मायावती से डर लगता है। मुलायम, लालू,नीतीश,मोदी और सोनिया से नहीं लगता। क्यों? लालू, नीतीश और नरेंद्र मोदी के कैबिनेट में कौन से ऐसे मंत्री होंगे जो भारत का नाम रौशन कर देंगे। हम इंडियन लोगों को एक कांप्लेक्स हो गया है। दुनिया में भारत के नाम होने का कांम्पलेक्स। भले ही किसी लीडर से इंडिया में काम न हो लेकिन उससे इंडिया का नाम हो जाए तो वाह वाह। स्कूली किताबों और नेताओं के भाषण ने हमें एकता अखंडता और महानता के वायरस से आजाद नहीं होने दिया है। हर छोटी बातों में इंडिया ग्रेट हो जाता है। महानता के अंहकार से ग्रस्त हो गया है ये मुल्क।
आज हिंदुस्तान में एक सर्वे आया है। कुल ६२२ लोगों में से ७४ फीसदी लोगों को मायावती का पीएम बनना पसंद नहीं हैं। इतनी ही फीसदी लोगों को लगता है कि भारत की विदेशों में छवि ख़राब हो जाएगी। अब इनकी सोच राजनीतिक कारणों से होती तो समझ में आती कि हम पहले से ही किसी पार्टी को पसंद करते हैं तो मायावती के लिए जगह नहीं हैं। मगर इनकी सोच की बुनियाद में एक डर है।
उत्तरप्रदेश की पूरी अस्सी सीटें ही मायावती जीत जाएं तो पीएम बनने से कौन रोक लेगा। यह एक ख्याली बात ज़रूर है मगर इसलिए कह रहा हूं कि इतने बड़े प्रदेश में साफ बहुमत के साथ सरकार चलाने वाली महिला को लेकर अब भी डर है। चार बार मुख्यमंत्री बनना किसी को पसंद नहीं आ रहा। लोग भूल रहे हैं कि उत्तर प्रदेश में मायावती ने खंडित राजनीति को खत्म कर दिया है। अब वहां एक पार्टी की सरकार है। बीजेपी, कांग्रेस अपना वजूद बचाते हुए मुलायम और अजित के सहारे मायावती से लड़ रहे हैं। पहले मायावती सबसे लड़ती थीं और अब सब मायावती से लड़ रहे हैं। यह एक बदलाव मायावती ने अकेले दम पर किया है।
यूपी में मायावती के अस्सी फीसदी विधायक दूसरी जाति से हैं। यानी हर जाति के लोग जो अपर कास्ट कहलाना पसंद करते हैं, मायावती के आदेशों को सर आंखों पर रखते हैं और दौड़े चले आते हैं। एक यह क्रांतिकारी बदलाव है। एक महिला, एक दलित के साथ काम करने के लिए होड़ मची है।
फिर ये ६२२ लोग कौन हैं जिन्हें मायावती से डर लगता है। जिन्हें मायावती के पीएम बनने से भारत की छवि खराब होने की चिंता है। ऐसे मूर्खों से कहना चाहूंगा कि जब एक दलित महिला वो भी लोकतांत्रिक राजनीति से, लड़ कर, संघर्ष कर, (छाती पीट कर नहीं) मुख्यमंत्री बनती है तो भारत की छवि ठीक होती है। दुनिया कहती है कि भारत में लोकतंत्र अब भी कई संभावनाओं से भरा हुआ है। क्या यह संभावना नहीं है कि एक ब्राह्मण नेता एक दलित नेता के साथ मंच पर शान से हाथ हिलाता है? क्या इससे जातिगत पूर्वाग्रहों का मुंह नहीं चिढ़ता होगा। कोई बताये तो ये महिला जो इंडिया नहीं चला सकती,यूपी कैसे चला रही है? कैसे यूपी के पंडितों ने दलितों का भोज खा खाकर बीएसपी के हाथी की सवारी की है? क्या उत्तर प्रदेश में शासन नहीं चल रहा? उतना तो चल ही रहा होगा जहां पंत,वंत,तिवारी विवारी, सिंह विंह जैसे लोग चला कर गए हैं।
