हिंदी से डर लगता है। डरावनी हो गई है। सीबीएसई अब हिंदी के सवालों को हल्का करने जा रही है। प्राइवेट स्कूल इंग्लिश मीडियम होते हैं। गांव गांव में टाट की झोंपड़ी में इंग्लिश मीडियम स्कूल के बोर्ड लगे मिल जायेंगे। सुबह सबुह बच्चे सरकती हुई पैंट और लटकती हुई टाई लगाकर जाते मिल जायेंगे। सरकारी स्कूलों के बच्चे पैदल दौड़ लगाकार स्कूल पहुंच जाते हैं। लेकिन अब गांवों में भी स्कूली बच्चों के लिए जालीनुमा रिक्शा आ गया। इनमें बच्चे किसी कैदी की तरह ठूंस कर ले जाये जाते हैं। इंग्लिश मीडियम स्कूलों की तरफ।
मां बाप ने कहा कि इंग्लिश सीखो। हिंदी तो जानते ही है। घर की भाषा है। अब हिंदी से ही डर लगने लगा है। इसलिए सीबीएसई ने तय किया है कि अति लघु उत्तरीय प्रश्नों की संख्या बढ़ा देगी। अब हिंदी के भी सवालों के जवाब हां नां में दिये जायेंगे। गैर हिंदी भाषी बच्चों के लिए हिंदी का डर समझ भी आता है। घर से बाहर निकलते ही इंग्लिश सीखने वाले हिंदी से डरने लगे सुनकर हैरानी तो नहीं हुई लेकिन मन उदास हो गया। अपनी हिंदी डराती भी है ये अभी तक नहीं मालूम था। बहुत पहले विश्वात्मा फिल्म देखी थी। गुलशन ग्रोवर अजब गजब की हिंदी बोलता था। खलनायक के मुंह से शुद्ध या क्लिष्ट हिंदी के नाम पर निकले हर शब्द हंसी के फव्वारे पैदा करते थे। इस हिंदी को तो हिंदी वालों ने ही कब का काट छांट कर अलग कर दिया। मान कर चला जा रहा था कि सरल हिंदी का कब्ज़ा हो चुका है। व्याकरणाचार्यों के जाते ही हमारी हिंदी झंडी की तरह इधर उधर होने लगी। वाक्य विन्यास का विनाश होने लगा। वैसे मेरी हिंदी बहुत अच्छी नहीं है लेकिन मुश्किल भी नहीं है। ठीक है कि हम व्याकरण मुक्त हो चुके हैं लेकिन हिंदी बोलने वाले घरों के बच्चे क्या इस वजह से साहित्य नहीं समझ पाते क्योंकि भाषा का इतना अतिसरलीकरण कर दिया गया है कि अब मतलब ही समझ नहीं आता। इस पर बहस होनी चाहिए।
हिंदी से डर की वजह क्या हो सकती है? यह खबर हिंदुस्तान में ही पढ़ी। हिंदी का अखबार लिख रहा है कि कोई हिंदी का भूत है जिससे प्राइवेट स्कूल के बच्चे डर रहे हैं। उन्हें हिंदी के लिए ट्यूशन करना पड़ रहा है। ट्यूशन वैसे ही खराब है लेकिन अंग्रेज़ी के लिए ट्यूशन करने में कोई बुराई नहीं तो फिर अकेले हिंदी का भूत क्यों पैदा किया जा रहा है। मैं हिंदी राष्ट्रवादी की तरह नहीं लगना चाहता लेकिन मेरी ज़ुबान से उतरती हुई भाषा डरावनी कहलाने लगे चिंता हो रही है। वैसे हम भी अंग्रेज़ी से तो डरते ही हैं। कई लोग हैं जो कभी न कभी डरे। अंग्रेज़ी के भूत को काबू में करने के लिए नेसफिल्ड से लेकर रेन एंड मार्टिन और बच गए तो रैपिडेक्स इंग्लिश स्पिकिंग कोर्स का रट्टा मार गए। मेरे एक लेख की प्रतिक्रिया में शंभू कुमार ने ठीक ही कहा है कि बिहार यूपी के लड़के क्लर्क बनने की इच्छा में अंग्रेज़ी तो सीख ही जाते हैं। हम भी अंग्रेज़ी का मज़ाक उड़ाया करते थे। अंग्रेज़ी व्याकरण के कई किस्से बिहार यूपी में आबाद हैं। वह गया गया तो गया ही रह गया। घो़ड़ा अड़क कर सड़क पर भड़क गया टाइप के मुहावरे खूब चलते थे। चुनौतियां दी जाती थीं कि इसका ट्रांसलेशन करके दिखा दो। लेकिन हम कभी स्कूल से मांग करने नहीं गए कि बोर्ड को बोलो कि अंग्रेज़ी का भूत परेशान कर रहा है। इसका सिलेबस बदलो।
दरअसल प्राइवेट स्कूलों के रसूख इतने बढ़ गए हैं कि वो ढंग के हिंदी टीचर रखने की बजाय बोर्ड पर दबाव डाल कर सिलेबस बदलवा देते हैं। सब आसान ही करना है तो फिर इम्तहान क्यों रहे। विद्वान तो कह ही रहे हैं कि इम्तहान की व्यवस्था खत्म कर दी जाए। ग्रेड न रहे। इसके लिए तो स्कूल वाले दबाव नहीं डालते। पश्चिम बंगाल की सरकार ने अपने बोर्ड की परीक्षाओं में ग्रेड सिस्टम लागू कर दिये हैं। बिना किसी दबाव के। सीबीएसई कब से ग्रेडिंग सिस्टम लागू करने पर बहस कर रही है। क्यों नब्बे फीसदी का एलान किया जाता है। इतने नंबर वाले बच्चे क्या हिंदी में नंबर नहीं ला सकते। जब रटना ही है तो हिंदी भी रट लो।
मुझे लगता है कि हिंदी का भूत पैदा किया जा रहा है। ताकि हिंदी गायब हो जाए। इंग्लिश मीडियम का हाल ये है कि अच्छी इंग्लिश लिखने वाले कम हो गए हैं। इंग्लिश के लोग ही शिकायत करते हैं कि प्राइवेट स्कूलों के बच्चों को ए एन द जैसे आर्टिकलों का प्रयोग ही नहीं मालूम। प्रिपोज़िशन का पोज़िशन गड़बड़ कर देते हैं। भाषा का भूत नया है। देखते हैं कि प्राइवेट स्कूल वाले इस भूत को कितना नचाते हैं।
उत्तर प्रदेश में १३ लाख बच्चे फेल
यूपी में दसवीं का रिज़ल्ट आया है। सरकारी बोर्ड का। १३ लाख बच्चे फेल हो गई हैं। मध्यप्रदेश में भी जब इस साल रिजल्ट आया तो दसवीं में शायद पैंसठ फीसदी बच्चे फेल हो गए। कहीं कोई हंगामा नहीं है। शायद प्राइमी का मास्टर वाले प्रवीण भाई इसके कारणों पर प्रकाश डालें कि उत्तर प्रदेश खामोश कैसे हैं? तेरह लाख बच्चों का फेल होना मामूली बात नहीं। हो सकता है कि टीचर सरकारी गणनाओं के काम में व्यस्त रहते हों,उन्हें दोपहर का भोजन जैसे कार्यक्रमों में लगा दिया गया हो, वे चुनाव संपन्न कराने में खप जाते हों, लेकिन तेरह लाख तो बर्दाश्त नहीं होता। मध्यप्रदेश की शिक्षा मंत्री ने चुनाव को कारण बताया था। लेकिन जब चुनाव नहीं हुए थे तो वहां फेल होने वालों का प्रतिशत पचास था। लाखों की संख्या में फेल कराने वाले सिस्टम के साथ क्या किया जाए? पश्चिम बंगाल के सरकारी स्कूलों में इस बार ऐतिहासिक रिज़ल्ट हुआ है। कोई सात या आठ फीसदी का इज़ाफ़ा हो गया है। इतिहास में कभी ऐसा नहीं हुआ था जब दसवीं की परीक्षा में अस्सी फीसदी से ज़्यादा बच्चे पास हुए हों। टेलिग्राफ ने लिखा था कि बोर्ड ने काफी बदलाव किये हैं। पिछले छह साल से नंबर की जगह ग्रेड दिया जा रहा है। बिहार या यूपी या मध्यप्रदेश के परीक्षा बोर्डों में क्या हुआ है, इसकी जानकारी आप पाठकों से मिले तो बेहतर होगा।
यह कैसे हो रहा है? सीबीएसई के नतीजे निकलते हैं तो केंद्रीय विद्यालय और नवोदय विद्यालय के बच्चों का रिजल्ट प्राइवेट स्कूलों से बेहतर होता है। यह ठीक है कि प्राइवेट स्कूलों के बच्चे नब्बे फीसदी से ऊपर लाने में बाज़ी मार ले जाते हैं लेकिन नवोदय और केंद्रीय विद्यालयों का रिज़ल्ट उनसे बेहतर ही होता है। ये भी तो सरकारी सिस्टम में चलते हैं। फिर राज्यों के बोर्ड के नतीजे इतने खराब क्यों हो रहे हैं? मैं भी पता करने में लगा हूं। चोरी की समस्या तो समझ में आती है लेकिन तेरह लाख बड़ी संख्या है। इसे सिर्फ चोरी करने या न करने के हवाले नहीं छोड़ा जा सकता।
यह कैसे हो रहा है? सीबीएसई के नतीजे निकलते हैं तो केंद्रीय विद्यालय और नवोदय विद्यालय के बच्चों का रिजल्ट प्राइवेट स्कूलों से बेहतर होता है। यह ठीक है कि प्राइवेट स्कूलों के बच्चे नब्बे फीसदी से ऊपर लाने में बाज़ी मार ले जाते हैं लेकिन नवोदय और केंद्रीय विद्यालयों का रिज़ल्ट उनसे बेहतर ही होता है। ये भी तो सरकारी सिस्टम में चलते हैं। फिर राज्यों के बोर्ड के नतीजे इतने खराब क्यों हो रहे हैं? मैं भी पता करने में लगा हूं। चोरी की समस्या तो समझ में आती है लेकिन तेरह लाख बड़ी संख्या है। इसे सिर्फ चोरी करने या न करने के हवाले नहीं छोड़ा जा सकता।
ब्रांड बिहार
मार्च के महीने में बिहार गया था। प्रभात ख़बर पढ़ने का मौका मिला। लगातार। बीच के एक पन्ने में बिहार से बाहर बिहार के कई कामयाब लोगों की कहानी छप रही थी। मुंबई,दिल्ली और दुनिया के तमाम देशों में बिहार के लोगों की कामयाबी के किस्से बटोर कर यह अख़बार राज्य की नई छवि बना रहा था। पंजाब के लोग जब दुनिया के देशों में गए तो उनकी कामयाबी के किस्से खूब छपे। इंडिया टुडे के कवर पर छपा करते थे। पंजाब में जश्न मनाने का कल्चर आया जो बाद में कई समस्याओं का कारण बन गया। लेकिन तब लोगों ने जाना कि पंजाब का मतलब कामयाबी और मस्ती होती है। अब बिहार के भीतर और बाहर ब्रांड बिहार को देखने की ज़रूरत है।
