उस रात शाहजहां देखता रहा अपने ताज को
संगमरमर सी सफेद खड़ी अपनी मुमताज को
दे दिया जिसके लिए मोहब्बत का अपना वर्तमान
आने वाले सैंकड़ों सालों के शानदार इतिहास को
डूबा रहा एक गहरे अफसोस में शाहजहां पूरी रात
दीवारों में चुन कर मुमताज कितनी सफेद हो गई है
धड़कनें बंद हैं उसकी, पत्थर सी जड़ हो गई है
ढूंढने लगा शाहजहां ताज के चारों ओर मुमताज को
जिस तक आने के लिए सरकारें टिकट वसूल रही हैं
सैकड़ों संतरी खड़े हैं बंदूक लेकर,गाइड चिल्लाते हैं
प्रेम की यह इमारत दुनिया में है सबसे बेमिसाल
२२ सालों में गुज़र गईं कितनी सर्दियां, दिन रात,
याद करे दुनिया एक शहंशाह की मोहब्बत बेपनाह
आंसुओं को रोके रहा शाहजहां, पूछता रहा मुमताज से
लाखों लोगों की भीड़, तमाम पोस्टरों तस्वीरों के शोर में
दो पल बिताने को कम पड़ जाता है मुमताज ये ताज
ख्वाब में भी मेरे हर रात, इक इमारत ही चल कर आती है
मुमताज मुमताज पुकारो तो सारी दुनिया ताज पुकारती है
रोते रोते बोल पड़ा शहशांह ताजमहल में उस रात को
निकल भी आओ मुमताज,छोड़ भी दो अब इस ताज को
मोहब्बत की इस बार कोई लंबी कहानी नहीं बनाऊंगा
जी लूंगा तुम्हारा साथ जी भर,कोई इमारत नहीं बनाऊंगा
कौन बनेगा 'वीक' प्रधानमंत्री
प्रभात शुंगलू
लाल कृष्ण आडवाणी कहते हैं मनमोहन सिंह वीक प्राइम मिनिस्टर हैं। यूपीए की सत्ता का रिमोट कंट्रोल पांच साल 10 जनपथ यानि सोनिया गांधी के पास था। मान लिया। लेकिन आडवाणी जी वरूण के मामले पर आप क्यों चुप बैठे हैं। वरूण के जहरीले भाषण के बाद एक बार भी बयानों को कंडेम नहीं किया। एक बार भी उनकी तरफ से ये बयान नहीं आया कि पार्टी ऐसे लोगों से कोई रिश्ता नहीं रखना चाहती। एक बार भी पार्टी को नहीं कहा कि वरूण के खिलाफ कार्यवाई होनी चाहिये। अटल जी के रिटायरमेंट के बाद पार्टी में आप सबसे वरिष्ठ हैं, प्रधानमंत्री पद के दावेदार भी हैं। तो एक बार भी ये कहने की हिम्मत क्यों नहीं जुटा पाये कि वरूण को टिकट देकर गल्ती हुयी। एक बार भी वरूण से ये नहीं कहा कि जनता से अपनी गल्ती की माफी मांगे। एक बार भी वरूण को नहीं समझाया कि माफी नहीं मांगी तो सीट जायेगी। एक बार भी क्या पार्टी अध्यक्ष या दूसरे वरिष्टठ नेताओं को समझाया कि मुझे वरूण जैसे नेताओं की बदौलत प्रधानमंत्री बनना स्वीकार नहीं। एक बार भी मंच पर खड़े होकर ये नहीं कहा पार्टी का कोई भी नेता अगर धर्म के नाम पर राजनीति करता है तो बर्दाश्त नहीं किया जायेगा। ये सब कहते तो लोग आपको वीक कहते। इसलिये आप मौन रहे।
एक बार भी क्या सहयोगी दलों के दर्द को समझा कि वो क्या जवाब देंगे अपने वोटरों को। नीतिश ने तो समझाया भी। इशारा भी किया कि वरूण का टिकट काट दो। अब भी मौका है। लेकिन आडवाणी वरूण को ड्राप करने के लिये तैयार ही नहीं। उनकी वीकनेस तो बस इतनी है कि वरूण के भड़काऊ बयानों में वो अपने पुराने दिनों की मिरर इमेज देख रहे।
जब गुजरात दंगे हुये तब भी आडवाणी जी की वीकनेस नजर आयी। मोदी के खिलाफ चूं नहीं कर पाये। अहमदाबाद की सड़कों पर लाशे बिछा दी गयीं पर मोदी सरकार पर उंगली नहीं उठायी। सहयोगियों ने धिक्कारा मगर आडवाणी मोदी पर चुप्पी मारे बैठे रहे। देश के सबसे बड़े और लंबे दंगे गुजरात में हुये मगर पूर्व गृहमंत्री लाल कृष्ण आडवाणी इतनी हिम्मत नहीं जुटा पाये कि मोदी से इस्तीफा मांग लें। वाजपेयी ने भी मोदी को राजधर्म का पाठ पढ़ाया मगर आडवाणी के हिम्मत की दाद देनी होगी। मोदी के साथ और मोदी के लिये डटे रहे। बड़े हिम्मती उप प्रधानमंत्री थे। वीक होते तो इस्तीफा दे देते।
चलिये, अब तो गुजरात हाईकोर्ट कह रहा कि धर्म के नाम पर दंगे करवाना एक प्रकार का आतंकवाद है। आज अदालत मोदी की वरिष्ठ कैबिनेट सहयोगी और दंगों की मुख्य आरोपी माया कोडनानी की बेल ऐप्लीकेशन रिजेक्ट करके उन्हे जेल भेजता है। तो क्या आडवाणी मोदी को कहेंगे जो फरवरी 2002 में हुया उसके लिये आप गुजरात की जनता से माफी मांगिये। आडवाणी जी क्या ये हिम्मत जुटा पायेंगे। मोदी से पंगा ले पायेंगे। फिर वही वीकनेस।
आडवाणी जी अगर वीक न होते तो क्या नवीन पटनायक उन्हे छोड़ कर जाते। आडवाणी वीक न होते तो क्या कंधमाल में वीएचपी और संघ के लुम्पेन तत्वों का वो नंगा नाच होता। एक स्वामी की हत्या को राजनीतिक रंग दिया गया क्या वो रोका नहीं जा सकता था। इससे पहले भी ग्राहम स्टेन्स के मामले में भी आडवाणी चुप थे। तब भी तो वो देश के गृहमंत्री थे। मगर वीक थे। क्या करते।
जब अयोध्या में बाबरी मस्जिद गिरायी गयी तब भी उपद्रवियो को रोकने की हिम्मत नहीं जुटा पाये। शोक में चले गये। वीकनेस के कारण 'आंखे से आंसू छलक' आये थे।
कहीं ऐसा तो नहीं कि आडवाणी की पार्टी में चल ही नहीं रही हो। कहीं ऐसा तो नहीं उनके अपने ही उनकी न सुन रहे हों। भीष्म पितामह को मानते तो सब हैं कि उनसे बड़ा योद्धा कोई नहीं, लेकिन पितामह की सुनता कोई नहीं। सुधांशु मित्तल एपीसोड से तो आडवाणी के लाडले जेटली भी आडवाणी को मुंह बिचकाते दिखे। एक पल के लिये अगर ये मान भी लें कि आप प्रधानमंत्री बन जाते हैं तो क्या आज शपथ ले कर कह पायेंगे सत्ता का कंट्रोल और रिमोट कंट्रोल दोनो आप के हाथ में ही होगा --- राजनाथ, जेटली, नरेन्द्र मोदी और वरूण गांधी के हाथ में नहीं। मोहन भागवत के हाथ में नहीं। प्रमोद मुथाल्लिक के हाथ में नहीं।
मध्य प्रदेश के अपने यंग लीडर से कुछ सीखिये। शिवराज सिंह चौहान ने दो टूक कह दिया प्रचार के लिये नहीं चाहिये वरूण। जिस दिन वरूण की सीडी का खुलासा हुया सुना उस दिन शिवराज कुछ मुस्लिम महिलायों से मिले थे। ये भरोसा जताने के लिये कि उनके खित्ते में वरूण जैसा मजहवी जहर घोलने की इजाजत किसी को नहीं दी जायेगी। क्योंकि मैं सर्वजन का मुख्यमंत्री हूं। शिवराज ने वीकनेस दरकिनार की और हिम्मत दिखायी। आडवाणी जी आप भी तो सर्वजन का प्रधानमंत्री बनने का दावा कर सकते हैं। तो छोड़िये वीकनेस और दिखाइये हिम्मत।
आडवाणी जब गृह मंत्री थे तब वीक दिखे,उप प्रधानमंत्री बने तो चेलों ने वीक कर दिया,और अब प्रधानमंत्री की दावेदारी कर रहे तो वरूण ने भी वीकनेस पर चोट कर दी। वीकनेस के इतने लंबे एक्सपीरियेंस वाले आडवाणी पहले ऐसे नेता होंगे जो कि ऐलानिया 7 रेस कोर्स की दौड़ में हैं।
लाल कृष्ण आडवाणी कहते हैं मनमोहन सिंह वीक प्राइम मिनिस्टर हैं। यूपीए की सत्ता का रिमोट कंट्रोल पांच साल 10 जनपथ यानि सोनिया गांधी के पास था। मान लिया। लेकिन आडवाणी जी वरूण के मामले पर आप क्यों चुप बैठे हैं। वरूण के जहरीले भाषण के बाद एक बार भी बयानों को कंडेम नहीं किया। एक बार भी उनकी तरफ से ये बयान नहीं आया कि पार्टी ऐसे लोगों से कोई रिश्ता नहीं रखना चाहती। एक बार भी पार्टी को नहीं कहा कि वरूण के खिलाफ कार्यवाई होनी चाहिये। अटल जी के रिटायरमेंट के बाद पार्टी में आप सबसे वरिष्ठ हैं, प्रधानमंत्री पद के दावेदार भी हैं। तो एक बार भी ये कहने की हिम्मत क्यों नहीं जुटा पाये कि वरूण को टिकट देकर गल्ती हुयी। एक बार भी वरूण से ये नहीं कहा कि जनता से अपनी गल्ती की माफी मांगे। एक बार भी वरूण को नहीं समझाया कि माफी नहीं मांगी तो सीट जायेगी। एक बार भी क्या पार्टी अध्यक्ष या दूसरे वरिष्टठ नेताओं को समझाया कि मुझे वरूण जैसे नेताओं की बदौलत प्रधानमंत्री बनना स्वीकार नहीं। एक बार भी मंच पर खड़े होकर ये नहीं कहा पार्टी का कोई भी नेता अगर धर्म के नाम पर राजनीति करता है तो बर्दाश्त नहीं किया जायेगा। ये सब कहते तो लोग आपको वीक कहते। इसलिये आप मौन रहे।
एक बार भी क्या सहयोगी दलों के दर्द को समझा कि वो क्या जवाब देंगे अपने वोटरों को। नीतिश ने तो समझाया भी। इशारा भी किया कि वरूण का टिकट काट दो। अब भी मौका है। लेकिन आडवाणी वरूण को ड्राप करने के लिये तैयार ही नहीं। उनकी वीकनेस तो बस इतनी है कि वरूण के भड़काऊ बयानों में वो अपने पुराने दिनों की मिरर इमेज देख रहे।
जब गुजरात दंगे हुये तब भी आडवाणी जी की वीकनेस नजर आयी। मोदी के खिलाफ चूं नहीं कर पाये। अहमदाबाद की सड़कों पर लाशे बिछा दी गयीं पर मोदी सरकार पर उंगली नहीं उठायी। सहयोगियों ने धिक्कारा मगर आडवाणी मोदी पर चुप्पी मारे बैठे रहे। देश के सबसे बड़े और लंबे दंगे गुजरात में हुये मगर पूर्व गृहमंत्री लाल कृष्ण आडवाणी इतनी हिम्मत नहीं जुटा पाये कि मोदी से इस्तीफा मांग लें। वाजपेयी ने भी मोदी को राजधर्म का पाठ पढ़ाया मगर आडवाणी के हिम्मत की दाद देनी होगी। मोदी के साथ और मोदी के लिये डटे रहे। बड़े हिम्मती उप प्रधानमंत्री थे। वीक होते तो इस्तीफा दे देते।
चलिये, अब तो गुजरात हाईकोर्ट कह रहा कि धर्म के नाम पर दंगे करवाना एक प्रकार का आतंकवाद है। आज अदालत मोदी की वरिष्ठ कैबिनेट सहयोगी और दंगों की मुख्य आरोपी माया कोडनानी की बेल ऐप्लीकेशन रिजेक्ट करके उन्हे जेल भेजता है। तो क्या आडवाणी मोदी को कहेंगे जो फरवरी 2002 में हुया उसके लिये आप गुजरात की जनता से माफी मांगिये। आडवाणी जी क्या ये हिम्मत जुटा पायेंगे। मोदी से पंगा ले पायेंगे। फिर वही वीकनेस।
आडवाणी जी अगर वीक न होते तो क्या नवीन पटनायक उन्हे छोड़ कर जाते। आडवाणी वीक न होते तो क्या कंधमाल में वीएचपी और संघ के लुम्पेन तत्वों का वो नंगा नाच होता। एक स्वामी की हत्या को राजनीतिक रंग दिया गया क्या वो रोका नहीं जा सकता था। इससे पहले भी ग्राहम स्टेन्स के मामले में भी आडवाणी चुप थे। तब भी तो वो देश के गृहमंत्री थे। मगर वीक थे। क्या करते।
जब अयोध्या में बाबरी मस्जिद गिरायी गयी तब भी उपद्रवियो को रोकने की हिम्मत नहीं जुटा पाये। शोक में चले गये। वीकनेस के कारण 'आंखे से आंसू छलक' आये थे।
कहीं ऐसा तो नहीं कि आडवाणी की पार्टी में चल ही नहीं रही हो। कहीं ऐसा तो नहीं उनके अपने ही उनकी न सुन रहे हों। भीष्म पितामह को मानते तो सब हैं कि उनसे बड़ा योद्धा कोई नहीं, लेकिन पितामह की सुनता कोई नहीं। सुधांशु मित्तल एपीसोड से तो आडवाणी के लाडले जेटली भी आडवाणी को मुंह बिचकाते दिखे। एक पल के लिये अगर ये मान भी लें कि आप प्रधानमंत्री बन जाते हैं तो क्या आज शपथ ले कर कह पायेंगे सत्ता का कंट्रोल और रिमोट कंट्रोल दोनो आप के हाथ में ही होगा --- राजनाथ, जेटली, नरेन्द्र मोदी और वरूण गांधी के हाथ में नहीं। मोहन भागवत के हाथ में नहीं। प्रमोद मुथाल्लिक के हाथ में नहीं।
