकलते हुए पकड़े जाते हैं । अशोक कुमार एंबेसडर से उतरते हैं । तब के उद्योगपतियों की बड़ी कार । रति भोली भाली अभिनेत्री हैं । मशाल में पसंद आईं थीं । पहले की फ़िल्मों के हीरो जब अमीर बाप के बेटे बनते थे तब शाटन की नाइट शूट ज़रूर पहनते थे । समझ नहीं आया कि ये नाइट शूट ज़िंदगी में कब पहनना था जो नहीं पहन सके । चलता हूँ । चलते रहने के लिए चलते रहना ज़रूरी है । बारिश के बाद का आज का दिन अक्तूबर की किसी दुपहर जैसा है । 

पागलनामा- पार्ट थ्री

कुछ दिल ने कहा 
कुछ भी नहीं 
ऐसी भी बातें होती हैं 
लेता है दिल अंगड़ाइयां
इस दिल को समझाये कोई 

रात ऐसी ही होती है । विविध भारती के जैसी । धीरे धीरे आवाज़ साफ होती सी । सिरहाने के क़रीब रखा रेडियो चुपचाप गाये जा रहा है । तारों से भरा रात का आसमान थिरक रहा है । जो भी है बस यही इक पल है । पाँव बिस्तर के बाहर झूल रहे हैं । इन गानों की सोहबत में रात दोस्त की तरह बात करती है । सारे राज़ के वेवलेंथ पकड़ लेती है । हौले हौले बातों से अच्छा करती जाती है । टेबल फ़ैन की हल्की हवा का शोर गुम हुआ जाता है । रेडियो है कि गाता है । 

"अनजाने सायों का राहों में डेरा है 
अनदेखी बाहों ने हम सबको घेरा है । 
जीने वाले सोच ले यही वक्त है 
कर ले पूरी आरज़ू "

वायलीन जैसा कुछ बज रहा है । माउथ आर्गन है क्या । मालूम नहीं । कौन है उस तरफ़ जानता नहीं । गानों में कौन है जो किसी से मिलता जुलता है । जीवन में कौन है जो गानों सा लगता है । मैं हूँ तो भी नहीं हूँ । पैराग्राफ़ बदलना गुनाह लगता है । लिखना बादल के फटने जैसा है । सब कुछ बह जाता है । जो होता है वो भी और जो नहीं होता है वो भी । लिखी हुई बातों से मन दूर निकल आता है । पागलनामा क्यों लिख रहा हूँ । क्यों जाग रहा हूँ । नींद किस शहर से आती है । वो ग़ाज़ियाबाद नहीं आती क्या । पतंग की कटी डोर पकड़ने सा मंज़र है । बचपन में डोर के पीछे दूर तक भागना नींद के पीछे दौड़ना जैसा है । क्या है जो सोने नहीं देता । क्या है जो जागने से मिल जाएगा । क़ानून बनाओ । क़ानून बनाओ । हर ख़्वाब को जुर्म में बदल दो । सलाखों  के पीछे मिलेंगे सपने और जेलर बना जाग रहा होऊँगा मैं आपका रवीश कुमार । कोई परेशानी तो है नहीं फिर परेशान कैसा । केदारनाथ सिंह को पढ़ूँ क्या, लेकिन काशीनाथ सिंह से शांति नहीं मिली । मंगलेश की कविता ठीक रहेगी । नहीं न्यूज़ चैनल देख लूँ । नहीं नहीं । नहीं देखनी । मैं तो पागल हूँ । न्यूज़ तो समझदार देखते हैं । पागल तो जागता है । नींद नहीं आती । अरे अरे फिर कोई गाना आ गया । 
दुनिया में लोगों को 
धोखा कभी हो जाता है 
आँखो ही आँखों में 
यारों का दिल खो जाता है । 

विजेता कहीं भी सो लेता है । करवट नहीं बदलता है । ग़ाज़ियाबाद हारे हुए लोगों का शहर है । हिन्दी कविता पढ़ने वालों की दुनिया । जो अपना पैसा देकर संग्रह छपवाते हैं कवि कहलाने के लिए । तुम सोते हो कि नहीं । 

पागलपन - पार्ट टू

पानी शहर में डूब चुका था । नदियाँ शहरों में डूब गई थीं । पहाड़ शहर में खप गए थे । जिन्हें हमने डूबा हुआ मान लिया था अब यही सब हमें डूबा रहे हैं । बारिश बावरी हो गई है । जाने दो ये महीना हम फिर बनायेंगे । करेंगे विकास उन्हीं रास्तों पर जहाँ नदियाँ बहा करती थीं । सीमेंट से भर देंगे । जो विरोध करेगा वो पागल कहलाएगा । भरो भरो शहरों को रेत के बारूद से भर दो । नाली पानी के निकलने का रास्ता मत बनाओ । फ़्लाइओवर बनाओ । पैराग्राफ़ मत बदलो । बड़बड़ाते जाओ । इमारतें ढह रही हैं । जिस शिव की जटा से गंगा निकली उसी शिव की मूर्ति से गंगा दहाड़ मार मार कर टकरा रही है । महाविलाप का प्रलय है । कुछ का मर जाना तय है । गंगा ख़तरे के निशान से ऊपर है । हम नदियों से दूर जा चुके हैं । नदियाँ हमारी गर्दन पकड़ रही हैं । बचाओ बचाओ । ऐ विकास अलकनंदा सो बचाओ रे । ऐ विकास भागीरथी से बचाओ रे । मार देंगी दोनों । गंगा सबको नंगा कर देगी । मानसून का मातम सुन । सब गिरेगा सब बहेगा । कोई अफ़सोस मत करो । इंजीनियर ने पढ़ा ही होगा । नेता ने देखा ही होगा । पहाड़ों के रास्ते पहली बाढ़ नहीं है । हरहर हाहाकार ।

पागलनामा- पार्ट वन

थकान गले तक भरी हुई है । दिमाग़ पाँव तक सुन्न है । सुबह सुबह रात की बची ख़बरें झनझना रही हैं । ऐसी तमाम ख़बरों के साथ दिन बदल जाते हैं । हम उन्हें युद्ध में बदल कर मोर्चे पर डटे सिपाही का भरम पाल लेते हैं । कुछ दर्शक कुछ पाठक भी रण में उतरे होते हैं । तलवारें भांज रहे होते हैं । बाक़ी बची ख़बरों से चुपचाप रक्त रीसता है । इस माहौल में कौन रोता है किसका लहू देखकर, कौन भीगता है किसी के आँसू देखकर । हम सबको पता है कि हम सब ऐसे ही हैं । हम सब ऐसे ही रहेंगे । चुप रहना है बस । खुद से भी चुप्पी साध लेनी है । जो पकड़ा जाएगा मारा जाएगा । उसके लिए बाक़ी लोग लिख कर या बोलकर क्या बदल लेंगे । फिर भी बोला तो जायेगा । लिखा तो जायेगा । कुछ बदल भी जाये तो इसी नाम पर सब चलता चला जाएगा । आप ख़ुद को जितना ख़ाली करते हैं उतना ही भरने लगते हैं । ख़ाली जगह में हवा घुसकर साय सायं करती है । शोर है । भीतर ,बाहर । आप जो नहीं है वो भी हैं कई लोगों की नज़र में । जो हैं वो भी नहीं हैं कइयों की नज़र में । आप कहीं है ही नहीं । ख़ुद में न दूसरों की नज़र में । राजनीति कीजिये । बस कहिये कि राजनीति नहीं करते । अपना साक्षी ख़ुद बन जाइये । 
तब भी कुछ नहीं होगा । कुछ नहीं बदलेगा । भाषा के उसी भवंर में हम आप उतराते रहेंगे । वाक्य विन्यासों के हाइवे पर स्कूटी दौड़ाते रहेंगे । चेतना जड़ समाज में लिखना चेतनाशील नहीं है । दावा मत कीजिये । दूसरे को दे दीजिये । गुट ज़रूरी है । गुटका भी । कांग्रेस ज़रूरी है । बीजेपी भी । नेता ज़रूरी हैं । कार्यकर्ता भी । विचारधारा ज़रूरी है । अवसरवाद भी । पीछे से मार करने की रणनीति बनाते रहिए । सामने से मुस्कुराते रहिये । सामने वाले को गिरते देखिये । गिराने वाले के साथ हो जाइये । दलीलें तैयार रखिये । यही हथियार हैं । शातिर और दलाल यूँ ही नहीं श्रेष्ठ दलील रखते हैं । उनका दर्शन त्वरित और मारक है । कुछ भी नया नहीं है । जो नया नहीं है वो भी आपका है । पहली बार है । ऐसा दावा करते रहिए । बातें परती ज़मीन हैं । हर दौर में उन पर कब्ज़ा होता रहेगा । तनाव से गुज़रते हुए पागल हो जाइये । मेरी तरह अल्ल-बल्ल लिखते जाइये जैसा कि मैं अभी अभी कर चुका हूँ । मैं अभी पागल नहीं हुआ हूं । ईंट पत्थर की बदबू से भरा यह शहर जल्दी पागल कर देगा । शातिर शांत है । वो लिखता नहीं है । मारे गए लोग लहू को स्याही समझ लिख देते हैं । पागल होने के इस दौर में पैराग्राफ़ मत बदलिये । एक ही साँस और एक ही रौं में कह जाइये । कुछ नहीं होगा । जो पाया है गँवा दीजिये । सिर्फ बातें बचती हैं । जिन्हें छोड़ दिया जाता है आपके पीछे । ताकि आप भागते रहें और सुनते रहें । दीवारों पर, पोस्टरों पर, टीवी में, अख़बारों में । हर तरफ़ बातें हैं । सत्य अंडरवियर पहनकर समंदर के किनारे 'हाफ़ ट्रूथ' बना सूर्य स्नान कर रहा है । झूठ शहर का मेयर बन गया है । बारिश से कौन भीग रहा है । वो जो घर से निकला ही नहीं । आनंद रेडिमेड है । नूडल है । शर्म आँखों में नहीं जुराब में होती है । जूते तो उतारो । मिल जाओ हर धारा से । मिले रहो । इससे उससे । सबसे । सुनो । चुपचाप । साँसों को आहट की तरह । कहो चुपचाप कानों में साज़िश की तरह । बिजली चली जाएगी । नींद भी चली जाएगी । जागते हुए पागल होना अच्छा नहीं है । क्या इस शहर में नींद किराये पर मिलती है ? 

दिल की गिरह खोल दो

दिल की गिरह खोल दो, 
चुप न बैठो कोई गीत गाओ 
महफिल में अब कौन है अजनबी
तुम मेरे पास आओ....
मिलने दो अब दिल से दिल को
मिटने दो मजबूरियों को 
शीशे में अपने डूबो दो
सब फ़ासलों दूरियों को

जब भी यह गाना सुनता हूँ थिरकने लगता हूँ । हिन्दी सिनेमा के गाने मेरी धमनियों में दौड़ते हैं । यही मेरी अहसासों की दुनिया हैं । दूसरे की रची हुई मगर मेरे लिए । इस गाने की संयमित रफ़्तार एक ऐसी दुनिया में ले जाती है जहाँ शाम की हल्की सी हवा छू छू कर गुज़र रही है, हमारे क़दम किसी के साथ आगे पीछे हो रहे हैं । दोनों एक दूसरे को ऐसे थामे हैं कि थिरकना लाज़िमी हो जाए । रौशनी उकसा रही है कि कह दो । मन की गाँठें खुलने लगे चुपचाप । कोई बुला ले अपने पास । बिठा ले और कहने के लिए सारा वक्त क़दमों में बिछा दे । क्या गाना है । अभी बजाइये । 

ग़ज़ब का गीत है यह । रवानगी ऐसी कि भागते दिल को कोई थाम न सके । मेरे मोबाइल में यह गाना हमेशा रहा । हम जैसे न कह पानों के लिए उकसाने वाला गीत । कहने का ऐसा बेतकल्लुफ़ माहौल यह गाना रचता है कि पूछिये मत । ग़ौर कीजिये इस पंक्ति पर ...

