छोटे शहर बड़े सपने

हमारी वरिष्ठ सहयोगी और दोस्त हैं शिखा त्रिवेदी। उनकी एक सीरीज़ आ रही है एनडीटीवी इंडिया पर हर शुक्रवार साढ़े दस बजे। शिखा जी ने कहा कि कोई नहीं देख रहा है। मुझे यह बात अखर रही है। लोग क्यों नहीं देख रहे हैं? क्या उन छोटे शहरों के लोग भी नहीं देखना चाहते, जिनके सपनों की छवि है इस कार्यक्रम में। मैं उनके प्रोग्राम का ब्लाग पर प्रोमो नहीं कर रहा। जानना चाहता हूं कि कोई क्यों सपनों की बात पसंद नहीं करता। क्या सिर्फ सपने अकेले किसी रात जागते हुए देखने की चीज़ हैं या सबके साथ बैठ कर बांटने की।

उनसे बात करते करते मैं झांसी के सपनों में खो गया। जनरल स्टोर में एक डाक्टर की बीवी पर अच्छी नज़र पड़ी। सोचा इनके सपनों में कौन सा शहर होगा। झांसी होगी। वो काफी सज-संवर कर दुकान में आयी थी। खुद कह रही थी- हमारा पति डाक्टर है। हमें मालूम है मैगी का फायदा नुकसान। स्लीवलेस ब्लाऊज, खूबसूरत साड़ी और शाम का वक्त। तभी उनके पति आ गये। मुझे पहचाना। कहीं आप टीवी में तो नहीं। मैंने कहा- हां, लेकिन अभी तो इस दुकान में हूं। और आपकी पत्नी से बात करना चाहता था। डाक्टर साहब ने कहा अरे घर चलते हैं। मैं उनकी कार में बैठ गया। एक अजनबी से चंद मिनट पहले हुई मुलाकात दोस्ती में बदल रही थी। आपको यह भी बता दूं कि डाक्टर साहब भी कम सजे धजे नहीं थे। दोनों की उम्र पचास के आस पास होगी।

घर पहुंचने से पहले ही मैंने पूछ दिया- आप दोनों के सपने क्या हैं? डाक्टर साहब बोले- बहुत हैं। हर वक्त बदल जाते हैं। यहां बिजली नहीं होती इसलिए सपने देखने का वक्त मिल जाता है। मैंने उनकी पत्नी से कहा- आपने सपनों के बारे में कुछ क्यों नहीं कहा। थोड़ी हंसी के बाद कहा कि सपने पूरे हो चुके हैं। जो सामने है वही सपने जैसा लगता है। मैंने कहा- डाक्टर साहब अब भी सपने जैसे लगते हैं। तो गाड़ी में दोनों हंस पड़े। सफाई देनी पड़ी कि बेटे जैसा हूं इसलिए बेतकल्लुफ हो गया हूं। और मुझे ऐसा होने दीजिए।

दोनों ने कहा कोई बात नहीं। हम घर पहुंच चुके थे। पहली मुलाकात में दहलीज पार। लेकिन मैं सपनों के पार जाना चाहता था। कहा कि छोटे शहरों में रहकर आपको नहीं लगता कि सपनों से दूर हो गये हैं। तभी नज़र उनके ड्राइंग रूम पर पड़ी। करीने से सजा कर रखा गया कमरा। बिल्कुल सपने की तरह। मैंने छोटे शहरों में देखा है- ठीक ठाक लोगों के ड्राइंग रूम खूब सजा कर रखे जाते हैं। मसूरी में खिंचायी गयी बीस साल पुरानी मियां बीबी की तस्वीर। सोफे पर क्रोशिया का कवर। बेटी की बनायी पेंटिंग्स। और दिल्ली के व्यापार मेले से खरीद कर लाया गया लैंप पोस्ट। सेंटर टेबल। महानगरों में भी ऐसा ही होता है। मगर कस्बों के ड्राइंग रुम का एहसास महानगरों से अलग होता है। लगता है किसी ने अपने सपनों को बाहर के कमरे में सजा कर रख दिया है। वहां आप का भी स्वागत है। अचानक आ जाएं तब भी।

तभी मिसेज माथुर ने कहा- हम सपनों के बहुत करीब हैं। हमारे सपने यहीं तक के थे। दोस्तों से शाम के वक्त मिलना जुलना हो जाता है। इनवर्टर से गर्मी की रात कट जाती है। फिल्में नहीं देख पाते। कोई अच्छा सिनेमा हाल नहीं है। डाक्टर माथुर ने कहा ऐसा भी नहीं कि हम वक्त से पीछे है। बच्चे बाहर हैं। फुर्सत में हम उनके भी हिस्से का सपना देख लेते हैं। बहुत दिल किया- काश, शिखा जी हमारे साथ होतीं। इस बातचीत में। सपनों की साझीदारी में। क्या हुआ उनका प्रोग्राम किसी ने नहीं देखा। बेहतर होने के बाद भी। मैंने माथुर परिवार से कहा- शिखा ने छोटे शहर बड़े सपने एक कार्यक्रम बनाया है। डाक्टर साहब बोले- अरे हमें पता होता तो हम उनका भी कार्यक्रम देख लेते। सपने ही तो हैं। किसी के भी हों। सपने अच्छे होते हैं। देखना चाहिए। चाहें आप किसी भी शहर में रहें। सपने देखिये। एक अजनबी से इतनी अंतरंग बातचीत सपना ही तो है। हकीकत को भी सपने जैसा होना चाहिए। हम सबके भीतर एक छोटा शहर है। जहां हम लोगों से नज़रे चुराकर चुपचाप सपने देखने चले जाते हैं।

यूपी का पप्पू पास हो गया

उत्तर प्रदेश के कस्बों गांवों के नौजवानों का क्या कहना । वो नेताओं से नकल की अनुमति चाहता है। फिर सर्टिफिकेट लेकर सिपाही बनना चाहता है । देश का सिपाही नहीं । नाकों पर वसूली करने वाला सिपाही । जो नौजवान चोरी कर पास होता हो उस बेचारे से क्या उम्मीद । मैं उत्तर प्रदेश की पूरी बेकार जवानी को नहीं गरिया रहा हूं । कुछ लोग तो बिना नकल के पास हो ही रहे हैं । कुछ लोग मेरिट से डाक्टर इंजीनियर भी बन रहे हैं । मगर ज़्यादातर कैसे बन रहे हैं ? बेशर्मी की हद पार कर दी है । मेरे लिए यह कोई नई बात नहीं थी । किसी के लिए भी नहीं है । बस फिर से चिंता हो गई । किसी महान नेता नुमा भाव पैदा हो गया । सवाल पैदा हो गया कि इस देश का क्या होगा ? बहुत दिनों बाद चिंता हुई देश के बारे में । अक्सर नहीं होती है । देशभक्त होने के बाद भी ।

तो मैं कह क्या रहा था..यही न कि यूपी में पप्पू नकल से पास हो रहे हैं । आजकल पप्पू मुन्ना भाई के नाम से भी जाने जाते हैं । अब समझ में आया कि मुन्ना भाई क्यों हिट हुई । देश की पढ़ी लिखी आबादी का पचास फीसदी से अधिक हिस्सा नकल से पास होता है । तो फिल्म हिट होनी थी । क्यों ? क्योंकि मुन्ना भाई ने सार्वजनिक तौर पर पहली बार मनोरंजन के ज़रिये नकलचियों को इज्ज़त बख्शी। उन्हें सर उठाकर घूमने का मौका दिया । कह सकते हैं जब दर्शक मुन्ना भाई पर पैसा लुटा सकता है तो हम क्या बुरे । हम क्यों सर छुपा कर जीयें । सर उठा कर जीयेंगे । तभी शूट करते वक्त कुछ नौजवानों ने कहा कैमरा बंद कीजिए और निकलिये । मैं भी अड़ा रहा। शूट किया । एक ने कहा भाई साहब अब तो हम लोगों पर फिल्में बनती हैं । गांधीगीरी को हमीं से नया आयाम मिला है । आप कहते हैं हम नकल कर रहे हैं । ज़्यादा अकल हो गई है क्या ? मुन्ना भाई देख लीजिएगा । एक बार फिर मुन्ना भाई देखने का मन कर रहा है। कि वाकई में इस फिल्म में नकल करने वाले शार्ट कट वाले अधिकांश भारतीय मध्यमवर्ग को मर्यादा का स्थान दिया है । ईमानदारों पर गांधी को गाड़ देने का आरोप है । गांधी को बोझिल बना देना का आरोप है । तो क्या इसके लिए गांधी का इस्तमाल किया गया ? पर हमने तो बड़े बड़े लेखकों और गांधी के परपोतों का भी बयान पढ़ा था कि मुन्ना भाई की गांधीगीरी से गांधी आम जन के हो गए हैं । क्या उस आमजन के हो गए जो नकल करते हैं, चोर हैं ? क्या इन्हीं का आदर्श बन जाना गांधी की प्रासंगिकता थी ? जिसका इंतज़ार किया जा रहा था । इन बयानों को कैसे समझूं । मुन्ना भाई देखूं या यूपी के पप्पुओं को नकल से पास होते देख अपनी आंखे मूंद लूं । क्या करूं ?

जूते मारूं या छोड़ दूं

जैसा नेता वैसी जनता । झांसी के एक गांव में गया कैमरा लेकर । गांव वाले बोले भई पत्रकार साहब इधर आइयेगा । गए भी । बोले कि रिकार्ड कीजिए कि हम वोट नहीं डाल रहे हैं । क्यों भई ? मेरे इस सवाल पर जवाब सुनिये ।
मुखिया बोलता है कि इस उम्मीदवार को बोलिये कि हमारे गांव में पानी का इंतज़ाम करे । यहां से बूचड़खाना हटाए । मैंने पूछा आप मुखिया किस लिए हैं ? आपने क्या किया है ? मुखिया बोले एमएलए जैसा असर नहीं है । मैंने कहा जनाब दबाव तो डाल सकते हैं । मुखिया बोला सुनते नहीं । मुझे गुस्सा आया कि आप वोट नहीं देना चाहते हैं या उम्मीदवार से यही सुनना चाहते हैं कि वो पानी बदबू के लिए कुछ करेगा । मुखिया बोले यही चाहते हैं । यानी मुखिया भी ढोंग कर रहा था । जनता भी अपना हक बेचना चाहती है । मैंने कहा वोट नहीं देने के फैसले पर कायम रहिए । तो कई लोग बोलने लगे । शोर में यही सुनाई दिया कि इस उम्मीदवार से हमें बहुत गुस्सा है । लेकिन नेता जी को क्यों सजा दें । यानी वो नेता जी जो गंध में सड़ रही जनता की जाति के हैं । क्या खेल है भाई । भारत की आत्मा गांवों में रहती है। एनसीईआरटी कि किताबों का यह सबक भी सड़ गया है । भारत के गांव मर गए हैं । उनकी आत्मा मर गई है । ऐसे वोटरों का क्या करें पाठक लोग । लेख लिखूं या जाकर उनको जूते मारूं ।

जाति की राजनीति कब तक?

मैं झांसी में चुनाव कवर कर रहा हूं। इस बार सोच कर गया था कि जाति की राजनीति से क्या फायदा हो रहा है। सिद्धांत रूप में मेरी राय रही है कि जातिगत चेतना से उन लोगों को आवाज़ मिली, जिनकी कोई सुनता नहीं था। जिनकी संख्या थी मगर भागीदारी नहीं थी। जातिगत राजनीति से उन लोगों को सरकार बनाने का मौका मिला, जिनके पास समाज में भी कुछ नहीं था। जाटव समाज की ऐतिहासिक भूख समझी जा सकती है, जिसके पास कोई ज़मींदारी नहीं थी। नौकरी से हैसियत मिलनी थी, नहीं मिली। नौकरी में तिरस्कृत किये गये। बीएसपी की राजनीति ने इन्हें आवाज़ दी। मगर इस आवाज़ के आगे क्या? हर दल अब बीएसपी की तरह जाति के पीछे भाग रहा है। बीएसपी के पास एक विचारधारा थी, दूसरे दलों के पास इन बेज़ुबान वोटरों को हड़पने की योजना है। दोनों सत्ता हासिल करने की सीमा तक एक हैं। किसी के पास सत्ता से आगे का कार्यक्रम नहीं है।

नतीजा यह हो रहा है कि हर दल में जाति विशेष के नेता पैदा हो गये हैं। जिनकी बीएसपी में नहीं गल रही है, वो कांग्रेस में जाकर दलितों का नेता बन जा रहा है और जिनकी कांग्रेस में दाल नहीं गलती, वो बीएसपी में जाकर नेता बन जा रहा है। हर दल में यहां वहां से आये उम्मीदवार हैं। किसी के पास अपनी विचारधारा में तपा हुआ नेता नहीं है। फतेहपुर सीकरी में बीएसपी, एसपी और आरएलडी के उम्मीदवार जाट हैं। तीनों जाट उम्मीदवार तीन महीने पहले तक अजीत सिंह की पार्टी में थे। यानी जाट बहुल इलाके में वोट पाने के लिए बीएसपी, एसपी के पास अपना कोई जाट नेता नहीं था। किराये पर लाये गये। यानी पार्टी की अहमियत खत्म हो गयी। यानी पार्टी की विचारधारा पीछे हो गयी। इससे बीएसपी की राजनीति की मंज़िल समझ में नहीं आती। मौकापरस्ती दिखती है। यही हाल कई इलाकों में है। ज़ाहिर है अब नयी राजनीति की ज़रूरत है।

यह भी देखा जाना चाहिए कि जाति की राजनीति से जाति विशेष को क्या फायदा हुआ है। क्या सिर्फ ठेकेदारी सिस्टम में प्राथमिकता मिली है? क्या सिर्फ अलग अलग जाति के ठेकेदार पैदा हुए हैं? जो स्‍कॉर्पियो लेकर चलते हैं। ईमानदारी का पैसा किसी दल के पास नही है। बसपा का मिशनरी पैसा हुआ करता था। एक एक रुपया जमा किया हुआ पैसा। लेकिन अब उसके वोट बैंक को कांग्रेस बीजेपी और एसपी से आये पैसे वाले लोग खरीद लेते हैं। पहले यही लोग वोटर को पैसा देते थे, अब उसके नेता को पैसा देकर टिकट खरीद लेते हैं। और वोटर नेता के कहने पर वोट दे देता है। यह बीमारी आयी है।

मैंने इसे और करीब से देखने के लिए कोरी समाज को चुना। झांसी में पिछले साल मेयर का चुनाव हुआ। सभी चारों दलों ने कोरी जाति से मेयर के लिए उम्मीदवार खड़े किये। तो ज़ाहिर है इस जाति के लोगों को फायदा हुआ होगा। किसी भी नेता ने नहीं कहा कि आर्थिक फायदा हुआ है। सबने यही कहा कि संख्या की दावेदारी से सिफारिश का वजन बढ़ जाता है। यानी अंग्रेजी राज के समय से सिफारिश, पैरवी की जो व्यवस्था बनी है, उसी में हिस्सेदारी के लिए यह जातिगत चेतना काम आ रही है। या फिर ज़्यादा से ज़्यादा उस जाति के मोहल्ले में कोई सड़क बन जाती है। कोई योजनागत लाभ नहीं है। संख्या की भागीदारी से राजनीति बदल रही है, मगर समाज नहीं बदल रहा है। हो यह रहा है कि बीएसपी बाकी दलों के चाल को आज़मा रही है और बाकी दल बीएसपी की नीतियों को चुरा रहे हैं। बीएसपी सभी जातियों को टिकट दे रही है। उसे सत्ता चाहिए। कांग्रेस और एसपी बीजेपी भी यही कर रही है। आज जातिगत चेतना को कौन सी पार्टी नयी मंज़िल पर ले जाने का दावा कर सकती है? जाति को तोड़ने का प्रयास नहीं है। जाति के खिलाफ राजनीति नहीं है। उत्तर प्रदेश में बीस साल से पिछड़े औऱ दलितों की सरकार बन रही है। इन्हीं के मोहल्लों, खेतों में कोई बदलाव नहीं दिखता। ठेकेदारी सिस्टम से कुछ ताकतवर लोग ज़रूर पैदा हुए हैं, जो अभी तक सिर्फ ठाकुर ब्राह्मण ही हुआ करते थे। मगर व्यापक स्तर पर नहीं। मैं इन सवालों को लेकर परेशान हो रहा हूं। पहले मानता था कि जातिगत गोलबंदी से डेमोक्रेसी का स्वरूप बदला है। यह सच भी है। मगर यह बदलाव अब रूक गया सा लगता है। आपकी राय जानना चाहता हूं। इस बात के बावजूद कि अभी भी एक दूसरे के प्रति जातिगत सोच कायम है। मगर सवाल है कि राजनीति को क्यों इस जातिगत सोच तक सीमित रहना चाहिए?

