क्या आपने भी देखा है घर में एलुमुनियम का बक्सा
जिसमें आपकी मां ने एक साड़ी रखी थी
तीस साल पहले ख़रीद कर जतन से
धीरे धीरे उसमें और भी सामान रखे गए
हमारी बड़ी होतीं बहनों के साथ साथ
फिर बहनें भी बुनने लगीं धीरे धीरे
क्रोशिया के सोफा कवर और बनाने लगीं पेंटिंग
एक लड़की गगरा उठाए कर रही है इंतज़ार जिसमें
हाथरस से खरीद कर लाया गया पीतल का गुलदान
जब भी कभी फुआ या मामी आती रही घर में
एलुमुनियम का बक्सा खुलता रहा बार बार
देख कर मांओं के दिल तसल्ली करते रहते थे
पूरी लिस्ट बनती रहती थी हर साल
क्या क्या रखा है इसमें
क्या रखना है इस साल
सत्रह से अठारह की होतीं हमारी बहनों के साथ साथ
बक्से में सामान की गिनती उम्र की तरह बढ़ती रही
जब भी खुलता था बक्सा मौसियों के घर आने पर
कई सारे नए सामानों की गमक से भर जाता था कमरा
बनारसी साड़ी और फॉल का कपडा, रूबिया के ब्लाउज़
सोनपुर के मेले से खरीदे गए आलते की गमक
समधी की धोती और समधन की साड़ी की चमक
तीस साल से संभाल कर रखे गए हर सामान में
दुल्हे के लिए रेमंड सूट का कपड़ा भी तो होता था
तीन चार सादे रूमाल और एक एचएमटी की घड़ी
क्या आपने नहीं देखा अपने घर में एलुमुनियम का बक्सा
उसी दिन तो वो बक्सा उठा था सब भाइयों के कंधे पर
जिस दिन हम भाइयों की बहनों की डोली उठी थी
रायपुर, पटना, लखनऊ, गोरखपुर और बनारस के हर घरों से
एलमुनियम का बक्सा अब भी उठता है हर लगन में
अब भी हमारे घरों में बद कर कमरे हर दोपहर में
माएं, मौसियां, मामियां गिनती है दहेज के सामान
खुलता बंद होता रहता है एलुमुनियम का बक्सा
मन स्थिर नहीं हो रहा था, कल रात से ही। नेट कनेक्ट होने पर ब्लॉगों का चक्कर लगाने लगा। मोहल्ला होते कस्बा पहुंचा तो और भी इमोशनल हो गया।
ReplyDeleteसर जी कैसे लिख लेते हैं इन पंक्तियों को।
मुझे अपनी तीनों बहनों की शादी याद आ गई। मां-बाबूजी कैसे छोटे-छोटे समानों को सहेज कर रखते थे ताकि बेटियों को दिया जाए...एक अनकहा प्यार। शब्द नहीं होते हैं इन्हें विस्तार से लिखने के लिए।
बेडशीट ..आदि पर मिथिला पेंटिंग और न जाने क्या----क्या। छोटी चीजों में खूब प्यार होता था..जो आज भी बरकरार है। जब मैं अपने घर में पुराना संदूक देखता हूं जहां बेटियों की शादी के लिए एक-एक समान सहेजे जाते थे बरसों से.....तो पुरानी यादें ताजा हो जाती है आपने तो घर से कोसों दूर ही उन बातों को याद करा दिया।
रायपुर, पटना, लखनऊ, गोरखपुर और बनारस के हर घरों से
ReplyDeleteएलमुनियम का बक्सा अब भी उठता है हर लगन में
अब भी हमारे घरों में बद कर कमरे हर दोपहर में
माएं, मौसियां, मामियां गिनती है दहेज के सामान
खुलता बंद होता रहता है एलुमुनियम का बक्सा
क्या खूब लिखते हैं आप ... हर जगह के मध्यमवर्गीय परिवार की ... उनकी परंपराओं की कहानी ... याद आ जाते हैं गांवों में बिताए गए पुराने दिन।
एक मायने में यह पूरे भारत की व्यथा कथा है. कपडे लत्ते गहनों के अतिरिक्त बर्तनों के संग्रह की भी परंपरा रही है. बहुत ही सुन्दर भावनात्मक प्रस्तुति. आभार.
ReplyDeleteravishji kya kahoo. aap dil se sochte hai. itni gahrai se sochna bahut badi bat hai. bahoot badhia laga.