हम राह पूछे किसी से 
न तुम अपनी मंज़िल बताओ 
कल हमसे पूछेगा कोई
क्या हो गया था 
तुम्हें कल 

कहाँ से आए हो और जाना कहा है । बस कहते रहो । तभी इस गाने के बाद एक और बजने लगता है । 

आगे भी जाने न तू 
पीछे भी जाने न तू 
जो भी है 
बस यही एक पल है 

दोनों गानों को इसी क्रम में सुनियेगा । 

मोहल्ले का मौसम




मेरे मोहल्ले का मौसम सुहाना है । फ़ेसबुक पर वो सारे लोग सावनमय हुए जा रहे हैं जिनकी खिड़की से बादल दिखता भी नहीं । हवा इतनी नरम है कि सबका शातिर मन शायराना हुआ जा रहा है । कोई निराला को याद कर रहा है कोई पंत को । सारी यादों का प्रदर्शन रूटीन लगता है । ऐसा लगता है कि यादें एक ही किस्म की हैं उसमें अलग अलग लोग एक दूसरे से अनजान फ़िट हो गए हैं । भाषा का ऐसा फार्मेटीकरण डराता है । लगता है क्या बोलें जब बोलना ही उसी फ्रेम में है तो । 

बहरहाल मौसम का मज़ा लीजिये । बारिश आती है । हम भीगते तो हैं मगर धुलते नहीं । दिमाग़ के भीतर यादों की अनगिनत खिड़कियाँ हैं । एक खुलती है तो दूसरी बंद हो जाती है । अजीब बोरियत है । नया क्या है । यादें कृत्रिम लगने लगी हैं । बादल भी एक छवि की तरह आते हैं । अब उन्हें देख कुछ बचा नहीं कहने के लिए । जो कहा जा चुका है वो तरह तरह से कहा जा रहा है । 

ग़ज़ल मौसम और दिल्ली

जब से हम तबाह हो गए 
तुम जहाँपनाह हो गए 
हुस्न पर निखार आ गया 
आइने स्याह हो गए 
तुम जहाँपनाह हो गए 

आँधियों की कुछ पता नहीं 
हम भी दर्दे राह हो गए 
तुम जहाँपनाह हो गए । 
दुश्मनों को चिट्ठियाँ लिखो
दोस्त ख़ैरख्वाह हो गए 

दिल्ली का मौसम बदला हुआ है । मिज़ाज ए शहर में हम नहीं हैं । जगजीत चित्रा की ग़ज़ल बारिश की तरह सुन रहा हूँ । कितनी बार इस ग़ज़ल पर लिखूँगा और सुनूँगा पता नहीं ।पर मुश्किल से आठ दस पंक्तियों की इस ग़ज़ल को ऐसे गाए जा रहे हैं ये दोनों कि आरी पर ज़िंदगी कटती जा रही है । एक बार मौसम बदल जाए लोग झूमने के इंतज़ार में बैठे रहते हैं । हवा शायद यही ख़ूबसूरत है जो बारिश से पहले आई है । कहीं से भीग कर आई है । 

सरदार पटेल का कुर्मीकरण

मंडल के बाद के दौर में सरदार बल्लभ भाई पटेल कुर्मियों के नेता भी हैं । उनकी जन्मशताब्दी पर पटना से लेकर उत्तर भारत के उन हिस्सों में जहाँ जहाँ कुर्मी आबादी है वहाँ वहाँ सरदार पटेल की याद में कुर्मी जाति के नेता विद्वान जमा होते हैं । पटेल की जन्मशताब्दी कुर्मी ही मनाते हैं अब । जैसे जाट समाज की किसी भी अधिकार रैली में आप भगत सिंह की तस्वीर देखेंगे । तो आने वाले दिनों में सरदार पटेल का कुर्मीकरण तेज़ी से बढ़ेगा । वे लौह पुरुष जैसे कृत्रिम फ़्रेम में अब और नहीं रह सकते । 
इस देश में जब बनिया समाज की रैली में गांधी का पोस्टर टंग जाता है तो सरदार पटेल क्या चीज़ हैं । 


मोदी को कुर्मी सरदार पटेल की ज़रूरत है ।इसीलिए अहमदाबाद में नरेंद्र दामोदरदास मोदी सरदार पटेल की आदमकद मूर्ति बनाने जा रहे हैं । ताकि वहां से पटेल की मूर्ति पटना और बरेली में दिखे । अपनी पार्टी के लौह पुरुष से आज़िज आ चुके मोदी गाँव गाँव से लोहा मंगा रहे हैं । इसलिए नहीं कि सरदार की कोई राष्ट्रवादी छवि काम आएगी । इसलिए कि पटेल कुर्मी हैं ।  गोवा में चुनाव अभियान समिति का चेयरमैन चुने जाने के अगले दो दिनों में मोदी ने पहला काम यही काम किया । सरदार पटेल की आदमकद प्रतिमा बनाने का एलान किया । दो साल से मोदी इस योजना पर काम कर रहे थे । अचानक इसमें इतना व्यस्त हो गए कि आडवाणी को मनाने के लिए दिल्ली तक नहीं आए । अपने कार्यकर्ताओं से कहने लगे कि जाओ गाँव गाँव से गुजरात के हर घर से लोहा ले आओ । घर घर ये ईंट लाने की राजनीति से राम मंदिर नहीं बना सके तो क्या हुआ । कुछ नेताओं की मूर्तियाँ तो बन ही सकती है । लखनऊ में अम्बेडकर की आदमकद मूर्ति और पार्क और अहमदाबाद में कुछ नहीं । क्या मोदी को जातिवादी राजनीति का ज्ञान नहीं है ।

तो मित्रों नीतीश कुमार कौन हैं ? कुर्मी भी हैं । उन्होंने समाज के बड़े नेता सरदार पटेल की आदमकद मूर्ति बनाई ? मोदी कहेंगे मैं बनवा रहा हूँ । बिहार की रैलियों में इस मूर्ति का ज़िक्र खूब आयेगा । अमरीका के स्टैच्यू आफ़ लिबर्टी से भी ऊँची । जब बुधवार को पटना में शिवानंद तिवारी ने मोदी के इस क़दम पर हमला किया तो उसका एक मतलब यह भी होगा कि पहले से जवाब तैयार रखना । शिवानंद ने मोदी से सवाल किया कि आप कांग्रेस मुक्त भारत बनाने निकले हैं । पटेल भी तो कांग्रेस परंपरा के हैं । क्या संघ में कोई नेता नहीं जिसकी आदमकद प्रतिमा बन सके । यह सरल बयान नहीं है । मोदी को पटेल से प्यार होता तो आडवाणी को ही ख़ुश करने के लिए उनकी मूर्ति बना देते । लेकिन राजनीति में भक्ति नहीं मौक़ा बड़ा होता है । 


मोदी ने कांग्रेस मुक्त भारत का नारा देकर ग़ैर कांग्रेस और कांग्रेस विरोधी राजनीति की ख़ाली होते तमाम छोटे छोटे प्लाट पर दावेदारी के लिए नारा दिया है । कांग्रेस विरोधी सपा बसपा आरजेडी अंत में कांग्रेस के ही काम आए । मोदी इसका लाभ उठाने की रणनीति पर चल रहे हैं । अपनी राष्ट्रीय पहचान को जातिवादी पहचान में घुलने दे रहे हैं । अचानक आप सुनेंगे कि मोदी बैकवर्ड हैं । बनिया हैं । बीजेपी मोदी के सहारे पिछड़े नेताओं को भी चुनौती देगी । सफल होगी कि नहीं मैं नहीं जानता । वोट बैंक से ऊपर उठ कर राजनीति करने का अपना दावा छोड़े वोटों के छोटे छोटे गुल्लक ढूँढने निकल रहे हैं । 

नब्बे के बाद कुर्मियों की हर रैली में सरदार पटेल का पोस्टर होता है । उपेन्द्र कुशवाहा जो कुर्मी-कोइरी युग्म बिरादरी के कोइरी प्रखंड के नेता हैं वे जब भी रैली करते हैं सरदार पटेल के पोस्टर से पटना को भर देते हैं । आजकल नीतीश से नाराज़ हैं । उनसे बाग़ी हो गए हैं । आने वाले कल में मोदी के काम आयेंगे । सरदार पटेल ने राजशाही को समाप्त कर रजवाड़ों को देश में मिलाकर एकता के प्रतीक बन गए । अब उनकी स्टैच्यू आफ़ यूनिटी की मूर्ति नीतीश के पाले से कुर्मियों को तोड़ने के काम आएगी । पर क्या कुर्मी इतनी आसानी से अपने सजीव नेता को छोड़ इतिहास के प्रतीक पर दिल लुटा देंगे ? या पटेल पोस्टर टाँगने के ही काम आते रहेंगे ? मोदी को लगता है कि जब वे बनिया- तेली समाज से आकर गुजरात में पटेलों के नेता बन सकते हैं तो बिहार में क्यों नहीं । देखते हैं । वैसे एक पाठक ने बताया है कि मोदी घांची समुदाय के हैं । बनिया नहीं है और गुजरात में जाति के आधार पर वोट नहीं होता ! कड़वा लेउआ पटेल सम्मेलन ! ख़ैर । गुजरात में नहीं होता होगा मगर बिहार में होता है । 

गाड़ी बुला रही है


जब आप सफ़र में नहीं होते हैं और किसी के आने के इंतज़ार में स्टेशन पर खड़े होते हैं तो लगता है एक रेलगाड़ी आपके भीतर भी गुदगुदाते हुए चली आ रही है । आप प्लेटफार्म की तरफ आ रही गाड़ियों को पटरी पर थोड़ा झुक कर देखने लगते हैं । कान लाउडस्पीकर से चिपका होता है । टिंग टांग !यात्रीगण कृपया ध्यान दें, सियालदह से चलकर नई दिल्ली को आने वाली सियालदह राजधानी कुछ ही देर में प्लेटफार्म नंबर चौदह पर पहुँच रही है । बस आप अपने भीतर भी दौड़ने लगते हैं । सबकुछ भागने लगता है । एक दूसरे से पूछने लगते हैं कि ए वन कोच यहीं लगेगी न । हाँ हाँ । ठीक है । हाँ यही हैं । चिन्ता मत करना । फ़ोन घनघनाने लगता है । फ़ैमिली । आह । मेरी दुनिया लेकर आ गई सियालदह राजधानी । गेट पर ही चिपका चिपकी । फिर सामान और भारवाहक के रेट की चिन्ता । नहीं । सौ से ज़्यादा नहीं देंगे । वग़ैरह वग़ैरह । 