बॉब वूल्मर को क्रिकेट ने मार दिया

बॉब वूल्मर की हत्या की गई है । किसी ने गला दबोच दिया । क्रिकेट की शोहरत की चमक में कोई रात अंधेरे नहीं घुस आया है । कुछ साल पहले के मैच फिक्सिंग के वाकयात याद किया जाना चाहिए । कैसे अचनाक भारत का झंडा लेकर खेलने वाले धरे गए थे । ठीक उसी तरह जैसे संविधान की शपथ लेकर देश सेवा करने वाला नेता पकड़ा जाता है । चोरी करते हुए । क्रिकेट में बहुत पैसा आ गया है । मगर इस पैसे में काला पैसा ज़्यादा है जो मैदान के बाहर इस खेल पर दांव में लगता है । यह भ्रष्टाचार नहीं आता अगर हम क्रिकेट को धर्म या राष्ट्रवाद के चश्मे से न देखते । राष्ट्रवाद अब पुरानी पड़ रही अवधारणा है । रोज़गार का कोई देश नहीं होता । काम की तलाश में गए लोगों से पूछिए कि दुबई या न्यूयार्क में रह कर किस राष्ट्र को जीते हैं । या फिर बंगलौर के साफ्टवेयर इंजीनियर से पूछिए कि आप किस राष्ट्रवाद के तहत अमरीका के काम को रात भर जाग जाग कर रहे हैं । राष्ट्रवाद सीमाओं को बांध कर एक संविधान बना कर कुछ लोगों के उसकी संपदा को भोगने का प्रयोजन है । जिसकी रक्षा में कुछ लोग सीमाओं पर तैनात रहते हुए अपनी जान दे देते हैं । राष्ट्र इतना अहम है तो भारत पाकिस्तान और श्रीलंका के कोच विदेशी क्यों हैं ? क्या हम अपने लोगों पर कम भरोसा करते हैं ? हां तो फिर राष्ट्रवाद तेल लेने गया क्या ? हम ब्लागर का राष्ट्र क्या होगा ? गूगल्स की सीमाएं हो सकती हैं । दूसरी बीमारी क्रिकेट को धर्म बनाने से आई । धर्म है तो पंडे और मौलवी तो घुसेंगे ही । अपने अपने अंधविश्वासों से काली कमाई करने ।

मैं बहक रहा हूं । कहना चाहता हूं कि क्रिकेट में आए दिल्ली के लाजपत नगर के सटोरियों ने अपनी चाल दिखा दी है । ऐसे लाजपत नगर सीमा पार पाकिस्तान में भी है । ये वो लोग है जो सैमुअल्स से लेकर अज़हरूद्दीन , क्रोनिये तक को अपनी फांस में ले लेते हैं । क्रोनिये की मौत दुर्घटना थी ? वूल्मर की तो हत्या ही हो गई ।

ऐसा क्यों हैं ? बहुत दलीलें हैं । भारतीय उपमहाद्वीप में औपनिवेशिक काल के समय से ही भ्रष्टाचार सरकार से चुराकर अपना पेट भरने के विद्रोह से पनपा । कचहरी से लेकर थाना सिस्टम ने एक ऐसी लॉबी को जन्म दिया जो शुरू से ही रिश्वत के दम पर सरकार बहादुर को खुश करते रहे हैं । आज़ादी के बाद भी हम सरकार के प्रति अच्छी श्रद्धा विकसित नहीं कर पाए । हम कहते हैं कि मेरे बाप का नहीं सरकार का है । इस जुमले में कई राज़ है । भ्रष्टाचार एक सामाजिक बीमारी है । इसी वजह से लाजपत नगर का सटोरिया घर से ही धंधा चलाता है । पत्रकारों से रिश्ते बनाता है । पत्रकार उसका मुंह ढक कर ब्रेकिंग न्यूज़ करते हैं । पुलिस चुप रहती है । यही वजह है कि उनका दुस्साहस बढ़ गया और कोई वूल्मर के कमरे में घुस गया । वूल्मर अपने राज़ के साथ दफन हो गए । वो नहीं समझ पाए कि इस महाद्वीप के लोग काली कमाई के लिए कुछ भी कर सकते हैं । तभी तो पैरवी एक मान्य भ्रष्टाचार है । चढ़ावा स्वीकार्य है । आज़ादी से पहले प्रेमचंद की कहानी नमक का दारोगा याद कीजिए । ईमानदार रहने के लिए कितना संघर्ष करना पड़ता है । आज कल टीवी पर आ रहे इंकम टैक्स के विज्ञापन को देखिये । क्या आपके पापा टैक्स देते हैं ? हाय रे पापा । यही वजह है कि जो चीज़ भी शोहरत हासिल करती है हम उस पर दांव लगाना शुरू कर देते हैं । क्रिकेट के साथ भी यही हो रहा है । भारत का सरकारी सामाजिक भ्रष्टाचार इसमें घुस आया है । लोग फर्जी शाट्स के लिए या सिर्फ हवन में दिखने के लिए पूजा करने लगते हैं । ताकि टीम इंडिया को शुभकामना देते वक्त वो दिख जाएं । धोखाधड़ी का सार्वजनिक प्रदर्शन कहां होता है । भारतीय उपमहाद्वीप में होता है । जिसके जाल अब वेस्ट इंडीज़, द अफ्रीका से लेकर भारत पाकिस्तान तक फैले हैं । कृपया क्रिकेट को धर्म या राष्ट्र मत बनाइये । इन दो रास्तों से सिर्फ धोखाधड़ी करने वाले घुसते हैं । जो ईमानदार हैं वो सीमा पर पहरा दे रहे हैं । वूल्मर को श्रद्धांजलि कौन देगा ?

यार तुम बहुत ख़राब हो

आप पत्रकार हैं । आप तो सब जानते होंगे । रेलगाड़ी में सामने की सीट पर बैठे एक सज्जन ने कहा । तभी बॉस की बात कानों से गुज़र गई । पत्रकार हो और कुछ नहीं जानते हो । अक्सर होता है । जो बातें हम बॉस की मुंह से सुनते हैं ठीक उसके विपरीत बातें किसी और से सुनते हैं । उस वक्त कितना अच्छा लगता है । तुम खराब हो । तुम अच्छे हो । आपके साथ भी ऐसा होता है । क्या होगा जब घर में पत्नी भी यही बात कह दें कि तुम्हारा काम अच्छा नहीं । बाबूजी के मुंह से निकल जाए कि क्या रिपोर्ट लिखते हो । बॉस की बातों को तो आप दफ्तर के बाहर उड़ा देते हैं । घरवाले भी कुछ सच बोलने लगें तो क्या करेगे ? पर ऐसा क्यों हैं कि हम इन सब बातों के प्रति पेशेवर नहीं हैं । क्यों ख़राब लगता है ? क्यों ऐसा होता है कि एक ख़राब बोलता है तो हम किसी दूसरे के पास चले जाते हैं कि बोलो खुद तो देखता नहीं मुझे खराब बोलता है । इस चक्कर में आप दो चार लोगों को फोन कर व्यथा सुनाने लगते हैं । बताओ उन्हें ऐसा बोलना चाहिए था । हम क्यों करते हैं ऐसा । इन्हीं चार में से कोई बॉस के पास वापस आपकी बात पहुंचा देता है । मामला और उलझ जाता है । इसलिए कही गई बातों पर विचार कीजिए । इग्नोर कीजिए । और सामने बहस कीजिए । बाद में फोन मत कीजिए । अपनी राय भेजिएगा ।

उत्तर प्रदेश के चुनावों में जा रहा हूं । चुनाव लड़ने नहीं । कवर करने । झांसी, जालौन, ललितपुर और महोबा । मेरा नंबर ९८११५१८२५५ । अगर कोई ब्लागर पाठक वहां का है तो संपर्क कर सकता है । मेरी रिपोर्ट को बेहतर बनाने में मदद कर सकता है । मैं सबसे जुड़ते हुए रिपोर्टर बनना चाहता हूं । सबसे दूर जाकर नहीं । वह शायद एडिटर होता होगा । दूर रहना उसकी नियति है । बहरहाल चुनावों में व्यस्त रहने के कारण ब्लाग कुछ दिनों के लिए स्थगित रहेगा । कोशिश करूंगा कि वहां के साइबर कैफे से दो चार लिख मारें पर देखा जाएगा ।

नेमसेक के किरदार हम भी हैं

हम सब के भीतर कितना कुछ छूट गया है । कितना कुछ जुड़ गया है । मीरा नायर की फिल्म नेमसेक को कई तरह से देखा और पढ़ा जा सकता है । किसी से अचानक हुई मुलाकात, कोई किताब, फिर शादी, फिर परदेस और वापस स्वदेश । इन सब के बीच वो छोटी छोटी तस्वीरें, जो पीड़ा के किन्हीं क्षणों में फ्लैश की तरह आती जाती रहती हैं । हम सब कई शहरों और कई संस्कारों के मिश्रण होने के बाद भी अपने भीतर से सबसे पहले के शहर को नहीं मिटा पाते । विस्थापन का दर्द मकानों के बदलने से नहीं जाता । दुनिया को देखने का जुनून कितना कुछ छुड़ा देता है । भले ही अफसोस न हो । सिर्फ हिंदुस्तान से अमरीका गए लोगों की दूसरी पीढ़ी की कहानी नहीं है नेमशेक । पहली पीढ़ी की कहानी है । जो पहली बार गया अपने मोहल्ले को छोड़ । अपनी गलियों को छोड़ के । परदेस में सब कुछ खो देने के बाद भी तब्बू के किरदार में बहुत कुछ बचा रह जाता है । वह अमरीका से नाराज़ नहीं होती । बस अपने भीतर मौजूद उन तस्वीरों को पाने के लिए उसे छोड़ देती है । ज़माने बाद हिंदुस्तान से अमरीका गए परिवारों के विस्थापन की कहानी में अमरीका को लानत नहीं भेजी गई है । उसे धिक्कारा नहीं गया है । वह एक स्वभाविक मुल्क की तरह है । जो अपने यहां आए लोगों के बीच मोहल्ला नहीं बना पाता । वो यादों का हिस्सा नहीं बन पाता । तब्बू की ज़िंदगी खोते रहने की कहानी है । कुछ पाने की कोशिशों मे । मैं इस कहानी को देख बहुत रोया । अमरीका नहीं गया हूं । पर जहां काम करता हूं वहां कहीं से आया हूं । पंद्रह साल बीत गए । पर हर सुबह आंखों के सामने से गांव गुज़र जाता है । चुपचाप । यह कोई साहित्यिक नोस्ताल्ज़िया नहीं है । मेरे भीतर जो गांव है उस पर दिल्ली का अतिक्रमण नहीं हो सका है । हम सब विस्थापन के मारे लोग हैं । पर कोई अफसोस नहीं होता । शायद इसलिए कि यही तो चाहते थे हम सब । मेरे मां बाप,रिश्तेदार । कि लड़का बड़ा होकर नौकरी करेगा । कुछ करेगा । कुछ भी संयोग नहीं था । सब कुछ निर्देशित । मीरा नायर की फिल्म नेमशेक की तरह ।

वो सारे दोस्त मुझे अब भी याद आते हैं मगर वही पुराने चेहरों के साथ । वो अब कैसे दिखते होंगे जानता नहीं । पंद्रह साल से मिला ही नहीं । पूरे साल दशहरे का इंतज़ार करना । कपड़े की नई जोड़ी के लिए । मेले के लिए दो चार रुपये के लिए बड़ी मां से लेकर मां तक के पीछे घूमना । एक टोकरी धान के बदले बर्फ (जिसे हम आइसक्रीम कहते हैं) खरीदना । बहुत छोटी छोटी तस्वीरें हैं जो अचानक किसी वक्त बड़ी हो जाती है । किसी चौराहे पर हरी बत्ती के इंतज़ार के बीच सामने की होर्डिंग्स पर गांव की वो तस्वीरें बड़ी हो जाती है । फिर गायब हो जाती हैं । हम आगे बढ़ जाते हैं ।

कहानी का सूत्रधार शुरू और अंत में कहता है दुनिया देखो, कभी अफसोस नहीं होगा । यही नियति है विस्थापन की । दुनिया देखने की । बहुत परिपक्व तरीके से मीरा नायर ने इस फिल्म को बनाया है । कोई शोर नहीं है । अमरीकी निंदा का शोर या कोलकाता के गुणगाण का शोर । सब कुछ सामान्य और इतना स्वाभाविक कि लगता है कि इस कहानी में हम सब हैं । जिनका कस्बा, मोहल्ला कहीं छूट गया है । बार बार याद आने के लिए । हम लोगों में से बहुतों के पास वो पहला बक्सा ज़रूर बचा हुआ है जिसे लेकर हम मगध एक्स्प्रेस से दिल्ली आए थे । मैंने आज तक उस बक्से को संभाल कर रखा है । कभी लौटने के लिए । वह बक्सा बचा रहा मेरे साथ । दिल्ली के तमाम मोहल्लों में मकानों के बदलने के बाद भी । टिन का है ।
बनलता सेन जीवनानंद दास की एक और मशहूर और अच्छी कविता है ।


बनलता सेन
हज़ारों साल से राह चल रहा हूं पृथ्वी के पथ पर
सिंहल के समुद्र से रात के अंधेरे में मलय सागर तक
फिरा बहुत मैं बिम्बिसार और अशोक के धूसर जगत में
रहा मैं वहां बहुत दूर अंधेरे विदर्भ नगर में
मैं एक क्लान्त प्राण, जिसे घेरे है चारों ओर जीवन सागर का फेन
मुझे दो पल शान्ति जिसने दी वह- नाटोर की बनलता सेन ।

केश उसके जाने कब से काली, विदिशा की रात
मुख उसका श्रावस्ती का कारु शिल्प-
दूर सागर में टूटी पतवार लिए भटकता नाविक
जैसे देखता है दारचीनी द्वीप के भीतर हरे घास का देश
वैसे ही उसे देखा अन्धकार में, पूछ उठी, कहां रहे इतने दिन ?
चिड़ियों के नीड़-सी आंख उठाये नाटोर की बनलता सेन ।

समस्त दिन शेष होते शिशिर की तरह निशब्द
आ जाती है संध्या, अपने डैने पर धूप की गन्ध पोंछ लेती है चील
पृथ्वी के सारे रंग बुझ जाने पर पाण्डुलिपि करती आयोजन
तब किस्सों में झिलमिलाते हैं जुगनुओं के रंग
पक्षी फिरते घर-सर्वस्य नदी धार-निपटाकर जीवन भर की लेन देन
रह जाती है अंधेरे में मुखाभिमुख सिर्फ बनलता सेन ।

मैंने देखा है बंगाल का चेहरा

जीवनानंददास बांग्ला के अच्छे कवियों में से एक हैं । कस्बागतों के लिए उनकी चंद कविताएं पेश कर रहा हूं ।
जब भी लगे कि प्रकृति से दूर हैं तो जीवनानंद दास को पढ़ना चाहिए ।

--- मैंने देखा है बंगाल का चेहरा-

मैंने देखा है बंगाल का चेहरा इसलिए पृथ्वी का रूप
देखने कहीं नहीं जाता, अंधेरे में जगे गूलर के पेड़
तकता हूं, छाते जैसे बड़े पत्तों के नीचे बैठा हुआ है
भोर का दयाल पक्षी- चारों ओर देखता हूं पल्लवों का स्तूप
जामुन, बरगद, कटहल, सेमल, पीपल साधे हुए हैं चुप्पी
नागफनी का छाया बलुआही झाड़ों पर पड़ रही है
मधुकर के नाव से न जाने कब चांद, चम्पा के पास आ गया है
ऐसे ही सेमल, बरगद और ताड़ की नीली छाया से भरा पूरा है
बंगाल का अप्रतिम रूप ।

हाय, बेहुला ने भी देखा था एक दिन गंगा में नाव से
नदी किनारे कृष्ण द्वादशी की चांदनी में
सुनहले धान के पास हज़ारों पीपील, बरगद वट में
मन्द स्वर में खंजनी की तरह इन्द्रसभा में
श्यामा के कोमल गीत सुने थे, बंगाल के नदी कगार ने
खेत मैदान पर घुंघरू की तरह रोये थे उसके पांव ।
शब्दार्थ- मधुकर- सौदागर ( सती बेहुला की कथा का पात्र), श्यामा- लोक संगीत

काम न होने का मानसिक तनाव- भाग दो

दोस्तों । काम न होने का मानसिक तनाव पर कई लोगों ने अपनी राय भेजी हैं । सबकी सलाह से एक सामाजिक दस्तावेज़ बन रहा है । काम न कर पाने के मानसिक तनाव से प्रेरित होकर प्रमोद सिंह अप्रगतिशील साहित्य आंदोलन चलाने जा रहे हैं । चलाएं । बहुत प्रगति हो ली दुनिया में । कुछ अप्रगति भी हो । इससे कई लोगों को काम मिल सकता है । अभय तिवारी तो कभी खाली रहे ही नहीं इसलिए उनके पास इस मसले पर कोई सलाह नहीं है । अविनाश मुझे संत बनाना चाहते हैं ताकि मैं नौकरी छोड़ कर ईश्वर की खोज में भीख मांगने लगूं । गिरिजेश ने ठीक पकड़ा है । आस पास की ज़मीन गीली है तभी तो बात निकली है । जितेंद्र जी ने काम न होने की स्थिति में मीटिंग करने की सलाह दी है और इशारा किया है कि खाली वक्त में रसूख का इस्तमाल कर ब्लाग का प्रचार करें । ये इशारा मैं समझ गया । पर किसी रसूख का इस्तामाल नहीं हुआ था कि कस्बा और मोहल्ला के ज़िक्र में । अपने चैनल में हर शनिवार नारद की चर्चा करता हूं और दो ब्लाग की अलग से । उसमें कस्बा मोहल्ला नहीं होता । अभी तक बारह अलग अलग ब्लाग की चर्चा टीवी पर हो चुकी है । आगे होती रहेगी । पर मीटिंग प्रधान देश वाली बात कामचोरों की घोषणापत्र में पहले तीन में रखी जाएगी । ये एक बेहतर आइडिया है । मीटिंग कर काम न होने के तनाव को दूसरे पर टाला जा सकता है जो काम करते हैं । अनिल इतना व्यस्त रहते हैं कि सांस लेने की फुर्सत नहीं । कहीं दफ्तर में सबसे ज़्यादा सताए तो नहीं जा रहे । पर कस्बा में जाने के वक्त को वो काम की तरह देखते हैं । वाह वाह । ओम, लगता है काम न होने की स्थिति में ज़्यादा बहादुर हो जाते हैं । तनाव की जगह दबाव बनाने लगते हैं कि भई दफ्तर में हमेशा काम हो यह मुमकिन नहीं । मज़ा आया इस आइडिया पर । काम न होने की स्थिति का बहादुरी से सामना करने का सकारात्मक संदेश पढ़ कर । राजेश रौशन ने नब्ज़ पकड़ी है कि कोई इंसान खाली नहीं रह सकता । अगर खाली है तो उसे उसकी मदद करनी चाहिए जो काम के बोझ से दबा हुआ है । यह बेहतर सुझाव है । इससे दूसरों से सीखने का मौका मिल जाएगा और काम भी । बशर्ते काम के बोझ से दबा हुआ व्यक्ति किसी बेकार को अपने साथ काम करने दे । कई बार सारा क्रेडिट लेने के चक्कर में लोग किसी को शामिल ही नहीं करते । ब्लाग इलेक्ट्रानिक मीडिया का जवाब भी काबिले तारीफ है । इनका कहना है कि खाली है इसका मतलब आप अपनी भूमिका तक सीमित हैं । ऐसी स्थिति में लोगों को अपनी भूमिका से बाहर सोचने की कोशिश करनी चाहिए । इलेक्ट्रानिक मीडिया ने यह भी कहा है कि टीवी में दिखने और तारीफ की बीमारी लग जाती है । हर वक्त लगता है कि चर्चा में रहें । यह बात ठीक है मगर कोई ईमानदारी से कबूल नहीं करेगा । एक सुझाव और है कि दफ्तरों में खाली वक्त व्यतीत करने की व्यवस्था होनी चाहिए । कोई जगह होनी चाहिए जहां खाली वक्त का इस्तमाल हो सके । मगर ख़तरा है। वो यह कि किसी नियत जगह पर खाली वक्त में बैठने पर निठल्लों की जमात जैसे दाग आपके दामन पर लग सकते हैं । हो सकता है कि ऐसी जगह बन जाए और आप खाली होने के बाद भी लोक लाज के भय से वहां न जाएं । तब वह जगह खाली ही रह जाएगी जो खाली वक्त में भरने के लिए बनाई जाएगी । वी की अपनी दलीलें हैं । कहते हैं खाली वक्त में एक और खाली बैठे व्यक्ति की तलाश करें और चर्चा करते हुए चमचों के खिलाफ निंदा प्रस्ताव पास करें । फिर घर चले जाएं । सागर चंद नाहर जी मेरी ही बात से जवाब निकाल लेते हैं । लिखते हैं यार इतना टेंशन मत लो । ज़िंदगी काम से बड़ी नहीं । उसकी कीमत है । दफ्तर तो बदल जाएगा । जिंदगी नहीं मिलेगी ।

