अंधेरा और अनर्गल प्रलाप
बहुत देर से जहाँ कुछ नहीं दिख रहा था अचानक वहाँ कुछ दिखने लगता है । अंधेरा हमेशा चौंका देता है । कब से अंधेरे में बैठकर अंधेरा को नहीं देखा था । आधी रात को देर तक खुले आसमान के नीचे बैठा रहा । अकेला । ख़ुद को ख़ाली कर रहा था । चारों तरफ़ काला पर्दा । पहले दूर पहाड़ी पर अख़बार बल्ब की रौशनी नज़र आई । फिर कई बल्ब नज़र आने लगे । लगा कि बिजली वापस आ गई है । पर बिजली तो गई ही नहीं थी ।
लोग कहते हैं अंधेरे में कुछ दिखता नहीं है । पर किसी ने नहीं कहा कि अंधेरे को देखा जा सकता है । नहीं दिखना भी तो देखना है और अचानक उस अंधेरे से कोई चीज़ निकल आए तो भ्रम टूटता है कि अरे हम क्या देख रहे थे कि यह नहीं दिखा । अंधेरे में भी देखा जा सकता है । चारों तरफ़ के पहाड़ जगमगाते नज़र आने लगे । अब सब दिखने लगा । अंधेरा कहीं गया नहीं था ।
घर में जब बिजली जाती है तो अचानक से सब दिखना बंद हो जाता है । फिर धीरे धीरे कुछ दिखने लगता है । हम सब चलने लगते हैं । तब लगता है कि रौशनी के बिना भी हम चल सकते हैं । पीछे मुड़कर देखा तो दूर पहाड़ी पर बने मकान की खिड़की से आती रौशनी किसी सूरज से कम न लगी । हमें इतनी ही रौशनी चाहिए । पास न भी हो तो दूर से आती दिख जाए ।
पहाड़ों से नज़रें हटीं तो आसमान की तरफ़ देखने लगा । बिल्कुल साफ़ आसमान । हर तारा दिख रहा था । दिल्ली के आसमान में तारे नहीं दिखते हैं । वहाँ की सड़कों पर बिखरी रौशनी और जगमग मकानों के बीच अंधेरे का अहसास नहीं होता । पहाड़ों पर अंधेरा दिखता है रौशनी नहीं । अब मैं आसमान की तरफ़ देखने लगा । हम ज़िंदगी में किसी को आसमान छूते देखना तो चाहते हैं मगर आसमान की तरफ़ ही नहीं देखते ।
बहुत दिनों बाद अंधेरे से घबराया नहीं । अपार्टमेंट की ज़िंदगी में बिजली जाती है तभी अंधेरा आता है । बिजली जाने पर ख़ौफ़ पैदा होती है । आप अपने ही घर में चंद पलों के लिए अजनबी हो जाते हैं । पहाड़ों के बीच अंधेरा दोस्त की तरह लगा । काश कि हम रोज़ इस अंधेरे को देख पाते । किसी साये को अचानक से साक्षात में बदलने का अहसास कर पाते पर इसके लिए तो अंधेरा ज़रूरी है ।
सोशल मीडिया का संसार
हम सब एक मीडिया समाज में रहने लगे हैं । अति संपर्क एक हक़ीक़त है और अब आदत । एक दूसरे को देखकर एक दूसरे के जैसा होने लगे हैं । टीवी पर नहीं होते हैं तो मीडिया के किसी और माध्यम में होते हैं । दुनिया भर में इस विषय पर शोध होने लगे हैं । इसकी आदतों से निजात दिलाने के लिए मनोचिकित्सक पैदा हो गए हैं । हम सबको लगता है कि आधुनिक होने का मतलब ही है निरंतर संवाद । इस प्रक्रिया में अध्ययन और चिन्तन ग़ायब हो गया है । देखना बंद हो गया है । मेरी बहुत इच्छा है कि इस पर पढ़ूँ और शोध करूँ ।
हम इस भ्रम में रहने लगे हैं कि सम्पर्कों और सम्बंधों का विस्तार हो रहा है । ज़रा आप फ़ेसबुक या व्हाट्स अप के संबंधियों की सूची पर ग़ौर कीजिये । ट्वीटर पर ज़रूर कभी भी कोई नया आ जाता है मगर आप जिनका अनुसरण करते हैं उस सूची पर ग़ौर कीजिये । मामूली हेरफेर के साथ सब स्थायी हो चुके हैं । हम सबका एक कुआँ बन चुका है । नदी होने का भ्रम पाले हम सोशल मीडिया के छोटे छोटे कुएँ में रह रहे हैं । जिसमें कई बार अलग अलग कुओं से आए मेंढक टरटराते रहते हैं । हमें लगता है कि यही जगत और जागरूकता का रूप है । जबकि ऐसा नहीं है । हमने इसी को स्वाभाविक मान लिया है । बाज़ार ने विभिन्नता की उत्सुकता को कुंद कर दिया है । हम सबके अपने अपने ब्रांड तय हैं । शर्ट से लेकर परफ़्यूम तक के ब्रांड । हम इन सब उत्पादों के चयन में पहले से कम परिश्रम और प्रयोग करते हैं । हो सकता है कि आपका यह लेखक उम्र के किसी स्थिर पड़ाव में आ गया है ! लेकिन क्या यह सही नहीं कि ब्रांड बनने की छाया सोशल मीडिया में हमारे व्यवहार में दिखती है ।
सोशल मीडिया पर मौजूद हर शख़्स एक ब्रांड है । वो ब्रांड ही बनने के लिए आतुर है । जो है उससे कहीं अलग । हमें मतलब भी नहीं कि उस ब्रांड की हक़ीक़त क्या है । हमें कहाँ इस बात से फ़र्क पड़ता है कि जिस ब्रांड को हम धारण करते हैं वो अपने कर्मचारियों से कैसा बर्ताव करता है । बाहरी रूप ही सत्य है । इसी का आत्म प्रदर्शन है । हम सब कुछ अलग लगना चाहते हैं परन्तु इस क्रम में एक जैसा हो जा रहे हैं ।
मैं खुद के बारे में बता सकता हूँ । चंद लोगों से चैट तक मेरी दुनिया सिमट गई है । आपके लिए भी सँभव नहीं है कि एक सीमित संख्या से ज़्यादा लोगों से सम्पर्क रख सकें । जिनसे बात करता हूँ उनसे या तो कभी मुलाक़ात नहीं है या बहुत दिनों से नहीं है । शब्दों और वाक्यों के ज़रिये मेरा आभासी रूप है और मेरे पास आपका । कई बार लगता है कि आप मुझे वो समझते हैं जो मैं हूँ नहीं और कई बार ऐसा ही मैं आपके बारे में सोचता हूँ । हम सब लगातार प्रोजेक्ट होने की प्रक्रिया में है । पूरी दुनिया में इस व्यवहार पर गहन शोध हो रहे हैं । शायद भारत में भी हो रहे होंगे मगर अभी सार्वजनिक बहस का हिस्सा नहीं बन पाये हैं ।
इस प्रोजेक्ट होने की प्रक्रिया में हमारी तस्वीरें कुछ और ही बोल रही होती हैं । हमारी होते हुए भी हमारी नहीं लगती । हम तस्वीरों के ज़रिये खुद के देखे जाने का तरीक़ा भी तय कर रहे हैं । सेल्फी । क्लोज़ अप । यह हमारा आभासी व्यक्तित्व हमारे असल को भी प्रभावित कर रहा है । शब्दों के आर पार भावनात्मक रिश्ते बन रहे हैं । कई मामलों में यह अच्छा है और कई मामलों में ख़तरनाक । पर यह तो वास्तविक जगत में भी है । आप जिससे मिलते हैं उसका बाहरी रूप ही तो जानते हैं । सही ग़लत होने के ख़तरे वहाँ भी हैं । एक फ़र्क है । सोशल मीडिया का हर संवाद एक दस्तावेज़ है ।
हद तो तब है जब हम लिखित संवाद भी इस भ्रम में करते हैं कि कोई और नहीं पढ़ रहा या जिसे पढ़ना है पढ़ ले क्या फ़र्क पड़ता है । शंका और आत्मविश्वास की दीवारों को रोज़ तोड़ते हैं । हमारे भीतर शब्दों की एक ऐसी दुनिया बन जाती है जो हर वक्त चलायमान है । हम लगातार संवाद की प्रक्रिया में है । दिमाग़ शांत नहीं होता । बात करने का दायरा भी मौत के कुएँ की तरह है जिसमें हम नीचे से रफ़्तार पकड़ते हुए ऊपर पहुँचते हैं और फिर नीचे आ जाते हैं । बाक़ी लोग झाँक कर तमाशा देख रहे होते हैं ।