दरअसल आप किस मनस्थिति में किसी के आने का इंतज़ार करते हैं इससे तय होता है कि प्लेटफार्म की तरफ़ आने वाली गाड़ी आपके भीतर से कैसे गुज़रेगी । बाबूजी आ रहे थे । बीमारी की हालत में । हर रेलगाड़ी ऐसे लग रही थी जैसे छाती पर चढ़ कर जा रही हो । भागने लगा था प्लेटफार्म पर । हर कोच में झाँकता हुआ । पता था कि क़िसमें हैं । कोच के संकरे रास्ते में सामानों से छिलता हुआ उनके पास पहुँच गया था । चोट लगी थी पर परवाह नहीं । जब वे दिल्ली से पटना जाते थे तो पाँव छूते वक्त आँखें भर ही जाती थीं । ज़ुबान से कुछ निकलता नहीं था । झटके से मुड़ जाता था । सँभल कर लौटता था और ऊपर देख कर बोलने लगता था कि जो मन करेगा खा लीजियेगा । अरे मैगज़ीन ! हिन्दी का जितना है दे दो । पटना आ जाऊंगा जल्दी । मुझसे ज्यादा तकलीफ में वे होते थे । देखते भी नहीं थे मेरी तरफ । देख ही नहीं पाते थे । उतरते उतरते कोच कंडक्टर को पैसा पकड़ा देता था, हाथ जोड़ कर कि बाबू देख लीजियेगा कोई दिक्कत न हो । हां ये मेरा नंबर रख लो । जब भी प्लेटफार्म पर जाता हूँ बाबूजी के आने और जाने की आहट बची मिल जाती है । एक बार जाती हुई रेलगाड़ी को तो देख ही लेता हूँ उस निगाह से । 

आज बेटियाँ वैसे ही मेरा इंतज़ार कर रही थीं जैसे मैं पटना पहुँचने पर बाबूजी का करता था । स्टेशन से निकलने पर गाड़ी में ही मिठाई और मालभोग केला रखा होता था । रास्ते में मछली देखते ही अरे रोको । कैसे दिया जी सिंगी । पोटेया(मछली की किस्म) ठीक नइखे ए घरी । मन करी त बिहान मँगा देब । केहू के कहले बानी । 

जीवन एक सफ़र की तरह छूटता जाता है । रेलगाड़ी सिर्फ पटरी पर नहीं चला करती है । हम भी तो चलते हैं उसके साथ-साथ । 

इंटरनेट का जासूस समाज

प्राइवेसी को लेकर अमरीका में बहस हो रही है । वहाँ की सरकार अपने ही लोगों के इंटरनेट और फ़ोन अकाउंट में झाँक रही है । सरकार पहले भी ऐसा कर चुकी है जब इंटरनेट नहीं था । वो लोगों की बातचीत रिकार्ड करती रही सुरक्षा के नाम पर । तमाम आलोचनाओं के बावजूद यह एक सर्वमान्य परंपरा है जिसके तहत ख़ुफ़िया तंत्र आपको सुनता और पढ़ता है । चोरी छुपे । लेकिन इस तरह से नागरिक की बातचीत को सुनना देखना उस ज़रूरत का बेड़ा इस्तमाल है । लेकिन क्या जो लोग इस पर व्याकुल हैं उन्हें नहीं मालूम कि फ़ोन आपकी गुप्त मौजूदगी को पकड़ने का सबसे बड़ा माध्यम है । पुलिस आसानी से इसके ख़ास नंबर को ट्रैक कर पीछा कर सकती है । तो जब फ़ोन ही प्राइवेट नहीं है, उसकी प्राइवेसी सुरक्षित नहीं है तो फिर रोना क्यूँ । 

पहले लेख में अमरीकी सरकार की हरकत को सवालिया निगाह से देखा है । इस लेख में प्राइवेसी के मसले को दूसरी तरह से देखने का प्रयास कर रहा हूँ । क्या हम ऐसे एप्स यानी अप्लिकेशन का इस्तमाल नहीं करते जिससे किसी को ये तक पता चलता रहे कि हम कहाँ हैं । क्या हम नहीं जानते कि अब ऐसे एप्स खुलेआम मुफ़्त में उपलब्ध हैं जिनसे आप जान जायेंगे कि फ़ोन करने वाला कहाँ से कर रहा है । आप से मतलब आम फ़ोन उपभोक्ता । एंड्रॉयड और आयफोन ने इसे और सुलभ किया है । फ़ेसबुक में आप इसका प्रदर्शन खुद ही करते हैं कि इस वक्त एयरपोर्ट पर हैं या पीवीआर सिनेमा हाल में । गूगल मैप तो आप फ़ोन के साथ कहाँ खड़े हैं वहाँ टिमटिमाने लगता है । जब आप अपनी मौजूदगी खुद ही अपने फ़ोन में ट्रैक कर सकते हैं तो ख़ुफ़िया एजेंसी को तकनीकी रूप से करने में क्या दिक्क्त होगी । 

मैं यह सवाल इस संदर्भ में कर रहा हूँ कि इंटरनेट पर प्राइवेसी है ही नहीं तो सरकार के आँकड़े लेने से हम ऐसे क्यों जाग रहे हैं जैसे इससे पहले ऐसा हुआ ही नहीं । जैसे ही इंटरनेट ने सामूहिक संचार के माध्यम दिये उसने प्राइवेसी के मायने को भी बदल दिया । पाँच हज़ार लोगों के बीच आप दोस्ती करें और कहें कि आपकी प्राइवेसी भी हो तो सुनने में ठीक लगती है बात, पर है कहाँ । क्या आप इन लोगों के भरोसे कह सकते हैं कि आपके पेज पर मौजूद दस हज़ार फ्रैंड आपकी बातों को कहीं चुपचाप फार्वर्ड नहीं करते । क्या हम सब कभी न कभी एक दूसरे की प्राइवेसी भंग नहीं करते । सामाजिक यातना नहीं देते । असली जीवन में भी कई लोग ख़ुफ़िया तंत्र की मानसिकता के तहत सूचनाओं को रणनीति के तहत इधर से उधर कर रहे हैं । समाज और सिस्टम के ये काम करने में बहुत फ़र्क होता है पर प्राइवेसी तो भंग होती ही है । ट्वीटर पर लाखों लोगों के अनुचर बनने की सुविधा है । खुद ये सोशल कंपनियाँ आप पर हर वक्त नज़र रखती हैं । कब लाग इन किया कब लाग आउट किया इन सबका डिटेल उनके पास ही होता है । 

इस विवाद के प्रसंग में ओबामा चाहते हैं कि सुरक्षा बनाम प्रायवेसी पर बहस हो । लेकिन प्राइवेसी है कहाँ इंटरनेट जगत पर । प्राइवेसी होती है घर में । दो लोगों के बीच । दीवारों के भी कान होते हैं यह जुमला कितना पुराना है । इंटरनेट के तो आँख कान नाक पाँव हाथ सब हैं । ज़रूर आज के दौर में प्राइवेसी का मतलब बदला होगा जिसे समझना ज़रूरी है । 

हम अपनी प्रायवेसी का इस्तमाल भी करते है । बड़ी संख्या में लोग नाम और लिंक बदल कर आपसे संवाद करने लगते हैं । हम खुद अपनी पहचान को संदिग्ध बना देते हैं । अजीब अजीब नाम से आईडी बनाते हैं जिसका हमारे सामाजिक नामों से कोई लेना देना नहीं होता । अजीबोग़रीब आईडी के चयन के साथ ही हम असली नाम को गुप्त बना देते हैं । अपनी कई प्रकार की प्राइवेसी गढ़ लेते हैं । रवीश नाम की प्राइवेसी और लड़की बनकर सुनयना नाम से आईडी की प्राइवेसी में फ़र्क है कि नहीं । ट्वीटर पर एक लड़का कई लड़कियों के नाम से सबको फौलो कर रहा था । एक लड़की जिसे मैं भी फोलो कर रहा था और किसी बड़े प्रबंधन संस्थान के होने का दावा करती थी उसके बारे में दो साल बाद पता चला कि वो लड़की नहीं लड़का है । असली जीवन में आप इस तरह के लम्हों में एक सेकेंड नहीं रह सकते । सोचिये कोई लड़का लड़की बनकर मिलने आ गया हो । कौन मेनका है और कौन रम्भा । रम्भा कब सांभा निकल आए ये भी राम जाने । अच्छा हुआ मैंने ट्वीटर छोड़ दिया । 

हम अपनी प्राइवेसी के साथ कुछ भी करने लगते हैं । हर आदमी  की कई प्रकार की प्राइवेसी है । लड़के की प्राइवेसी कुछ असली लोगों के साथ भी होगी । लड़की बनकर उस लड़के की प्राइवेसी कुछ और हो जाएगी । माँ बाप का दिया नाम तो अब पहचान के भी काम नहीं आएगा । कई लोग आपको आईडी नाम से जानने लगे हैं । एमके20drone इस तरह की पहचान हम रखते हैं । क्या पता चलेगा कि आप सुल्ताना डाकू हो या दफ्तर में मेरा बास ही । सोशल मीडिया की पहचान हज़ार्ड है । ख़तरनाक कबाड़ । हर पहचान एक नई प्राइवेसी है और हर प्राइवेसी की अलग और नई सार्वजनिकता । हम खुद ही कई प्रकार की प्राइवेसी सृजित कर रहे हैं । कई लोग सुंदर लड़कियों का फोटू लगा लेते हैं ताकि ज़्यादा लोग फोलो करें । हद है छपरा का लौंडा नाच मचा हुआ है यहाँ । 

हम असली नहीं है यहाँ । असली लोगों का नक़ली संसार भी है ये । इंटरनेट ने हमें आज़ादी दी है कि आप असल के अलावा भी कुछ और बन सकते हो । ठगों की दुनिया है । लड़का से लड़की बनकर पहचान और प्राइवेसी के इस हथियार का इस्तमाल किया जा रहा है । आप खुद दूसरे की प्राइवेसी भंग कर रहे हैं । जिस मंच ने पहचान को इतना संदिग्ध बना दिया हो वहाँ ये नौबत आने ही वाली थी । आए दिन फ़ेसबुक के इनबाक्स में यूक्रेन या लंदन की किसी मिस टेलर का संदेश आ जाता है जो अपना अकेलापन दूर करने के लिए इस बिहारी को दोस्त बनाना चाहती है । पता नहीं बिना मिले कैसे जान जाती हैं कि मैं इंटरेस्टिंग हूँ । बड़ी संख्या में दफ़्तरों के सहयोगी और रिश्तेदार पहचान बदल कर आपको फोलो करते हैं । मैं खुद इस अनुभव को भुगत चुका हूँ । लोग भी एक दूसरे की जासूसी करने लगे है । कुछ लिखिये नहीं कि कई लोग उस मैसेज को तड़ से कापी पेस्ट कर पहुँचा देते हैं । कई सीनियर चुपचाप अपने जूनियर और सहयोगी को फोलो करते हैं । वहाँ लिखी गई बातों का इस्तमाल दफ्तर की पोलिटिक्स में करते हैं । तो फिर काहे की प्राइवेसी का ढोंग । आप कभी ये दावा कर ही नहीं सकते कि प्राइवेसी है । 

इंटरनेट और फ़ोन आपकी प्राइवेसी की गारंटी नहीं हैं । आप हर वक्त देखे जा रहे हैं । इसने हम सबको एक दूसरे का बिग ब्रदर बना दिया है । इसलिए प्राइवेसी को ठीक से समझने की ज़रूरत है । इंटरनेट ने एक जासूस समाज का निर्माण भी किया है । सरकार तो पहले से ही थी । जल्दी ही बिना फ़ोन और मेल के मिलना शुरू कर दीजिये । कबूतर पाल लीजिये । संदेश भेजने के लिए । 


ग़ाज़ियाबाद की बिजली

ग़ाज़ियाबाद की बिजली 
आने का पता
जाने का पता 
रात रात जाने कहाँ जाती है 
सुबह दबे पाँव चली आती है
पूछा एक रोज़ 
तू कहाँ चमकती है रातों को 
क्यूँ नहीं सुनती मेरी बातों को 
कहने लगी रानी की तरह बिजली 
ग़ाज़ियाबाद की
वीआईपी ज़िलों की अंधेरी रातों में 
उनकी आलीशान महफ़िलों में 
मुख्यमंत्री के दौरे वाले किसी शहर में 
उस अवध में जहाँ मैं पैदा नहीं होती 
यहाँ से वहाँ से आती हूँ उधार की तरह
दिल्ली से झगड़ कर रूकती तो हूँ 
ग़ाज़ियाबाद में हापुड़ लखनऊ के रास्ते 
और सोचा है कभी मेरी हालत 
क्या होता है हाल मेरा तेरे जाने के बाद से 
गर्मी से बेहाल राजकुमार मैं 
चाकर नहीं है पंखे घुमाने को 
करवटों को हाथ पंखे की तरह
हिलाता रहता हूँ इधर से उधर जो 
कमबख्त तू भक से उड़कर
वाजिद अली शाहों के परकोटों पर 
रात बिताती है 
मुझसे यहाँ अकेले ग़ाज़ियाबाद में 
अपनी आहट गिनवाती है 
ख़्वाब में तेरे पैदा होने का कहीं से समाचार आया है 
मेगावाट वालों के मायके से तेरा भाई आया है 
एक तोला मेगावाट जो घट जाए
निर्मोही तू ग़ाज़ियाबाद से उड़ जाए 
ऐ हाकिमों बिजली विभाग के 
मज़लूमों की पसीनेदार शामों के 
लफ़ंगों 
क़सम मेगावाट की 
किलोवाट तो कान की बाली है तेरी 
लौटा दे ग़ाज़ियाबाद की बिजली मेरी 
सुबह से पहले अभी इसी आधी रात को
बिजली बिन सुहागन 
मत कहो ग़ाज़ियाबाद को !