ये आलेख मेरे काम न होने का मानसिक तनाव के पहले खंड पर आई प्रतिक्रियाओं से तैयार हुआ है । मगर अभी भी कई सुझावों की संभावना है । मैं सोच रहा हूं कि इस मानसिक तनाव पर एक घोषणापत्र तैयार हो जो प्रामाणिक हो । यह तभी होगा जब और सुझाव आएंगे । जो पहले भेज चुके हैं वो दुबारा भी भेज सकते हैं । कई बार अच्छा आइडिया बाद में आता है ।

काम न होने का मानसिक तनाव

दफ्तर में हर आदमी हर दिन काम नहीं करता । तब क्या करता है ? जाता है और लौट आता है ? नहीं । वो काम करते हुए दिखने की कोशिश करता है । किसी के पास काम नहीं तो सीनियर से नज़रें बचाने की कोशिश करता है । कंप्यूटर पर बार बार लांग इन करता है । फिर मेल लिखता है । फिर फोन देखता है । एसएमएस करता है । वो एक मानसिक तनाव का शिकार हो जाता है । काम न करते हुए देखे जाने का मानसिक तनाव । कुछ लोग जो काम नहीं करते वो अचानक किसी दो की बातचीत में शामिल हो जाते हैं । दो में से एक का समर्थन करने लगते हैं । हंसने लगते हैं । कुछ लोग अपने सीनियर की रिपोर्ट पर एसएमएस भेजने लगते हैं । एक सवाल और है कि सीनियर के पास काम नहीं होने पर वो क्या करता है ? उसके तनाव क्या होते हैं ? बहरहाल इस सवाल को छोड़ते हुए मूल सवाल पर लौटते हैं । कुछ लोग बार बार चाय पीने जाते हैं । बैंक चले जाते हैं । चेक जमा करने । घर के सारे काम याद आने लगते हैं । और वक्त है कि बढ़ता ही नहीं । उस दिन घड़ी की सूई ठहर जाती है । बॉस का पास से गुज़रना और उसका घूरना जानलेवा हुआ जाता है । कुछ लोग इसे सनातन मान कर बेशर्म हो जाते हैं । वो अगले दिन भी यही करते हैं । कुछ लोग फोन कर दोस्त को कहते हैं यार बोर हो गए । कुछ नया किया जाए । नया क्या करें यही पता होता तो फोन करने वाला व्यक्ति बोर ही न होता । होता क्या ? पर वो लंबी सांसे छोड़ता हुआ अपने अपने पेशे में आ रही गिरावट पर चर्चा करता है । फिर टाइम्स आफ इंडिया में तनाव और बीमारी पर छपे लेख की चर्चा करता है । उधर से फोन पर सुन रहा मित्र बेमन से कहता है यार इतना टेंशन मत लो । ज़िंदगी काम से बड़ी नहीं । उसकी कीमत है । दफ्तर तो बदल जाएगा । ज़िंदगी नहीं मिलेगी । फोन पर मित्र काम न करने वाले मित्र को यह भी कहता है अपने दफ्तर में इसे देखो, उसे देखो, क्या वो कभी काम करते हैं ? वो कहां से कहां पहुंच गए । और तुम वहीं के वहीं रह गए । जल्दी ही उन लोगों की लिस्ट तैयार होती है जो कुछ लोगों की नज़र में काम नहीं करते मगर तरक्की पाते हैं । ऐसे लोगों की वजह से ही काम न करने वालों का तनाव कुछ हद तक कम हो जाता है । दोस्त इनका नाम लेकर सलाह देते हैं - टेंशन से बचो और बॉस को बोल दो आज कोई काम नहीं । (पत्रकारिता में कहते हैं आज कोई स्टोरी नहीं है) बस काम न करने वाले को दिलासा मिल जाता है । और वो शिफ्ट खत्म होने के बाद घर चला जाता है ।

मैं आप सबसे जवाब चाहता हूं कि आप सब ऐसी मनस्थिति में क्या करते हैं ? सोच कर विस्तार से जवाब लिखें ताकि इस दैनिक समस्या की कोई सामाजिक तस्वीर नज़र आ जाए । हम सब सामूहिक रूप से किसी नतीजे पर पहुंच सके । मनोचिकित्सक के पास जाने का खर्चा बचा सकें । दोस्तों ज़रा खुल कर लिखना । बताना कि आप जब काम नहीं कर रहे होते हैं तो सबसे ज़्यादा प्रेरणा किससे मिलती है । चमचागिरी के आरोप के साथ ऊपर पहुंचे व्यक्ति से या बहुत काम करने वाले व्यक्ति से आदि आदि....। इंतज़ार रहेगा ।

पाप से नहीं स्नान से डरो । सूर्यग्रहण का संदेश

पाप को लेकर कानून और धर्म की राय अलग है । कानून कहता है कि हर पाप यानी अपराध की कम से कम एक सज़ा तो है । कानून तोड़ने के बाद आप गंगा स्नान कर नहीं बच सकते । कोई चांस नहीं है । पैसा, वकील और दलील से कभी कभी काम चल जाता है मगर हमेशा नहीं ।

धर्म क्या कहता है ? पाप मत करो और यदि करो तो याद रखो कि स्नान कर इससे मुक्त होना है । मरने से पहले जहां भी नदियां हों और कोई मौका लगे तो स्नान कर आना । धर्म हर पापी को सज़ा नहीं देता है । वह कहता है माफी का प्रावधान है । शायद धर्म ठीक कहता है । इतने सारे पापी है कि इन्हें पकड़ने के बाद रखने की समस्या हो जाएगी । जबकि कानून ज़िद करता है कि सभी पापियों को पकड़ों । जो मुमकिन नहीं । इसलिए पुलिस और वकील मिल कर पैसे लेकर पापियों को छोड़ देते हैं । आखिर सज़ा काटने के बाद जेल से बाहर आना पड़ता है न । तो क्यों न पहले की कुछ ले दे के छोड़ दें ।

धार्मिक आचार व्यावहारों से यह आदत डाली जा चुकी है कि चिंता की बात नहीं । पाप हो गया है तो होने दो । प्रयाग नहीं तो काशी । काशी नहीं तो हरिद्वार । हरिद्वार नहीं तो नाशिक । नाशिक नहीं तो कुरूक्षेत्र । नदियों की कमीं नहीं । स्नानों की कमी नहीं । प्रयाग जाइये तो पंडित कहेगा सभी तीर्थों का तीर्थ है । कुरूक्षेत्र जाइये तो पंडित बोलेगे इसका महत्व प्रयाग से भी अधिक है । फिर आप ही बताइये कि महत्वपूर्ण और महान कौन है । सोमवार को सूर्यग्रहण के मौके पर कुरूक्षेत्र में लाखों लोग डुबकी लगाने आए थे । एक कारण यह भी था कि अपना ही नहीं पूर्वजों का भी पाप धुल जाए । तो यह किस क्राइटेरिया के पापी लोग थे । यहां तो पुलिस और इंकम टैक्स को होना चाहिए था । एक तर्क और दिया गया कि सौ अश्वमेध यज्ञ के बराबार है कुरूक्षेत्र का स्नान । एक अश्वमेध यज्ञ में महीनों लगते थे । कुरूक्षेत्र में भाई लोग पूरी की पूरी मेहनत एक डूबकी में बचा लेना चाहते हैं । क्या भक्ति है ? सूर्यग्रहण आममाफी का पर्व हो गया है । क्या हम स्वार्थ के लिए अपने धार्मिक मान्यताओं को भ्रष्ट कर रहे हैं ? क्या वाकई में स्नान से कोई मुक्त हो सकता है ? तो फिर अपराधी अच्छे वकील रखने के साथ कम से कम टॉप ग्रेड का तालाब ज़रूर खुदवाते । ताकि पाप के बाद गोते लगा कर उससे मुक्त हो सके । उसके असर को कम कर सकें । नदियों को बचाने की ज़िम्मेदारी अपराधियों और पापियों पर छोड़ दें । किसानों के बाद इन्हीं लोगों को नदियों की ज़रूरत होती है । यही लोग संभाले और बचाए नदियों को । स्नान से पाप मिटता है ? संदेश क्या है इन स्नानों का । कि पाप से मत डरो लेकिन स्नान से डरो । मतलब कि अगर स्नान से रह गए तो गए काम से । हद हो गई ।

मीडिया का घमंड और अंध राष्ट्रवाद

कहीं ऐसा तो नहीं कि क्रिकेट स्टेडियमों और उसके बाहर रेडियो टीवी से चिपके दर्शकों श्रोताओं के आंख कान तक न्यूज़ चैनल घुस जाने की फूहड़ होड़ में शामिल हो गए हैं । न्यूज़ चैनल कभी मनोरंजन कार्यक्रमों तो कभी क्रिकेट से कंपीट करते हुए उसके दर्शकों पर अपना कब्ज़ा जमाने की कोशिश में हैं । चौबीस घंटे के खबरिया चैनलों का जिस तरह उनके पदार्पण के वक्त लोगों ने स्वागत किया उससे यह घमंड पैदा हुआ लगता है । न्यूज़ वालों को लगता है कि जो भी, जहां भी है, वह उन्हीं को देखे । बाकी कुछ न करे । इसी क्रम में ख़बर का मतलब क्रिकेट ,फिल्म और प्रवचन हो गया है । करण जौहर और पूर्व क्रिकेटरों की बकबकबाज़ी ख़बर है । पता नहीं लोग इनको कितना सुनना चाहते हैं । मगर न्यूज़ चैनल वालों ने इनके चक्कर में ख़बर के दर्शकों को जो धकियाया है वो काबिले तारीफ है । दुनिया का हर अख़बार एक दूसरे से अलग दिखने की कोशिश करता है । हिंदी के सारे चैनल एक जैसे दिखने की ज़िद में हैं । वो यह चाहते हैं कि जो दर्शक क्रिकेट देख रहा है उसे अपने पास ले आएं और खबर की जगह क्रिकेट दिखा कर टीआरपी ले लें । फिर कहें कि लोग क्रिकेट देखना चाहते हैं । सुबह लोग मंदिर जाते हैं , योग करते हैं तो धरम करम पर प्रवचन दिखाने लगे । इस कोशिश में कि लोग मंदिर न जाकर फटीचर बाबाओं के प्रवचन सुनने लगें । और टीआरपी का प्रसाद मिल जाए । न्यूज़ चैनलों का यह दुस्साहस लगता है । या यह भी हो सकता है कि दर्शक अब न्यूज़ चैनल पर अपने पसंद की चीज़े देखना चाहता है न कि दिन दुनिया की ख़बरें । कुलमिलाकर यही कहना चाहता हूं कि क्या न्यूज़ चैनल इस फिराक में हैं कि लोग कुछ न पढ़े, कुछ न देखें सिर्फ न्यूज़ देखें । वो फिल्म जाएंगे तो हम फिल्म दिखायेंगे । वो मंदिर जाएंगे तो हम प्रवचन दिखायेंगे । वो आस्था चैनल देखेंगे तो बाबा रामदेव को आस्था से उठा कर अपने चैनल पर ले आएंगे । कहीं यह चैनलों का एकाधिकारवादी नज़रिया तो नहीं है ?

दूसरी बात । १७ मार्च को बांग्लादेश के हाथ भारत की शौर्यपूर्ण हार के बाद के हाल पर । हम अगर क्रिकेट ही खेलना चाहते हैं (टीवी पर मैदान पर नहीं ) तो खेल के हिसाब से दिखाइये न । पुतला दहन क्या दिखा रहे हैं । बोलिये कि शाबाश बांग्लादेश और आयरलैंड के सूरमाओ । क्या खेला है । उनके सूरमाओं का विश्वेषण कीजिए । कहीं विस्तार से आज दिखा टीवी पर । क्या उनका जीतना क्रिकेट नहीं है । हम सिर्फ यही दिखा रहे हैं कि भारत हार गया । सहवाग हाय हाय । इसे हटाओ उसे लाओ । अपनी ही हार पर माथा पिटे जा रहे हैं । खेल में क्या उलट फेर हुआ उस पर खेल के हिसाब से नज़रिया कम है । पत्रकारिता में खेल भावना नहीं होती क्या ? हम सेना के पत्रकार हैं क्या ? उधर हमारे क्रिकेट प्रेमी इस भ्रम के शिकार हो गए हैं कि उनकी संख्या दुनिया में सबसे ज़्यादा है इसलिए इंडिया को ही जीतना चाहिए था । आखिर किसी चैनल ने कहा वेल डन बांग्लादेश । क्या किसी ने खेल भावना के तहत बांग्लादेश और आयरलैंड की जीत पर बधाई दी । किसी ने कहा कि हां खूब खेला तो जीत उनकी ही होनी चाहिए थे । हो यह रहा है कि क्रिकेट को ख़बर बनाकर हम उसे राष्ट्रवाद के पैमाने पर चढ़ा दे रहे हैं । हम हार गए । हम हार गए । सर धुने जा रहे हैं । न्यूज़ चैनल भी अंध राष्ट्रवाद के शिकार हो गए हैं । वो खेल के प्रति समझ पैदा नही कर रहे हैं । पाकिस्तान में क्या हो रहा है इसकी जानकारी नहीं बल्कि ज़िक्र भर है । विश्व विजेता बाहर हुआ है विश्व कप से । उस पर विश्लेषण कहीं कहीं दिखा मगर यह सब राष्ट्रवाद के पुतला दहन में गायब हो गया । क्या पागलपन है भई । बंद कीजिए चैनलों पर एसएमएस करना । कोई इटारसी से रो रही है कि राहुल को हटाओ । कोई मिदनापुर से रो रहा है कि सहवाग को हटाओ । मैं कहता हूं कि एसएमएस भेजने वाले फालतू किस्म के सक्रिय दर्शकों को मिलाकर एक टीम बना दो । प्रतिक्रिया दीजिए मगर इतना नहीं कि कुछ सुनाई नहीं दे । कुछ दिखाई नहीं दे । हद हो गई ।

विश का विष और वेल डन बांग्लादेश

पहला (विश) अंग्रेज़ी और दूसरा (विष) संस्कृत का शब्द । टीम इंडिया को इतना विश किया गया कि वह विष साबित हो गया । देश भर के स्ट्रींगरों ने शहर के कुछ आवारा किस्म के साधुओं, हर कीमत पर टीवी पर आने के लिए बेचैन आत्मों से हवन पूजन करने के शाट्स मैनेज कर भेज दिए । हर चैनल पर चला । मैं इस ब्लाग के माध्यम से जानना चाहता हूं कि वाकई आपके घरों में टीम इंडिया के लिए हवन होता है । क्या टीम इंडिया के लिए कोई नया हवन मार्केट में आया है जो चौराहे पर ही होता है घर में नहीं । कई मैच से देख रहा हूं । हवन और दुआओं का धंधा । टीवी एक और काम कर रहा है । हर किसी को लग रहा है कि वो टीवी पर है मैं क्यों नहीं । जिन कव्वालों को कोई पांच सौ रुपये भी नहीं देता, जो सिर्फ राजनेताओं के होली मिलन के मौके पर गाते रहते हैं वो भी होड़ में शामिल हो गए । विश्व कप २००७ में बड़ी संख्या में कव्वालों ने गा गा गाकर टीम इंडिया को विश किया । विष बन गया । मैं इसकी जांच करवा रहा हूं । मुझे शक है कि हवन में शुद्ध सामग्री का इस्तमाल नहीं हुआ । टीवी कैमरे के लिए युकिलिप्टस के पत्ते हवन कुंड में डाले गए । जिसकी वेदों में चर्चा तक नहीं । घी की जगह पल्सर बाइक से पेट्रोल निकाल कर आ लगाई गई । पंडित की जगह चौराहे पर मिठाई वाले गुप्ता जी खुद बैठ गए । कव्वालों ने किसी फटीचर का लिखा गाना गा दिया । ख़ानकाहों की परंपरा तोड़ कर । कैमरे के लिए इन कव्वालों ने अपने सनम खुदा को बदल दिया और क्रिकेट को माई बाप बना लिया । तभी बैकफायर हुआ है । बांग्लादेश जीता है । इस बार टीवी में जब हवन के शाट्स आएंगे तो उनका हुलिया देखियेगा । बड़ी बेचैनी से वो दिखाने के लिए बेचैन भी रहते हैं । बांग्लादेश ने हरा दिया है तो अब प्रदर्शन भी होंगे । कौन लोग जाएंगे । तो इसका जवाब रिपोर्टर जानता है । मोबाइलधारी सड़क छाप लोग बैनर लेकर सहवाग हाय हाय करेगे और ये तस्वीर सभी चैनलों पर हेडलाइन हो जाएगी या हो चुकी होगी । हर शहर में अब कुछ लोग ऐसे हैं जो बात बात में दिखने या छपने के लिए प्रदर्शन करते हैं । इन्हीं लोगों की वजह से पिछले दो महीने से टीवी पर क्रिकेट का माहौल बना हुआ है । या बनाया गया है । कोई गा रहा है या नाच रहा तो इससे टीम पर क्या फर्क पड़ता है ? क्या टीम इंडिया सुन रही थी ? हमें बोर करते रहे ।

एक और इंटरेस्ट ग्रुप इस दलदल में आ गया है । ज्योतिष ग्रुप । सारे फटीचर ज्योतिष क्रिकेट की भविष्यवाणी कर रहे हैं । कोई कार्ड निकाल कर बता रहा है कि कौन चलेगा कौन नहीं चलेगा । अरे भाई नतीजा पहले ही पता करना है तो मैच क्यों खेलते हो ? क्यों देखते हो ? घर बैठो न ।

भाई ये क्या है ? क्रिकेट में कहीं लिखा है कि आप किसी से हारेंगे नहीं । दिखाइये तो ज़रा । बांग्लादेश या आयरलैंड को किसी ने कहा है कि आप खेलेंगे मगर जीतेंगे नहीं । किसी शेयर बाज़ार वाले से पूछो कहता है कि सभी अंडे एक टोकरी में मत डालो । बार बार मना करता है । फिर टीवी और बाज़ार के चक्कर में आप सिर्फ क्रिकेट पर ही दांव लगाते रहे । टोकरी गिर गई और अंडा फूट गया । दुआएं प्रार्थनाएं फेल हो गईं । लगता है देवता गण देश छोड़ कर भाग गए हैं । क्रिकेट से तंग आ कर ।