इस क्रम में हमारा वजूद कुछ रहा नहीं । न जाने कितनी बार रौंदा जाता है कितनी बार खड़ा हो जाता है । जब आप सोशल मीडिया के सम्पर्क में नहीं होते तब भी आपका दिमाग़ घनघना रहा होता है । इस दुनिया में कोई भी अनंत आकाश से नहीं जुड़ा है । सबके अपने अपने टापू हैं । इन टापुओं पर सियासी जलदस्युओं के हमले होते रहते हैं । हम खुद को बदलकर कुछ और होते रहते हैं ।
एक बहुरूपिया संसार रचा जा रहा है । जो इसके दायरे से बाहर है वो कैसे जी रहा है । जब कभी सब बंद कर देता हूँ तो कई लोगों की याद आती है । अकुलाहट होती है । सामान्य होने में वक्त लगता है । कई लोगों ने आहत होने की सहनसीमा का विस्तार किया है तो कुछ ने संकुचित किया है । यहाँ बात करना जोखिम का काम हो गया है । सबकी अपेक्षाओं पर खरे उतरने का इम्तहान है सोशल मीडिया में संवाद । हम सब एक सेना में बदल चुके हैं । टिड्डी दल की तरह हमला करते हैं । हमला झेलते हैं । जल्दी ही सोशल मीडिया के पन्नों पर विश्व युद्ध सा होने वाला है ।बल्कि छोटे मोटे कई युद्ध या तो हो चुके हैं या चल रहे हैं । इसमें मारे जाने वाले या घायल वैसे नहीं होंगे जैसे असल में होते हैं । बल्कि दिमाग़ी रूप से आहत लोगों की संख्या बढ़ेगी । उसके रूप बदल जायेंगे । कई लोगों को इस बेचैनी की प्रक्रिया से गुज़रते देखा है ।
मैं यही जानना चाहता हूँ कि इन सबने हमें कैसे बदला है । आप कैसे बदले हैं । कहीं हम पहले से ज्यादा अकेले नहीं हुए हैं । निरंतर संवाद ने समाज को जागरूकता के नाम पर अंध श्रद्धा दी है या सचमुच यह कोई अलग समाज है जो सोचने के स्तर पर पहले से कहीं अधिक जागरूक और सजग है । पर आप जानने के लिए कितना प्रयास करते हैं । मैं खुद दो तीन से ज़्यादा वेबसाइट नहीं देखता और आप ? जो शेयर करता हूँ उसे भी कम लोग पढ़ते हैं । कहीं हम अपने जाने हुए को ही तो नहीं मथते रहते हैं जहाँ तथ्य पीछे रह जाता है और भाव ऊपर आ जाता है । कितने लोग हैं जो निष्ठाओं के आर पार जाकर रोज़ जानने और न जानने के बीच की यात्रा करते रहते हैं । आप हैं तो बताइयेगा ।
सिन्धु से गंगा: सभ्यता से सनातन तक
एनडीए की सरकार थी । तरुण विजय सिंधु दर्शन का आयोजन करते थे । लाल कृष्ण आडवाणी भी जाया करते थे । ऐसे ही एक आयोजन में लद्दाख जाने का मौक़ा मिल गया । उस सिंधु नदी को देखने और जीने का मौक़ा मिला जिसके नाम पर हम अपने मुल्क का नाम और उसकी पहचान का धारण करते हैं । सिन्धु से ही हिन्दू हुआ और उसी से बना हिन्दुस्तान । जिस नदी से हमने नाम लिया वही हमारी राजनीतिक पहचान से ग़ायब है । हमारी पूरी सभ्यता संस्कृति का आदिम वजूद सिन्धु घाटी सभ्यता से ही प्रस्थान करता है । एन डी ए की सरकार जाने के बाद सिंधु दर्शन बंद हो गया या जारी रहा इसकी औपचारिक जानकारी नहीं है लेकिन पिछले दस सालों में सिंधु दर्शन की कोई चर्चा भी नहीं सुनी । यह और बात है कि सावरकर ने इसी सिन्धु की पहचान पर लौटने का दावा किया था । शायद इसी क्रम में सिन्धु दर्शन का आयोजन होता था । ( इस पैरा में आख़िरी की दो पंक्तियाँ किसी की प्रतिक्रिया पढ़ने के बाद जोड़ी गई हैं )
इंडियन एयरलाइन्स के विमान से लद्दाख उतरते ही सिन्धु को देखने की लालसा से भर गया । वो नदी आज भी बहती है । बिना इस भार के कि कभी इसी के किनारे एक ऐसी सभ्यता बसी जिसका बखरा हिन्दुस्तान और पाकिस्तान नाम के दो मुल्क अपने इतिहास की किताबों में करते हैं । एयरपोर्ट पर ही तबीयत ख़राब हो गई और इसका लाभ यह हुआ कि होटल की खिड़की के पीछे बह रही सिन्धु नदी को घंटों निहारने का मौक़ा मिल गया । सिंधु की शालीनता पर फ़िदा हो गया ।
विनम्रता कोई सिन्धु से सीखे । भारत की सनातन संस्कृति पर पौराणिक से लेकर ऐतिहासिक दावा करने वाले साधु संत और नेताओं को कभी सिन्धु की क़सम खाते नहीं देखा है । सिन्धु भी दावा नहीं करती है । ऐसा कब और कैसे हुआ मुझसे बेहतर कई लोग जानते होंगे । हाँ तो सिन्धु चुपचाप बह रही थी । उसकी धारा में पाप पुण्य के अर्पण तर्पण के बोझ से मुक्त सभ्यता की सदियाँ बही जा रही थी । हम जितनी बार खुद को हिन्दू बोलते हैं उतनी बार सिंधु नदी का नाम लेते हैं । फ़र्क इतना है कि हमारे ख्याल में सिंधु नहीं गंगा होती है । हमारे जीवन से लेकर मृत्यु तक के सारे कर्मकांड गंगा से जुड़े हैं ।हमने गंगा को ही उद्गम मान लिया है । यहाँ तक कि हम अपने पितरों को तारने गया जाते हैं जहाँ फल्गु नदी बहती है । सिंधु पता नहीं कैसे हमारे कर्मकांडों और पाखंडों से बच गई । कभी मौक़ा मिले तो एम्पायर्स आफ़ दि इंडस पढ़ियेगा । हर किसी को एलिस एल्बिनिया की इस बेहतरीन किताब को पढ़ना चाहिए । राजनीति में नदियाँ विलुप्त नहीं होतीं । कोई सरस्वती की तलाश के बहाने आ जाता है तो कोई सिन्धु से लेकर नर्मदा और गंगा तक का आह्वान करने लगता है ।
खैर अब हम अपनी पहचान सिन्धु घाटी सभ्यता की ऐतिहासिकता से कम गंगा की पौराणिकता और दिव्यता से ज़्यादा करते हैं । हम सभी आम समझ में सभ्यता को सनातन के संदर्भ में ही परिभाषित करते हैं । मैं खुद गंगा को देखकर उसके विराट में विलीन हो जाता हूँ । गंगा रोम रोम तक को भावुक कर देती है । गंडक को देखते ही आँसू छलकने लगते हैं । अंग्रेज़ी के शब्दों का इस्तमाल करते हुए कहूँ तो गंडक पर्सनल है और गंगा पब्लिक । हर सार्वजनिक विमर्श में गंगा माँ है । गंडक गंडक है । सनातनी गंगा राजनीतिक भी है मगर गंडक जिसके किनारे मेरे पुरखों का वजूद मिलता है वो सामाजिक है । सिन्धु क्या है । कुछ नहीं ।
खैर अब हम अपनी पहचान सिन्धु घाटी सभ्यता की ऐतिहासिकता से कम गंगा की पौराणिकता और दिव्यता से ज़्यादा करते हैं । हम सभी आम समझ में सभ्यता को सनातन के संदर्भ में ही परिभाषित करते हैं । मैं खुद गंगा को देखकर उसके विराट में विलीन हो जाता हूँ । गंगा रोम रोम तक को भावुक कर देती है । गंडक को देखते ही आँसू छलकने लगते हैं । अंग्रेज़ी के शब्दों का इस्तमाल करते हुए कहूँ तो गंडक पर्सनल है और गंगा पब्लिक । हर सार्वजनिक विमर्श में गंगा माँ है । गंडक गंडक है । सनातनी गंगा राजनीतिक भी है मगर गंडक जिसके किनारे मेरे पुरखों का वजूद मिलता है वो सामाजिक है । सिन्धु क्या है । कुछ नहीं ।
यह चुनाव इस मायने में भी याद रखा जाना चाहिए कि आधे अधूरे तरीके से सही गंगा को लेकर काफी दावे किये गए । एक नदी की समस्या और समाधान पर बात हुई ।" माँ गंगा ने बुलाया है" नरेंद्र मोदी ने बार बार कहा । हम सब गंगा से जल्दी रिश्ता जोड़ लेते हैं । गंगा हमारा ख़ून है मगर सिन्धु क्या है ?