जिस बिहार ने तमाम तरह के फटीचर किस्म के बाहुबलियों को लोकसभा से लेकर विधानसभा तक में सालों तक पाला पोसा, उसने इस बार इस तरह के तमाम आइटम को उखाड़ फेंका हैं। नीतीश के लहर में भी उनकी पार्टी के प्रभुनाथ सिंह हार गए। प्रभुनाथ सिंह पर कई तरह के आरोप थे। साफ है लहर सिर्फ नीतीश की नहीं बल्कि पब्लिक की भी है। लोग चाहते ही नहीं कि किसी भी दल से इस तरह के लोग जीतें। शहाबुद्दीन से लेकर सूरजभान तक की पत्नी हार गई। यह अच्छा हुआ है। जब ये जीतते थे तो लगता था कि बिहार का कुछ नहीं हो सकता। यहां की राजनीति में साधु यादव से लेकर सूरजभान टाइप ही लोग चलेंगे। जात पात से ऊपर उठ कर पब्लिक ने वोट किया है या नहीं इसका अभी कोई प्रमाण नहीं मिला है। लेकिन नतीजे बता रहे हैं कि सभी जात ने मिलकर नीतीश की कोशिशों का साथ दिया है। लोकसभा के चुनाव में भी विधानसभा की तरह वोटिंग की। यूपी की तरह कांग्रेस को जगह नहीं मिली। कारण साफ है कि लोगों का भरोसा नीतीश में है। (मैंने अपने ब्ल़ॉग पर कई लेखों में नीतीश की आलोचना की है और तारीफ भी,यह इसलिए लिख रहा हूं कि कोई टिप्पणी न कर दे कि अच्छा अब तारीफ कर रहे हैं,पैसा मिल गया क्या)
बिहार बदल चुका है। तीन साल पहले तक जब रेलगाड़ी मुगलसराय से पटना की तरफ बढ़ती थी तो लोग कहते थे कि अब बिहार आने वाला है। बड़ा ही निगेटिव टोन होता था। सही ही होता था। हालात ऐसे थे। अब वही लोग कहते हैं कि पहले से चेंज है। यही मौका है कि बिहार अपनी छवि को ठीक करने के लिए उन कामयाब किस्सों को सामने लाये जिससे एक ब्रांड बने। जैसे सांप्रदायिक दंगों को छोड़ दें तो विकास के मामले में गुजरात ब्रांड है,महाराष्ट्र और आंध्रप्रदेश ब्रांड है। हरियाणा ब्रांड है। बिहार को भी ब्रांड बनाना चाहिए।
यहां की फिज़ा बदल रही है। लालू यादव के राज में हालत खराब हुई तो बड़ी संख्या में छात्र विस्थापित हुए। पहले सवर्ण जाति के लोग दिल्ली भागे,बाद में एजुकेशन का बुरा हाल हुआ तो यह पलायन सभी जाति वर्गों के छात्रों में हुआ। अभी तक जारी है। इसके चलते मां बाप को बहुत कष्ट उठाना प़ड़ा। अचानक पढ़ाई का खर्चा असहनीय हो गया। सकारात्मक किस्सों के ज़रिये देखा जाना चाहिए कि इसमें कोई बदलाव आ रहा है या नहीं। या फिर विकास के पहले चरण में सारी कोशिशें सड़क और कानून व्यवस्था तक ही सीमित हैं। यह भी एक बड़ा काम था। लेकिन शिक्षा और रोज़गार के अवसर पर भी ध्यान जाना चाहिए।
हालात बदलेंगे तो हम अपने संसाधनों का इस्तमाल कर सकेंगे। बिहार की ऊर्वर भूमि उसे पूरे देश के लिए सप्लायर राज्य में बदलने का मौका देती है। उद्योग से बिहार का भला होने में टाइम लगेगा। लेकिन उससे पहले बिहार अनाज, सब्ज़ी,दूध और बकरी पालन के क्षेत्र में सप्लायर राज्य बन सकता है। दूध के क्षेत्र में कुछ प्रगति हो भी रही है। कई लोगों को जानता हूं जिनकी ज़मीन बेकार पड़ी थी। अब वे मछली पालन करने लगे हैं। उनकी कमाई होने लगी है। यह एक बदलाव है जो राज्य के कारण मगर राज्य की शक्ति के दायरे के बाहर हो रहा है। राज्य ने मौका दिया है तो लोग भी अवसर का फायदा उठा रहे हैं।
पूरे राज्य के अलग अलग इलाकों में कामयाबी की छोटी छोटी कहानियां मिल जाएंगी। बिहार से बाहर गए लोग अब कुंठा में न जीयें। बता सकते हैं कि वहां की पब्लिक अब उदंड राजनीति का समर्थन नहीं करती। जिसे भी टिकना है उसे विकास की ही बात करनी होगी। इसलिए बिहार के बाहर के कामयाब लोगों को सामने लाकर प्रभात ख़बर ने अच्छा काम किया है। उम्मीद है पाठकों ने काफी सराहा होगा। अब बिहार के भीतर बन रही कामयाब कहानियों पर नज़र दौड़ानी चाहिए।
बदलाव हो चुका है। चुनाव हारने से पहले रेलवे में जाकर लालू यादव को विकास की ही बात करनी पड़ी। लेकिन पंद्रह साल की गलतियों की सज़ा देकर पब्लिक ने कह दिया है कि विकास पर देरी से मत जागिये। करते रहिए। नीतीश जानते हैं कि बिहार की उम्मीद बढ़ गई है। पहले बिहार के लोग राज्य से कोई उम्मीद नहीं करते थे। अब करने लगे हैं। यह अच्छा है। कार्यसंस्कृति भी इन्हीं उम्मीदों से बदलती है। लोगों का आचार व्यवहार भी बदलता है। हम सब बिहार से विस्थापित हुए हैं। खुद को प्रवासी मज़दूर तो नहीं कहते लेकिन हालत प्रवासियों जैसी है। इतनी बड़ी संख्या में लोगों का अपनी ज़मीन से उज़ड़ना किसी समाज के लिए ठीक नहीं होता। लेकिन यह नहीं होता तो बिहार बदलता भी नहीं। जब लोगों ने दिल्ली आकर देखा कि अवसर और व्यवस्था हो तो वही आदमी कितना कुछ कर सकता है। वापस लौट कर बिहार के लोग अपने राज्य को आलोचक की नज़र से देखने लगे। लालू टाइप के नेताओं को पता ही नहीं चला कि कोई देख रहा है। उम्मीद कीजिए कि बिहार भी एक ब्रांड राज्य बन कर उभरेगा।
जिस बिहार ने तमाम तरह के फटीचर किस्म के बाहुबलियों को लोकसभा से लेकर विधानसभा तक में सालों तक पाला पोसा, उसने इस बार इस तरह के तमाम आइटम को उखाड़ फेंका हैं। नीतीश के लहर में भी उनकी पार्टी के प्रभुनाथ सिंह हार गए। प्रभुनाथ सिंह पर कई तरह के आरोप थे। साफ है लहर सिर्फ नीतीश की नहीं बल्कि पब्लिक की भी है। लोग चाहते ही नहीं कि किसी भी दल से इस तरह के लोग जीतें। शहाबुद्दीन से लेकर सूरजभान तक की पत्नी हार गई। यह अच्छा हुआ है। जब ये जीतते थे तो लगता था कि बिहार का कुछ नहीं हो सकता। यहां की राजनीति में साधु यादव से लेकर सूरजभान टाइप ही लोग चलेंगे। जात पात से ऊपर उठ कर पब्लिक ने वोट किया है या नहीं इसका अभी कोई प्रमाण नहीं मिला है। लेकिन नतीजे बता रहे हैं कि सभी जात ने मिलकर नीतीश की कोशिशों का साथ दिया है। लोकसभा के चुनाव में भी विधानसभा की तरह वोटिंग की। यूपी की तरह कांग्रेस को जगह नहीं मिली। कारण साफ है कि लोगों का भरोसा नीतीश में है। (मैंने अपने ब्ल़ॉग पर कई लेखों में नीतीश की आलोचना की है और तारीफ भी,यह इसलिए लिख रहा हूं कि कोई टिप्पणी न कर दे कि अच्छा अब तारीफ कर रहे हैं,पैसा मिल गया क्या)
बिहार बदल चुका है। तीन साल पहले तक जब रेलगाड़ी मुगलसराय से पटना की तरफ बढ़ती थी तो लोग कहते थे कि अब बिहार आने वाला है। बड़ा ही निगेटिव टोन होता था। सही ही होता था। हालात ऐसे थे। अब वही लोग कहते हैं कि पहले से चेंज है। यही मौका है कि बिहार अपनी छवि को ठीक करने के लिए उन कामयाब किस्सों को सामने लाये जिससे एक ब्रांड बने। जैसे सांप्रदायिक दंगों को छोड़ दें तो विकास के मामले में गुजरात ब्रांड है,महाराष्ट्र और आंध्रप्रदेश ब्रांड है। हरियाणा ब्रांड है। बिहार को भी ब्रांड बनाना चाहिए।
यहां की फिज़ा बदल रही है। लालू यादव के राज में हालत खराब हुई तो बड़ी संख्या में छात्र विस्थापित हुए। पहले सवर्ण जाति के लोग दिल्ली भागे,बाद में एजुकेशन का बुरा हाल हुआ तो यह पलायन सभी जाति वर्गों के छात्रों में हुआ। अभी तक जारी है। इसके चलते मां बाप को बहुत कष्ट उठाना प़ड़ा। अचानक पढ़ाई का खर्चा असहनीय हो गया। सकारात्मक किस्सों के ज़रिये देखा जाना चाहिए कि इसमें कोई बदलाव आ रहा है या नहीं। या फिर विकास के पहले चरण में सारी कोशिशें सड़क और कानून व्यवस्था तक ही सीमित हैं। यह भी एक बड़ा काम था। लेकिन शिक्षा और रोज़गार के अवसर पर भी ध्यान जाना चाहिए।