रोना छोड़िए । प्रतिक्रियाएं बंद कीजिए । खेल को खेल की तरह लीजिए । अपनी प्रतिक्रियाओं में बांग्लादेश को बधाई दीजिए । वेल डन बांग्लादेश बोलिये । कमाल आयरलैंड बोलिये । नए का स्वागत कीजिए । किसी का भी घमंड टूटे अच्छा होता है और जो तोड़ दे वो भी अच्छा होता है । अब आप राष्ट्रवाद को मत ले आइयेगा । राष्ट्रवाद पुरान पड़ चुका है । सीमाएं टूट गईं हैं । और आज़ाद भारत वर्ष की रचना इसलिए नहीं हुई थी कि हम क्रिकेट के लिए देशभक्त होने लगे । घंटा क्रिकेट राष्ट्रवाद है इस देश में । क्या कीजिएगा बांग्लादेश ने हरा दिया तो सेना बुलायेंगे । हम भी देखते हैं आपका क्रिकेटिया राष्ट्रवाद । क्रिकेट भारत नहीं है । ये वैसा ही भ्रम है जैसा कि सिर्फ अमिताभ बच्चन ही स्टार हैं । भारत एक महान नहीं सामान्य देश है । यही एक सबक है । और सामान्य होना महान होने से ज़्यादा बेहतर होता है । इसलिए भाई की जीत पर खुशी मनाइये जो कभी हमारा ही हिस्सा था । जहां के लोगों ने भारतवर्ष की आज़ादी के लिए मिल कर लड़ा था । और बाद में जिसके लिए हम भी लड़े थे । बांग्लादेश आज भी टैगोर का लिखा सोनार बांग्ला गाता है । बशर की टीम को बधाई ।

उर्दू शायरी में क्रिकेट की हार

नौकरी से आईबीएन ७ और शहर से बरेली के इक़बाल रिज़वी से कभी नहीं मिला । एक ही पेशे में कई साल से होने के बावजूद । लेकिन ब्लाग ने मिला दिया । अब वो कस्बा के लिए उर्दू की बेहतरीन रचनाओं का लिप्यांतर कर मुफ्त में देने के लिए तैयार हैं । इक़बाल साहब की दरियादिली से कस्बागतों के लिए उर्दू रचना संसार की एक अहम खिड़की खुलने जा रही है । हम इक़बाल साहब का स्वागत करते हैं । महान भारत सामान्य बांग्लादेश से हार गया है । और इसी मौके पर पेश है उर्दू में क्रिकेट पर लिखी गई एक रचना का लिप्यांतर । दोनों के संदर्भ अलग हैं मगर इससे भारत की हार का दर्द हल्का हो सकता है ।

अब शायर का परिचय-
शायरी में क्रिकेट सागर ख़्य्यामी - लखनऊ में 7 जून 1946 को पैदा हुए सागर ख़य्यामी का नाम रशीदुल हसन नकवी है। कट्टर धार्मिक माहौल में पले, बढ़े और पढ़े। वे स्वंय कहते हैं कि मेरा परिवार इतना धार्मिक था कि पांच समय की नमाज़ पढ़ना पड़ती थी तब तीन टाइम का खाना मिलता था। रोज़गार की तलाश में दिल्ली आए और जेएनयू में फ़ॉरन स्ट्डी विभाग में काम किया। रिटायर होने के बाद फिलहाल लखनऊ में रह रहे हैं। उर्दू भाषा पर अदभुत पकड़ और विषय का चयन सागर ख़य्यामी की शायरी को दूसरों से अलग करता हैं।

बेज़ार हो चुके ते जो शायर हयात से
जीवन क्रिकेट का मैच खेल लिया शायरात से
वाक़िफ़ न थे जो आज तक औरत की ज़ात से
छक्के लगा रहे ते ख़्यालों में रात से
आयी जो सुबह शाम के नक्शे बिगड़ गए
सुर्रों से हम ग़रीबों के स्टंप उखड़ गए
नाज़ो अदाओ हुस्न ने जादू जगा दिये
पहले तो ओपनर के ही छक्के छुड़ा दिये
वन डाउन पर जो आए तो स्टंप उड़ा दिये
राहे फ़रार के भी तो रस्ते भुला दिये
वो कैच वेरी लो था मगर उसने ले लिया
एक मोहतरम को एक ने गली में लपक लिया
श्रीमान क्या क्या बयान कीजिये एक एक का बांकपन
जलवा फ़िगन ज़मीं पे थी तारों की अंजुमन
हुस्नो शबाबो इश्क़ से भरपूर हर बदन
शायर पवेलियन में थे पहने हुए कफ़न
जितनी थीं ब्यूटूफ़ुल वो सिलिप पे गली पे थीं
जितनी थी ओवर एज सभी बाउंड्री पे थीं
परियों के जिस तरह से परे कोहे क़ाफ़ पर
एक लांग आन पे थी तो एक लांग आफ़ पर
एक थी कवर में एक हसीना मिड आफ़ पर
जो शार्ट पिच थी गेंद वो आती थी नाफ़ पर
ठहरे न वो क्रीज़ पर जो थे बड़े बड़े
मुझ जैसे टीम टाम तो विकटों पे फट पड़े
वो लाल गेंद फूले हो जैसे गुलाब का
जिस तरह दस्ते नाज़ में साग़र शराब का
हवा में नाच रहा था आफ़ताब का
बम्पर में सारा ज़ोर था हुस्नो शबाब का
ऐसे भी अपने इश्क़ का मैदां बनाते थे
अम्पायर हर अपील पर उंगली उठाते थे
जब बॉल फ़ेकती थी वो गेसू संवार के
नज़दीक और होते थे हालात हार के
कहते थे मैच देखने वाले पुकार के
उस्ताद जा रहे हैं शबे ग़म गुज़ार के
उस्ताद कह रहे ते के लानत हो मैच पर
दो दो झपट रही हैं शरीफ़ों के कैच पर

( शब्दार्थ- बेज़ार- विमुख । शायरात- महिला शायर । राहे फ़रार- भागने का रास्ता । राहे फ़रार- भागने का रास्ता । कोहे क़ाफ़- इस्लामी मान्यता के अनुसार वह पहाड़ जिस पर परियां रहती हैं । नाफ़- नाभी । दस्ते नाज़- हसीना का हाथ । आफ़ताब- सूरज ।
लिपियांतर - इक़बाल रिज़वी ( अंडर क्रीज़ संग्रह से )

मुंशी प्रेमचंद की पहली विदर्भ यात्रा

मैं और मुंशी प्रेमचंद जेट एयरवेज़ की फ्लाइट में सवार दिल्ली से नागपुर जा रहे थे । विदर्भ की राजधानी नागपुर । बहुत मुश्किल से प्रेमचंद को लमही से निकाला था । इसके लिए पहली बार अमर सिंह से पैरवी की ताकि बनारस एयरपोर्ट पर सहारा का विमान प्रेमचंद का इंतज़ार करे । सैंत्रो कार में बैठे प्रेमचंद गुस्साते रहे । मुझे लमही में रहने दो । कहां ले जा रहे हो । मुझे अब किसी किसान से नहीं मिलना है । मुंशी जी आप नहीं मिलेंगे तो कौन मिलेगा- मैं कहता रहता और गाड़ी तेजी से भगा रहा था । तभी विदर्भ से सुप्रिया शर्मा और योगेश पवार का एसएमएस आता है । इज़ मुंशी कमिंग टू विदर्भा ? मेरा छोटा सा जवाब- या...फाइनली । सहारा का विमान दिल्ली उतरता है । और मुंशी प्रेमचंद और मैं विदर्भ के लिए उड़ जाते हैं ।

जहाज़ में मुंशी प्रेमचंद को विंडो सीट पर बैठा कर मैं उन्हें नीचे देखने के लिए कहता हूं । देखिये तो मुंशी जी किसान नहीं दिखते हैं । जाने कैसे आपको हर वक्त किसान दिखता रहा । देखिये जहाज़ के नीचे ऊंची इमारतें और मॉल उड़ रहे हैं । किसान नहीं दिखता है । मेरे कहते ही प्रेमचंद भड़क गए । मैंने कहा था न कि मैं अब किसानों को नहीं देखना चाहता । एक तुम हो और एक हंस निकाल निकाल कर मुझे बार बार घसीटने वाले राजेंद्र यादव । मैं जहाज़ से कूद जाऊंगा । मैंने कहा सारी सर । सुप्रिया और योगेश से मिलना ही होगा । उनसे मिलकर आपका गुस्सा भी शांत होगा और अहसास भी । वे एनडीटीवी के अंग्रेजी चैनल के बेहतरीन संवाददाता हैं । उनके साथ कुछ बड़े घर की बेटियां हैं । जिनके बाप किसान होने के स्वाभिमान के कारण अपना ही गला घोंट गए । और वो अपना स्वाभिमान मुंबई के देहबाज़ार में बेच रही हैं । मुंशी जी आपकी वजह से । और आप मुझे लानत देते हैं । किसने दिया किसानों को झूठा स्वाभिमान । क्यों लिखा आपने किसान कर्ज में पैदा होता है और कर्ज में मरता है । मुंशी जी मेरे बटुए में दस क्रेडिट कार्ड है । तगादे वाले फोन करते हैं तो सुप्रीम कोर्ट का फरमान सुना देता हूं । कि तुम वसूली के लिए मुझसे ज़बरदस्ती नहीं कर सकते । उपोभक्ता अधिकार है मेरा । मैंने तो आत्महत्या नहीं की । दुनिया जानती है । विमान का टिकट भी क्रेडिट कार्ड से लिया है । तो स्वाभिमान के नाम पर दोनों मर जाएं । कूद जाएं विमान से । ये मरजाद क्या होता मुंशी जी ? किसानों का मरजाद ? आपको विदर्भ जाना होगा । यू हैव टू गेट इन देअर । सुप्रिया इज़ वेटिंग विद गर्ल्स ।

नागपुर एयरपोर्ट । संजय तिवारी, सुप्रिया शर्मा और योगेश पवार । वेलकम मुंशी जी । हमने आपके बारे में बहुत सुना है । तभी सुप्रिया कहती है- सर आई हैव रेड यू । प्रेमचंद अपनी टोपी संभालते हैं और सुप्रिया से कहते हैं- क्यों द लास ऑफ इनहेरिटेंस नहीं पढ़ा तुमने । किरण कितना अच्छा लिखती है । योगेश कहता है वो मेरी फेवरेट है । मगर हम सीधे गांव जाना चाहते हैं । कुछ बड़े घर की बेटियां इंतज़ार कर रही हैं ।

योगेश रोने लगते है । सर ये सच्ची कहानी है । जिन किसानों ने आत्महत्या की है उनकी बेटियां जिस्मफरोशी के लिए मजबूर हैं । किसानों का परिवार टूट गया है । प्रेमचंद खेत की मेड़ पर बैठ कर रोने लगते हैं । कहने लगते हैं - भारत का किसान तो बुज़दिल हो गया है । वो तुम्हारी तरह क्यों नहीं है रवीश । कर्ज़ लेकर बेशर्मी से नहीं देने की हठ करने वाला । मुंशी जी, प्रधानमंत्री ने जो पैकेज दिया है उससे भी इन बेचारों का कोई फायदा नहीं । आपको पता है न प्रधानमंत्री जवाहर नहीं हैं । मनमोहन हैं । इंदिरा की बहू सोनिया जवाहर की उन चिट्ठियों को पढ़ने में व्यस्त है जो जेल में रहते हुए इंदिरा के लिए लिखीं थीं । किरण देसाई से लेकर अमिताव घोष कोई किसानों पर नहीं लिखता । राजेंद्र यादव और नामवर को कोई बुकर पुरस्कार नहीं देता । उनकी रचनाएं, जिनकी प्रेरणा का स्त्रोत आप भी है, साहित्य को कुंद कर रही हैं । जैसे आपकी रचनाओं ने किसानों को कुंद कर दिया है । तभी योगेश कहते हैं- प्रेमचंद जी मुंबई की मंडियों में बड़े घर की बेटियों को बिकने से आप बचा लीजिए । हमारी ख़बर पर भी सरकार का असर नहीं होता । पी साईनाथ की ख़बरों पर भी कोई असर नहीं । साईनाथ तो विदर्भ के किसानों के पीछे पागल हो गए हैं । सुप्रिया धीरे से कहती हैं- मुंशी जी इस बार कुछ नया लिख दीजिए ताकि आपको बुकर मिल जाए और किसानों को रास्ता । मगर इस बार किसानों को नियतिवाद में मत फंसाना । मत लिखना कि किसान कर्ज में जीता है और कर्ज में मरता है । लिखना कि कई बड़े उद्दोगपति सार्वजनिक बैंको का पचास हज़ार करोड़ लेकर भाग गए । सबको पता है । किसी ने आत्महत्या नहीं की । फिर तुम क्यों आत्महत्या करते हो । ये लिखना मुंशी जी । पूरी दिल्ली और मुंबई लोग लोन पर जी रहे हैं । मर नहीं रहे । लोन उनका स्वाभिमान है । कर्ज़ शब्द का इस्तमाल भी बंद हो गया है । कहते कहते सुप्रीया चिल्ला उठती हैं- कहती है सर उन बेटियों की कसम जिनका चेहरा हमने मौज़ैक कर के विटनेस में दिखाया था । वो आपसे बात नहीं करना चाहती हैं । मैं सिर्फ आपको उनकी देह दिखाना चाहती हूं । मन नहीं । वो लमही आकर आपसे बातें करना चाहती हैं । बहुत समझाया इनको । कहती हैं हम जब बड़े घर की बेटियां ही नहीं रहीं तो मुंशी जी से क्या बात करें । हमारे पास चौखट नहीं है । हम मुंशी जी की चौखट पर माथा पटकेंगी । हम और योगेश इन्हें लेकर भटक रहे हैं । मुंशी जी आप कुछ नया लिखना । यू कैन नॉट राइट देम ऑफ । यू हैव टू स्टार्ट राइटिंग अगैन ऑन फार्मर्स ।

तभी संजय तिवारी कान में कहते हैं । रवीश मुंशी जी को दुबारा मत लाइयेगा । कोई किसान उनको सुनना नहीं चाहता है । किसान इनसे नाराज़ हैं । एक ख़बर मुंबई से आ रही है । मुख्यमंत्री देशमुख ने दक्षिण की साध्वी अम्मा को बुलाया है । लगता है किसान कहानी नहीं बनना चाहते । वो या तो मरना चाहते हैं या पुलिस की डंडे के ज़ोर पर अम्मा को सुनना चाहते हैं । इन जैसे आउटडेटेड लेखक को मत लाइयेगा ।
(हाल ही में योगेश पवार और सुप्रिया शर्मा ने एनडीटीवी के अंग्रेजी चैनल के विटनेस के लिए विदर्भ पर एक विस्तृत रिपोर्ट की है । रिपोर्ट देख कर खूब रोने का मन किया । तभी पड़ोसी का कुत्ता मर गया और हम उसकी प्रोशेसन में चले गए । बाहर देखा कि पूरे शहर में सड़क छाप कुत्तों के मारे जाने के खिलाफ आंदोलन चल रहा था । मैं भी अपनी इस नई संवेदना के साथ हो लिया । कुछ घंटे बाद घर लौटा तो कुत्ते और किसान की मौत के ग़म में यह कहानी निकल गई- रवीश कुमार)

प्रधानमंत्री वेट कर रहे हैं- बाबा की गुमटी

बाबा फिर से अपनी गुमटी में आ गए हैं । संसद का किस्सा लेकर । हुआ क्या कि युवा सांसद सचिन पायलट ने जनहित के मुद्दे पर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से मुलाकात की । मगर ये मुलाकात अधूरी रह जाती क्योंकि कोई तस्वीर खींचने वाला नहीं था । आखिर सांसद जनता को क्या सबूत देता । क्या कहता कि तुम्हारे मुद्दे पर प्रधानमंत्री से मिला हूं । प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भी राजनीति के इस दर्द को समझ गए । युवा सांसद को कहा- जाओ फोटोग्राफर लेकर आओ, मैं इंतज़ार करता हूं । अब सांसद बाहर दौड़े । मिल गए एनडीटीवी के कैमरामैन नरेंद्र गोडावली । सांसद ने कहा यार कोई फोटोग्राफर दिला या तू ही चल । नरेद्र ने कहा मैं वीडियोग्राफर हूं । फोटो कहां से खींचू । फिर युवा सांसद का धीरज जवाब देने लगा । नरेंद्र गोडावली से बोले कुछ कर । बिना फोटो इस मुलाकात का क्या करूंगा । नरेंद्र दो सौ मीटर तक दौड़कर इंडियन एक्सप्रैस के एक वरिष्ठ छायाकार को लेकर आए । अनिल चलो प्रधानमंत्री इंतज़ार कर रहे हैं । सुनकर अनिल घबरा गए । बेचारे अनिल को लगा कि नरेंद्र मज़ाक कर रहा है । नरेद्र ने कहा तुम चलो । कोई मज़ाक नहीं । पीएम वेट कर रहे हैं । अनिल बोले आज तक तो बुलाया नहीं । वेट क्यों भई ? नरेद्र ने समझाया- युवा सांसद की प्रधानमंत्री से मुलाकात की तस्वीर उतारनी है । अनिल को देखते ही सचिन पायलट की जान में जान आई । कल या किसी दिन राजस्थान के अखबार में सचिन पायलट और मनमोहन सिंह की मुलाकात की तस्वीर देखियेगा तो क्रेडिट बाबा को भी दीजिएगा । बाबा की गुमटी न होती तो कस्बा के पाठकों को मुलाकाती तस्वीरों का राज़ कभी न पता चल पाता । कलयुग में ऑफ रिकार्ड को ऑन रिकार्ड करने का समय आ गया है बच्चा । यह बोल कर बाबा चले गए हैं ।