खैर राजीव गांधी के बाद नरेंद्र मोदी की वजह से सबका ध्यान फिर से गंगा की तरफ़ गया है । इसका श्रेय नरेंद्र मोदी को जाना चाहिए । दो साल पहले उमा भारती ने गंगा के किनारों की यात्रा कर इसके दुखों को पहचाना था । उससे पहले प्रो अग्रवाल के घोर अनशनों की वजह से गंगा मुद्दा बनी थी । एक संत तो गंगा को माफियाओं से बचाने के लिए जान ही दे गया । तब उत्तराखंड में किसका राज था पता कर लीजियेगा और यह भी मौजूदा शासन में उन माफियाओं का कुछ हुआ भी या नहीं । मनमोहन सिंह ने गंगा को राष्ट्रीय नदी घोषित किया था । लेकिन किसी ने सिन्धु पर दावेदारी नहीं की । सिन्धु ने किसी को नहीं बुलाया । सिन्धु के लिए जाना पड़ता है । इसके पास जाने के लिए तीज त्योहार का कोई बहाना भी नहीं है ।
मैं नदियों को लेकर भावुक होता रहता हूँ । इस वक्त टीवी के शोर शराबे से दूर एक अनजान नदी के किनारे बैठा हूँ । वो भी सिन्धु की तरह कलकल करती अपने एकांत में बहती जा रही है । कौन है क्या है किसी को नहीं बताती । हमने कई नदियों पर कर्मकांड और कथाओं को लाद कर उनसे पहचान की ज़रूरत तो पूरी की है मगर उनका ख्याल नहीं रखा ।
बेहद ख़ूबसूरत है सिन्धु । कभी देखियेगा मगर अल्बानिया की किताब पढ़ने के बाद । सिन्धु के किनारे कोई पंडित पंडा नहीं मिलेगा । यह नदी किसी पौराणिक गाथा की तरह नहीं बहती है । इतिहास की तरह बहती है । इसके किनारे विद्यार्थी बन कर जाइयेगा, कर्मकांडी बनकर नहीं । तभी आप सभ्यता और सनातन के फ़र्क की कलकल ध्वनि सुन पायेंगे ।
समितियाँ ही समितियाँ
प्रभात प्रकाशन द्वारा दो खंडों में प्रकाशित युगपुरूष गणेशशंकर विद्यार्थी पढ़ रहा हूँ । कभी इस पर विस्तार से लिखूँगा । बस एक प्रसंग का ज़िक्र करना चाहता हूँ । कानपुर में कांग्रेस अधिवेशन के लिए विद्यार्थी जी की अध्यक्षता में स्वागत समिति बनी थी । इस काम को अंजाम देने के लिए जो समितियाँ बनी थीं उस पर नज़र डालिये तो पता चलता है कि संगठन का काम कैसे चलता था ।
चिकित्सा समिति, प्रकाशन समिति, सफ़ाई और स्वास्थ्य व्यवस्था समिति, पंडाल समिति, बाज़ार समिति, जल समिति, रोशनी समिति, प्रचार समिति, संगीत समिति, सवारी व रेलवे समिति, टिकट कमेटी, सुपरिटेंडेंट लेडिज़ वालंटियर्स, सुपरिटेंडेंट ललितकला प्रदर्शनी,डेलिगेट कैंप समिति,अर्थ समिति, खजांची और भोजन मंत्री, व्यायाम और विनोद समिति ।
इन सब समितियों का ज़िम्मा जिनके पास था वे एक से एक नेता थे । मक़सद नेताओं के बारे में नहीं बताना है बल्कि यह कि राजनीति संगठन की बारीक ज़िम्मेदारियों के बिना हो ही नहीं सकती । इन समितियों के नाम के ज़रिये आप एक राजनीतिक अधिवेशन के सिस्टम और संस्कृति को भी समझ सकते हैं । सोचिये कि व्यायाम समिति क्या करती होगी । यह भी सोचिये कि आज के राजनीतिक अधिवेशनों का काम कितना पेशेवर होगा और क्या तब नहीं होता था ।
नीतीश कुमार की इंजीनियरिंग
नीतीश कुमार बिहार के मुख्यमंत्री नहीं हैं । उनके इस्तीफ़ा देने के फ़ैसले को कई प्रकार से देखा जा रहा है । मगर इन देखनेवालों को आप भी एक प्रकार से देख सकते हैं । मीडिया या सोशल मीडिया पर नीतीश के आलोचकों के सरनेम देखिये । आप समझ सकेंगे कि क्यों इनमें 'जात पात से ऊपर उठ चुके' अपर कास्ट की बहुलता अधिक है । धरातल पर कुछ तो हुआ होगा जो अगड़ी जातियों को नागवार गुज़र रहा है । अगर ऐसा है तो नीतीश इस तबके को अब वापस नहीं ला सकते हैं । आख़िर क्यों अगड़ी जातियों को बिहार का देखा हुआ विकास नहीं पचा और गुजरात का सुना हुआ जंच गया । लोक सभा के चुनाव में बिहार ने नीतीश कुमार को अस्वीकार किया है । नीतीश का समावेशी विकास का माडल उन्हीं के शब्दों में साम्प्रदायिक एकीकरण के आगे नहीं टिक सका शायद इसलिए भी कि उनके इस माडल में विचारधारा का तत्व मोदी के माडल की तुलना में बेहद कमज़ोर था या था ही नहीं ।
कई लोग कहते हैं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का औपचारिक स्वागत करना पड़ता इसलिए कुर्सी छोड़ कर भाग गए । मेरे फ़ेसबुक पेज पर ऐसा लिखनेवालों और एस एम एस भेजनेवालों में सवर्ण ज़्यादा हैं । जिस तरह से सवर्ण नीतीश को जातिवादी ठहरा रहे हैं मुझे जात पात के समाप्त हो जाने के स्वर्ण युग का भ्रम होने लगा है । खैर मोदी के स्वागत के डर से इस्तीफ़े की दलील में झोल है । नीतीश कुमार ने कहा है कि एक साल तक पार्टी का काम कर उसे मज़बूत करेंगे और बहुमत प्राप्त करेंगे । जे डी यू ने भी कहा है कि अगला चुनाव नीतीश के नेतृत्व में ही लड़ा जाएगा । मेरे ख्याल से नरेंद्र मोदी तब तक तो प्रधानमंत्री रहेंगे ही ! अगर यही डर होता तो नीतीश राजनीति से सन्यास ले लेते । इसलिए इस बात में कोई ख़ास दम नहीं लगता कि प्रोटोकोल के तहत नरेंद्र मोदी का स्वागत करना पड़ता इसलिए नीतीश ने इस्तीफ़ा दिया । क्या प्रोटोकोल के तहत नरेंद्र मोदी मनमोहन सिंह का अपने राज्य में स्वागत नहीं करते थे । कहीं नीतीश के डर से ज़्यादा बीजेपी नेताओं का सपना तो नहीं था कि स्वागत कराकर नीतीश के चेहरे की लाली देखने का मज़ा लिया जाएगा ।
इसका मतलब यह नहीं कि नीतीश का इस्तीफ़ा बहस योग्य नहीं है । नीतीश से इस्तीफ़ा माँगा गया तो दे दिया । राजनीति में नैतिकता प्रतीकात्मक ही होती है । कोई संदेश देने के लिए ही दंगों के बाद भी इस्तीफ़ा नहीं देता है और कोई दुर्घटना हो जाने पर दे देता है । नरेंद्र मोदी और अखिलेश यादव ने नैतिक ज़िम्मेदारी तो ली मगर इस्तीफ़ा नहीं दिया । बिहार विधानसभा के चुनाव में एक साल रहते इस्तीफ़ा देना आसान नहीं है । हो सकता है कि अरविंद केजरीवाल की तरह एक दिन इस फ़ैसले पर अफसोस करना पड़ जाए लेकिन यह क़दम इतना भी खोखला नहीं है । इससे पहले के दो लोकसभा चुनावों में जब भारत की जनता यूपीए को समर्थन दे रही थी तब गुजरात की जनता नरेंद्र मोदी के साथ खड़ी रही । उसके इस फ़ैसले में सिर्फ विकास ही नहीं छह करोड़ गुजरातियों के नाम पर किया गया एकीकरण या ध्रुवीकरण भी था लेकिन बिहार की जनता ने नीतीश का साथ नहीं दिया । अहं की लड़ाई का तत्व तो मोदी बनाम सोनिया में भी था । एक पत्रकार टीवी चैनल पर कह रहे थे कि आज बिहार का सबसे बड़ा नेता एक गुजराती है ।
नीतीश इस्तीफ़ा नहीं देते तो उनकी सरकार की स्थिरता के बारे में क्या क्या नहीं कहा जाता या क्या क्या नहीं कहा जा रहा था । इस्तीफ़े की मांग तो की ही जा रही थी । कहा जा रहा था कि बग़ावत हो जाएगी, बीजेपी छोड़ेगी नहीं आदि आदि । यह साफ़ है कि दोनों के बीच अहं का टकराव है और दोनों तरफ़ से है । वैचारिक टकराव को भी स्वीकार किया जाना चाहिए । इसलिए बिहार में सत्ता बदलनी ही थी । नीतीश दो सौ रैलियाँ करके भी बिहार को थाम नहीं सके । लेकिन अब बात इस्तीफ़ा क्यों दिया से आगे निकलकर देने के बाद जो किया उस पर होनी चाहिए ।