हालात बदलेंगे तो हम अपने संसाधनों का इस्तमाल कर सकेंगे। बिहार की ऊर्वर भूमि उसे पूरे देश के लिए सप्लायर राज्य में बदलने का मौका देती है। उद्योग से बिहार का भला होने में टाइम लगेगा। लेकिन उससे पहले बिहार अनाज, सब्ज़ी,दूध और बकरी पालन के क्षेत्र में सप्लायर राज्य बन सकता है। दूध के क्षेत्र में कुछ प्रगति हो भी रही है। कई लोगों को जानता हूं जिनकी ज़मीन बेकार पड़ी थी। अब वे मछली पालन करने लगे हैं। उनकी कमाई होने लगी है। यह एक बदलाव है जो राज्य के कारण मगर राज्य की शक्ति के दायरे के बाहर हो रहा है। राज्य ने मौका दिया है तो लोग भी अवसर का फायदा उठा रहे हैं।
पूरे राज्य के अलग अलग इलाकों में कामयाबी की छोटी छोटी कहानियां मिल जाएंगी। बिहार से बाहर गए लोग अब कुंठा में न जीयें। बता सकते हैं कि वहां की पब्लिक अब उदंड राजनीति का समर्थन नहीं करती। जिसे भी टिकना है उसे विकास की ही बात करनी होगी। इसलिए बिहार के बाहर के कामयाब लोगों को सामने लाकर प्रभात ख़बर ने अच्छा काम किया है। उम्मीद है पाठकों ने काफी सराहा होगा। अब बिहार के भीतर बन रही कामयाब कहानियों पर नज़र दौड़ानी चाहिए।
बदलाव हो चुका है। चुनाव हारने से पहले रेलवे में जाकर लालू यादव को विकास की ही बात करनी पड़ी। लेकिन पंद्रह साल की गलतियों की सज़ा देकर पब्लिक ने कह दिया है कि विकास पर देरी से मत जागिये। करते रहिए। नीतीश जानते हैं कि बिहार की उम्मीद बढ़ गई है। पहले बिहार के लोग राज्य से कोई उम्मीद नहीं करते थे। अब करने लगे हैं। यह अच्छा है। कार्यसंस्कृति भी इन्हीं उम्मीदों से बदलती है। लोगों का आचार व्यवहार भी बदलता है। हम सब बिहार से विस्थापित हुए हैं। खुद को प्रवासी मज़दूर तो नहीं कहते लेकिन हालत प्रवासियों जैसी है। इतनी बड़ी संख्या में लोगों का अपनी ज़मीन से उज़ड़ना किसी समाज के लिए ठीक नहीं होता। लेकिन यह नहीं होता तो बिहार बदलता भी नहीं। जब लोगों ने दिल्ली आकर देखा कि अवसर और व्यवस्था हो तो वही आदमी कितना कुछ कर सकता है। वापस लौट कर बिहार के लोग अपने राज्य को आलोचक की नज़र से देखने लगे। लालू टाइप के नेताओं को पता ही नहीं चला कि कोई देख रहा है। उम्मीद कीजिए कि बिहार भी एक ब्रांड राज्य बन कर उभरेगा।
क्या कांग्रेस निरंकुश हो जाएगी
सत्ता से दूर होकर राजनीति का कोई मतलब नहीं। दोनों एक दूसरे के लिए ही बने हैं। विपक्ष की राजनीति होती ही इसलिए है कि सत्ता निरंकुश न हो। कांग्रेस को जनादेश मिला है लेकिन घमंडादेश नहीं मिला। फिर भी कांग्रेस इस वक्त गुमान में लगती है।
कामयाबी के जश्न में वैसे ही आत्मविश्वास थोड़ा प्रबल हो जाता है लेकिन मीडिया में आ रही ख़बरों को देखकर लग रहा है कि पब्लिक ने इस बार एरोगेंस का लाइसेंस छोटे दलों से लेकर बड़े दलों को दे दिया।
जीत के मौके पर जो बांहे फैलाता वही विजेता जैसा लगता है। कांग्रेस अब उन सभी दलों को ब्लैकमेलर बता रही है जिनके साथ वो काम करती आ रही है। ऐसा लग रहा है कि समाजवादी,लेफ्ट और लालू टाइप के दल ही कांग्रेस का ब्लैकमेल कर रहे थे। कांग्रेस तो देश प्रेम में डूबी हुई सिर्फ राष्ट्रनिष्ठा से काम कर रही थी। कांग्रेस ने कभी इन दलों को ब्लैकमेल नहीं किया। गठबंधन की राजनीति में सारे दलों ने यह तय किया वे अपने दलों का हित देखेंगे। कभी इसे गलत नहीं माना गया। अब इसे ब्लैकमेल बताया जा रहा है। आडवाणी के लिए कुर्सी न होना या उनका स्वागत न करना,सीढ़ियों से अकेले उतरते मुलायम और अमर सिंह की तस्वीरें। लगता है कि इन्हें दुत्कार कर ही राष्ट्रीय पार्टियों के उभरने की जनाकांक्षा का सम्मान हो सकता है।
कांग्रेस को भले इनका साथ नहीं लेना चाहिए लेकिन इतनी उदारता तो दिखानी चाहिए थी। अमर सिंह आज ब्लैकमेलर हो गए। एक साल पहले तक विश्वास मत के दौरान क्या थे। तब क्यों नहीं कहा कि मजबूरी में एक ब्लैकमेल की मदद लेनी पड़ रही है। लालू क्या थे। ठीक है कि कांग्रेस ने भी लालू अमर को काफी दिया। कांग्रेस इसका हिसाब तो दे कि इनके ब्लैकमेल से उसे क्या क्या करने पड़े हैं। किस तरह से ब्लैकमेल की कीमत चुकाई गई है। बीस साल से गठबंधन की राजनीति चल रही है। अभी भी मनमोहन सिंह की सरकार दस दलों के समर्थन की सरकार है। तो क्या बड़े दल होने के नाते कांग्रेस हर वक्त इनको औकात दिखायेगी। खेलभावना भी कहती है कि हारे हुए का सम्मान करो। पहले गले मिलो फिर ट्राफी उठाओ।
पहले कहा गया कि मनमोहन सिंह बालू और ए राजा को पसंद नहीं करते क्योंकि इन पर सीवीसी के आरोप हैं। यह पहले क्यों नहीं कहा गया। क्यों इन्हें पांच साल तक बर्दाश्त किया गया। फिर मनमोहन सिंह ने ही शपथ ग्रहण के बाद कहा कि बालू और राजा उनके सम्मानित सहयोगी हैं। लेकिन अखबारों में खबर भी आई कि बालू के ज़माने में हाईवे प्रोजेक्ट के निदेशक बदले गए। ठेकेदार भाग गए। क्यों भाग गए? क्या मनमोहन सरकार में जमकर कमीशन बाज़ी चली है? तब मनमोहन सिंह ने सत्ता दांव पर क्यों नहीं लगा दी? तब क्यों नहीं कथित भ्रष्टाचार के खिलाफ पद छोड़ दिया।
भगवान जाने अहंकार है या कुछ और। कांग्रेस को जनता ने मज़बूत कर उदारता के साथ काम करने के संकेत दिये हैं। कांग्रेस को अभी इम्तहान तो देना ही है कि कैसे यह पार्टी तमाम दलों को खत्म कर अलग अलग जनकांक्षाओं का प्रतिनिधित्व करती है। नहीं कर पाई तो फिर कमज़ोर होगी। लेकिन सार्वजनिक आचरण में अकड़ दिखाने का स्वागत नहीं होता। सहयोगी दल आते जाते रहते हैं। सब सत्ता के लिए ही आते हैं। लेकिन सत्ता का सार्वजनिक संस्कार अलग होता है। निजी संस्कार अलग होता है।
नकारात्मक राजनीति को खारिज करने से ही कांग्रेस को बढ़त मिली है। अब वो नकारात्मक राजनीति या पहचान की राजनीति की जगह लेगी तो आने वाले समय में मुश्किलों का सामना करना पड़ेगा। वैसे भी हर जनादेश पिछले जनादेश से अलग होता है। याद रखना चाहिए। अभी से मान कर नहीं चलना चाहिए कि २०१४ का जनादेश भी मिल चुका है।
कामयाबी के जश्न में वैसे ही आत्मविश्वास थोड़ा प्रबल हो जाता है लेकिन मीडिया में आ रही ख़बरों को देखकर लग रहा है कि पब्लिक ने इस बार एरोगेंस का लाइसेंस छोटे दलों से लेकर बड़े दलों को दे दिया।
जीत के मौके पर जो बांहे फैलाता वही विजेता जैसा लगता है। कांग्रेस अब उन सभी दलों को ब्लैकमेलर बता रही है जिनके साथ वो काम करती आ रही है। ऐसा लग रहा है कि समाजवादी,लेफ्ट और लालू टाइप के दल ही कांग्रेस का ब्लैकमेल कर रहे थे। कांग्रेस तो देश प्रेम में डूबी हुई सिर्फ राष्ट्रनिष्ठा से काम कर रही थी। कांग्रेस ने कभी इन दलों को ब्लैकमेल नहीं किया। गठबंधन की राजनीति में सारे दलों ने यह तय किया वे अपने दलों का हित देखेंगे। कभी इसे गलत नहीं माना गया। अब इसे ब्लैकमेल बताया जा रहा है। आडवाणी के लिए कुर्सी न होना या उनका स्वागत न करना,सीढ़ियों से अकेले उतरते मुलायम और अमर सिंह की तस्वीरें। लगता है कि इन्हें दुत्कार कर ही राष्ट्रीय पार्टियों के उभरने की जनाकांक्षा का सम्मान हो सकता है।
कांग्रेस को भले इनका साथ नहीं लेना चाहिए लेकिन इतनी उदारता तो दिखानी चाहिए थी। अमर सिंह आज ब्लैकमेलर हो गए। एक साल पहले तक विश्वास मत के दौरान क्या थे। तब क्यों नहीं कहा कि मजबूरी में एक ब्लैकमेल की मदद लेनी पड़ रही है। लालू क्या थे। ठीक है कि कांग्रेस ने भी लालू अमर को काफी दिया। कांग्रेस इसका हिसाब तो दे कि इनके ब्लैकमेल से उसे क्या क्या करने पड़े हैं। किस तरह से ब्लैकमेल की कीमत चुकाई गई है। बीस साल से गठबंधन की राजनीति चल रही है। अभी भी मनमोहन सिंह की सरकार दस दलों के समर्थन की सरकार है। तो क्या बड़े दल होने के नाते कांग्रेस हर वक्त इनको औकात दिखायेगी। खेलभावना भी कहती है कि हारे हुए का सम्मान करो। पहले गले मिलो फिर ट्राफी उठाओ।
