मूड किया तो ये लिखा

(1)
सियासत में एक बात अच्छी होती है 
रंग कुछ भी हो चमड़ी मोटी होती है । 
(2)
मुल्क की बीमारी की पैमाइश हो रही है,
टीवी में बोलने की समझाइश हो रही है ।
(3)
जबसे उनके फ़ालोअर कुछ लाख हो गए ,
बता रहे हैं सबको कि सबके बाप हो गए । 
(4)
नेताओं के फ़ेसबुक पर खाते खुल रहे हैं ,
स्विस बैंक पूछो है कितने में खुल रहे हैं । 




प्राइम टाइमीय रातों के डरावनें ख़्वाब

कई बार मन बेवजह उचाट हो जाता है । सोचता हूँ प्राइम टाइप की एंकरबाज़ी करने वाले लोग कैसे रमे  नज़र आते हैं । उन्हें कौन सी चीज़ प्रेरित करती होगी जिससे वो आज के प्राइम टाइम फार्मेट से चिपके रहते हैं । कभी इन लोगों को बेचैन होते नहीं देखा । होते भी होंगे तो मुझे कैसे पता चलेगा । यह भी नहीं मालूम कि उन्हें प्राइम टाइम की रोज़ाना रातों में प्रेरणा टिकाये रहती है या असुरक्षा या सचमुच ही कोई विकल्पहीनता । खुद को लेकर जवाब ढूँढते ढूँढते ऐसी ही किसी रात को उचाट हो जाता हूँ । 

दूसरी तरफ लोगों की प्रतिक्रियाएँ जितनी सतर्क नहीं करती उससे ज़्यादा बोर करने लगी है । आम आदमी की शक्ल में ये लोग अपनी अपनी पार्टी का एंगल ठेले रहते हैं । इनकी निष्पक्षता इतनी होती है कि जिस पार्टी के झोलावाहक हैं उसकी आलोचना न हो । इसे साबित करने के लिए ये किसी और मामले का ज़िक्र करने लगते हैं और फिर भविष्य की चेतावनी देते हैं कि देखेंगे तब आप क्या करेंगे । सोशल मीडिया पर टीवी के लिए सारी पार्टी के नेता अपना अपना स्टाल लगा रहे हैं । राजनीतिक दलीलों का मुहावरा इतना घिसा पिटा है कि सुन कर ही हिचकी आने लगती है । दलीलें जीवाश्म की तरह पत्थर से चिपक गई हैं । राजनीति एक अटकी हुई प्रक्रिया है और नेता लटका हुआ तत्व । 

लिहाज़ा मन खिन्न तो हो ही जाता है । कभी एक पार्टी के तो कभी दूसरी के लोग आरोप मढ़ देते हैं । हर दलील और सवाल को पार्टी के हिसाब से नापने वाले आम दर्शक की शक्ल में नेता कार्यकर्ता । ज़रूर हमें इस लिहाज़ से भी परखा जाना चाहिए, बेमुरव्वत, लेकिन ये एक रात को कांग्रेस का और अगली रात को बीजेपी का प्रवक्ता बता बता कर कुछ लोगों ने चाट लिया है । चिरकुटों को लगता है कि भारत का उद्धार इन्हीं दो दलों के अंदरखाने हो रहा है । ये कांग्रेस बीजेपी का गढ़ा हुआ खेल है । बीएसपी,जेडीयू, तृणमूल का भी कोई समर्थक होगा डीएमके का भी होगा वो तो कभी आकर गाली नहीं देता कि मेरी पार्टी को लेकर तटस्थ नहीं है । कभी नहीं कहेगा कि आप इन दोनों के ही मुद्दे में क्यों फँसे रहते हैं । हर बहस में कांग्रेस बीजेपी का स्टूल डिफ़ॉल्ट तरीके से लग जाता है । 

लेकिन अब यही भाषा बहस मे हारने वाले नेता बोलने लगे हैं जैसे उनके पास सबसे मारक तीर यही है कि लगता है कि आज कल आप इस उस पार्टी से ज़्यादा प्रेरित हो गए हैं । हम तो आपको तटस्थ समझते थे ।  जैसे खुद नेता जी जो बोल रहे हैं अपने दल की निष्ठा से ऊपर उठकर देशहित में ही बोल रहे हैं । इनसे उम्मीद भी नहीं की जाती । पर दलों की निष्ठा में ये नेता इस कदर डूबे हैं कि कई बार बात जानते हुए भी नहीं बोलते । कभी अपनी जानकारी साझा नहीं करते जिससे दर्शक भी कुछ और सोचे । पता नहीं कब और कैसे उन्हें यक़ीन हो गया है कि वे जो बोल रहे हैं लोग उसे ही सत्य मान रहे हैं और इससे पार्टी का प्रचार हो रहा है । यही कारण है कि एंकरों के साथ साथ अब कुछ नेता भी रूटीन लगने लगे हैं । नेता अपने ज्ञान का कम पार्टी लाइन का ज़्यादा प्रदर्शन करने पर मजबूर किये जा रहे हैं । 

पार्टी ने भी इस प्राइम टाइम को ड्यूटी में बदल दिया है । सुबह सुबह पार्टी दफ्तर में टापिक दीजिये या मुख्य प्रवक्ता से किसी वक्ता के बारे में इजाज़त लीजिये तब भी वे अपनी ही पसंद का वक़्ता देते हैं । सब कुछ व्यवस्थित होता जा रहा है ताकि जवाब नियंत्रित हो सके । यहाँ तक कि प्रादेशिक नेता भी कहने लगे हैं कि मेरा नाम पैनल में नहीं है दिल्ली से पूछ लीजिये । उन्हें कौन समझाये कि कांग्रेस बीजेपी के कुछ सक्रिय भी और कुछ नव उत्साही फ़ालतू कार्यकर्ताओं के अलावा बड़ी संख्या में दर्शक मुद्दे को समझने के लिए, उसके राजनीतिक एंगल को समझने के लिए टीवी देख रहे होते हैं न कि रोज़ रोज़ की डिबेट में कांग्रेस बीजेपी को सजा या पटखनी देने के लिए । यह भी सही है कि इसमें मीडिया की भी ग़लती है । 

एक नई प्रवृत्ति यह है कि अगर कोई मुद्दा किसी पार्टी के ख़िलाफ़ है तो उसके बड़े प्रवक्ता नहीं आते । नए और पार्टी की लाइन से जोड़ कर नहीं देखे जाने वाले आते हैं । जिनका दूध भात माना जाता है । वैसे अब इन्हीं ' दूध भात' प्रवक्ताओं से बहस की रातें रौशन हो रही हैं । जैसे बीजेपी ने आसाराम के मसले पर किसी को भेजा ही नहीं । पार्टी क़ानून सबके लिए बराबर है इससे आगे की लाइन नहीं बोलना चाहती है । लेकिन यह भी नहीं चाहती कि कहीं ज़्यादा विरोध करने से धर्म विरोधी संदेश न चला जाए । कल रात एक के बाद एक प्रवक्ताओं ने मना किया ।  एक नवोदित तैयार भी हुए तो आखिर क्षण में कैंसिल कर दिया । ग़नीमत है कि राजस्थान के सासंद मिल गए और उन्होंने अपनी पार्टी लाइन और कांग्रेस के सासंद से अच्छा बोला । ठीक इसी तरह कांग्रेस के नेता करते हैं । बड़े नेता ग़ायब हो जायेंगे । अनेक उदाहरण दे सकता हूँ । एस पी और बीएसपी के नेता तो ग़ायब ही हो जाते हैं ।  तो कुल मिलाकर बहस का तहस नहस हो जाता है । 


कई नेता इस जल्दी में रहते हैं िक पहचान बनते ही हैसियत का प्रदर्शन करें । प्राइम टाइम टीवी ने नेताओं को कई श्रेणी में बाँट दिया है । कुछ नेता स्टुडियो आते हैं । जबकि सबको आना चाहिए इससे सुनने और तुरंत कहने में आसानी होती है और बहस अच्छी होती है । कुछ नेता सिर्फ ओबी वैन पर ही आते हैं । अपनी हैसियत का अहसास इस बात से प्राप्त करते है कि मैं स्टुडियो नहीं जाता । इनमें से कुछ की वाजिब समस्या भी होती है कि एक दिन में तीन स्टुडियो कैसे जायें तो घर ओबी वैन मँगा कर निपटा लो । मगर ऐसे अपवादों को छोड़ वे ओबी वैन पर ही रहते हैं । कुछ नेता सिर्फ वन टू वन और वो भी देश के तीन एंकरों को इंटरव्यू देते हैं और वो भी साल में पचीस बार एक्सक्लूसिव । वन टू वन में सिर्फ एंकर और वक़्ता होता है । इसमें भी कई श्रेणी है । कुछ लोग लाइव डिबेट में वन टू वन नहीं करते । कुछ तो सिर्फ रिकार्डेड इंटरव्यू देते हैं । कुछ नेता ऐसे भी हैं जो दूसरी पार्टी के नेताओं की हैसियत पता करते हैं । कुछ नेता सिर्फ इंग्लिश चैनल में ही जाते हैं । कुछ अच्छे नेता भी हैं जो सुबह गेस्ट कार्डिनेटर को एस एम एस कर देते हैं कि आज मोदी या राहुल पर बहस हो तो मैं आ सकता हूँ । निश्चित रूप से कुछ नेता तैयारी के साथ भी आते हैं । हाँ दो चार नेताओं ने खुद को विचारक कैटेगरी में डाल दिया है ।हौल आफ़ फ़ेम में । ये साल में एक बार अंग्रेजी के किसी बड़े प्रिंट पत्रकार को या टीवी के अंग्रेजी एंकर को इंटरव्यू देते हैं । गौरवशाली और महान हिंदी पत्रकारिता ऐसे इंटर्रव्यू से टिप्पणियां चुन कर विश्लेषण करती है । सभी दलों ने निर्वाचित प्रतिनिधियों के अलावा ऐसे लोगों को प्रवक्ता रखा है जो उनकी सोशल सर्किल में पार्टी के लिए जीताऊ आइडिया लेकर घूमते रहते हैं । जिससे जवाबदेही भी नहीं रहती और काम भी हो जाता है । एक बात और, इतने चैनलों पर मग़ज़मारी यानी  बहसबाज़ी हो रही है कि पार्टियाँ कहाँ से प्रवक्ता पैदा करें । 

ऐसे में आप मेरी इस चिरकुट हताशा को छोड़िये उस गेस्ट कार्डिनेटर के तनाव को समझिये । जो इतनी सारी प्राथमिकताओं में संतुलन बिठाता है । वो भी रोज़ रोज़ । तब जाकर अच्छा या बुरा पैनल बनता है । विकल्प इतने सीमित है कि वह कांग्रेस बीजेपी के बनाए पैनल के बाहर भी नहीं जा सकता ।  ऊपर से हम लोग कई बार आख़िर क्षण में मुद्दा बदल देते हैं । तब इस गेस्ट कार्डिनेटर की साँस अटक जाती है । जैसे ही बोलता है कि सर आज का टापिक कैंसल है तो उधर से नाराज़ प्रवक्ता झुँझलाता है कि अरे यार तुमको फ़लाँ चैनल को मना कर टाइम दिया था । सचमुच इनका तनाव देखकर लगता है कि चल यार जो फिक्स किया है उसी पर कर ले । क्या जाता है । कुछ गेस्ट कार्डिनेटर इस बात में भी उस्ताद होते हैं कि आपने पहले किसी को तय किया है मगर वो झूठ साँच बोलकर अपने चैनल के पाले मे वक़्ता को ले जाते हैं । कई बार बड़े एंकर ( मैं कभी ये काम नहीं करता और न किया है) आपके तय गेस्ट को कैंसिल करा देते हैं । एक तरह से आपके साथ राहजनी की घटना हो जाती है और आप कुछ कर भी नहीं सकते । क्या पता किसके पास नौकरी माँगने की नौबत आ जाये या कई अन्य  कारणों से । इस साँठ गाँठ में वक़्ता भी तो शामिल होता है । सब चैनल और पैनल देखकर फ़िक्सिंग करते रहते हैं । 


एक नई बात और हो रही है । एकाध ईमेल आया कि हम लोगों ने फ़लाँ नाम की पार्टी बनाई है हिंदुस्तान को बदलने के लिए । कृपया आप मुझे भी पैनल में बुलायें क्योंकि आप जैसे पत्रकारों से ही उम्मीद है । एक मेल ऐसा भी आया कि हम फलाने डाक्टर हैं और अमुक अमुक मसलों पर बोलने की क़ाबिलियत रखते हैं । एक जनाब तो मेरे पीछे पड़ गए कि मैंने देश में सारे अर्थशास्त्रियों को पछाड़ दिया है इसलिए आप मुझे लेकर किसी से बहस करायेंगे । झुंझला कर कह दिया कि मैं इसी पर नहीं करूँगा लेकिन फिर अगले दिन फ़ोन कि विमल जालान को भी हरा दूँगा । एक पीछे पड़े हैं िक उन्होंने बिना मुद्रा की अर्थव्यवस्था का माडल निकाल लिया है प्राइम टाइम में जगह दीजिये । धीरज देखिये दो साल से हर तीसरे दिन फ़ोन कर रहे हैं । कुछ फ़ोन इस पर भी आए कि यार अपना बंदा है इसे भी कभी कभी । कुछ तो टीवी पर आने के लिए टापिक और अपना एंगल भी एस एम एस कर देते हैं । सुबह सुबह ट्विट कर देते हैं ताकि लाइन देखकर किसी चैनल से फोन आ जाए । 