क्या आप किसी दर्शक को जानते हैं ? एक अपील

मैं ढूंढ रहा हूं । हिंदी के उन आवारा दर्शकों को । लोकतांत्रिक हूं इसलिए कूट तो नहीं सकता मगर गरियाने के लिए ढूंढ रहा है । क्या आप किसी ऐसे दर्शक को जानते हैं जिसकी दिलचस्पी के नाम पर टीवी ख़बर की जगह कमर दिखा रहा है । जिसकी दिलचस्पी के नाम पर टीवी विदर्भ की जगह विकेट दिखा रहा है । आखिर वो दिलजला दर्शक कहां रहता है । जिस पर पत्रकारिता को कूड़ेदान में फेंक देने का आरोप है । किसी ने कहा कि ये दर्शक टीआरपी मीटर के वीर्य से जनमा है । जो सिर्फ मीटर की तरह बेलगाम भागता रहता है । कहीं भी कमर और विकेट देखता है भाग जाता है । इसी भागते हुए दर्शकों के नाम पर टीवी में प्रोफेसर पैदा हो गए हैं । जो इस दर्शक के डीएनए को डिकोड करने का दावा कर रहे हैं । सनद रहे टीवी की उम्र पंद्रह साल बताई जाती है । इतने में आप किसी विश्वविद्यालय में रीडर होते होंगे । मगर टीवी में आप प्रोफेसर हो गए हैं । क्योंकि इनको मालूम है कि आवारा दर्शक क्या चाहता है । ब्लाग जगत के पाठकों आप ही बताइये कि ये दर्शक कहां रहता है ।

अब बहुत हो गया । इसका पता चलना चाहिए । इस अनाम बदमाश के नाम पर बहुत नंगई हो ली । पर्दाफाश कीजिए । सड़क पर आइये और नारे लगाइये कि मनचले दर्शक बाहर निकल, बाहर निकल । मैं हताश हूं । नहीं । गुस्से में हूं । हां । ऐसे दर्शकों को गरियाने का कोई मंच बनाया जाए । मैं जानता हूं कि
टीआरपी से पहले पाकेटबुक्सों की नाजायज़ पैदाइश ये दर्शक गंभीर लेखन को चुनौती देते थे । अखबारों के पाठकों को कम कर देते थे । अब यही दर्शक टीआरपी के वीर्य से पैदा होकर पाकेटबुक्स का काम टीवी में कर रहे हैं ।

क्यों कह रहा हूं । क्यों न कहूं । पांच साल से सुन रहा हूं । कल्पना तो कर ही सकता हूं किसी को गरियाने का । यही वो दर्शक है जो हर साल गर्भ में मार दी जाने वाली लड़कियों की खबर की जगह शकीरा के डुप्लीकेट की कमर को चढ़ा देता है । विदर्भ के किसान रो रहे हैं । चैनलों में बदलाव चाहने वाले हिंदी के पत्रकार इन्हें छो़ड़ क्रिकेट पर आंसू बहाने जा रहे हैं । अगले दो महीने तक आप क्रिकेट देखेंगे । क्रिकेट में सवाल और समस्या का अंबार ढूंढा जा रहा है । सहवाग की नाकामी विदर्भ के किसानों की खुदकुशी ही तो है । सहवाग जीरो पर आउट होता है । विदर्भ का किसान ज़ीरो पैसे के कारण सुसाइड कर लेता है । मगर सहवाग पर करोड़ों रुपये का दांव है । विदर्भ के किसान पर लाखों का दावा है । ज़ाहिर है सहवाग राष्ट्रीय समस्या है । विदर्भ का किसान
सिर्फ आत्महत्या का आंकड़ा । विदर्भ के किसानों तुम इसी आवारा दर्शक की भेंट चढ़ गए । वर्ना तुम्हारी मौत सरकारों की नींद उड़ा सकती थी । लेकिन ये दर्शक सरकारों को लोरी सुना रहा है । इसी के नाम पर टीवी के सारे पाप धुल रहे हैं । टीआरपी की गंगा में । टीआरपी मीटर अंग्रेजी चैनल में भी लगे हैं । मगर उनके यहां कोई इसके वीर्य से दर्शक नहीं पैदा हुआ । किसी भी अंग्रेजी चैनल को देखिये वो ऐसे आवारा दर्शकों के पीछे नहीं भाग रहा है । वहां भी मनोरंजन और क्रिकेट है मगर अनुपात में । अंग्रेजी का दर्शक कैसे कमर की जगह ख़बर की मांग कर रहा है । ऐसा क्यों है कि विदर्भ की सुध अंग्रेजी चैनल, अंग्रेजी अखबार या अंग्रेजी पत्रकार ही ले रहे हैं । क्यों अंग्रेजी का चैनल विदर्भ पर आधा घंटा बनाता है जब हिंदी के चैनल क्रिकेट रस में डूबे हुए हैं ।
क्या हिंदी का दर्शक वाकई में आवारा निर्लज्ज हो गया है । क्या हिंदी का दर्शक सिर्फ जूली मटुक को ही देखना चाहता है । क्या हिंदी का दर्शक कायर है । वो सच नहीं देखना चाहता । बहस नहीं करना चाहता कि जाति से उठकर विकास या कोई और मुद्दा हो सकता है । क्या हिंदी का दर्शक बिजली चोर की मानसिकता का शिकार है जो कंटिया डाल कर अपने टीवी पर सिर्फ नाच गाना देखना चाहता है । दोस्तों मैं जानता हूं आप कहेंगे कि ये तो टीवी तय करता है कि लोग क्या देखेंगे । बकवास तर्क है । प्रोफेसर संपादक कहता है कि हम वही दिखायेंगे जो लोग देखना चाहते हैं । इसलिए मैं आपसे दर्शक को ढूंढ निकालने की गुज़ारिश कर रहा हूं । क्योंकि दोषी पत्रकार तो आपकी नज़र में है हीं । इसका कपार आप बाद में फोड़ सकते हैं । पहले उसे तो निकालिये जिसकी निर्लज्जता, बेशर्मी और बेहूदगी के लिए टीवी और उसमें भी हिंदी चैनल
हर तरह के धतकरम किये जा रहे हैं । प्लीज़ । इससे पहले कि पागल हो जाऊं । कुछ कीजिए ।

सबसे ख़तरनाक होता है

सबसे ख़तरनाक होता है
मुर्दा शांति से भर जाना
न होना तड़प का सब सहन कर जाना
घर से निकलना काम पर
और काम से लौटकर घर आना
सबसे ख़तरनाक होता है
हमारे सपनों का मर जाना
--- पाश
अगर आपको लगे कि आपने दफ्तर की तमाम मजबूरियों को जीते हुए प्रमोशन, वेतन और मकान सब अर्जित कर लिया है और उनको भी सेट कर दिया है जो आपको पसंद नहीं थे । तो ऐसे कामयाब लोगों को यह कविता पढ़नी चाहिए ताकि अकेले में अहसास हो सके कि वाकई उनके सपने पूरे हो गए या इस कमज़र्दगी को हासिल करने के चक्कर में मार दिए गए ।

पागलों का एक वर्णन

मंगलेश डबराल मेरे प्रिय कवियों में से एक हैं । उनकी रचनाएं किसी शांत मन की बेचैनी लगती हैं । यह कविता आवाज़ भी एक जगह है नाम के संग्रह से ली गई है । पहले संस्करण के सात साल बाद इसे कस्बा में ला रहा हूं । रचना किसी की भी हो उसकी नियति में यह बात शामिल है कि एक दिन उस पर धूल जम जाएगी और यह बात भी शामिल है कि एक दिन कोई धूल झाड़कर फिर से पढ़ लेगा । कस्बागत जगत के लिए मंगलेश जी की यह कविता । उन लोगों के लिए जो अभी पागल नहीं हुए हैं मगर जिन्होंने पागलों को देखा ही नहीं ।




(शून्य में संसार- पागल मन)



पागलों का एक वर्णन
पागल होने का कोई नियम नहीं है
इसलिए तमाम पागल अपने अद्वितीय तरीके से पागल होते हैं
स्वभाव में एक दूसरे से अलग
व्यवहार में अकसर एक दूसरे से विपरीत
समांतर रेखाओं जैसे फैलते हैं उनके संसार
वे भूल चुके होते हैं कि पागल होने से
बचे रहने के कई नियम हैं
पुस्तकों में वर्णित है नुस्ख़े, सुंदर पुष्ट शरीरों के
जिनमें निवास करते हैं स्वस्थ मस्तिष्क
चेहरे के दर्पण में झलकते हुए
जिन्हें हासिल करने के लिए ईजाद किये जाते हैं
नये नये उपाय

जो अपना मानसिक स्वास्थ्य हमेशा के लिए खो चुके होते हैं
वे अचानक प्रकट होते हैं
सूखी रोटियों की एक पोटली के साथ
कहीं पर विकराल कहीं निरीह
वे नहीं जानते कि वे कहां से आये
उनका कहीं जन्म हुआ या नहीं
उनके होने पर ख़ुशी मनायी गयी या नहीं
और एक खंभे से दूसरे खंभे तक
इस शाश्वत दौड़ का अर्थ क्या है
नुक्कड़ पर बैठा एक पागल
दिन-भर गालियां देता है प्रधानमंत्री को
पटरी पर खड़ा हुआ जो पागल
व्यवस्था से एक लंबा युद्ध छेड़े हुए है
दिन-भर वह बनाता है अपनी रणनीति
एक पागल औरत भीड़ में पहचान लेती है
अपने धोखेबाज़ प्रेमी को
और क्रोध में उस पर अदृश्य पत्थर फेंकती है
एक प्राचीन पागल चौराहे को गुफा मानकर
रहता चला आता है
वह बताता है मनुष्य के कारनामों का रक्तरंजित इतिहास
तरह-तरह के इशारे करते पागलों के बीच से
अकसर गुज़रते हैं स्वस्थ मस्तिष्क के लोग
उनकी आंखों में थोड़ा-सा झांककर
एकाएक सहमते हुए आगे बढ़ जाते हैं
जैसे झटक देते हों अपने जीवन का कोई अंश
अपना कोई क्रोध कोई प्रेम कोई विरोध
अपनी ही कोई आग
जो उनसे अलग होकर अब भटकती है
व्यस्त चौराहों और नुक्कड़ों पर
कपड़े फाड़े बाल बिखराये सूखी रोटियां संभाले हुए
कोई नहीं जानता आधी रात के बाद
वे कहां ग़ायब हो जाते हैं
कौन-से दरवाज़े उनके लिए खुलते हैं
और उन्हें अंदर आने दिया जाता है
शायद वे किसी घर में दस्तक देते हों
पुरानी दोस्ती का हवाला देते हुए बैठ जाते हों
कहते हुए हमें कुछ देर शरण दो
हम एक राष्ट्रीय अंतरराष्ट्रीय षड़यंत्र के शिकार हैं
या फिर वे सिर्फ एक कप चाय की फ़रमाइश करते हों
रोज़मर्रा के काम पर निकलने से पहले

भूल सुधार

अमिताभ वाले लेख को हटा रहा हूं । कई लोगों की राय है कि उन्होंने ऐसा नहीं सुना । इसलिए मैं एक बार और सुनिश्चित होना चाहता हूं । तब तक इस लेख को वापस लिया जाता है । कुछ का कहना है कि वो जूते मारो का इस्तमाल कर रहे हैं न कि असभ्य शब्द का । इसलिए महानायक को कटघरे में खड़ा करने से पहले विज्ञापन को एक बार और ठीक से सुनना चाहता हूं ।
लेख वापसी के लिए माफी.

ब्लागपत्य

दाम्पत्य का समानार्थी हो सकता है ब्लागपत्य । अब मुझे ब्लाग का जेंडर नहीं मालूम । अब सर्वसेक्सुअल ज़माने में जेंडर का जानना ज़रूरी भी नहीं । पता चल रहा है कि ब्लाग से हिंदी जगत के परिवारों में तनाव उभर रहे हैं । परिवारों में झगड़े बढ़ गए हैं । दफ्तर में ताने मिलने शुरू हो गए हैं । पीठ पीछे बातें होने लगी हैं । मोहल्ला वाले अविनाश ने कहा दाम्पत्य संकट में आ सकता है । मैंने कहा नहीं इससे ब्लागपत्य संकट में आ जाएगा । हम सबने ब्लाग से एक वादा किया है । कई फेरे पूरे होने तक लिखते रहने का । यह कोई लिज़ की शादी नहीं है । अपने ब्लाग से एकांत में किया हुआ वादा है । निभाना पड़ेगा । लिखना पड़ेगा ।

अगर आप ब्लागपत्य के तनावों से गुज़र रहे हों तो किसी ब्लागचिकित्सक से मिलें । दफ़्तर में ज्वलनशील सहयोगियों को लगने लगा है कि हम कोई काम नहीं करते । ब्लाग करते हैं । क्या आप कोलगेट करते हैं ? इस विज्ञापन को बदल कर हम पूछते हैं क्या आप ब्लाग करते हैं ? अगर नहीं तो आपको क्या मालूम कि हम सिर्फ ब्लाग ही करते हैं । ब्लाग-वक्त दफ्तर और रोमांस के बाद के बचे हुए समय का एक हिस्सा भर है । यह किसी की कीमत पर नहीं है । ब्लाग-वक्त से दाम्पत्य को समझना होगा कि कम से कम कोई घर से बाहर नहीं गया है । लिखना छोड़ कर ब्लागक (लेखक का समानार्थी शब्द) दरवाज़ा तो खोल सकता है न । और न ही ब्लागक या ब्लागिका सास बहू देखकर शाम ख़राब करने में लगे हैं । रही बात दफ्तर की तो बेवजह चुगली और अपनी वाहवाही में सालों गुज़ारने से क्या फायदा । काम में कोताही न हो और ब्लाग-वक्त का सदुपयोग हो इससे किसको तकलीफ हो रही है । मेरे दफ्तर में एक सज्जन ने कह दिया ये सब डॉट कॉम वाले हैं । यानी बेकार लोगों के लिए अब उस डॉट कॉम का इस्तमाल हो रहा है जिसका उपयोग हम क्रांति के तौर पर भारत की प्रगति के लिए किया करते थे । बताइये । डॉट कॉम दुनिया के लिए क्रांति है और हमारे लिए लानत । हम विरोध करते हैं । सभी ब्लागक इसका विरोध करें । इसमें ब्लागमेंट्स करने वाले भी शामिल हों । ब्लागमेंट्स कमेंट्स का समानार्थी हो सकता है । उनकी टिप्पणियों से ब्लागकों को ताकत मिलेगी । रही बात दाम्पत्य संकट की तो वो अन्य संकटों के साथ तब से है जब ब्लाग नहीं था । और तब तक रहेगा जब तक ब्लाग रहेगा । ब्लागक लिखते रहें । ब्लागमेंट्स टिप्पणी करें । इससे ब्लागपत्य का विकास होगा । यह एक नया रिश्ता है । बनने दिया जाए ।

पत्रकारिता का बकरीवाद


बकरी में में करती है । पत्रकार मैं मैं करने लगे हैं । हमारे एक पूर्व वरिष्ठ सहयोगी शेष नारायण सिंह कहा करते थे । कहते थे पत्रकारिता में जो इस बकरीवाद से बच गया वो महान हो गया और जो फंस गया वो दुकान हो गया । मुझे तब यह बात अजीब लगती थी । शेष जी क्या क्या बोलते रहते हैं ।

अब उनकी बात समझ में आने लगी है । जिससे मिलता हूं उसके पास टीवी की बीमारी दूर करने का फार्मूला है । किसी वरिष्ठ से मिलता हूं तो कहता है कि मैं दस साल पहले फलाने मैगज़ीन में यह कवर कर चुका हूं । सर इसमें मेरी क्या ग़लती है । हिंदुस्तान में समस्याएं और घटनाएं दस साल में नहीं बदलतीं । तो क्या करें । आपने किया होगा कवर । हम नहीं करें । दोस्तों पत्रकार बकरी हो रहे हैं । उन्हें अपने आगे कुछ नहीं दिख रहा है । हर किसी को लगता है उसके नहीं रहने के बाद पत्रकारिता का क्या होगा ।

हर कोई इस प्रोफेशनल अवसाद का शिकार हो गया है । कहता चलता रहता है ये खबर मैंने ब्रेक की है । जब कोई नहीं कहता तो गाली दे देता है कि कोई मेरे काम की तारीफ ही नहीं करता । देखों मैंने ही सारा किया है । देखा मेरा आने से कितना फर्क पड़ गया है । देखा मुझे अवार्ड मिला है । एक ऐसे वक्त में जब टीवी पत्रकारिता को खूब गरिया जा रहा है टीवी पत्रकारों को खूब अवार्ड मिल रहे हैं । पत्रकार बकरीवाद के शिकार नहीं होंगे तो क्या होंगे ।

मेरे पत्रकार दोस्तों । अगर आप भी बकरीवाद ग्रंथी के शिकार हैं तो मुझसे संपर्क करें । क्योंकि मैं भी शिकार होने जा रहा हूं । शायद हम लोग साथ साथ मिमिया कर एक दूसरे का भला कर सकें । मैं आप सबसे यह जानना चाहता हूं कि आप दिन में कितनी बार दूसरों की तारीफ करते हैं और कितनी बार अपनी । इसकी एक सूची बनाए । उसमें यह भी शामिल करें कि आप दिन में कितनी बार अपने सहयोगी को गरियाते हैं । चू...प्रिफिक्स के साथ । इससे आपकी बीमारी का अंदाज़ा मिल जाएगा । कुछ हो सकेगा । नाम न छापने की शर्त के साथ मैं चाहता हूं कि पत्रकार पाठक इस बहस को आगे बढ़ायें । कुछ सच बोलें । कुछ न बोल पाते हों तो इशारे में बोलने की छूट होगी । कोई मानदेय नहीं दिया जाएगा । क्योंकि सच की कोई कीमत नहीं होती है । तो अब जवाब देना शुरू कर दीजिए कि क्या आप बकरीवाद के शिकार हैं ?