पहले कहा गया कि मनमोहन सिंह बालू और ए राजा को पसंद नहीं करते क्योंकि इन पर सीवीसी के आरोप हैं। यह पहले क्यों नहीं कहा गया। क्यों इन्हें पांच साल तक बर्दाश्त किया गया। फिर मनमोहन सिंह ने ही शपथ ग्रहण के बाद कहा कि बालू और राजा उनके सम्मानित सहयोगी हैं। लेकिन अखबारों में खबर भी आई कि बालू के ज़माने में हाईवे प्रोजेक्ट के निदेशक बदले गए। ठेकेदार भाग गए। क्यों भाग गए? क्या मनमोहन सरकार में जमकर कमीशन बाज़ी चली है? तब मनमोहन सिंह ने सत्ता दांव पर क्यों नहीं लगा दी? तब क्यों नहीं कथित भ्रष्टाचार के खिलाफ पद छोड़ दिया।
भगवान जाने अहंकार है या कुछ और। कांग्रेस को जनता ने मज़बूत कर उदारता के साथ काम करने के संकेत दिये हैं। कांग्रेस को अभी इम्तहान तो देना ही है कि कैसे यह पार्टी तमाम दलों को खत्म कर अलग अलग जनकांक्षाओं का प्रतिनिधित्व करती है। नहीं कर पाई तो फिर कमज़ोर होगी। लेकिन सार्वजनिक आचरण में अकड़ दिखाने का स्वागत नहीं होता। सहयोगी दल आते जाते रहते हैं। सब सत्ता के लिए ही आते हैं। लेकिन सत्ता का सार्वजनिक संस्कार अलग होता है। निजी संस्कार अलग होता है।
नकारात्मक राजनीति को खारिज करने से ही कांग्रेस को बढ़त मिली है। अब वो नकारात्मक राजनीति या पहचान की राजनीति की जगह लेगी तो आने वाले समय में मुश्किलों का सामना करना पड़ेगा। वैसे भी हर जनादेश पिछले जनादेश से अलग होता है। याद रखना चाहिए। अभी से मान कर नहीं चलना चाहिए कि २०१४ का जनादेश भी मिल चुका है।
पत्थर के सनम, तुम्हें हमने दलितों का खुदा जाना
लखनऊ में करोड़ों रूपये के हाथी बुत बन कर खड़े ही रह गए। वो दौड़ते कैसे? वो तो बनाए ही इस लिए जा रहे हैं कि लोग आकर देखें। पहले हाथी चलकर गांव गांव जाता था अब हाथी को लखनऊ में खड़ा कर दिया गया है। गुंडे बुत बन रहे हाथी पर चढ़ गए। ग़रीबों के मसीहा मुख्तार अंसारी सहित तमाम बाहुबली हवा हो गए। बीएसपी तीन फीसदी वोट बढ़ाकर भी एक सीट का ही इज़ाफ़ा कर सकी। कांग्रस के वोट बढ़ गए और हाथी हाथ से मात खा गया। अपने संगठन और कार्यकर्ताओं पर इतना भरोसा करने वाली मायावती को पहली बार ऐसा झटका लगा है। पहली बार बीएसपी अपना लक्ष्य तय कर नहीं पहुंच सकी है। वोट तो बढ़ गए लेकिन प्रभाव कम हो गया।
दलित राजनीति में मेरी दिलचस्पी रही है। उन उम्मीदों को समझना चाहता हूं जहां पचास साल पहले तक कोई जानता ही नहीं होगा कि उम्मीद किसे कहते हैं। लेकिन इस पचास साल में बहुत बदला है। लोकतंत्र ने दलितों को राजनीतिक अधिकार के साथ सत्ता के तमाम पदों पर जाकर काम करने का मौका दिया है। मेयर से लेकर राष्ट्रपति के पद तक। मायावती प्रधानमंत्री के पद तक पहुंचना चाहती थीं। दलित मध्यमवर्ग ने सपना देखा कि कोई दलित चुन कर पीएम बन जाए। यह सपना मरा नहीं है। बचा हुआ है। कहीं किसी कोने में बचा ही रहेगा।
मायावती ने बीएसपी को नए ज़माने की पार्टी के रूप में पेश नहीं किया। कार्यकर्ताओं ने अपने दम पर यूपी में पार्टी को ४७ सीटों पर दूसरे नंबर तक तो ला दिया लेकिन पार्टी मायावती के कारण आगे नहीं जा सकी। दलित आंदोलन से जुड़े लोग अभी तक पत्थरों के हाथी और असली में अपराधी पर सवाल नहीं उठाते थे। अब उठाना होगा। पूछना होगा कि यह पार्टी कैसे अलग है। क्यों बीएसपी ने गुंडों को टिकट दिए? मायावती ने नए जमाने की नेता होने का फिलहाल मौका गंवा दिया। बीएसपी को विकल्प नहीं बनाया।
चंद्रभान लिखते हैं कि सफाईकर्मियों की बहाली में रिश्वत ली गई। ये सफाईकर्मी गांवों में घूस की ज़िंदा मिसाल बन गए हैं। गांव में आते नहीं,काम नहीं करते और सिर्फ तनख्वाह लेते हैं। एक और सज्जन ने बताया कि अस्सी से अधिक कालेजों के प्रिंसिपल की बहाली हुई, इनमें से एक भी दलित नहीं था। यानी इस बार दलित अपनी ही सरकार में रिश्वत दे रहे थे। ज़ाहिर है वो सिर्फ बीएसपी को ही क्यों वोट दें? जल्दीबाज़ी में मायावती ने हर पार्टी से लोगों को लेकर अपनी पार्टी के पदों पर बिठाने शुरू कर दिये। कार्यकर्ता नाराज़ हो गए। आज बीएसपी सिर्फ १०० विधानसभा क्षेत्रों में नंबर एक है।
कई दलित परिवारों को जानता हूं जिन्होंने इस बार बीएसपी को वोट नहीं दिये। उन्होंने कहा कि हम बीएसपी के बंधक नहीं हैं। पार्टी ने ऐसे काम किये हैं जिसका बचाव करना मुश्किल हो रहा है। बीसपी ने एक बड़ा राजनीतिक प्रयोग किया। दलितों के नेतृत्व में ब्राह्मणों को आगे आने का मौका दिया। ब्राह्मणों ने भी इसे स्वीकार कर एक सकारात्मक संकेत दिये। लेकिन जब दलित मध्यमवर्ग दूसरे मध्यमवर्ग के करीब आया तो उसके लिए मायावती की इन करतूतों का बचाव करना मुश्किल हो गया। जब भी बीएसपी को मध्यमवर्ग के दरवाज़े जाना होगा,उसे बताना ही होगा कि वो ये सब क्यों कर रही है। उन्हें यह बताना ही होगा कि पीएम बनने के बाद उनका कैबिनेट क्या होगा? आर्थिक नीतियां क्या होगी? यूपी के घोषणापत्र का रिप्रिंट नहीं चलेगा। न्यूक्लियर डील पर क्यों विरोध किया? क्यों नहीं कहा कि कुछ भी हो जाए बीजेपी का समर्थन नहीं करेंगे। बीजेपी में मायावती के इतने भाई बहन क्यों हैं? अब मनमोहन सिंह की छोटी बहन बन गई हैं।
मायावती के तेवर कमज़ोर हो गए लगते हैं। जैसे ही मनमोहन को बड़ा भाई स्वीकार किया वैसे ही बीएसपी ने मान लिया कि कांग्रेस उससे बड़ी है। मानना ही था क्योंकि जिस यूपी में बीएसपी ने कांग्रेस को खत्म कर दिया था,अब उसी यूपी में कांग्रेस मायावती की पार्टी के बराबर की पार्टी है। पहली बार दलित राजनीति को नया मुकाम देने वाली इस पार्टी की अकड़ कम होते देख सहानुभूति नहीं हुई क्योंकि दोषी खुद मायावती हैं। पार्टी कार्यकर्ताओं को सज़ा देकर क्या होगा। ईमानदार कार्यकर्ताओं को ढूंढना होगा जो कांशीराम ने किये थे। कांशीराम ने खुद अपने लिए कुछ नहीं किया। दलित राजनीति में आज भी कांशीराम से बड़ा कोई नेता नहीं है।
वो समय चला गया जब बीएसपी प्रेस को खारिज करती थी। तब वो सिर्फ अपने वोटबैंक तक सीमित थी और खारिज कर सकती थी। अब नहीं कर सकती। मूर्तियां और स्मारक बनाना एक हद तक तो ठीक है लेकिन जन्मदिन पर ब्लैक मनी को व्हाईट करने की इस तरकीब को कैसे जायज़ ठहराये? दलित बुद्धिजीवी कहते हैं कि टीवी पर बीएसपी का बचाव करना मुश्किल हो जाता है। सिर्फ यह कह देना कि दूसरे दल भी अपराधियों को टिकट देते हैं या दूसरे दल भी पैसे लेते हैं,काफी नहीं है। यह कह कर आप देश की सबसे बड़ी पार्टी नहीं बन सकते हैं। बीएसपी के लोगों को फोन कीजिए तो फोन काट देते हैं। दिल्ली में रकाबगंज पर पार्टी का दफ्तर किला लगता है। प्रेस वालों को दरबान भगा देता है। अंदर कोई फोन नहीं उठाता। सवाल प्रेस के आदर करने का नहीं है। लेकिन जो सवाल हैं उसका जवाब तो देना ही होगा। कार्यकर्ताओं के दम पर रैलियों में लाए गए लोग हर बार वोटर नहीं होते।
अभी तक दलित आंदोलन बीएसपी पर सवाल नहीं उठाता था। अब उठाना होगा। समझना होगा कि अब स्मारक और मूर्तियां जनआकांक्षाओं के प्रतीक नहीं हैं। दलित जनआकांक्षाओं को नए प्रतीक देने होंगे। सर्वजन के चक्कर में मायावती ने अफसरों को भी ढील दे दिया। पिछली बार की तरह औचक निरीक्षण बंद हो गए। अफसर बेलगाम हो गए। भ्रष्टाचार में कोई कमी नहीं आई। मायावती के पास समय कम है। बीएसपी का जादू निकल चुका है। एक आखिरी मौका यह है कि उनका प्रशासन कोई क्रांतिकारी काम कर दे। यह एक मुश्किल काम है। जो कल तक भ्रष्टाचार कर रहा था वो आज ईमानदार कैसे हो जाएगा। मायावती ने सख्त प्रशासक की जो यूएसपी बनाई थी, उसे खुद कमज़ोर किया है.