अब रही बात पैसे चंदे के बहाने लगने वाले आरोपों की। इस पर बहस फिर कभी। बस इतना ही कहना चाहता हूं कि अगर हम इस बुराई को लेकर चिंतित हैं तो ये चिंता सिर्फ बीएसपी के संदर्भ में ही क्यों झलकती है? कांग्रेस,समाजवादी,बीजेपी और बाकी अन्य दलों को चंदा कहां से आता है? क्या वे वसूली नहीं करते? मैं ये नहीं कह रहा कि मायावती में कोई बुराई नहीं है। सत्ता की बुराइयां तो उनको भी लगीं हैं, जितनी बाकी दलों को लगी हैं।
मगर मायावती से डर की वजह भी हमारा वर्गीय पूर्वाग्रह है और जातीय सोच। यशंवत सिन्हा विदेश मंत्री बनने से पहले कौन से विदेश मामलों के एक्सपर्ट थे। जसवंत सिंह क्या कोई विदेश मंत्रालय की डिग्री ले कर आए थे? ये सब बकवास बाते हैं। लोकतंत्र में चुनाव इसलिए नहीं होते कि विदेश मंत्रालय कौन चलायेगा और वित्त मंत्रालय कौन चलायेगा। चिदंबरम और यशंवत के वित्त मंत्री बनने से जैसे भारत की गरीबी ही दूर हो गई हो? किसी भाई को पता नहीं है कि मंदी का जवाब कैसे दे? अगर इतने ही एक्सपर्ट हैं तो समाधान बता दें न? नारायण दत्त तिवारी किस हैसियत से वित्त मंत्री बन गए और इन ६२२ लोगों की तकलीफ नहीं हुई?
मायावती की आलोचना खूब कीजिए। लेकिन इस पर भी ध्यान दीजिए कि कहीं आलोचना के ये स्वर आपके भीतर बनी पूर्वाग्रहों की कोठरी से तो नहीं उठ रहे हैं।
मायावती भी भारतीय राजनीति में परिवर्तन का एक जरूरी पक्ष है।
ReplyDeleteहमें तो मायावती से कतई डर नहीं लगता.
ReplyDeleteडर लगता है हमें उन पत्रकारों से जो खबरे बताने के बजाय खबरे गढने में अधिक विश्वास रखते है, जो अपने पूर्वाग्रहों से बुरी तरह सताये हुये हैः, उन शुंगलुओं से जो "हमलावर हाथों" को "सहिष्णु" हाथ बताते हैं, जो अपने अन्दर गुलामी के जीन्स को देखने के बजाय वरुण के जींस की पड़ताल करते हैं,
इन सर्वे का क्या भरोसा? इन्हें तो किन्ही पत्रकारों ने ही तो किया है और पत्रकार कितने गैर भरोसेमंद हैं क्या बताने की जरूरत है. जब उत्तर प्रदेश में सभी पूर्वाग्रह के मारे चैनल और अखबारों ने मायावती को खारिज कर दिया था तब क्या हुआ था? कौन पढता है इन हिन्दुस्तान नाम के अखबारों को? क्यों आपका चैनल आम जनता ने खारिज कर दिया है और आप
मायावती से डर की वजह आप जिस पूर्वाग्रह की बात करते है, वह सिर्फ पत्रकारों का है और वह पूर्वागह पत्रकारों के मन में आज से नहीं आया, वह तो उसी दिन बैठ गया था जब कांशीराम ने एक "पत्रकार" के गाल पर तमाचा जड़ा था, उसी दिन से सारी मीडिया ने कांशीराम और बसपा का अघोषित बहिष्कार कर दिया था. लेकिन सरकार पत्रकार नहीं चुनती जनता चुनती है. यदि पत्रकार सरकार चुनते तो विनोदु दुआओ, बरखाओ, और सरदेसाईयों के बार बार लगातार चीखने के बाबजूद मोदी सिंहासन पर न जा विराजे होते.