अब आप दर्शक उम्मीद करते हैं कि बहस भी अच्छी हो, एंकर अतिरिक्त नौटंकी भी न करे वग़ैरह वग़ैरह । टीवी की अपनी सीमा है । वो सीमा टीवी की ही बनाई हुई है । दर्शक की कोई ग़लती नहीं । बस उसे देखना चाहिए कि वो किसी कार्यक्रम को किसी पार्टी की निष्ठा से देख रहा है या कई पक्षों को जानने के लिए । दर्शक को बरगलाना आसान नहीं है मगर फिर भी । निश्चित रूप से कई बार शो ख़राब से लेकर औसत हुए घटिया भी होते हैं । पर इसका जवाब पार्टी के सोशल मीडिया विंग से प्रसारित दलीलों में नहीं है । हमेशा तो नहीं ही । इसलिए अब इन आलोचनाओं से फ़र्क नहीं पड़ता । वैसे अन्य किसी को भी पड़ता नहीं है । बस मैं यह अपने भीतर बदलाव देख रहा हूँ और स्वीकार कर रहा हूँ । हां अहंकारी नहीं हूं । पर कभी कभी मूड ज़रा । इसके बाद भी जब शो ख़राब होता है और काम की बातें नहीं होती तो रात भर ठीक से नींद नहीं आती । बेचैन हो जाता हूँ । लेकिन इस दो दलीय दलाली के दैनिक आरोपों का क्या करूँ । घंटा फ़र्क नहीं पड़ता । पहले भी लिखा है और आज भी लिख रहा हूँ ।

प्राइम टाइमीय रात कोई ख़ूबसूरत रात नहीं होती । काँटों भरी रात होती है । रात भर तकिये के नीचे टीवी बजता रहता है । मेरी शाम पर प्राइम टाइम की नज़र लग गई है । हर दिन उत्साह का एक समान स्तर बनाए रखना किसी औसत महत्वकांक्षीय भूख के बिना नहीं नहीं हो सकता । दर्शक रोज़ इम्तिहान लेते हैं । सोचिये रोज़ फ़ेल होकर कैसा लगता होगा । पास भी होते हैं । समस्या तो यही है न कि थेथर नहीं है । दुआ है कि जल्दी थेथर हो जाए वर्ना व्याधियाँ आतुर हैं शरीर में समाने को । जब शो अच्छा होता है तब ज़रूर अच्छी नींद आती है । 


फासीवाद के विरोध में लघु पोस्टर

बर्लिन की सड़कों पर फासीवाद के ख़िलाफ़ चंद नारों पर नज़र पड़ गई । कोई होगा जो खंभों पर स्ट्रीकर लगा गया होगा । फासीवाद की बुराइयों को उजागर करता हुआ । 


बर्लिन में एक पत्रकार से पूछा था कि आप लोग हिटलर या फासीवाद के बारे में बात क्यों नहीं करते । हमारे भारत में कुछ हताश मूर्ख हिटलर जैसे डिक्टेटर का इंतज़ार करते मिल जा़येंगे । उसका जवाब था कि हमें स्कूल में बताया जाता है कि यह हमारा शर्मनाक अतीत है । फासीवाद एक क्रूर विचारधारा है । हमारे पूर्वजों ने यह शर्मनाक इतिहास हम पर थोपा है । हम ज़िम्मेदार नहीं हैं पर हाँ दुनिया के सामने शर्मसार होना पड़ सकता है । फिर उस पत्रकार ने एक बात कही । वो ये कि हम यह समझते हैं कि जब आप बहस में हार रहे होते हैं और कोई दलील नहीं होती है तभी आप हिटलर का नाम लेते हैं । हमने इतिहास से ऐसे ही बर्ताव करना सीखा है । 



फिर उसने एक और क़िस्सा सुनाया । जब शिंडलर्स लिस्ट फ़िल्म आई थी तब स्कूल की तरफ़ से हम सब फ़िल्म देखने गए थे । फ़िल्म से पहले टीचर ने हमें यही समझाया था जो ऊपर लिखा है । फ़िल्म के बाद भी समझाया कि देखो कितनी शर्म की बात है । इस पर गर्व मत करो । हर मुल्क अपने इतिहास के काले पन्नों से अपने तरीके का सबक़ सीखता है । हम भारत के लिए हर चुनाव से पहले इतिहास का फ़ैसला करने लगते हैं । 


बर्लिन की इमारतें - सादगी के रंग

मुझे मकान और खिड़कियाँ देखने का शौक़ है । आर्किटेक्ट नहीं हूँ इसलिए उनके बारे मे ठीक ठीक व्यक्त करने की भाषा नहीं है । मई में बर्लिन शहर में था । काफी वक्त लगाया वहाँ की इमारतों को देखने में । सबकी रंगत में एक ख़ास बात नज़र आई । हर इमारत दूसरे की पूरक नज़र आई । इमारतें ख़ूबसूरत तो हैं मगर इनमें खिड़कियों का बड़ा हाथ है । इन खिड़कियों के आधार पर कुछ लोगों ने बताने का प्रयास किया कि युद्द पूर्व और बाद की खिड़कियां कैसे बदली हैं । विश्व युद्ध से पहले के मकान रंगीन नहीं होते थे ( सामान्य जानकारी है ) बाद की इमारतें रंगीन होने लगीं । वास्तुकला का एक चरित्र तो है ही । ये तस्वीरें आपकी नज़र कर रहा हूँ । 






अजीब दास्ताँ है ये

मुबारक तुम्हीं के तुम 
किसी के नूर हो गए 
किसी के इतने पास हो 
कि सबसे दूर हो गए 
अजीब दास्ताँ है ये 
कहाँ शुरू कहाँ ख़त्म 
ये मंज़िलें हैं कौन सी
न वो समझ सके न हम 
किसी प्यार लेके तुम 
नया जहाँ बसाओगे 
ये शाम जब भी आएगी 
तुम हमको याद आओगे 
अजीब दास्ताँ है ये
कहाँ शुरू कहाँ ख़त्म 
( - सुनता चला गया , लिखता चला गया फिर नींद आ गई ) 

जीवन का ज्ञान

आज कार के एक पहिये का पंचर बनवाने गया था । पेंचर वाले से बात करने लगा कि यार ये गाड़ी पेंचर( पंचर नहीं ) बहुत होती है । वो गंभीर मुद्रा में जवाब देता है कि हाँ बरसात में ज़्यादा पेंचर होता है । बरसात में ? हाँ वो ज़मीन से एलिमेंट बाहर आ जाता है न उससे । एलिमेंट ? हाँ बारिश से मिट्टी धुल जाती है । मिट्टी के नीचे जो कील दबी होती है बाहर आ जाती है । लोहे के टुकड़े छिटक कर सड़क पर आ जाते हैं और पेंचर के केस बढ़ जाते हैं । 

मद्रास कैफ़े देखियेगा

अच्छी फ़िल्म है । राजीव गांधी हत्याकांड की पृष्ठभूमि पर बनी है । इतनी खूबी से बनाई गई है कि फ़िल्म आख़िर तक विश्वसनीय लगती है । एक एक संवाद और दृश्यों का संपादन बेहतरीन है । एक किस्म की डार्क और ब्लू शेड लिये हुई । जाफना के लोकेशन और सेट को बेहतरीन तरीके से उभारा गया है ।  प्रभाकरण और लिट्टे से टकराने गई हमारी शांति सेना और खुफिया अफसरों की अपनी गुटबाज़ी सब कुछ उस राजनीति को बदल देती है जिसे राजीव गांधी शांति के नाम पर करना चाहते थे । अब इस सिलसिले में कुछ याद नहीं रहा लेकिन फिल्म की कहानी ऐसे बुनी गई है जैसे सीधे एस आई टी की रिपोर्ट से ली गई हो । राजीव गांधी की हत्या का प्लाट इंदिरा की हत्या से कहीं ज़्यादा जटिल था । फिर भी यह फ़िल्म उस प्लाट को काफी सरलता और सहजता से खोलती है ।  


फिल्म में युद््द के दृश्यों की फ़ोटोग्राफ़ी शानदार है । कैमरा काफी साफ़ सुथरा है । उम्दा लाइटिंग के कारण भी । जाॅन अब्राहम ने शानदार अभिनय किया है । वे अपने अभिनय की सघनता और तीव्रता पूरी फ़िल्म में बनाए रखते हैं । ख़ुफ़िया ब्यूरो की दुनिया के कँपा देने वाले किस्से इस तरीके से सामने आते हैं जिससे हम और आप अपनी काल्पनिक दुनिया में भी अनजान रहते हैं । किसी के लिए देश देश होता है तो किसी के लिए देश एक दुकान । हर सूचना एक राजनीति को जन्म देती है । इस फिल्म में अपने पूर्व संपादक दिबांग को देखकर हैरत भरी अनुभूति हुई । उन्हीं का बोला संवाद फिल्म के प्लाट को सत्यापित करता है । सबके अपने अपने सच है । डिपेंड करता है कि आप कहां खड़े हैं । नर्गिस ने भी टाइम्स टाइप की पत्रिका के पत्रकार का अच्छा अभिनय किया है ।  सबका अभिनय सधा हुआ और संक्षिप्त है । डाक्यूमेंट्री की तरह फ़िल्म शुरू होती है और अंत तक दर्शक का ध्यान बाँधे रखती है । शूजित सरकार का निर्देशक कहानी के हिसाब से बेहतरीन है । इस बात के लिए शुक्रिया कि फ़िल्म के प्लाट में आइटम सांग नहीं घुसाया है । एक ही गाना है वो भी आख़िर में । मौला कैटेगरी का । 

मुंबई क्यों शर्मसार हो ?

मुंबई की एक फोटो पत्रकार के साथ बलात्कार की घटना ने हमें उसी दिसंबर जनवरी में लाकर छोड़ दिया है जहाँ हम निर्भया को लेकर मर्दों के सामाजिकरण पर बहस किया करते थे । उन बहसों में क़ानून का डर समाज की कायरता से बड़ा होता चला गया था और जिसे क़ायम करने के लिए जस्टिस वर्मा ने एक वाजिब क़ानूनी ढाँचा भी पेश किया । बात दिल्ली और मुंबई के शर्मसार होने की नहीं है । मुंबई हो या दिल्ली इन शहरों ने कब औरतों के लिए एक आदर्श शहरी सामाजिक वातावरण बनाने में सक्रियता दिखाई । सुना था कि मुंबई औरतों के लिए बेहतर शहर है । ऐसा ही कोलकाता के बारे में सुना था । नब्बे के दशक में जब सार्वजनिक स्थलों पर औरत विहीन बिहार से दिल्ली आया था तो कार चलाती महिलाओं और बाइक पर पीछे बैठी लड़कियों की तादाद देखकर हैरान और ख़ुश होता था कि वाह ये शहर तो अच्छा है । पटना जैसे शहर में छोटी बहन घर में ही क़ैद सी हो गई क्योंकि आर्ट और कोचिंग तक जाने के लिए रिक्शे के पीछे चलने वाले पहरेदार भाई दिल्ली जा चुके थे ।

अब हम लगभग हर बड़े शहर को लेकर शर्मनाक हो चुके हैं । समझना मुश्किल है कि हम शहर और पीड़िता को कैसे और कब एक मान कर शर्मसार होने लगते हैं । नारीवादी सोच ने तो यही सिखाया है और सहमत भी हूँ कि पीड़िता क्यों शर्मसार हो बलात्कारी क्यों नहीं । उसी लिहाज़ से शहर क्यों शर्मसार हो । ऐसी घटनाओं के बाद हम शहर को भाई की तरह 'ट्रीट' करने लगते हैं जैसे भाई के रहते बहन के साथ ऐसा क्यों हुआ । मुंबई और दिल्ली को मर्द बना दिया जाता है ताकि वो ऐसे वक्त में शर्मसार हों । जब हमारी अभिव्यक्तियाँ नहीं बदल पा रही हैं तो सोचिये समाज की क्या हालत होगी ।

दरअसल बलात्कार की मानसिकता शहर के अंधेरे कोनों और ख़ाली पड़े कारख़ानों के एकांत में नहीं पनपती है । वो पनपती है लाखों घरों में जहाँ हम और आप बड़े होते हैं । आए दिन दफ्तर से घर लौटता हूँ तो पत्नी से बेटी के साथ घटी कहानियों को सुनता हूँ । हर दिन उसके साथ कोई लड़का ताक़त आज़मा चुका होता है । दस साल की उम्र में सामाजिकरण का ये अनुभव है कि वो अक्सर पूछती है पापा ये लड़के ऐसे क्यों होते हैं । उनकी आधुनिक मम्मियों को जब सुबह शाम जागिंग वाकिंग करते देखता हूँ तो लगता है कि कितना अच्छा है ये । सेहत को प्राथमिकता दे रही हैं । लेकिन जैसे ही उनके बेटों के बारे में फ़ीडबैक दीजिये तुरंत ऐसे प्रतिक्रिया देती हैं जैसे हमने उनके  ख़ानदान की नाक छेड़ दी हो । बेटी की शिकायत कीजिये तो मम्मी डैडी थोड़े ना- नुकर के साथ सुन लेते हैं मगर बेटे के बारे में बिल्कुल ही नहीं । उनका बेटा हमेशा ही अच्छा होता है । एक चार साल का लड़का है वो अपने से छह साल बड़ी बहन को मार देता है । उसकी दोस्तों पर हमला कर देता है । उसके मां बाप को कुछ भी गलत नहीं लगता । बचपन से ही ऐसी हिंसक प्रवृत्तियाँ को हम कृष्ण लीला समझ आहलादित होते रहते हैं । धीरे धीरे इन लालों में ताक़तवर होने का यह गुमान लड़कियों के बरक्स पनपता रहता है । 