मैं बीएसपी की राजनीति में गहरी दिलचस्पी लेता हूं। इसका मतलब यह नहीं कि पार्टी का हूं। किसी राजनीतिक दल के बारे में लिखिये तो टिप्पणीकार तुरंत निष्ठा पर सवाल उठाने लगते हैं। लेकिन हां,मैं अब भी देखना चाहूंगा कि कब लोकतांत्रिक प्रक्रिया से यह देश किसी दलित को अपना नेता स्वीकार करेगा। सवाल सत्ता का ही है। पांच हज़ार साल पुरानी सोच की सत्ता के टूटने का है। बहुत हद तक टूटा है लेकिन काफी हद तक बीएसपी ने इसे अपने दम पर तोड़ा है। दलितों को कांग्रेस से निकाल कर। तमाम दलित कार्यकर्ताओं की मायूसी समझ सकता हूं। लेकिन भ्रष्टाचार को सही ठहराकर इस सपने को पूरा नहीं किया जा सकेगा। पार्टी को जब हर घर में पहुंचना है तो बात करने वाला होना चाहिए। लिखित बयान पढ़ने के बाद झट से उठ कर चले जाने से काम नहीं चलता। मायावती को सवालों का सामना करना चाहिए। कांग्रेस या बीजेपी का विकल्प आप इनकी तरह बन कर नहीं बन सकते। इसके लिए वाकई में विकल्प बनना होगा। बीएसपी बन भी रही थी लेकिन अब तो जिसका विकल्प बन रही थी,उसने बीएसपी का विकल्प बनना शुरू कर दिया है।
मायावती ने यूपी विधानसभा में एक क्रांतिकारी सामाजिक राजनीतिक प्रयोग किया था। तमाम हार जीत के किस्सों के बाद इसे नकारा नहीं जा सकेगा। लेकिन यह प्रयोग ज़्यादा दिनों तक ज़िंदा भी नहीं रह सका। मायावती को समझना होगा कि सिर्फ जातियों की गिनती से वोटों की गिनती पूरी नहीं होती। एक राजनीतिक चिंतक कहते हैं बीएसपी को खारिज नहीं कर सकते। बिल्कुल नहीं किया जा सकता। जिसके पास हज़ारों कार्यकर्ता हों और उनके पास सपने हों, उसे कोई कैसे खारिज कर सकता है।
खारिज तो बीएसपी को करना है। अपने स्टाइल और बुराई को।
दलित राजनीति में मेरी दिलचस्पी रही है। उन उम्मीदों को समझना चाहता हूं जहां पचास साल पहले तक कोई जानता ही नहीं होगा कि उम्मीद किसे कहते हैं। लेकिन इस पचास साल में बहुत बदला है। लोकतंत्र ने दलितों को राजनीतिक अधिकार के साथ सत्ता के तमाम पदों पर जाकर काम करने का मौका दिया है। मेयर से लेकर राष्ट्रपति के पद तक। मायावती प्रधानमंत्री के पद तक पहुंचना चाहती थीं। दलित मध्यमवर्ग ने सपना देखा कि कोई दलित चुन कर पीएम बन जाए। यह सपना मरा नहीं है। बचा हुआ है। कहीं किसी कोने में बचा ही रहेगा।
मायावती ने बीएसपी को नए ज़माने की पार्टी के रूप में पेश नहीं किया। कार्यकर्ताओं ने अपने दम पर यूपी में पार्टी को ४७ सीटों पर दूसरे नंबर तक तो ला दिया लेकिन पार्टी मायावती के कारण आगे नहीं जा सकी। दलित आंदोलन से जुड़े लोग अभी तक पत्थरों के हाथी और असली में अपराधी पर सवाल नहीं उठाते थे। अब उठाना होगा। पूछना होगा कि यह पार्टी कैसे अलग है। क्यों बीएसपी ने गुंडों को टिकट दिए? मायावती ने नए जमाने की नेता होने का फिलहाल मौका गंवा दिया। बीएसपी को विकल्प नहीं बनाया।
चंद्रभान लिखते हैं कि सफाईकर्मियों की बहाली में रिश्वत ली गई। ये सफाईकर्मी गांवों में घूस की ज़िंदा मिसाल बन गए हैं। गांव में आते नहीं,काम नहीं करते और सिर्फ तनख्वाह लेते हैं। एक और सज्जन ने बताया कि अस्सी से अधिक कालेजों के प्रिंसिपल की बहाली हुई, इनमें से एक भी दलित नहीं था। यानी इस बार दलित अपनी ही सरकार में रिश्वत दे रहे थे। ज़ाहिर है वो सिर्फ बीएसपी को ही क्यों वोट दें? जल्दीबाज़ी में मायावती ने हर पार्टी से लोगों को लेकर अपनी पार्टी के पदों पर बिठाने शुरू कर दिये। कार्यकर्ता नाराज़ हो गए। आज बीएसपी सिर्फ १०० विधानसभा क्षेत्रों में नंबर एक है।
कई दलित परिवारों को जानता हूं जिन्होंने इस बार बीएसपी को वोट नहीं दिये। उन्होंने कहा कि हम बीएसपी के बंधक नहीं हैं। पार्टी ने ऐसे काम किये हैं जिसका बचाव करना मुश्किल हो रहा है। बीसपी ने एक बड़ा राजनीतिक प्रयोग किया। दलितों के नेतृत्व में ब्राह्मणों को आगे आने का मौका दिया। ब्राह्मणों ने भी इसे स्वीकार कर एक सकारात्मक संकेत दिये। लेकिन जब दलित मध्यमवर्ग दूसरे मध्यमवर्ग के करीब आया तो उसके लिए मायावती की इन करतूतों का बचाव करना मुश्किल हो गया। जब भी बीएसपी को मध्यमवर्ग के दरवाज़े जाना होगा,उसे बताना ही होगा कि वो ये सब क्यों कर रही है। उन्हें यह बताना ही होगा कि पीएम बनने के बाद उनका कैबिनेट क्या होगा? आर्थिक नीतियां क्या होगी? यूपी के घोषणापत्र का रिप्रिंट नहीं चलेगा। न्यूक्लियर डील पर क्यों विरोध किया? क्यों नहीं कहा कि कुछ भी हो जाए बीजेपी का समर्थन नहीं करेंगे। बीजेपी में मायावती के इतने भाई बहन क्यों हैं? अब मनमोहन सिंह की छोटी बहन बन गई हैं।
मायावती के तेवर कमज़ोर हो गए लगते हैं। जैसे ही मनमोहन को बड़ा भाई स्वीकार किया वैसे ही बीएसपी ने मान लिया कि कांग्रेस उससे बड़ी है। मानना ही था क्योंकि जिस यूपी में बीएसपी ने कांग्रेस को खत्म कर दिया था,अब उसी यूपी में कांग्रेस मायावती की पार्टी के बराबर की पार्टी है। पहली बार दलित राजनीति को नया मुकाम देने वाली इस पार्टी की अकड़ कम होते देख सहानुभूति नहीं हुई क्योंकि दोषी खुद मायावती हैं। पार्टी कार्यकर्ताओं को सज़ा देकर क्या होगा। ईमानदार कार्यकर्ताओं को ढूंढना होगा जो कांशीराम ने किये थे। कांशीराम ने खुद अपने लिए कुछ नहीं किया। दलित राजनीति में आज भी कांशीराम से बड़ा कोई नेता नहीं है।
वो समय चला गया जब बीएसपी प्रेस को खारिज करती थी। तब वो सिर्फ अपने वोटबैंक तक सीमित थी और खारिज कर सकती थी। अब नहीं कर सकती। मूर्तियां और स्मारक बनाना एक हद तक तो ठीक है लेकिन जन्मदिन पर ब्लैक मनी को व्हाईट करने की इस तरकीब को कैसे जायज़ ठहराये? दलित बुद्धिजीवी कहते हैं कि टीवी पर बीएसपी का बचाव करना मुश्किल हो जाता है। सिर्फ यह कह देना कि दूसरे दल भी अपराधियों को टिकट देते हैं या दूसरे दल भी पैसे लेते हैं,काफी नहीं है। यह कह कर आप देश की सबसे बड़ी पार्टी नहीं बन सकते हैं। बीएसपी के लोगों को फोन कीजिए तो फोन काट देते हैं। दिल्ली में रकाबगंज पर पार्टी का दफ्तर किला लगता है। प्रेस वालों को दरबान भगा देता है। अंदर कोई फोन नहीं उठाता। सवाल प्रेस के आदर करने का नहीं है। लेकिन जो सवाल हैं उसका जवाब तो देना ही होगा। कार्यकर्ताओं के दम पर रैलियों में लाए गए लोग हर बार वोटर नहीं होते।
अभी तक दलित आंदोलन बीएसपी पर सवाल नहीं उठाता था। अब उठाना होगा। समझना होगा कि अब स्मारक और मूर्तियां जनआकांक्षाओं के प्रतीक नहीं हैं। दलित जनआकांक्षाओं को नए प्रतीक देने होंगे। सर्वजन के चक्कर में मायावती ने अफसरों को भी ढील दे दिया। पिछली बार की तरह औचक निरीक्षण बंद हो गए। अफसर बेलगाम हो गए। भ्रष्टाचार में कोई कमी नहीं आई। मायावती के पास समय कम है। बीएसपी का जादू निकल चुका है। एक आखिरी मौका यह है कि उनका प्रशासन कोई क्रांतिकारी काम कर दे। यह एक मुश्किल काम है। जो कल तक भ्रष्टाचार कर रहा था वो आज ईमानदार कैसे हो जाएगा। मायावती ने सख्त प्रशासक की जो यूएसपी बनाई थी, उसे खुद कमज़ोर किया है.