हम नही डर रहे, हमें किन्ही पूर्वाग्रहों के निकालने की जरूरत नहीं है
हो सके तो अपनी पत्रकार बिरादरी से कहिये कि वो 'उस' चांटे को भूल कर खुद पूर्वाग्रह की कोठरी से बाहर निकले.
"मायावती की आलोचना खूब कीजिए,लेकिन यह ध्यान रखिए कि कहीं इसके पीछे आपके भीतर छिपा पूर्वाग्रह तो नहीं है..."
ReplyDelete...लालू मसखरा बने रहे, जब तक कि रेल मंत्री की हैसियत से मध्यवर्ग के हितों का पोषण शुरू नहीं किया। मुलायम अचानक महान हो गए, जब परमाणु करार उन्हें राष्ट्रीय हित में लगने लगा। जिस दिन समाज के प्रभु वर्ग को लक्षित नीतियां मायावती की प्राथमिकता बन जाएंगी, वे भी प्रधानमंत्री बन कर देश का नाम रोशन करेंगी। लेकिन जिस तरह लालू आज लालू नहीं हैं, उसी तरह मायावती भी लुप्त हो जाएंगी।
लालू या मायावती जिस वर्ग से आते हैं, उनके लिए जमीनी तौर पर उन्होंने क्या किया है, यह वे बेहतर जानते हैं। लेकिन जिन प्रतीकों के रूप में वे खड़े हुए, दरअसल भारतीय समाज को उन प्रतीकों से डर लगता है।
बहुत अच्छे और साहसपूर्ण पोस्ट के लिए धन्यवाद और बधाई...
मायावती की जय हो ! सौ चूहे खाकर बिल्ली के हज कर लेने से सब दोष दूर हो जाता है ! माया का सब दोष दूर हो गया जैसे लालू जी का दोष दूर हो गया ! उनकी गालियाँ मिटटी मिल गयी क्यों को वो तो ऐसे देते रहते थे ! अरे मूर्खो (622) इन गाली देने वालो के सपोर्ट में सर्वे में अपना मत क्यों नहीं दिए | तुम क्यों अपना विवेक का प्रयोग किये ! तुम्हे तो समाज में हो रहे महान बदलाव में भागीदार बनाना चाहिए था ! कितने वाल्मीकि (अपराधी प्रवृति के उम्मीदवार) कतार में खड़े हैं मरा मरा करते हुए | लेकिन कोई उनपर विस्वास ही नहीं करता ! काश इन ६२२ मूर्खो को अकल आती और इन वाल्मीकियों (कलयुग के) को भी मौका देते |
ReplyDeleteमैं भी दिनेशराय द्विवेदी जी की बात से सहमत हूँ
ReplyDeleteमैं कसौटी राम जी की टिप्पणी को दोहराना चाहता हूँ… पत्रकार सिर्फ़ एक सी्मा तक ही छवि बना या बिगाड़ सकता है फ़िर अन्तिम निर्णय तो चुनाव में ही होता है… सेकुलर(?) पत्रकारों ने कितने ही कपड़े फ़ाड़ लिये लेकिन मोदी और शिवराज दोबारा चुनकर आ ही गये… येदुरप्पा को भी बदनाम करने की साजिशें पहले दिन से ही शुरु हो गई हैं, भले सबसे ज्यादा दंगे कांग्रेस के राज में होते हों… "बिके" हुए पत्रकार जनमत नहीं बनाया करते…
ReplyDeleteChess ke khel mein kewal 'mohre' hote hain - bhale hi unhein 'Raja'/ Rani/ vazeer/ hathi/ ghorda/ oont/ paidal adi adi name se kyoon na koi pukar le...antatogatva kat peet ke jeet ya haar kisi khilardi ke shreya mein jati hai (jo ishwar ka hi pratibimba hai!)...
ReplyDelete"Prabhu ki kaisi ye 'MAYA' hai/ kahin dhoop kahin per chhaya hai!" aur "Prabhu ki kaisi ye leela/ Kahin sookha to kahin gila (kabhi Shiva ke teesre netra se bhasma ya kabhi 'pralaya' mein doob!"