दुनिया में इस पर तमाम शोध हो चुके हैं लेकिन इन्हें पढ़ा कौन है । कोई नहीं । आज कल के साफ्टवेयर कंपनियों के माँ बाप अपनी जीवन शैली को ही सोच समझ लेते हैं । मान लेते हैं कि वो जागरूक हैं । लेकिन नारी विमर्श की संवेदनशीलता से जितने उनके पढ़े लिखे और लफ़ंगे पति अनजान हैं उतनी ही वेस्टसाइड स्टोर से सेल में खरीद कर कैपरी टीशर्ट पहनने वाली उनकी पत्नियाँ । उनकी जागरूकता की परिभाषा उपभोक्ता विकल्पों के चयन से आगे नहीं जा पाती । कुछ लोग बदले भी हैं तो सिर्फ संयोग से । समझदारी को बदलने में हम सब आलसी होते हैं । यह सबसे बड़ा मिथक है कि एक माँ अपने बच्चे को नहीं समझेगी तो कौन समझेगा । बेटी का बाप है तो ऐसा नहीं होगा । इसी तरह से हम शहर को लेकर एक मिथकीय संसार में जीने लगे हैं । मुंबई में ऐसा नहीं हो सकता । और यह भी एक मिथक है कि यह सब आधुनिक जीवन की देन है । भारत के किसी स्वर्ण युग में ऐसा नहीं होता था । संयुक्त परिवार में नहीं होता था । बहुत सारे मूर्ख इस मिथक में जी रहे हैं । 

अच्छा है कि औरतों के ख़िलाफ़ होने वाली हिंसा को लेकर पब्लिक स्पेस में लड़कियों ने आवाज़ बुलंद की है । मगर यह आवाज़ टीवी चैनल से गूँजती हुई ट्विटर के टाइमलाइन पर पस्त हो जाती है । शुक्र है कि निलांजना राय, अनुषा रिज़वी, सुप्रिया, नम्रता, शुभ्रा गुप्ता, रेवती लाल खुलकर इन सवालों को उठा रही हैं मगर काश ये आवाज़ उन सामाजिक फैक्ट्रियों में पहुँचती जिसे हम घर कहते हैं । टीवी एक फ़ेल माध्यम है । उससे होगा नहीं । वो ' कौन है ज़िम्मेदार ' टाइप की बहसों से आगे नहीं देख सकेगा । जे एन यू की घटना भी कम दर्दनाक नहीं थी मगर हमारी प्रखर मेधा उसे छोटे शहर और बड़े शहर की चिरकुट प्रस्थापनाओं में सिमट कर रह गई । हम लगातार नाकाम हो रहे हैं । 

दरअसल मुझे पजेरो चलाते हुए जाॅकी पहनने वाला और रूपा पहनकर ट्रैक्टर चलाने वाला मर्द एक ही लगता है । पटना की मेरी पड़ोसी वर्णिका पांडे एम्स में डाक्टर थी । प्रेम विवाह किया था । पिछले हफ़्ते उसने ख़ुदकुशी कर ली । घर वाले बताते हैं कि उसका डाक्टर प्रेमी मारने लगा था । छह महीने की शादी शोक में बदल गई । वो लड़की घर तोड़ने की सामाजिक उलाहनाओं के भय में क़ैद हो गई । उसे लगा कि इससे अब नहीं निकल सकती है । ज़िंदगी ख़त्म कर ली ।  काश हम अपनी बेटियों को यह सीखाते कि शादी के पहले ही हफ़्ते में प्रेमी या पति में यह तत्व दिखे तो तोड़ दो रिश्ते को । तब तो और जहाँ इसमें सुधार की गुज़ाइश न बची हो । लड़की हो एक नहीं चार शादी करना । 

हाल ही में मेरी स़ासू माँ ने एक क़िस्सा सुनाया । उनकी एक मित्र ने कहा कि शादी करके आई थीं लेकिन उनके पति जब तब चांटा मार देते थे । शुक्र है भगवान ने बेटा जैसा प्रसाद दे दिया । बहू के सामने भी मार देते हैं तो बेटा इतना अच्छा है कि अपनी बीबी को समझा देता है कि पापा न ऐसे ही है । तभी हमारे मर्द चाहे किसी शहर में हों ऐसे ही रहेंगे । किसी भी गाँव में रहते हों । वो रोज़ ऐसे किस्से सुन कर घर आती हैं । पर शायद यह एक बदलाव होगा कि उम्र के इस मोड़ पर औरतें इसे साझा कर रही हैं । लड़के कब साझा करेंगे कि वो कितनी हिंसा करते थे । 

मेरा नारीवादी मूल्यों के प्रशिक्षण में घोर विश्वास है । जिन सामंतवादी और मर्दवादी मूल्यों के सामाजिक वातावरण में पला बढ़ा था उनके बारे में लगातार पढ़ने और समझने से काफी फ़र्क पड़ा । शुक्रगुज़ार हूँ अपनी पत्नी और उन तमाम महिला दोस्तों का जिनके साहचर्य में मैंने इन मूल्यों को सीखा । दोस्ती के दिनों में मेरी पत्नी नाॅयना मेरे वाक्यों से एक एक शब्द निकाल कर घंटों बोला करती थी कि ये है प्रोब्लम । कई बार लगता था कि इश्क़ की जगह किसी फेमिनिस्ट स्कूल में भर्ती हो गए हैं । मुझे यकीन हो गया था कि ' अनफिट' हूं लेकिन आज लगता है वो ट्रेनिंग काम आई । हमारी भाषा हमारी सोच से निकलती है । शब्द अनायास किसी अनजान जगह से नहीं निकलते । इसी तरह एक रात इंदिरा विहार अपने दोस्तों के घर रूका था । सिमोन द बोवुआर की किताब 'द सेकेंड सेक्स' पढ़ने लगा । सुबह तक काफी कुछ बदल चुका था । उस किताब ने झकझोर दिया । जब यह पता चला कि मर्दों की सोच स्वाभाविक नहीं है । उन्हें समाज और परिवार अपने साँचे में गढ़ता है जिसे हम एक दिन प्राकृतिक मानने लगते हैं । आज जब कुछ मर्द टीवी एंकरों को मुंबई दिल्ली घटनाओं पर बकते देखता हूँ तो सोचता हूँ कि ये भाई साहब कैसे हैं । इनके जीवन में ' घोर मर्द' होने से एक सामान्य मर्द होने की कोई प्रक्रिया रही होगी या ये पैदाइश प्रोडक्ट है 'अच्छे लड़के हैं' ! 

एक दिन एनडीटीवी में पत्रकार महुआ चटर्जी ने जब यह पूछा कि 'गुड टच' और 'बैड टच' समझते हो तो मैं ही पूछने लगा कि ये क्या होता है । महुआ चाहती थीं कि बेटी को सीखाऊं । लेकिन इससे तो बाप ही अनजान था । तब से मैं जब भी किसी लड़के को किसी लड़की के कंधे पर हाथ रखते देखता हूं मेरी नज़र छूने वाले की आंख पर होती है । कई लोगों को ठीक ठीक समझ पाया हूं कि ये उदार और सहज बनने की आड़ में ' बैड टच ' है । एक दिन नताशा ने अपनी किसी दोस्त के साथ हुए वाक़ये को सुनाते हुए कुछ ऐसा कहा ' ही ट्रायड टू फ़ेल्ट हर अप ' यू नो रवीश । नो आय डोंट नो । ये क्या होता है । ' फेल्ट हर अप ' । बाद में जब उसे लगा कि 'यू नो ' और ' आय मीन'  से मैं नहीं समझ पा रहा हूं तो उसने साफ साफ शब्दों में कह दिया । मेरे पांव के नीचे से ज़मीन खीसक गई । इसलिए कि पहली बार ऐसी अभिव्यक्ति सुनी । शा़यद अंग्रेजी के पास मर्दाना हिंसा के इतने बारीक और चालाक रूप को अभिव्यक्त करने के लिए कई वाक्य हैं । एकदम सटीक । कहने का मतलब है कि आप ऐसे प्रसंगों से विशेष रूप से सचेत होते हैं । मेरी दोस्तों ने मुझे काफी बदल दिया और यह प्रक्रिया आज भी जारी है ।  


ये ज़रूर था कि स्वभाव से मैं छेड़ छाड़ करने वाला हिंसक लड़का नहीं था फिर भी अच्छे कहे जाने वाले लड़कों की सोच में नारीवादी मूल्यों की समझ हो यह ज़रूरी नहीं है । बस इतना कहना चाहता हूँ कि हमारा सबसे ख़राब सामाजिक उत्पाद मर्द है । इस प्रोडक्ट को बदल दीजिये । जो अच्छे हो गए हैं उनके ऊपर एक लेबल लगा दीजिये । चेंज्ड । और जो लड़के और मर्द मुंबई की घटना को लेकर उत्तेजित हैं वो अपने मर्द होने की सामाजिक प्रक्रिया के बारे में लिखें । लड़कों का लिखना ज़्यादा ज़रूरी है । बलात्कार एक मानसिकता है और इस मानसिकता का शहर है हमारा घर न कि मुंबई । 



फ़ाइल-फ़ाइल

आदरणीय प्रधानमंत्री जी,

आशा है कोयला घोटाले से जुड़ी तमाम फ़ाइलें कुशलतापूर्वक चोरी हो गईं होंगी । मुझे यह जानकर हर्ष हो रहा है कि अब इन फ़ाइलों के चले जाने से आप और आपके लगाए आरोपों अनुसार बीजेपी के नेता मुख्यमंत्री और रसूख़दार भी बच गए । याद है न नागपुर के किसी उद्योगपति के यहाँ छापा पड़ा था जिनके अल्बम में बीजेपी कांग्रेस के कई बड़े नेता नज़र आ रहे थे । आपके टाइम की फ़ाइलों में भी कई नाम ऐसे थे जिनका ताल्लुक़ बीजेपी से था । आपकी सरकार और पार्टी के लोगों ने ऐसा ही कुछ आरोप लगाया था जब बीजेपी ने आप पर कोयले में दलाली खाने का आरोप लगाया था । कुछ फाइलें कांग्रेस नेताओं की कंपनियों से भी जुड़ी बताई जाती हैं । जनता को अदालत में साबित होने से पहले मान लेने में कोई हर्ज नहीं कि दोनों दलों का हाथ काला है । दाल तो काली है ही । 

आपको यह भी याद दिलाने की ज़रूरत नहीं कि वो कोयला घोटाले की ही फ़ाइल थी जिसे सीबीआई आपके किसी अधिकारी मंत्री के पास लेकर आई थी । कहीं वही भाई साहब के पास तो नहीं रह गई है । आय मीन, जस्ट सजेस्टिंग ! देख लीजियेगा । आज कल के तोता फ़ाइलें पढ़ने में उस्ताद होते हैं । मैंने फुटपाथ पर कई तोतों को देखा है । वो पिंजड़े से निकलते हैं और चोंच से कार्ड खींच कर लौट जाते हैं और पंडित लोगों का भविष्य बताने लगता है । इसलिए तोता को भी कम मत समझियेगा । आपके मंत्रालयों में सीसीटीवी नहीं होता क्या ? मने कह रहे हैं । 

बहरहाल फ़ाइलें ग़ायब होकर कांग्रेस बीजेपी का भला कर रही हैं । रही बात आपकी तो आप तो हर बात में फँसते हैं । चुप रहें तब न चुप रहें तब । जब आप और बीजेपी मिलकर आर टीआई के ख़िलाफ़ एकजुट हो सकते हैं, मिलजुल कर सज़ायाफ़्ता सांसदों की सदस्यता बचाने के लिए सुप्रीम कोर्ट के पीछे पड़ सकते हैं तो इसमें क्यों न एकजुट हों । कहीं सुप्रीम कोर्ट ने कांग्रेस बीजेपी दोनों को पकड़ लिया तो संवैधानिक संकट पैदा हो जाएगा । सत्ता में तो आप दोनों को ही बारी बारी से आना है । इसलिए पुरानी फ़ाइलों को ग़ायब कर आलमारी पर जो जगह बनाई है वो आने वाली नई फ़ाइलों के लिए ख़ुशख़बरी होगी । 

हमारे देश में चोरी की गईं फ़ाइलें कहाँ मिलती हैं । साइकिल तो मिलती है फ़ाइल कैसे मिल जाएगी । मैं इस संस्कृति का स्वागत करता हूँ । आरोप तक तो ठीक हैं मगर कांग्रेस बीजेपी से किसी को सजा नहीं मिलनी चाहिए । वर्ना फ़ाइल फ़ाइल खेलने में मज़ा नहीं आएगा । सज़ा मिलती नहीं तो मुक़दमा चला कर क्या मिल जाएगा । उल्टे हम लोग पुलिस सुधार और आज़ाद सीबीआई जैसे विषयों में भटका दिये जायेंगे । 

मैं इन फ़ाइलों के चोरी होने पर आपको बधाई देता हूँ । खोजने में टाइम मत लगाइयेगा । संसद न चले न चले । फ़ाइल मिलने पर भी क्या गारंटी है कि संसद चल जाएगी । इसलिए आप न जी लोड मत लो । बीजेपी इसलिए खुशी खुशी आरोप लगा रही है कि उसे पता है कि ये फ़ाइलें मिलेंगी नहीं और वो बच गई हैं । बुझे कि नहीं । रही बात आपकी तो माशाअल्लाह ! 

संसद थम ! किधर भी नहीं मुड़ेगी ! सावधान ! नहीं चलेगी । थम ! 

