राजनीति कमज़ोर स्मृतियों का खूब लाभ उठाती है। इनदिनों अध्यादेश की राजनीति चरम पर है। ऐसा ही साल २००२ में था। सुप्रीम कोर्ट ने एक आदेश दिया कि चुनाव लड़ने से पहले उम्मीदवार को आपराधिक पृष्ठभूमि, वित्तीय देनदारी और शैक्षणिक योग्यता का ब्यौरा देना होगा। कांग्रेस बीजेपी और समाजवादी पार्टी ने इस आदेश का विरोध किया था और एनडीए सरकार ने एक अध्यादेश लाने का फैसला किया। तब के राष्ट्रपति ए पी जे कलाम ने इस अध्यादेश को लौटा दिया। तिस पर उन्हें राष्ट्रपति का उम्मीदवार बनाने वाले मुलायम सिंह यादव भी आग उगलने लगे थे। एनडीए सरकार ने उस अध्यादेश को जस का तस राष्ट्रपति के पास भेज दिया लिहाजा उन्हें दस्तखत करने पड़े ।
राष्ट्रपति की आपत्ति यह थी कि अध्यादेश सुप्रीम कोर्ट के आदेश की भावना के अनुरूप नहीं है। सरकार के अध्यादेश में यह कहा गया था कि सिर्फ चुनाव जीतने वाला आपराधिक मामलों की जानकारी देगा। शैक्षणिक योग्यता की तो बात ही नहीं की गई थी। सुप्रीम कोर्ट ने इस अध्यादेश को असंवैधानिक बताते हुए खारिज कर दिया था। अदालत ने क्या कहा था यही न कि उम्मीदवार अपने आपराधिक मामलों की जानकारी दे। जब ये राजनतिक दल इतनी सी बात के खिलाफ हो सकते हैं तो इसमें क्या आश्चर्य कि वे इस बात के खिलाफ न होते कि लोअर कोर्ट में सज़ा मिलने पर सदस्यता छोडनी होगी। इसके पहले राजनीतिक दलों ने जनप्रतिनिधित्व कानून में बदलाव कर यह सुविधा हासिल कर ली थी कि अपील दायर करने की स्थिति में सदस्यता रद्द नहीं होगी। सुप्रीम कोर्ट ने दस जुलाई के अपने आदेश में कहा है कि कानून में यह प्रावधना संविधान के खिलाफ है। कानून चुने हुए प्रतिनिधि और उम्मीदवार में अंतर नहीं कर सकता। आप जानते हैं कि अगर उम्मीदवार सज़ायाफ्ता है तो चुनाव नहीं लड़ सकता तो चुने जाने पर सज़ा होगी तो वह सदस्य कैसे बना रह सकता है।
इस बार भी जब सुप्रीम कोर्ट का आदेश आया तो बीजू जनता दल को छोड़ कर सबने इस आदेश का विरोध किया। बीजेपी ने तो पहली ही प्रतिक्रिया में कहा था कि इसके दूरगामी परिणाम होंगे। सरकार ने सर्वदलीय बैठक बुलाई। उस बैठक का उद्देश्य क्या था। यही न कि सुप्रीम कोर्ट के आदेश को रोकना है। मई २००२ को अगस्त २०१३ में दोहराया जा रहा था। बीजेपी के सदस्य सुझाव भी दे रहे थे कि अदालत के आदेश को पलटने वाले बिल में क्या क्या होना चाहिए। जब बिल राज्य सभा में पहुंचा तो बीजेपी ने पैंतरा बदला और स्टैंडिंग कमेटी में भेजने का सुझाव दे दिया। सर्वदलीय बैठक में अध्यादेश लाने पर विचार या सहमति हुई थी या नहीं अभी इसकी पुष्ट जानकारी नहीं है। बीजेपी के साथ कांग्रेस भी तैयार हो गई कि बिल लाया जाएगा। यहां तक दोनों बराबर हैं। बस लाइन बदलने की होड़ शुरू होती है अध्यादेश के विरोध से। पहले बीजेपी ने किया क्योंकि उसे लगा कि लालू यादव को बचाने के लिए हो रहा है। फिर राहुल गांधी ने जो हरकत की वो आपके सामने है।