मध्य प्रदेश के अपने यंग लीडर से कुछ सीखिये। शिवराज सिंह चौहान ने दो टूक कह दिया प्रचार के लिये नहीं चाहिये वरूण। जिस दिन वरूण की सीडी का खुलासा हुया सुना उस दिन शिवराज कुछ मुस्लिम महिलायों से मिले थे। ये भरोसा जताने के लिये कि उनके खित्ते में वरूण जैसा मजहवी जहर घोलने की इजाजत किसी को नहीं दी जायेगी। क्योंकि मैं सर्वजन का मुख्यमंत्री हूं। शिवराज ने वीकनेस दरकिनार की और हिम्मत दिखायी। आडवाणी जी आप भी तो सर्वजन का प्रधानमंत्री बनने का दावा कर सकते हैं। तो छोड़िये वीकनेस और दिखाइये हिम्मत।
आडवाणी जब गृह मंत्री थे तब वीक दिखे,उप प्रधानमंत्री बने तो चेलों ने वीक कर दिया,और अब प्रधानमंत्री की दावेदारी कर रहे तो वरूण ने भी वीकनेस पर चोट कर दी। वीकनेस के इतने लंबे एक्सपीरियेंस वाले आडवाणी पहले ऐसे नेता होंगे जो कि ऐलानिया 7 रेस कोर्स की दौड़ में हैं।
किसने कहा हंसना मना है
बहुत दिनों बाद टीवी पर आडवाणी जी को हंसते देखा। राजनेता को हंसना चाहिए। डॉक्टर से लेकर योगी तक कहते हैं हंसा कीजिए। आडवाणी जी सार्वजनिक जीवन में कम हंसते हैं। हंसते हैं तो आंखें बंद हो जाती हैं। हंसते हुए ऐसी झेंप बहुत कम नेताओं के मुख मंडल पर अवतरित होती है। अटल बिहारी वाजपेयी खुल कर हंसते थे। गंभीर मुद्दों पर भी हंस देते थे। मनमोहन सिंह मुस्कुराते हैं। हंसते नहीं हैं। स्माइल टेक्नॉलजी में एम ए हैं। सोनिया गांधी हंसती हैं। एनडीटीवी इंडिया के संवाददाता विक्रांत सिंह ने जब सोनिया गांधी से पूछा कि राहुल गांधी कब आएंगे तो सोनिया विक्रांत के सवालों पर ठिठोली करने लगीं। मेनिफेस्टो उठा कर बोली कि कहां दिखते हैं राहुल। प्रकाश करात थोड़ा थोड़ा हंसते हैं। मुलायम और मायावती हंसने के खिलाफ लड़ रहे हैं। अरुण जेटली हर सवाल पर इतने गंभीर हो जाते हैं कि जैसे तुर्की व तुर्की ऑपरेशन करके ही दम लेंगे। वो अपनी दलीलों को लेकर सीरीयस हो जाते हैं। जैसे हर समय मी लॉर्ड सामने हों और दलील देते वक्त हंसना मना हो। रविशंकर प्रसाद थोड़ा खुल कर हंस लेते हैं बल्कि कई बार ठठा कर हंस देते हैं। शत्रुध्न सिंहा की हाहा हंसी निराली है। अमर सिंह भी खूब हंसते हैं। वो हर प्रकार की हंसी का प्रयोग करते हैं। हाहा से लेकर हीही और खी खी तक की हंसी। उनके पास ज़्यादा भेरायटी है।
अशोक गहलोत न ही हंसे तो अच्छा। हंसते हुए भी लगता है रोते हैं। भूपेंद्र सिंह हुडा के चेहरे से हंसी पर फैलने सिकुड़ने वाली सभी प्रकार की चमड़ी और धमनी गायब है। शिवराज सिंह चौहान थोड़ी खिलखिलाती हंसी का इस्तमाल करते हैं। रमन सिंह मुस्की छाप मुस्कुराते हैं। नरेंद्र मोदी हंसते नहीं पर व्यंग्य कर लेते हैं। शरद पवार हंसाते नहीं बल्कि हंसते हुए कुछ कह देते हैं। हंसी पर पवार का यह अहसान सदियों याद किया जाएगा। नीतीश कुमार भी बोर हैं। ऐसे बड़े हुए हैं जैसे मां बाप से डांट खाते हुए बड़े हुए हों जहां हंसने पर एक लप्पड़ रसीद कर दिया जाता हो। नीतीश ही नहीं हमारे ज़्यादातर नेताओं का यही हाल है। सार्वजनिक जीवन की तमाम छवियां इन्हीं की बनाईं हुई हैं। एक हंसने की बना देते तो कोई क्या बिगाड़ लेता।
रही बात लालू प्रसाद यादव की तो ये हंस कर ही सबसे अलग हो गए। अब लालू ने हंसाना बंद कर दिया है। हंसाने के सारे मुहावरे लालू के गायब हो चुके हैं। जिस टीवी ने लालू को ड्राइंग रूम में पहुंचाया उसी ने लालू को ड्राइंग रूम का स्थायी नेता बना दिया। लालू की छवि टीवी वाली है। जब से लालू यादव ने विकास की राजनीति का फैसला किया है तब से वे हंसना छोड़ आंकड़ों को रटने लगे हैं। बहुत दिनों से लालू ने कोई नया मुहावरा या लतीफा नहीं गढ़ा। फिर भी लालू की हंसी का जवाब नहीं। लालू हंसते हैं तो सब हंसते हैं। अब लालू के पास जाइये तो हंसी को लेकर सीरीयस हो जाते हैं। उनके सलाहकारों ने गलत सलाह दे दी है कि अब आप मत हंसिये वर्ना आईआईएम अहमदाबाद और हावर्ड वाला सीरीयसली नहीं लेवेगा।
अब तो टीवी वाले भी लालू को मिस नहीं करते। राजू श्रीवास्तव लालू के मुहावरे पर चलते हुए सामाजिक टीका टिप्पणी में आगे निकल गए हैं। राजू टीवी के नए लालू हैं और लालू अब जेंटलमैन होते जा रहे हैं। वे अब सत्तू, चोखा, लाठी और लोटा की बात नहीं करते। विकास की राजनीति के प्रतीक बनने के लिए इन सब मुहावरों की बलि दे दी लालू ने। पिछले २० सालों से दिल्ली और पटना के सिस्टम के पार्ट हैं। अब लालू के पास कोई नया चैलेंज नहीं बचा है इसलिए उनकी हंसी पुरानी पड़ रही है।
ऐसे में झेंप से ही सही कोई राजनेता या कहें कि आडवाणी हंसना शुरू करे तो स्वागत करना चाहिए। हंसने से तबीयत ठीक होती है और पता चलता है कि वरुण की तरह बोलकर हिंसक होने में कोई मज़ा नहीं है। रामायण सीरीयल में देखा था, राम वनवास के लिए निकल रहे थे लेकिन तब भी उनके चेहरे पर मुस्कान थी। अपने नेता भाई लोग राम मंदिर बनाने रथ पर निकले तो हंसी वही पहिये के नीचे गाड़ दी। हंसते हंसते राम मंदिर नहीं बन सकता क्या। लड़ते लड़ते और बकते बकते कौन सा अचूक फार्मूला मिल गया है भाई लोगों को।
इन सब नेताओं को लाफ्टर चैलेंज दिखाया जाए। गंगूबाई से सीखना चाहिए। वर्ना अटल बिहारी वाजपेयी और लालू प्रसाद अब भी लाफ्टर चैंपियन बने हुए हैं। दुख इस बात का है कि ये चैंपियन भी अब पांच साल पहले के ओलंपिक के गोल्ड मेडलिस्ट हैं। इस बार तो रिटायर से लगते हैं। इस बार के इलेक्शन में कोई ऐसा नेता ही नहीं है, जो हंसा कर मुद्दों को ज़रा गंभीर कर दे। इतना गंभीर कर देते हैं कि लगता है मुद्दों के लोड से नेता जी को स्पोडिलाइटिस हो जाएगा।
अशोक गहलोत न ही हंसे तो अच्छा। हंसते हुए भी लगता है रोते हैं। भूपेंद्र सिंह हुडा के चेहरे से हंसी पर फैलने सिकुड़ने वाली सभी प्रकार की चमड़ी और धमनी गायब है। शिवराज सिंह चौहान थोड़ी खिलखिलाती हंसी का इस्तमाल करते हैं। रमन सिंह मुस्की छाप मुस्कुराते हैं। नरेंद्र मोदी हंसते नहीं पर व्यंग्य कर लेते हैं। शरद पवार हंसाते नहीं बल्कि हंसते हुए कुछ कह देते हैं। हंसी पर पवार का यह अहसान सदियों याद किया जाएगा। नीतीश कुमार भी बोर हैं। ऐसे बड़े हुए हैं जैसे मां बाप से डांट खाते हुए बड़े हुए हों जहां हंसने पर एक लप्पड़ रसीद कर दिया जाता हो। नीतीश ही नहीं हमारे ज़्यादातर नेताओं का यही हाल है। सार्वजनिक जीवन की तमाम छवियां इन्हीं की बनाईं हुई हैं। एक हंसने की बना देते तो कोई क्या बिगाड़ लेता।
रही बात लालू प्रसाद यादव की तो ये हंस कर ही सबसे अलग हो गए। अब लालू ने हंसाना बंद कर दिया है। हंसाने के सारे मुहावरे लालू के गायब हो चुके हैं। जिस टीवी ने लालू को ड्राइंग रूम में पहुंचाया उसी ने लालू को ड्राइंग रूम का स्थायी नेता बना दिया। लालू की छवि टीवी वाली है। जब से लालू यादव ने विकास की राजनीति का फैसला किया है तब से वे हंसना छोड़ आंकड़ों को रटने लगे हैं। बहुत दिनों से लालू ने कोई नया मुहावरा या लतीफा नहीं गढ़ा। फिर भी लालू की हंसी का जवाब नहीं। लालू हंसते हैं तो सब हंसते हैं। अब लालू के पास जाइये तो हंसी को लेकर सीरीयस हो जाते हैं। उनके सलाहकारों ने गलत सलाह दे दी है कि अब आप मत हंसिये वर्ना आईआईएम अहमदाबाद और हावर्ड वाला सीरीयसली नहीं लेवेगा।
अब तो टीवी वाले भी लालू को मिस नहीं करते। राजू श्रीवास्तव लालू के मुहावरे पर चलते हुए सामाजिक टीका टिप्पणी में आगे निकल गए हैं। राजू टीवी के नए लालू हैं और लालू अब जेंटलमैन होते जा रहे हैं। वे अब सत्तू, चोखा, लाठी और लोटा की बात नहीं करते। विकास की राजनीति के प्रतीक बनने के लिए इन सब मुहावरों की बलि दे दी लालू ने। पिछले २० सालों से दिल्ली और पटना के सिस्टम के पार्ट हैं। अब लालू के पास कोई नया चैलेंज नहीं बचा है इसलिए उनकी हंसी पुरानी पड़ रही है।
ऐसे में झेंप से ही सही कोई राजनेता या कहें कि आडवाणी हंसना शुरू करे तो स्वागत करना चाहिए। हंसने से तबीयत ठीक होती है और पता चलता है कि वरुण की तरह बोलकर हिंसक होने में कोई मज़ा नहीं है। रामायण सीरीयल में देखा था, राम वनवास के लिए निकल रहे थे लेकिन तब भी उनके चेहरे पर मुस्कान थी। अपने नेता भाई लोग राम मंदिर बनाने रथ पर निकले तो हंसी वही पहिये के नीचे गाड़ दी। हंसते हंसते राम मंदिर नहीं बन सकता क्या। लड़ते लड़ते और बकते बकते कौन सा अचूक फार्मूला मिल गया है भाई लोगों को।
इन सब नेताओं को लाफ्टर चैलेंज दिखाया जाए। गंगूबाई से सीखना चाहिए। वर्ना अटल बिहारी वाजपेयी और लालू प्रसाद अब भी लाफ्टर चैंपियन बने हुए हैं। दुख इस बात का है कि ये चैंपियन भी अब पांच साल पहले के ओलंपिक के गोल्ड मेडलिस्ट हैं। इस बार तो रिटायर से लगते हैं। इस बार के इलेक्शन में कोई ऐसा नेता ही नहीं है, जो हंसा कर मुद्दों को ज़रा गंभीर कर दे। इतना गंभीर कर देते हैं कि लगता है मुद्दों के लोड से नेता जी को स्पोडिलाइटिस हो जाएगा।
हनुमान, ज़मानत और सलामत
ऐ हनुमान राम के घर मेरी ज़मानत रखना
मेरी ज़िंदगी, मेरी मन्जू को सलामत रखना
( दिल्ली के मूलचंद फ्लाईओवर के नीचे एक हरे रंग के ऑटो के पीछे ये लिखा था।)
मेरी ज़िंदगी, मेरी मन्जू को सलामत रखना
( दिल्ली के मूलचंद फ्लाईओवर के नीचे एक हरे रंग के ऑटो के पीछे ये लिखा था।)
बोर्नभिटा ब्वॉय और पोलिटिक्स
कमज़ोर प्रधानमंत्री या मज़बूत प्रधानमंत्री क्या होता है? कोई दंगल खोल रखा क्या सेभुन रेसकोर्स में भाई लोग? अजब हाल है पोलिटिक्स का। बुढ़ारी में आडवाणी जी जवान हो रहे हैं। ऐसे फोटू खिंचा रहे हैं जैसे तीन बोतल सिंकारा और पांच बोतल मुगली घुट्टी गटक चुके हैं। कॉप्लान से लेकर बॉर्नभिटा तक दूध में फेंट कर गटा गटा पी चुके हैं। क्या भाई? सेभुन रेसकोर्स में क्या आप कुश्ती करने वाले हैं? दिमाग से ही काम करेंगे न?