आपका 

रवीश कुमार 'एंकर' 

पिंजर की यह ग़ज़ल

हाथ छूटे भी तो रिश्ते नहीं छूटा करते
वक़्त की शाख से लम्हे नहीं टूटा करते 
हाथ छूटे भी तो रिश्ते छूटा नहीं करते 
छूट गए यार न छूटी यारी मौला -४
जिसने पैरों के निशान भी नहीं छोड़े पीछे 
उस मुसाफ़िर का पता भी नहीं पूछा करते 
हाथ छूटे भी तो रिश्ते नहीं छूटा करते 
छूट गए यार न छूटी यार मौला -४
तूने आवाज़ नहीं दी कभी मुड़कर वर्ना -२
हम कई सदियाँ तुझे घूम के देखा करते 
हाथ छूटे भी तो रिश्ते छूटा नहीं करते 
छूट गए यार न छूटी यारी मौला-४ 
बह रही है तेरी जानिब ही ज़मीं पैरों की 
थक गए दौड़ते दरियाओं का पीछा करते 
हाथ छूटे भी तो रिश्ते नहीं छूटा करते 

जगजीत सिंह की आवाज़ मुझे कहाँ लिये जा रही है । रात के बचे वक्त के इस किनारे जगा रही है । 

बहुमत जनता पार्टी यानी बीजेपी ?

बीजेपी ने 272  का नारा देकर अपनी अकेले की दावेदारी पेश की है या सियासी हक़ीक़त के ख़िलाफ़  बड़ा दाँव चला है ? इस तरह के सवाल जब भी आते हैं कांग्रेस और बीजेपी दोनों अतीत के गड्ढे खोदने लगते हैं । मानो हर नया चुनाव पहले हो चुके चुनाव की तरह ही होता है । एक कहती है सपने देखेंगे तभी साकार भी करेंगे दूसरी कहती है पिछले पचीस सालों में आजतक हुआ नहीं कि किसी एक को साधारण बहुमत मिला हो । जब राज्यों में जनता किसी एक दल को साफ़ साफ़ वोट दे रही है तो वैसा ही रुझान दिल्ली को लेकर क्यों नहीं बन सकता । जानकार से लेकर राजनेता राजनीतिक हक़ीक़त की पुरानी व्यावहारिकताओं में फँसे हैं । कोई इस बात का ठोस जवाब नहीं देता कि अगर देश में कांग्रेस विरोधी लहर चल रही है तो क्या यह लहर कांग्रेस की सहयोगी दलों के ख़िलाफ़ नहीं होगी ? जो कांग्रेस को वोट नहीं देगा वो किसे देगा । वापस क्षेत्रीय दलों को ?


दूसरी सूरत यह हो सकती है कि कांग्रेस पार्टी के नेताओं के अलावा राजनीतिक जानकार भी यह कहें कि कांग्रेस के ख़िलाफ़ कोई लहर नहीं है । कर्नाटक और हिमाचल की मिसाल देकर । लेकिन अगर यह लहर कांग्रेस और उसके सहयोगी दलों के ख़िलाफ़ है तो यह सवाल होना चाहिए कि विरोधी लहर के लाभार्थी कौन हैं । इसका लाभ बीजेपी को या दूसरे क्षेत्रीय दलों में किसे मिल रहा है । यह चुनाव राष्ट्रीय धरातल पर होगा या क्षेत्रीय विविधताओं पर । आंकड़ें यही कहते हैं कि बीजेपी और कांग्रेस दोनों दस साल में घटे हैं । लगता है बीजेपी यह सोच रही है कि वह अपनी जीतने की स्ट्राइक रेट बेहतर करेगी । जैसे उसने बिहार विधान सभा में किया था लेकिन उसमें नीतीश के वोट बैंक का भी हाथ ज़रूर रहा होगा । बीजेपी को लगता है कि मोदी के पक्ष में माहौल बन गया है जिसका सीधा परीक्षण चुनाव में ही होगा तो क्यों न टारगेट भी बड़ा कर दिया जाए । लेकिन हमें इस पर बात करनी चाहिए कि कांग्रेस का कौन सा सहयोगी या संभावित सहयोगी है जो मज़बूत हो रहा है । नीतीश लालू बीजेपी से घिरे हैं । यूपी में ज्यादातर सीटों के दावेदार मुला़यम मायावती हैं । अगर कांग्रेस विरोधी लहर है तो क्या जनता कांग्रेस की सहयोगियों को सजा नहीं देगी । लेकिन अन्ना आंदोलन के दौर में विधान सभा में यूपी की जनता ने कांग्रेस के राहुल गांधी को ठुकरा कर अखिलेश को जनादेश दिया था बीजेपी को नहीं । क्या वैसे ही मायावती को चालीस सीटें आ जायें और बाक़ी बची सीटों में बीजेपी बीस तक टच कर रह जाये । अगर यूपी का समीकरण नहीं बदला यानी मायावती या मुलायम मजबूत हुए तो बीजेपी फिर ट्विटर ही करती रह जाएगी । एक बात और । यूपीए वन और यूपीए टू यूपी के कारण नहीं बनी थी । मुलायम और मायावती समर्थन की चिट्ठी आप ही देते रहे हैं ।  ये बात और है कि आखिर में आकर सरकार यूपी पर ही टिकी हुई है । तो हम यही क्यों मान ले कि सरकार जब भी बनेगी यूपी से बनेगी । 

अब सवाल आता है कि कैसे मान लिया जाए कि कांग्रेस से पलट कर हवा बीजेपी की दिशा में बह रही है । क्या इसका जवाब पिछले चुनाव से मिल सकता है ? 2009 के चुनाव में कांग्रेस को 206 सीटें देने वाला मतदाता कौन था । क्या वो अपने चरित्र में राष्ट्रीय नहीं था । यूँ कहे कि क्या वो अपने चरित्र मे क्षेत्रीय दलों के ख़िलाफ़ नहीं था । अगर वो कांग्रेस को 206 सीेटें दे सकता है तो बीजेपी को क्यों नहीं । यह सवाल हो सकता है कि इस मतदाता ने दो बार बीजेपी को रिजेक्ट किया है तो इस बार क्यों स्वीकार करेगा । फिर यह देखना होगा कि कांग्रेस 206 से घट कर 130(सर्वेनुसार) पर आती है तो 76 सीटें किसके पास जा रही हैं । अगर ये सभी बीजेपी को पास गईं तो क्या उसकी संख्या 192 नहीं होती है । क्या पिछले चुनाव से राष्ट्रीय दल के मज़बूत होने की प्रक्रिया शुरू नहीं हुई है ?

ये सही है कि सारा हिसाब किताब काग़ज़ी है लेकिन उन्हीं आँकड़ों से है जिनसे बीजेपी को दिल्ली से दूर बताया जा रहा है 2009 में  कांग्रेस को वोट करने वाले मतदाताओं ने क्या यह संदेश देने का प्रयास नहीं किया था कि गठबंधन का वजूद रहेगा मगर उसका प्रभाव कम होगा । तो क्या आपने देखा नहीं कि यूपीए टू में कांग्रेस ने कैसे सहयोगियों को उनकी सीमा में रखा । क्या यूपीए वन की तरह लेफ़्ट की तरह किसी ने ऐसी बग़ावत की जिससे सरकार को विश्वास मत का सामना करना पड़े । डीएमके गई तो गई लेकिन सरकार तो टिकी रही । पांच साल के पार्ट टू सरकार में किस घटक दल ने अपनी पहचान बनाई है । 

फिर किस तर्क से इस बार क्षेत्रीय दल दिल्ली के लिए मज़बूत होंगे । यह सही है कि राज्यों में क्षेत्रीय दलों ने खुद को बदला है । इनका चरित्र नब्बे के दशक वाले क्षेत्रीय दलों की तरह नहीं है । ये अब परिपक्व रूप से सत्ताधारी दल है । अगर राज्यों में बीजेपी कांग्रेस की सरकारें लौटती हैं तो मुलायम मायावती, नीतीश,नवीन, जयललिता और करुणानिधि की भी लौटती हैं । राज्यों में  इनका आधार राष्ट्रीय दलों जैसा हो गया है । बसपा सपा जदयू सबने अपने अपने पारंपरिक वोट के बाहर के वोट का जुगाड़ किया है । ये क्षेत्रीय दल सिर्फ पिछड़ी या दलित जातियों के दल नहीं रहे । लेकिन इनके आधार में आ रहे बदलाव के इसी दौर में ही दिल्ली में इनका दंगल कम हुआ है । 

शायद नरेंद्र मोदी को इस प्रक्रिया को तेज़ करना चाहते हैं । तभी वे आगामी चुनावों में 272 प्लस के नारे के साथ निकलना चाहते हैं । आडवाणी के एनडीए प्लस के नारे के साथ नहीं । इस चक्कर में वे नीतीश के पसमांदा मुसलमानों की रणनीति चुरा रहे हैं तो अखिलेश यादव का नारा भी कि मत नहीं बहुमत दीजिए । राजनीति में ये सब चलता है । ये पोलिटिक्स का गूगल दौर है । सब कट पेस्ट कर रहे हैं । यस वी कैन । वो इसलिए कि अब चोरी करने के लिए किसी के मोहल्ले में नहीं जाना पड़ता । गूगल से ही ओबामा आ जाते हैं और गूगल से ही नीतीश । 

फिर भी यह दुस्साहस ही है कि बीजेपी ने बीजेपी वन 272 प्लस का नारा अपने कार्यकर्ताओं को दिया है । इसके लिए चैंपियन गाइड की तरह बीजेपी चालीसा बनाई गई है । मगर है बेकार और अंतर्विरोधों से भरा हुआ । आप उसमें यह बता रहे हैं कि ट्विटर पर मोदी को 21 लाख फौलो करते हैं और बीजेपी को एक लाख ! 272 सीट जीतने का दावा करने वाली किसी पार्टी को ट्विटर पर सिर्फ एक लाख ही फौलो करते हैं । इसका मतलब यह तो नहीं कि बीजेपी में उसे भी विश्वास नहीं जो मोदी को फौलो करता है । अब या तो मोदी राष्ट्रीय हो गए हैं और बीजेपी नहीं या ऐसा भी होगा कि लोग मोदी को फौलो करते हैं लेकिन उनके नाम पर वोट लेने वाले बीजेपी में उम्मीदवार नहीं हैं । मुझे लगता है कि बीजेपी को अपना ट्विटर अकाउंट बंद कर मोदी के खाते में विलय कर लेना चाहिए । 21 लाख के सामने एक लाख ठीक नहीं लगता !

आख़िर बीजेपी किस दलील से ट्विटर ट्विटर कर रही है । जबकि उसी 'बीजेपी वन' गुटका में लिखा है कि 2009 में आठ करोड़ मत मिले थे । इसमें ट्विटर के 22 लाख जोड़ देंगे तो बीजेपी को एक सीट का भी लाभ नहीं मिलता है । क्या पार्टी यह कह रही है कि जब ट्विटर के 22 लाख नहीं थे तो आठ करोड़ वोट मिले और अब जब ट्विटर वाले आ गए हैं तो कांग्रेस को मिले ग्यारह करोड़ वोट से आगे निकल जायेंगे ! अमिताभ बच्चन को साठ लाख फोलो करते हैं उनकी एक भी फ़िल्म सौ करोड़ के क्लब में नहीं है । दो ही बातें हो सकती हैं । बीजेपी अकेले बहुमत ला रही है या चुनाव के बाद मोदी चुनाव प्रचार समिति के चेयरमैन पद से इस्तीफ़ा देकर गठबंधन खोजीं दस्ता के चेयरमैन बन जायेंगे । 

मोदी जी फ़ेसबुक ट्विटर के भरोसे आप भरमा सकते हैं भारत नहीं पा सकते । इस ट्विटर जगत से एक अन्ना और अरविंद आंदोलन तो टिक कर चला नहीं और आप हैं कि इन पर जान लुटा रहे हैं । इस हकीकत को अरविंद केजरीवाल ने वक्त रहते जान लिया । अब वो मिस्ड काल का नारा नहीं देते बल्कि सुबह शाम झाड़ू लेकर सड़कों पर निकलने लगे हैं । सड़क की राजनीति करते हैं । जिन्हें टीवी और ट्विटर तो नहीं देख रहा होगा मगर  पब्लिक देख ही रही होगा । मैदान आज भी वही है । 




संसद आप मत ही चलो जी

आदरणीय कमलनाथ जी,

संसद सत्र की सुबह सुबह आपको टीवी पर इधर उधर देखते हुए परन्तु बोलते हुए सुनता हूँ तो लगता है कि आप कुछ कन्नी काट रहे हैं । रोज़ सुबह कहते दिख जाते हैं कि सब साथ हैं । मिलकर रास्ता निकाल लेंगे । सरकार के पास छिपाने के लिए कुछ नहीं है । कोयला मंत्री जवाब देंगे । हम बहस के लिए तैयार हैं । मैं यह सब सुनकर इतना आश्वस्त हो जाता हूँ कि दिमाग़ से यह बात उतर जाती है कि पहले भी यही कहा था मगर संसद नहीं चली थी । आप की संवैधानिक मर्यादा समझता हूँ । संसदीय कार्यमंत्री विपक्ष की रणनीति को भाँपने और उसकी काट तैयार करने के लिए जाने जाते हैं ।  मगर आप इतना ही कह कर चले जाते हैं और संसद नहीं चल पाती । आप ज़रा कैमरे में देख कर बात किया करो वर्ना ऐसा लगता है कि आपको ही अपनी बात पर भरोसा नहीं है । 

संसद चले या न चले ये सवाल अब प्रासंगिक नहीं रहा । बीजेपी के पास रोज़ एक गंभीर मुद्दा होता है । वो पिछले दिन जिस मुद्दे पर हंगामा करती है उसे अगले दिन भूल जाती है । बीजेपी को लगता है कि रोज़ नया मुद्दा लाकर संसद का काम रोक कर वह घिरी हुई सरकार को घेर रही है । बीजेपी रोज़ एक ज्वलंत मुद्दे पर वन डे मैच खेलती है । एक तरफ़ से यशवंत सिन्हा का बाइट आता है तो दूसरी तरफ़ से रविशंकर प्रसाद का । पहले के टीवी में एक पार्टी के एक नेता का ही बयान चलता था मगर बीजेपी के कई बड़े नेताओं की सीरीयस है सीरीयस है कहते हुए  बाइट चलने लगती है । ऐसा लगता है कि संसद न चलकर रोज़ बीजेपी के उठाये मुद्दे पर अपनी श्रद्धांजली पेश कर घर चली जाती है । आपकी पार्टी के सासंद तेलंगाना विरोध का बैनर लिये व्हेल में आपके भरोसे की पुष्टि करते रहते हैं कि संसद चलेगी ! 