मेरा उद्देश्य सुप्रीम कोर्ट के आदेश को लेकर है। क्या इस वक्त जो राजनीति हो रही है वो इस आदेश को लेकर हो रही है या इसे लेकर हो रही है कि किसने अपनी लाइन पहले बदली और किसने बाद में बदलते हुए शिष्टाचार की सीमा लांघ दी। हालांकि ये सवाल भी बहुत अहम हैं। लेकिन राजनतीकि दल अपनी नैतिकता का प्रदर्शन किस आधार पर कर रहे हैं। क्या ये दल बता रहे हैं कि हम अब बदल गए हैं। हम अब सुप्रीम कोर्ट के आदेश के साथ हैं। हम अब आरोपी नेताओं को टिकट नहीं देंगे। ऐसा कुछ सुना क्या आपने। नरेंद्र मोदी के कैबिनेट में एक ऐसे मंत्री हैं जिन्हें गुजरात की एक अदालत ने तीन साल की सज़ा सुनाई है। उनकी अपील ऊपरी अदालतों में पेंडिंग है। मगर वे मंत्री हैं। सुप्रीम कोर्ट के आदेश की भावना को भी लागू करें तो उन्हें तीन महीने पहले इस्तीफा दे देना चाहिए था। ये और बात है कि सुप्रीम कोर्ट का आदेश पिछले मामलों में दोषी पाए गए सांसदों या विधायकों के लिए नहीं हैं। इस आदेश के बाद जो दोषी पाया जाएगा उसे अपील का अधिकार तो है मगर अपील के नाम पर सांसद या विधायक बने रहने की छूट नहीं है।
क्या कांग्रेस और बीजेपी दोनों ने सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश का विरोध नहीं किया कि राजनीतिक दल सूचना के अधिकार के तहत आते हैं। उन्हें जानकारी देनी चाहिए। अगर वे पारदर्शिता के इतने ही हिमायती हैं तो विरोध क्यों किया। आप जानते हैं कि इन दोनों की मिलीभगत से आर टी आई के दायरे से राजनीतिक दलों को बाहर रखने का बिल लाया गया । राहुल गांधी ने अध्यादेश को बकवास तो कह दिया मगर उनकी पार्टी या सरकार ने अभी तक यह नहीं बताया कि सुप्रीम कोर्ट के आदेश का पालन होना चाहिए। जो सज़ा पायेगा वो सदस्य नहीं रहेगा। जिस जनभावना के दबाव में बीजेपी और कांग्रेस के अपनी लाइन बदलने की बात कही जा रही है वो क्या है। क्या वो सिर्फ अध्यादेश के खिलाफ है या अध्यादेश में जो बातें हैं उसके भी खिलाफ है। राजनीतिक दल जानते हैं कि राजनीति अपनी नैतिकता से नहीं चलती। कानून की नैतिकता कहीं ज्यादा बड़ी चुनौती बन सकती है।
तो हमारा मूल सवाल यही होना चाहिए कि सज़ायाफ्ता सांसदों या विधायकों की सदस्यता जाने के हक में हैं या विरोध में। जब आप यह पूछेंगे तो सही जवाब मिलेगा। प्रधानमंत्री पद की गरिमा और इस्तीफा का मामला अहम होते हुए भी राजनीतिक दांव पेंच से ज्यादा कुछ नहीं है। उनके सम्मान की चिन्ता न राहुल गांधी ने की है न बीजेपी ने। कमज़ोर प्रधानमंत्री से लेकर मौनमोहन सिंह न जाने क्या क्या कहा गया है। तब भी कहा गया जब भ्रष्टाचार के आरोप नहीं लगे और जब लगने लगे तो इसकी तीव्रता बढ़ती ही चली गई। जो स्वाभाविक भी थी। इस हंगामे के बहाने कांग्रेस और बीजेपी मूल सवाल को टाल रहे हैं। घोटालों के कारण पार्टी से निकाले गए येदियुरप्पा नरेंद्र मोदी के हक प्रस्ताव पारित कर रहे हैं और बीजेपी चुप रह जाती है। कहती भी नहीं कि आप दूर रहे हैं। जेल से निकले जगन रेड्डी को लुभाने के लिए कांग्रेस तत्पर नज़र आती है। कहती भी नहीं कि आप दूर रहें। इसलिए राजनीतिक स्मृतियां जब तक दुरुस्त नहीं रहेंगी और मुद्दे को लेकर सवाल अपनी जगह टिके नहीं रहेंगे हमारे देश की राजनीति नरेंद्र मोदी बनाम राहुल गांधी या कांग्रेस बनाम बीजेपी के गलियारे में भटकती रहेगी। सुप्रीम कोर्ट के आदेश से जो सवाल उठा है वो सिर्फ बीजेपी या कांग्रेस तक सीमित नहीं है। उसका संबंध हमारी राजनीति के बेहतर और ईमानदार होने से हैं। आपने सुना क्या किसी को इस पर बोलते हुए।