मैं बीएसपी की राजनीति में गहरी दिलचस्पी लेता हूं। इसका मतलब यह नहीं कि पार्टी का हूं। किसी राजनीतिक दल के बारे में लिखिये तो टिप्पणीकार तुरंत निष्ठा पर सवाल उठाने लगते हैं। लेकिन हां,मैं अब भी देखना चाहूंगा कि कब लोकतांत्रिक प्रक्रिया से यह देश किसी दलित को अपना नेता स्वीकार करेगा। सवाल सत्ता का ही है। पांच हज़ार साल पुरानी सोच की सत्ता के टूटने का है। बहुत हद तक टूटा है लेकिन काफी हद तक बीएसपी ने इसे अपने दम पर तोड़ा है। दलितों को कांग्रेस से निकाल कर। तमाम दलित कार्यकर्ताओं की मायूसी समझ सकता हूं। लेकिन भ्रष्टाचार को सही ठहराकर इस सपने को पूरा नहीं किया जा सकेगा। पार्टी को जब हर घर में पहुंचना है तो बात करने वाला होना चाहिए। लिखित बयान पढ़ने के बाद झट से उठ कर चले जाने से काम नहीं चलता। मायावती को सवालों का सामना करना चाहिए। कांग्रेस या बीजेपी का विकल्प आप इनकी तरह बन कर नहीं बन सकते। इसके लिए वाकई में विकल्प बनना होगा। बीएसपी बन भी रही थी लेकिन अब तो जिसका विकल्प बन रही थी,उसने बीएसपी का विकल्प बनना शुरू कर दिया है।
मायावती ने यूपी विधानसभा में एक क्रांतिकारी सामाजिक राजनीतिक प्रयोग किया था। तमाम हार जीत के किस्सों के बाद इसे नकारा नहीं जा सकेगा। लेकिन यह प्रयोग ज़्यादा दिनों तक ज़िंदा भी नहीं रह सका। मायावती को समझना होगा कि सिर्फ जातियों की गिनती से वोटों की गिनती पूरी नहीं होती। एक राजनीतिक चिंतक कहते हैं बीएसपी को खारिज नहीं कर सकते। बिल्कुल नहीं किया जा सकता। जिसके पास हज़ारों कार्यकर्ता हों और उनके पास सपने हों, उसे कोई कैसे खारिज कर सकता है।
खारिज तो बीएसपी को करना है। अपने स्टाइल और बुराई को।
तो क्या मोदी की वजह से रह गए आडवाणी
५० साल के राजनीतिक सफर का अंत हो गया है। आडवाणी ज़िंदगी भर नंबर टू ही रहे। अटल बिहारी वाजपेयी की छाया से नहीं निकल सके। जनता ने आडवाणी को निर्णय लेने वाला मज़बूत नेता मानने से इंकार कर दिया। दरअसल आडवाणी को अवधारणा या छवि की राजनीति भी नहीं आती। जब गुज़रात में दंगे हो रहे थे तब अटल बिहारी वाजपेयी ने मोदी को राजधर्म की याद दिलाई थी। आडवाणी कभी राजधर्म जैसी बात नहीं कर सके। उस मोदी के साथ खड़े हो गए जिसने उनकी राह मुश्किल कर दी। गांधीनगर में आडवाणी की जीत का अंतर एक लाख इक्कीस हज़ार से कम हो गया है। पिछली बार वे दो लाख से अधिक मतो से जीते थे।
शरद यादव ने कह दिया कि बीच चुनाव में मोदी का नाम उछल गया। वोटों का ध्रुवीकरण हो गया। क्यों कोई अल्पसंख्यक बीजेपी को वोट दे। गुजरात के दंगे क्यों कोई भूल जाए सिर्फ इसलिए कि मोदी को पीएम बनना है। सड़के तो शीला दीक्षित भी बनवाती हैं और वाईएसआर रेड्डी और अब सेकुलर हो चुके नीतीश कुमार भी। गुजरात हमेशा से समृद्ध राज्य रहा है। लेकिन कब तक गुजरात की जनता अच्छी सड़कों पर कार चलाती हुई हिंसक ख्यालों में डूबी रहेगी। वो सफर का लुत्फ उठाना चाहती है और तभी उठा पाएगी जब मोदी की हिंसक राजनीति का ख्याल मन में न आए। गुजरात की महान जनता ने मोदी को सड़कें बनवाते रहने के लिए वोट दिये हैं न कि हिंसक राजनीति करने के लिए। नरेंद्र मोदी अपने भाषण में बात कम करते हैं, चिढ़ाते ज़्यादा है। कोई गली मोहल्ले वाला नेता ही इस तरह का काम करता है। कंधे उचकाकर एक रैली में मनमोहन सिंह की नकल कर रहे थे। क्या वो इसी गुजरात का प्रतिनिधित्व करते हैं?
मनमोहन सिंह ने कई बार सिख दंगों के लिए माफी मांगी है। कांग्रेस ने सज्जन कुमार और जगदीश टाइटलर का टिकट काटा और मंत्रिमंडल से हटाया। नरेंद्र मोदी तो हमारे विजय त्रिवेदी के सवालों का जवाब ही नहीं दे पाए कि आप माफी मांगेंगे या नहीं। मोदी ने उनके माइक को हटा दिया। ये इंटरव्यू एऩडीटीवी इंडिया पर खूब चला था। सवाल है कि नरेंद्र मोदी हैं क्या जो माफी नहीं मांगेंगे। इस देश में छत्तीस मुख्यमंत्री हैं। बीजेपी के नेता व्यक्तिगत उपलब्धियों के जोश में बेलगाम हो गए हैं। वो तय नहीं कर पा रहे थे कि मोदी को नेता माने या आ़डवाणी को ढोयेँ। शऱद यादव की बात में दम है।
बीजेपी को कांग्रेस से सीखना चाहिए। इसके दामन पर भी दंगों के दाग थे। धुले तो नहीं लेकिन पार्टी उसके लिए माफी मांगती रहती है। बाबरी मस्जिद ढहाने की सजा अल्पसंख्यकों ने कांग्रेस को खूब दी। लेकिन कांग्रेस उनके बीच गई। योजनाएं लेकर आई। शायद इसका फायदा उसे मिल गया। कई चुनावों बाद ही सही लेकिन मिला तो। एक दिन बीजेपी भी गुजरात दंगों के लिए माफी मांगेगी। देखना है कि नरेंद्र मोदी मांगते हैं या कोई और। मुस्लिम इलाकों में इन्हें जाना ही होगा और जाकर वोट मांगना ही होगा। वर्ना कोई दयानंद पांडे और साध्वी प्रज्ञा जैसे हिंदू आतंकवाद के सपोर्ट में खड़े होकर देश पर राज नहीं करेगा। इन पर आरोप साबित नहीं हुए हैं लेकिन इस तरह के फटीचर किस्म के नेताओं पर बात ही क्यों करे। शिवसेना तो ऐसे बवाल मचा रही थी जैसे हिंदुओं को कोई देश से निकाल देगा। योगी आदित्यनाथ किस्म के नेताओं से आप गोरखपुर की सीट जीत सकते हैं देश पर राज करने का मौका नहीं मिलेगा। बीजेपी भी यह बात जानती है तभी शुरू में वरुण गांधी के बयानों से दूर रही। लेकिन तुरंत फिसल गई कि लोग तिलक लगाकर हिंदुत्व के लिए निकल रहे हैं। फटीचर किस्म की बातें करने वाला वरुण गांधी जेल से आकर किस देश की जनता को धन्यवाद दे रहा था, जो उसकी पार्टी को खारिज कर रही थी, उसको?
आडवाणी इसीलिए नेता नहीं है। वो एक महान कार्यकर्ता और संगठनकर्ता है। नेता होते तो इस तरह के तीन नंबर की पोलिटिक्स के खिलाफ उठ खड़े होते जो चाय की दुकानों पर बैठकर मुसलमानों के बारे में तरह तरह के पूर्वाग्रह गढ़ते रहते हैं। अरब का पैसा है,मदरसे में आतंकवाद की पढ़ाई है,ओसामा बिन लादेन हैं आदि आदि।
अब मूल सवाल ये है कि क्या नरेंद्र मोदी बीजेपी के लिए बोझ बन गए हैं? क्या बीजेपी सिर्फ गुजरात में ही जीत कर खुश रहेगी। गुजरात में भी मोदी का अखंड प्रभाव नहीं है। जिस खेड़ा सीट पर मोदी ने सात सभायें की वहां से कांग्रेस जीत गई। अब तक बीजेपी मोदी को किनारे रखती थी कि कहीं एनडीए न बिखर जाए लेकिन अब उसे यह सोचना पड़ेगा कि कहीं मोदी के कारण बीजेपी ने खत्म हो जाए। युवा और दूसरी पीढ़ी के नेताओं का ढिंढोरा बीजेपी कांग्रेस से पहले से पीट रही है। अटल जी के टाइम से ही पीट रही है। लेकिन एक राहुल गांधी ने बीजेपी के दूसरी पीढ़ी के नेताओं को पीछे छोड़ दिया। अरुण जेटली का एरोगेंस काम नहीं आया। हर अच्छे वकील को लगता है कि उसकी दलील सबसे अच्छी है। लेकिन जज दलीलों से नहीं सबूतों के आधार पर फैसला देता है। वकील चाहे तो भ्रम में जी सकता है कि उसी की दलील के कारण जीत मिली है।
शरद यादव ने कह दिया कि बीच चुनाव में मोदी का नाम उछल गया। वोटों का ध्रुवीकरण हो गया। क्यों कोई अल्पसंख्यक बीजेपी को वोट दे। गुजरात के दंगे क्यों कोई भूल जाए सिर्फ इसलिए कि मोदी को पीएम बनना है। सड़के तो शीला दीक्षित भी बनवाती हैं और वाईएसआर रेड्डी और अब सेकुलर हो चुके नीतीश कुमार भी। गुजरात हमेशा से समृद्ध राज्य रहा है। लेकिन कब तक गुजरात की जनता अच्छी सड़कों पर कार चलाती हुई हिंसक ख्यालों में डूबी रहेगी। वो सफर का लुत्फ उठाना चाहती है और तभी उठा पाएगी जब मोदी की हिंसक राजनीति का ख्याल मन में न आए। गुजरात की महान जनता ने मोदी को सड़कें बनवाते रहने के लिए वोट दिये हैं न कि हिंसक राजनीति करने के लिए। नरेंद्र मोदी अपने भाषण में बात कम करते हैं, चिढ़ाते ज़्यादा है। कोई गली मोहल्ले वाला नेता ही इस तरह का काम करता है। कंधे उचकाकर एक रैली में मनमोहन सिंह की नकल कर रहे थे। क्या वो इसी गुजरात का प्रतिनिधित्व करते हैं?