' हैविंग सेड दैट' अभिप्राय यह है कि आपको कोई मुद्दा तो मिलता ही नहीं बीजेपी को घेरने का । या तो है नहीं या उठाने या उठवाने का साहस नहीं है । कमलनाथ जी आपके आगे न नाथ लगते हैं न पीछे पगहा । आगे नाथ न पीछे पगहा ये भोजपुरी कहावत है ।

संसद नहीं चल रही है । मगर आप चले चले जा रहे हैं । पता नहीं राजनीति में आपको कहाँ से कृपा आती है । निर्मल बाबा भी फ़ेल । आप लोड न लो जी । संसद को न चलने से कुछ नहीं होता जी । देश में दो ही सत्य । एक कांग्रेसी सत्य और दूसरा भाजपाई सत्य । जय हो इस सत्य संसद की । 

आपका 
रवीश कुमार ' एंकर' 


और कितने सरदार

आदरणीय सरदार वल्लभ भाई पटेल जी,

मैं यह पत्र आपको और आपके ज़रिये दूसरों को भी लिख रहा हूँ । समस्या यह है कि आप कौन है, आप क्या क्या हैं और आप कैसे कैसे दिखते हैं । मुझे दुख है कि आपको देखने का सौभाग्य प्राप्त नहीं हुआ । पहले पहल आपको स्कूल की दीवारों पर देखा था । स्कूल में पढ़ ही रहा था कि गांधी फिल्म आ गई । पहली बार जीवंत रूप से गांधी नेहरू और आपको चलते फिरते देख रहा था । सईद जाफरी साहब सरदार बने थे । उनके कारण आपकी सख्ती और सौम्यता दोनों की छवि मेरे दिमाग में बनी । बाद में इतिहास का विद्यार्थी हुआ तो खेड़ा किसान सत्याग्रह में आपकी शानदार भूमिका के बारे में पढ़ा । रजवाड़ों को मिला कर भारत संघ को साकार करने में आपकी भूमिका से प्रभावित हुआ । किन्हीं अज्ञात कारणों से मैं इस चिन्ता से मुक्त हो गया कि आप दिखते कैसे थे । बाद में सरदार फिल्म आई जिसमें परेश रावल ने आपकी सख्ती को नाटकीयता के स्तर पर पहुंचा दिया । फिर भी परेश रावल वाले सरदार पटेल की छाप ज़हन में रही जो बड़ी बड़ी आँखों से घूरते रहते थे । 

पर जब से आप इतिहास से जुड़े मसले पर न्यूज़ चैनलों में आने लगे हैं मैं इस चिंता में डूबा जा रहा हूँ कि अगर आप किसी रूप में मिल गए तो मैं अपने इष्ट को पहचानूँगा कैसे । ये बात इसलिए कह रहा हूँ कि आप की तस्वीर, सईद जाफ़री और परेश रावल तक तो ठीक थी लेकिन अब हर दूसरे टीवी एपिसोड में कब कौन सरदार बन जाता है पता नहीं रहता । जो भी थोड़ा बूढ़ा होता है, जिसके सर के बीच में बाल नहीं होते वो सरदार पटेल बन जा रहा है । टीवी पर रोज़ाना आने वाले इन अनगिनत पटेलों को लेकर मैं असुरक्षित महसूस करने लगा हूँ । एक चैनल के सरदार पटेल दूसरे चैनल के सरदार पटेल से अलग दिखते हैं । दोनों एक ही टाइम में लाइव आ रहे होते हैं । मैं क्या करूँ आप ही बता दीजिये । इन चैनलों की वजह से मुझे हर तंदरूस्त और बिना वालों वाला शख़्स सरदार पटेल दिखने लगा है । 

यही कंफ्यूजन आज की राजनीति में आपके इस्तमाल को लेकर होने लगी है । अचानक से आपको गांधी और नेहरू के ख़िलाफ़ गढ़ा जाने लगा है । एक ऐसे बाग़ी और सख़्त उप प्रधानमंत्री के रूप में जिसके जीवन का कोई दूसरा पक्ष ही नहीं है । वो सिर्फ रजवाड़ों को मिलाता है और नेहरू से अलग राय रखता है । जो कभी हंसता नहीं है । जिसका कोई जीवन नहीं है । शायद यह सब किसी लौह पुरुष की कल्पना के कारण हुआ है या नेहरू नेहरू की ऊब से । मुझे यकीन है कि आपने आर एस एस के बारे में जो लिखित रूप में कहा है वो मोदी जी आपकी विशालकाय प्रतिमा के पास ज़रूर लगवायेंगे । ये इस आधार पर कह रहा हूँ कि संघ की आलोचना के बाद भी संघ या बीजेपी के लोग आपसे नाराज़ नहीं हुए । वे आपको आदर्श पुरुष हमेशा मानते रहे हैं । 

नरेंद्र मोदी आपकी मूर्ति अमरीका की स्टैच्यू आफ़ लिबर्टी से भी ऊँची बनाने वाले हैं । हर गाँव से लोहा मँगवा कर । आज कल किसी नेता के भाषण में आपका ज़िक्र नहीं होता है तो वे नाराज़ हो जाते हैं । आप तो आजीवन अनुशासित कांग्रेसी रहे लेकिन कुछ दिनों से ऐसा लग रहा है कि बीजेपी असहयोग आंदोलन के पहले बनी थी और आप उसके पहले अध्यक्ष थे । बीजेपी को पूरा हक़ है कि आज़ादी के किसी नायक को अपना नायक चुन ले क्योंकि असलियत में ये जो कांग्रेस है वो आज़ादी की लड़ाई वाली कांग्रेस नहीं है । ये तो कई बार टूटती हुई आज किसी और शक्ल में है । इंदिरा कांग्रेस, तिवारी कांग्रेस पता नहीं क्या क्या । आप कांग्रेस के नहीं देश के नेता है । हर कमज़ोर क्षणों में आपको ही याद किया जाता है ।  लेकिन लौह पुरुष की मूर्ति लोहे की ही क्यों बने मालूम नहीं । 

नरेंद्र मोदी को एक श्रेय दूँगा कि वे आपकी लौह पुरुष की छवि में एक और छवि जोड़ रहे हैं । किसान नेता की । खेड़ा सत्याग्रह ने ही आपको किसान नेता के रूप में ख्याति दिलाई थी । लेकिन जब पहली बार लालू से अलग हुए नीतीश की पटना रैली में आपकी तस्वीर एक कुर्मी नेता के रूप में देखा तो और कंफ्यूज़ हो गया था । कई कुर्मी महासभाओं में आपकी तस्वीर देखता हूं तो हैरानी होती है । अब लोग कह रहे हैं कि मोदी जी पटेल का नाम इसलिए ले रहे हैं क्योंकि उनकी नज़र पिछड़े वोट बैंक पर है । पिछड़े वोट बैंक में किसान नेता की छवि चलेगी और बिहार यूपी में कुर्मी नेता के रूप में जिससे नीतीश को चुनौती मिलेगी कि उनकी जाति के सबसे बड़े नेता की मूर्ति मोदी बनवा रहे हैं । वैसे शायद गुजरात को पटेल और बिहार के पटेल अलग होते हैं । 

कहने का मतलब है कि आपका बहुत इस्तमाल हो रहा है । सिनेमा वाले किसी को पटेल बना दे रहे हैं तो टीवी वाले जाने किस किस को और राजनीति वाले तो पूछिये ही मत । इसलिए सोचा कि यह पत्र लिख कर दिल का बोझ हल्का कर लूँ । यह समस्या आपको ही लेकर नहीं है । खुद जवाहर और रौशन सेठ के बाद इतने जवाहर बन गए हैं कि अब नेहरू का रोल करने के लिए कोई कलाकार नहीं बचा है । गांधी और जिन्ना को लेकर भी दृष्टि भरम का शिकार हो रहा हूँ । प्लीज़ बचा लीजिये । 


आपका अनुयायी 
रवीश कुमार 'एंकर'

अगर कुछ पोज़िटिव लिखना हो तो

आज़ादी के दिन भारत की किस तस्वीर को अपने सामने रखें ताकि हम उन कुर्बानियों के प्रति आभार व्यक्त कर सकें जिसने हमारे आज के लिए अपना कल दांव पर लगा दिया। क्या हम कल के भारत के लिए अपना आज दांव पर लगा रहे हैं। यही सिलसिला तो हमें और भारत को उस मुकाम पर ले जाएगा जो हर पंद्रह अगस्त के मौके पर पहले सेकुछ बड़ाकुछ दिलदारकुछ सहिष्णुकुछ मानवीय और कुछ सेकुलर नज़र आएगा। भारत की एक तस्वीर देखनी है तो आप न्यूज़ चैनलों पर देखिये। निराश थका हुआ
दिशाविहीनदोयम दर्जे के राजनीतिक मौके तलाशता हुआ ताकि तू तू मैं मैं का नैराश्य पेश किया जा सकेसंसद से निकलते चीखते सांसदों को सुनिये जिनके आरोपों प्रत्यारोपों से भारत के बेहतर होने के नारे कम अपना कसूर छिपाने का शोर ज्यादा होता है। हर दिन नेता बताते हैं कि भारत फलां देश से पीछे हैंभारत को फलां देश से आगे जाना है। कोई नहीं बताता कि भारत को कैसा भारत बनना है । सबके भाषणों में क्षेत्रवाद का गौरव फिर से बढ़ने लगा है। सांप्रदायिकता के टोन सुनाई देने लगे हैं। लेकिन क्या सचमुच हमारा भारत नाउम्मीदी का मुल्क है। यह आकांक्षाओं की होड़ है या सिस्टम के जड़ हो जाने की हताशा।

हमने धिक्कार को मंत्र समझ लिया है। जितना धिक्कारेंगे उतना सच लगेगा कि भारत में कुछ नहीं हुआ। भारत में बहुत कुछ पहले भी हुआ और बहुत कुछ आज भी हो रहा है। हमारे युवा वो युवा नहीं है जिनके लिए बालीवुड समझता है कि चेन्नई एक्सप्रैस जैसी फिल्म देख कर रोता गाता निकलेगा मगर टीवी पर उसके सौ करोड़ की कमाई के जश्न में खो जाएगा। अगर युवाओं के प्रति हमारी यही समझदारी है तो युवा जानता है कि अधूरी है। लाखों की संख्या में युवा सपनों से लबालब रोज़ घरों से निकल रहे हैं। शहर बदल रहे हैं, देश बदल रहे हैं, फिर महानगरों से लौट कर गांवों में भी जा रहे हैं। उनका आत्मविश्वास सिर्फ बाज़ार के लिए उत्पाद खपाने के लिए नहीं हैं। उनके आत्मविश्वास में एक ऐसा भारत है जो न तो टीवी देख पा रहा है न अखबार। वो भारत को लेकर नए नए नज़रिये से सोच रहा है। नज़रियों में टकराव भी हो रहा है। यही टकराव एकदिन दो राष्ट्रीय राजनीतिक दलों की जड़ता से भारत को निकालेगा। दिक्कत यह है कि हमने भारत को सेंसेक्स समझ लिया है जो रोज़ चढ़ता है और उतरता है। डालर और निर्यात के आंकड़ों को दिखाकर टीवी डराने लगता है कि अब सब खत्म। उस भारत को भी तो देखिये जो सेंसेक्स के बग़ैर अपनी स्थिर गति से रोज़ एक ईंच आगे बढ़ रहा है। इसे देखने के लिए आपको सिर्फ मुंबई की रेल में नहीं चलने की ज़रूरत नहींदिल्ली की मेट्रो में धक्के खाने की ज़रूरत नहीं है। आपके आस पास भी दिख जाएगा । 