मुसहर जाति राज्य और देश की ग़रीबतम जातियों में से एक है । इस जाति का ज़्यादातर हिस्सा ग़रीबी रेखा से नीचे हैं और भूमिहीन है । चूहा खाने वाली इस ग़रीबतम जाति की दुर्दशा पर क्या क्या नहीं कहा गया है । इस जाति के जीतन राम माँझी को नीतीश ने मुख्यमंत्री बनाया है । प्रतीक के स्तर पर यह एक साहसिक फ़ैसला है । बीजेपी को रिमोट कंट्रोल की बात से इतना गुरेज़ होता तो वह संघ के दरवाज़े नेता से लेकर मंत्री के चयन तक के लिए नहीं जाती । भारतीय राजनीति में रिमोट एक सच्चाईँ है । यह सच्चाई बीजेपी से लेकर हर दल में है । क्या बादल या पासवान की पारिवारिक पार्टी में रिमोट कंट्रोल नहीं है । क्या नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बनने के बाद गुजरात में नए नेता के चुनाव में दखल नहीं रखेंगे । विधायकों के नाम पर किसका फ़ैसला चलेगा सब जानते हैं । वे भी जब आनंदीबेन को मुख्यमंत्री चुनेंगे तो इसे प्रतीक के स्तर पर बढ़ा चढ़ा कर बताया जाएगा । नरेंद्र मोदी खुद अपने चाय बेचने और पिछड़ी जाति की पृष्ठभूमि के प्रतीकों का इस्तमाल जमकर करते रहे हैं । इसलिए प्रतीक के स्तर पर ही सही जीतन राम माँझी का मुख्यमंत्री बनना ऐतिहासिक है । वे हारे हुए हैं मगर हार जाने से ही राजनीतिक उपयोगिता और अस्तित्व समाप्त नहीं हो जाते । इस लिहाज़ से अरुण जेटली भी हारे हुए हैं और उन्हें मंत्री नहीं बनना चाहिए । यही क्या कम है कि बीजेपी नीतीश पर जातिवादी राजनीति का आरोप तो नहीं लगा पा रही है ।
इस फ़ैसले ने पार्टी पर नीतीश की पकड़ को स्थापित तो किया ही है उनका आत्मविश्वास भी ज़ाहिर किया है । एक ऐसे समय में जब दिल्ली में प्रतिकूल और आक्रामक सत्ता हो अपनी कुर्सी किसी और को सौंपने का भरोसा करना सिर्फ एक कमज़ोर चाल नहीं है । एक पार्टी के रूप में जे डी यू का इस फ़ैसले को स्वीकार करना भी कम बड़ी बात नहीं है । जितने भी विधायक हैं और जब तक इस फ़ैसले के साथ हैं इस चुनाव में मिली भयंकर हार के बाद अपनी पार्टी की विचारधारा और नेता में भरोसा रखना बता रहा है कि राजनीति में सबकुछ ख़रीद बेचकर नहीं किया जा सकता । और बग़ावत हो भी जाए तो जिस राज्य में रघुवंश प्रसाद सिंह जैसा बेहतरीन सांसद हर जाए वहाँ इसमें कोई हैरानी की बात भी नहीं ।
एक ऐसे समय में जब पूरे देश में नरेंद्र मोदी की प्रचंड कामयाबी के बाद विपक्ष मनौवैज्ञानिक रूप से बिखर गया है नीतीश सत्ता छोड़कर विपक्ष बनाने के लिए संघर्ष करने जा रहे हैं । हार कर भी उसी रास्ते पर चलने का जोखिम उठा रहे हैं । लालू यादव जेल जाने पर हर बार सत्ता और पार्टी अपने परिवार को ही सौंपते रहे हैं,मुलायम और मायावती भी जो नहीं सोच सकते नीतीश ने करके दिखा दिया । रिमोट के नाम पर ही सही वे पार्टी में किसी और का भी नेतृत्व स्वीकार कर सकते हैं ।
अब यहाँ सवाल कुछ और भी है । क्या नब्बे के दशक की तरह कमंडल को रोकने की ताक़त मंडल में बची है । क्या नरेंद्र मोदी के हिन्दुत्ववादी जातिवादी और विकास की बहुआयामी राजनीतिक पैकेज का मुक़ाबला जातिगत अस्मिता दलित पिछड़ा एकता, समाजवादी धारा और विकास की राजनीति के पैकेज से किया जा सकता है । क्या इस चुनाव का यह जनादेश भी है कि सवर्ण जातियाँ दलित पिछड़ी जातियों के साथ स्वाभाविक रुप से कभी नहीं रह सकती । कभी विकास तो कभी हिन्दुत्व के बहाने अलग होती रहती हैं । लिहाज़ा इसकी जगह दलित पिछड़ों की एकता क़ायम की जाए । उत्तरे प्रदेश में कांशीराम ने मुलायम को मुख्यमंत्री बनाकर कमंडल को रोक दिया था । बाद में यह प्रयोग तुच्छ राजनीतिक चालबाज़ियों की भेंट चढ़ गया । क्या मायावती मुलायम एक होंगे । क्या नीतीश लालू एक होंगे । बीजेपी ने भी तो इस चुनाव में भ्रष्टाचार के मुद्दों को किनारे कर येदुरप्पा से लेकर पासवान तक से हाथ मिलाकर जातियों का बेहतर गठबंधन करके दिखा दिया क्या लालू नीतीश मुलायम मायावती अपने अस्तित्व को बचाने के लिए ऐसा कर पायेंगे ।
यह सब इतना आसान नहीं है । नीतीश वो करने निकले हैं जिसे करने में लंबा रास्ता तय करना पड़ सकता है । एक और हार मिल सकती है । लालू यादव और नीतीश इसी बात पर बिखर जायेंगे कि नेता कौन होगा । जबतक बिखरे रहेंगे बीजेपी या पिछड़े नरेंद्र मोदी की जातिगत और हिन्दुत्व की व्यूह रचना से मात खाते रहेंगे । सामने के पाले में एक पिछड़ा प्रधानमंत्री के पद पर पहुँचा है उसके ख़िलाफ़ कोई भी जातिगत गठबंधन की रणनीति दलित पिछड़े तबके में रोचक और अप्रत्याशित राजनीतिक संघर्ष और बिखराव को जन्म देगी ।
इसके लिए ज़रूरी है कि मंडल के दौर के बाद दलित और पिछड़ों में तैयार हुआ मध्यमवर्ग इस प्रयोग में साथ आए । वो तो तब भी बीजेपी के साथ गया जब रामदेव और सी पी ठाकुर जैसे नेता आरक्षण का विरोध कर रहे थे । संजय पासवान जैसे नेता आरक्षण पर श्वेत पत्र लाने की बात कर इसे आर्थिक आरक्षण में बदलाव की बात कर रहे थे । बीजेपी ने संसद में प्रोन्नति में आरक्षण के मामले का खुला विरोध किया था । इसके बाद भी बीजेपी को दलितों पिछड़ों का साथ तो मिला ही । इसलिए जीतन राम माँझी कांग्रेसी दौर के प्रतीक की तरह बनकर न रह जायें यह नीतीश को देखना होगा । मंडल की राजनीति के प्रतीक प्रतीक ही न रह जायें ।
नीतीश कुमार को देर से ही सही संगठन की ज़रूरत का ख्याल आया है । नरेंद्र मोदी ने बीजेपी संघ और अन्य धार्मिक और योग सिखाने वाली पेशेवर संस्थाओं में समाजवादियों की इस कमज़ोरी का भी खूब लाभ उठाया है । यह नीतीश की सबसे बड़ी कमज़ोरी रही कि उन्होंने जे डीयू को बिहार के युवाओं की पार्टी नहीं बनाई । विकास की अमूर्त राजनीति के साथ साथ वे अपनी पार्टी को फ़ेसबुक और ट्वीटर जनरेशन के लिए खोलते या जोड़ते तो नतीजा कुछ और हो सकता था । बिहार के विकास को नीतीश ने कटी पतंग की तरह छोड़ दिया जबकि नरेंद्र मोदी ने पूरे गुजरात को अपने प्रति विरोध और विकास की राजनीति में सहयात्री बना लिया । गुजराती अस्मिता के नाम पर पहचान की राजनीति की नई पैकेजिंग की । नीतीश कुमार गत्ते की पैकेजिंग के भरोसे रह गए । बिहारी अस्मिता नहीं उभार पाए । नीतीश कुमार को ध्यान रखना चाहिए कि सिर्फ वैचारिक लड़ाई से मोदी को नहीं रोक सकते । अगर मोदी चार किलोमीटर सड़क बनाते हैं तो मुलायम और नीतीश को दस किलोमीटर सड़क बनानी होगी । अपनी सरकार के काम के रफ़्तार को इतना बढ़ा देना होगा कि लोग उसे होता हुआ देख सके । नीतीश घूम घूम कर राहुल गांधी की तरह अध्ययन न करें तो अच्छा रहेगा बल्कि सराकर की कमियों को वहीं का वहीं फिक्स करा दें तो ज़्यादा विश्वास हासिल कर सकेंगे । लोगों को लगना चाहिए कि बिहार की सरकार वाक़ई बुलेट ट्रेन हो गई है और नीतीश उसके ड्राईवर नहीं पायलट हैं । इंजीनियर नीतीश कुमार को सोशल के साथ साथ इस इंजीनियरिंग में भी कमाल दिखाना होगा । जितना किया है उससे ज़्यादा करना होगा और उससे भी ज़्यादा प्रचार तो करना ही होगा ।
संघ सिस्टम बनाम नो सिस्टम
आख़िर कौन नहीं चाहता था कि कांग्रेस हारे । सी ए जी रिपोर्ट और लोकपाल आंदोलन के वक्त दो साल तक कांग्रेस ने जिस अहंकार का प्रदर्शन किया क्या उसकी सज़ा मिलने पर जश्न नहीं होना चाहिए । यह चुनाव इसलिए भी याद रखा जाना चाहिए कि जनता ने मुक्कमल सज़ा दी है । हर दीवार पर यह इबारत लिखी थी । कांग्रेस इस क़दर लोगों की निगाह से उतर चुकी थी कि बीजेपी और संघ परिवार के आलोचक विश्लेषक भी बीजेपी को छोड़ कांग्रेस की धुनाई कर रहे थे । अब ऐसी स्थिति में कांग्रेस को सरकार बनाने में भूमिका लायक सीटें मिलतीं तो कैसी निराशा फैलती इसका अंदाज़ा नहीं किया जा सकता । तो जो निराश हैं वो अपनी इस कामयाबी पर तो ख़ुश हो ही सकते हैं ।