मनमोहन सिंह ने कई बार सिख दंगों के लिए माफी मांगी है। कांग्रेस ने सज्जन कुमार और जगदीश टाइटलर का टिकट काटा और मंत्रिमंडल से हटाया। नरेंद्र मोदी तो हमारे विजय त्रिवेदी के सवालों का जवाब ही नहीं दे पाए कि आप माफी मांगेंगे या नहीं। मोदी ने उनके माइक को हटा दिया। ये इंटरव्यू एऩडीटीवी इंडिया पर खूब चला था। सवाल है कि नरेंद्र मोदी हैं क्या जो माफी नहीं मांगेंगे। इस देश में छत्तीस मुख्यमंत्री हैं। बीजेपी के नेता व्यक्तिगत उपलब्धियों के जोश में बेलगाम हो गए हैं। वो तय नहीं कर पा रहे थे कि मोदी को नेता माने या आ़डवाणी को ढोयेँ। शऱद यादव की बात में दम है।
बीजेपी को कांग्रेस से सीखना चाहिए। इसके दामन पर भी दंगों के दाग थे। धुले तो नहीं लेकिन पार्टी उसके लिए माफी मांगती रहती है। बाबरी मस्जिद ढहाने की सजा अल्पसंख्यकों ने कांग्रेस को खूब दी। लेकिन कांग्रेस उनके बीच गई। योजनाएं लेकर आई। शायद इसका फायदा उसे मिल गया। कई चुनावों बाद ही सही लेकिन मिला तो। एक दिन बीजेपी भी गुजरात दंगों के लिए माफी मांगेगी। देखना है कि नरेंद्र मोदी मांगते हैं या कोई और। मुस्लिम इलाकों में इन्हें जाना ही होगा और जाकर वोट मांगना ही होगा। वर्ना कोई दयानंद पांडे और साध्वी प्रज्ञा जैसे हिंदू आतंकवाद के सपोर्ट में खड़े होकर देश पर राज नहीं करेगा। इन पर आरोप साबित नहीं हुए हैं लेकिन इस तरह के फटीचर किस्म के नेताओं पर बात ही क्यों करे। शिवसेना तो ऐसे बवाल मचा रही थी जैसे हिंदुओं को कोई देश से निकाल देगा। योगी आदित्यनाथ किस्म के नेताओं से आप गोरखपुर की सीट जीत सकते हैं देश पर राज करने का मौका नहीं मिलेगा। बीजेपी भी यह बात जानती है तभी शुरू में वरुण गांधी के बयानों से दूर रही। लेकिन तुरंत फिसल गई कि लोग तिलक लगाकर हिंदुत्व के लिए निकल रहे हैं। फटीचर किस्म की बातें करने वाला वरुण गांधी जेल से आकर किस देश की जनता को धन्यवाद दे रहा था, जो उसकी पार्टी को खारिज कर रही थी, उसको?
आडवाणी इसीलिए नेता नहीं है। वो एक महान कार्यकर्ता और संगठनकर्ता है। नेता होते तो इस तरह के तीन नंबर की पोलिटिक्स के खिलाफ उठ खड़े होते जो चाय की दुकानों पर बैठकर मुसलमानों के बारे में तरह तरह के पूर्वाग्रह गढ़ते रहते हैं। अरब का पैसा है,मदरसे में आतंकवाद की पढ़ाई है,ओसामा बिन लादेन हैं आदि आदि।
अब मूल सवाल ये है कि क्या नरेंद्र मोदी बीजेपी के लिए बोझ बन गए हैं? क्या बीजेपी सिर्फ गुजरात में ही जीत कर खुश रहेगी। गुजरात में भी मोदी का अखंड प्रभाव नहीं है। जिस खेड़ा सीट पर मोदी ने सात सभायें की वहां से कांग्रेस जीत गई। अब तक बीजेपी मोदी को किनारे रखती थी कि कहीं एनडीए न बिखर जाए लेकिन अब उसे यह सोचना पड़ेगा कि कहीं मोदी के कारण बीजेपी ने खत्म हो जाए। युवा और दूसरी पीढ़ी के नेताओं का ढिंढोरा बीजेपी कांग्रेस से पहले से पीट रही है। अटल जी के टाइम से ही पीट रही है। लेकिन एक राहुल गांधी ने बीजेपी के दूसरी पीढ़ी के नेताओं को पीछे छोड़ दिया। अरुण जेटली का एरोगेंस काम नहीं आया। हर अच्छे वकील को लगता है कि उसकी दलील सबसे अच्छी है। लेकिन जज दलीलों से नहीं सबूतों के आधार पर फैसला देता है। वकील चाहे तो भ्रम में जी सकता है कि उसी की दलील के कारण जीत मिली है।
नीतीश नरेंद्र की नौटंकी
अच्छा लगा नरेंद्र मोदी के हाथ में नीतीश कुमार का हाथ देखकर। मोदी ने थामा भी था मज़बूती से। फ्रेम में नीतीश उस नेता की तरह लग रहे थे जो बड़े नेता के साथ फोटू खींचवाकर गदगद हो जाता है। चुनाव शुरू होने से पहले नीतीश ने साफ साफ कहा था कि नरेंद्र मोदी के साथ मंच साझा करने की कोई ज़रूरत नहीं। सवाल पूछने वाली एनडीटीवी की पत्रकार साफ साफ कह रही थी कि आप कभी मोदी के साथ मंच शेयर नहीं करेंगे तो नीतीश यही जवाब देते कि उसकी ज़रूरत कहां है। ये नहीं कहा कि हां कभी नहीं करेंगे। सवाल का संदर्भ यह था कि नरेंद्र मोदी बिहार में प्रचार क्यों नहीं कर रहे हैं? जवाब में नीतीश ने कहा कि बिहार में नेताओं की कमी नहीं है।
यह सब चाल था। बिहार में वोटिंग के खत्म होते ही नीतीश कुमार नरेंद्र मोदी के साथ मंच साझा करने चले गए। हाथ भी उठा कर कहा कि बेवकूफ पत्रकारों हम कभी एक दूसरे को इग्नोर नहीं करते थे। बेवकूफ मुसलमानों तुम तो बेवकूफ थे ही। जिस तरह कांग्रेस ने तुमको बेवकूफ बनाया तो थोड़ा हमने भी बना लिया। बिहार में मुसलमानों ने अगर नीतीश की इस छवि पर भरोसा किया होगा कि वे सुशील मोदी से दोस्ती और नरेंद्र मोदी से दुश्मनी रखेंगे तो वे उल्लू बन गए। विकास पर भोट दिया होगा तो उन्हें इस बात से मतलब नहीं रखना चाहिए कि शाम को नीतीश पार्टी में किस किस से मिलते हैं। विकास का काम करते करते कोई थक जाए तो आराम के लिए दो चार दोस्तों से बात करने का हक है।
लेकिन नौटंकी क्यों की नीतीश कुमार ने? क्यों कहा कि नरेंद्र मोदी को बिहार आने की ज़रूरत नहीं है? क्यों कहा कि मोदी के साथ मंच साझा करने की ज़रूरत नहीं हैं? संघ परिवार के साथ जो रहता है उसे परिवार में रहने की आदत हो जाती है। कांग्रेस भी उल्लू निकली। नीतीश को बुलाने गई थी। बीजेपी को ही बुला लेती। दरअसल यही नीतीश कुमार है। वो भी एक अच्छी छवि की राजनीति के चालाक बाज़ीगर हैं। बेवकूफ बन गए लालू और पासवान। बता नहीं पाए मुसलमानों को।
अच्छा हुआ नीतीश और नरेंद्र दामोदर भाई मिल गए। वर्ना दिल्ली से लेकर पटना तक के पत्रकार फालतूबाज़ी में टाइम खराब कर रहे थे। राहुल गांधी भी झांसे में आ गए। नीतीश की तारीफ ही कर दी। तारीफ करने से कोई उस पार से इस पार आ जाए तो हो चुकी राजनीति। नीतीश ने बिहार में सेकुलर वोटरों को बेवकूफ बनाया। अपनी छवि और दांव को अंधेरे में रखकर ऐसा जाल फेंका कि फंस गए भाई लोग। स्मार्ट नेता है नीतीश कुमार। ठीक किया। जब दुनिया ही उल्लू बनना चाहती हो तो क्यों न बनाये भाई। राजनीति कर रहे हैं कोई समाजसेवा थोड़े ही कर रहे हैं। अच्छा होता कि बिहार में मतदान से पहले मोदी से हाथ मिलाकर दिखा देते। हम भी देखते कि कितनी ताकत है नीतीश कुमार में। कमज़ोर नेता हमेशा अपने घर के पिछवाड़े कई दरवाज़े बनवाता है। जानता है कि कभी इससे निकलना होगा तो कभी उससे निकलना होगा।
नीतीश जी आप बिहार का विकास करते रहिए। कानून व्यवस्था और सड़क तो चाहिए भाई। लालू के बस की बात नहीं है। बस ड्रामा मत कीजिए। आप नरेंद्र मोदी से ज़रूर मिलिये। क्योंकि वो बड़े कद वाले संघी नेता हैं। आज आडवाणी जी की डफली बजा रहे हैं कल मोदी के लिए तो बजानी ही पड़ेगी। अब ड्रामेबाज़ी की इस सूरत में आप पीएम तक का ख्वाब छोड़ ही दीजिए। लुधियाना में मोदी भाई से हाथ मिलाकर आप उनके नंबर टू तो बन ही गए। ये क्या कम है। बस मलाल यही है कि बिहार में वोटिंग के पहले आप ये कर के दिखा देते? कम से कम मेरा भी तो भ्रम टूट जाता कि आप मामूली नेता हैं।
यह सब चाल था। बिहार में वोटिंग के खत्म होते ही नीतीश कुमार नरेंद्र मोदी के साथ मंच साझा करने चले गए। हाथ भी उठा कर कहा कि बेवकूफ पत्रकारों हम कभी एक दूसरे को इग्नोर नहीं करते थे। बेवकूफ मुसलमानों तुम तो बेवकूफ थे ही। जिस तरह कांग्रेस ने तुमको बेवकूफ बनाया तो थोड़ा हमने भी बना लिया। बिहार में मुसलमानों ने अगर नीतीश की इस छवि पर भरोसा किया होगा कि वे सुशील मोदी से दोस्ती और नरेंद्र मोदी से दुश्मनी रखेंगे तो वे उल्लू बन गए। विकास पर भोट दिया होगा तो उन्हें इस बात से मतलब नहीं रखना चाहिए कि शाम को नीतीश पार्टी में किस किस से मिलते हैं। विकास का काम करते करते कोई थक जाए तो आराम के लिए दो चार दोस्तों से बात करने का हक है।