नोएडा को बंदर खा गया


उदय चंद्र सिंह पर्दे के पीछे रहते हैं । टीवी के घर में । लिखते रहते हैं मगर कस्बा के लिए बहुत दिनों बाद लिखा है । वादा किया है कि आगे भी लिखते रहेंगे । एऩडीटीवी इंडिया में काम करते हुए उन्होंने अपने दस साल से भी ज़्यादा वक्त गुज़ार दिये । पेश है उनका लेख

टीवी की दुनिया में खूब अज़ब ग़ज़ब होता है । कुछ वैसा हीं जैसा की टीवी चैनलों पर चौबीसों घंटे अज़ब ग़ज़ब की खबरें दिखती रहती है । कभी नोएडा को बंदर खा जाता है तो कभी तेल लगाने के मुद्दे पर चंदशेखर राव यूपीए से कुट्टी कर लेते हैं । ग़ज़ब तो तब हो गया जब हीथ्रो हवाई अड्डे पर एक हवाई जहाज़ ने एक पायलट को हीं कुचल दिया । खूब माथा पच्ची करने पर भी समझ नहीं आया कि पायलट ने खुदकुशी की या फिर रनवे पर दौड़ लगाते जहाज से हीं कूद गया । पत्रकार मन बेचैन हो रहा था । जिस चैनल पर खबर देखी वो भी विस्तार से कुछ नहीं बता रहा था । बस नीचे एक पट्टी दौड़ रही थी- हवाई जहाज से कुछलकर पायलट की मौत । डायनिंग टेबल पर खाना खाने बैठा तो तो भी सत्तू पराठा गले से नीचे नहीं उतर रहा था । उतरता भी कैसे ? मन में कुलबुली मची थी कि आखिर पायलट पर पूरा जहाज कैसे चढ गया वो भी हवाई अड्डे पर सबके सामने । क्या हीथ्रो हवाई अड्डे पर रांची हवाई अड्डे जैसी सुविधाएं भी नहीं है । वहां दिन में एक दो जहाज उतरता है । उतरने से पहले एक हरकारा लाल जीप ( फायर ब्रिगेड वालों की जीप) पर सवार होकर रनवे के आसपास चरती गाय भैंसो को हांकता है ताकि कोई हवाज जहाज़ के नीचे ना आ जाये ।जब मन शांत नहीं हुआ तो स्टार न्यूज़ में अपने एक साथी को फोन खड़का डाला । सोचा , आखिर दोस्ती कब काम आयेगी । पहले उसका हाल पूछा फिर पायलट की चाल का ।बात उसे भी कुछ समझ नहीं आई जबकि वो खुद टीवी न्यूज़रूम में मौजूद था । ये दोस्ती हम नहीं छोड़ेगे की तर्ज पर उसने मुझे भरोसा दिलाया जल्द ही खबर की तफ्तीश कर वो मेरे अशांत मन को शांत करेगा । और उसने दोस्ती निभाई । पांच मिनट बाद हीं मेरे मोबाइल की घंटी घनघना उठी । नंबर देखा तो स्टार न्यूज वाले उसी दोस्त का था । सोचा वाह दोस्त हो तो ऐसा, कितनी चिंता है उसे मेरी । उसका फोन ऐसे उठाया जैसे गर्ल फ्रेंड का । उसने उस लाइव रिपोर्टिंग करने से पहले तो मुझसे माफी मांगी और ताजा खबर दी कि पायलट वाली ख़बर टिकर (स्क्रोल ) से हटा ली गई है। इसलिए नहीं कि खबर बासी हो गई थी बल्कि इसलिए कि खबर का अनुवाद गलत हो गया था । दरअसल पायलट की मौत हीथ्रो हवाई अड्डे से बाहर निकलते समय कार से कुचलकर हुई थी । अंग्रेजी में कहीं से कोई छोटी सी खबर आई थी और जल्दी में किसी ने ग़जब ढा दिया ।
टीवी की दुनिया में ऐसी ग़लतियां खूब हो रही है । कुछ जाने तो कुछ अनजाने । एनडीटीवी इंडिया हो या या जी न्यूज़ या फिर स्टार या सहारा हर कहीं काम करनेवालों के पास अपनी गलतियां ढंकने एक हीं बहाना है- टीवी न्यूज़रूम में बहुत प्रेशर रहता है भाई । शिफ्ट खत्म होने के बाद दफ्तर से निकलता हूं तो लगता है कि स्कूल की छुट्टी हुई है । ठीक है भाई । प्रेशर तो मुझे भी लगता है सुबह सुबह। अब इसका मतलब यह तो नहीं कि बिस्तर हीं गंदा कर दूं ।
अब टीवी पर अगर यह पट्टी दौड़ती दिखे कि नोएडा को बंदर खा गया तो भला कौन नहीं चौकेंगा । पूरे नोएडा को भला एक बंदर कैसे खा सकता है ?लेकिन इस ख़बर ने मन बेचैन नहीं किया । दिमाग़ दौड़ाया तो समझ आ गया माज़रा किया है । दरअसल नोएडा को बुलंदशहर से जोड़ने के खिलाफ उस दिन नोएडा को बंद रखा गया था । बंद शब्द के साथ रखा का र जोड़ दिया गया है और खा को अलग कर दिया । नतीजा वाक्य विन्यास हुआ- नोएडा को बंदर खा गया
चलिये हड़बड़ दरबड़ में गलती हो गई । लेकिन पूरे दो मिनट तक बंदर नोएडा को खाता रहा और टीवी न्यूज रुम में तैनात कोई पत्रकार अपना आउटपुट या इनपुट देने सामने नहीं आया । हद तो तब हो गई जब एक न्यूज रीडर ने हंसते हंसते हमें यह खबर सुनाई- तेल लगाने के मुद्दे पर टीआरएस नेता चंद्रशेखर राव ने यूपीए से अलग होने की धमकी दी । माथा घूम गया लेकिन बात समझ नहीं आयी । आखिर चंद्र शेखर राव को तेल लगाने का इतना शौक कब से हो गया कि वो उसके लिए अपना राजनीतिक करियर हीं दांव पर लगा दें । खैर पड़ताल करने पर पता चला कि एक बिंदी ने चिंदी कर दी । आउटपुटवालों ने हेडलाइन लिखते समय तेलंगाना पर बिंदी तो छोड़ी हीं, कंप्यूटर के की बोर्ड में स्पेस का माथा भी कुछ ऐसा पलटा कि उसने तेलगाना को तोड़ कर उसे तेल गाना बना दिया । ऐन मौके पर न्यूजरीडर ने टेली प्रोंपटर देखकर ख़बर पढ़नी शुरु की तो उसे कुछ समझ नहीं आया ..उसने अपनी बुद्दि बल का प्रयोग करते हुए आनन फानन में वाक्य को अपने मन से संपादित करते हुए पढ़ा- तेल लगाने के मुद्दे पर टीआरएस नेता चंद्गशेखर राव ने यूपीए से अलग होने की धमकी दी । वाह रे टीवी पत्रकारिता ।
टीवी में ऐसे एक्सीडेंट रोज होते हैं लेकिन गुनहगार पकड़ा नहीं जाता । पकड़ा जाता है भी तो जनता की अदालत में पेशी नहीं होती । जनता अपना गुस्सा एसएमएस भेज कर निकालती है । अब उन्हें कौन बताये कि स्पेशल नंबर पर अपना गुस्सा निकल कर वो अपनी जेब से भी काफी कुछ निकाल रहा है ।जेब तो टीवी चैनल वालों का ही भरता है ।

उदय चंद्र सिंह

विश्व कप क्रिकेट


क्रिकेट कितना निर्जन एकांत है ।
क्रिकेट जितना सागर प्रशांत है ।
क्रिकेट कितना मनोबल एकांत है ।
क्रिकेट जितना काव्य प्रकांड है ।
( यह तस्वीर फ्लिकर से ली गई है । नाम देख नहीं पाया । अब नहीं पता चल रहा है । मगर बेहतरीन है। कविता स्वरचित और स्वटंकित है )

शकीरा का आना...ठुमके का उत्तरायण होना

अपनी अपनी कमर संभाल लें । ठुमके को शाका लाका करवा लें । बूम बूम शकीरा नाचेगी । टिकट मत कटाइयेगा । हम टीवी पर लाइव दिखायेंगे । मकर संक्रांति की तरह शकीरा संक्राति । उस दिन ठुमका उत्तरायण हो जाएगा । हम सब गंगा में आधा नंगे होकर डुबकी लगायेंगे और सर निकाल कर देखेंगे शकीरा की कमर को दक्षिणायन से उत्तरायण होते हुए । अभी से ही गुड़ तिल की तरह उसके डुप्लीकेटों के बढ़ते भाव से शकीरा संक्रांति का खुमार चढ़ने लगा है ।

एक चैनल पर शकीरा के खानदान परंपरा की कोई बैले डांसर उसके कूल्हों और कमर के कदमताल पर ज्ञान दे रही थी । उसने बताया था कि बलखाने से दर्द नहीं होता । झटका लगता है । वो भी शकीरा को नहीं । टीवी के लफंदर दर्शकों को । और उन चैनलों को भी जो शकीरा को नहीं दिखा पाये । वो चूक भाव के अवसाद में चले गए । अरे हमें भी दिखानी चाहिए थी । दर्शक देखते । ये दर्शक कौन है । ये हिंदुस्तान की समस्त सामाजिक समस्याओं का मानवीय समुच्य है । ह्यूमन सेट । भ्रष्ट सरकारी अधिकारी से लेकर टैक्स चोर व्यापारी, दहेज लोभी युवा आदि आदि लोगों से मिल कर बनता है दर्शक । मगर उसे शकीरा तो नहीं मिल सकती न । वो तो अब आने वाली है । अभी तक वह ओंकारा के बिल्लो चमनबहार पर ही दिल लुटा रहा था । बीड़ी जला रहा था । इस बार शाका लाका करेगा ।

हमारे मुल्क के कस्बों में शकीरा नृत्य लौंडे किया करते थे । किसी चचेरे भाई की शादी में छपरा से लौंडे आए थे । नाच करने । कसक के साथ कमर हिला हिला कर लौंडों ने बिदेसिया गाकर ईस्ट वेस्ट को मिला दिया था । आरा छपरा हिला दिया था । पंद्रह साल पहले की बात है । लाइसेंस राज के ज़माने में । गैट और डब्ल्यू टी ओ अंकल नहीं आए थे । उनके उदार होते ही छपरा के लौंडे गायब हो गए । वो मुंबई के किसी लोकल में वड़ा पाव बेच रहे हैं । ओंकारा की बिल्लो चमनबहार भी पकड़ी जा चुकी है । डांस बार में ताला लग गया है । अब वो शादियों में नाच रही हैं । हर लोकल चीज़ की ऐसी ही गति होनी चाहिए । लोकल फूकल है । भोजपुरी में हम कहते थे । फूकल माने जो चूक गया है । अंग्रेज़ी में कहें तो स्पेंट है ।

शकीरा ग्लोबल है । उसके ठुमके में पूरा ब्रह्मांड है । डिमांड है । वो नाचेगी तो ख़बरें ग़ायब हो जाएंगी । आने दो भाई । कब तक सीटी ही बजाते रहेंगे । कोई तो आ रहा हैं । लाइव देखियेगा । न्यूज़ चैनल पर । जहां इस वक्त शकीरा संवाददाता का पद तैयार हो रहा है । जो शकीरा की कमर की परिधि के आस पास का वर्णन बताएगा या बताएगी..जैसा कि कभी किसी एक रात किसी चैनल पर बताया जा रहा था । उसके कटिप्रदेश के विस्तार वर्णन से हिंदुस्तान में शकीरा संक्रांति की ज्योतिषगणना हो चुकी है । इस शुभ लग्न में डांस डुबकी लगाने वाले चैनलों को अच्छी टीआरपी मिल सकती है । ससुरी नाचेगी तो मीटर अप हो जाएगा ।

अख्तरुल-ईमान की एक नज़्म

अख्तरुल-ईमान की ग़ज़लों का कोई सानी नहीं । हमारे पूर्व सहयोगी और मौजूदा मित्र देवेश जब उनकी रचना सुनाते थे तो रग़ों में रवानी आ जाती थी । एक लड़का- अख्तरुल-ईमान की चर्चित रचना है । कस्बागत जगत के लिए पेश किया जा रहा है । भारी भरकम शब्दों के मायने नीचे दिए गए हैं ।

एक लड़का

दियारे-शर्क की आबादियों के ऊंचे टीलों पर
कभी आमों के बाग़ों में, कभी खेतों की मेंड़ों पर
कभी झीलों के पानी में, कभी बस्ती की गलियों में
कभी कुछ नीम-उरियां कमसिनों की रंगरेलियों में
सहर-दम, झुटपुटे के वक्त, रातों के अंधेरे में
कभी मेलों में, नाटक-टोलियों में, उनके डेरे में
तआक्कुब में कभी गुम, तितलियों के, सूनी राहों में
कभी नन्हें परिन्दों की निहुफ्ता ख़ाबगाहों में
बरहना-पांव, जलती रेत, यख़बस्ता हवाओं में
गुरेज़ां बस्तियों से, मदरसों से, ख़ानकाहों में
कभी हमसिन हसीनों में बहुत खुशकामो-दिलरफ्‍ता
कभी पेचां-बगूला-सां, कभी जूं चश्मे-खूं-बस्ता
हवा में तैरता, ख़ाबों में बादल की तरह उड़ता
परिंदों की तरह शाखों में छिपकर झूलता, मुड़ता
मुझे इक लड़का, आवारा-मनश, आज़ाद, सैलानी
मुझे इक लड़का, जैसे तुंद चश्मों का रवां पानी
नज़र आता है, यूं लगता है, जैसे यह बला-ए-जां
मेरा हमज़ाद है, हर गाम पर, हर मोड़ पर जौलां
इसे हमराह पाता हूं, ये साये की तरह मेरा
तआक्कुब कर रहा है, जैसे मैं मफ़रूर मुलज़िम हूं
ये मुझसे पूछता है , अख़्तरुल- ईमान तुम ही हो ?

दियारे-शर्क – पूरब देश । नीम-उरियां कमसिन- अर्धनग्न बच्चे । सहर-दम- सुबह के समय । तआक्कुब-पीछा । निहुफ्ता खाबगाहों में- गुप्त शयनगारों में । बरहना-पांव- नंगे पांव । यख़बस्ता- बर्फीली । गुरेज़ां- भागा हुआ । पेचां-बगुला-सां-घूमता हुआ चक्रवात । चश्मे-ख़ूं-बस्ता- आंखों में ख़ून के आंसू लिये हुए । तुंद-तेज़ । हमज़ाद-साथी । जौलां- दौड़ता हुआ । मफ़रूर- भागा हुआ ।

लंका में सीता और भारत में रावण

संजय अहिरवाल
संजय अहिरवाल टीवी पत्रकारिता के पुराने चेहरों में से एक हैं । कश्मीर से लेकर पूर्वोत्तर और दुनिया के तमाम देशों से रिपोर्ट कर चुके हैं । ज़ाहिर है ज़हन में यहां वहां की बातें टकराती होंगी । महिला दिवस पर उन्होंने भारत लंका के अनुभवों को जोड़ा है । एक तरह से सवाल उठा रहे हैं कि हमारी पुरूष आबादी महिलाओं के बारे में इतनी निर्लज्ज क्यों हैं?

दिल्ली की किसी भी ज़ेबरा क्रासिंग पर खड़े हों आप...जब तक एक भी गाड़ी दिखाई दे रही हो...आप सड़क क्रास करने का जोखिम नहीं उठा सकते ..और तो और अगर आपने हिम्मत कर एक दो कदम बढ़ा भी लिये तो सामने वाली गाड़ी के ड्राइवर का पांव एक्सलेटर को और दबा देगा...कि तूने हिम्मत कैसे की सड़क पार करने की जिस पर पहले गाड़ी वाले का अधिकार है..पैदल चलता इंसान तो कीड़े मकोड़े के समान है.जो अगर कुचला भी गया तो गलती उसी की मानी जायेगी


दूसरी तरफ भारत के दक्षिणी तट से ७० मील दूर श्रीलंका है...जहां हम मानते हैं कि एक ज़माने में रावण राज करता था जिसे परस्त्री की कैसे इज़्ज़त की जाती है ज्ञान तक नहीं था..सीता के कारण न सिर्फ उसे अपने राद से बल्कि जान से भी हाथ धोना पड़ा था ..उसी लंका की मैं बात बताता हूं ..आप वहां किसी भी सड़क को क्रास करना चाहते हों यदि आप ज़ेबरा क्रासिंग पर खड़े हैं तो गाड़िया भले ही कितनी सरपट भाग रही हों आपको देख कर खुद ब खुद ड्राइवर गाड़ी रोक देगा । आंखों में भाव होगा..पहले आप..आप पैदल चल कर मेहनत कर रहे हैं...मैं तो गाड़ी रूपी मशीन में बैठा हूं...इसलिये सड़क पर पहला अधिकार आपका है ।

रावण सीता प्रकरण का ज़िक्र भी एक मकसद से ही किया गया है छोटे से द्वीप में औरतों को पुरूषों के बराबार हिस्सा मिलता है..कदम से कदम मिला कर चलती हैं नारी..विश्व में पहली बार प्रधानमंत्री का पद संभालने वाली स्त्री श्रीलंका की श्रीवामों भंडारनायके ही थी जिन्होंने १९६० में सत्ता संभाली थी ..इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्री बनने से ६ साल पहले. इंदिरा गांधी के बाग भारत में और महिला सर्वोच्च पद नहीं बैठ सकी..लेकिन श्रीलंका में १९९४ में एक बार फिर चंद्रिका कुमारतुंगे ने राष्ट्रपति का पद संभाला..बात राजनीति में महिलाशक्ति की नहीं है..बात है माइंड सेट की...कांग्रेस में गांधी परिवार की ही चलती है..लेकिन प्रियंका कितनी ज़्यादा करिश्माई क्यों न हों राजनीतिक विरासत राहुल को मिलेगी...या मिल रही है...उसके नाम में गांधी लगा है..प्रियंका के नाम से बडरा जुड़ चुका है परिवार का नाम तो बेटा ही चलायेगा

एक दूसरा माइंड सेट है..समाज में महिलाओं को दर्जा देने के नज़रिये का..आठ मार्च है नारी दिवस..विश्व भर में नारीशक्ति के कसीदे पढ़े जाएंगे..लेकिन ज़रा भारत की राजधानी में किसी भी महिला या लड़की से पूछिये तो कि वो सड़कों पर, बसों में, दिन रात अपने आप को कितना सुरक्षित महसूस करती हैं..घर से निकलने से पहले क्या वो नहीं सोचती कि कहीं उसके कपड़ों पर पुरूषों की निगाहें उसे दिमागी रूप से निर्वस्त्र न कर दे..अरे भड़काऊ कपड़ों को छोड़िये..बसे में लड़कियों से छेड़छाड़, आटो में छिंटाकशी, दफ्तर में खास नजर, पुरूषों को किसी बहाने की जडरूरत वैसे भी नहीं पड़ती..ये कैसा समाज है जिसमें आधी आबादी घबरा घबरा कर जीती है
तो क्या सचमुच रावण की लंका हमें सभ्यता सीखा सकती है.. हमारे यहां भले ही विश्व की प्राचीनतम सभ्यताएं हड़प्पा और मोहनजोदड़ो हुई हैं लेकिन अब हम ढोल पीटने के लिए सभ्य रह गए हैं...लंका सीता के अपहरण के कलंक से आगे निकल चुका है । क्या हम लंका से कुछ सीख सकते हैं
संजय अहिरवाल
सीनियर एडिटर
एनडीटीवी इंडिया

कौन बनेगा ब्लागपति

जी मैंने नकल किया है । स्टार वालों ने कौन सा ओरिजनल शो बनाया है । जब करोड़पति हो सकता है तो ब्लागपति क्यों नहीं । हमारे देश में एकलपति की व्यस्था थी मगर उदारीकरण में पता नहीं चलता कि एक पति की कितनी पत्नियां हैं और एक पत्नी के कितने पति । जाने दीजिए । जोड़ने से क्या फायदा । चिदंबरम इसका भी पैन कार्ड बना देंगे और टैक्स लगा देंगे ।