आज़ादी का बेहतर इस्तमाल आज की तारीख में हमारा युवा कर रहा है। वो अब अपनी पसंद के विषय पढ़ने के लिए घरों में जगह बना चुका है। मां बाप भी एक हद से ज्यादा उस पर दबाव नहीं डालते। वो अपनी पसंद का कैरियर हासिल करने के लिए कम उम्र में ही अपने कस्बे को छोड़ राजस्थान के कोटा की तरफ निकल पड़ता है। दिल्ली के बेर सरायजिया सराय और मुनिरका के छोटे छोटे कमरों में तमाम घरेलु सुविधाओं को त्याग कर रहने लगता है और वहां से फिर जर्मनी अमरीका । किसी को उनके विषयों के चुनाव में आई विविधता को देखनी चाहिए। उनके सपने अब कुल मिलाकर दो या चार नहीं हैं। हज़ार हैं। किसी युवा से मिलिये वो हमारी पीढ़ी से ज़्यादा तेज़ तर्रार और फैसले लेने वाला है। हमारी पीढ़ी के ज्यादातर बच्चे मां बाप के आदेश से चलते थे। आज का युवा मां बाप को आदेश देने वाला मास्टर नहीं समझता बल्कि पता भी नहीं चला वो कब उन्हें अपना दोस्त बना चुका है। मैं खुद कई लड़के लड़कियों को देखता हूं। वो अपना हर सही गलत मां बाप से साझा करते हैं। जब घर में संवाद बेहतर हो जाए तो बाहर उसका आत्मविश्वास कुछ और हो जाता है। वो संभावनाओं से खेलने लगता है। वो इंजीनियरिंग की पढ़ाई पूरी कर लाइन बदल लेता है और ज़ीरो से शुरू कर कंपनी तक बना देता है। भारत तो यहां भी हैं जो नेताओं के भाषण में नहीं दिखता। उनका भारत या तो कांग्रेसी भारत है या भाजपाई भारत। राजनीतिक दलों के फेल हो जाने को हम भारत की नाकामी नहीं समझ सकते।


कई लोग हैं जो बिना किसी ख्याति की चाह लिये भारत के अलग अलग इलाकों में बहुत कुछ कर रहे हैं। राजस्थान में ही गुजरात से आए एक युवा ने कुछ इलाकों में पानी की कहानी बदल दी। लोगों को जमा किया और पारंपरिक कुओं को फिर से जीवित कर दिया। उत्तराखंड में तबाही आई तो दिल्ली में कुछ युवाओं ने फेसबुक पर ही उम्मीद उत्तराखंड नाम से एक अभियान बना लिया। उनके इस अभियान में देश भर से कई युवा शामिल हो गए। आपस में और लोगों से पैसे जुटा कर दिन रात काम पर लग गए। पहाड़ों से मीडिया लौट आया है लेकिन बूंद के सदस्य लगातार जा रहे हैं। वो बहुत कुछ बदल नहीं पा रहे हैं लेकिन अपनी आंखों से हर बार देश की एक हकीकत से सामना कर रहे हैं। ये लोग सिस्टम से टकरा रहे हैं। झुंझला रहे हैं। बदलने की ख्वाहिश पाल रहे हैं। इनके पास वो नारे नहीं हैं और कृत्रिम रूप से पैदा हुए वो नेता नहीं हैं जिनके बयान लगातार टीवी पर आते हों मगर ये कहीं से भी निकल आते हैं। कहीं चले जाते हैं। जितना हो सकता है अपने हिस्से का भारत बना जाते हैं। हाल ही में हावर्ड से आए दो लड़कों से मिला। वो अपनी ऊंची कमाई छोड़ कर राजनीति को बदलने आ गए हैं। उनका प्रयास है कि शोशेबाज़ी की राजनीति में कुछ असली मुद्दों को कैसे ठेला जाए ताकि राजनीति बदले। उन्हें नेताओं से शिकायत तो है मगर निराशा नहीं। वो इन्हीं नेताओं को बदलना चाहते हैं जिन्हें हम नकारा समझते है। क्या ये भारत की उम्मीद नहीं हैं।


भारत कैसा हो इसकी कल्पना हर दौर में की गई। इन कल्पनाओं का भारत कहीं न कहीं किसी न किसी मात्रा में साकार भी हुआ है। शायद इन्हीं तमाम प्रयासों से आज भारत पहले से कहीं ज्यादा लोकतांत्रिक नज़र आता है। आज का युवा दस मुद्दों पर घर से नहीं निकलता तो पांच मुद्दों पर ज़रूर निकलता है। भले ही हमारी राजनीति और मीडिया के संपादक जयप्रकाश नारायण के आंदोलन की खुमारी में खोए हों मगर उन्हें देखना चाहिए कि हमारा युवा बिना जेपी के ही बहुत कुछ कर दे रहा है। हो सकता है कि इसमें जेपी के ही जगाए आत्मविश्वास का योगदान हो। उसने दिसंबर और जनवरी के महीने में दिल्ली के उस गढ़ को घेर लिया जिसे सत्ता अपना ड्राइंग रूम समझती थी। रायसीना हिल्स अब सबकी है। वो इसी तरह धीरे धीरे अपनी हदों को बढ़ा रहा है। शायद हमारी यही रफ्तार है। हम जल्दी में नहीं होते। भारत को पता है कि वह पांच हज़ार साल की सभ्यता के सफर का इतिहास है न कि एक दिन के सेंसेक्स का। इसीलिए भारत को देखना हो तो उस आटो चालक से पूछिये जो अपना घर गांव छोड़ कर महानगरों में दिन रात आटो चलाता हैअपने बच्चों को पढ़ाता है और करप्शन पर राय राय देता है। हमारा भारत हमारे भीतर है। हमारी आजादी हमारे भीतर है। वो शायद बेतरतीब सड़कों,परिवहन व्यवस्था और तंग गलियों को देखकर ठिठकती ज़रूर है मगर जल्दी ही खुले मैदान में आ जाती है । पंद्रह अगस्त हमारे भीतर का वो खुला मैदान हैं जहां हम अंगड़ाई नहीं लेतेअपनी बांहें फैलाते हैं।
(यह लेख राजस्थान पत्रिका में प्रकाशित हो चुका है)

नौटंकी मुक्त पंद्रह अगस्त



हमारी सोसायटी में झंडा फहराया गया । मोदी और मनमोहन के भाषणों की प्रतियोगिता जैसी नौटंकी तो नहीं थी लेकिन हमारे जैन साहब ने दो टूक शब्दों में सच्चाई पर चलने का संदेश दिया । जैन साहब की ईमानदारी का मैं बहुत क़ायल हूँ । कई बार कंप्यूटर पर अपनी सारी कमाई और बचत का हिसाब खोलकर दिखा देते हैं । बड़े गर्व से कहते हैं इसमें एक पैसा ब्लैक नहीं है । चार चार आने का हिसाब लगाकर टैक्स देता हूँ । कहते हैं काश कोई मेरे खाते में एक नया ब्लैक मनी साबित कर देता । अब ये उम्मीद तो आप मनमोहन और मोदी से कर नहीं सकते । इसलिए वे भाषण देकर भाग जाते हैं । जैन साहब हर साल सोसायटी के बच्चों के लिए कुछ हज़ार तो दे ही देते हैं । अच्छा लगता है नेता नौटंकीबाज़ हो गए तो क्या हुआ कुछ लोग अभी भी अच्छे हैं । 




इसके बाद बच्चों ने कार्यक्रम पेश किये । एकला चलो रे गाया । रघुपति राघव राजा राम गाया । नृत्य भी पेश किया । सारे माँ बाप अपने बच्चों की तस्वीर लेने में व्यस्त हो गए । बिना तस्वीर के बात नहीं बनती है । नेताओं की नौटंकी से बचना है तो समाज में विचरण कीजिये । अच्छा लगेगा । 


पलायन पलायन

पलायन को लेकर हमारे नेता बहुत बाकवास करने लगे हैं । राहुल गांधी यूपी के चुनावों में कहने लगे कि यहाँ रोज़गार नहीं है । युवाओं को मुंबई जाना पड़ता है । हम रोज़गार देंगे । आज नरेंद्र मोदी हैदराबाद में कह रहे थे कि आँध्र का विकास नहीं हुआ है । यहाँ के युवाओं को गल्फ़ में जाना पड़ता है । यह दलील उस सोच की देन है कि पलायन हमेशा भुखमरी की स्थिति में होता है । इस स्थिति में भी होता है लेकिन एक पलायन अपनी पसंद से बेहतर विकल्प के लिए भी होता है । तुलनात्मक रूप से बेहतर अवसरों के लिए होता है । पलायन करना हमेशा नकारात्मक नहीं है और विकास के किसी भी माडल से आप पलायन को नहीं रोक सकते हैं । बल्कि विकास का हर माडल पलायन को प्रेरित करता है । एक पलायन आई आई टी से पास होने के बाद भी होता है । समय आ गया है कि हम पलायन के प्रति अपने नज़रिये में बदलाव करें और इस लायक बनें और दूसरों को भी बनायें कि वो कहीं भी पलायन कर सके । शुरू से हमारी मानव सभ्यता में पलायन के तत्व रहे हैं । आप बाहर जाकर रोज़गार या कारोबार करने की हर गतिविधि को पलायन नहीं कह सकते और न ही पलायन रोक सकते हैं । 

हक़ से और गर्व से पलायन कीजिये । बाज़ार का सृजन ज़रूरतों के अंतर से होता है । गल्फ़ में किसी चीज़ की मांग बढ़ेगी तो उसकी पूर्ति के लिए कहीं न कहीं से लोग जायेंगे । एक राज्य के भीतर भी सीमित पलायन या सीमित विस्थापन होता रहता है । पलायन से सिर्फ आर्थिक ही नहीं सामाजिक राजनीतिक बदलाव भी आते हैं । गुजरात के लोगों ने ग़रीबी के कारण पलायन नहीं किया होगा । अवसरों के बेहतर इस्तमाल की क्षमता भी गुजरातियों को दुनिया के अलग अलग देशों में ले गई । मोदी कहते हैं कि युवाओं को यहां शिक्षा नहीं मिल रही है । वे बाहर जाने को मजबूर हैं । पंद्रह साल से गुजरात में ही कौन सा आक्सफोर्ड बन गया है । यह भी सही है कि हमारी शिक्षा की हालत खराब है । नब्बे फीसदी कालेजों की विश्वसनीयता खराब है । इसमें केंद्र की भी वही भूमिका है । क्या आप दिल्ली से मध्य प्रदेश के किसी विश्वविद्यालय में जा सकते हैं । बिहार जा सकते हैं । इस मामले में सबकी सरकार का एक ही ही हाल है । 

मोदी ने कहा कि आँध्र का युवा गल्फ़ जाने के लिए मजबूर है और फिर उसी भाषण में यह भी कहते हैं कि मेरे गुजरात के सूरत और अहमदाबाद में दस लाख तेलगू मज़े में रहते हैं । यही वक्त का तकाज़ा है । गुजरात को अलग अलग राज्यों से सस्ता श्रम मिलता है । जिस सूरत की बात मोदी करते हैं वहां की मज़दूर बस्तियों में घूम आइयेगा । दिल्ली की श्रम बस्तियों की तरह बदतर हैं । लेकिन नेता माइक पर ऐसे बोलते हैं जैसे सूरत और दिल्ली की इन बस्तियों में मज़दूर ठाठ से रह रहे हैं । हैदराबाद की साफ्टवेयर कंपनियों में देश भर से लोग नौकरी करने आते हैं । क्या मोदी उनकी तरफ़ इशारा कर रहे थे कि देखो आँध्र के युवाओं तुमको बाहर जाना पड़ रहा है ? 

राज ठाकरे की मानसिकता विकास के नाम पर स्थानीयता को बढ़ा रही है । यही सोच पला़यन पर सवाल उठा रही है । ज़रूर आँध्र और बिहार का विकास होना चाहिए ताकि स्थानीय स्तर पर रोज़गार सृजन की क्षमता बढ़े लेकिन पलायन को एक अधिकार के रूप में देखने का वक्त आ गया है । पूरी दुनिया में पलायन हो रहा है । विकसित देशों में भी हो रहा है । कंपनियों का पलायन हो रहा है । कर्मचारियों का हो रहा है । पलायन से ज़िंदगी बेहतर होती है । इस मसले पर राहुल मोदी को छोड़ दीजिये सुनना । बाकवास करती है दोनों । कम से कम भाषणों में दोनों जिस तरह से पलायन को व्यक्त करते हैं वो या तो अधूरा है या राज ठाकरीय अवधारणा से प्रेरित है । मुझे गर्व है कि मैंने पलायन किया । आप भी कीजिये । 

लोकतंत्र

अचानक से लोकतंत्र बजबजा गया है 
बात बात पर राय व्यक्त करने लगा है
रायों पर लोगों में कांय कांय मची है 
बयान आते ही कुकुरमुत्ते की तरह
उग आते हैं भाँति भाँति के बयान 
फ़ेसबुक पर निंदा ट्विटर पर परनिंदा
लगातार लिखा जा रहा है बयानों पर
बयान से बयान की भिड़ंत मचती है
मुर्ग़े की लड़ाई में चोंच से चोंच टूटती है 
प्रति सेकेंड अनगिनत प्रतिक्रियाओं के इस दौर में 
हर प्रतिक्रिया पिछली प्रतिक्रिया की क्रिया है 
बयान ही अब लोकतंत्र का नया स्टेटस है
कमेंट और लाइक उसके झंडाबाज़ चेला 
जागरूकता शेयर हो हो कर जाग रही है 
बात जो बयान का मूल था वो वहीं है
वहीं था फ़ेसबुक से पहले जहाँ हुआ करता था 
साम्प्रदायिकता सेकुलरता घोटाला पाकिस्तान 
बस बकने की रफ़्तार बढ़ गई है
अचानक लोकतंत्र ब्राडबैंड हो गया है 
बातों की स्पीड दन से दनादन हो गई है 
बोलना लोकतंत्र की जीवंतता की निशानी है 
तो यक़ीनन हम सबसे लोकतांत्रिक दौर में हैं 
चलो फ़ेसबुक चलो, चलो ट्विटर चलो
चलो टीवी चलो,चलो जंतर मंतर चलो
जो नहीं चलकर चल पाये हैं 
वो लोकतांत्रिक नहीं हो पाये हैं 
वो लोकतांत्रिक नहीं हो पाये हैं
फ़ेसबुक खाद है ट्विटर खाज है 
दलदल में हलचल मची है 
उँगलियाँ डेमोक्रेट हो गई हैं 
पिंडलियां टेक्नोक्रेट हो गई हैं 
भावुकता से भरे कुछ लोग रो रहे हैं 
अपने भारत की मर्दानगी को कोस रहे हैं 
सब लोग सबलोक हो रहे हैं 
हम लोकतांत्रिक हो रहे हैं 
हम लोकतांत्रिक हो रहे हैं 
हम तांत्रिक हो रहे हैं
हम तांत्रिक हो रहे हैं 

गणेश जी सेठ हो गए

गणेश की तमाम मुद्राओं में मूर्तियाँ देखी है । किताब पढ़ते हुए, तबला बजाते हुए तो कभी फ़ुटबॉल खेलते हुए । ये मूर्ति दिलचस्प लगी । गणेश जी सेठ हो गए हैं । हाथ में रत्नजड़ित लैपटॉप का बैग है । मोबाइल है । महँगे कपड़े हैं । छाता और हैट भी । काफी महँगी मूर्ति है ये । 

मैगी- नया नाश्ता !

