डियर फ़ादर
छह महीने काम छह महीने आराम
इतिहासकार जाँचेंगे मनमोहन का इतिहास
हाँ मैं अमीर हूँ
मुखिया से दूधिया तक
विजय ही विजय नहीं हैं ।
शाहिद
नौकर की क़मीज़
Forced labour . विनोद कुमार शुक्ल की नौकर की क़मीज़ पहने यह नौजवान काम पर चला जा रहा था । टी शर्ट पर लिखने वाले ने शायद हैपनिंग युवाओं के फ़ैशन लिए लिखा होगा मगर पहनने वाले नौजवान ने उसे यथार्थ की तरह पहन लिया है । सड़क पर चलते चलते कितना कुछ दिख जाता है । चलते रहिए ।
लप्रेक
उस रोज़ नीलपदम टू और डिज़ाइनर आर्क के बीच से सूरज कैसे निकल रहा था न । हाँ लगा कि लिफ़्ट से नीचे आ गया है । याद है न हिंडन हाइट के पीछे छिपता चाँद और हमारा रात भर मंज़िलों का गिनना । सब याद है जानेमन । अपार्टमेंट की पहाड़ियों पर एक शहर हमने ही बसाया है । चाँद सूरज को तो आना ही था । इन्हें कोई नहीं देखता अब सो ये खुद ही झाँक रहे हैं । यार तुम दो मिनट के लिए रोमांटिक नहीं हो सकते ।धूप में निकला न करो रूप की रानी । गोरा रंग... व्हाअट इझ दिस डियर । माय न्यू कालर ट्यून जानेमन । उफ्फ , डाँट बी सो रिग्रेसिव । यू गैंजेटिक बार्बेरियन बिहारी । शट अप । आय यम कास्मो । लिव आन टूएल्थ फ़्लोर , इन द सकाई । और मैं तुम्हारे इश्क़ में शिप्रा सिटी हो गई हूँ । लव इन टाइम आफ़ हाई राइज़ ( लप्रेक)
भारत एक बुरी नज़र प्रधान देश है
टीवी का कंकड़ पत्थर एंकर
सचिन
भरतपुर गया था
सही में अरविंद ईमानदार हैं ?
नरेंद्र सत्यवादी मोदी, राहुल सत्यवादी गांधी
आँखों देखा हाल- कांग्रेस बदहाल
बिकता फ़ुटबॉल है मगर खेलते क्रिकेट हैं
तीन नेशनल पार्टी होवै तो मजो आओगो
पेड विज़ुअल का आ गया ज़माना
कांग्रेस और बीजेपी की रैलियों के घनघोर कवरेज़ के बीच आपने ध्यान दिया ही होगा कि एक साल पहले तक न्यूज़ चैनलों पर छाये रहने वाले अरविंद केजरीवाल और आम आदमी की पार्टी कम नज़र आ रही है । अरविंद केजरीवाल अब रोज़ाना प्रेस कांफ्रेंस करते कम दिखते हैं और उनमें न्यूज़ चैनलों की वैसी दिलचस्पी भी नहीं रही जो लोकपाल आंदोलन के दौरान हुआ करती थी । क्या राजनीति में वही पार्टी दावेदार है जो टीवी में ज़्यादा दिखती है और क्या जनता बिल्कुल ही यह नहीं पूछती समझती होगी कि टीवी में दिखने और रामलीला की तरह होने वाली भव्य रैलियों का अर्थशास्त्र क्या है ? यह किसका पैसा है जिसके दम पर बड़ी पार्टियाँ दरिद्र नारायण के भाग्य पलटने का दावा करती हैं । जनता ज़रूर समझती होगी कि करोड़ों ख़र्च कर राजनीति में सादगी और ईमानदारी लाने का दावा फूहड़ है ।
2014 का चुनावा प्रचार माध्यमों के इस्तमाल का सबसे खर्चीला चुनाव होने जा रहा है । अरबों रुपये धूल की तरह झोंक दिये जायेंगे जिनका काग़ज़ पर कोई हिसाब नहीं मिलने वाला । सोशल मीडिया पर प्रायोजित तरीके से नारे फैलाये जा रहे हैं जिसके लिए महँगे दामों पर जनसंपर्क एजेंसियों को काम में लगाया गया है । इसके पीछे कितना ख़र्च हुआ पता नहीं चलेगा और सामने देखकर अंदाज़ा भी नहीं होगा कि यह किसी ख़र्चीले चुनावी रणनीति का हिस्सा है । आप ट्वीटर और