मैं फिर बहक गया । कहना यह चाहता हूं कि कौन बनेगा करोड़पति के हज़ारों पैरोडी बन सकते हैं । जैसे हम अपने संबंधों की पैरोडी बना रहे हैं । ब्लागपति देश का अकेला ब्लाग शो होगा । जिसके एंकर होंगे--( अभी राज़ रखा जा रहा है ) खैर । जल्दी ही ब्लागपति के लिए लाइन ओपन होंगे । हम रोज़ कई सवाल पूछेंगे । आप जवाब दे पाएं तो ठीक नहीं तो रिटर्न टिकट कटवा देंगे । जीत गए तो जाने की व्यवस्था नहीं होगी । ईनाम की राशि सहित अगवा कर लिए जाएंगे । बहरहाल हम और अविनाश मिलकर ब्लागपति शो का खाका तैयार कर रहे हैं । अभी हिंट यानी संकेत दे रहे हैं । ताकि मनोरंजन चैनलों पर हमारा इंटरव्यू अभी से चालू हो जाए । और लोग अवेयर हो जाएं । इंतज़ार कीजिए कौन बनेगा ब्लागपति का ।

कितने लायन मारे..सांभा

महेश रंगराजन की किताब एनवायरेंमेंटल इश्यूज़ इन इंडिया से एक रोचक तथ्य । कहते हैं मुगल सम्राट जहांगीर को सिंहों के शिकार का बड़ा शौक था । मगर ३९ साल की बादशाहत में उसने सिर्फ नवासी यानी ८९ सिंहों का शिकार किया । और एक रिपोर्ट के अनुसार एक ब्रिटिश अफसर ने अकेले ३०० से ज़्यादा शिकार किये । बाकी कसर हम आज़ाद भारत में पूरी कर रहे हैं । हमारे लिए विरासत बेचने और गाने की चीज़ हो गई है प्यारे ।

बाबा की गुमटी

कस्बा सिर्फ एक व्यक्ति से आबाद नहीं हो सकता । कई लोगों को आकर बसना पड़ेगा । अपनी गुमटी खोलनी पड़ेगी । पान की गुमटी । मेरे कस्बे में एक बाबा आ गए हैं । बाबा की धुनी राजनीतिक ख़बरों से रमती है । कहते हैं ऑफ रिकार्ड को ऑन करने का टाइम आ गया है । कलयुग में सब कुछ ऑन होता है । तो आज से वो सियासी गप्पों को बताते रहेंगे और हम पेश करते रहेंगे ।

दो रुपये का रसगुल्ला और शेखी चुनाव जीतने की

लोक सभा चुनाव हारने के बाद बीजेपी के युवा चेहरों के दिन खराब चल रहे थे । पंजाब उत्तराखंड जीतने के बाद दिन लौटे भी हैं तो दो रुपये का भाव पीछा नहीं छोड़ रहा है । संसद के सेंट्रल हाल में उत्तराखंड के प्रभारी राजकुमार रविशंकर प्रसाद जीत की खुशी में दो रुपये वाले रसगुल्ले बांटते देखे गए । मगर कम लोगों की ही दिलचस्पी थी । सांसद फाइव स्टार का रसगुल्ला खाना चाह रहे थे । मगर रविशंकर प्रसाद होशियार हो गए हैं । वो दो रुपये में ही काम चला कर जीत की खुशी और प्रसाद दोनों बांट रहे हैं ।

अब कहां वर्ल्ड कप, एमसीडी कप ही मिल जाए....

संसद की सीढ़ी पर पंजाब के बीजेपी प्रभारी अरुण जेटली अकेले खड़े थे । लंदन से आए अरुण के पीछे सब दौड़ रहे हैं मगर बीजेपी को जीताने वाले अरुण अकेले । कहते सुने गए थे कि यह पहला मौका होगा जब वो वर्ल्ड कप का मैच देखने नहीं जाएंगे । जब से राजनाथ ने उनसे माइक छीनी है वो गांगुली भाव में आ गए हैं । कहते सुने गए कि उत्तर प्रदेश के चुनावों में जिम्मा न मिला तो दिल्ली के एमसीडी चुनाव का तो काम मिल ही जाएगा । मेरे इतने भी दिन खराब नहीं हुए हैं । बाबा बोले सही है अरुण जी..गांगुली भी यही कहता था । मैच रणजी हो या मोहल्ले का... क्रिकेट खेलता रहूंगा । संयास नहीं लूंगा ।

लिज़ हर्ले का न्यौता

लिज़ हर्ले भूल गईं । या भेजा तो मिला नहीं । शादी का न्यौता । लिज़ हर्ले और अरुण को मैं नहीं जानता । मगर मीडिया में होने के कारण इनकी शादी में परोसे जाने वाले खाने से लेकर मेहमानों की रजाई तक की ख़बरे बनाते बनाते लगा कि लिज़ अब तक मेरे बारे में जान गई होगी । कि कोई तूफान संवाददाता रवीश कुमार मेरी शादी की रिपोर्टिंग कर रहा है । मैं सोचता था कि लिज़ का इंडियन गार्ड हिंदी चैनल देखकर पल पल बताता होगा कि मैडम आजतक ये दिखा रहा है । एनडीटीवी इंडिया वो दिखा रहा है । इट्स ऑसम रिपोर्ट्स । और एनडीटीवी इंडिया का रिपोर्टर तो शानदार है । सारा ब्यौरा दे रहा है । तभी लिज़ ने कहा होगा मस्ट इनवाइट हिम । मगर एक चैनल मुझसे आगे निकल गया । उसने कैप्शन लगाया । सदा सुहागन रहो लिज़ ।

मैंने अपने बॉस को कहा । बेवकूफी भरा कैप्शन है । पता नहीं कि लिज़ ने सदा सुहागन रहने के लिए शादी की भी है या नहीं । पहले न अब । लिज़ हर्ले नवविवाहित नहीं है । पुनर्विवाहित है । उसके जीवन में तलाक भी शादी से कम बड़ा उत्सव नहीं होता है । फिर हम क्यों दुखियारे प्रदेशों से आए हिंदी के पत्रकार अपनी बीबी को शादी के वक्त दादी चाची से मिले आशीषों को लिज़ पर भी लादने लगे । सदा सुहागन रहो । मुझे लगता है लिज़ इसी बात से इरीटेट हो गई । यानी चिढ़ गई होगी ।

और मुझे नहीं बुलाया । मुझे लेफ्ट आउट लग रहा है । जब कोई न पूछे तो अंग्रेजी में उसे लेफ्ट आउट कहते हैं । लिंज़ ने इंडिया आकर फोन तक नहीं किया । हम हिंदी पत्रकारों को । उसके मैनजरों ने भी नहीं । मगर उसकी शादी एक इंवेंट है । और होमलोन और क्रेडिटकार्ट की संतान दर्शक उसकी शादी का खाना कपड़ा देखने के लिए भुखाये बैठे हैं । वो टीवी पर देख देख कर पत्तल चाटने लगता है । और टीआरपी बढ़ने लगती है । इन्हीं के लिए तो हम दिखा रहे हैं । लोफर दर्शक और भ्रष्ट वोटर कैसी पत्रकारीय और राजनीतिक व्यवस्था चुनते हैं हम ६० साल से देख रहे हैं । पहले वोटर ही अपराधी बनकर राजनीति की मदद कर रहा था , बाद में अपराधी वोटर राजनीति में आकर नेता बन गया । उसी तरह लोफर दर्शक टीआरपी से पत्रकारिता की मदद कर रहा है बाद में यही लोफर दर्शक पत्रकारिता में घुस कर एडिटर हो जाएंगे । फिलहाल सिटिज़न जर्नलिस्ट हैं ।

मैं भी कहां का फ्रस्टेशन कहां निकाल देता हूं । ग़लत है । बात लिज़ के न्यौते की हो रही थी । दुल्हन के लिए हमने भी विंध्याचल से आलता, सिंदूर और जार्जेट की साड़ी खरीदी थी । मुंह दिखाई के लिए । दुनिया में घूम घूम कर फोटो खिंचवा रही दुल्हन लिज़ को अरुण की दादी नानियां क्या मुंह दिखाई देंगी । मंडप से पहले ही दुल्हन उघार हो गई । भोजपुरी का शब्द है उघार । मतलब सबने देख लिया या सबके सामने आ गया । लिज़ को ज़रुरत नहीं थी । मेरी मुंह दिखाई की । उसने कहा कि ऐसे रवीश कुमारों को बुलाने लगी तो मेरी शादी में मेहमान कहां खड़े होंगे । इसीलिए उसने नहीं बुलाया । अगर मैं उसके लिए फ्रांस के बुर्बॉन वंश की कोई ऐतिहासिक चीज़ भेंट कर सकने की हालत में होता तो लिज़ एसएमएस भी करती । डियर रवीश, आई एम वेटिंग फार यू । यू हैव टू कम । विदाउट यू माय मैरेज हैज़ नो मीनिंग । और मैं भी अपने एडिटर से कह पाता । सर आई हैव टू गो । शी इज़ माय फ्रैंड । दिस इज़ ए पर्सनल इंविटेशन । डोंट इरिटेट विद मी । इट्स ट्रू । आय एम गोइंग । बॉस भी क्या करते । कहते जाओ मगर वहां से लाइव ओबी कर देना । हे लिज़ तुमने क्यों नहीं बुलाया ।

टीवी दौर में दलित चित्रण

जब से टीवी आया है । मतलब इसके आविष्कार से नहीं । प्राइवेट टीवी के ज़माने से । दलितों की रिपोर्टिंग के भाव बदले हैं । लोग (सवर्ण शहरी ) यह भूल गए थे कि दलितों के साथ भेदभाव इतिहास के अनुभव हैं । उन्हें लगता था कि इंडिया के प्रोग्रेस में जातिगत भेदभाव का नाश हो गया है । हम विदेश जा रहे हैं । कार में चल रहे हैं । वर्ल्ड कप जीत रहे हैं । टीम इंडिया में सब जाति धर्म के लोग हैं । जातिवाद कहां हैं । अच्छी बात है अगर यह ज़हर कहीं से, थोड़ी देर के लिए भी ग़ायब हुआ होगा तो । बहरहाल ।

टीवी के आने के बाद तस्वीरें बोलने लगीं कि कैसे एक ठाकुर मंत्री ने किसी दलित नौकर की पीठ गर्म चिमटियों से सेंक दी है । कैसे हरियाणा के एक गांव के ढाई सौ दलित घर के लोगों को दबंगों ने भगा दिया है । पांच साल पहले की बात है । उस गांव में जब मैं कैमरे के साथ गया तो यकीन नहीं हो रहा था । प्रगतिशील भारत की राजधानी से सौ किमी के दायरे में ऐसा नहीं हो सकता है । मैं सोचता रहा दबंग मुझे भी भगा देंगे । मैं चोरी छिपे उस गांव में गया । बल्कि उन घरों की तरफ गया जहां के दलित भगा दिए गए । रविदास का मंदिर । आस पास के घर । यकीन मानें ताले भी नहीं लगे थे । हम हर घर में गए । खाली पड़े चूल्हे । कुछ फटी तस्वीरें । आंगन में कुत्ता भी नहीं । कारण अब याद नहीं । जब यह तस्वीर पूरे देश में गई तो सुगबुगाहट हुई थी । हंगामा नहीं । उसके बाद ऐसे कई गांवों में जाता रहा । आज भी जाता हूं । एनडीटीवी में इस बात का मौका मिला । एनडीटीवी अकेला न्यूज़ चैनल है जो कम से कम उनके उत्पीड़न को दिखाता है । यहां काम करने वाले यह मानते हैं कि हाशिये के बहुसंख्यक समाज की स्थिति नहीं बदली है । अन्य चैनलों पर भी उत्पीड़न के मसले आते जाते रहते हैं । खैर टीवी के दौर में हम दलितों के उत्पीड़न जैसे अखबारी शब्दों की बजाए दलितों के जीवन को फिल्माने लगे । दलित कैमरे में दिखने लगा । टीवी का दलित अक्सरहां गांव में रहता है । गांव में उसके घर जलते है । कई बड़े रिपोर्टर दलितों की कहानी को सामने लाने लगे । उन्हें कई पुरस्कार भी मिले । फिर दलित रिपोर्टिंग एक ट्रेंड बन गया । और जब ट्रेंड बना तो उनकी कहानी सिर्फ उत्पीड़नों तक सीमित रह गई । इसमें कुछ गलत नहीं था । अब भी होनी चाहिए । मगर इससे बड़ा मानस नहीं बन सका । दलित उतावले हुए न सवर्णों को अपनी करनी पर अफसोस हुआ । ऐसी कहानी छोटे सवाल के तौर पेश की जाती रहीं । मसलन प्रशासन औऱ मंत्रियों की मामूली प्रतिक्रिया के अलावा कुछ भी नहीं । मगर ऐसी रिपोर्टों पर पुरस्कार ज़रुर बड़े बड़े मिले । आगे उन गांवों की कोई सुध लेने नहीं गया । जाति व्यवस्था फ्रेम में फ्रीज़ हो गई । इस बीच दिल्ली के पब्लिक स्कूलों में पढ़े हमारे सहयोगी कहते रहे कि हमने तो स्कूल में कभी फील नहीं किया । जातिवाद । अनजाने में फील नहीं हुआ होगा । खैर इस पर अलग से कभी और ।

तो मैं यह कहने की कोशिश कर रहा हूं कि सिर्फ एक ही तरह के संदर्भों में दलित उत्पीड़न की कहानी होने लगी । टीवी कैमरे एक ही एंगल से दलितों को देखने लगे । मसलन सताया हुआ दलित अपनी बस्ती में किनारे बैठा है । बैलगाड़ी के शाट्स हैं । कुछ बच्चे वहीं खेल रहे हैं । औरतें पानी भर रही हैं । उनके बर्तनों के शाट्स होते हैं । उनके कपड़े गंदे हैं । या साधारण । गांव में तो यही तस्वीरें मिलेंगी । पीड़ित दलित औऱ उसके परिवार के लोग क्या क्या और कहां कहां नौकरी करते हैं । कितना कमाते हैं । दलित आबादी की खास तस्वीर बनी । घटना कहानी बनती रही । मगर इन तस्वीरों में सवर्णों को नहीं दिखाया गया । बहुत कम । उन्हें हंसते हुए । मज़ा लेते हुए कि दलितों को सताया है । या इसी भाव में कि इस कुकर्म के बाद भी कोई फर्क नहीं पड़ा है । सताने वाले सवर्णों की पढ़ाई लिखाई कहां तक हुई है । उनके परिवार में कौन कौन बड़ी नौकरी करता है । फिर भी छोटी हरकते की जा रही हैं । यह दिखाने की कोशिश नहीं हुई कि एमबीए करने वाले सवर्णों की मानसिकता नहीं बदलती । तो भारत की शिक्षा व्यवस्था जातिगत सोच को बदलने में फेल हो गई है । ऐसी तस्वीरें कम रहीं । बहस नहीं हुई । शोषक सवर्ण फ्रेम से गायब कर दिये गए । खैरलांजी कांड पर जब खबर आग की तरह फैली कि भोतमांगे की बेटी, बीबी जला दी गई है । तो बहस दलित राजनीति और नए दौर पर होने लगी । कुछ संपादकों ने लिखा कि महाराष्ट्र के दलित भटक गए हैं । वे आरक्षण पाकर अपने समाज से कट गए हैं । किसी ने उन सवर्णों की तस्वीर नहीं खिचीं । किसी ने उन सवर्णों के साथ बहस नहीं किया कि भई आप क्या चीज़ है ? हेकड़ी जाती क्यों नहीं ? आज के प्रगतिशील भारत मे भी आप ऐसा कैसे सोच सकते हैं । किसी ने भी एसएमएस पर सवाल नहीं पूछा कि क्या हमारे सवर्ण अब भी नहीं सुधरे हैं ? हां या न में जवाब दीजिए । मगर ये क्यों होता है कि दलितों पर अत्याचार होता है तो चर्चा उन्हीं की भूमिका, सक्रियता और भागीदारी की होने लगती है । मैं यही सब सुनते हुए खैरलांजी कांड के बाद मुंबई गया । देखा कि कई पढ़े लिखे दलित अपने समाज के लिए कुछ न कुछ कर रहे हैं । कोई दलित बेरोज़गारों को अंग्रेज़ी पढ़ा रहा है तो कोई डाक्टर हो कर भी अपनी सामाजिक चेतना की ज़िम्मेदारियों को निभा रहा है । मैं सोचता रहा कि क्या दलित रिपोर्टिंग करने वाले या पुरस्कार पाने वाले लोग इनसे मिले हैं ? क्या इस तस्वीर को दलित चेतना की तस्वीर नहीं बनने देनी चाहिए थी ? फिर क्यों अखबारों व टीवी के संपादक, महाराष्ट्र और दलित विशेषज्ञ बता रहे थे कि नौकरी पेशा दलित आरामपसंद हो गया है । क्या खैरलांजी उन्हीं की ग़लती से हुआ था ? क्या दलितों के अराजनीतिक होने से सवर्णों को उन्हें जला देने का अधिकार मिल जाता है ? क्या भैयालाल भोतमांगे को महाराष्ट्र के आरामपसंद और तरक्कीयाफ्ता दलितों को सबक सिखाने के लिए सज़ा दी गई । मैंने देखा कि कई पढ़े लिखे दलित नौकरी छोड़ पीड़ितों की मदद कर रहे हैं । वो मदद ही कर सकते हैं । क्या आपने कभी किसी पढ़े लिखे सवर्ण को नौकरी छोड़ कर सवर्णों को जातिगत सोच से आज़ाद कराने का संघर्ष करते देखा है । क्यों नहीं सवर्ण आगे आते हैं । क्यों नहीं खैरलांजी घटना के बाद सवर्णों का भोतमांगे के हक में जुलूस निकला । इस पर न तो बिगफाइट था न मुकाबला न वर्डिक्ट । न किसी अखबार में लेख । सबके एक ही विषय थे क्या महाराष्ट्र में दलित राजनीति फेल हो गई है । बहस ये होनी चाहिए कि क्या सवर्ण राजनीति और सोच दलितों को सताने में सफल हो रही है । उसे मजा आ रहा है । आज़ाद भारत में सवर्णों ने माफी तक नहीं मांगी । वो बदल ही नहीं रहे तो क्या करें । इसके लिए उन दलित युवाओं की आलोचना कर दूं कि उनकी कोशिश का दायरा बड़ा नहीं है । दलित नेता उन्हें ठग रहे हैं । मैं मुंबई में देखने लगा कि कैसे इस सिनेमाई महानगर में जातिवाद फैला हुआ है । एक एयरइंडिया के दलित इंजीनियर की गाड़ी के टायर उसके अपार्टमेंट के कल्चर्ड लोग काट देते हैं । बाहर से कुंडी लगा देते हैं । अंग्रेजी स्कूल में पढ़ने वाले उसके बच्चों के साथ कोई खेलता नहीं । घर में अच्छे खिलौने हैं । मगर वह व्यक्ति आत्महत्या की बात करता है । क्या करे वो मायावती के भरोसे ज़िंदा रहे या संविधान और समाज के ।