आडवाणी को पत्र- पार्ट टू

आदरणीय आडवाणी जी,

मैं ब्लागर मन की व्यथा समझ सकता हूँ । उत्तेजित मन कुछ लिखना चाहता है । सो आपने लिखा । पद से हल्का होने के बाद मन से हल्का होने का सर्वोत्तम माध्यम है ब्लाग । आप उस बीजेपी के प्राथमिक सदस्य है जिसके सभी शीर्ष पदों से इस्तीफ़ा दे दिया है । अच्छा किया है । मैं आपके इस्तीफे का स्वागत करता हूँ । 

ये लोग जो आपको मनाने आ रहे हैं इनकी कोई बात मत मानियेगा । मोदी से आप हार गए हैं । हमलोग भी छोटी मोटी रोज़ाना की पोलिटिक्स में हार जाते हैं । बड़ी बात नहीं है । बुज़ुर्ग घर की ज़िम्मेदारी भी होते हैं वही समझ कर ये निभाने आ रहे हैं । इनदिनों आप गीता और महाभारत पढ़ रहे हैं तो जल्दी ही उस चैप्टर पर पहुँच जायेंगे जहाँ ये लिखा होगा कि तुम क्या लेकर आये थे जो तुम लेकर जाओगे । बुद्ध ने कहा था आसक्ति ही दुख का कारण है । 

लेकिन आप महाभारत क्यों पढ़ रहे हैं । रामायण का क्या हुआ । रामायण एक असफल कहानी है । जीत के बाद भी राम को सीता का वियोग झेलना पड़ा । सीता राम की जीत से अभिभूत होतीं तो छोड़ कर न जाती । जंगल से महल लौटकर सुख भोगतीं । सीता के मार्ग पर चलिये । छोड़ दीजिये बीजेपी का महल । राम राम कैसी कैसी बातें कर रहें हैं सब सूत्रों के हवाले से । पूरी अयोध्या धोबियों ( समुदाय पर टिप्पणी नहीं है। संदर्भ में लिख रहा हूँ ) से भर गई है ।   जो लीक की जाती है वो पहुँचाने के लिए की जाती है । राम ने तभी लीक करने वालों को साधा होता तो आज उनके नाम के रथ पर सवार आपको कोई कुछ नहीं कहता । आपको टेंशन नहीं होता इस लक्ष्मण से । खुद तो राम से चिपका रहा और आपसे भी चिपक गया । तुनक मिज़ाजी और भाई प्रेम के अलावा इसकी क्या क्वालिटी है । बताइये आप राम के लिए निकले और कौन कौन आकर राम बन गए । आप लक्ष्मण ही रह गए । पता नहीं रामायण कंफ्यूज़ींग लगता है । सबक़ ये हैं कि लक्ष्मण बनो न बनाओ । 

जो सत्ता खड़ाऊँ और आजकल रिमोट से चल सकती है उसके लिए क्या मारा मारी । टच स्क्रीन का ज़माना है । आयफोन तो होगा ही । भूल जाइये रिमोट को । टच कीजिये चलते बनिये । इस्तीफ़ा नामंज़ूर है । आपको ये लोग एक रूका हुआ फ़ैसला की तरह लटका देंगे । आपके साथी सम्मान तो करते हैं आपका । नेता ही तो नहीं मानते न तो क्या बात हो गई । ये क्या कम है । आप सबके आदरणीय हैं । फ़ील इट शट इट एंड फोरगेट इट । क्योंकि मोदी की होंडा लाँग ड्राइव पर निकल चुकी है । 

हाँ तो भीष्म पितामह कोई किरदार नहीं हैं । उनकी प्रतीज्ञा किसी काम नहीं आई । आज भीष्म ब्रांड नहीं हैं । विद्या क़सम, माँ क़सम , अपने सर की क़सम से बड़ी कोई प्रतीज्ञा नहीं । महाभारत में 'आलरेडी' बहुत सारे कैरेक्टर हैं । अर्जुन से प्रेरणा पाने वाले ज़्यादा से ज़्यादा अर्जुना अवार्डी बन पाते हैं । भीष्म का कहीं कोई टूटा या छूटा टैंपल भी नहीं जिसे बनवाने के लिए आप हिन्दू मन को भावुक कर सकें । मुकेश खन्ना भी आपकी पार्टी में कहीं न कहीं होंगे । ज़्यादा भीष्म बनेंगे तो नरेंद्र मोदी आर्मी के कमांडर मुकेश खन्ना को भीष्म बनाकर ले आयेंगे । तो रहने दीजिये । 

हाँ हिटलर और मुसोलिनी के बारे में प्रचार करने का टाइम है । इतिहास के हस दौर में यह बताया जाना ज़रूरी है कि इसके जैसा कोई न हो । आप ज़रा खुल कर बताते कि हिटलर का ख्याल क्यों आया तो मैं सही में कुछ अच्छी किताबें बताता । मुझे पूरा यक़ीन है कि आप मोदी को इस फ़्रेम में नहीं देख रहे । वे तो गुजरात में तीन बार चुनाव जीते हैं । जनता में सबसे लोकप्रिय है । गुजरात के माडल का पूरी दुनिया में नाम है । यही सब तो आप कहते थे । कितनी बार कहते थे । हिटलर तो पूरी दुनिया में बदनाम है । मोदी तो आपके लक्ष्मण हैं और अब राम बनने चले हैं । ओ तभी आप महाभारत में शिफ़्ट हो गए । आय सी । 

मोदी ने एक सिस्टम अच्छा किया है । बाहर से माहौल बनाने का सिस्टम । प्रणब मुखर्जी भी तो इसी रूट से राष्ट्रपति भवन पहुँच गए । वहाँ भी आपका चांस नहीं है । २०१४ में बीजेपी की सरकार बन भी गई तो आपका नंबर तीन चार साल बाद आयेगा । और तब आप प्लीज़ ये चुनाव मत लड़ियेगा वर्ना कैप्टन लक्ष्मी सहगल वाली हालत हो जाएगी । 

इतिहास आपको उस सफल सीईओ के रूप में याद करेगा जो दफ्तर की पोलिटिक्स के कारण अपना बोनस नहीं ले सका । उसकी कंपनी नंबर वन हो गई तब भी । एक और बात । जो लोग संगठन की पोलिटिक्स में दिन रात लगाते हैं उनके लिए भी सबक़ है । उनकी कुर्सी वहीं की वहीं रह जाती है । लोग नेता ढूँढते हैं आयोजक नहीं । 


आपका

बीजेपी को कम जानने वाला ग़ैर ल्युटियन पत्रकार 
रवीश कुमार 

अय्यपन तुम शहर मत आना

क्या आप अयप्पन की तरह अपनी पत्नी को इतना प्यार करते हैं कि उसे अपनी पीठ पर लाद कर चालीस किमी तक चलते रहे । अख़बार में जो अयप्पन की तस्वीर छपी है उसमें कोई सिनेमाई भाव नहीं है । पत्नी का ख्याल रखने के दस कामयाब तरीके या कैसे करे संबंधों को बेहतर वाले लेख का कोई असर नहीं दिखता है । अयप्पन एक शून्य से आया हुआ वो शख़्स है जिसके चेहरे से हमारे भीतर का शून्य झलकता है । कई बार देखा । लगा कि मुझे ही घूर रहा है । पूछ रहा है मैंने तुम्हारे जैसे सपने नहीं देखे लेकिन जो हुआ उसका कोई उत्तर दे सकते हो । मुझे उत्तर नहीं चाहिए क्या तुम मुझे देखकर सचमुच रो सकते हो । बिना दहाड़ मारे । बिना छाती पीटे । 

अयप्पन की पत्नी सुधा बीमार थी । अपनी गर्भवती पत्नी के इलाज के लिए अस्पताल ढूँढने निकल पड़ा । उसे पीठ पर लादा और जंगल जंगल पार करता रहा । अपने भारी पेट की पीड़ा के साथ कैसे लदी होगी उसकी पीठ पर । कितना रोई होगी,कितना सिसकी होगी, अय्यपन का पसीना आँसू बनकर कैसे उसे भीगोता होगा वो कैसे उसके पसीने में लथपथ हो रही होगी । 

कोन्नी के जंगलों से जब वो निकला तो शुक्रवार था । सुबह का वक्त । सुधा चल नहीं पा रही थी । अयप्पन ने कपड़े से उसे अपनी पीठ पर बाँध लिया । खुद ठेला बन गया । अपनी पत्नी को लेकर वो पथनमथिट्टा के ज़िला अस्पताल पहुँच जाता है । जहाँ से उसे उसे कोटट्यम मेडिकल कालेज भेजा जाता है । सुधा की जान तो बच गई मगर बच्चा नहीं बच सका ।

यायावर क़बीलाई समाज के अयप्पन को कितनी तकलीफ़ हुई होगी जंगल के बाद के शहर को पहचानने में । शहर को किस नज़र से देखा होगा । कितनी उम्मीदें बाँधी होगी कि बस एक क़दम और । कुछ मिलेगा सुधा । हिम्मत रखना । मेरी पीठ तुम्हारा बिस्तर है । देखो बच्चा आयेगा । हमारा होगा । दोनों एक दूसरे पर सवार चलते रहे होंगे । आप बस महसूस कीजिये । नेताओं के शोर को सुनना कम कीजिये और ख्याल में ही अपनी पत्नी को पीठ पर उठा लीजिये । चलते रहिये । हर सुधा को अयप्पन नहीं मिलता । हर अयप्पन को सुधा नहीं मिलती । हम शहरी लोग हैं । दूर दराज़ से आती ऐसी ख़बरों से हिल कर जल्दी सँभल जाते है । अयप्पन चालीस किमी तक जिस प्रसव पीड़ा से गुज़रा होगा , सुधा की प्रसव पीड़ा को साझा किया होगा उसे हम नहीं समझ पायेंगे । अख़बार का रिपोर्टर भी समझ नहीं सका होगा । 

शुक्रिया इंडियन एक्सप्रेस दफ़्तरों में फ़र्ज़ी पदनामों के साथ बड़े हो जाने वाले हम शोहरती पत्रकारों को अयप्पन से मिलाने के लिए । नहीं , हमारी नाकामी याद दिलाने के लिए । वैसे न्यूज़ रूम की दुनिया में हर ख़बर एक शिफ़्ट होती है । वहाँ कोई अयप्पन नहीं होता । 