और मनमोहन भाई को क्या हो गया है? ऐसा कौन सा काम आप कर दिये हैं कि मजबूती बखान रहे हैं। पीएम की रक्षा करती है सोनिया...लाइफब्वाय है जहां तंदुरुस्ती है वहां। अकेले निकल के जरा बोलिये न। पांच साल बाद अब जाके मुंह से बकार निकला है। वैसे जवाब सही दिया है भाई ने बड़े भाई को। चिरयुवा आडवाणी जी की बोलती बंद कर दी। दो कौड़ी का मुद्दा है ये कमज़ोर प्रधानमंत्री वाला। अटल जी मज़बूते थे तो क्या गठबंधन की मजबूरी से निपट लिये का। काहे नहीं बनवा दिये राम मंदिर। वीएचपी वाले डिजाइन,ईंटा सिमेंट लेकर घूमते रहे। बाप रे,पाठकों पूछो मत,कहां से एनडीए वाले एक ठो फ्राड शंकराचार्य को पकड़ लाए। कांची वाले। जो बाद में हिंदू धर्म की रक्षा करते हुए जेल भी गए। जिनके जेल जाने को लेकर गर्व करने वाले किसी फंटूस हिंदू का खून ही नहीं ब्वायल हुआ। मंदिर नहीं बना सके। बहुत मज़बूत थे अटल जी तो मोदी के आगे काहे झुके। जब मोदी ठीक ही थे बेचारे तो राजधर्म की रक्षा का सबक काहे दिये। पोलिटिक्स पढ़ाते हैं का हमको। बूझते नहीं हैं। त्याग कर देते न राम की तरह अयोध्या का राज पाट। किसी नायडू को खड़ाऊं देकर निकल जाते। आंदोलन करने। आंदोलन कहते हैं न भाई लोग।
दरअसल दोस्तों, राजनीति ताकत का खेल नहीं है। ये कोई सर्वशक्तिमान सीरीयल नहीं है। प्लीज़। अक्षय कुमार को बना दीजिए न प्रधानमंत्री। मनमोहन सिंह किसी काम के प्रधानमंत्री नहीं है। लेकिन ईमानदार हैं। हां मजबूर हैं। गठबंधन में मजबूरी एक कला है। इस कला का सम्मान करके ही अपने अटली जी नेता हुए। मनमोहन सिंह भी तो यही कर रहे हैं। आर्थिक मंदी पर क्या बकते हैं यही जाने। अर्थशास्त्र कुछ बेसी पढ़ लिये हैं। मनमोहन सिंह को कहना चाहिए कि हां मैं कमज़ोर हूं। कमज़ोर नहीं रहता तो मेरा चुनाव इस पद के लिए नहीं होता। प्रणब और अर्जुन सिंह थे न मजबूत एंड कांप्लान ब्वाय। अर्जुन सिंह रामशरण जोशी जी से संस्मरण लिखवा रहे हैं। राजनीति में मरण की घड़ी में संस्मरण ही काम आते हैं।
खैर मजबूत नेता कोई नहीं है। जे बा से इ बात ठीक कह रहे हैं। न अटल मजबूत हुए न आडवाणी न मनमोहन। बकवास मुद्दा है। मज़बूती का। सवाल सेभुन रेसकोर्स की मर्यादा का नहीं है। सवाल काम का है। आपके काम से पब्लिक को फायदा हुआ या नहीं। जे बताइये पब्लिक को। कितना दंड पेल कर और नाश्ते में दो दुकड़ा पपीता खाकर जवान बने हुए हैं ये मत बताइये।
शरीर नश्वर है। आत्म न मर सकती है न कोई इसे मार सकता है। हम सबमें एक ऐसी आत्मा है। उस अमर आत्मा की सुनिये और काम कीजिए। लबरई मत हांकिये। लबरई का मतलब झूठ होता है। इसलिए प्रिय पाठकों,बात कुछ नहीं है। बुढ़ापे में आडवाणी और मनमोहन को जवान दिखने का शौक चढ़ गया है। बूढ़ घोड़ी के लाल लगाम। भोजपुरी में कहावत है।
जवान होना प्राइवेट मसला है। इसके लिए कोई बाबा रामदेव के पास जाए या मर्दाना ताकत बढ़ाने वाली दवाओं का विज्ञापन काट कर रखे। इसको पब्लिक में मत डिस्कस यानी चर्चा करो। चुपचाप तंबू में घुसो,नाक से बोलने वाले बाबाओं की सुनो और शिलाजीत खाकर निकल आओ। जहां आजमाना है वहां आजमाओ। पोलिटिक्स को ताकत रहित रहने दो। अखाड़ा नहीं है न जी।
खिजाब लगाकर हर दिन वो हो रहे हैं जवान।
सफेद बालों को छोड़ जवानी कब की जा चुकी है।
और मनमोहन भाई को क्या हो गया है? ऐसा कौन सा काम आप कर दिये हैं कि मजबूती बखान रहे हैं। पीएम की रक्षा करती है सोनिया...लाइफब्वाय है जहां तंदुरुस्ती है वहां। अकेले निकल के जरा बोलिये न। पांच साल बाद अब जाके मुंह से बकार निकला है। वैसे जवाब सही दिया है भाई ने बड़े भाई को। चिरयुवा आडवाणी जी की बोलती बंद कर दी। दो कौड़ी का मुद्दा है ये कमज़ोर प्रधानमंत्री वाला। अटल जी मज़बूते थे तो क्या गठबंधन की मजबूरी से निपट लिये का। काहे नहीं बनवा दिये राम मंदिर। वीएचपी वाले डिजाइन,ईंटा सिमेंट लेकर घूमते रहे। बाप रे,पाठकों पूछो मत,कहां से एनडीए वाले एक ठो फ्राड शंकराचार्य को पकड़ लाए। कांची वाले। जो बाद में हिंदू धर्म की रक्षा करते हुए जेल भी गए। जिनके जेल जाने को लेकर गर्व करने वाले किसी फंटूस हिंदू का खून ही नहीं ब्वायल हुआ। मंदिर नहीं बना सके। बहुत मज़बूत थे अटल जी तो मोदी के आगे काहे झुके। जब मोदी ठीक ही थे बेचारे तो राजधर्म की रक्षा का सबक काहे दिये। पोलिटिक्स पढ़ाते हैं का हमको। बूझते नहीं हैं। त्याग कर देते न राम की तरह अयोध्या का राज पाट। किसी नायडू को खड़ाऊं देकर निकल जाते। आंदोलन करने। आंदोलन कहते हैं न भाई लोग।
दरअसल दोस्तों, राजनीति ताकत का खेल नहीं है। ये कोई सर्वशक्तिमान सीरीयल नहीं है। प्लीज़। अक्षय कुमार को बना दीजिए न प्रधानमंत्री। मनमोहन सिंह किसी काम के प्रधानमंत्री नहीं है। लेकिन ईमानदार हैं। हां मजबूर हैं। गठबंधन में मजबूरी एक कला है। इस कला का सम्मान करके ही अपने अटली जी नेता हुए। मनमोहन सिंह भी तो यही कर रहे हैं। आर्थिक मंदी पर क्या बकते हैं यही जाने। अर्थशास्त्र कुछ बेसी पढ़ लिये हैं। मनमोहन सिंह को कहना चाहिए कि हां मैं कमज़ोर हूं। कमज़ोर नहीं रहता तो मेरा चुनाव इस पद के लिए नहीं होता। प्रणब और अर्जुन सिंह थे न मजबूत एंड कांप्लान ब्वाय। अर्जुन सिंह रामशरण जोशी जी से संस्मरण लिखवा रहे हैं। राजनीति में मरण की घड़ी में संस्मरण ही काम आते हैं।
खैर मजबूत नेता कोई नहीं है। जे बा से इ बात ठीक कह रहे हैं। न अटल मजबूत हुए न आडवाणी न मनमोहन। बकवास मुद्दा है। मज़बूती का। सवाल सेभुन रेसकोर्स की मर्यादा का नहीं है। सवाल काम का है। आपके काम से पब्लिक को फायदा हुआ या नहीं। जे बताइये पब्लिक को। कितना दंड पेल कर और नाश्ते में दो दुकड़ा पपीता खाकर जवान बने हुए हैं ये मत बताइये।
शरीर नश्वर है। आत्म न मर सकती है न कोई इसे मार सकता है। हम सबमें एक ऐसी आत्मा है। उस अमर आत्मा की सुनिये और काम कीजिए। लबरई मत हांकिये। लबरई का मतलब झूठ होता है। इसलिए प्रिय पाठकों,बात कुछ नहीं है। बुढ़ापे में आडवाणी और मनमोहन को जवान दिखने का शौक चढ़ गया है। बूढ़ घोड़ी के लाल लगाम। भोजपुरी में कहावत है।
जवान होना प्राइवेट मसला है। इसके लिए कोई बाबा रामदेव के पास जाए या मर्दाना ताकत बढ़ाने वाली दवाओं का विज्ञापन काट कर रखे। इसको पब्लिक में मत डिस्कस यानी चर्चा करो। चुपचाप तंबू में घुसो,नाक से बोलने वाले बाबाओं की सुनो और शिलाजीत खाकर निकल आओ। जहां आजमाना है वहां आजमाओ। पोलिटिक्स को ताकत रहित रहने दो। अखाड़ा नहीं है न जी।
खिजाब लगाकर हर दिन वो हो रहे हैं जवान।
सफेद बालों को छोड़ जवानी कब की जा चुकी है।
टीवी गोबर का पहाड़ है
आठ विचारक और एक एंकर
भन्न भन्न भन्नाते हैं
कौन बनेगा पीएम अबकी
बक बक बक जाते हैं
ज़रा ज़रा करते करते
जब सारे थक जाते हैं
वक्त ब्रेक का आ जाता है
साबुन तेल बिक जाते हैं
घंटा खाक नहीं मालूम इनको
बीच बीच में चिल्लाते हैं
हर चुनाव में वही चर्चा
चर्चा के पीछे लाखों खर्चा
कौन बनेगा प्रधानमंत्री सनम
क्या कर लोगों जान कर
कहते हैं सब बिन मुद्दे की मारामारी
इस चुनाव में पीएम की तैयारी
भन्न भन्न भन्नाते हैं
माइक लिए तनिक सनम जी
गांव गांव घूम आते हैं
पूछ पूछ कर सब सवाल
दे दे कर सब निहाल
अपने जवाबों पर इतराते हैं
फटीचर फटीचर फटीचर है
टीवी साला फटीचर है
अंग्रेजी हो या हिंदी हो या फिर गुजराती
घंटा खाक नहीं मालूम
झाड़े चले जाते हैं बोकराती
बंद करो अब टीवी को
टीवी साला खटाल है
दूध जितना का न बिकता
उससे बेसी गोबर का पहाड़ है
( कृपया मुझसे न कहें कि मैं क्या कर रहा हूं। मैं गोबर पाथूं या गोइठा ठोकूं, आप बस कविता पढ़िये)
भन्न भन्न भन्नाते हैं
कौन बनेगा पीएम अबकी
बक बक बक जाते हैं
ज़रा ज़रा करते करते
जब सारे थक जाते हैं
वक्त ब्रेक का आ जाता है
साबुन तेल बिक जाते हैं
घंटा खाक नहीं मालूम इनको
बीच बीच में चिल्लाते हैं
हर चुनाव में वही चर्चा
चर्चा के पीछे लाखों खर्चा
कौन बनेगा प्रधानमंत्री सनम
क्या कर लोगों जान कर
कहते हैं सब बिन मुद्दे की मारामारी
इस चुनाव में पीएम की तैयारी
भन्न भन्न भन्नाते हैं
माइक लिए तनिक सनम जी
गांव गांव घूम आते हैं
पूछ पूछ कर सब सवाल
दे दे कर सब निहाल
अपने जवाबों पर इतराते हैं
फटीचर फटीचर फटीचर है
टीवी साला फटीचर है
अंग्रेजी हो या हिंदी हो या फिर गुजराती
घंटा खाक नहीं मालूम
झाड़े चले जाते हैं बोकराती
बंद करो अब टीवी को
टीवी साला खटाल है
दूध जितना का न बिकता
उससे बेसी गोबर का पहाड़ है
( कृपया मुझसे न कहें कि मैं क्या कर रहा हूं। मैं गोबर पाथूं या गोइठा ठोकूं, आप बस कविता पढ़िये)
माय डियर ग़रीबों, तुम भी एक सपना देखो
फिर से एक ज़िद पैदा हो रही है
देर से ही सही, बहुत दिन बाद सही
देखूंगा एक शानदार सपना फिर से
जवानी की तरह भावनाओं को लगा दूंगा
उतार चढ़ाव के रास्तों से गुज़र जाऊंगा
बिना रास्ते के चलता चला जाऊंगा
खुद को कुचलता हुआ, खुद को ढूंढता हुआ
उसकी ज़ुल्फों के अंधेरे से देखता हुआ
पाश की कविताओं से झुर्रियों को मिटाता हुआ
प्रेम को स्थगित करने से पहले प्रवाहित होकर
कम्युनिस्टों के पतन के इस काल में
कांग्रेस से समर्थन वापस लेकर
नायडू से मिलता हुआ कहीं चला जाऊंगा
हिंदुओं को बचाने के संघर्ष में वरुणों से मिलकर
मुसलमानों से कहता चला जाऊंगा
तुम भी देखो, फिर से देखो मेरे जैसा सपना
देर से ही सही, बहुत दिनों बाद सही
सोनिया के वादों से निकलने की चाहत पैदा कर
किसी मायावती के जाल में उलझने से पहले
चख लो समाजवादी के फेंके हुए दानों का स्वाद
सेक्युलर होने के तमाम रास्तों पर कम्युनलों से
खुलकर कर लो तुम मुलाकात
महान भारत के गर्भ में पल रहे कुंठा का परिष्कार
ये तुम ही करोगे मुसलमान, हिंदू गर्व में डूबा है
तुम किसके प्रेम में डूबते उतराते रहे हो
आओ चलो प्रेम में खुद को प्रवाहित कर
उन हिंदुओं को साथ ले लो जो कुंठित है गर्वहीन हैं
चलो फिसल कर चलते हैं ग़रीबी रेखा से नीचे
जहां हर रेखा एक भद्दी और पिटी हुई लकीर लगती है
किसी अर्थशास्त्री के साथ बैठकर देखते हैं सपना
गर्लफ्रैंड को लेटर लिखने से पहले, लिखेंगे एक चैप्टर
प्यारे ग़रीब, मज़हब ने रास्ता रोक दिया तुम्हारा
वर्ना तुम भी हमारी तरह किसी रेखा से ऊपर होते
ग़लती तुम्हारी भी तो है इसमें
तुमने कहां देखा फिर से कोई शानदार सपना
किसी के दिखाये हुए सपने से रात नहीं कटती है
बिना बताये हुए रास्ते से गुज़रने का हौसला पैदा करो
फिर से अपने भीतर अपना कोई सपना पैदा करो
निकल पड़ो, भावनाओं के उतार चढ़ाव के सफर में
बिना रास्ते के चल पड़ने का साहस फिर पैदा करो
गर्लफ्रैंड को तभी लिख सकेंगे एक अच्छा सा खत
डियर डार्लिंग, एक महीने की बात है, फिर अपनी रात होगी
रेखा के नीचे के लोगों के ऊपर आते ही बचा हुआ वक्त हमारा होगा
तुम्हारे चेहरे पर फिर से फेरता रहूंगा उंगलिया
किसी दुपहरी, सेंट्रल पार्क के बेंच पर मैगी खाते हुए
नवभारत टाइम्स की चादर बनाकर, हिंदुस्तान को ओढ़ कर
टाइम्स ऑफ इंडिया की टोपी पहनकर, दिल्ली टाइम्स में छपे
तमाम नग्न स्तनों से अपनी कल्पनाओं को आबाद कर देंगे
किसी पार्टी में झूमते शराबियों की तस्वीरों से सपना दिखा देंगे
भारत के ग़रीबों रेखा से ऊपर उठकर जब इस तरफ आओगे
ऐसी ही किसी पार्टी में फोटो खिचवाओगे
फिर हमारी तरह चिंताओं के कारोबारी बन जाओगे
गरीबी दूर कर देना एक आसान सपना है
मुश्किल है बिना पैसे के अमीर कहलाना