लोगों ने टीवी या किसी कृत्रिम लहर के प्रभाव में कांग्रेस को नहीं हराया है । यह जनादेश कांग्रेस को हराने का था । लोग अगर टीवी के असर में नहीं आते तो क्या कांग्रेस को वोट दे देते । मुझे तो कई बार लगता था कि बीजेपी इतना प्रचार ही क्यों कर रही है । यह ज़रूर है कि मीडिया के सुनियोजित इस्तमाल से बीजेपी ने एक मज़बूत विकल्प के रूप पेश कर दिया । इस पेशगी में दिसंबर के महीने में उलझन आई थी जब आम आदमी पार्टी की सरकार बनी थी मगर यह पार्टी मीडिया के बनाए मिरर इमेज में फँस गई । शुद्धतावादी होने का इतना दबाव ओढ़ लिया कि अपनी सरकार छोड़ दी । उसके बाद पार्टी ने पूरे देश से खड़े होने का फ़ैसला कर लिया । बिना ढाँचा और संसाधन के । उसके इस फ़ैसले ने सहमी बीजेपी को फिर मौक़ा दे दिया । पंजाब और दिल्ली छोड़ बनारस की लड़ाई प्रतीक से ज़्यादा कुछ नहीं थी ।( इसी ब्लाग पर मेरा पुराना लेख है)
जनता यह चुनाव एक विकल्प के लिए लड़ रही थी । उसे समझ आ गया कि आप तैयार नहीं है । उसे एक विकल्प देना था । जनता कैसे सपा बसपा राजद वाजद पर भरोसा करती । क्या वही देखने के लिए जिससे वो कांग्रेस को बदलकर छुटकारा पाना चाहती थी । ज़रूर ध्रुवीकरण की सीमा रही होगी मगर एक सीमा से ज़्यादा नहीं । बिहार में लालू के पक्ष में मुस्लिम उभार की ख़बरों को ज़रूरत से ज़्यादा तवज्जों इसलिए दी गई ताकि बीजेपी की तरफ़ रूझान को और धक्का दिया जा सके । रही सही कसर मीडिया ने मुस्लिम वोटों के अतिविश्लेषण से पूरा कर दिया । लेकिन यह सब तभी सफल हो रहा था जब सब कांग्रेस की हार देखने के लिए उतावले थे ।
बीजेपी और संघ अभूतपूर्व ऊर्जा और तैयारी के साथ संगठित थे । इनसे लड़ने के लिए मैदान में कोई प्रतिरोधी ढाँचा था ही नहीं । और अब बिना इस ढाँचे के अख़बारों के एडिट पेज के सहारे इसे लड़ा भी नहीं जा सकता । कांग्रेस तभी सहारा बन सकती है जब बीजेपी कांग्रेस की तरह लचर हो जाएगी जो मुमकिन नहीं लगता । बीजेपी और संघ ने अभी तक अपने हर अंतर्विरोध का बेहतरीन प्रबंधन किया है । जहाँ उनकी सरकारें हैं वहाँ भी कोई भगदड़ नहीं है । मध्य प्रदेश छत्तीसगढ़ या राजस्थान । अब इस पार्टी को राज करना आ गया है । जब तक कोई नया विकल्प नहीं उभरेगा 'संघ सिस्टम' को विस्थापित करना फ़िलहाल असंभव जान पड़ता है । संघ सिस्टम क्या है उस पर भी आता हूँ ।
इस चुनाव में विरोधी टीवी देखते रह गए । उनकी सारी आलोचना टीवी तक सीमित रह गई । इसलिए वे वहाँ नहीं देख पाये जहाँ बीजेपी चुनाव लड़ रही थी । पार्टी से बाहर की संस्थाओं का भी सदुपयोग किया गया । रामदेव, गायत्री परिवार और श्री श्री रविशंकर की संस्थाओं ने भी कई स्तरों पर मतदाताओं को संगठित किया । संघ सिस्टम में इन संस्थाओं को भी शामिल किया जाना चाहिए । रामदेव या श्री श्री रविशंकर जैसे धार्मिक या ग़ैर राजनीतिक स्पेस से बाहर के लोगों की संस्थाएँ भी काफी पेशेवर हैं । इस लिहाज़ से संघ सिस्टम धार्मिक और पेशेवर का अच्छा मिश्रण है । मोदी की इस जीत में संघ सिस्टम को उदय का भी अलग से आंकलन किया जाना चाहिए । हिन्दुत्व को व्यक्त करने के अलग अलग रूप हैं । हर संस्था इन रूपों की व्याख्या करते हुए अपने ग्राहकों के मन में मोदी को उतार रही थी । एक बीजेपी नेता ने बताया था कि बनारस में ही श्री श्री रविशंकर के सैंकड़ों कार्यकर्ता भीतरी प्रचार में लगे थे । दिल्ली में भी । विरोधी लहर गिन रहे थे और संघ सिस्टम बिना किसी झाँसे में आए एक एक मत का प्रबंधन कर रहा था । अगर कांग्रेस विरोधी लहर नहीं होती तब भी संघ सिस्टम अपने प्रचुर मानव संसाधन के दम पर मोदी को सत्ता में पहुँचा देता ।
इस चुनाव ने संघ सिस्टम को चुनाव लड़ने की एक पेशेवर संस्था में बदल दिया है । मोदी ने तो चुनाव लड़ने का तरीक़ा बदला ही लेकिन संघ सिस्टम के पेशेवर होने से उनकी ताक़त हज़ार गुना बढ़ गई है ।इस बात में कोई दम नहीं है कि बीजेपी को इकत्तीस प्रतिशत ही मत मिले । बल्कि विरोधी फिर से कम आंककर जनादेश का अपमान कर रहे हैं । विरोध करना है तो इस सरकार के काम का इंतज़ार कीजिये । अंध विरोध और बिना वैकल्पिक सिस्टम के अख़बारों के पन्ने तो भर लेंगे मगर नतीजा कुछ नहीं निकलने वाला । वो भी यह विरोध हिन्दी के स्पेस में कम अंग्रेज़ी के स्पेस में ज़्यादा हो रहा था । इस चुनाव में अंग्रेजी भी हारी है । कम से कम मैं तो इससे बहुत ख़ुश हूँ इसलिए नहीं कि अंग्रेज़ी से नफ़रत है बल्कि इसलिए कि पूरी यूपीए सरकार अंग्रेज़ीयत में डूबी थी ।बीजेपी का हर बड़ा नेता हिन्दी के शो में खुशी खुशी मौजूद होता था तो कांग्रेस के नेता अंग्रेज़ी चैनलों में अंग्रेज़ी बोल रहे थे जिन्हें अवाम नहीं देखती । इन नेताओं का हिन्दी के प्रति दोयम दर्जे का नज़रिया होता था ।
बनारस में संस्कृति कर्मियों का एक मार्च निकला था । कुछ पर्चे निकाले थे । इनमें से एक पर्चा होटल के कमरे में पढ़ रहा था । किन्हीं सज्जन ने बहुत शोध के साथ तथ्य पेश किया था कि संघ का तिरंगे में यक़ीन और श्रद्धा नहीं है । मुझे हँसी आई और रोना भी । ज़रूर किसी ने बीसवीं सदी के तीसरे चौथे दशक में यह बात कहीं होगी लेकिन क्या यह मुमकिन है कि आज कोई कह दे कि मोदी अब तिरंगे को बदल दें । दिल किया कि फ़ोन करूँ और कह दूँ कि मेरी तरफ़ से लिखकर रख लीजिये । किसी संस्था की औकात नहीं है ऐसा करने की बात पब्लिक में कह दे । फिर सोचा अपनी पेशेवर हदों में ही रहें तो ठीक है । भय का माहौल बनाकर विरोध नहीं जीतता । विकल्प बता कर दावेदारी की जाती है । आलोचक कांग्रेस का विरोध कर रहे थे, बीजेपी का भी कर रहे थे और आम आदमी पार्टी का भी । कई बार लगता था कि वे इस चुनाव में मोदी विरोध के नाम पर राजनीतिक पुनर्जागरण करने निकले हैं । उनके विरोध का लाभ उठाने के लिए कोई ढाँचा नहीं था । मोदी हर तरह की चालबाज़िया से लेकर यारबाज़ियां कर रहे थे और विरोधी शुद्धतावादी आदर्शवादी पुनर्जागरण । इनसे तो अच्छे वो हैं जिन्होंने नोटा को वोट किया ।
खैर अब जब हार हो गई है तो हार मान लेनी चाहिए । राजनीति और संचार का बहुत ज्ञान तो नहीं है लेकिन इतना तो कह सकता हूँ कि विरोधी भाव और भाषा बदल लें । जनरेशन एक्स वाई ज़ेड से बात करना सीख लें । विरोधियों का आपस में संवाद तो अच्छा है मगर जनता से बिल्कुल नहीं । मोदी का मामला ठीक उल्टा है । वे बहुत आसानी से मनमोहन की चुप्पी का विकल्प बन गए । कांग्रेस या मोदी विरोधी एक उदासीन राजनीति को अपने रंगीन कुर्तों से ऊर्जावान कर दिया ।
मोदी का विरोध इसलिए न करें कि चिढ़ मचती है और खुद की प्रतिबद्धता साबित करनी है । ज़रूर करें मगर इस आत्मविश्वास के साथ कि मोदी की जीत सबकी जीत है । उनकी नीतियों की आलोचना गुण दोषों के आधार पर होगी न कि मोदी को बेंचमार्क बना कर । अगर ऐसा करते तो आज लोग भी उनकी बात सोचते और खुद से पूछते कि आख़िर क्या बात है कि रघुवंश प्रसाद सिंह, अजय कुमार और योगेंद्र यादव जैसा नेता हर जाता है । कहाँ गए वो लोग जो राजनीति में अच्छे लोगों की तलाश में तड़प रहे थे । क्यों हर तीसरा सासंद आपराधिक पृष्ठभूमि का है । कहाँ गया वो ग़ुस्सा जो इन सवालों को लेकर उठा था । क्या वो ग़ुस्सा लौटेगा या ये सवाल अगले बीस साल के लिए स्थगित हो चुके हैं । रामदेव गांधी और जेपी के रूप में प्रतिष्ठित हो चुके हैं । अब भी किसी को संघ सिस्टम की कामयाबी और क्षमता में संदेह है तो उसे रोज़ कहना चाहिए कि मोदी हार गए हैं मगर प्रधानमंत्री कौन है यही पता नहीं !