ReplyDeleteबड़ी निकट की विषयवस्तु है ये एल्मुनियम का बक्सा। शायद ही कोई मध्यम वर्गीय हो जो इससे नाता न रखता हो...मेरी तरफ़ से इस विषय वस्तु के लिए मेरी ४ पंक्तियाँ स्वीकार करिए:
ReplyDeleteकुछ सपने और ढेर सारी भावनाओ का अथाह समंदर बना जाता ये बक्सा
पीढ़ी दर पीढ़ी और रहस्यमयी बना जाता ये बक्सा
पता नही कब भेंट चढ़ जाए बदलते जीवन मूल्यों और दृष्टिकोणों का
जिंदा है आज दादी और नानी के दिनों की यादों से ये बक्सा
किसी दिन आखिरी बार खुलेगा ये बक्सा
और फ़िर हमेशा हमेशा के लिए बस माँ की कहानियो में मिलेगा ये बक्सा
कहने को तो बस है एक एल्मुनियम का टुकड़ा ही है ये
पर हमारी बिसरती परम्पराओं का आइना है ये बक्सा।
- Rakesh
http://kavisparsh.blogspot.com/
http://zindagi360.blogspot.com/
http://bharatsparsh.blogspot.com/
और बक्से, बक्से के बीच ठंसे सामानों के बीच
ReplyDeleteपापा की आवाज-
और क्या,क्या जाएगा इस बक्से में
सबकुछ एक ही साथ चले जाने की कसक
और आगे की बेटी के लिए कुछ बचाए रखने की
कोशिश के साथ एक सवाल
"एक मायने में यह पूरे भारत की व्यथा कथा है. कपडे लत्ते गहनों के अतिरिक्त बर्तनों के संग्रह की भी परंपरा रही है..." सुब्रह्मनिं जी ने सही कहा क्यूंकि ज्ञानी भी कह गए की जो समय के प्रभाव के परे होता है सत्य वोही होता है...और परम सत्य निराकार होने के कारण शुन्य काल से जुडा होता है जिस कारण वे मानव बुद्धि के परे हैं... इस कारण मानव मायाजाल में फंसा रह जाता है...
ReplyDeleteप्रभु! मेरे पास है, आज से तीन साल पहले जब पढ़ाई करने दिल्ली आया था, तभी से मेरे पास है। उससे पहले भी हॉस्टल में मेरे पास रहता था। और मेरे घर में तो आज भी बड़े-बड़े बक्से हैं वैसे। गोदरेज की अल्मारी बाज़ार में आने से पहले तो लोग इन्हीं को इस्तेमाल किया करते थे। एक-एक पंक्ति घर की याद दिलाती है।
ReplyDeleteआपके कस्बे में घूम कर लगता है कि आप देश प्रदेश और गांव की माटी से मन से जुड़े हुए हैं।
ReplyDeleteशब्दों की भीड़ नहीं लगाना चाहता, धन्यवाद
हमारा ब्रह्माण्ड एक अनंत बक्से जैसा ही है जिसके भीतर समय के साथ बदलते विभिन्न रूपों वाली वस्तुएं सदैव अनादिकाल से व्याप्त हैं!
ReplyDeleteइसे निराकार का 'एल्यूमिनियम का बक्सा' भी कह सकते हैं!
हाँ, हमने भी देखा है वो एल्यूमीनियम का बक्सा
ReplyDeleteमाँ बहुत सहेज़ कर रखती थी कई सामान
बहनों की दहेज के लिए रखे सामानों के बीच
उसकी शादी के कुछ ऐसे सामान
जिनके बहाने माँ अपने आँसुओं के बीच
अपने मायके वालों को याद कर लेती थी
उसकी भीनी भीनी ख़ुशबू मेरे मन में बसी है
माँ के पास वो पुरानी डायरी भी थी
जिसे कभी बाबूजी ने ऑफ़िस के लिए बचे
डायरी में से एक निकाल कर दे दी थी
उसी डायरी के कई पन्नों के बीच
कई पुरानी चिट्ठियाँ भी हुआ करती थीं
माँ के साथ-साथ उन पुरानी चिट्ठियों को
पढ़-पढ़कर लंबी आहें भरना
बचपन में ही सीख लिया था मैंने
आज मेरे पास वैसे बक्सा नहीं
लेकिन इस बार घर जाकर कहूँगा
माँ से,
चलो, एक बार फिर जी ने वो पल...
कमबखतमारे हाथरस की याद क्यूं दिला दी आपने। ऊपर से वो ससुरा बक्सा जिसके साथ हरेक की अपनी अच्छी-बुरी यादें जुड़ी हैं।
ReplyDeleteबहुत जानदार................