विकल्प न इधर है न उधर है डार्लिंग
ग़रीबों को हम क्या बतायें रास्ता किधर है
बस एक सपना है, फिर से देखने की चाहत है
माय डियर ग़रीबों तुम भी एक सपना देखो
उतार चढ़ाव से गुज़रने की ज़िंद फिर से पैदा कर लो
अंजाम की मत सोचो, सपने की सोचो तुम
एक ज़िद की तरह देखो अब अपना सपना
देर से ही सही, बहुत दिन बाद सही
देखूंगा एक शानदार सपना फिर से
जवानी की तरह भावनाओं को लगा दूंगा
उतार चढ़ाव के रास्तों से गुज़र जाऊंगा
बिना रास्ते के चलता चला जाऊंगा
खुद को कुचलता हुआ, खुद को ढूंढता हुआ
उसकी ज़ुल्फों के अंधेरे से देखता हुआ
पाश की कविताओं से झुर्रियों को मिटाता हुआ
प्रेम को स्थगित करने से पहले प्रवाहित होकर
कम्युनिस्टों के पतन के इस काल में
कांग्रेस से समर्थन वापस लेकर
नायडू से मिलता हुआ कहीं चला जाऊंगा
हिंदुओं को बचाने के संघर्ष में वरुणों से मिलकर
मुसलमानों से कहता चला जाऊंगा
तुम भी देखो, फिर से देखो मेरे जैसा सपना
देर से ही सही, बहुत दिनों बाद सही
सोनिया के वादों से निकलने की चाहत पैदा कर
किसी मायावती के जाल में उलझने से पहले
चख लो समाजवादी के फेंके हुए दानों का स्वाद
सेक्युलर होने के तमाम रास्तों पर कम्युनलों से
खुलकर कर लो तुम मुलाकात
महान भारत के गर्भ में पल रहे कुंठा का परिष्कार
ये तुम ही करोगे मुसलमान, हिंदू गर्व में डूबा है
तुम किसके प्रेम में डूबते उतराते रहे हो
आओ चलो प्रेम में खुद को प्रवाहित कर
उन हिंदुओं को साथ ले लो जो कुंठित है गर्वहीन हैं
चलो फिसल कर चलते हैं ग़रीबी रेखा से नीचे
जहां हर रेखा एक भद्दी और पिटी हुई लकीर लगती है
किसी अर्थशास्त्री के साथ बैठकर देखते हैं सपना
गर्लफ्रैंड को लेटर लिखने से पहले, लिखेंगे एक चैप्टर
प्यारे ग़रीब, मज़हब ने रास्ता रोक दिया तुम्हारा
वर्ना तुम भी हमारी तरह किसी रेखा से ऊपर होते
ग़लती तुम्हारी भी तो है इसमें
तुमने कहां देखा फिर से कोई शानदार सपना
किसी के दिखाये हुए सपने से रात नहीं कटती है
बिना बताये हुए रास्ते से गुज़रने का हौसला पैदा करो
फिर से अपने भीतर अपना कोई सपना पैदा करो
निकल पड़ो, भावनाओं के उतार चढ़ाव के सफर में
बिना रास्ते के चल पड़ने का साहस फिर पैदा करो
गर्लफ्रैंड को तभी लिख सकेंगे एक अच्छा सा खत
डियर डार्लिंग, एक महीने की बात है, फिर अपनी रात होगी
रेखा के नीचे के लोगों के ऊपर आते ही बचा हुआ वक्त हमारा होगा
तुम्हारे चेहरे पर फिर से फेरता रहूंगा उंगलिया
किसी दुपहरी, सेंट्रल पार्क के बेंच पर मैगी खाते हुए
नवभारत टाइम्स की चादर बनाकर, हिंदुस्तान को ओढ़ कर
टाइम्स ऑफ इंडिया की टोपी पहनकर, दिल्ली टाइम्स में छपे
तमाम नग्न स्तनों से अपनी कल्पनाओं को आबाद कर देंगे
किसी पार्टी में झूमते शराबियों की तस्वीरों से सपना दिखा देंगे
भारत के ग़रीबों रेखा से ऊपर उठकर जब इस तरफ आओगे
ऐसी ही किसी पार्टी में फोटो खिचवाओगे
फिर हमारी तरह चिंताओं के कारोबारी बन जाओगे
गरीबी दूर कर देना एक आसान सपना है
मुश्किल है बिना पैसे के अमीर कहलाना
विकल्प न इधर है न उधर है डार्लिंग
ग़रीबों को हम क्या बतायें रास्ता किधर है
बस एक सपना है, फिर से देखने की चाहत है
माय डियर ग़रीबों तुम भी एक सपना देखो
उतार चढ़ाव से गुज़रने की ज़िंद फिर से पैदा कर लो
अंजाम की मत सोचो, सपने की सोचो तुम
एक ज़िद की तरह देखो अब अपना सपना
क्या आपको भी मायावती से डर लगता है
मायावती से डर लगता है। मुलायम, लालू,नीतीश,मोदी और सोनिया से नहीं लगता। क्यों? लालू, नीतीश और नरेंद्र मोदी के कैबिनेट में कौन से ऐसे मंत्री होंगे जो भारत का नाम रौशन कर देंगे। हम इंडियन लोगों को एक कांप्लेक्स हो गया है। दुनिया में भारत के नाम होने का कांम्पलेक्स। भले ही किसी लीडर से इंडिया में काम न हो लेकिन उससे इंडिया का नाम हो जाए तो वाह वाह। स्कूली किताबों और नेताओं के भाषण ने हमें एकता अखंडता और महानता के वायरस से आजाद नहीं होने दिया है। हर छोटी बातों में इंडिया ग्रेट हो जाता है। महानता के अंहकार से ग्रस्त हो गया है ये मुल्क।
आज हिंदुस्तान में एक सर्वे आया है। कुल ६२२ लोगों में से ७४ फीसदी लोगों को मायावती का पीएम बनना पसंद नहीं हैं। इतनी ही फीसदी लोगों को लगता है कि भारत की विदेशों में छवि ख़राब हो जाएगी। अब इनकी सोच राजनीतिक कारणों से होती तो समझ में आती कि हम पहले से ही किसी पार्टी को पसंद करते हैं तो मायावती के लिए जगह नहीं हैं। मगर इनकी सोच की बुनियाद में एक डर है।
उत्तरप्रदेश की पूरी अस्सी सीटें ही मायावती जीत जाएं तो पीएम बनने से कौन रोक लेगा। यह एक ख्याली बात ज़रूर है मगर इसलिए कह रहा हूं कि इतने बड़े प्रदेश में साफ बहुमत के साथ सरकार चलाने वाली महिला को लेकर अब भी डर है। चार बार मुख्यमंत्री बनना किसी को पसंद नहीं आ रहा। लोग भूल रहे हैं कि उत्तर प्रदेश में मायावती ने खंडित राजनीति को खत्म कर दिया है। अब वहां एक पार्टी की सरकार है। बीजेपी, कांग्रेस अपना वजूद बचाते हुए मुलायम और अजित के सहारे मायावती से लड़ रहे हैं। पहले मायावती सबसे लड़ती थीं और अब सब मायावती से लड़ रहे हैं। यह एक बदलाव मायावती ने अकेले दम पर किया है।
यूपी में मायावती के अस्सी फीसदी विधायक दूसरी जाति से हैं। यानी हर जाति के लोग जो अपर कास्ट कहलाना पसंद करते हैं, मायावती के आदेशों को सर आंखों पर रखते हैं और दौड़े चले आते हैं। एक यह क्रांतिकारी बदलाव है। एक महिला, एक दलित के साथ काम करने के लिए होड़ मची है।
फिर ये ६२२ लोग कौन हैं जिन्हें मायावती से डर लगता है। जिन्हें मायावती के पीएम बनने से भारत की छवि खराब होने की चिंता है। ऐसे मूर्खों से कहना चाहूंगा कि जब एक दलित महिला वो भी लोकतांत्रिक राजनीति से, लड़ कर, संघर्ष कर, (छाती पीट कर नहीं) मुख्यमंत्री बनती है तो भारत की छवि ठीक होती है। दुनिया कहती है कि भारत में लोकतंत्र अब भी कई संभावनाओं से भरा हुआ है। क्या यह संभावना नहीं है कि एक ब्राह्मण नेता एक दलित नेता के साथ मंच पर शान से हाथ हिलाता है? क्या इससे जातिगत पूर्वाग्रहों का मुंह नहीं चिढ़ता होगा। कोई बताये तो ये महिला जो इंडिया नहीं चला सकती,यूपी कैसे चला रही है? कैसे यूपी के पंडितों ने दलितों का भोज खा खाकर बीएसपी के हाथी की सवारी की है? क्या उत्तर प्रदेश में शासन नहीं चल रहा? उतना तो चल ही रहा होगा जहां पंत,वंत,तिवारी विवारी, सिंह विंह जैसे लोग चला कर गए हैं।
अब रही बात पैसे चंदे के बहाने लगने वाले आरोपों की। इस पर बहस फिर कभी। बस इतना ही कहना चाहता हूं कि अगर हम इस बुराई को लेकर चिंतित हैं तो ये चिंता सिर्फ बीएसपी के संदर्भ में ही क्यों झलकती है? कांग्रेस,समाजवादी,बीजेपी और बाकी अन्य दलों को चंदा कहां से आता है? क्या वे वसूली नहीं करते? मैं ये नहीं कह रहा कि मायावती में कोई बुराई नहीं है। सत्ता की बुराइयां तो उनको भी लगीं हैं, जितनी बाकी दलों को लगी हैं।
मगर मायावती से डर की वजह भी हमारा वर्गीय पूर्वाग्रह है और जातीय सोच। यशंवत सिन्हा विदेश मंत्री बनने से पहले कौन से विदेश मामलों के एक्सपर्ट थे। जसवंत सिंह क्या कोई विदेश मंत्रालय की डिग्री ले कर आए थे? ये सब बकवास बाते हैं। लोकतंत्र में चुनाव इसलिए नहीं होते कि विदेश मंत्रालय कौन चलायेगा और वित्त मंत्रालय कौन चलायेगा। चिदंबरम और यशंवत के वित्त मंत्री बनने से जैसे भारत की गरीबी ही दूर हो गई हो? किसी भाई को पता नहीं है कि मंदी का जवाब कैसे दे? अगर इतने ही एक्सपर्ट हैं तो समाधान बता दें न? नारायण दत्त तिवारी किस हैसियत से वित्त मंत्री बन गए और इन ६२२ लोगों की तकलीफ नहीं हुई?
मायावती की आलोचना खूब कीजिए। लेकिन इस पर भी ध्यान दीजिए कि कहीं आलोचना के ये स्वर आपके भीतर बनी पूर्वाग्रहों की कोठरी से तो नहीं उठ रहे हैं।
आज हिंदुस्तान में एक सर्वे आया है। कुल ६२२ लोगों में से ७४ फीसदी लोगों को मायावती का पीएम बनना पसंद नहीं हैं। इतनी ही फीसदी लोगों को लगता है कि भारत की विदेशों में छवि ख़राब हो जाएगी। अब इनकी सोच राजनीतिक कारणों से होती तो समझ में आती कि हम पहले से ही किसी पार्टी को पसंद करते हैं तो मायावती के लिए जगह नहीं हैं। मगर इनकी सोच की बुनियाद में एक डर है।
उत्तरप्रदेश की पूरी अस्सी सीटें ही मायावती जीत जाएं तो पीएम बनने से कौन रोक लेगा। यह एक ख्याली बात ज़रूर है मगर इसलिए कह रहा हूं कि इतने बड़े प्रदेश में साफ बहुमत के साथ सरकार चलाने वाली महिला को लेकर अब भी डर है। चार बार मुख्यमंत्री बनना किसी को पसंद नहीं आ रहा। लोग भूल रहे हैं कि उत्तर प्रदेश में मायावती ने खंडित राजनीति को खत्म कर दिया है। अब वहां एक पार्टी की सरकार है। बीजेपी, कांग्रेस अपना वजूद बचाते हुए मुलायम और अजित के सहारे मायावती से लड़ रहे हैं। पहले मायावती सबसे लड़ती थीं और अब सब मायावती से लड़ रहे हैं। यह एक बदलाव मायावती ने अकेले दम पर किया है।
यूपी में मायावती के अस्सी फीसदी विधायक दूसरी जाति से हैं। यानी हर जाति के लोग जो अपर कास्ट कहलाना पसंद करते हैं, मायावती के आदेशों को सर आंखों पर रखते हैं और दौड़े चले आते हैं। एक यह क्रांतिकारी बदलाव है। एक महिला, एक दलित के साथ काम करने के लिए होड़ मची है।
फिर ये ६२२ लोग कौन हैं जिन्हें मायावती से डर लगता है। जिन्हें मायावती के पीएम बनने से भारत की छवि खराब होने की चिंता है। ऐसे मूर्खों से कहना चाहूंगा कि जब एक दलित महिला वो भी लोकतांत्रिक राजनीति से, लड़ कर, संघर्ष कर, (छाती पीट कर नहीं) मुख्यमंत्री बनती है तो भारत की छवि ठीक होती है। दुनिया कहती है कि भारत में लोकतंत्र अब भी कई संभावनाओं से भरा हुआ है। क्या यह संभावना नहीं है कि एक ब्राह्मण नेता एक दलित नेता के साथ मंच पर शान से हाथ हिलाता है? क्या इससे जातिगत पूर्वाग्रहों का मुंह नहीं चिढ़ता होगा। कोई बताये तो ये महिला जो इंडिया नहीं चला सकती,यूपी कैसे चला रही है? कैसे यूपी के पंडितों ने दलितों का भोज खा खाकर बीएसपी के हाथी की सवारी की है? क्या उत्तर प्रदेश में शासन नहीं चल रहा? उतना तो चल ही रहा होगा जहां पंत,वंत,तिवारी विवारी, सिंह विंह जैसे लोग चला कर गए हैं।
अब रही बात पैसे चंदे के बहाने लगने वाले आरोपों की। इस पर बहस फिर कभी। बस इतना ही कहना चाहता हूं कि अगर हम इस बुराई को लेकर चिंतित हैं तो ये चिंता सिर्फ बीएसपी के संदर्भ में ही क्यों झलकती है? कांग्रेस,समाजवादी,बीजेपी और बाकी अन्य दलों को चंदा कहां से आता है? क्या वे वसूली नहीं करते? मैं ये नहीं कह रहा कि मायावती में कोई बुराई नहीं है। सत्ता की बुराइयां तो उनको भी लगीं हैं, जितनी बाकी दलों को लगी हैं।
मगर मायावती से डर की वजह भी हमारा वर्गीय पूर्वाग्रह है और जातीय सोच। यशंवत सिन्हा विदेश मंत्री बनने से पहले कौन से विदेश मामलों के एक्सपर्ट थे। जसवंत सिंह क्या कोई विदेश मंत्रालय की डिग्री ले कर आए थे? ये सब बकवास बाते हैं। लोकतंत्र में चुनाव इसलिए नहीं होते कि विदेश मंत्रालय कौन चलायेगा और वित्त मंत्रालय कौन चलायेगा। चिदंबरम और यशंवत के वित्त मंत्री बनने से जैसे भारत की गरीबी ही दूर हो गई हो? किसी भाई को पता नहीं है कि मंदी का जवाब कैसे दे? अगर इतने ही एक्सपर्ट हैं तो समाधान बता दें न? नारायण दत्त तिवारी किस हैसियत से वित्त मंत्री बन गए और इन ६२२ लोगों की तकलीफ नहीं हुई?