मगर टीवी फंसा हुआ था । संपादक फंसे हुए थे । वही तस्वीरें फिर से आने लगीं । भोतमांगे के गांव की तस्वीरें । सहमें गरीब दलित । बैलगाड़ी । गुस्सा । आंसू । गांव के गरीबों का आर्थिक विवरण । जोत का आकार । कैमरे दलितों की बस्तियों में । कोई सवर्णों की बस्तियों में नहीं घूम रहा था । किसी ने सवर्णों से नहीं पूछा कि क्यों ? भोतमांगे की बेटी के साथ ? उसका घर ? क्यों ? कई बड़े पत्रकारों ने नागपुर के अमीर दलितों का विश्वेषण कर डाला । बताया कि दलित राजनीति और युवा कहां है इस वक्त । सवर्ण राजनीति और युवा पर बहस क्यों नहीं ? अखबारों ने दलित राजनीति पर विशेषांक निकालने शुरु कर दिए ।


मैं कहना यह चाहता हूं कि टीवी ने दलित समस्याओं के चित्रण का खास फ्रेम विकसित किया है । मैंने दिल्ली और मुंबई के अपार्टमेंट में रहने वाले नौकरीयाफ्ता दलितों के साथ स्पेशल रिपोर्ट बनाई । उनके कपड़े ब्रांडेड थे । अंग्रेजी बोल रहे थे । बुरा नहीं लगे तो यह भी कह देना चाहता हूं । गोरे थे कई लोग । ड्राइंग रुम में बच्चा रंगीन सायकिल से खेल रहा था । मां कह रही थी कि वो दलितों के प्रति कुछ करना चाहती है । वो जानती है कि आरक्षण सिर्फ उसके लिए नहीं मिला है । बल्कि आरक्षण मिला है खुद मज़बूत होकर दूसरे को सहारा देने के लिए । दिल्ली के दलित अपार्टमेंट में रहने वाले लोग कहते थे कि दूसरे अपार्टमेंट के लोग उनकी गेट के सामने कूड़ा फेंक जाते थे । उनके फ्लैट के दाम बाज़ार से कम होते हैं । मुझे इन रिपोर्ट पर कई प्रतिक्रियाएं मिलीं । कुछ ने कहा आपकी स्टोरी में दलित तो कोई लग ही नहीं रहा था । टी शर्ट पहने थे । एक दलित बैंक प्रोफेशनल था । उसने टाई पहन रखी थी । लैपटाप था । मेरे जानने वाले हैरान थे कि ये भी दलित हैं । शोषण और सवर्ण के बीच दलितों की एक बहुत बड़ी दुनिया है । जिसके अपने मुद्दे हैं ।


तो मैं भी परेशान हूं कि दलित कौन है । जो गांव में बैलगाड़ी के नीचे आ जाता है या वो भी जो साफ्टवेयर इंजीनियर है । टीवी ने उन घरों में तस्वीरें क्यों नहीं उतारी जो दलित सशक्तीकरण के मिसाल हैं । जो आरक्षण के बाद कामयाब ज़िदगी जी रहे हैं । जिन्हें वेतन मिलता है । जो टीवी और वीसीडी खरीदते हैं । जिनके पास पहनने के अलावा दिन में कई बार बदलने के लिए कपड़े भी हैं । क्या ये बदलाव नहीं है । मैं इस बदलाव को सामने लाने से इसलिए नहीं डरना चाहता कि कोई आरक्षण का विरोध ही करने लगे । उसके बाद भी लाना चाहता हूं । इसलिए लाना चाहता हूं कि देखिये आरक्षण का फायदा भी होता है । बैलगाड़ी से कार तक किसी को ले आए, आपके पास और कौन सी नीति है । आपकी (सवर्ण) मानसिकता नहीं बदली मगर उनकी ज़िंदगी कहीं बदल रही है । तो ठीक है न ।

कुल मिलाकर मैं यही कहना चाहता हूं कि टीवी को अब दलित आत्मविश्वास की कहानी भी कहनी चाहिए । फ्रेम बदलना होगा । लाइट का एक्सपोज़र भी । दलितों की कामयाबी पर हैरान होना या नज़रअंदाज़ करना बंद कर दें । उनके संघर्षों से सहानुभूति जताना छोड़ दें । सवर्ण उनके संघर्षों में साथ आना शुरु कर दें । हमें चाहिए कि उनकी दुनिया में सताये जाने के साथ साथ और भी बहुत कुछ हो रहा है । उनकी और भी ज़रुरते हैं । वो सिर्फ बलात्कार और हत्या के बाद की ख़बर नहीं हैं ।

होली पर राष्ट्र के नाम झेल संदेश

दोस्तों । (देशवासियों नहीं) मैं किसी कीमत पर राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री नहीं बन सकूंगा । बनता तो कुछ चीज़ों को बदलने की कोशिश करता । ये वो काम हैं जिसके लिए संसद में दो तिहाई बहुमत की दरकार नहीं होती । मैं होली, ईद या गुरुपर्व पर दिये जाने वाले संदेशों को बदलने की कोशिश करता । क्यों ?

क्योंकि राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री के संदेश बहुत झेल हो गए हैं । थर्ड क्लास । लगता है १९४८ की होली और ईद में लिखकर कोई दुनिया से प्यारा हो गया मगर उसके लिखे संदेश इन दोनों के दफ्तरों की मेज़ पर छोड़ गया होगा । वही संदेश अभी तक साइक्लोस्टाइल होकर जारी होते आ रहे हैं । क्या बात है कि सरकार बदलती है, नेता बदलता है मगर संदेश नहीं बदलता । हद हो जाती है ।

आज भी राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री के संदेश आए । होली शांति और सद्भावना का पर्व है । कई समाजों को करीब लाने का मौका देता है । होली हमें एक दूसरे के प्रति मोहब्बत के लिए प्रेरित करती है । राष्ट्रपति के संदेश में लिखा गया था कि मेरी शुभकामनाएं है कि होली इस साल देश में आपसी रिश्ते को बेहतर करेगी । क्यों सर ? दंगा हुआ था क्या इस साल ? क्यों नहीं लिखते कि भाइयों जम कर होली खेलो । मैं भी खेलने वाला हूं । और कोई काम मत करो । सरकार ने छुट्टी दी है । मज़े करो । डांस करो । भांग सेवन करो । या लेट्स प्ले होली और गेट इन टू ऑल कलर्स ऑफ लाइफ । मनमोहन सिंह के पास नया करने का मौका था । कह सकते थे कि सेंसेक्स गिर जाए । दाम बढ़ जाए। फिर भी होली मनाना । होली का देश की माली हालत से कोई लेना देना नहीं । बेस्ट ऑफ लक । नहीं । नई बात नहीं कहेंगे । उल्टी भी नहीं आती बार बार हर बार झेल संदेशों को जारी करने में । प्रधानमंत्री चीयर्स बोल देंगे तो क्या देश में दारू की बाढ़ आ जाएगी ।

मेरा कहना है कि त्योहारों पर जारी होने वाले सरकारी संदेशों का कंटेंट बदला जाना चाहिए । उनमें रस हो । ह्यूमर हो । हम सब इसकी मांग करें । शांति और सद्भावना के लिए नहीं होली के लिए होली खेलें । शांति और सद्भावना । प्रह्लाद हिरण्यकशिपु की कहानी का क्या हुआ ? उसी का हवाला देते कम से कम । ओरीजनल कहानी ही बता देते । प्लीज़ इनके बकवास संदेशों को फाड़ कर फेंक दें ।

एन्जॉय योर होली ।

कस्बागत कुमार

मेरी दैनिक कालजयी रचनाएं

ब्लाग ने कालजयी रचनाओं को फिर से परिभाषित करने की मांग की है । ब्लाग कहता है वक्त अब सदियों के हिसाब से नहीं चलता है । इस दौर में तो इतिहास भी दस साल पहले तक का लिखा जाने लगा है । मॉडर्न हिस्ट्री । इसलिए समय अब पलछीन है । तो मैं कह रहा हूं कि महीनों तक लिखी जाने वाली रचनाएं अब से कालजयी नहीं कहलायेंगी । वो तो पूरे काल को खा पीकर रची जाती हैं । ब्लाग के दौर में दैनिक लेखन ही कालजयी हैं । इसलिए रोज़ के लिखे हुए को आप कमतर न मानें । जितनी देर में राजकमल प्रकाशन वाले किसी कालजयी रचना का प्रूफ पढ़ेंगे उतनी देर में ब्लाग रचनाओं की प्रतिक्रिया आ जाती हैं । कमेंट्स कॉलम में ।

यह भूमिका क्यों ? भूमिका लेखन कला की पहली आदत हैं । जब तक आप भूमिका नहीं बांधेंगे लिखेंगे क्या । इनदिनों मैं हर दिन लिखने लगा हूं । बहुत लोग लिख रहे हैं । लिखते ही हमारी रचनाएं देश और काल की सभी सीमाएं झट से लांघ जाती हैं । बहरहाल रोज़ लिखने से लेखन का महत्व कम नहीं होता होगा । ऐसा मेरा नया आत्मविश्वास है । अविनाश जी कहते हैं प्रेमचंद के ज़माने में ब्लाग होता तो वो लाखों कहानियां लिख गए होते । ठीक बात है । लालटेन की रौशनी और स्याही के कारण हमारे महान रचनाकारों का काफी वक्त बर्बाद हुआ है । पर नो रिग्रेट्स । जो हुआ सो हुआ । उनके टाइम में बहुत कुछ नहीं था लेकिन यह क्या कम था कि महान रचनाकार थे । इधर तो कोई महान ही नहीं हो रहा है । वैक्यूम देख मैंने ट्राई किया है लेकिन हो नहीं पा रहा हूं । महान होने के बाद ही तो कालजयी होंगी मेरी रचनाएं । जाने दीजिए । लिखते रहिए । सांत्वना पुरस्कारों से भी वंचित यह लेखक रुकने वाला नहीं है । हम ब्लागकार पाठकों के लिए नई चुनौती बनने वाले हैं । हर दिन लिख लिख कर उनके चश्मे का पावर बढ़ा देंगे । हम लिखेंगे साथी । तुम पढ़ोगे न ।

क्या लिखा जाए यह एक बड़ा मसला है । विषय सभी पुराने हैं । मैं नए विषयों का इंतज़ार नहीं कर सकता । मौलिक होना मुश्किल काम है । मौलिकता से दुनिया नहीं बदली है । यह एक सत्य है । विज्ञान से लेकर विचार का प्रसार उसमें जोड़ घटाव करने के बाद ही हुआ है । एडीसन बल्ब बना कर गए थे । ट्यूब लाइट नहीं बनाया था । सीएफएल लैंप नहीं बनाया था । मार्क्स ने जो विचारधारा दिया उसमें रूस चीन और हिंदुस्तान में जोड़ घटा कर प्रयोग हुआ है । मौलिक सिर्फ क्रेडिट देने के लिए है । इसलिए मैं मौलिक नहीं हूं । आपको लगता है तो अच्छा है । मेरी दैनिक कालजयी रचनाओं के पाठकों के प्रति आभार ।

मैं इतिहास में साप्ताहिक कॉलम लिख कर अमर नहीं होना चाहता । मैं रोज़ लिख कर ठोंगा बनना चाहता हूं । मुझे पढ़ने के बाद मेरे लिखे में बादाम भर दें । खा कर फेंक दें । यानी कमेंट्स देने के बाद भूल जाएं । क्योंकि मैं दूसरी दैनिक कालजयी रचनाओं की जुगाड़ में लग जाता हूं । बिल्कुल फालतू नहीं हूं । रोज़ लिखना एक आसान और महान काम है ।

बहस करेंगे

मेरे पास कुछ ज्वलंत से मुद्दे हैं ।
कहिये तो थोड़ी बहस कर लेते हैं ।
आइये समाज को ही बदल देते हैं ।
उनको तुमको और बाकी सबको ।
हम जी भर के गरिया लेते हैं ।
जब जी चाहा किसी से भी बहस कर लते हैं ।
बस्ता भर के लॉजिक है मेरे पास ।
प्रो और एंटी भी ।
बोलियो तो निकाल लेते हैं ।
थोड़ी बहस कर लेते हैं ।
समीक्षा करेंगे कि आलोचना या फिर विवेचना ।
एक मुद्दे के कई कैटगरी हैं हमारे पास ।
कहिये तो कुछ बहस कर लेते हैं ।
चाय के साथ सिगरेट का कश भी होगा ।
पैमाने में शराब भी होगी ।
और नाच रहे होंगे सारे मुद्दें ।
आइये न बहुत बेकार बैठे हैं ।
थोड़ी देर और बहस कर लेते हैं ।
लोकल, नेशनल और इंटरनेशनल ।
हर लेवल पर काफी बेचैन हैं हम ।
कहां जाते हैं, करना क्या है जाकर।
यहीं, अभी इसी वक्त थोड़ी बहस कर लेते हैं ।

ईमानदार लोगों के नाम एक ख़त

भई आप लोग किस मिट्टी के बने हैं । इस देश में जहां सब लूट रहे हैं । आप बैठे हैं । क्यों पैसा अच्छा नहीं लगता । क्या नौकरी से पहले आप संतों के यहां काम करते थे । अब तो संत भी कमा रहे हैं । आप कब कमायेंगे । ईमानदार कैसे हो जाते हैं लोग । आप कुछ भी नहीं लेते । ये बड़ा ग़ज़ब है ।
दुनिया में एक से एक दाता मगर ईमानदार हैं कि लेंगे नहीं । आप लोग आय के बराबर या उससे कम की संपत्ति में रहते कैसे हैं ? ज़िंदगी भर पैदल ही चलेंगे । गाड़ी खरीदने का मन ही नहीं करता क्या । ईमानदार ।

मुझ घूसदाता को लगता है कि हर कोई बादाम के साथ घूस खा सकता है । घूस नहीं तो कमीशन ले सकता है । कमीशन नहीं तो कट ले सकता है । इतने सारे उपनाम हैं लेने के मगर मना करने के एक ही क्यो ? ईमानदार । घूसदाता को लगता है कि गांधी पैदा कर गए हैं ईमानदारों को इस देश में । तभी देश फटीचर हालत में है । अगर सभी रिश्वत लें तो गरीबी कितनी जल्दी दूर हो जाएगी । मुझे लगता है गरीब भी साला ईमानदार होगा । तभी वो ग़रीब ही रहता है । एक ईमानदार की घटती क्रयशक्ति से अर्थव्यवस्था को कितना नुकसान होता होगा । कंपनी उत्पादों का माल ही नहीं बिकता होगा । अगर किसी देश में सब ईमानदार हो जाए तो मेरा दावा है कि स्टाक मार्केट क्रैश हो जाएगा । कंपनियां घाटे में चली जाएंगी । देश का नुकसान होगा । मेरे अटके पड़े काम का तो होता ही है । बढ़ते ईमानदारों से कहीं बेरोज़गारी तो नहीं बढ़ जाएगी ।

सिन्हा साहब अपनी बहत्तर मोडल अंबेसडर में दफ्तर आते थे । उनकी गाड़ी पर लाल बत्ती टिमटिमाती रहती थी । पैंट और शर्ट उदारीकरण के पहले के थे । चश्मा स्वदेशी मूवमेंट का बना था । मैं रिश्वत के पैसे देने के लिए तरकीबें निकालता रहता हूं । मगर करीब जाते जाते रुक जाता हूं । क्या आदमी है पास भी आने नहीं देता । सिन्हा साहब ऐसे लोगों से दूर रहते थे । आधी ताकत इसी में खर्च होती थी रिश्वत देने वाले कर्णों को भगायें कैसे । वो ईमानदार ही दफन होना चाहते थे । सिन्हा साहब का एक और नाम था । तबादला सिन्हा ।

तभी भारत में इतने कम ईमानदार हैं । वो सिर्फ रिटायर होते हैं । टैक्स भरते हैं । बिजली के बिल चुकाते हैं । और मर जाते हैं । अपने पीछे विशाल संपत्ति की विरासत भी नहीं छोड़ जाते । परचून की दुकान से सामान लेते हैं । उधार पर बेटी की शादी करते हैं । सेल में स्वेटर खरीदते हैं । ईमानदारों के आर्थिक आचरणों और प्रबंधनों का अध्ययन होना चाहिए । उनका डीएनए होना चाहिए । ताकि पता चले कि कैसे वो लक्ष्मी को ठुकरा देते हैं । लक्ष्मी कोड है घूस के पैसे का । माफ कीजिएगा । आस्था को ठेस नहीं पहुंचा रहा हूं । काम करवाने के तरीकों में अपनी आस्था ज़ाहिर कर रहा हूं । कहीं ऐसा तो नहीं कि ईमानदारों को ईश्वर से डर लगता है । डरपोक होते होंगे । क्या पता ईमान से जो डर जाए वही तो ईमानदार होता होगा ।

मैं एक सम्मानित घूसदाता हूं । ईमानदार के मानस को समझना चाहता हूं । क्या इंफ्लेशन ईमानदारों को टच नहीं करता ? क्या उनके बच्चे मुफ्त में पढ़ते हैं ? क्या उनकी बेटियों की शादी में खर्चा नहीं होता ? कहीं ईमानदार होना व्यक्तिगत फैसला तो नहीं । तभी तो सभी ईमानदार नहीं होते हैं । क्यों ईमानदारों को अलग लाइन का कहा जाता है ? क्यों ईमानदारों को पागल कहा जाता है ?

भारत देश में ईमानदार कम हैं । इसीलिए ब्लाग पर लिख रहा हूं । कोई ईमानदार समझाये तो वो क्यों नहीं पैसे लेता है । उसकी बातें सामने आनी चाहिए । इससे प्रेरणा मिलेगी । हम आश्वासन देते हैं कि हम किसी और घूसदाता को यह बात नहीं बतायेंगे । किसी ईमानदार को मूर्ख नहीं कहा जाएगा । सिर्फ उसके मानस को समझा जाएगा ।

ईमानदारों के जवाब का इंतज़ार रहेगा । सिर्फ ईमानदार ही जवाब दें ।