शिवजी मनवा में ख़ुशियाँ मनायें

मौसम अच्छा हो रहा है । मित्र सचिन का भेजा बिरहा सुन रहा हूँ । 

हय ए मोरे राम सवरिया रे 
हो भोले जगिया आ हो राम 
हाय हे राम
शिव का महिमा अपरंपार 
औ लिखते कवि गए केतनी हार ,
शंकर पार्बती के नगद लागै बिबाह
हाय हो राम 
भोले बाबा के रंग निराला 
नारद जी जोग सधाये 
नारद जी ने शिव जी से बोले 
ब्याह कर लीजे लगन धराये ,
भोले बाबा बोले कि हम शादी न करब महाराज 
हमरे न मकान बा न खाए के समान बा 
नारद ने कहा कि महाराज लड़की तपिस्या में है

तो गौरा जंगल में करती तपिस्या
हमके दुल्हा मिले भोले दानी
कहे महाराज हम बियाह न करब
काहे महाराज, लड़की का व्रत चलता 
जब तक भोला करेंगे न शादी
तब तक रहब हम नारी कुँआरी 
सुनकर नारद की ऐसी कहानी
शिवजी मनवा में ख़ुशियाँ मनायें
शिवजी मनवा में ख़ुशियाँ मनायें 

लिख कर देखने में गाना कितना सरल है । मगर सुनने में मज़ा आ जाता है । झाल मजीरा बज रहा है । ग़ज़ब का समां बाँधा है । संगीत की दुनिया अद्भुत । इसी में वजूद होता है हमारा । जिसकी धुनें कल्पनाओं को छेड़ती हैं और अल्फ़ाज़ अहसासों को । आपके भीतर एक दूसरी ही दुनिया बन जाती है । 



बाबा की खीर

आज जब दफ्तर से खाँसते हुए बाहर निकला तो फ़्रंट आफिस पर एक बाबा दंड हाथ में लिये खड़े थे । एक बार पहले भी दफ्तर मिलने आए थे । दो चार पाँच मिनट की बातचीत में पता नहीं कब कह गए कि मैं आपको खीर बनाकर खिलाऊँगा । मुझे लगा कि सज्जन पुरुष यूँ ही कह रहे हैं । वे आये थे यह बताने कि मेरा काम अच्छा है । धर्म के बेज़ा इस्तमाल की चेतावनी देते रहता हूँ । कहा कि धर्म है आपको अच्छा आचरण देने के लिए पर इन नेताओं ने धर्म को अपनी जागीर बना डाला है । बात आई गई रह गई । 

आडवाणी के हठयोग पर प्राइम टाइम समाप्त हो चुका था । सोच रहा था कि कौन सी दवा ले लूँ जिससे खाँसी दूर हो जाए । सामने बाबा खड़े थे । मेरी ही उम्र के और मुझी से आशीर्वाद माँगते हुए । अजीब सा लगा । उन्होंने कहा कि हम आपको बहुत मानते हैं इसलिये सावाँ का खीर ख़ुद बनाकर लाये हैं । सावाँ का खीर ? हाँ सुदामा सावाँ का चावल ही तो लेकर गए थे कृष्ण के पास । मैं थोड़ा हँसा और चलने लगा । देखिये हम इस लायक भी नहीं हैं । उन्होंंने कहा कि हम आपको बिना खाये जाने नहीं देंगे । लेना ही पड़ेगा । ग़रीब हैं तो क्या हुआ । लेना ही होगा । इसमें एक और चीज़ है घर जाकर देखियेगा । 

खाँसने से इतना जूझ रहा था कि ध्यान ही नहीं रहा कि किसी ने कुछ दिया है । घर पहुँचकर खोला तो बेहतरीन खीर के स्वाद ने भावुक कर दिया । उन्होंने अपने हाथ से मेरे लिए खीर बनाई थी । फिर झोले से एक और सामान निकला । बहुत ही महँगी टी शर्ट । दाम बताने में शर्म आ रही है और देने वाले की निजता का ख़्याल भी । आप अभी निष्कर्ष न निकालें कि बाबा ने कोई माल लूटा होगा । शरीर पर सिर्फ एक वस्त्र था । इतना देख के पता चल जाता है कि कौन कैसा है । टी शर्ट और खीर ने इस तरह भावुक कर दिया कि आँखें भर आईं । फ़ोन कर माफी माँगने लगा कि तनाव में न होता तो ज़रूर आपसे बैठ कर बातें करता । हम कभी कभी खुद की समस्याओं से इस क़दर घिरे रहते हैं कि पता नहीं चलता कि कोई बेहिसाब चाहने वाला आया है । बाबा ने माफ़ कर दिया । 

हम अक्सर कई बार सोचते हैं कि हमारे काम से किसको क्या फ़र्क पड़ता है पर बाबा ने ग़लत साबित कर दिया । इसी तरह सालों पहले आगरा में ताज महल पर कोई रिपोर्ट बना रहा था । कहीं से कहीं होता हुआ एक दर्ज़ी के घर पहुँच गया । आँखें धंसी हुई, लंबी सफ़ेद दाढ़ी और जर्जर शरीर । नाम जमालुद्दीन मोहम्मद । दर्ज़ी मगर आगरे का इतिहासकार । 

जमालुद्दीन जब आगरा की कहानी बताते थे तो उनका चेहरा सुर्ख हो जाता था । आँखें सिनेमा का पर्दा बन जाती थीं । रोएं खड़े हो जाते थे । धीरे धीरे उनकी आंखों में शाहजहाँ को वो आगरा तैरने लगता था जिसे आप दुनिया की किसी किताब में हासिल नहीं कर सकते । जमालुद्दीन को ताजमहल से इतना प्यार था कि देखने की हिम्मत नहीं जुटा पाते थे । मैं उनकी कहानी ताज के भीतर शूट करना चाहता था । काँपने लगे और कहा कि नहीं मैं ताज नहीं देख पाऊँगा । मुझे कुछ हो जाएगा । 

कई बड़े इतिहासकारों को देखा था इस दर्ज़ी को बेवकूफ बनाकर फ़ायदा निकालते हुए । सबके विजिटिंग कार्ड दिखाते थे । एक पुलिस अफसर ने उनकी जानकारी से अंग्रेजी में आगरा पर किताब लिख वाह वाही भी ले थी । जमालुद्दीन दिन भर एक बहुत बड़ी किताब में इस तरह से कैलीग्राफी करते थे कि ताज का नक़्शा बन जाता था । हर लाइन में इतिहास ।  कोई बीस किलो की कापी हो गई थी । मैं लिखकर नहीं बता सकता कि वो क्या था । काफी प्रयास किया मगर उनके लिए कुछ नहीं कर पाया । 

दो तीन मुलाक़ातें ज़रूर हुई । ऐसी ही एक मुलाक़ात में उन्होंने काग़ज़ का एक टुकड़ा पकड़ा दिया । क्या है ये ? बेटा ये नक़्श है । इसे किसी भी तरह से घुमाओ कैसे भी देखो हमने शब्दों को यूँ सजाया है कि अल्लाह ही लिखा दिखेगा । बस एक गुज़ारिश है अपने से दूर मत करना । मेरी निशानी है । आज तक वो नक़्श पर्स में है । यक़ीनन किसी टोटके की वजह से नहीं । एक दिन सोचा कि निकाल देता हूँ अब । निकाला ही था कि ख्याल आ गया कि जमालुद्दीन ज़िंदा होंगे या नहीं । कई साल हो गए । वापस नक़्श पर्स में रख दिया । नहीं फेंक सका । 

हमें लोग ऐसे मोहब्बतों से नवाज़ते हैं । अपना काम निस्वार्थ तरीके से करें तो लोगों के ख़जाने में हमारे लिए बहुत प्यार है । मामूली सांवा का चावल तो है ही । जो खीर पका कर एक टीवी के एंकर को खिलाने के लिए ले आते है । ये हमसे प्यार की कोई क़ीमत नहीं माँगते । कोई सिफ़ारिश नहीं कराते । बस यही कहते हैं जो कर रहे हो उससे भी अच्छा करना । जब कभी याद आता है तो उन तमाम लोगों से माफी माँगने का दिल करता है जिन्हें मेरे काम से निराशा हुई होगी । जिन्हें मेरे व्यवहार से ठेस पहुँची होगी । इस क्रूर पेशे का यह इनाम खीर और नक़्श । और कितना जागूं । कमबख्त अब तो नींद आजा । 

प्रिज़्म: प्राइवेसी पर पहरा

आपकी प्राइवेसी सरकार की प्रोपर्टी है । आप सोशल मीडिया पर दिन रात अपनी बातचीत के लिखित निशान छोड़ इस मुग़ालते में रहते हैं कि कोई तीसरा बीच में नहीं है । अमरीका में राष्ट्रीय सुरक्षा एजेंसी ने 'पेट्रीयट ला' के कहत जीमेल, गूगल, यू ट्यूब और फ़ोन कंपनियों से अरबों की संख्या में डेटा ले लिये हैं । सुरक्षा एजेंसी के पास आपकी निजता यानी प्राइवेसी के अनेक प्रमाण हैं । यह सब आतंकवाद के ख़िलाफ़ लड़ने के नाम पर किया जा रहा है । आपको इसकी भनक तक नहीं थी । 


सीआईए के भीतर के एक नौजवान ने यह सूचना प्रेस को लीक कर दी है । उसे लगा कि लोगों की प्राइवेसी से समझौता हो रहा है इसलिए बताना ज़रूरी है । कुलमिलाकर आप फ़ेसबुक ईमेल ट्वीटर पर जो कुछ भी लिखते हैं वो अनायास कभी किसी संयोगवश किसी होने वाली घटना का सबूत बन सकता है । उसके संदर्भ का हिस्सा बताकर सरकार आपको अंदर कर सकती है । आपकी किसी सोच पर सरकार पहले से निगाह रख सकती है और आप किसी क़ानून के घेरे में आ सकते हैं । सरकार कई तरीके से परेशान कर सकती है । हर समय कोई तीसरी आँख पीछा करती रहती है । 

लोग अमरीका में पूछ रहे हैं कि किस तरह का डेटा लिया गया है । क्या यह डेटा उपभोक्ता कंपनियों को भी बेचा जाएगा । सवाल यह है कि सरकार यह सब गुप्त तरीके से कर रही थी । हर नागरिक उसकी शक की निगाह  मे आ गया है ।Prism
(फोटो- हफ़ पोस्ट ) 

ख़ुफ़िया जानकारी की ज़रूरत हर सरकार को होती है लेकिन इसके लिए आपकी प्राइवेसी से समझौता हो इस पर सवाल हो रहे हैं । अमरीका में सुरक्षा बनाम स्वतंत्रता की बहस हो रही है । दोनों एक दूसरे के पूरक हैं मगर दोनों एक दूसरे के भेदिया बन जायें यह ख़तरनाक है । लोग कह रहे है कि हमें पता नहीं और सरकार को सब मालूम है । अमरीका की अदालत ने भी कंपनियों को डाटा साझा करने के आदेश दिये हैं । राष्ट्रीय सुरक्षा एजेंसी प्रिज़्म नाम से यह आपरेशन पिछले ढाई साल से चला रही है । जब से यह ख़बर लीक हुई है सरकार प्रेस के पीछे हाथ धोकर पड़ गई है । बल्कि पहले से ही कुछ पत्रकारों के फ़ोन रिकार्ड खंगाल कर देखे गए हैं कि वे खबर लिखने के लिए किस किस से बात कर रहे हैं और कुछ के ख़िलाफ़ मुक़दमा भी दर्ज किया गया है । सवाल यह भी उठ रहा है कि सरकार इसके ज़रिये व्हिसलब्लओर पर भी निगाह रख सकेगी और उसे देशद्रोही क़रार दे देगी । प्रेस तक सूचना देना मुश्किल हो जाएगा । एक भय का माहौल बनेगा । आप किसको ईमेल भेज कर प्रेम निवेदन कर रहे हैं इन सब जानकारियों से भी सरकारी एजेंसियाँ आपको ब्लैकमेल करेंगी । किसी भी लोकतंत्र के लिए ज़रूरी है कि व्हिसलब्लओर हों । 