मायावती की आलोचना खूब कीजिए। लेकिन इस पर भी ध्यान दीजिए कि कहीं आलोचना के ये स्वर आपके भीतर बनी पूर्वाग्रहों की कोठरी से तो नहीं उठ रहे हैं।
अधूरी उदास नज़्में- सस्ती शायरी
१. तोड़ कर वादे देखो, बार बार आ जाते हैं
बड़े बेशर्म है यें, कहां कहां से आ जाते हैं
२. कुछ तो है दिल्ली में, नखरे सबके देखो
बादशाह यहां नहीं हुए, तो फिर कहां हुए
३. तुम क्यों चली गई, दिल्ली छोड़ कर
रुसवा मैंने किया, शहर की क्या खता थी
४. बेवफा कोई नहीं होता है इस जहान में
दिल टूटता है किसी का, किसी और के लिए
५. नाम तो लेकर देखो मेरा, तुम अकेले में
ज़बां पर यू ही नहीं चढ़ता किसी के नाम का रंग
६. वो यूं जल गए हैं हमारी दोस्ती से
मिला न उनको कोई दोस्त कहने वाला
७. तुम आज कल मुझसे जलने लगे हो
आज कल ही तो मैं किसी का हो गया हूं
८. कभी ख़त अधूरा मत छोड़ना
दिल की बात दिल में अच्छी नहीं लगती
९. मैं बता रहा हूं सारी दुनिया को
एक तुम्हीं से न कह पाया हाल अपना
१०. बहुत बड़ा शायर तो नहीं हूं मैं
तुम्हारे लिए नज़्मों की कमी न होगी
११. बीबी से कह देता हूं कि आज से अब नहीं
तुम से क्या कहूं..अब से कब तक
१२. बिकती है शायरी टूटे दिलवालों की
खंडहरों में पलते हैं प्यार के किस्से
बड़े बेशर्म है यें, कहां कहां से आ जाते हैं
२. कुछ तो है दिल्ली में, नखरे सबके देखो
बादशाह यहां नहीं हुए, तो फिर कहां हुए
३. तुम क्यों चली गई, दिल्ली छोड़ कर
रुसवा मैंने किया, शहर की क्या खता थी
४. बेवफा कोई नहीं होता है इस जहान में
दिल टूटता है किसी का, किसी और के लिए
५. नाम तो लेकर देखो मेरा, तुम अकेले में
ज़बां पर यू ही नहीं चढ़ता किसी के नाम का रंग
६. वो यूं जल गए हैं हमारी दोस्ती से
मिला न उनको कोई दोस्त कहने वाला
७. तुम आज कल मुझसे जलने लगे हो
आज कल ही तो मैं किसी का हो गया हूं
८. कभी ख़त अधूरा मत छोड़ना
दिल की बात दिल में अच्छी नहीं लगती
९. मैं बता रहा हूं सारी दुनिया को
एक तुम्हीं से न कह पाया हाल अपना
१०. बहुत बड़ा शायर तो नहीं हूं मैं
तुम्हारे लिए नज़्मों की कमी न होगी
११. बीबी से कह देता हूं कि आज से अब नहीं
तुम से क्या कहूं..अब से कब तक
१२. बिकती है शायरी टूटे दिलवालों की
खंडहरों में पलते हैं प्यार के किस्से
जीन्स.....।
जीन्स। पहनी जाती है। विरासत में भी मिलती है। मैं इस दूसरी वाली जीन्स की बात करूंगा। वो जीन्स जो वरूण को अपने पिता संजय से मिली। वो जीन्स जिसमें एक दिन में आसमान छूने का दिल करता है। वो जीन्स जिसमें एक पल में ही दुनिया बदल देने का मन करता है। वो जीन्स जिसमें सब कुछ मटियामेट करने का जी करता है। वो जीन्स जो बुरा ठानता है तो बुरा ही करता है। वो जीन्स जो अच्छे और बुरे में फर्क नहीं करता। वो जीन्स जिसमें पेशन्स नहीं है। वो जीन्स जिसके छोटेपन की कोई इन्तेहा नही। वो जीन्स जिसे दुनिया को जूती की नोक पर रखने की कामुकता है। वो जीन्स जिसे छोटे बड़े का लिहाज नहीं। वो जीन्स जिसमें कुतर्क ही सबसे बड़ा तर्क है।
वही जीन्स जिसने वरूण को वरूण बनाया। वही जीन्स जिसके बीज की पौध 28 साल होते होते कुतर्क करने लगी। वो कह रहा हाथ काट डालेगा। ये कैसी संडासी भाषा है तुम्हारी। बू आती है। तुम्हारी दादी कह के मरी की उसकी बूंद का एक एक कतरा देश की तरक्की के लिये बहेगा। तुम्हारे परदादा ने सेक्यूलरिज्म के मंदिर बनवाये। तुम हाथ काटोगे। अरे किसके हाथ काटोगे। तरक्की के। अमन के। चैन के। शराफत के। रिश्तों के हाथ काटोगे जिनमें सदियों से एक ही खून बहता रहा है। जिसका रंग सुर्ख लाल है। क्या सहिषुणता के हाथ काटोगे। जिसने इस देश को आदि काल से वाइब्रेंट रखा। उस देश के हाथ काटोगे जिसके लोगों ने तुम्हारे पिता की अकास्मिक मौत के बाद तुम्हे जीने की हिम्मत दी। जिस देश नें तुम्हारी मां और तुम्हे अपनो से अलग होने के बाद भी जीने का मकसद दिया। तुम किसके हाथ काटोगे।
लेकिन तुम्हारा क्या दोष। जीन्स तो तुम्हे अपने पिता के ही मिले हैं। वो भी अपने को सबसे बड़े फन्ने खां समझते थे। किसी की कब सुनी उन्होने। तुम्हारी उम्र में तो तुम्हारे पिता की इमेज बैड मैन की थी। ऐंग्री बैड मैन। खुशवंत सिंह टाइप इक्का दुक्का डाइनेस्टी भक्तो को छोड़ दे तो तुम्हारे पिता के कारनामों से समाज में बड़ी दहशत फैली। दिल्ली का तुर्कमान गेट हो या यूपी और बिहार के वो गांव कस्बे जहां तुम्हारे पिता की कुराफाती टोली नसबन्दी के हथियार लेकर गली मौहल्लो में नंगा नाच कर रही थी। समाज को डरा कर उसे अपने वश में करने की कोशिश की उन्होने। तुम्हे उन्ही से तो अपने जीन्स मिले हैं।
और तुम उस जीन्स की मर्यादा भी तो रख रहे। बापू सोच रहे होंगे बड़ी गल्ती की की तुम्हारे दादा को अपना नाम देकर। पता रहता की संजय और फिर उसके बाद उसका बेटा मेरे नाम पर बदनुमा दाग लगायेगा तो फिरोज को कभी ये नाम नहीं देता। लेकिन फिरोज तो ऐसा नहीं था। फिर उसके वंश में ये कैसे चिराग पैदा हुये। जिस करीमउल्ला, मजहरउल्ला का सर काटने की बात कर रहे उन्ही जैसे सैकड़ो करीमउल्ला और मजहरउल्ला की सुरक्षा के लिये बापू नोआखाली में भूख हड़ताल पर बैठे। ताकि तुम्हारे जैसे उन्मादी हिंदु उस इलाके में न फटके। ये उस समय जब देश बंट चुका था। और लोग रिश्तों को भी बांट रहे थे। मजहबी उन्माद चरम पर था। हिंदुस्तान में फिरंगियों का बहाया खून नहीं अपने अपने का खून बहा रहे थे। बापू डटे रहे। उस उन्मादी माहौल से जो कलकत्ता और पूर्वी बंगाल में आग लगी हुयी थी वो उसमे एक "घड़ा पानी डालने" नोआखाली में थे। लंदन से डिग्री ले ली लेकिन तुमने ये नहीं पढ़ा की नोआखाली में में फिर दंगे नहीं हुये। क्योंकि उस गांधी ने कहा जान चली जाये पर मैं यहां से नहीं हिलूंगा। नेहरू और पटेल ने बुलाया भी कि दिल्ली आइये और आजादी के जश्न में हमें आशीर्वाद दीजिये। गांधी ने कहा जब बंगाल और पंजाब जल रहे हों तो आजादी का जश्न मैं नहीं मना सकता। ऐसे थे मोहनदास करमचंद गांधी जिन्होने दुम्हारे दादा को अपना बेटा मान कर अपना नाम दिया ताकि तुम्हारे परदादा उनकी शादी तुम्हारी दादी से करवाने के लिये राजी हो जायें।
तुम कहते हो तुम्हे हिन्दु होने पर गर्व है। महात्मा गांधी भी हिन्दु थे। लेकिन उन्हे गीता का ग्यान भी था और कुरान शरीफ भी रटा था। याद कराना चाहूंगा तुम्हे नोआखली का वो वाक्या जब एक मुस्लिम गांधी पर टूट पड़ा। गांधी जब गिरे तो उन्होने कुरान शरीफ की एक आयत पढ़ कर सुनायी। इस पर वो उन्मादी मुसलमान शांत हो गया और बापू के पैरों पर गिर कर माफी मांगी। कहा आप जो कहेंगे करूंगा। ऐसे जीता बापू ने मुसलमानों का दिल क्योंकि उनके मन में हिन्दु और मुसलमान अलग नहीं थे। सब उसी खुदा के बनाये बन्दे थे।
लेकिन तुम कहते हो करीमउल्ला और मजहरउल्ला का तुम सर कलम कर दोगे। क्योंकि तुम्हे अपने "हिन्दु होने पर गर्व है"। तुम कहते हो तुम उन हिन्दुओं की वकालत कर रहे थे जिन्हे उत्तर प्रदेश में सताया जा रहा। लेकिन तुम्हारी जबां में तो किसी एक समुदाय के लिये नफरत और हिकारत भरी थी।
मोहनदास कर्मचंद गांधी वोट मांगने के लिये सेक्यूलर नहीं बने। वो सेक्यूलर थे इसलिये वो कलकत्ता और नोआखली गये। तुम समाज को कम्यूनल चश्मे से देखते हो इसलिये तुमने वो कहा जो तुमने कहा। तस्वीरें झूठ नहीं बोलती। तुम गांधी नहीं। आज से तुम अपना नाम बदल लो। तुम अपना नाम वरूण संजय रख लो। ताकि जब भी तुम्हारी बात हो लोगों को पता लग जाये तुम्हारी संडासी सोच में किसके जीन्स तैर रहे हैं।
प्रभात शुंगलू
IBN7
वही जीन्स जिसने वरूण को वरूण बनाया। वही जीन्स जिसके बीज की पौध 28 साल होते होते कुतर्क करने लगी। वो कह रहा हाथ काट डालेगा। ये कैसी संडासी भाषा है तुम्हारी। बू आती है। तुम्हारी दादी कह के मरी की उसकी बूंद का एक एक कतरा देश की तरक्की के लिये बहेगा। तुम्हारे परदादा ने सेक्यूलरिज्म के मंदिर बनवाये। तुम हाथ काटोगे। अरे किसके हाथ काटोगे। तरक्की के। अमन के। चैन के। शराफत के। रिश्तों के हाथ काटोगे जिनमें सदियों से एक ही खून बहता रहा है। जिसका रंग सुर्ख लाल है। क्या सहिषुणता के हाथ काटोगे। जिसने इस देश को आदि काल से वाइब्रेंट रखा। उस देश के हाथ काटोगे जिसके लोगों ने तुम्हारे पिता की अकास्मिक मौत के बाद तुम्हे जीने की हिम्मत दी। जिस देश नें तुम्हारी मां और तुम्हे अपनो से अलग होने के बाद भी जीने का मकसद दिया। तुम किसके हाथ काटोगे।
लेकिन तुम्हारा क्या दोष। जीन्स तो तुम्हे अपने पिता के ही मिले हैं। वो भी अपने को सबसे बड़े फन्ने खां समझते थे। किसी की कब सुनी उन्होने। तुम्हारी उम्र में तो तुम्हारे पिता की इमेज बैड मैन की थी। ऐंग्री बैड मैन। खुशवंत सिंह टाइप इक्का दुक्का डाइनेस्टी भक्तो को छोड़ दे तो तुम्हारे पिता के कारनामों से समाज में बड़ी दहशत फैली। दिल्ली का तुर्कमान गेट हो या यूपी और बिहार के वो गांव कस्बे जहां तुम्हारे पिता की कुराफाती टोली नसबन्दी के हथियार लेकर गली मौहल्लो में नंगा नाच कर रही थी। समाज को डरा कर उसे अपने वश में करने की कोशिश की उन्होने। तुम्हे उन्ही से तो अपने जीन्स मिले हैं।
और तुम उस जीन्स की मर्यादा भी तो रख रहे। बापू सोच रहे होंगे बड़ी गल्ती की की तुम्हारे दादा को अपना नाम देकर। पता रहता की संजय और फिर उसके बाद उसका बेटा मेरे नाम पर बदनुमा दाग लगायेगा तो फिरोज को कभी ये नाम नहीं देता। लेकिन फिरोज तो ऐसा नहीं था। फिर उसके वंश में ये कैसे चिराग पैदा हुये। जिस करीमउल्ला, मजहरउल्ला का सर काटने की बात कर रहे उन्ही जैसे सैकड़ो करीमउल्ला और मजहरउल्ला की सुरक्षा के लिये बापू नोआखाली में भूख हड़ताल पर बैठे। ताकि तुम्हारे जैसे उन्मादी हिंदु उस इलाके में न फटके। ये उस समय जब देश बंट चुका था। और लोग रिश्तों को भी बांट रहे थे। मजहबी उन्माद चरम पर था। हिंदुस्तान में फिरंगियों का बहाया खून नहीं अपने अपने का खून बहा रहे थे। बापू डटे रहे। उस उन्मादी माहौल से जो कलकत्ता और पूर्वी बंगाल में आग लगी हुयी थी वो उसमे एक "घड़ा पानी डालने" नोआखाली में थे। लंदन से डिग्री ले ली लेकिन तुमने ये नहीं पढ़ा की नोआखाली में में फिर दंगे नहीं हुये। क्योंकि उस गांधी ने कहा जान चली जाये पर मैं यहां से नहीं हिलूंगा। नेहरू और पटेल ने बुलाया भी कि दिल्ली आइये और आजादी के जश्न में हमें आशीर्वाद दीजिये। गांधी ने कहा जब बंगाल और पंजाब जल रहे हों तो आजादी का जश्न मैं नहीं मना सकता। ऐसे थे मोहनदास करमचंद गांधी जिन्होने दुम्हारे दादा को अपना बेटा मान कर अपना नाम दिया ताकि तुम्हारे परदादा उनकी शादी तुम्हारी दादी से करवाने के लिये राजी हो जायें।