दिल्ली के ठेलों और कियाॅस्क पर मैगी छा गई है । अचानक से नाश्ते या भोजन के विकल्प के रूप में मैगी दिखने लगी है । बन बटर और आमलेट की तरह । बड़े से ग्लास में मैगी भर घूमते टहलते खा लिया । मेरे दफ्तर के बाहर भी इसी साल से यह दिखा है । यह तस्वीर ओखला की है और एक पैकेट मैगी से भरे ग्लास की क़ीमत है पचीस रुपये । 

छह हिन्दुस्तानी और ईद का काउंटर

चेन्नई एक्सप्रेस से सरदर्द लेकर निकला ही था कि मैकडानल्ड की खिड़की पर ईद का ये नज़ारा दिखा । ये बच्चे अपनी अपनी ईदी लेकर आए थे । किसी ने जेब से दस का नोट निकाला तो किसी ने बीस का । सब जमा कर लगा कि इतने में नहीं मिलेगा तो काउंटर छोड़ कर चले गए । थोड़ी देर बाद फिर लौटे । सब धीमे धीमे बोल रहे थे । इस बार किसी ने बटुआ निकाला और कुछ और नोट निकाले । कुल मिलाकर एक सौ बीस रुपये जमा हो गए । सबका सीना चौड़ा हो गया कि इब तो आइसक्रीम हाथ लग गई । मैं खड़ा नज़ारा देखने लगा और क्लिक करने लगा । काउंटर पर खड़ी लड़की भी यह सब देखकर मुस्कुरा रही थी । उसने बहुत आराम से बीस का नोट वापस किया और फिर सौ रुपये में से भी कुछ लौटाया । सबका चेहरा खिल गया । अब सब इंतज़ार करने लगे चाकलेट के टाॅप वाली आइसक्रीम के कोन का । एक एक कर बाहर आने लगी । आप बस इन सातों तस्वीरों को देखते जाइये । हमारे ज़हन में भी ईद होली दीवाली की स्मृतियाँ इन्हीं छोटी छोटी बातों से बनती हैं । नेता भले ही गंध करें मगर समाज उत्सवों को ऐसे ही सहेज़ कर जीता है । तीस रोज़े की एक आइसक्रीम । वाह ! 










थर्ड क्लास है चेन्नई एक्सप्रेस

चेन्नई एक्सप्रेस शाहरूख़ खान के लिए वही है जो एक थके हुए दौर में अमिताभ बच्चन के लिए जादूगर, तूफान ,आज का अर्जुन और मृत्युदाता हुआ करती थी । फ़िल्म और नायक के चेहरे पर थकान नज़र आती है । चालीस की उम्र में अपनी पसंद की ज़िंदगी की ऐसी खिचड़ी का विकल्प है चेन्नई एक्सप्रेस जिसमें दिल वाले दुल्हनियाँ ले जायेंगे की नोस्ताल्जिया का छौंक भी ख़ास असर पैदा नहीं करती है । इस फ़िल्म के बारे में लिखने लायक कुछ नहीं है । निश्चित रूप से यह शाहरूख़ की सबसे ख़राब फ़िल्मों से एक है । आप कहेंगे कि मैंने क्यों देखी तो मैं किंग खान का फ़ैन हूँ । उनके नाम पर एक कूड़ा फ़िल्म तो देख ही सकता हूँ । उत्तर दक्षिण हास्य के नाम पर दक्षिण के लोगों का ऐसा चित्रण है जो समस्या पैदा करती है । भाषा के अंतर को पाटने के लिए रंग रूप का केरिकेचर ठीक नहीं लगा । साफ़ साफ़ कहूँ तो काले रंग को बदसूरत और राक्षसी बनाने का प्रयास है । पहला हाफ़ बाकवास है दूसरे हाफ़ में शाहरूख़ थोड़ा ठीक लगे हैं । कुल मिलाकर शाहरूख़ का राहुल अब जादू नहीं पैदा कर पा रहा है । ऐसी फ़िल्मों से वे दर्शकों को खो देंगे । उत्तर की एक फ़िल्म दक्षिण में गई है इसलिए शुक्रिया । तमिल की ध्वनि हिन्दी के साथ संगीत पैदा करती है । थोड़ा हास्य तो पैदा करती ही है । ट्रेन का बाहरी सिक्वेंस और नज़ारा शानदार है । कहानी के नाम पर कुछ नहीं है । चंद संयोग और सड़क छाप संवाद । दूध का जला बरनाल फूँक फूँक पर लगाता है टाइप । भाषा और समाज के इस अंतर पर एक दूजे के लिए ही बेहतरीन है । आज भी । दीपिका की एक्टिंग ठीक ठाक है । यह फ़िल्म शाहरूख़ के लिए टर्निंग प्वाइंट साबित होगी । शाहरूख़ अब अमिताभ की तरह पर्दे पर भूमिका को बदलेंगे । रोमांटिक हीरो रोमांस में ही अच्छा लगता है । लेकिन कब तक । कहानी हो तो पचास की उम्र में भी रोमांटिक रोल कर सकता है । संयोग से फ़िल्म में शाहरूख़ चालीस और पचास साल की उम्र को लेकर मज़ाक़ करते दिखते हैं । जीवन का संकट फ़िल्म में भी है । लोग चेन्नई एक्सप्रेस नहीं देख रहे थे । उन्हें जितनी भी खुशी मिली वो शाहरूख़ को कुछ भी करते देख कर मिली । किंग खान को शुक्रगुज़ार होना चाहिए । हां वो गाना पसंद आया । कश्मीर तू मैं कन्याकुमारी । ईद के दिन एक बेकार फ़िल्म । अइयइयो ! 

नोट-शाहरूख़ बाज़ार का उत्पाद बन गए है । शुरू के हिस्से में नोकिया लुमिया बेचना ठीक नहीं लगा । बचते तो अच्छा रहता । 

ईद मुबारक

कुछ अच्छा खाने का मन कर रहा है 
कुछ नया पहनने का मन कर रहा है 
फिलहाल बिरयानी से काम हो जाएगा
थोड़ी सेवई मिल जाए तो चल जाएगा 

टीवी पर युद्ध

युद्ध चाहिए 
एस एम एस कीजिए 
बम गिराना है 
एस एम एस कीजिए 
रक्त चाहिए
एस एम एस कीजिये 
सबक़ सीखाना है 
एस एम एस कीजिये 
क़ुर्बानी गाइये 
एस एम एस कीजिये 
शहीद शहीद 
एस एम एस कीजिये  
बयान बयान 
एस एम एस कीजिये 
जवाब जवाब
एस एम एस कीजिये 
पाकिस्तान चाहिए
एस एम एस कीजिये 
सख़्त क़दम के लिए
एस एम एस कीजिये 
नकारा भारत
एस एम एस कीजिये 
चीन से डरता भारत
एस एम एस कीजिये 
एक अरब के भारत में 
दो लाख लोगों ने किया है 
उस एंकर को एस एम एस 
जो पूछता है जनमत से 
कि पक्ष में हों युद्ध के
फ़ेसबुक ट्विटर पर चीख़ते 
कुछ लोगों को देख 
ट्विटर पर कुछ फ़ालतू राष्ट्रवादी 
युद्ध माँगते हैं 
कुछ फ़ालतू राष्ट्रवादी नेता 
पुरुषार्थ जगाते हैं 
एक ट्विट से जंग मचाते हैं 
ले बदला 
दे बदला 
चिल्लाते हैं 
रिमोट बदल बदल 
इस चैनल से उस चैनल 
आते जाते रहते हैं 
टीवी पर युद्ध खोजते हैं 
शहीदों के लिए रोते धोते 
अपना इंवेस्टमेंट प्लान करते हैं 
एंकर लफंदर होता है
और
लफंदर हमेशा युद्ध चाहता है 
लड़ने के लिए नहीं 
उकसाने के लिए 
आप लफंदर हो जाइये 
टीवी के सामने बैठे बैठे
एंकर हो जाइये 
राष्ट्रवाद के पालतू बंदर
राजधानी के फ़ालतू बंदर
सब बन जायें टीवी एंकर
फिर कीजिये एस एम एस 
हमें युद्ध चाहिए 




मिल गया मिल गया

धीरज मिल गया है । उसकी पत्नी से बात हो गई है ।  पूरा ब्योरा नहीं मिल पा रहा है । कुछ तो गड़बड़ है । अब उसके पटना पहुँचने पर ही सब पता चलेगा । पूरी रात जागने और अभी तक जागे रहने का टेस्ट हो गया है । फ़ोन पर काफी घबराया हुआ था । जिस होटल से बात करने का दावा कर रहा था उसे वो कई घंटे पहले छोड़ चुका था । इसी वजह से थोड़ी चिन्ता बरक़रार है । वर्ना बात होने पर आशंकायें तो समाप्त हो ही जाती हैं  आप सबका शुक्रिया । 

आज जान निकली जा रही है ।

आज अजीब हुआ । प्राइम टाइम की तैयारी पूरी कर स्टुडियो जाने का इंतज़ार कर रहा था । पंद्रह मिनट बाक़ी थे नौ बजने में । अचानक माँ और भाभी का फ़ोन आता है कि ममेरा भाई का अता पता नहीं चल रहा । मेरे होश उड़ गए । किसी तरह मनीष को सूचना देकर प्राइम टाइम करने गया । कुछ होश ही नहीं रहा कि क्या पूछ रहा हूँ और कौन क्या जवाब दे रहा है । पूरे शो के दौरान पटना से फ़ोन आता रहा । कुछ प्रिय दर्शक एस एम एस कर रहे थे कि क्या शो है ये । युद्ध की बात क्यों नहीं करते । ये अजय शुक्ला क्यों बकवास कर रहे हैं । आप थके हुए लग रहे हैं । आप कांग्रेसी दलाल हैं । मेरा मन शो में था ही नहीं । ब्रेक में रोने लगा । जिसके साथ बचपन बीता उसके बारे में तरह तरह की आशंकाओं ने घेर लिया । दर्शकों के लिए प्रदर्शन करना था और खुद से लड़ना था । किसी तरह शो ख़त्म कर बाहर निकला तो फ़ोन पर फ़ोन । एडीजी कंट्रोल रूम से फ़्लैश के बाद भी धीरज की कोई सूचना नहीं । दानापुर होते हुए बिहटा शाहपुर आरा के रास्ते डिहरी आन सोन के लिए निकला था । सुबह सात बजे और रात के ग्यारह बजे तक कोई सूचना नहीं । कभी माँ को तो कभी भाभी को तो कभी उसकी पत्नी श्वेता को । सबका धीरज जवाब दे गया था । रोते रोते सब एक दूसरे पर चीख़ने चिल्लाने लगे । मैं जिस समाज और परिवेश से आता हूँ वहाँ यह सामान्य है । फिर भी उनकी और अपनी तकलीफ़ से जूझ रहा हूँ । कई फ़ोन के बाद उसके आॅन सोन जाने के रास्ते में किसी दुर्घटना की कोई सूचना नहीं मिली । रिलायंस जीओ के अधिकारियों ने भी बताया कि कोई सूचना नहीं है । फिर दिमाग गया कि बारिश के दिनों में बिहार की सड़कों के किनारे काफी पानी भर जाता है । अगर उसमें गिरा हो तो मुमकिन है कि सूचना न मिली हो । पत्नी श्वेता कह रही थी कि सहयोगियों से किसी बात पर अनबन थी जिसकी शिकायत धीरज ने अपने बास से की थी लेकिन एक महीने की नौकरी में अनबन का ऐसा ख़तरनाक नतीजा हो सकता है समझना मुश्किल है । उसका फ़ोन बंद है । टावर का लोकेशन घर के पास ही बता कहा है । गोला रोड, टावर के मालिक का नाम मुकेश कुमार है । समय दोपहर सवा दो के क़रीब का जबकि घर से वो सुबह सात बजे निकला था । दानापुर पुलिस के पास सुबह से दुर्घटना की कोई सूचना नहीं है । क्या हो सकता है । मेरी हालत ख़राब है । क्यों लिख रहा हूँ पता नहीं लेकिन आशंकाओं से घिरा हुआ हूँ । उम्मीद नज़र नहीं आती । कंट्रोल रूम के फ़्लैश के बाद कोई सूचना तो मिलती । पटना के  रूपसपुर थाने में सूचना दर्ज करा दी है । धीरज सफ़ेद रंग की होंडा ट्विस्टर बाइक से निकला था जिसका नंबर 2353 है । tel:+9197-71-423507 ये उसका फ़ोन नंबर है । पैंतीस साल की उम्र है । क्या करूँ । वो ऐसा लड़का नहीं है । दिन भर में पत्नी से कई बार बात करता है ।अपनी दोनों बेटियों से काफी लगाव रखता है । नौकरी में मन नहीं लग रहा था मगर किसी ख़ास तनाव में भी नहीं था । क्या वो परेशान होकर कहीं जा सकता है ? आत्म हत्या ? हत्या ? अगवा ? दुर्घटना ? नक्सल ?  यही सब सोच रहा हूँ । शो के साथ तो न्याय नहीं ही कर पाया लेकिन लग रहा है कि धीरज के लिए भी कुछ नहीं कर पा रहा हूँ । उसका पता क्यों नहीं चल पा रहा । ये कैसा इम्तिहान है ? दुआ कीजियेगा । 