फ़ेसबुक के स्टेटस को देखकर अंदाज़ा नहीं लगा सकेंगे कि यह आम जनता की सही प्रतिक्रिया है या किसी पार्टी की आनलाइन टीम के अनगिनत और अनाम कार्यकर्ताओं का कमाल है । मुझे नहीं मालूम कि चुनाव आयोग ब्रांडबैंड के इस्तमाल पर ख़र्च होने वाले करोड़ों रुपये का हिसाब कैसे लगायेगा और माँगेगा । क्योंकि पार्टियां कह देंगी कि फ़ेसबुक पर फलां विज्ञापन का पेज किसी चाहने वाले की रचनात्मकता की उपज है । जबकि आनलाइन कैंपन के लिए पेशेवर और क़ाबिल लोगों की टीम बनाई गई है जिस पर करोड़ो ख़र्च हो रहे हैं ।
इसीलिए आप देखेंगे कि तेज़ गति से कांग्रेस बीजेपी के समर्थकों ने प्रायोजित तरीके से सोशल मीडिया के स्पेस को क़ब्ज़े में ले लिया है । जबकि अरविंद केजरीवाल ने स्वाभाविक तरीके से इसके ज़रिये लोगों को घरों से बाहर निकाला था । अरविंद की टीम ने पहले अपने अभियान को सोशल मीडिया पर बनाया फिर उसे ज़मीन पर लाकर दिखाया कि उनके साथ इतने लोग हैं । मेरी समझ में नरेंद्र मोदी इस काम को ठीक उल्टा करते हैं । वे अपने संगठन और साधन के ज़रिये लोगों को जमा करते हैं , रैली के मंच को भव्यता और नाटकीयता प्रदान करने के लिए नक़ली लाल क़िला बनाने से लेकर वीडियो स्क्रीन लगाते है और मंच से हर भाषण में सोशल मीडिया का धन्यवाद कर इशारा करते हैं । वे ऐसा इसलिए करते हैं ताकि उनकी रैली की चर्चा उनके जाने के साथ समाप्त न हो जाए । रैली शुरू होने से पहले भी समर्थक के भेष में कार्यकर्ता, उनके वास्तविक समर्थक, पार्टी के छोटे बड़े नेता सोशल मीडिया पर चर्चाओं का समा ं बाँध देते हैं । इस मामले में नरेंद्र मोदी ने कांग्रेस को पीछे छोड़ दिया है और अरविंद केजरीवाल ने अपनी राजनीति का रास्ता बदल कर सोशल मीडिया से छोटी छोटी सभाओं की तरफ़ मोड़ दिया है ।
कांग्रेस पीछे लग रही है मगर वो भी है नहीं । वो पीछे इसलिए लग रही है क्योंकि उसके नेता राहुल गांधी को इस बार भट्टा परसौल की पदयात्रा और यूपी चुनावों की तरह कवरेज़ नहीं मिल रही है । शायद वे दिन गए जब कैमरे राहुल का चप्पे चप्पे पर पीछा करते थे । मोदी की रैली का कवरेज उनके आने से कई घंटे पहले शुरू हो जाता है और पूरा भाषण लाइव प्रसारित होता है । एक कारण यह भी हो सकता है राहुल गांधी ने अपनी चुनावी सभाओं को रणनीतिक और औपचारिक रूप नहीं दिया है । इस वक्त निष्कर्ष से पहले थोड़ा और इंतज़ार करना चाहिए कि इस बार मोदी का कवरेज ज़्यादा होता है या राहुल का या मीडिया दोनों में संतुल बनाता है । यह भी देखना होगा कि मीडिया सिर्फ मोदी और राहुल के बीत संतुलन बनाता है या अखिलेश यादव, नीतीश कुमार, ममता बनर्जी, प्रकाश सिंह बादल, उद्धव ठाकरे को लेकर भी संतुलन बनाता है । लेकिन इसका मतलब यह भी नहीं कि ये नेता बेचारे हैं । क्षेत्रीय दलों के पास भी मीडिया को अपने प्रभाव में लेने के कुछ कम साधन और हथकंडे नहीं होते ।