तुम कहते हो तुम्हे हिन्दु होने पर गर्व है। महात्मा गांधी भी हिन्दु थे। लेकिन उन्हे गीता का ग्यान भी था और कुरान शरीफ भी रटा था। याद कराना चाहूंगा तुम्हे नोआखली का वो वाक्या जब एक मुस्लिम गांधी पर टूट पड़ा। गांधी जब गिरे तो उन्होने कुरान शरीफ की एक आयत पढ़ कर सुनायी। इस पर वो उन्मादी मुसलमान शांत हो गया और बापू के पैरों पर गिर कर माफी मांगी। कहा आप जो कहेंगे करूंगा। ऐसे जीता बापू ने मुसलमानों का दिल क्योंकि उनके मन में हिन्दु और मुसलमान अलग नहीं थे। सब उसी खुदा के बनाये बन्दे थे।
लेकिन तुम कहते हो करीमउल्ला और मजहरउल्ला का तुम सर कलम कर दोगे। क्योंकि तुम्हे अपने "हिन्दु होने पर गर्व है"। तुम कहते हो तुम उन हिन्दुओं की वकालत कर रहे थे जिन्हे उत्तर प्रदेश में सताया जा रहा। लेकिन तुम्हारी जबां में तो किसी एक समुदाय के लिये नफरत और हिकारत भरी थी।
मोहनदास कर्मचंद गांधी वोट मांगने के लिये सेक्यूलर नहीं बने। वो सेक्यूलर थे इसलिये वो कलकत्ता और नोआखली गये। तुम समाज को कम्यूनल चश्मे से देखते हो इसलिये तुमने वो कहा जो तुमने कहा। तस्वीरें झूठ नहीं बोलती। तुम गांधी नहीं। आज से तुम अपना नाम बदल लो। तुम अपना नाम वरूण संजय रख लो। ताकि जब भी तुम्हारी बात हो लोगों को पता लग जाये तुम्हारी संडासी सोच में किसके जीन्स तैर रहे हैं।
प्रभात शुंगलू
IBN7
क्या आपके घर में भी है एलुमुनियम का बक्सा
क्या आपने भी देखा है घर में एलुमुनियम का बक्सा
जिसमें आपकी मां ने एक साड़ी रखी थी
तीस साल पहले ख़रीद कर जतन से
धीरे धीरे उसमें और भी सामान रखे गए
हमारी बड़ी होतीं बहनों के साथ साथ
फिर बहनें भी बुनने लगीं धीरे धीरे
क्रोशिया के सोफा कवर और बनाने लगीं पेंटिंग
एक लड़की गगरा उठाए कर रही है इंतज़ार जिसमें
हाथरस से खरीद कर लाया गया पीतल का गुलदान
जब भी कभी फुआ या मामी आती रही घर में
एलुमुनियम का बक्सा खुलता रहा बार बार
देख कर मांओं के दिल तसल्ली करते रहते थे
पूरी लिस्ट बनती रहती थी हर साल
क्या क्या रखा है इसमें
क्या रखना है इस साल
सत्रह से अठारह की होतीं हमारी बहनों के साथ साथ
बक्से में सामान की गिनती उम्र की तरह बढ़ती रही
जब भी खुलता था बक्सा मौसियों के घर आने पर
कई सारे नए सामानों की गमक से भर जाता था कमरा
बनारसी साड़ी और फॉल का कपडा, रूबिया के ब्लाउज़
सोनपुर के मेले से खरीदे गए आलते की गमक
समधी की धोती और समधन की साड़ी की चमक
तीस साल से संभाल कर रखे गए हर सामान में
दुल्हे के लिए रेमंड सूट का कपड़ा भी तो होता था
तीन चार सादे रूमाल और एक एचएमटी की घड़ी
क्या आपने नहीं देखा अपने घर में एलुमुनियम का बक्सा
उसी दिन तो वो बक्सा उठा था सब भाइयों के कंधे पर
जिस दिन हम भाइयों की बहनों की डोली उठी थी
रायपुर, पटना, लखनऊ, गोरखपुर और बनारस के हर घरों से
एलमुनियम का बक्सा अब भी उठता है हर लगन में
अब भी हमारे घरों में बद कर कमरे हर दोपहर में
माएं, मौसियां, मामियां गिनती है दहेज के सामान
खुलता बंद होता रहता है एलुमुनियम का बक्सा
जिसमें आपकी मां ने एक साड़ी रखी थी
तीस साल पहले ख़रीद कर जतन से
धीरे धीरे उसमें और भी सामान रखे गए
हमारी बड़ी होतीं बहनों के साथ साथ
फिर बहनें भी बुनने लगीं धीरे धीरे
क्रोशिया के सोफा कवर और बनाने लगीं पेंटिंग
एक लड़की गगरा उठाए कर रही है इंतज़ार जिसमें
हाथरस से खरीद कर लाया गया पीतल का गुलदान
जब भी कभी फुआ या मामी आती रही घर में
एलुमुनियम का बक्सा खुलता रहा बार बार
देख कर मांओं के दिल तसल्ली करते रहते थे
पूरी लिस्ट बनती रहती थी हर साल
क्या क्या रखा है इसमें
क्या रखना है इस साल
सत्रह से अठारह की होतीं हमारी बहनों के साथ साथ
बक्से में सामान की गिनती उम्र की तरह बढ़ती रही
जब भी खुलता था बक्सा मौसियों के घर आने पर
कई सारे नए सामानों की गमक से भर जाता था कमरा
बनारसी साड़ी और फॉल का कपडा, रूबिया के ब्लाउज़
सोनपुर के मेले से खरीदे गए आलते की गमक
समधी की धोती और समधन की साड़ी की चमक
तीस साल से संभाल कर रखे गए हर सामान में
दुल्हे के लिए रेमंड सूट का कपड़ा भी तो होता था
तीन चार सादे रूमाल और एक एचएमटी की घड़ी
क्या आपने नहीं देखा अपने घर में एलुमुनियम का बक्सा
उसी दिन तो वो बक्सा उठा था सब भाइयों के कंधे पर
जिस दिन हम भाइयों की बहनों की डोली उठी थी
रायपुर, पटना, लखनऊ, गोरखपुर और बनारस के हर घरों से
एलमुनियम का बक्सा अब भी उठता है हर लगन में
अब भी हमारे घरों में बद कर कमरे हर दोपहर में
माएं, मौसियां, मामियां गिनती है दहेज के सामान
खुलता बंद होता रहता है एलुमुनियम का बक्सा
अधूरी उदास नज़्में- सस्ती शायरी
१. सारे रिश्ते बदल रहे हैं
जो साथ थे मुकर रहे हैं
कल कुछ और नये बन जायेंगे
अफसोस नहीं,बस याद आयेंगे
२.दो टके की शायरी है मेरी
चार आने की दाद मिलती है
३.लौटा दूंगा तुम्हारी आंखों का काजल
एक शर्त है, अपनी नज़रों का पता बता दो
४.तुम्हारी आंखों के नीचे जो झुर्रियां हैं
सिलबटों में उनकी दिल का दरखास्त छिपा है
५. तुम्हारे लिए एक गुलदस्ता खरीदा है
कहो तो मैं फूल भी खरीद लाऊं
६.कितने कंजूस हो तुम, किस चीज़ की कमी है
एक मुफ्त का सामान है,मुझे पास रख लो
७. ये जर्नलिस्ट बड़े फटीचर हैं
न आशिक हैं न शायर हैं
८. मैं तुमको इक दिन चाय पे बुलाने वाला हूं
कप प्लेट की तरह संभाल कर रखा है दिल
९. आज ही तुमसे दिल की बात कह देता
तुम्हारे कॉलर ट्यून की धुनों में खो गया
१०. मैंने तो सिर्फ तुमसे पता पूछा था
जाने क्यों तुम अपना हाल बताने लगे
११. तुम्हारा सारा एसएमएस डिलिट कर देता हूं
दो चार शब्दों से मेरा काम नहीं चलता
जो साथ थे मुकर रहे हैं
कल कुछ और नये बन जायेंगे
अफसोस नहीं,बस याद आयेंगे
२.दो टके की शायरी है मेरी
चार आने की दाद मिलती है
३.लौटा दूंगा तुम्हारी आंखों का काजल
एक शर्त है, अपनी नज़रों का पता बता दो
४.तुम्हारी आंखों के नीचे जो झुर्रियां हैं
सिलबटों में उनकी दिल का दरखास्त छिपा है
५. तुम्हारे लिए एक गुलदस्ता खरीदा है
कहो तो मैं फूल भी खरीद लाऊं
६.कितने कंजूस हो तुम, किस चीज़ की कमी है
एक मुफ्त का सामान है,मुझे पास रख लो
७. ये जर्नलिस्ट बड़े फटीचर हैं
न आशिक हैं न शायर हैं
८. मैं तुमको इक दिन चाय पे बुलाने वाला हूं
कप प्लेट की तरह संभाल कर रखा है दिल
९. आज ही तुमसे दिल की बात कह देता
तुम्हारे कॉलर ट्यून की धुनों में खो गया
१०. मैंने तो सिर्फ तुमसे पता पूछा था
जाने क्यों तुम अपना हाल बताने लगे
११. तुम्हारा सारा एसएमएस डिलिट कर देता हूं
दो चार शब्दों से मेरा काम नहीं चलता
सबसे अच्छा होता, हमारे सपनों का मर जाना
कल रात पाश मेरे सपने में आया था
मरे हुए सपनों की अर्थियां सजा रहा था
बीच बीच में फूलों को रखते हुए और
बांस के फट्टे से मुर्दा सपनों को बांधते हुए
बुदबुदाता जा रहा था,लतियाते हुए मुझको
सबसे ख़तरनाक होता है हमारे सपनों का मर जाना
उससे भी ख़तरनाक होता है उनकी अर्थियां न उठाना
न जलाना उनको,न पहुंचाना शमशान में जिनको
ढोते रहना लाश को,काम पर आते जाते रहना
चुपचाप देखते रहा मैं अपने तमाम मरे हुए सपनों के बीच
आग पैदा कर देने वाले उस कवि को
जो हांफने लगा अचानक, बंद हो गई उसकी धौंकनी
मुर्दा सपनों के बीच एक अधमरा सपना देख कर
फिर बुदबुदाने लगा पाश, लतियाना बंद कर दिया मुझको
गा रहा था...चीख रहा था और जल्दी जल्दी लिख रहा था
सबसे ख़तरनाक होता है, हमारे सपनों में सांसों का बच जाना
न मरना एकदम से, न उनका जिंदा कहलाना
बचे हुए के नाम पर, चंद उम्मीदों का रह जाना
सबसे ख़तरनाक होता है,मरने से पहले आखिरी सांसों का आना जाना
डाक्टर को बुलाना, जीवन बीमा को भंजाना और रिश्तेदारों को फोन करना
सबसे ख़तरनाक होता है, मरे हुए सपनों को लेकर किसी कवि को सुनना
उससे आंखें मिलाना और उसकी कविता से लजाना
राशन की दुकानों से दफ्तर की अटेंडेंस सूची में बकायेदार की तरह
हर दिन अपने नाम को पढ़ना, हर दिन किराया देना
क्या क्या खतरनाक नहीं होता पाश, लेकिन इन सबमें
सबसे खतरनाक होता है,हमारे चंद सपनों का बचे रह जाना
सबसे अच्छा होता, हमारे सपनों का मर जाना
मरे हुए सपनों की अर्थियां सजा रहा था
बीच बीच में फूलों को रखते हुए और
बांस के फट्टे से मुर्दा सपनों को बांधते हुए
बुदबुदाता जा रहा था,लतियाते हुए मुझको
सबसे ख़तरनाक होता है हमारे सपनों का मर जाना
उससे भी ख़तरनाक होता है उनकी अर्थियां न उठाना
न जलाना उनको,न पहुंचाना शमशान में जिनको
ढोते रहना लाश को,काम पर आते जाते रहना
चुपचाप देखते रहा मैं अपने तमाम मरे हुए सपनों के बीच
आग पैदा कर देने वाले उस कवि को
जो हांफने लगा अचानक, बंद हो गई उसकी धौंकनी
मुर्दा सपनों के बीच एक अधमरा सपना देख कर
फिर बुदबुदाने लगा पाश, लतियाना बंद कर दिया मुझको
गा रहा था...चीख रहा था और जल्दी जल्दी लिख रहा था
सबसे ख़तरनाक होता है, हमारे सपनों में सांसों का बच जाना
न मरना एकदम से, न उनका जिंदा कहलाना
बचे हुए के नाम पर, चंद उम्मीदों का रह जाना
सबसे ख़तरनाक होता है,मरने से पहले आखिरी सांसों का आना जाना
डाक्टर को बुलाना, जीवन बीमा को भंजाना और रिश्तेदारों को फोन करना
सबसे ख़तरनाक होता है, मरे हुए सपनों को लेकर किसी कवि को सुनना
उससे आंखें मिलाना और उसकी कविता से लजाना
राशन की दुकानों से दफ्तर की अटेंडेंस सूची में बकायेदार की तरह
हर दिन अपने नाम को पढ़ना, हर दिन किराया देना
क्या क्या खतरनाक नहीं होता पाश, लेकिन इन सबमें
सबसे खतरनाक होता है,हमारे चंद सपनों का बचे रह जाना
सबसे अच्छा होता, हमारे सपनों का मर जाना
ये पप्पू पास हो गया, आपका क्या होगा जनाबेआली..