ReplyDeleteपक्के रिपोर्टर लगते हो गुरू। जमाए रहो। बस कांग्रेस से मोह माया त्याग दो तो अच्छे पत्रकार कहलाओगे। यह मैने सुना है कि मैडम के प्रति सॉफ़्ट कॉर्नर आपके भीतर के पत्रकार को दीमक की तरह चाट रहा है।
ReplyDeleteसम्हल जाइए नहीं तो दुनिया आपको बरखा दत्त से ज्यादा गाली देगी।
बहुत मार्मिक कविता है। बक्से तो बहुत हैं परन्तु उनमें दहेज का सामान कभी नहीं जुटाया गया। यह बक्सों, मेरा व बेटियों का सौभाग्य है।
ReplyDeleteघुघूती बासूती
बहुत सधी रचना..अम्मा का बक्सा याद हो आया.
ReplyDeleteभाई रवीश जी ,
ReplyDeleteहर परिवार में रहा होगा ये अलमुनियम का बक्सा ,
हर भाई ने इस बक्से के साथ की होगी विदाई अपनी प्यारी बहनों की ,मध्य वर्गीय परिवार की पहचान भी है ये अलमुनियम का बक्सा ........
लेकिन आज से पहले कभी किसी ने इस बक्से पर सोचा भी नहीं .....लिखना तो दूर की बात है .....
सोचा इसलिए नहीं किसी ने क्योंकि ....ये बक्सा ....उससे जुडी बातें तो ..निकलनी थी आपकी कलम से ....एक सशक्त ,भावपूर्ण कविता के रूप में .....
बहुत अच्छी लगी आपकी ये कविता ...
हेमंत कुमार
वाह सरजी ऐसा लगा जैसे मेरे घर की ही बात हो पर इतने सारे कमेंट पढ़ने के बाद लगा सब के यहां है ये बक्सा...दरअसल सामाजिक लेखों में भावनाओं का बिंब जिस तरह से आप पेश करते हैं वो शायद ही कोई कर सके...चलिए मां बगल में ही है पूछता हूं शायद आप लोगों के बक्से से कुछ अलग मिल जाए...
ReplyDeleteयह बक्सा तो पिटारा लगता है ..जिस में से न जाने क्या क्या निकल आएगा ..सबकी बात को आपने इस में खूबसूरती से लिख दिया है .शुक्रिया
ReplyDeleteवाकई आपकी नज़र लोगो के दिल के भावों को पढ़ लेती है.उनके अहसासों को आप बखूब समझते है. लेख को पढ़ कर मन खुश हो उठा .
ReplyDeleteअब भी हमारे घरों में बद कर कमरे हर दोपहर में
ReplyDeleteमाएं, मौसियां, मामियां गिनती है दहेज के सामान
खुलता बंद होता रहता है एलुमुनियम का बक्सा
....bu hu hu hu :(
abhi abhi (20 ht feb ko ) behan ki shaadi niptayee hai.
apne to mujhe nostlagic bana diya....
गजब लिखा है आपने। बेटी की चिंता और नारी अधिकार व स्वतंत्रता इसी एल्मूनियम के बक्से में बंद रहते हैं। हर घर में।
ReplyDeletehar ghar me hota hai yah baxa,har ghar me runjhun pajeb bade hote hain......jaane kitni bhawnayen aankhon ke aage ghoom gai......
ReplyDeletebahut gahre chhu gai
Ravishji, aap ke kasbe par na jaane kitni baar aati hoon, padhi hui rachnaon ko dubaara-tibaara padhti hoon! jitni baar padhti hoon aankhe nam ho jaati hain, kai baar roi hoon! badi hi klisht baato ko aap sahaj shabdon me prastut karte hain!bahut hi sanvedanshhel aur maarmik rachnayen kar jaate hain aap!kaaran saaf hai, aap aaj bhi apni maati se jude huen hain aur aap hum jaise sanvedansheel sahriday logo ko apne saath jod paate hain! aap ko bahut-bahut shubhkaamnayen! meri bitiya jo maatr 12 saal ki hai usi ne kasbe se mera parichay karaya, aapki har rachna padhti hai aur samajhti bhi hai! kahati hai ma, uncle tinni (Tanima) ke baare me "betiyon ke blog" par ab kuch nahi likhte?