एक और बदलाव आप देखने जा रहे हैं । हालाँकि यह पहले भी होता था मगर इस बार बड़े पैमाने पर होने जा रहा है । रैलियों का कैसे प्रसारण होगा यह किसी चैनल के संपादक या रिपोर्टर तय नहीं करेंगे । रैली के आयोजक करेंगे । याद कीजिये कि दिल्ली में नरेंद्र मोदी की रैली की तस्वीरें सभी चैनलों पर एक सी थीं । एक ही तरह के कैमरा एंगल से ली गई तस्वीर सभी चैनल पर एक साथ दिखाई देती थी । रैली में रिपोर्टर भी गए थे मगर उनका मंच मुख्य मंच से इतनी दूर था कि कैमरे भी देखने में सक्षम नहीं थे । आयोजक क्रेन वाले कैमरे के सहारे भीड़ को ऊपरी एंगल से शूट कर रहे थे । क्रेन वाले कैमरे के ज़रिये बीस लोगों की भीड़ को सौ लोगों की तरह दिखने का असर पैदा किया जा सकता है । दिल्ली की रैली में खूब भीड़ आई थी मगर क्रेन से लगे आसमानी कैमरों ने आपके टीवी सेट पर उसका असर तीन गुना कर दिया था ।
यह दर्शकों के साथ किया गया एक विज़ुअल छल है । आपने जो भी तस्वीर देखी रैली के आयोजक की नज़र से देखी । इसलिए यह पेड न्यूज़ की तरह पेड विज़ुअल है । जिसके लिए पैसे का आदान प्रदान तो नहीं हुआ मगर आयोजकों ने अपने खर्चे पर सभी न्यूज़ चैनलों को वीडियो फ़ुटेज उपलब्ध कराई और आपने रैली को सिर्फ बीजेपी या कांग्रेस की नज़र से ही देखा । मुझे नहीं मालूम की चुनाव आयोग ने इस खर्चे को जोड़ने का कोई हिसाब निकाला है या नहीं । क्रेन वाले कैमरे लगाने और उनका फ़ीड सभी न्यूज़ चैनलों में पहुँचाने के खर्चे का हिसाब भी चुनावी खर्चे में शामिल होना चाहिए ।
इसलिए कहा कि इस बार का चुनाव प्रचार माध्यमों के इस्तमाल के लिहाज से बिल्कुल अलग होगा । दृश्यों को लेकर कलात्मक छल प्रपंच किये जायेंगे ताकि जनता को लहर नज़र आये । रैलियों में नारे लगाने के तरीके बदल जायेंगे । अब मंच से बड़े नेता के आने के पहले स्थानीय नेता राहुल राहुल या मोदी मोदी नहीं चिल्लायेंगे बल्कि कार्यकर्ताओं या किराये की टोली भीड़ में समा जाएगी और वहाँ मोदी मोदी या राहुल राहुल करने लगेगी जिससे आस पास के लोग भई जाप करने लगेंगे और लहर जैसा असर पैदा किया जा सकेगा । इन सबके खर्चे होते हैं जिसका पता चुनाव आएगा कैसे लगायेगा ।
बात शुरू हुई थी टीवी पर अरविंद केजरीवाल की सभाओं की गुमनामी से । अरविंद एक साल से । लगातार सभायें कर रहे हैं । जिसमें बड़ी संख्या में लोग भी आते हैं मगर कैमरे नहीं होते । अरविंद इसे लेकर शिकायत भी नहीं करते । जिस उत्साह से वे पहले रामलीला मैदान के मंच से हर दूसरी लाइन में मीडिया का आह्वान और धन्यवाद ज्ञापन किया करते थे अब उन्होंने टीवी और ट्वीटर का रास्ता देखना बंद तो नहीं किया मगर कम कर दिया है । वे जानते हैं कि लोगों के पास जाकर ही कांग्रेस बीजेपी का मुक़ाबला कर सकते हैं । सियासत को बदलने वाले लोग नुक्कड़ों और गलियों में मिलते हैं, ड्राइंग रूम में नहीं । उन्हें यह भी अहसास होगा कि जनता उन्हें दूसरा मौक़ा नहीं देगी । पहले प्रयास में इम्तिहान पास करना है तो पूरी किताब पढ़नी होगी । कुंजी से काम नहीं चलेगा । किताब के हर पन्ने को पलटना होगा और हर घर में जाना होगा ।आम आदमी पार्टी यही कर रही है । राजनीति में टीवी और ट्विटर कुंजी हैं । किताब नहीं ।
( आज के राजस्थान पत्रिका में प्रकाशित)