( हिंदी न्यूज़ चैनलों के फटीचर काल में कम ही पत्रकार ऐसे हुए हैं जो अपना ढिंढोरा नहीं पीटते। फटीचर होने का न सबसे बेहतर होने का। किसी तरह इस किस्म के लोग न्यूज़ रूम की धक्का मुक्की में बचे रह जाते हैं। याद दिलाने के लिए कि फटीचर काल से ऊब के वक्त इनसे भी काम चलाया जा सकता है। प्रभात शुंगलू IBN-7 में संपादक हैं। अपने बारे में कम हांकते हैं और हर आती जाती चीज़ों पर मुस्कुरा देते हैं। आजकल लिखने लगे हैं तो मान लेना चाहिए कि शांत स्वभाव वाला यह लेखक फिलहाल एक वोटर बन कर अपनी बेचैनियों को सामने रखना चाहता है। श्रेष्ठता की हिंसक दावेदारियां जताने के हमारे पेशे के इस दौर में प्रभात शुंगलू के इस लेख को पढ़िये। यह लेख आज नई दुनिया में भी है।)
आडवाणी जी,
आप नहीं समझेंगे कंधमाल का खौफ। आप नहीं समझेंगे कैथलिक स्कूल में पढ़े सेक्यूलर कल्चर में पले बढ़े नवीन पटनायक का दर्द। हांलाकि आप भी उसी कैथोलिक स्कूल के प्रोडक्ट हैं। फर्क ये है कि आप ग्रैजुएशन करने हेडगेवार और गुरू गोलवाल्कर की यूनिवर्सिटि में चले गये। इसलिये आप गुजरात दंगे में मारे गये सैंकड़ो मुसलमानों का दर्द नहीं समझ पाये। आप समझते तो आप इंडिया शाइनिंग का स्लोगन नहीं देते। वाजपेयी जी ने समझना चाहा मगर फिर हकीकत से मुंह मोड़ लिया। मोदी को छोटी सी फटकार लगायी कि राजधर्म निभाओ। सोचा ये कहने भर से एनडीए की सेक्यूलर इमेज कायम रहेगी। मगर जनता ने वाजपेयी की शाइन गायब कर दी।
आज आप नवीन पटनायक को कोस रहे कि उसने धोखा किया। ग्यारह साल पुराने रिश्ते पर हैंड ब्रेक लगा दिया। लेकिन नवीन ऐसा क्यों नहीं करते। आपने उनकी सेक्यूलर पॉलिटिक्स के लिये सस्पेस ही कब छोड़ी थी। कंधमाल में जो हुया उसके लिये आपकी पार्टी नेताओं ने, संघ परिवार के फेवरिट सन बीएचपी ने उन्हे कितना कोसा। उन्होने बताया कि वहां हिन्दुत्व के ही कायदे कानून चलेंगे। जो उनके टाइप का हिन्दु है वही रहेगा। वही काम जो आपके येदुरप्पा अब कर्नाटक में कर रहे। अपने कनिष्ट भ्राता मुथालिक के सर पर हाथ रख कर।
आप क्यों नहीं समझ पा रहे इंडिया की असलियत। इंडिया का सेक्यूलर इतिहास। उसकी सर्वधर्म सम्भाव की विलक्षण क्षमता। उसकी पहचान। आप फिरकापरस्त ताकतों को मोबालाइज करके 2 से 180 तो पहुंच सकते हैं पर इससे आगे बढ़ना टेढ़ी खीर है। क्योंकि ये देश किसी भी तरह के एक्सट्रीमीज्म को नकारता आया है। इस देश नें सनातन हिंदुत्व को भी जगह दी। मगर बुद्ध का मिडिल पाथ जब निर्वाण की नई ऊर्जा ले कर आया तो उसे गले से लगा लिया। इस देश ने औंरगजेब को सहा मगर मोहम्मद जलालउद्दीन को अकबर की उपाधि से नवाजा। डकैत गज़नी को धिक्कारा, आलिम दारा को पुचकारा। जिन्नाह को तड़ी पार किया। नेहरू को आशीर्वाद दिया। आरएसएस और मुस्लिम लीगी पॉलिटिक्स को टिकने नहीं दिया। नक्सलिज्म को पसरने नहीं दिया। और यही भारत दैट इज इंडिया आतंकवाद से भी लड़ रहा। मगर भारत ने किसी तरह की चरमपंथी, डिस्ट्र्क्टिस सोच को न कभी सींचा और न ही उसे फलने फूलने दिया।
अगर इंडिया ने आप सरीखी पॉलिटिक्स को स्पेस दी भी जैसा कि 1998 में हुया तो वो भी शर्तों के साथ कि मजहबी उन्माद नहीं फैलाओगे। लेकिन आपकी पेरन्ट बॉडी के टिड्डी दल ये कहां मानने वाले थे। वो तो गुजरात में एन्टी हिन्दु चांदमारी बना रहे थे। और 28 फरवरी 2002 को उन्होने इस चांदमारी का फौरी तौर पर उदघाटन भी कर दिया। बस तभी आप को समझ जाना था कि अब लुटिया डूबी। क्योंकि पब्लिक आपका हिडेन एजेंडा समझ चुकी थी। लेकिन आप तो सत्ता के खुमार में ऐसे औंधे पड़े थे कि बुरे वक्त की आहट नहीं सुन पाये।
नवीन ने एक गलती की। जैसी गलती इंडिया ने 1998 में की। नवीन ने आप पर भरोसा किया। आरएसएस के टिड्डी दल ने सोचा कैथोलिक स्कूल का पढ़ा, अंग्रेजी बोलने वाला, पेज थ्री और फैशन के गलियारों में घूमने वाला पप्पू ( नवीन की फैमिली में उन्हे इसी नाम से पुकारा जाता है ) गाड़ी चलायेगा। आप बैकसीट ड्राइविंग करेंगे। बुद्ध के सबसे बड़े शिष्य की धरती पर बजरंगी हिंदुत्व की ब्रांच खोलेंगे। इसके लिये आपके परिवार के टिड्डी दलों ने दारा सिंह जैसे लुम्पेन को हिंदुत्व की दीक्षा दी। और उसकी पोस्टिंग मयूरभंज की। वहां जाकर उसने मिशनरी ग्राहम स्टेन्स और उसके बेटे को जिंदा जलाकर आपके टिडड़ी दलों के फलसफे का परचम लहराया। आपने फिर वही खेल कंधमाल में रिपीट करना चाहा। मगर नवीन अब जवान हो चुका था। आपकी पॉलिटिक्स के आशियाने तले उसका दम घुट रहा था। वो इससे बाहर निकलने के लिये फड़फड़ा रहा था। अकेले कुछ करने के लिये दिल कुलांचे मार रहा था। बड़े भाई, मां-बाप के साये से दूर अपनी पहचान बनाने के लिये मचल रहा था। और फिर उसने दिल की सुनी और आपको छोड़ गया। बैरम खां बन कर आपने इतने सालों अपनी खूब मनमानी की। अब नवीन ने कहा टाटा। तुम भी हज जाने की तैयारी करो।
देखिये, उड़ीसा की कहानी से कहीं बिहार न इंस्पायर हो जाये। वो भी आपका पुराना साथी है। मगर यंग है। वो भी आपके साथ दस सालों से कदमताल कर रहा। कैथोलिक स्कूल में नहीं पढ़ा। प्योर देसी स्कूल में पढ़ा। वहीं जहां आपके कई नेता पढ़े हैं। मगर वो इन्क्लूसिव पॉलिटिक्स पर जोर दे रहा। बिहार को टर्नअराउंड का सपना बुन रहा। आपकी सुन जरूर रहा मगर अपने मन की कर रहा। देख लीजिये कहीं बिहार में भी बीजेडी के उड़ीसा के बीज तो नहीं बोये जा रहे।
आपको लगता है वक्त आपकी तकदीर पर एक बार दस्तक दे रहा। खुश रहने को ये ख्याल अच्छा है ग़ालिब। इंडिया बदल रहा। जिन्नाह को सेक्यूलर कहने भर से इंडिया आपको सेक्यूलर मान लेगा ये दूर की कौड़ी लगती है। अयोध्या में मंदिर गिरा कर संसद में घडि़याली आंसू बहाने से वोटर नहीं पिघलेगा। फेसबुक पर प्रोफाइल डालने से यंग इंडिया आपको समझेगा ये विशफुल थिंकिंग से ज्यादा कुछ नहीं। जो साथ थे, वो पास नहीं। जो साथ हैं वो साथ छोड़ने का मौका तलाश रहे। वो कहते हैं न यू कैन नॉट फूल ऑल द पीपिल ऑल द टाइम।
मुशर्रफ की तरह ये मत कहियेगा पीछे की बातें भूल जाओ। आगे की देखो। हिस्ट्री को भूलने का पाप इस देश ने जब जब किया उसे पछताना पड़ा। मुशर्रफ का झूठ पकड़ा जा चुका है। वैसे भी नया इतिहास रचने का मौका देश ने एक नहीं दो दो बार आपकी पार्टी को भी दिया। मगर गोधरा, बेस्ट बेकरी, नरोडा पाटिया, गुलबर्गा सोसाइटी में दंगो को अंजाम देकर आपके मोदीजी ने फिर देश को स्टोन एज की दहलीज पर खड़ा कर दिया। वो पप्पू तो पास हो गया मगर आप भारत दैट इज़ इंडिया को कैसे समझायेंगे कि आप ही देश के सर्वश्रेष्ठ मंत्रीपद पद के उपयुक्त दावेदार हैं। आप ही क्यों मोदी जी भी 2014 का ख्वाब देख रहे। पहले 16 मई को अपना रिपोर्ट कार्ड तो देख लीजिये।
एक भारतीय वोटर
आडवाणी जी,
आप नहीं समझेंगे कंधमाल का खौफ। आप नहीं समझेंगे कैथलिक स्कूल में पढ़े सेक्यूलर कल्चर में पले बढ़े नवीन पटनायक का दर्द। हांलाकि आप भी उसी कैथोलिक स्कूल के प्रोडक्ट हैं। फर्क ये है कि आप ग्रैजुएशन करने हेडगेवार और गुरू गोलवाल्कर की यूनिवर्सिटि में चले गये। इसलिये आप गुजरात दंगे में मारे गये सैंकड़ो मुसलमानों का दर्द नहीं समझ पाये। आप समझते तो आप इंडिया शाइनिंग का स्लोगन नहीं देते। वाजपेयी जी ने समझना चाहा मगर फिर हकीकत से मुंह मोड़ लिया। मोदी को छोटी सी फटकार लगायी कि राजधर्म निभाओ। सोचा ये कहने भर से एनडीए की सेक्यूलर इमेज कायम रहेगी। मगर जनता ने वाजपेयी की शाइन गायब कर दी।
आज आप नवीन पटनायक को कोस रहे कि उसने धोखा किया। ग्यारह साल पुराने रिश्ते पर हैंड ब्रेक लगा दिया। लेकिन नवीन ऐसा क्यों नहीं करते। आपने उनकी सेक्यूलर पॉलिटिक्स के लिये सस्पेस ही कब छोड़ी थी। कंधमाल में जो हुया उसके लिये आपकी पार्टी नेताओं ने, संघ परिवार के फेवरिट सन बीएचपी ने उन्हे कितना कोसा। उन्होने बताया कि वहां हिन्दुत्व के ही कायदे कानून चलेंगे। जो उनके टाइप का हिन्दु है वही रहेगा। वही काम जो आपके येदुरप्पा अब कर्नाटक में कर रहे। अपने कनिष्ट भ्राता मुथालिक के सर पर हाथ रख कर।
आप क्यों नहीं समझ पा रहे इंडिया की असलियत। इंडिया का सेक्यूलर इतिहास। उसकी सर्वधर्म सम्भाव की विलक्षण क्षमता। उसकी पहचान। आप फिरकापरस्त ताकतों को मोबालाइज करके 2 से 180 तो पहुंच सकते हैं पर इससे आगे बढ़ना टेढ़ी खीर है। क्योंकि ये देश किसी भी तरह के एक्सट्रीमीज्म को नकारता आया है। इस देश नें सनातन हिंदुत्व को भी जगह दी। मगर बुद्ध का मिडिल पाथ जब निर्वाण की नई ऊर्जा ले कर आया तो उसे गले से लगा लिया। इस देश ने औंरगजेब को सहा मगर मोहम्मद जलालउद्दीन को अकबर की उपाधि से नवाजा। डकैत गज़नी को धिक्कारा, आलिम दारा को पुचकारा। जिन्नाह को तड़ी पार किया। नेहरू को आशीर्वाद दिया। आरएसएस और मुस्लिम लीगी पॉलिटिक्स को टिकने नहीं दिया। नक्सलिज्म को पसरने नहीं दिया। और यही भारत दैट इज इंडिया आतंकवाद से भी लड़ रहा। मगर भारत ने किसी तरह की चरमपंथी, डिस्ट्र्क्टिस सोच को न कभी सींचा और न ही उसे फलने फूलने दिया।
अगर इंडिया ने आप सरीखी पॉलिटिक्स को स्पेस दी भी जैसा कि 1998 में हुया तो वो भी शर्तों के साथ कि मजहबी उन्माद नहीं फैलाओगे। लेकिन आपकी पेरन्ट बॉडी के टिड्डी दल ये कहां मानने वाले थे। वो तो गुजरात में एन्टी हिन्दु चांदमारी बना रहे थे। और 28 फरवरी 2002 को उन्होने इस चांदमारी का फौरी तौर पर उदघाटन भी कर दिया। बस तभी आप को समझ जाना था कि अब लुटिया डूबी। क्योंकि पब्लिक आपका हिडेन एजेंडा समझ चुकी थी। लेकिन आप तो सत्ता के खुमार में ऐसे औंधे पड़े थे कि बुरे वक्त की आहट नहीं सुन पाये।
नवीन ने एक गलती की। जैसी गलती इंडिया ने 1998 में की। नवीन ने आप पर भरोसा किया। आरएसएस के टिड्डी दल ने सोचा कैथोलिक स्कूल का पढ़ा, अंग्रेजी बोलने वाला, पेज थ्री और फैशन के गलियारों में घूमने वाला पप्पू ( नवीन की फैमिली में उन्हे इसी नाम से पुकारा जाता है ) गाड़ी चलायेगा। आप बैकसीट ड्राइविंग करेंगे। बुद्ध के सबसे बड़े शिष्य की धरती पर बजरंगी हिंदुत्व की ब्रांच खोलेंगे। इसके लिये आपके परिवार के टिड्डी दलों ने दारा सिंह जैसे लुम्पेन को हिंदुत्व की दीक्षा दी। और उसकी पोस्टिंग मयूरभंज की। वहां जाकर उसने मिशनरी ग्राहम स्टेन्स और उसके बेटे को जिंदा जलाकर आपके टिडड़ी दलों के फलसफे का परचम लहराया। आपने फिर वही खेल कंधमाल में रिपीट करना चाहा। मगर नवीन अब जवान हो चुका था। आपकी पॉलिटिक्स के आशियाने तले उसका दम घुट रहा था। वो इससे बाहर निकलने के लिये फड़फड़ा रहा था। अकेले कुछ करने के लिये दिल कुलांचे मार रहा था। बड़े भाई, मां-बाप के साये से दूर अपनी पहचान बनाने के लिये मचल रहा था। और फिर उसने दिल की सुनी और आपको छोड़ गया। बैरम खां बन कर आपने इतने सालों अपनी खूब मनमानी की। अब नवीन ने कहा टाटा। तुम भी हज जाने की तैयारी करो।
देखिये, उड़ीसा की कहानी से कहीं बिहार न इंस्पायर हो जाये। वो भी आपका पुराना साथी है। मगर यंग है। वो भी आपके साथ दस सालों से कदमताल कर रहा। कैथोलिक स्कूल में नहीं पढ़ा। प्योर देसी स्कूल में पढ़ा। वहीं जहां आपके कई नेता पढ़े हैं। मगर वो इन्क्लूसिव पॉलिटिक्स पर जोर दे रहा। बिहार को टर्नअराउंड का सपना बुन रहा। आपकी सुन जरूर रहा मगर अपने मन की कर रहा। देख लीजिये कहीं बिहार में भी बीजेडी के उड़ीसा के बीज तो नहीं बोये जा रहे।