अमरीका से बाहर बैठे लोग अमरीकी विरोध के कारण निगाह में रहेंगे । यूरोपीय देशों को चिंता सता रही है कि उनके नागरिकों का डेटा भी अमरीका मे बैठी इन कंपनियों के सर्वर में हैं । वे अब अपने यहाँ नया क़ानून बनाने की बात कर रही हैं ताकि सर्वर स्थानीय है । इस मसले पर मेरी जानकारी कम है हो सकता है कि ठीक से समझ नहीं पाया हूँ पर लिख रहा हूँ ताकि ध्यान में रहे । 

फिर से सरकारी गुप्तता का दौर हावी हो रहा है। सोशल मीडिया सबसे असुरक्षित मंच है । यह किसी कंपनी के कारोबार का हिस्सा है और कंपनियाँ सौदा करने निकली हैं न कि आपको लोकतंत्र का स्वाद चखाने । पहले एक जुनून पैदा कर गईं और फिर आपकी हर सूचना को सरकार से लेकर कंपनियों तक को सौंप कर मुनाफ़ा कमा रही हैं । लोकतंत्र की कामयाब मार्केटिंग का ज़रिया है सोशल मीडिया आपका सबूत है जो सरकार के पास गिरवी है । 


इस मसले को समझना ज़रूरी है इसलिए अमरीका में छिड़ी बहस पर नज़र रखिये । 

दिल चाहता है

लोकसभा टीवी पर दिल चाहता है देख रहा हूँ । कालेज के दिन ख़त्म होते ही बिना जाने बिना समझे बिना परवाह किये दोस्ती के दिन भी चले जाते हैं । उन दिनों में हम सपने देखा करते थे, बाद के दिनों में उन सपनों के लिए दाँव पेंच चलाने लगते हैं । इस नई ज़रूरत में कई समीकरण बनते हैं जिसे हम कुछ दिनों और कुछ दूर तक दोस्ती समझने लगते हैं । पुराने चले जाते हैं और नया दोस्त मिलता नहीं । मिलता है तो दोस्त होने और जीने के लिए बंदिशें हावी हो जाती हैं । 

दोस्त बनाने की तलाश चलती रहती है । ग़लत समझे जाने की गुज़ाइशों के साथ । सिद, आकाश और समीर । हमारी ज़िंदगी के दोस्त लगते हैं । जिन्हें हम ज़्यादा समझने के चक्कर में खो दिया करते थे तो कम समझने के कारण धोखा खा जाते थे । इस रिश्ते को हम भरोसा गँवा कर बनाया करते थे । अरे वो ठीक नहीं है, उसके कुछ ज़्यादा ही क़रीब हो । कितनी खींचतान होती थी । शायद इसीलिए कोई पुराना दोस्त मिलता है तो लिपट जाने का दिल करता है लेकिन वक्त इतना गुज़र चुका होता है कि दिल नहीं धड़कता । 

दोस्त अब भी मिलते हैं । अच्छे भी मिलते हैं । लेकिन आकाश जिस तरह से प्रिया को झूठ बोलता है कि समीर यहाँ नहीं आया । प्रिया झगड़ा करती है कि समीर तुम झूठे हो । दरवाज़ा बंद कर देती है । समीर को भी आकाश का फ़ैसला मंज़ूर होता है ।  दोस्त कहानी बनाया करते थे । और समीर का क्रिस्टीन से मिलना । हा हा । मिस तारा की मौजूदगी । उफ्फ ! अब तो सब तय सा होता है । अचानक नहीं । 

सिद अचानक मिस तारा से मिलता है । सामान उठाता है । तारा और सिद की दिलचस्पियां भी मिलती हैं । तारा सिद्धार्थ के उस कोने में पहुँच जाती है जहाँ उसकी तस्वीरें रखी हैं । ये वो कोना है जिसे उसके दोस्त नहीं देख नहीं पाते । तारा झाँक कर देख लेती हैं और कहती हैं कि तुम्हारे अंदर की जो दुनिया है उसे तुम किसी से बाँटते नहीं । मुझे तो लगता है तुम्हें जो जानते हैं वे भी नहीं जानते । तारा यानी डिम्पल कपाडिया की लाइन समीर के भीतर एक समीर की दुनिया खोल देती है । 

दोस्त ऐसे ही होते हैं जो आपके भीतर आपके किसी और को ढूँढ लेते हैं । सिर्फ अधिकार ही दोस्त नहीं बनाता । ये वो हक है जिसे हम देते हैं । जितना देते हैं उतना लेते हैं । हमें दोस्तों के भीतर के दोस्त को ढूँढते रहना चाहिए । हज़ारों दोस्त बना लेने के इस दौर में हमने संबंधों को खोजना बंद कर दिया है । इसीलिए स्टेटस दोस्ती का प्रमाण नहीं है । फोलोअर दोस्त नहीं है । दोस्त वो होता है जो आपके हर कमज़ोर पलों और मज़बूत उड़ानों को दूर से भांप लेता है । जब भी कोई ऐसा दोस्त मिले उसे जानिये । उसे सुनिये । कुछ तो बात दबी होगी उसमें , पहचान लीजिये वो इतने भर से खिल जायेगा । दिल कुछ और नहीं बस यही चाहता है । 

अच्छी फ़िल्म थी । मुझे अपने दोस्तों पर नाज़ है । वे चले तो गए अपनी रौं में बहुत दूर पर यादों में अब भी वैसे ही बसते हैं । बहुत कुछ सीखा गए । बहुतों से मिला गए । तब उन्हें लगा ही नहीं कि कुछ दोस्त कमज़ोर भी होते हैं । वो गुटों में चल नहीं पाते,वो रातों को जाग नहीं पाते, वो कह नहीं पाते, उनका कोई इंतज़ार नहीं करता वो दोस्तों की टोलियों में पीछे पीछे चलते रह जाते हैं । एक दिन वो कमज़ोर पलट जाता है दूसरी तरफ़ जहाँ कोई और इंतज़ार कर रहा होता है उसे सुनने के लिए । कहने देने के लिए खूब सारा वक्त होता है जिसके पास । चुपके चुपके उसे अपने राज़ सौंपने लगता हूं । पर अब भी वो बिंदास मज़बूत से दोस्त याद आते हैं । किसी कसक की तरह । नए दोस्त मिलते हैं तो दिल उसी तरह खिलता है जैसे वे पलट कर आ गए हो । आज भी जो बहुत से दोस्त बना लेते हैं उनसे रश्क होता है । ये बाज़ी आजतक हारता रहा हूँ । इसलिए जब भी कोई घर आता है मेरे दरवाज़े बंद होने लगते हैं । धीरे धीरे या अचानक खुलने की आदत से आने वाला चौंक जाता है । दोस्त चला जाता है । 

दिल चाहता है । 

हिटलर मरेगा....

बहुत पहले इस तस्वीर को ट्वीट किया था । लेखक की कल्पना का जवाब नहीं । दिमाग़ के चैम्पियन सीरीज़ है । रेलवे स्टेशन पर यह किताब रखी थी । 

नदी और नाव

नदियाँ नहीं होंगी तब भी नाव बची रहेगी । किसी माॅल के बाहर । ये मेरे घर के पास के एक माॅल में बिछा है । कंधे पर लाद कर कोई नदी और नाव दर दर भटक रहा है । आजकल के 'किड्स' रिवर में वोटिंग कर रहे हैं । यू नो, नाइस न ! 

प्यार पर सेल है

कोलकाता में एक घर के बाहर लिखा था । सोचा आपके लिए क्लिक कर लूँ । सब बिक ही रहा है तो प्यार क्यों न बिके । वो भी मुफ़्त । पता नहीं इस घर मेम कैसा आशिक रहता होगा । कैसी महबूबा रहती होगी । 


आडवाणी की नाकामियों का बदला हैं मोदी

आदरणीय आडवाणी जी,

आप चाहा मत कीजिये । जब भी आप चाहते हैं कोई और चाहने वाला आ जाता है । जब आपने पहली बार चाहा तो अटल जी आ गए । आपने हमेशा अटल जी से एक दूरी बनाए रखी । अपनी चाहतों की ख़ातिर । आप तब भी डिप्टी ही बन सके और आज भी डिप्टी ही हैं । डिप्टी मने डेप्युटी प्राइम मिनिस्टर । लोग आपकी चाहत का मज़ाक उड़ा रहे हैं तो मुझे अच्छा नहीं लग रहा । आपकी अधूरी चाहतें आपको भुतहा खंडहर में बदल देंगी । लौह पुरुष कभी प्रधानमंत्री नहीं बना करते हैं । इतिहास है भारत का । सरदार पटेल को भले ही इतिहास ने उपमाओं से नवाज़ा मगर वही उपमायें उनकी आख़िरी मंज़िल बनी रहीं । हर जगह कोई जवाहर होता है जो निकल आता है । आपके वक्त भी अटल जी जवाहर बन गए थे । 

सरदार पटेल तमाम उपलब्धियों के बावजूद जनमानस के नेता नहीं बन सके । आपने गृहमंत्री के काम को प्रधानमंत्री के काम से स्वतंत्र व्याख्या करने का प्रयास किया और भारत को जोड़ने का काम सिर्फ एक व्यक्ति का बता दिया । दरअसल बुनियादी गड़बड़ी यहीं थीं । सरदार पटेल के काम को ज़रूरत से ज़्यादा अलग कर उन्हें अपनी तरफ़ हथियाने का प्रयास किया । आप मौलिक नेता थे मगर खुद को फोटोकापी बना लिया । अटल जी मौलिक नहीं थे मगर उन्होंने खुद को किसी का फोटोकापी नहीं बनाया । एक कमरे में एक से लगने वाले दो नेताओं के फोटो नहीं टंगते । सरदार पटेल के पास इतिहास में भूमिका निभाने का वक्त था । आपके पास क्या था । आपका सरदारीकरण इतना कमज़ोर रहा कि आप पटेल की तरह सख्त लगने को ही अंतिम समझने लगे । दूसरी तरफ मोदी सरदार की ऊँची मूर्ति बनवाने जा रहे हैं । हर काम एक मिनट में करने वाले मोदी अमरीका की स्टैच्यू आफ़ लिबर्टी से भी ऊँची बनवाने के लिए दो साल से प्रस्ताव ही घुमा रहे हैं । शायद वे सरदार का उत्तराधिकारी बनने का इंतज़ार कर रहे हैं ।  मूर्ति तब बनेगी और तब आप नहीं होंगे । मोदी की सत्ता के आगे नतमस्तक लोग उन्हें सरदार घोषित कर देंगे । गैंगवार में एक सरदार को मरना पड़ता है दूसरे सरदार के पैदा होने के लिए । गैंग आफ़ बीजेपीपुर । 

पौरुषत्व और लोहा किसी और काम नहीं आते हैं । पौरुषत्व की उम्र होती है । क्षणभंगुर है । लोहे से कुर्सी बनाई जाती है, कुर्सी पर लोहा नहीं रखा जाता । सब पुरुष एक से होते हैं । लौह पुरुष कुछ नहीं होता ।  पौरुषत्व का दावा कोई भी कर सकता है । 'मुसली पावर' बेचने वाला रोज़ अख़बार में दावा करता है । जिस हिन्दुत्व के आप ब्रांड रहे उसके कई छोटे बड़े ब्रांड देश में रहे हैं । उनके कभी भी बड़े ब्रांड में बदलने की संभावना को आप समझ नहीं पाये । 