मुंबई
गेटवे से जब समंदर के इस छोर को देखा तो अनंत आकाश की तरह पसर गया । लगा काश मैं उस आख़िरी नाव की तरह होता । दूर से नहीं दिखने सा दिखता हुआ । किसी शहर का ऐसा किनारा हो तो वहाँ ज़रूर जाना चाहिए । सिमटी हुई मुंबई की बाँहें खुल जाती हैं । पूरा का पूरा सागर आ जाता है । हर पल यहाँ एक फ़्रेम है । तस्वीर खींचने का कारोबार यहाँ ज़िंदा है । गेटवे की भव्यता के नीचे अपनी लघुता का अहसास दर्ज कराते हुए लोगों को देखना अच्छा लगा था ।
हमारी यादें ही हमारा सहारा हैं । जीवन इन्हीं लम्हों में मिलता रहे । मुंबई की तरह गेटवे के किनारे । लौटते वक्त मरीन ड्राइव से समंदर को देखना फिर से गहरा कर गया ।
सोलह मई
नतीजा आ गया । वैसा ही आया जैसा आने की बात बीजेपी कह रही थी । इस नतीजे का विश्लेषण नाना प्रकार से होगा लेकिन जनता ने तो एक ही प्रकार से फ़ैसला सुना दिया है । उसने गुजरात का माडल भले न देखा हो मगर उस माडल के बहाने इतना तो पता है कि चौबीस घंटे बिजली मिलने में किसे एतराज़ है । अच्छी सड़कों से किसे एतराज़ है । इसीलिए एक तरफ़ मतों का बिखराव है तो दूसरी तरफ़ ज़बरदस्त जुटान । बीजेपी के विरोधी मत अलग अलग निष्ठाओं और समीकरणों में उलझे रहे और समर्थक मत की एक ही निष्ठा रही ।
दुनिया जिस वक्त व्यक्तिवादी राजनीति के नाम पर आलोचना कर रही थी उसी वक्त जनता एक व्यक्ति में नेता ढूँढ रही थी । उसे एक ऐसी दिल्ली चाहिए थी जो शिथिल न लगे । काम करने वाली हो मगर पंचवर्षीय योजनाओं के हिसाब से नहीं । आकांक्षाओं का बखान करने वाले भी यह देखेंगे कि लोगों को अब गति चाहिए । वो किसी पुल को चार साल की जगह एक साल में बनते देखना चाहते हैं । नरेंद्र मोदी शायद उसी प्रबंधन और रफ़्तार के प्रतीक के रूप में देखे गए हैं ।
एक तरह से यह अच्छा है । विकास का मतलब पूरी दुनिया में अलग अलग तरीके से समझा गया है । जो इसके आलोचक हैं उनमें संवाद की ऐसी क्षमता नहीं है जिससे वे किसी विकल्प को स्थापित कर सकें । जो भी विकास का माडल चल रहा है उस पर सवाल उठाने वाली शक्तियों के साथ ये जनता नहीं है । वो किसी स्थानीय जगहों पर हो सकती है मगर व्यापक रूप से जीडीपी और सेंसेक्स वाले माडल को स्वीकार चुकी है । उसी में अपना भला देखती है । यह दुखद तो है मगर यही हमारी राजनीति और जनता के दक्षिणपंथी होने की सच्चाई भी है । दक्षिणपंथी के साथ हम सांप्रदायिकता को जोड़ते हैं मगर यह उसका एकमात्र मुखर पक्ष नहीं है । हमारी राजनीति दक्षिणपंथी हो चुकी है । इसके होने का चक्र पूरा हो गया है । वैसे भी बाक़ी दल भी आर्थिक मामलों में दक्षिणपंथी ही हैं । हमारे देश में दक्षिणपंथी राजनीति की नई समझ पैदा करनी होगी ।
जिन भी दलों को लगता है कि वे नरेंद्र मोदी से मुक़ाबला करना चाहते हैं उन्हें अपनी सरकारों के कामकाज का तरीक़ा बदल देना होगा । अब वो प्रचार की नक़ल कर मोदी का विकल्प नहीं बन सकते । अगर जनता उन्हें लगातार काम करते देखेगी तभी प्रचार भी साथ देगा । इतना ही नहीं बिहार यूपी की बीजेपी विरोधी पार्टियों को अपना ढाँचा बदलना होगा । उनके पास विचार है न संगठन । बीजेपी के पास दोनों है । इनकी आलोचनाएं हो सकती है मगर आज भी बीजेपी जिन नए युवाओं से भरी है वो इसकी हिन्दुत्व की विचारधारा में माँजे गए हैं जबकि सपा राजद या जेडीयू में या तो कोई युवा है नहीं और जो है उसे न तो अपनी विचारधारा का पता है न इसका कि हिन्दुत्व की आलोचना कैसे की जाती है । जब आलोचक इस बात में मगन थे कि मोदी बीजेपी को बर्बाद कर रहे हैं उसी दौरान मोदी बीजेपी को न सिर्फ युवाओं से भर रहे थे बल्कि अपनी सक्रियता और हमलों से उन्हें विचारों से लैस कर रहे थे ।
फ़िलहाल बीजेपी ने अपने तमाम विरोधियों और आलोचकों को निहत्था कर दिया है । उनकी कमज़ोरियों को उजागर कर दिया है । अब उनके लिए यहाँ से उठना एक दिन का काम नहीं होगा । बीजेपी आज पहले से कहीं संगठित है । उसके पास कई राज्य हैं जो कांग्रेस सिस्टम की तरह संघ सिस्टम में काम करते हैं । अब पहले की तरह उसकी सरकारें नहीं बिखरती हैं बल्कि सत्ता पर पकड़ बनाए रखने का गुर आ गया है । ऐसे मज़बूत माहौल में कांग्रेस के सहारे बीजेपी को टक्कर नहीं दिया जा सकता । अब बीजेपी को टक्कर कोई दक्षिणपंथी ही दे सकता है । कांग्रेस को अब भुला दिया जाना चाहिए । इसलिए नहीं कि वो आज हार गई है या कमज़ोर हालत में है बल्कि कांग्रेस बदल भी जाएगी तो भी कुछ मामलों में वैसी ही रहेगी । शिथिल और विचारधारा के नाम पर विचार विहीन । फ़िलहाल कांग्रेस के पास जो भी राज्य हैं उन्हें कांग्रेस के ब्रांड एंबेसडर की तरह उच्च कोटी का काम करना होगा । कांग्रेसी कल्चर का वर्क कल्चर बदलना होगा जो संभव होता नहीं दिख रहा ।
सोलह मई का दिन राजनीति को नए तरीके से देखने का दिन है । उसने कई संभावनाओं को जन्म दिया है । जो इन संभावनाओं के लिए लड़ेगा पंद्रह साल बाद बीजेपी बन पाएगा । बीजेपी भी कांग्रेस की तरह चलते बनते आज बीजेपी बनी है । नरेंद्र मोदी ने वो किया जो वाजपेयी नहीं कर पाये । मोदी ने बीजेपी से कांग्रेसी कल्चर को निकाल फेंका है । दूसरी तरफराहुल गांधी ने वो वो कर दिया जो कांग्रेस में कोई ग़ैर गांधी परिवार वाला भी नहीं कर पाया । कांग्रेस के नाश में मनमोहन सिंह का कम योगदान नहीं है । इस नेता को ढो कर कांग्रेस ने अपनी पीठ पर घाव भर लिये हैं । एक ऐसे नेता का बचाव अंत अंत तक करती रही जो लोगों के ग़ुस्से का कारण था । खुद कांग्रेस का यह परिवार मोदी के सामने बैठ गया । परिवार में भी लड़ने की ताक़त नहीं बची है ।
जो भी हो नया नतीजा आया है । उम्मीदों के साथ स्वागत किया जाना चाहिए । आशंकाओं से लदकर देखने का वक्त चला गया । सारी बहसों पर लंबे समय के लिए विराम लग गया है । सवाल हैं और रहेंगे लेकिन यह इस पर निर्भर करेगा कि संघर्ष कौन करेगा । तब तक के लिए सबको बधाई ।
ऐ राजा बनारस !