Hum Bharatiyon ko adat hai Ram leela/ Krishna leela, adi adi ki...Manav samaj hamesha kam se kam do bhag mein bat-ta hi hai - chhote se chhote mamle mein bhi - kuchh 'for' tau kuchh 'against'; ek doosre ka gala katne hetu (Krishna ke 'sudershan chakra' ki tarah)...leela anant hai shayad:)
रवीश जी, मायावती अगर मुख्यमंत्री बनी हैं तो वह उत्तर प्रदेश में विकल्पहीनता, गर्हित जातिवादी राजनीति और और कुछ सत्तालोलुप वर्गों की अवसरवादिता के कारण बनी है. इसमें पसंद और नापसंद का सवाल नहीं उठता. अगर नकारात्मक वोट का अधिकार जनता को दे दिया जाये तो आज भारतीय राजनीतिक परिदृश्य पर जो राजनेता बांहे चढाकर मंच से अपनी कब्ज को विमोचित करते रहते हैं वे अपने घरों या फिर जेलों में पखाने पर कब्जा जमाये बैठे मिलेंगे.
ReplyDelete@ऐसे मूर्खों से कहना चाहूंगा…
ReplyDeleteरवीश जी आज आप लेखक नहीं एक टीवी के चिल्लाने वाले एंकर लगे और आपने लोगों के विचार उठाने तक के अधिकार को खारिज कर दिया। आपने उन्हें मूर्ख की संज्ञा दी‚ आपने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का उपयोग करने वाले लोगों को मूर्ख की संज्ञा दी। आप उस क्षेत्र से आते हैं जहां अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को सर्वोपरि माना जाता हैं। आप अगर उन लोगों से असहमत थे तो असहमति तो आपने जता दी थी परंतु मूर्ख कहना। सचमुच हमारे मीडिया में भी तानाशाही प्रवृत्ति के लोग भरे पड़े हैं।
sirf 1 baat likhna chahoonga...ye jo 74 percent log hai ravishji...inka kaam sirf gyan dena hai...ye vote dene nahi jaatey...yahi karan hai ki is 74 percent ko hatakar sirf average 35-36 percent hi voting hoti hai chunav me... to ye socalled kaabil hai..isliye inki baat ka koi matlab nahi...ye baat hi karte rahenge.
ReplyDeleteमायावती, लालू और पासवान करोडों मतों को जीत कर ही नेता बने है, इनको नकारने वाले तथाकथित बुद्धिजीवीयों की अक्ल पर तरस आता है।
ReplyDeleteमायावती के प्रति दुराह्ग्रह मानसिकता का खेल है . विश्लेष्ण कीजिये सभी नेता मायावती की तरह ही लगेंगे . मायावती के पास जो वोट बैंक है आज हिन्दुस्तान के किसी भी नेता पर नहीं है . वह अपना वोट किसी को भी ट्रांसफर करा सकती है . और रही प्रधानमंत्री की बात जब हिन्दुस्तान देवगोडा को झेल सकता है तो मायावती तो तब भी आज की सबसे बड़ी जननेता है . यह मे तब कह रहा हूँ जब की मैं मायावती की पार्टी का विरोधी हूँ
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ReplyDeleteसभी अवसरवादी हैं, केवल.
ReplyDeleteउल्लू कैसे भी सध जाए....बस्स्स.
)"मायावती से डर लगता है। "
ReplyDeleteमुझे तो पूरी भारतीय राजनीति को देख
कर डर लगने लगा है . मै जातीयतावाद का घोर विरोधी हूँ और जो अपनी जाती को श्रेष्ठता के रूप में गिनते हैं मै थूकता हूँ उनपर ...या ठोऊ थू . पता नहीं आज क्यों आप एक पत्रकार से ज्यादा पत्रकार दिखे . पोस्ट में शुरू से लेकर अंत तक किसी पूर्वाग्रह से ग्रसित नज़र आये और मायावती के दलित होने को ही उनकी उपलब्धि और योग्यता के रूप में पेश करते रहे .