मिट्टी का गिलास



मेरे मोहल्ले में एक चायवाला है । उसके यहाँ मिट्टी के खूसबूरत गिलासों में चाय और लस्सी बेचता है । गिलास की डिज़ाइन काफी ख़ूबसूरत और साफ़ सुथरी है । कुछ बर्तनों को शो पीस के लिए भी बेचता है । दस रुपये की चाय अच्छी है । 

बी ए पास

इस हफ़्ते तो यही फ़िल्म चल रही है । थोड़ा एडल्ट टाइप है न ! मुश्किल से आँख मिलाते हुए सिनेमा हाल के मैनेजर ने कहा । दरवाज़े पर बीस बाइस साल के लड़के लड़कियों की तादाद इंतज़ार कर रही थी । सबके हाव भाव से लग रहा था कि बीए पास देखने जा रहे हैं और कहानी पहले से मालूम है । फ़िल्म शुरू होती है और कुछ देर बाद उस सीन पर पहुंचती है जिसे सोच कर देखने वाले आये थे । अलग अलग सीटों से हँसी ठिठोली की आवाज़ छलकने लगती है । सारिका और मुकेश के पहले प्रसंग से हाल में गुदगुदाहट उठी थी या बेहूदगी मालूम नहीं । पर सब उस बोल्ड सीन के लिए ही आए थे जिसके बारे में निर्देशक समझा रहा थे कि बोल्ड सीन को किसी फ्रेम में मत ठूंसिये । हाल में बैठे युवा दर्शकों की ठिठोली और पर्दे पर समाज की उस तस्वीर के बीच फँसा एक दर्शक हर सीन के साथ बढ़ती कहानी से कुचलता चला जा रहा था । दर्शक की दिलचस्पी उन्हीं दृश्यों में थी । यह फ़िल्म दर्शकों के देखने के नज़रिये की भी फ़िल्म है । 

शहर और समाज अनगिनत अतृप्त आकांक्षाओं का ख़ज़ाना है । लुटा देने और लूट लेने की टकराहट के बीच गँवा देने की हताशा उस ख़जाने को हमेशा राज़ रखने पर मजबूर करती हैं । पर इन्हीं मजबूरियों के बीच फंसी हुई कहानी निकलने का रास्ता ढूँढते ढूँढते किसी होटल की छत से कूद कर आत्महत्या कर लेती है । सारिका नेहा रानी न जाने नाम बदल कर चंद पल अपना ख़रीदने वाली आंटियां इस शहर की मुर्दा ज़रूरतें हैं । जिनकी हत्या शहर ने भी की है और समाज ने भी । धीरज नाम के उस पति ने भी की है और अशोक नाम के पति ने भी । अपने तिरस्कार की क्षतिपूर्ति के क्षणों में ये औरतें उस बेशुमार दौलत से खरीदी गई गुप्त आज़ादी को नए सिरे से गढ़ती हैं जो किसी काली कमाई के ज़रिये से आता है । दिल्ली रहने के दौरान जिन गाँवों में रहने का तजुरबा हुआ वहाँ ऐसे किस्से दबी ज़ुबान में सुनने को मिल ही जाते थे । रात को मालिक बने स्थानीय शराब के नशे में धुत होते थे और कुछ प्रवासी किरायेदार लड़के अपने मालिक के कमरे में जाग रहे होते थे । रेलवे आंटी कहानी मैंने नहीं पढ़ी है लेकिन अजय बहल की फ़ोटोग्राफ़ी ने जिस तरह इसे पर्दे पर उतारी है वो सुनी सुनाई कहानियों को हक़ीक़त में बदल देती है  । समाज के रिश्ते सिर्फ औपचारिक नहीं होते ।

मुकेश और सारिका के बीच हमारे महानगर की घुटन भी बिस्तर बदलती है । निर्देशक ने जिन दृश्यों को सामान्य बनाने की कोशिश की है वो उतनी भी नहीं है । दर्शक अपनी निजी कुंठाओं या चाहतों को उन दृश्यों के सहारे जीने का प्रयास करेगा ही । कहानी की निर्ममता से किसे लेना देना है । मुकेश की त्रासदी पर किसी को रोते नहीं देखा । स्टेशन पर इंतज़ार करती सोनू से किसी का रिश्ता नहीं जुड़ता । मिस नवल से बात करने की बेचैनी किसे है । उनके एकांत में सारिका जैसी भूख तो नहीं है पर किसी को अपना बनाकर कहने की तड़प तो है ही । आख़िर सीरीयल वाली आंटी जब धीरज धीरज करती हुई कहती है कि ये मेरा पति है तो वो ज़रूर किसी उपेक्षा के बदले का एलान भी करती है ।  अजय बहल का साफ़ सुथरा कैमरा जब रात के एक दृश्य में आख़िरी मेट्रो में मुकेश के ख़ालीपन को पकड़ता है तो कहानी सारिका और उन औरतों की बची हुई भूख की ऊपरी मंज़िल पर अकेली खड़ी नज़र आती है । जिनके शौहर किसी का ख़ज़ाना लूटने के लिए सेब की पेटियाँ मंगवाते रहते हैं । जाॅनी भी जानता है दिल्ली में किसी का ख़ज़ाना लूट कर ही मारीशस जाने का सपना पूरा हो सकता है वर्ना मुर्दों की दाँत से सोना निकाल कर शाम की दारू का ही जुगाड़ हो पाएगा । अतृप्त आकांक्षाओं का ख़ज़ाना लुटने या लूटने के लिए होता है । इसका कोई खाता नहीं होता न ही कोई दराज़ । 

सारिका का किरदार समाज की बनी बनाई परिस्थिति की तरह है और मुकेश का किरदार उसका शिकार । फ़िल्म अच्छी है या बुरी है इससे आगे जाकर यह भी सवाल करना चाहिए कि कहानी सही है या नहीं । मुकेश जैसे लोग है या नहीं । सारिका के सीन एक स्तर पर अतृप्त चाहतों के सीन भी है । बुढ़िया का पहले ही दस्तक पर मुकेश को भाग जाने का आदेश सारिका की अतृप्त चाहत को लत के रूप में रेखांकित करती है या कोई अस्वीकृति है जिसे हम तब समझते हैं जब उसका पति हमला करता है और कहता है कि मज़े करेगा खन्ना और मुंह काला होगा तेरा । खन्ना के लिए सारिका ड्राइंग रूम में रखी गई पोर्सिलिन की मूर्ति भर है और सारिका के लिए खन्ना ख़त्म हो चुकी उम्मीद की तरह । मुकेश इस बंजर ज़मीन पर थोड़े समय के लिए उग आया घास है । 

इस शहर की आंकाक्षाएं सिर्फ ज़रूरतें नहीं हैं, उसकी सीमा से आगे जाकर लत भी हैं । जिसके लिए कोई शौक़ से जुआ खेलता है तो कोई उस जुए को शतरंज समझ कर । कास्परोव या कार्पोव की चाल पढ़ कर कोई मुकेश लत बन चुकी आकांक्षाओं की चालें चलता है । न कि अपनी न कि कास्परोव की । इस फ़िल्म की औरतों की छोटी छोटी कथाओं पर अलग से लिखा जाना चाहिए । सबकी दास्तान एक होते हुए भी अलग है । जिस्म की चाहत है या उस ठुकराए जाने की तड़प जिसका बदला या पूर्ति वे अपने पैसे के दम पर करती हैं । ये औरतें अपनी ज़रूरतों की मालिक खुद हैं । वो अपना शिकार ढूँढती हैं न कि बनती हैं । उनकी जिस्मानी चाहतें पति के घर लौटने के वक्त की ग़ुलाम नहीं हैं । वो आज़ादी उन्हें गुमनाम करने वाला शहर ही देता है । वो अपनी साइड भी खुद चुनती हैं । वो किसी की आग़ोश में नहीं हैं, उनकी आग़ोश में कोई है । यही सारे दृश्य हैं जो देखने वालों को उकसाती हैं एडल्ट या साफ्ट पाॅर्न की तरह देखने के लिए । यह एक सिलसिला है जो अनगिनत फ़िल्में ने हमारी ज़हन में गढ़ा है आप इसके बदल जाने की उम्मीद एक फ़िल्म से मत कीजिए कि मुकेश अक्सरहां नीचे क्यों है और आंटी ऊपर । 

बहुत साफ़ सुथरी फ़ोटोग्राफ़ी है । पहाड़गंज की रातों और नियान लाइट को बख़ूबी दिखाया है । रेलवे कालोनी के उस मकान का एकांत किसी साहित्य के किरदार की तरह लगता है । बी ए पास एक बेज़रूरत की पढ़ाई है । ऐसी कहानियों के किरदार भी बी ए पासकोर्स से ही मिलेंगे । दावा तो नहीं है पर विश्वसनीय ज़रूर लगा । मुकेश की मासूमियत अंत तक नहीं बदलती है । तब भी नहीं जब वो सारिका को मार देता है । वो सारिका को मार कर कम से कम एक बार या फिर हमेशा के लिए निकल जाने की उड़ान भरता है । फ़िल्म को औरतों की निगाह से न देख पाने की आदत के कारण ही कई लोगों को यह बी ए फ़ेल लगी होगी । कहानी दुखदा़यी है पर फ़िल्म अच्छी है । कहीं आप पर्दे पर औरतों को मर्दों पर हावी देख कर तो विचलित नहीं हो गए । हमारा देखने का तरीक़ा भी कितना रूढ़ है । फिक्स कडींशनिंग है । फिर भी इस फ़िल्म के बारे में कई तरह से देखना और सोचना बाक़ी रह जाता है । यही खूबी है । 

लप्रेक

फ़ासले ऐसे भी होंगे...ये कभी सोचा न था..सामने बैठा था मेरे और वो मेरा न था । गुलाम अली की आवाज़ में यह ग़ज़ल चुपचाप तैरती जा रही थी । वो पूर्वी दिल्ली की तरफ़ देखे जा रही थी और वो क़ुतुब मीनार की दिशा में डूबते सूरज को देख रहा था । दोस्त होकर भी वो दोस्त नहीं लग रहे थे जैसे दिल्ली होकर भी दिल्ली नहीं लग रही थी । बीच बीच में हरे और संतरे रंग की डीटीसी की बसें शहर को काट कूट किये जा रही थीं । उसने मन बना लिया था । पीछा करना प्यार नहीं होता है । मैं उसकी 'मेरी' नहीं हूँ । ग़ज़ल पूरी होने लगी थी । गुलाम अली गा रहे थे....रात भर पिछली ही आहट कानों में आती रही...झाँक कर देखा गली में कोई भी आया न था...वो अपने तमाम ख़तों को ख़ंजर में लपेटे चला जा रहा था । उसके साथ बिताये हर पल का हिसाब जोड़े जा रहा था । जैसे कोई आशिक पूर्वी दिल्ली और पश्चिमी दिल्ली में प्रेम का गुना भाग कर रहा हो । इश्क़ साँस लेने के लिए है । नाक में दम करने के लिए नहीं । 

एक आवश्यक सूचना



यह नया पथ का सिनेमा विशेषांक है । हिन्दुस्तान का सिनेमा सौ साल का हुआ है और जश्न ऐसे मनाया गया जैसे ये सिनेमा किसी का था ही नहीं । चंद हलचलों के साथ सौ बरसवां साल जा भी रहा है । इस मौक़े पर जनवादी लेखक संघ की पत्रिका नया पथ का विशेषांक आया है । साढ़े तीन सौ पन्नों में सिनेमा के अलग अलग रूप समाहित हैं । सिनेमा पर लिखने वाले कुछ बेहतरीन नाम हैं । शिखर झींगन, अरविंद कुमार, कृष्ण कुमार, संजीव कुमार, रवींद्र त्रिपाठी, विभास वर्मा , अकबर महफ़ूज़ आलम रिज़वी,अजय ब्रह्मात्मज,रविकांत, आशीष नंदी के लेख हैं । सब हिन्दी में है । यह समीक्षा नहीं है सूचना है । डेढ़ सौ रुपये की इस पुस्तकनुमा पत्रिका को आप 9818859545, 9811119391 पर फ़ोन कर मँगा सकते हैं । पढ़ियेगा तो आपका भला ही होगा वर्ना टीवी की डिबेट देखिये जिससे आप रोज़ अपठनीय सामग्री के रूप में तब्दील हो जाते हैं । काउच दर्शक से अच्छा है कुछ पढ़ा जाए । मैं यह नहीं कहता कि नया पथ का सिनेमा विशेषांक ही पढ़ा जाए पर टीवी कम देखिये । टीवी देखने से कृपा नहीं आएगी ! ( अंतिम पंक्ति टीवी पर आने वाले निर्मल बाबा की 'कृपा' विधि से प्रेरित है ) । संग्रहणीय विशेषांक है । कृपा आयेगी ।