ReplyDeletebahut dino se aap ke blog par pratikriya aur apne vichaar rakhna chahti thi, aapko saadhuvaad aur aashirvaad bhi(chote ho mujhse) par devnagiri me type nahi kar paati, par aaj socha roman mein hi sahi.........main bhi ek patrakaar hoon par apni bhavnaon ki abhivyakti shabdon mein kar paane mein asamarth hoon!
ishvar aap ko dirghayu, asim sukh-shaanti de aur aapki lekhni ko taakat!!!( DEVNAAGRI MEIN NA LIKH PAANE KE KAARAN SABHI SE CHAMAYACHNA}
दिल्ली में रह कर भी आपको वो बक्सा कितना याद है। पढ़ कर लगा जैसे सामने ही कहीं वह बक्सा है और एक-एक चीज खुद बाहर आ रही है। स्मृतियों के मोती शायद इसलिए अनमोल होते हैं।
ReplyDeleteएल्मुनियम के बक्से के बहाने मध्य वर्गीय त्रासदियों को बहुत ही खूबसूरती से उतार दिया है।
ReplyDeleteकाश, यह बक्सा या तो हमेशा के लिए बंद हो जाए या फिर उसे खोलने की जरूरत ही न रहे।
हा हा हा :) बक्से का मालिक, अनंत शुन्य है, हमारी तरह शुन्य शुन्य नहीं निराकार है और सर्व गुण सम्पन्न भी. इसमें रखा सामान उसकी सहूलियत के लिए है और उसकी झलक मानव को भी मिलती ही - संदूक के रूप में और थैले अदि के रूप में भी. जिस दिन उसका काम हो जायेगा सत्य का आभास हो जायेगा या ब्रम्हा जी सो जायेंगे और बक्सा बंद हो जायेगा - फिर से खुलने के लिए उनके जागने पर.
ReplyDeleteसोने के सिंहासन को लात मारने वाला राम भी सीता के कारण सोने के हिरन के पीछे भाग कर मन का चैन खो बैठा था! हम किस खेत की मूली हैं? फिर कैसे समझ पाएंगे की हिन्दू शब्द की उत्पत्ति इंदु अथवा चंद्रमा से हुई और सीता के रूप में चंद्रमा को दर्शाया गया? सांकेतिक भाषा में. द्वापर में द्रौपदी के रूप में और पारवती के रूप में सतयुग में!
ReplyDeleteमाथे में चंद्रमा वाली शिव की तस्वीर के सामने दिए की लौ कितना भी घुमालो शिव को अपनी पृथ्वी जान पायेगा 'हिन्दू'?
ReplyDeleteया जय माता की! में माता अथवा 'जगदम्बा' चंद्रमा की ओर इंगित करता है - और उसको दिए की पीली लौ भी दर्शाती है!
'मिस्टर Banjo इशारा तो समझो'!
'साइंस' को पश्चिम की देन मान लेने वाले 'हिन्दू' शायद कृष्ण के विभिन्न रूपों से अवगत नहीं हैं - काल के प्रभाव के कारण. कृष्ण/ काली को काले के अलावा काली की लाल जीभ से एक आरंभिक चिंगारी समान दर्शाया गया जो पूर्व दिशा से, उगते सूर्य से, सम्बंधित है. नीलाम्बर कृष्ण उसी प्रकार पश्चिम से और पीताम्बर कृष्ण उत्तर दिशां से... और उत्तर में कैलाश- मानसरोवर शिव-पारवती का निवास स्थान माना गया!
ReplyDeleteआधुनिक वैज्ञानिक भी सुदर्शनचक्र सामान घुमती galaxy के केंद्र में 'ब्लैक होल' की उपस्थिति दर्शाते हैं!
यदि उपरोक्त काफी न लगे तो आजादी के बाद भारत ने पश्चिम की नक़ल करने की ठान ली. हमारा रास्ट्रीय पक्षी मोर चुन लिया. वो सुंदर नील्र रंग का होता है किन्तु अपनी बदसूरत टांगों के कारण रोता है - कहा जाता है. प्राचीन हिन्दू दक्षिण दिशा में (मोर के पैर को) सूर्य के सफ़ेद रंग का द्योतक मानते हैं और ब्रह्मा (अर्जुन) को दर्शाता है जो विष्णु और महेश दोनों से निम्न श्रेणी के हैं एक कमज़ोर शुरूवात जैसे...पाकिस्तान का राष्ट्रीय पक्षी लाल टांगों वाला चकोर अपनाया गया...
ReplyDeleteहिन्दी क्षेत्र से न होने कारण कुछ चीजों के नामों से अंजान हूं, लेकिन सत्य कहूं तो आप ने कविता नहीं, बचपन से जवानी ने जो देखा, उसकी एक तस्वीर पेश कर दी है..जिसको देखकर अब तक की उम्र का हर पल जा आ गया. पंजाब में संदूक ऐसे ही धीरे धीरे मांएं अपनी बेटियों के लिए भरती हैं.
ReplyDeleteबहुत शानदार,हर मध्यवर्गीय परिवार की कहानी और वही माँ वाला बक्सा
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