ये वही दलित मायावती हैं ना जो राहुल के किसी दलित के घर खाने-बैठने-सोने से बिफर पड़ती हैं (अब भले ही राहुल का ये ढोंग असली हो या नकली ).इन्हें तो छुआछूत मिटाने वाले पर खुश होना चाहिए ना .मायावती जैसे एक तरफ दलित के मसीहा दिखना चाहते हैं और दुसरे तरफ भेदभाव को जीवित रखना चाहते हैं ताकि पिछवाडे गद्दी बनी रहे.
२)"एक यह क्रांतिकारी बदलाव है। एक महिला, एक दलित के साथ काम करने के लिए होड़ मची है।"
सब अवसरवादिता है . मायावती को अपनी महत्वाकांक्षा पूर्ण करने के लिए upper caste कहलाने वाले विधायकों की जरूरत है और उन्हें अपनी कुर्सी और खुराक के लिए मायावती की.कमाल है कैसे आपको नहीं दिख रहा कि ये मायाभक्ति नहीं कुर्सीभक्ति है .जिस दिन स्वहित सधना ख़त्म उस दिन सरोकार ख़त्म ,माया और सबकी पुरानी हिस्ट्री है .
३)"सत्ता की बुराइयां तो उनको भी लगीं हैं, जितनी बाकी दलों को लगी हैं। "
हमारे लोकतंत्र के लिए कितने शुभ संकेत वाह ! हमारे लोकतंत्र में बुराईयाँ कितनी स्वीकार्य हो गयीं हैं कि उसका अंग ही बन चुकी हैं. वो बुराई अच्छी है तो ये क्यों न हो ?वाह पत्रकार भाई वाह!
४)"ये सब बकवास बाते हैं। लोकतंत्र में चुनाव इसलिए नहीं होते कि विदेश मंत्रालय कौन चलायेगा और वित्त मंत्रालय कौन चलायेगा।"
आपकी सोच का जवाब नहीं .!!!नेताओं के लिए किसी पद को संभालने के लिए उपयुक्त योग्यता कि शर्त न होना हमारे लोकतंत्र का सबसे बड़ी खोंट है . मंत्रालय चलाने के लिए उससे सम्बंधित उपयुक्त योग्यता आवश्यक होना चाहिए न कि दलित होने कि योग्यता.
मेरे जैसे आम युवक का सोचना है अर्थव्यवस्था में मंदी और तेजी का चक्र चलता रहता है . अर्थव्यवस्था को overheating से बचाना भी जरूरी है . वैसे भी अमेरिकी अर्थव्यवस्था के कमज़ोर होने के चलते दुनिया कि सारी अर्थव्यवस्थाएं प्रभावित हैं . गरीबी चुटकी में नहीं मिटेगी . अमीरों का उपभोग बढेगा तो गरीबों के लिए रोज़गार अवश्य पैदा होंगे. गरीबों के उत्थान के लिए सरकारी नीतियां और योजनाओं के सफल क्रियान्वयन की अहम् भूमिका रहेगी साथ ही भ्रस्टाचार के उन्मूलन और जनसँख्या नियंत्रण से ही गरीबी मिट सकती है .
तीसरा मोर्चा के सत्ता में आने से देश का क्या होगा पता नहीं . पर गठबंधन में जितने ज्यादा घटक व सहयोगी होंगे टांग खिचाई और भ्रष्टाचार उतना ही होगा . क्षेत्रीय दल क्षेत्रीय मुद्दों और अपनी जायज-नाजायज़ मांगों के लिए blackmail करेंगे . देश कमज़ोर होगा न मंदी की मार बर्दाश्त कर सकेगा और न ही आतंकवाद का .
धीरू जी दुःख की बात है कि हमारा लोकतंत्र सिर्फ आंकडो का गुलाम है वैसे भी भारत जैसी हलकी-फुलकी चीज़ चलाने के लिए योग्यता ,कुशलता और अच्छे आचरण की क्या जरूरत ?. करोडों गरीब, अर्धसाक्षर और अर्धजागरूक दें धर्म और जाती के नाम पर वोट दारु पीकर और चुने किसी बाहुबली,आतंकवादी ,अपराधी ,
भ्रष्टाचारी, दलबदलू ,अभिनेता,जोकर या अयोग्य अनपढ़ को ,इतने विकल्प तो मौजूद हैं !!!.मूर्ख बुद्धिजीवी चुप रहें क्योंकि यही तो है आदर्श लोकतंत्र !!!!!