केशुभाई आपकी व्यथा को समझ सकेंगे । वो पार्टी से यह कह कर चले गए कि जब तक आप हैं मोदी का कुछ नहीं हो सकता । ऐसे कई चले गए । आज वही मोदी आपको केशुभाई बना रहे हैं । इसी गोवा में आपने अटल जी के ख़िलाफ़ मोदी को बचाया था और आज इसी गोवा में लोग आपसे मोदी को बचा रहे हैं । आप बाहर हो गए । इतिहास इंसाफ़ करता है । दरअसल खोट मज़हब की बुनियाद पर टिकी इस राजनीतिक अवधारणा में ही है । अटल जी उसी धारा में रहते हुए हिन्दू धर्म की जगह राजधर्म की बात करते हुए इतिहास में सहानुभूति पा गए । आप हिन्दुत्व की रक्षा करते हुए वर्तमान मे ही ख़ारिज हो गए ।। 

निश्चित रूप से आप राजनीति में संयम के मिसाल हैं । भोजन और स्वास्थ्य के मामले में आप कितनों की प्रेरणा कर सकते हैं । मैं क़ायल हूँ । आप फ़िल्म पत्रकार रहे हैं मगर अपनी राजनीति की एक कामयाब स्क्रिप्ट तक न लिख सके । किसी से नहीं सुना कि आप ईमानदार नहीं हैं । आज आपकी पार्टी में ही आपका मज़ाक़ उड़ रहा है । आप खलनायक हैं और आपका ही एक रथयात्री महानायक । आप इसी पार्टी में हटाये गए हैं लाये गए हैं और अब भगाये जा रहे हैं । कितना कुछ हुआ आपके साथ । आप न संघ है न शरणम । आपका वर्तमान हमेशा इतिहास की तरह रहा है । 

राजनीति क्रूर होती है । मानवीय कब थी । आपने कब बनाया । मोदी आ रहे हैं । वे आप ही के उत्तराधिकारी हैं लेकिन आपकी हर नाकामी का वो बदला लेंगे । पहले आपसे फिर इतिहास से । इस बार कोई आडवाणी ही है जो मोदी बनकर बीजेपी के अटलों से बदला ले रहा है । एनडीए के नीतीशों को धकिया रहा है । मोदी अटल नहीं हैं । वे खुलेआम आडवाणी हैं मगर आपसे कहीं ज़्यादा सरेआम । वे अपने कट्टर चेहरे और छवि को लेकर ही कामयाबी के रास्ते पर निकलने जा रहे हैं ताकि सत्ता मिलने पर कोई अटल न बचा रहे । किसी आडवाणी की दोबारा हार न हो । इस बार बीजेपी हिंदुत्व पर एक राह से चलेगी । अटल आडवाणी के द्वंद पर नहीं चलेगी । इसका नाम विकास होगा इस बार । 

उठिये आडवाणी जी अपने लौह पुरुष को त्याग का मर्म समझाइये । अपने भीतर के हारे हुए आडवाणी को सौंप दीजिये नरेंद्र दामोदर मोदी को । आप हार चुके हैं । गोवा पान मसाला भी है । गोवा ज़हर भी है । सौंप दीजिये इस ज़हर के प्याले को । समंदर के किनारे सत्ता बिंदास लग रही है । आज मोदी हैं कल कोई और आएगा जो मोदी के चक्र को घुमा देगा । आपका मोदी विरोध वैचारिक होता तो जनता लामबंद हो जाती आपके पीछे । आपका विरोध व्यक्तिगत है । जो भी है गुप्त है । मोदी सार्वजनिक है । 

एक चम्पक रिपोर्टर के तौर पर आपका जलवा देखा है । आप लोहे की तरह आया करते थे । एक ही बार मिला हूँ । फ़ोन करने पर आपके सेक्रेट्री ने झाड़ दिया था । फिर भी आपने घर बुला लिया था । किसी किताब पर इंटरव्यू के लिए । छोटी से मुलाक़ात में मुझे आडवाणी की छवि ही दिखी आडवाणी नहीं मिले थे । मोदी के बाद आपको आडवाणी बनकर जीने का मौक़ा मिलेगा । दिल की बात कहने का मौक़ा मिलेगा । यही वक्त है आडवाणी को आडवाणी बनने का । 

एक मामूली सा ग़ैर ल्युटियन पत्रकार

रवीश कुमार 

लघु प्रेम कथा ( लप्रेक )

सुनो तुम फ़ेसबुक में सारी बातें क्यों लिख देते हो ? क्यों ? वहां कही गई आधी बातें मेरे लिए थीं और मुझसे कही भी नहीं गईं । जब भी तुम्हारे पास होती हूँ तुम ख़ाली होते हो । अरे नहीं । देखो न आज की ये शाम, ये मौसम और हाँ अख़बार में छपी ये तस्वीर । आइसक्रीम आर्डर करूँ ? कितना कुछ है बात करने को । मैं उन बातों की बात नहीं कर रही । तुम्हारे सारे अहसास मुझ तक पहुँचने से पहले बंट चुके होते हैं । तुम्हारी कल्पनाएँ कहीं और उतर चुकी होती हैं । जिनमें मैं भी होती हूँ और कई बार कोई और । तुम ऐसा क्यों सोचती हो । ख़ाली तो तुम भी हो । दरअसल हमदोनों हैं । नहीं तुम हो । शायद कुछ मैं भी । पहले हम चुप रह कर घंटों बातें किया करते थे और अब घंटों बातें कर चुप्पी सी लगती है । 
(२)
मैंने एक रेखाचित्र खींची है । तुम्हारे साथ इस शहर में चलते हुए । हाँ देख रही हूँ । हर रास्ता दूसरे से लिपटा हुआ लगता है । हाँ हर रास्ता उलझा हुआ भी । जब भी मैं इस शहर से निकलना चाहता हूँ कोई न कोई रास्ता लौटा लाता है । मैं तुम्हें हर लैंप पोस्ट पर खड़ा देखती हूँ । हर बस की पहली सीट पर तुम्हीं बैठे लगते हो । अब हम कम चलते हैं न ? मिलने के लिए चलते ही नहीं । बस पहुँचते हैं । हाँ जब से हमने घर बसाया है, हम शहर छोड़ आये हैं । रास्ते, लैंप पोस्ट, बस की पहली सीट, पापकार्न का कार्नर । कितना कुछ छूट गया हमारे मिलने में न ? तुम चुप क्यों हो ? रेखाचित्र देख रही हूँ । 
(३) 
बहुत दिनों से सोचा था तुम्हें एक ख़त लिखूँगी । तुम्हारे बिना लिखना ही अच्छा लगता है । अल्फ़ाज़ तुम तक पहुँचने के क़दमों के निशान लगते हैं । डर लगता है कोई पीछे पीछे न आ जाये । कितनी पास है मंज़िल पर हमने रास्ते को लंबा कर लिया है । हम मुल्कों में बंट गए हैं । तुम वहाँ मैं यहाँ । मैं बस यही लिखना चाहती हूँ कि कम से कम पढ़ना तो रोना मेरे लिए । मैं भी रोना चाहती हूँ । अपने सर्टिफ़िकेट पर खड़े अरमानों की इमारत की छत पर जाकर । ये ख़त तुम तक पहुँचने से पहले डाकिया पढ़ लेगा । ज़ालिम है वो । पर तुम तो नहीं हो न । तुम तो मेरे अल्फ़ाज़ों को समझ लोगे न । मैं किससे कहूं । तुम्हारी बातें भी ख़ुद से कहती हूं । थक गई हूं । आमीन !

लप्रेक विद मुन्नी बेगम

तुम्हारे शहर का मौसम बड़ा सुहाना लगे 
मैं एक शाम चुरा लूँ अगर बुरा न लगे 
तुम्हारे बस में अगर हो तो भूल जाओ मुझे 
तुम्हें भुलाने में शायद मुझे ज़माना लगे 

किसी ऐसी ही शाम को चुरा लाये थे दोनों । अपनी अपनी पाबंदियों से । नादिरा उर्फ मुन्नी बेगम की गाई इस ग़ज़ल की तरह । वो उसके कंधों पर अपने ख़्यालों को रख धड़कनों को गिने जा रही थी । वो था कि हर गुज़र रहे लम्हों के हिसाब में मशरूफ़ ।   ऊब कर बोल उठी । हम इश्क़ में हिसाब बहुत करते हैं । हाँ । क्यों ? इसलिए कि कोई हमारी शाम चुराते वक्त तुम्हें न चुरा ले । इतना कहा ही था कि डीटीसी एक बस तेज़ी से दीवार में घुस गई । किसी को कुछ हुआ तो नहीं मगर वो समझ गई । 

मुझे अपने ज़ब्त पे नाज़ था
सरे बज़्म आज ये क्या हुआ
मेरी आँख कैसे छलक पड़ी 
मुझे रंज है ये बुरा हुआ 

मुन्नी बेगम की दूसरी ग़ज़ल बजने लगी थी । इस बार कंधे से सर उठा कर बोलने लगी । सुनो ! मैं तुम्हारा हाथ पकड़ सकती हूँ ? तुम प्लीज़ इस शहर को थाम लो । । 

ये मेरे ही शहर के लोग थे
मेरे घर से घर है मिला हुआ ....ग़ज़ल जारी है । 
( लघु प्रेम कथा ) 

मैं ख़्याल हूं किसी और का

मैं ख़्याल हूं किसी और का
मुझे सोचता कोई और है

जब भी इस ग़ज़ल को सुनता हूं एक ऐसे दौर में चला जाता हूं जहां आज का वक्त अभी अभी गुज़रता सा लगता है। उत्तर उत्तर आधुनिक होने के दौर से पहले की यह ग़ज़ल हमारी अभिव्यक्तियों के संबंधों और उनके बीच पैदा हुए ख़्यालों का ऐसा विखंडन करती है कि आप एक बार इसकी पंक्तियों की तस्वीरों में ख़ुद को पाने लगते हैं। हमने फिल्म समीक्षक तो पैदा किये हैं मगर गानों, ग़ज़लों के समीक्षक हुए ही नहीं जो इनके गाने और सुने जाने के दौर में इसके असर को समझा सके।

मुन्नी बेगम जब गा रही होती हैं तो लगता है सुराही में कोई हवा सरसराती हुई भीतर तक उतरती है और बाहर आ रही है। आज के संबंधों के दौर को याद कीजिए और हमारी अभिव्यक्तियों के रिश्तों के बारे में भी । हम अक्सर सोचते हैं किसी और से कहने के लिए ।  मन कितनी दुनिया पार कर लेता है। आपकी हर अभिव्यक्ति किसी ख़ास की जगह सरेआम साझा है । हम ख़ुद को उन रिश्तों में देखने लगते हैं जो हमारी बातों में ख़ुद को ढूंढने के लिए भटक रहे होते हैं । कोई विश्वासघात नहीं हो रहा है। नैतिक संकट नहीं है ।  कोई पुराना नहीं छूट रहा है। लेकिन हमारे संबंधों के तार उलझने लगे हैं। पता नहीं होता कि आप किस अनजान की बातों में खो गए, पता ही नहीं चलता कि कब आप अपनी दुनिया पार कर किसी की दुनिया में जाकर टहल आए हैं। यह ग़ज़ल चाहतों के बंटवारे की नहीं है।  उस हकीकत को बयां कर रही है जहां संबंध-अंतरसंबंध की कई परतें किसी गुप्त राह से होती हुईं कहीं और भटक रही होती हैं।