रोज़ देखा जाने वाला, कहा जाने वाला, सुना जाने वाला लिखा जाने वाला और इन सबसे ऊपर जीया जाने वाला शहर है । इसकी इतनी परिभाषाएँ और व्यंजनाएं हैं कि यह शहर हर लफ़्ज़ के साथ कुछ और हो जाता है । लिखनेवाले की गिरफ़्त से निकल जाता है । मैं बनारस के ख़िलाफ़ किसी बनारस को खोजने निकला था मगर हर जगह मिला उसी बनारस से जिसे मीडिया ने एक टूरिस्ट गाइड की तरह एकरेखीय वृतांत में बदल दिया था । वृतांतों का रस है बनारस ।
दरअसल बनारस कोई शहर ही नहीं है । यह कभी था न कभी है और कभी रहेगा । शहर होता तो किसी पेरिस जैसा होता किसी लुधियाना सा होता या किसी दिल्ली सा । सड़कों दीवारों से बनारस नहीं है । बनारस है बनारस के मानस से । आचरण, विचरण और धारण से । जो भी मिला बनारस को धारण किये मिला । बनारसीपन । इसके बिना तो कोई बाबा विश्वनाथ को देख सकता है न बनारस को । यह बनारस का होकर बनारस को जीने का शहर है । यह न मेरा है न तेरा है न उसका है जो बनारस का है ।
बहुत कम हुआ जब लौट आने के बाद किसी शहर की याद आई । किसी शहर में जागने सा अहसास हुआ । सोचता रहा कि क्या लिखूँ बनारस पर । क्या नहीं लिखा जा चुका है । इस शहर के लोग किसी दास्तान की तरह मिलते हैं । क़िस्सों से इतने भरे हैं कि सुनाते सुनाते ख़ुद किसी किस्से में बदल जाते हैं । मिलने और बोलने का ऐसा रोमांच कहीं और महसूस नहीं हुआ । जो भी मिला उसे जितना मिलना चाहिए उससे ज़्यादा मिला । कम तो कोई मिला ही नहीं । कम तो हम दिल्ली वाले मिले । सोचते रह गए कि कितना मिले और सामने वाला पूरा मिलकर चला गया । बनारस को खोजना नहीं पड़ता है । कहीं भी मिल जाता है ।
हम बाबा ठंठई की दुकान पर थे । उनकी शान में क़सीदे पढ़ते रहे कि हर साल आपकी ठंडई एक मित्र से बुज़ुर्ग के हवाले से दिल्ली पहुँच जाती है । पिछले कई सालों से आपकी ठंडई पी रहा हूँ । कोई चालीस पचास साल से ठंडई बना रहे जनाब ने ऊपर देखा तक नहीं कि कौन है क्या बोल रहा है । बस किसी साधना की तरह ठंडई बनाने में लगे रहे । साधना ज़रूरी है । चाहे आप देश चलायें या ठंडई बनाये । मगर वही खड़ा किसी शख़्स ने किसी को भेजकर पान मँगवा दिया । लस्सी की दुकान का पता बता दिया । कार से गुज़रते वक्त पान और चाय की दुकानों पर लोगों को जमा देखा । रूककर खाकर बतियाते देखा । लगा कि इस शहर में लोग दफ़्तर दुकान जाने के अलावा भी घर से निकलते हैं । सुबह सुबह चाय पीने गया था । बस किसी ने किसी को कह दिया कि बाइक से इन्हें पार्क तक छोड़ आओ । बिना देखे बिना जाने उसने चाय छोड़ी और पार्क तक छोड़ आया । जिन्हें भी जीवन में बात करने की समस्या है । लगता है कि वो तर्क नहीं कर पाते । वो बनारस चले जायें । बोलने लग जायेंगे । ख़ासकर टीवी के ये बौराये और झुँझलाये एंकरों को हर साल बनारस जाना चाहिए ।
रेडियो मिर्ची के दफ़्तर गया था । नौजवान जौकियों के संसार में । बात करने की ऐसी शैली कि मेरा बस चले तो हर जौकी बनारस की सड़कों से उठा लाऊँ । सबके पास कुछ न कुछ अतिरिक्त था मुझे देने के लिए । आज के इस दौर में उनके पास बहुत सी गर्मजोशियां बची हुई है । जल्दी समझ गया कि यह टीवी में दिखने के कारण नहीं है । जो प्यार बह रहा है वो बनारस के कारण है । मिर्ची के इन मिठ्ठुओं से
मेरा भी दिल लग गया । तोते की तरह बोलता था वो मोटू ! तो शांत सँभल कर अमान और रह रहकर सोनी । एक से एक किस्सागो । बात बात में मैं विशाल के साथ लाइव हो गया । उनके कुछ और दोस्तों से मुलाक़ात हुई । हर मुलाक़ात में मैं बस इस शहर के लोगों में मिलने की फ़ितरत देख रहा था । कितना मिलते हैं भाई । भाइयों ने मेरी शान में दफ़्तर के भीतर चाट का एक स्टाल ही लगा दिया । टमाटर की चाट । वाह । दिल्ली वालों को पता चल गया तो हर नुक्कड़ और बारात में बेचकर खटारा बना देंगे ।
मुझे पता है कि जितना मिल जाता है उतना लायक नहीं हूँ । वैसे भी क्या करना है हिसाब कर । टीवी के फ़रेब के नाम पर प्यार ही तो मिल रहा है । मैं माया में यक़ीन करता हूँ । सब माया है । माया मिलाती है, माया रूलाती है और माया हंसाती है । घड़ी की दुकान में स्ट्रैप बदलवाने गया था । जनाब ने कोई स्पेशल जूस मँगवा दी । कहा कि पीते जाइये । ज़ोर देकर कहा कि मैं चाहता हूँ कि आप पीयें । ये बनारस का असली है । मैंने तो कहा भी नहीं था पर वो यह जूस पिलाकर काफी ख़ुश दिखे । इतने ख़ुश कि लाज के मारे शुक्रिया कहते न बना ।
वो पता नहीं कौन लड़का था । लंका चौक पर जहाँ बीजेपी का धरना चल रहा था । भयानक गर्मी थी । वो पहले जूस लाया फिर पार्कर पेन ख़रीद लाया खुद ही पैकेट से निकाल कर जेब में रख गया । किसी चैनल के फ़्रेम में देखकर वो महिला अपने पति और बेटी के साथ दौड़ी चली आई । हांफ रही थी । वो घर ले जाकर खाना खिलाना चाहती थी । काश मैं चला गया होता । और वो कौन था जो मिर्ची दफ़्तर के बाहर हम सबकी चाय के पैसे देकर चला गया । आठ दस लोगों की चाय के पैसे । मैं सोचता रह गया कि हमने कब किसी अजनबी के लिए ऐसा किया है । उफ्फ !