Mayawati desh ki kisi bhi 'prabhu'
ReplyDeletese kamtar nahi hain.Waise mayawi warg(class) unse purvagrah rakhate hain jo yeh manane ke aadati hain ki hamahi sabkuchh kar sakte hain..
maya ka bhartiya rajniti mein ubhar behad mahtvapurna hai.
आमतौर से आम आदमी किसी भी विषय पर निष्पक्ष होकर राय नहीं व्यक्त करता है। सामान्य तौर पर हम जो भी निर्णय लेते हैं, उसके पीछे, हमारे अनुभव, हमारा अतीत और हमारी सोच, जिसे पूर्वाग्रह भी कहा जा सकता है, भी उत्तरदायी होती है।
ReplyDeleteरवीश जी की कलम से ऐसा सतही विश्लेषण अपेक्षित नहीं था। दुखद है यह।
ReplyDeleteसच यह है कि मायावती की योग्यता भारतीय लोकतंत्र की चुनावी पद्धति और भारतीय समाज की जातीयता आधारित सोच का सटीक इश्तेमाल कर लेने भर की है।
हमारे चुनाव बहुमत के सबसे सरल किन्तु आभासी रूप पर आधारित हैं जहाँ बहुमत कुल मतों के सापेक्ष नहीं देखा जाता बल्कि अन्य उम्मीदवारों के सापेक्ष देखा जाता है। कुल १०० मतदाताओं में से १० का वोट पाने वाला भी बहुमत से जीता हुआ माना जाता है। कारण यह कि शेष ९० में से ५०-६० तो वोट डालते ही नहीं और बाकी ३०-४० वोट अन्य उम्मीदवार थोड़ा थोड़ा बाँट लेते हैं। एक सफल उम्मीदवार वही है जो इन दस-बीस वोटों का जुगाड़ पक्का कर ले।
मायावती जी ने पहले कांशीराम जी की छत्रछाया में दलित जाति को अपना बनाया। तरीका आसान था। दलित वर्ग में जागरूकता नहीं बल्कि शेष तीन वर्गों के विरुद्ध आक्रोश भरकर। उस समय का नारा तिलक, तराजू, और तलवार; इनको मारो जूते चार याद है न...!
जब दलित समुदाय इनकी जेब में चला गया तब सवर्णों के दूसरे विरोधी मुलायम जी के जेब में बन्द ‘पिछड़े’ समुदाय के साथ गठबन्धन का दौर चला लेकिन वहाँ ‘सहयोग’ पर ‘प्रतिद्वन्द्विता’ हावी हो गयी।
केवल दलित वोट से जिताऊ बहुमत नहीं मिल पाता इसलिए उन्होंने अपनी दलित भावना को थोड़ा चौड़ा किया और बहुजन से सर्वजन की ओर कूँच किया है। कलेजे पर पत्थर रखकर उनको फुसलाने चल पड़ीं जो सबसे बड़े विरोधी हुआ करते थे। ब्राह्मण समुदाय भाजपा और कांग्रेस के लिजलिजे, नपुंसक और भ्रष्ट नेताओं से कुपित होकर, तथा ठाकुर बिरादरी की मुलायम-अमर की अति भ्रष्ट, उद्दण्ड और सिद्धान्तहीन (और बाद में अधोगामी) जोड़ी के साथ पींगे बढ़ाने को देखते हुए मजबूरी में इस माया के साथ जा लगा। यह हमारे समाज की संरचना, लोगों की स्मरणलोप की प्रवृत्ति और घटिया मानसिकता ही ऐसी है कि मायावती की नीति सफल हो रही है।
लेकिन इसका अर्थ यदि रवीश जी यह लगाते हैं कि समाज का ७६ प्रतिशत वर्ग उन्हें नापसन्द करने के कारण ‘मूर्ख’ है तो शायद वे आज आइने के सामने बैठे हुए हैं। सच्चाई यह है कि मायावती की राजनीति में उन सभी बुराइयों ने आसमान छुआ है जो कांग्रेसी या भाजपाई सरकारों में छिपछिपाकर की जाती थीं। जिनके प्रति एक संकोच और सामाजिक अस्वीकृति का डर हुआ करता था। सपाइयों ने इन्हें संस्थागत बना दिया था।