वही मुंसिफों की रवायतें,
कहीं फ़ैसलों की इबारतें,
मेरा जुर्म तो कोई और था,
पर मेरी सज़ा कोई और है

हमारे कई राज़दार हो गए हैं। हम अपने मन की बात अजनबियों के बीच ज़्यादा कहने लगे हैं जो चुपके से आकर लाइक कर जाते हैं और खुलकर गरिया जाते हैं। एक नई किस्म की पहचान बन रही है जो शायद उलझा रही है या फिर हम इसी तरह से उलझ कर सुलझे हुए महसूस करते हैं। इतनी बातें जो हम आभासी दुनिया में सरेआम करते हैं क्या हम सामने मौजूद रिश्तों से करते हैं। क्या वैसे और ठीक उसी अंदाज़ में करते हैं । शायद नहीं ।  पक्का हां ।  वहां की बातों में से ऐसा क्या बच जाता है , इतना क्या बच जाता है कि फिर भी साझा करने के लिए काफी होता है।

तू करीब आ तुझे देख लूं
तू वही है या कोई और है

हमारी पहचान हमीं से गुम हुई जा रही है। हर रिश्ते के कई उप-कोने(सब-कार्नर) हैं। अब सिर्फ हमारा सबसे करीब ही हमें नहीं जानता । वो भी जानने लगा है जो शायद कभी करीब ही न हो और क्या पता हो भी गया हो। यही कारण है कि सोशल मीडिया की अभिव्यक्तियां और अकेला कर रही हैं क्योंकि यह प्रक्रिया किसी एक जगह से चलकर दूसरी जगह पर जाकर नहीं रूकती । नहीं ठहरती है । वो वहां से कहीं के लिए और मुड़ जाती है।

अजब एतबार पे एतबारी
के दरम्यान है ज़िंदगी
मैं करीब हूं किसी और के,
मुझे जानता कोई और है

बात सिर्फ चाहत या पाने की नहीं है। बात है बातों को कहने की। उनके सुने जाने और उनके कहे जाने के तलब की। हम अभिव्यक्तियों को लिये भटक रहे हैं। लिखे हुए हर्फ़ों से चिपक रहे हैं उनसे लिपट रहे हैं और मचल रहे हैं ।  बातों की दावेदारी है । हर बात जो मेरी है वो मेरी ही है या किसी और की भी है। ये तलाश सिर्फ किसी उत्तर उत्तर आधुनिक दौर की नहीं है। ये तलाश हर दौर की है जिसके कारण इंसान पूरी धरती नाप गया। चलता रहा। बसता रहा। उजड़ता रहा। वो इतना फैला कि सबसे दूर हुआ । उसे ढूंढना ही था खुद को । तार लेकर आया,फोन लेकर आया, ख़त लेकर आया। इंटरनेट लेकर आया। हम होते हैं किसी और के लिए मगर कोई और भी हमारे लिए होता है । 

मैं नसीब हूं किसी और का
मुझे मांगता कोई और है

हम जिन संबंधों में हैं, वहां के अलावा भी हैं । किसी और के ख़्यालों में, किसी और की चाहतों में । दिलचस्प दौर है। संबंधों के इन खांचों को आप संबंधों की उस परिभाषा से मत देखिये जहां कोई अपना दरवाज़ा बंद कर किसी और की खिड़की से दूसरे के कमरे में जा रहा है। हमारे भीतर बन रही अभिव्यक्तियों को साझा करने की भूख किसी एक से नहीं मिट सकती। बहुत बहुत चाहिए। पांच हज़ार दोस्त और पांच लाख अनुचर या फोलोओर। कमाल है। मुन्नी बेगम ने इस ग़ज़ल को सबसे अच्छा गाया है। सुनकर मस्त हो जाइये।

रूडी की फ्लाइट...गोवा की मीट...आओ चले डार्लिंग

बीजेपी महासचिव राजीव प्रताप रूडी इंडिगो फ्लाइट उड़ाने जा रहे हैं । ये अपना जहाज़ खुद ही उड़ा रहे हैं । गोवा की उड़ान है । इसी फ्लाइट में हमारे सहयोगी अखिलेश शर्मा भी जा रहे है जो बीजेपी कवर करते हैं । ये तस्वीर अखिलेश ने भेजी है । यह भी जीवन है । स्टाइल । 

जिया की मौत का अपराधिकरण न करे मीडिया


फ़िल्म अभिनेत्री जिया ख़ान ने ख़ुदकुशी कर ली जिया ने तनाव के किन आख़िरी और नाक़ाबिले बर्दाश्त की घड़ी में जीवन समाप्त करने का फ़ैसला किया इसकी मुकम्मल जानकारी किसी को नहीं इस दुखद ख़बर को जिस तरह से हिन्दी न्यूज़ चैनलों ने ज़िंदादिल बनाकर दिखाया वो हम सबके दर्शक होने की संवेदनशीलता की ख़ुदकुशी की भी आत्मकथा है हम क्यों देख रहे थे एक ज़िंदगी के इस तरह ख़त्म हो जाने पर उसके सेक्सी से लगने वाले वीडियो, हमें क्यों बताया जा रहा था कि उसके किससे क्या संबंध थे, उसकी ख़्वाहिशें और नाकामियों क्या थीं दर्शक और चैनल एकदूसरे के अनुपूरक होते जा रहे हैं मौत पर मातम मनाया जाता है ये कब से होने लगा कि किसी के मरने पर   उसकी वीडियो और फ़िल्मी गानों को बार बार चलाया जाए

जिया की ख़ुदकुशी पर जिस तरह से बहस हुई है उस पर बात होनी चाहिए अचानक से जिया की मौत के बहाने टीवी के दैनिक विशेषज्ञ ज्ञान देने लगे हैं कि जिया की मौत अकेलेपन की नहीं बल्कि आज के युवाओं की उन चाहतों की वजह से भी है जिसे पाने की अंधी दौड़ में वे भागे जा रहे हैं क्या जिया से मरने के पहले का युवा आत्मत्याग और अपरिग्रह की ज़िंदगी जी रहा था क्या बीस साल पहले के युवाओं पर ये बात लागू नहीं होती गुरुदत्त ने कई दशक पहले आत्महत्या की थी क्या सिर्फ महान बनने या जल्दी कामयाबी पाने की तड़प में उन्होंने ऐसा किया ज़ाहिर है इस तरह के फ़ैसले के क्षण नितांत व्यक्तिगत होते हैं, ज़रूर ये क्षण उस समाज में बनते हैं जो आपसे कुछ उम्मीद करता है लेकिन हम किसी अभिनेत्री की आत्महत्या के बाद ही क्यों महत्वकांक्षा की लानत- मलामत करने लगते हैं

ग्लैमर की दुनिया की आत्महत्या ग्लैमर पैदा करती है हम ग्लैमर की दुनिया को किसी प्रेतात्मा की तरह कोसने लगते हैं इसमें क्या शक कि इस दुनिया शर्ते क्रूर हैं जिया की मौत के बाद कई जानकार माॅडल से लेकर स्टार की आत्महत्या की गिनती करने लगे तो ये संख्या बीस भी पार नहीं कर पाई जबकि बालीवुड और माडलिंग की दुनिया में हज़ारों लोग नाम और काम के लिए संघर्ष कर रहे हैं इनकी तुलना में देश में लाखों किसान आत्महत्या कर चुके हैं क्या उनके कारणों पर मीडिया इस तरह से बहस करता है क्या उनके भी वही कारण थे जो जिया के थे क्या ये किसान भी महत्वकांक्षा के मारे थे क्या  हम यह मानते हैं कि सारे युवा जिया जैसे बनना चाहते हैं या जिया सारे युवाओं की तरह थी जो उसकी मौत के बाद हम उनकी हर बात की धुलाई करने लगते हैं अकेलापन और अवसाद के अलग अलग कारण होते हैं जिन हालात में जिया को जीना पड़ा वैसे हालात में करोड़ों लोग रोज़ तिरस्कृत होते हैं मगर वे तो अपनी ज़िंदगी समाप्त नहीं करते हम रोज़ाना विज्ञापनों के माध्यम से युवाओं में चाहत पैदा करते हैं कि वो कैसे दिखें हमने ही उन्हें उपभोक्ता बनाया है हमने उन्हें  ये नहीं बताया कि कितना खाना है और कितना नहीं खाना है

बोर्ड के नतीजे आते हैं तो मीडिया सिर्फ नब्बे प्रतिशत वालों को पहले पन्ने पर छापता है टीवी भी इन्हें नायकों की तरह दिखाता है क्या तब हम यह माहौल पैदा करते हैं कि इस सफलता को सामान्य तरीके से लिया जाना चाहिए ज़िंदगी का मकसद नब्बे प्रतिशत लाना नहीं है हम सब सफलता के किस्सों को ऐसी ऐसी  किंवदंतियों में बदलते हैं जिसमें नाकामी और अकेलापन की कोई जगह नहीं होती हमारा युवा इन चुनौतियों से रोज़ लड़ता है हारता है और जीतता भी है

ऐसे में यह कहना कि जिया की मौत हमारे युवाओं की महत्वाकांक्षाओं की देन हैं परिवार टूट रहे हैं और अकेलापन बढ़ रहा है सोशल मीडिया उस अकेलेपन को बढ़ा रहा है ये सब कारण आत्महत्या की परिस्थितियों को रचते होंगे लेकिन यही कारण नहीं होते कृपया कर जीया की चाहतों का अपराधीकरण करें सपने देखना अपराध नहीं है जयपुर में ही रविवार को एक युवक ने एड्स की बीमारी से तंग आकर ख़ुदकुशी कर ली डाक्टरों ने पोस्टमार्टम करने से इंकार कर दिया और मोहल्ले वालों ने कंधा देने से हम एक निष्ठूर दौर में रह रहे हैं इसके बाद भी जीने के तमाम कारण हैं जीना ही चाहिए खुद के काम सके तो दूसरे के जाइये

पुलिस ने अभी तक जितनी जाँच की है उससे यही पता चलता है कि जिया को तीन फ़िल्में मिली थीं सूरज और उसके बीच के संबंध मामूली खींचतान के साथ सामान्य ही थे जिया ने पहले भी कलाई की नस काटने का प्रयास किया था दोनों के बीच अविश्वास से लेकर जो कुछ भी हुआ वो एक ग़ैर महत्वकांक्षीय रिश्तों में भी होता है अवसाद या निराशा की स्थिति किसी भी रिश्ते में पैदा हो सकती है जिया की महत्वकांक्षा को क़सूरवार नहीं बनाया जाना चाहिए दीपिका भी अपनी नई फ़िल्म को लेकर तनाव में थी मंदिर मस्जिद के चक्कर लगा रही थीं आप जब सबकी नज़रों में होते है तो वहाँ से गिरने पर सँभलना भी आना चाहिए इस डर से तो कोई मुख्यमंत्री ही बने कि सत्ता जाने पर कोई पूछेगा ही नहीं


युवाओं को अपनी महत्वाकांक्षाओं को समझने की ज़रूरत है आज के ही नहीं कल जो युवा थे उनके लिए भी यह सबक़ है अवसाद एक बीमारी है आज के शहरी जीवन और आर्थिक तंगी के दौर में बड़ी संख्या में लोग किसी किसी रूप में मनोरोग यानी अवसाद के शिकार हैं इस बीमारी को समझने और कहने की ज़रूरत है उससे भी ज़्यादा सुनने की क्या हम दूसरे की तकलीफ़ को ध्यान से सुनते हैं या अपना ही फ़ैसला सुनने के पहले सुना देते हैं
 (यह लेख आज के राजस्थान पत्रिका में प्रकाशित हो चुका है)