आपको लगता है वक्त आपकी तकदीर पर एक बार दस्तक दे रहा। खुश रहने को ये ख्याल अच्छा है ग़ालिब। इंडिया बदल रहा। जिन्नाह को सेक्यूलर कहने भर से इंडिया आपको सेक्यूलर मान लेगा ये दूर की कौड़ी लगती है। अयोध्या में मंदिर गिरा कर संसद में घडि़याली आंसू बहाने से वोटर नहीं पिघलेगा। फेसबुक पर प्रोफाइल डालने से यंग इंडिया आपको समझेगा ये विशफुल थिंकिंग से ज्यादा कुछ नहीं। जो साथ थे, वो पास नहीं। जो साथ हैं वो साथ छोड़ने का मौका तलाश रहे। वो कहते हैं न यू कैन नॉट फूल ऑल द पीपिल ऑल द टाइम।
मुशर्रफ की तरह ये मत कहियेगा पीछे की बातें भूल जाओ। आगे की देखो। हिस्ट्री को भूलने का पाप इस देश ने जब जब किया उसे पछताना पड़ा। मुशर्रफ का झूठ पकड़ा जा चुका है। वैसे भी नया इतिहास रचने का मौका देश ने एक नहीं दो दो बार आपकी पार्टी को भी दिया। मगर गोधरा, बेस्ट बेकरी, नरोडा पाटिया, गुलबर्गा सोसाइटी में दंगो को अंजाम देकर आपके मोदीजी ने फिर देश को स्टोन एज की दहलीज पर खड़ा कर दिया। वो पप्पू तो पास हो गया मगर आप भारत दैट इज़ इंडिया को कैसे समझायेंगे कि आप ही देश के सर्वश्रेष्ठ मंत्रीपद पद के उपयुक्त दावेदार हैं। आप ही क्यों मोदी जी भी 2014 का ख्वाब देख रहे। पहले 16 मई को अपना रिपोर्ट कार्ड तो देख लीजिये।
एक भारतीय वोटर
अधूरी उदास नज़्में- सस्ती शायरी
१. क्यूं मुझे देखकर तुम लाल हो गए
मेरी हथेली का रंग तो पीला है
२ चांद पूनम का कितना अकेला है
चांदनी में इसके तारे खो गए हैं
३. रंग लेना आज तुम खुद ही
मैं सब रंगों में खो गया हूं
4. मेरी पीठ के पीछे अक्सर वो शिकायत करते हैं
समझदार है काफी,सामने का अंजाम पता है
५. तुम मुझ पर हंसते रहोगे कब तक
मुझे इस बात पर रोना आता है
६. घर में बैठ कर विचारक हो गया हूं
पत्रकार था,वरिष्ठ लेखक हो गया हूं
७. वो हर बात में कहते हैं मुझसे बड़ा कोई नहीं
ये खुदा का इंसाफ है,वर्ना उन्हें भी लंबा बनाता
८. हर लंबू को लगता है उसे आसमान दिखता है
ये खुदा का इंसाफ है,ज़मीन को नीचे बनाया
९. अबे साले तू, किस गली की मूली है
सलाद में कटती है,पराठे में भुनती है
१०. ये नज़्म दस नंबरी है दोस्तों
शायर थोड़ा कम है, दो नंबरी है
मेरी हथेली का रंग तो पीला है
२ चांद पूनम का कितना अकेला है
चांदनी में इसके तारे खो गए हैं
३. रंग लेना आज तुम खुद ही
मैं सब रंगों में खो गया हूं
4. मेरी पीठ के पीछे अक्सर वो शिकायत करते हैं
समझदार है काफी,सामने का अंजाम पता है
५. तुम मुझ पर हंसते रहोगे कब तक
मुझे इस बात पर रोना आता है
६. घर में बैठ कर विचारक हो गया हूं
पत्रकार था,वरिष्ठ लेखक हो गया हूं
७. वो हर बात में कहते हैं मुझसे बड़ा कोई नहीं
ये खुदा का इंसाफ है,वर्ना उन्हें भी लंबा बनाता
८. हर लंबू को लगता है उसे आसमान दिखता है
ये खुदा का इंसाफ है,ज़मीन को नीचे बनाया
९. अबे साले तू, किस गली की मूली है
सलाद में कटती है,पराठे में भुनती है
१०. ये नज़्म दस नंबरी है दोस्तों
शायर थोड़ा कम है, दो नंबरी है
अधूरी उदास नज़्में- सस्ती शायरी
जाती जाती सर्दी है
आती आती गर्मी है
डालो न हम पे
पानी रे
इक दिन तो आया है
सब दिन कैसे बदरंग रे
रंग ले लो, संग ले लो
डालो न हम पे
पानी रे
उड़ती उड़ती ए हवा
होश उड़े हैं चिलमन से
उड़ने दो इनको आज यहां
डालो न इन पे
पानी रे
जो छुपा है वही खिला है
गहरा है कितना रंग रे
मल मल दे तू आज सखी
हर अंग तू गुलाल रे
सस्ता है हर रंग यहां
चढ़ता है पर जतन से
लाल,पीला,हरा, नीला
रंग दो न मुझको
रंग से
कब आएगी अबकी होली
एक बरस में आई है
आने से इसके सब खिले है
मुझको भी खिल जाने दे
डालो ने मुझ पे
पानी रे
आती आती गर्मी है
डालो न हम पे
पानी रे
इक दिन तो आया है
सब दिन कैसे बदरंग रे
रंग ले लो, संग ले लो
डालो न हम पे
पानी रे
उड़ती उड़ती ए हवा
होश उड़े हैं चिलमन से
उड़ने दो इनको आज यहां
डालो न इन पे
पानी रे
जो छुपा है वही खिला है
गहरा है कितना रंग रे
मल मल दे तू आज सखी
हर अंग तू गुलाल रे
सस्ता है हर रंग यहां
चढ़ता है पर जतन से
लाल,पीला,हरा, नीला
रंग दो न मुझको
रंग से
कब आएगी अबकी होली
एक बरस में आई है
आने से इसके सब खिले है
मुझको भी खिल जाने दे
डालो ने मुझ पे
पानी रे
अधूरी उदास नज़्में- सस्ती शायरी
1.
तुम्हारे घर झूठ का बस्ता छोड़ आया हूं
खोलना मत मेरे सारे वादे निकल आएंगे
2.
तुम्हारी आंखों में जब से देखा है अपना चेहरा
सच से भागता मारा मारा फिर रहा हूं मैं
३.
ख़बरों में दिल नहीं लगता है शायर हो गया हूं
कलम की मौत के बाद कीबोर्ड से मोहब्बत है
४.
जब से मेरी सैलरी दुगनी हो गई है दोस्तों
घर में कूड़े का सामान बहुत आ गया है
५.
कितने कितने पद हो गए हैं पत्रकारों के अब
बस बड़े बाबू की तरह फोटो अटेस्ट नहीं कर पाते
६.
जब से उसके पास विजिटिंग कार्ड आया है
ख़बर नहीं पूछता, कार्ड बढ़ा देता है
७.
सज धज कर आते हैं दफ्तर में फैशन परेड की तरह
पसीने की बदबू की भनक लगे कितने साल हो गए
८.
अपनी आंखों की झुर्रियों को छुपा रहे थे जतन से
बड़े बड़े एंकर,ख़बरों के बिना भी हसीन लगते हैं
९.
आपको देखा है,जाने किस टीवी पर,
इतना ही याद रहा अब देखने वालों को
१०.
नेता ने ठीक ही कहा ये उनका स्वर्ण काल है
दफ्तर में बैठा पत्रकार हो रहा माला माल है
११.
तुम मुझे व्याकरण और लिंग से मत डराओ
व्याकरण की किताब भाषा के जन्म के बाद छपी है
तुम्हारे घर झूठ का बस्ता छोड़ आया हूं
खोलना मत मेरे सारे वादे निकल आएंगे
2.
तुम्हारी आंखों में जब से देखा है अपना चेहरा
सच से भागता मारा मारा फिर रहा हूं मैं
३.
ख़बरों में दिल नहीं लगता है शायर हो गया हूं
कलम की मौत के बाद कीबोर्ड से मोहब्बत है
४.
जब से मेरी सैलरी दुगनी हो गई है दोस्तों
घर में कूड़े का सामान बहुत आ गया है
५.
कितने कितने पद हो गए हैं पत्रकारों के अब
बस बड़े बाबू की तरह फोटो अटेस्ट नहीं कर पाते
६.
जब से उसके पास विजिटिंग कार्ड आया है
ख़बर नहीं पूछता, कार्ड बढ़ा देता है
७.
सज धज कर आते हैं दफ्तर में फैशन परेड की तरह
पसीने की बदबू की भनक लगे कितने साल हो गए
८.
अपनी आंखों की झुर्रियों को छुपा रहे थे जतन से
बड़े बड़े एंकर,ख़बरों के बिना भी हसीन लगते हैं
९.
आपको देखा है,जाने किस टीवी पर,
इतना ही याद रहा अब देखने वालों को
१०.
नेता ने ठीक ही कहा ये उनका स्वर्ण काल है
दफ्तर में बैठा पत्रकार हो रहा माला माल है
११.
तुम मुझे व्याकरण और लिंग से मत डराओ
व्याकरण की किताब भाषा के जन्म के बाद छपी है
अधूरी उदास नज़्में- सस्ती शायरी
कुछ रंग मेरे लिए बचाकर रखना होली में
सादा कुर्ता सिलने में दर्ज़ी ने देर कर दी है
सियासत का मौसम है बदल न जाना होली में
तुम्हारे रंग का जोड़ा ढूंढने में देर हो रही है
रास्ता देखते रहना तुम मेरा भी होली में
बच के बचा कर आने में देर हो रही है
सादा कुर्ता सिलने में दर्ज़ी ने देर कर दी है
सियासत का मौसम है बदल न जाना होली में
तुम्हारे रंग का जोड़ा ढूंढने में देर हो रही है
रास्ता देखते रहना तुम मेरा भी होली में
बच के बचा कर आने में देर हो रही है
अधूरी उदास नज़्में- सस्ती शायरी
कुछ रंग मेरे लिए बचाकर रखना होली में
सादा कुर्ता सिलने में दर्ज़ी ने देर कर दी है
सियासत का मौसम है बदल न जाना होली में
तुम्हारे रंग का जोड़ा ढूंढने में देर हो रही है
रास्ता देखते रहना तुम मेरा भी होली में
बच के बचा कर आने में देर हो रही है
सादा कुर्ता सिलने में दर्ज़ी ने देर कर दी है
सियासत का मौसम है बदल न जाना होली में
तुम्हारे रंग का जोड़ा ढूंढने में देर हो रही है
रास्ता देखते रहना तुम मेरा भी होली में
बच के बचा कर आने में देर हो रही है
अधूरी उदास नज़्में- सस्ती शायरी
१.
पुराने रिश्तों पर पैबंद चढ़ा कर आया हूं।
दोस्तों मैं अपने गांव जाकर आया हूं ।।
२.
आज ही तो तुमसे वादा किया है ।
निभाने के लिए वक्त तो दे दो।।
३.
तुम्हारे हाथ क्यूं लरज़ते हैं मेरे कंधों पर
मुझको छूकर कहीं दिल तो नहीं धड़कता
४.
याद करो जब बहुत इश्क था मुझसे
तुम बेचैन भी रहे और चैन से भी
५.
मेरे कितने मकान हैं इस जहान में
हर मकान पर किरायेदार का कब्ज़ा है
६.
मेरी शक्ल उस राजकुमार से मिलती है
जो सपनों में तुम्हें परी बुलाता था
पुराने रिश्तों पर पैबंद चढ़ा कर आया हूं।
दोस्तों मैं अपने गांव जाकर आया हूं ।।
२.
आज ही तो तुमसे वादा किया है ।
निभाने के लिए वक्त तो दे दो।।
३.
तुम्हारे हाथ क्यूं लरज़ते हैं मेरे कंधों पर
मुझको छूकर कहीं दिल तो नहीं धड़कता
४.
याद करो जब बहुत इश्क था मुझसे
तुम बेचैन भी रहे और चैन से भी
५.
मेरे कितने मकान हैं इस जहान में
हर मकान पर किरायेदार का कब्ज़ा है
६.
मेरी शक्ल उस राजकुमार से मिलती है
जो सपनों में तुम्हें परी बुलाता था
रेडियो भैया
आप कभी भी देखिये, मिलिये अपने बिजेंद्र भैया इसी मुद्रा में मिलेंगे। हाथ में रेडियो लिये। सोते जागते वे कभी भी रेडियो से दूर नहीं होते हैं। वे रेडियो के अलावा किसी और के नहीं हो सके हैं। इनके हाथ में जो रेडियो दिख रहा है वो फिलिप्स का फिलेट मॉडल है। तीस साल पहले २०० रुपये में ख़रीदा था। अब यह मॉडल बंद हो गया है। खराब होने पर पार्ट्स की चिंता न हो इसलिए बिजेंद्र भैया ने आस पास के लोगों से फिलेट मॉडल के पांच सेट खरीद कर रख लिये हैं। कुछ लोगों ने उनकी दीवानगी को देखते हुए फिलेट मॉडल दान भी कर दिये हैं। वे तीस साल से एक ही रेडियो के साथ हैं। दूसरा मॉडल ही नहीं खरीदा। पत्नी से भी ज्यादा रेडिया का साथ निभा दिया।
बीबीसी को बिजेंद्र भैया के पास जाना चाहिए। वे हर दिन बीबीसी सुनते हैं। दुनिया की हर खबर सुनते हैं। वे बीबीसी के उन श्रोताओं में होंगे जिसने हर दिन बीबीसी का हर समाचार सुना होगा। मैं जब छह सात साल का था तब से बिजेंद्र भैया को रेडियो के साथ देखा है। हम जब गंडक नदी में नहाने जाते थे तब भी उनका रेडियो किनारे पर बजता रहता था। वो किसी से बात नहीं करते। चुपचाप रेडियो सुनते रहते हैं। कोई साथ चलता भी है तो वो भी रेडियो सुनने लगता है। क्रिकेट का स्कोर हो या पाकिस्तान में हमला। बिजेंद्र भैया सारी ख़बरों के सोर्स हैं।
जितवारपुर के लोग कहते हैं रेडियो के शौक ने इन्हें नकारा कर दिया। वर्ना वे काफी अच्छे विद्यार्थी थे। मुझे लगता है कि रेडियो के शौक ने बिजेंद्र भैया की दुनिया देखने की जिज्ञासा को शांत कर दिया। प्रवासी मज़दूर या प्रवासी अफसर होकर गांव छोड़ने से अच्छा था रेडियो का साथ पकड़ों और दुनिया को अपनी बांहों में समेटे रहो। इनके पिता जी गांव के मुखिया हुआ करते थे। ज़मीन जायदाद भी ठीक ठाक है। चाहते तो टाटा स्काई लगाकर गांव में टीवी ला सकते थे। मगर रेडियो से इतनी मोहब्बत कि वे टीवी के लिए बेवफाई नहीं कर सके। काफी अच्छे आदमी है मगर रेडियो के बिना ये आदमी ही नहीं हैं। इसलिए मैंने इनका नाम रे़डियो भैया रख दिया है।
मेरे गांव में आज भी लोग रेडियो से ही समाचार सुनते हैं। अच्छा है टीवी नहीं आया है। गांव में अब अख़बार आ जाता है। हिंदुस्तान सुबह नौ बजे तक आ जाता है। कम लोग खरीदते हैं मगर पेपर पढ़ना भी रेडियो सुनने जैसा ही है। एक पन्ने को पचास लोग पढ़ डालते हैं। वे एक्ज़िट पोल पर चर्चा कर रहे थे। इन सबके बीच रेडियो बचा हुआ है। रेडियो के एंटना को लेकर अजीब किस्म का संघर्ष दिखाई दिया। एंटना में एक्स्ट्रा तार जोड़ कर पेड़ तक पहुंचा देते हैं। साफ आवाज़ की कोशिश में एंटना से काफी छेड़छाड़ की जाती है। गांव की बोरियत भरी ज़िंदगी में रेडियो से आती हुई हर आवाज़ तरंग पैदा करती है।