अपराधी तत्वों का प्रयोग, जातिवादी भावनाओं का प्रसार, चुनावी समीकरण में उम्मीदवार की व्यक्तिगत योग्यता के बजाय उसके धनबल और पशुबल को अधिक महत्व, सत्ता में आने पर सरकारी तंत्र को काली कमाई करने की मशीन बनाना, सरकारी पदों पर योग्यता के बजाय जातीय, धार्मिक, क्षेत्रीय और थैली भेंट करने की क्षमता के आधार पर तैनाती, संवैधानिक पदों पर अयोग्य, नपुंसक, स्वामीभक्त, निर्लज्ज और भ्रष्ट व्यक्तियों को बिठाकर उनसे अपने स्वार्थ की सिद्धि कराने का काम इस सरकार ने जिस पैमाने पर किया है वह मुलायम जी के बनाये रिकार्ड को काफी पीछे छोड़ चुका है।
इसलिए यदि रवीश जी मुग्ध होकर माया मेमसाहब की यह विरुदावली गा रहे हैं और ७६% लोगों को मूर्ख कह कर जुगुप्सा फैला रहे हैं तो यह संकेत देता है कि तथाकथित चौथा स्तम्भ अब दीमकों का शिकार हो गया है। समाज के तथाकथित प्रहरी अब नेताओं का दिया माल उड़ाकर फाइव स्टार शैली का जीवन जीने के लिए अपनी आत्मा को कोठे पर सजा चुके हैं
logon ko waqai dar lagta hai. aaj se nahi manu ke zamaney sey. isiliye tamam varuno aur modion se darr nahi lagta jo bantatey hain marwane aur haath katne ki baat kartey hain. par darr hai ki mayawati pm na ban jayein. caste based reservation ka rona rone wale logon ne kabhi caste ke khilaaf awaz kyun nahi uthai. caste khatam ho jayegi to caste based reservation kahan rahega. par caste rahne do reservation kahatam karo. humse kyun dartey hain log humko nahi malum dikhney mein unke jaise hi hain hum.
ReplyDeleteI think this write up of Ravish Kumar is not from a Patrakar but as how he thinks about Mayavati being in his own caste. It is how Indians are influenced by the leaders support for their caste.
ReplyDeleteमायावती से लोगों को नहीं पर भारतीय हिंदी मीडिया और तथाकथित जमीनी पत्रकारों को बहुत डर लगता है, माया को लेकर उनके सभी चुनाव सर्वेक्षण माया को तीसरी पंक्ति में ही लेकर देखते हैं, जिससे पता चलता है कि आज भी हिंदी मीडिया जगत में कैसी सोच के लोग काम कर रहे हैं, आज भी जो कुछ मायावती है उसे वे दलित राजनीति का नया दौर नहीं मानते, बल्कि वे इसे सतीश चंद मिश्र का जादू मानते है, जो कि उ.प्र विधानसभा चुनावों के एक्जिट पोल के दौरान दिख गया था, वे सभी चैनल मायावती को आज भी पीछे की पंक्ति में ही देखते हैं...किसी बुद्धिजीवी के शब्दों से.. बाबू जगजीवन राम के प्रधानमंत्री बननें के समय की घटना का वर्णन है कि इस देश में मुसलमान एक बार को प्रधानमंत्री बनें हम बर्दाश कर लेंगें, पर चमार इस देश का प्रधानमंत्री बनें ये बर्दाश नहीं करेंगे... आज भी स्थिति जस की तस लगती है मनुवादी पत्रकारों की संख्या गिनती से भी बाहर हैं, तभी तो भारत में दलित राजनीति के सबसे अहम समय में भी दलित पिछलग्गु ही नजर आते हैं
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