अजीब शहर है कोई ख़ाली हाथ मिलता ही नहीं है । ऐसा नहीं कि मैं टीवी वाला हूँ इसलिए लोग मिल रहे थे । मुझसे मिलने के बाद वहाँ मौजूद किसी से वैसे ही मिल रहे थे । हम दिल्ली वाले मिलना भूल गए हैं । काम से तो मिलते हैं मगर मिलने के लिए नहीं मिलते हैं । रोज़ दफ़्तर से लौटते वक्त ख़ाली सा लगता हूँ । अब तो मेरा एकांत ही मेरी भीड़ है । मैं भी तो कहीं नहीं जाता । जाने कब से अकेला रहना अच्छा लग गया । ग़नीमत है कि फेसबुक ट्वीटर है । जो भी अकेले में बड़बड़ाता हूँ लिख देता हूँ । अकेले बैठे बैठाए दुनिया से मिल आता हूँ । काम और शहर के अनुशासन की क़ीमत पर मुलाक़ात का बंद होना ठीक नहीं । हम मिलते तो यहीं बनारस बना देते । बनारस एक दूसरे से मिलता है इसलिए बनारस है । दिल्ली के नाम में तो दिल है मगर दिल है कहाँ । दिल्लगी है कहाँ और कहाँ है दीवानगी । बनारस में है । वहाँ के लोगों में है । आप सबने मुझे बेहतरीन यादें दी हैं । मैं बनारस को याद कर रहा हूँ ।
मोबाइल के अल्बम से
बनारस की कुछ तस्वीरें बची रह गईं हैं । हैट वाला हेमंत यादव है । बनारस से उम्मीदवार । छोटा हाथी में सवार हेमंत चुनाव का मौज लेते देखा । चुनाव इसलिए भी लड़ा जाना चाहिए । एक तस्वीर तीन सौ साल पुराने कुएँ की है तो एक बनारस की सड़क की । दिन भर भरी भरी सी रहने वाली ये सड़कें आधी रात के बाद और सुबह तक की ख़ाली दिखती हैं । मुझे ख़ाली सड़कों को देखना अच्छा लगता है । ख़ुद के ख़ाली होने जैसा लगता है । स्लेट की तरह लगती हैं ये ख़ाली सड़कें । कोई भी इनपर अपने सफ़र की इबारत लिख सकता है ।
नीतीश कुमार के फ़ेसबुक पेज से
"आज शाम तक प्रचार थम जाएगा ! ये अंदाज़ा कर पाना मुश्किल है कि इस चुनाव में भाजपा या कांग्रेस ने कितने रुपये ख़र्च किये और कहाँ से आये ये रुपये । किन पूँजीपतियों ने किन शर्तों पर इन पार्टियों के प्रचार पर निवेश किया ? पर एक और पहलू है- क्या देश को इतने प्रचार से कोई फ़ायदा हुआ ? क्या इतने प्रचार के बाद अथ आम देशवासी जान सका कि महँगाई कैसे कम होगी,भ्रष्टाचार से कैसे निपटा जाएगा या रोज़गार के अवसर कैसे खुलेंगे ? नहीं । क्योंकि दोनों पार्टियों ने केवल नकारात्मक प्रचार और राजनीति की "
मोदी विरोध का विकल्प मोदी
सोलह मई को मतगणना होने वाली है । अभी से सरकार को लेकर क़यास लगा रहे होंगे । यह एक सामान्य और स्वाभाविक लोकतांत्रिक उत्सुकता है । सब अपने अपने अंदाज़ीटक्कर को लेकर भाँजेंगे । मैंने कहा था न कि तीन सौ आएगी मैंने कहा था न कि मोदी वोदी की कोई लहर नहीं है । गठबंधन की सरकार बनेगी या मोदी प्रधानमंत्री नहीं बनेंगे ।
किसी की बात सही होगी तो किसी की ग़लत । लेकिन ज़रा मुड़कर चुनाव को देखिये तो समझ आयेगा कि क्यों बीजेपी की सरकार बन रही है । मोदी का विरोध तो हुआ मगर मोदी का कोई विकल्प नहीं दिया गया । तथाकथित सेकुलर ताक़तें आपस में लड़ रही थीं न कि मिलकर बीजेपी से । खुद को एक मतदाता की जगह रखकर सोचिये । वो इस चुनाव में मोदी विरोध के नाम पर भाग लेता भी है तो वोट किसे दे । यह चुनाव बीजेपी को हराने के लिए नहीं था । यह चुनाव था हर हाल में कांग्रेस को हराने के लिए । मोदी ने शुरू से ही कांग्रेस पर इतना हमला किया कि कांग्रेसियों को यक़ीन हो गया कि जनता इस बार ख़िलाफ़ है । इसका मनोवैज्ञानिक असर यह हुआ कि सहयोगी कांग्रेस के साथ खुलकर आने से रह गए । आम मतदाता एक साथ दो राष्ट्रीय दलों का विरोध करते हुए अलग अलग कई क्षेत्रिय दलों के साथ क्यों जायेगा । वोटर भी सरकार के स्थायीत्व को समझता है । उसका काम भी मोदी विरोधी दलों ने ही आसान कर दिया । कोई साफ़ विकल्प न देकर ।
दूसरी बात यह है कि इस चुनाव में कई क्षेत्रिय दल सोते रहे । शायद जानबूझकर ही ऐसा किया । हर मैदान को बीजेपी के लिए छोड़ दिया । जनता उनके मोदी विरोध की गंभीरता को समझ रही थी । सपा ने बनारस में अपने ही काम का प्रचार नहीं किया और नीतीश ने बिहार में । दूसरी तरफ़ मोदी ने न सिर्फ टीवी रेडियो और होर्डिंग को छाप लिया बल्कि हर बूथ पर संघ की मदद से कई स्तर पर प्रचार किया । बनारस में राजनीतिक कार्यकर्ताओं के साथ साथ गुजरात मुंबई और यूपी से व्यापारियों कारोबारियों को भी भेजा । जाति भाषा के हिसाब से मतदाताओं को टारगेट किया । इससे अगर तुलना करें तो मोदी विरोधी दल दिन में सपने देख रहे थे कि उनकी तरह मतदाता भी मोदी का विरोधी है ।
मोदी विरोधियों ने व्यापक स्तर पर सांप्रदायिकता का मुद्दा उठाने के बजाए गुजरात दंगों से जोड़े रखा । मोदी का विरोध करते तो मुलायम का भी करना पड़ जाता । किसी ने कहा कि व्यक्तिवादी राजनीति हो रही है जैसे मोदी न होते तो सामूहिक नेतृत्व वाली बीजेपी बहुत अच्छी थी ! इनकी लड़ाई मोदी तक ही सीमित रह गई । मोदी ने अच्छी बुरी सरकार का सपना तो बेच ही दिया लेकिन उनके विरोधी क्या बेच रहे थे । कौन सा सपना बेच रहे थे । इस चुनाव में कांग्रेस को क्यों जीतना चाहिए यह बात तो कांग्रेसी भी दावे से नहीं कह पा रहे थे । तो किसके भरोसे मोदी विरोधी यह कहने का नैतिक साहस करते । सपा बसपा को क्यों जीतना चाहिए क्या ये कहने का नैतिक साहस कर सकते थे । मोदी के सामने उनके विरोधी निहत्थे और सुस्त पड़े रहे ।
राजनीतिक हमलों में भी तमाम दलों ने मोदी को वाकओवर दिया । जबकि मोदी ने एक एक बात का जवाब दिया और संदेश दिया कि वे सबको सुन रहे हैं । मोदी विरोधी हल्का विरोध कर चुप रहे । कोई लहर नहीं है टाइप । विकल्प के अभाव में मतदाता के एक बड़े वर्ग ने उनकी कमज़ोरियों और खराब बयानों, इंटरव्यू के दौरान प्रेस पर हावी होने की आदतों को नज़रअंदाज़ कर दिया । नतीजा यह हुआ कि हर चौक चौराहे और गाँव गलियों में आम मतदाता भी मोदी की तरफ़ से बहस करने लगा । तथाकथित सेकुलर दल मोदी के ख़िलाफ़ 'काउंटर नैरेटेवि' नहीं रच सके । इन बहसों में जो मतदाता मोदी का विरोध भी करना चाहता था उसके पास तर्कों की कमी थी । हर तबके का नाराज़ मतदाता बीजेपी की तरफ़ गया । हर दल से निकल कर बीजेपी की तरफ़ गया । यूपी विधानसभा की तरह नहीं हुआ कि सपा को हराने के लिए बसपा को जीताया और बसपा को हराने के लिए सपा को । इसलिए विरोधी मतों के बँटवारे के कारण भी बीजेपी के पक्ष में संख्या समीकरण ज़्यादा बना । बीजेपी ही एकजुट और भयंकर डिटेलिंग के साथ चुनाव लड़ रही थी ।
ऊपर से मीडिया ने अपना स्पेस लुटा कर मोदी के ख़िलाफ़ हर काउंटर नैरेटिव की धार को कुंद कर दिया । आम मोदी विरोधी मतदाता निहत्था हो गया । अकेला पड़ गया । हर समय मोदी । ख़बर और विज्ञापन दोनों जगह । बहस के सवाल मोदी की तरफ़ से रखे और पूछे गए । मतदाता के मन में ऊपर से लेकर नीचे कर मोदी की परत जम गई । कई दलों ने अच्छी दलीलें दीं मगर नहीं दिखाया । मोदी के ब्लाग को ख़बर बनाया लेकिन नीतीश के फ़ेसबुक अपडेट को छोड़ दिया । कांग्रेस लचर तरीके से बहस में आई तो बीजेपी का हर बड़ा प्रवक्ता कम टीआरपी वाले चैनलों में भी तैयारी के साथ गया । कांग्रेस के बड़े नेता अंग्रेज़ी चैनलों में गए तो बीजेपी के हिन्दी चैनलों में । सपा बसपा के तो प्रवक्ता ही नहीं आए ।
इसलिए मोदी विरोध का विकल्प भी मोदी ही बन गए । अब अगर बीजेपी के ख़िलाफ़ मतदाताओं में ग़ुस्सा था और वो किसी को नहीं दिखा सिर्फ मोदी विरोधियों को दिखा तो सचमुच सोलह को ज़लज़ला आ जायेगा । बीजेपी हार जाएगी । और अगर हार गई तो अगली बार बीजेपी के उम्मीदवार को उनके ही घर वाले चंदा नहीं देंगे । प्रचार तंत्र का सारा तामझाम फ़ेल हो जाएगा और साबित हो जाएगा कि यह चुनाव मोदी नहीं बल्कि जनता लड़ रही थी । यह बताने के लिए कि वो व्यक्तिवादी राजनीति के ख़िलाफ़ है । वो राजनीति में पैसे के इस हद तक इस्तमाल के ख़िलाफ़ है । ऐसा है तो भारतीय राजनीति में नए सूर्योदय के स्वागत के लिए तैयार रहिए । जहाँ सब फ़ेल हो जायेंगे । अगर ऐसा नहीं है तो कभी लालू कभी मायावती कभी आप के बहाने मोदी विरोधी खुद को दिलासा न दें । खुद से यह सवाल करें कि क्या कोई मतदाता विकल्पहीन स्थिति के लिए वोट करेगा ? वो मोदी को हराने के लिए क्यों वोट देता और किसे देता । जब कोई लड़ेगा नहीं तो वो जीतेगा कैसे । जीतता वही है जो लड़ता है ।