लेकिन नौटंकी क्यों की नीतीश कुमार ने? क्यों कहा कि नरेंद्र मोदी को बिहार आने की ज़रूरत नहीं है? क्यों कहा कि मोदी के साथ मंच साझा करने की ज़रूरत नहीं हैं? संघ परिवार के साथ जो रहता है उसे परिवार में रहने की आदत हो जाती है। कांग्रेस भी उल्लू निकली। नीतीश को बुलाने गई थी। बीजेपी को ही बुला लेती। दरअसल यही नीतीश कुमार है। वो भी एक अच्छी छवि की राजनीति के चालाक बाज़ीगर हैं। बेवकूफ बन गए लालू और पासवान। बता नहीं पाए मुसलमानों को।
अच्छा हुआ नीतीश और नरेंद्र दामोदर भाई मिल गए। वर्ना दिल्ली से लेकर पटना तक के पत्रकार फालतूबाज़ी में टाइम खराब कर रहे थे। राहुल गांधी भी झांसे में आ गए। नीतीश की तारीफ ही कर दी। तारीफ करने से कोई उस पार से इस पार आ जाए तो हो चुकी राजनीति। नीतीश ने बिहार में सेकुलर वोटरों को बेवकूफ बनाया। अपनी छवि और दांव को अंधेरे में रखकर ऐसा जाल फेंका कि फंस गए भाई लोग। स्मार्ट नेता है नीतीश कुमार। ठीक किया। जब दुनिया ही उल्लू बनना चाहती हो तो क्यों न बनाये भाई। राजनीति कर रहे हैं कोई समाजसेवा थोड़े ही कर रहे हैं। अच्छा होता कि बिहार में मतदान से पहले मोदी से हाथ मिलाकर दिखा देते। हम भी देखते कि कितनी ताकत है नीतीश कुमार में। कमज़ोर नेता हमेशा अपने घर के पिछवाड़े कई दरवाज़े बनवाता है। जानता है कि कभी इससे निकलना होगा तो कभी उससे निकलना होगा।
नीतीश जी आप बिहार का विकास करते रहिए। कानून व्यवस्था और सड़क तो चाहिए भाई। लालू के बस की बात नहीं है। बस ड्रामा मत कीजिए। आप नरेंद्र मोदी से ज़रूर मिलिये। क्योंकि वो बड़े कद वाले संघी नेता हैं। आज आडवाणी जी की डफली बजा रहे हैं कल मोदी के लिए तो बजानी ही पड़ेगी। अब ड्रामेबाज़ी की इस सूरत में आप पीएम तक का ख्वाब छोड़ ही दीजिए। लुधियाना में मोदी भाई से हाथ मिलाकर आप उनके नंबर टू तो बन ही गए। ये क्या कम है। बस मलाल यही है कि बिहार में वोटिंग के पहले आप ये कर के दिखा देते? कम से कम मेरा भी तो भ्रम टूट जाता कि आप मामूली नेता हैं।
कौन बनेगा प्रधानमंत्री; राहुल और गठबंधन धर्म
प्रभात शुंगलू
पूर्व प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने यूनाइटेड फ्रंट सरकार के दौरान कहा था भारतीय राजनीति में गठबंधन सरकार का दौर अगले बीस साल चलेगा। वीपी सिंह की ये भविष्यवाणी चुनाव दर चुनाव सच साबित हो रहीं क्योंकि राष्ट्रीय पार्टियां दूर दराज वोटरों से दूर होती गयीं और उनकी जगह क्षेत्रीय पार्टियों ने वोटरों की उम्मीदों को उड़ान दी। सेफोलॉजिस्ट की मानें तो पन्द्रहवीं लोकसभा चुनाव के नतीजे भी किसी एक दल या गठबंधन के पक्ष में नहीं होंगे। यानि हंग पार्लियामेंट होगी। यानि 16 मई के बाद जोड़-तोड़ होगी, पाले बदले जायेंगे, नये दोस्त बनेंगे, दोस्त दगा देंगे और दुश्मन दोस्त बनेंगे। एक सीट वाली पार्टी का कद भी बढ़ेगा। उसकी सीट की भी दरकार होगी। जो इस खेल में बाजी मारेगा वो सरकार बनायेगा। राहुल, आडवाणी, करात सब उम्मीद से लबरेज हैं।
पांचवे और आखिरी दौर का मतदान अभी बाकी है मगर कयासों का बाजार गर्म है। किसकी सरकार बनेगी। और मिलियन डॉलर सवाल कौन बनेगा प्रधानमंत्री। ये पहला चुनाव है जिसमें प्रधानमंत्री के कई दावेदार हैं। कुछ ऑफिशियल कुछ अनऑफिशियल। यानि मनमोहन और आडवाणी के अलावा शरद पवार, मुलायम सिंह यादव, राम विलास पासवान, चंद्रबाबू नायडू, नीतीश कुमार, मायावती, जयललिता इत्यादि ये सभी पीएम बनने की कतार में नजर आते हैं। वैसे 1996 में जिस तरह से देवेगौड़ा डार्क हॉर्स बन कर उभरे थे उसने सभी को सन्न कर दिया था। इस बार का डार्क हॉर्स कौन होगा ये देवेगौड़ा को भी नहीं मालूम।
बहरहाल, एक बात तय है। राहुल गांधी प्रधानमंत्री नहीं होंगे। उन्होने और मां सोनिया ने बयार का रूख भांप लिया है। युवराज राहुल एक खिचड़ी सरकार का नेतृत्व नहीं करेंगे। उनकी एंट्री मनमोहन देसाई फिल्म में अमिताभ बच्चन की एंट्री की तरह ग्रैंड, ड्रामेटिक और 70 एमएम होगी। जब कांग्रेस अपने बल पर लोकसभा में 272 सीट जुटा कर लायेगी। वो जब होगा तब होगा। फिलहाल खुद राहुल भी 'मनमोहनजी' से बेहतर विकल्प यूपीए के किसी नेता को नहीं मानते। मगर सहयोगियों में अब ये तेवर चरम पर है कि मैं भी प्रधानमंत्री।
ये सारी वो पार्टियां हैं जो कांग्रेस की तरह करीब साढ़े चार सौ सीटों पर नहीं लड़ रहीं। ये सारी वो पार्टियां हैं जिनमें से कई राष्ट्रीय पार्टियों की गिनती में नहीं आती। इनमें से कुछ पार्टियां ऐसी हैं जिनकी बुनियाद ही गैर कांग्रेसवाद पर टिकी है। इनमें से कई पार्टियां वो हैं जो कांग्रेसी कल्चर की घुटन से निकलकर अपना अपना नया घरौंदा बना चुकी हैं। इनकी अब अपनी सोच है। अपनी लश्कर है। अपना खुला आसमान है। इनमें से ज्यादातर पार्टियां पचास सीट भी नहीं लड़ रहीं। पर इन सब में एक एम्बिशन कुलांचे मार रहा। और वो है पीएम बनने का। ये वो पार्टियां हैं जो अपने स्वार्थ और राजनीतिक लोभ में कांग्रेस के साथ मिलकर काम तो कर सकती हैं पर उसका वर्चस्व नहीं स्वीकार कर सकती।
2009 की एनडीए सिकुड़ कर 7 पार्टियों की टोली रह गयी है। मगर यूपीए में जो घमासान अंदर ही अंदर है उससे उसकी राजनीतिक सेहत का अंदाजा लगाया जा सकता है। यूपीए के अंदर लालू, पासवान और मुलायम का चौथा मोर्चा खुल चुका है। शरद पवार अपनी ढपली पीट रहे। राहुल बाबा नें लेफ्ट से हाथ मिलाने के चक्कर में ममता दीदी को नाराज कर दिया है। डीएमके भी नाराज है कि राहुल बाबा जयललिता से भी दोस्ती की पींगे बढ़ा रहे। आंध्र प्रदेश के चंद्रबाबू नायडू भी राहुल के मुताबिक विकास पुरूष हैं। नीतीश ने भी बिहार का नक्शा बदल दिया है, इसलिये वो भी राहुल की मोस्ट फेवर्ड विपक्षी नेता की लिस्ट में हैं। तो क्या ये माना जाये राहुल गांधी ने आंध्र प्रदेश, तमिलनाडू और बिहार में कांग्रेस की हार मान ली है। यूपी में राहुल अमेठी, रायबरेली और ब्रिटिश विदेश मंत्री मिलीबैंड के सहारे कितनी सीट जीत लेंगे इसपर कयास लगाना बेकार है। यूपी में तो मुलायम भी साथ नहीं हैं। पवार को उलाहना दे रहे कि जिस दिन हमारे बराबर सीट जीतोगे प्रधानमंत्री बन जाना। यानि यूपीए में राहुल और कांग्रेस अपनी राग अलाप रहे और सहयोगी दूसरी।
इसीलिये राहुल बाबा को संदेह हो रहा यूपीए अपने दम पर क्या सरकार बना पायेगा। और ऊपर से डर ये कि चुनाव बाद कहीं गठबंधन बिखर न जाये। लेफ्ट समुद्र में जाल डाले बैठा है। आडवाणी ने भी हार नहीं मानी है। आखिर जो आज यूपीए और थर्ड फ्रंट में हैं उनमें से कुछ कल वाजपेयी के एनडीए में थे। इसलिये आडवाणी भी उम्मीद का एक छोर कस कर पकड़ कर बैठे हैं।
ये चुनाव आडवाणी के लिये डू और डाई है तो राहुल के लिये भी किसी अग्नि परीक्षा से कम नहीं। इन चुनावों में राहुल कांग्रेस के स्टार प्रचारक साबित हुये। एक लाख किलोमीटर नापे और आंध्र प्रदेश से कश्मीर तक पार्टी का रात दिन प्रचार किया। आडवाणी और सोनिया के मुकाबले लगभग 30 हजार किलोमीटर ज्यादा उड़े। पार्टी ने ब्रांड राहुल गांधी को खूब बेचा। ये बात पार्टी के अंदर अब किसी से नहीं छुपी नही कि वो समय दूर नहीं जब राहुल ही पार्टी का नेतृत्व संभालेंगे और समय रहते देश की कमान भी।
फिलहाल राहुल के लिये सबसे बड़ा इम्तेहान होगा गठबंधन को बचाना। उसके लिये युवराज राहुल को जमीनी हकीकत समझनी पड़ेगी। गठबंधन के जूनियर पार्टनर्स का दर्द समझना होगा। पवार ने महाराष्ट्र में कांग्रेस से ज्यादा सीटें बटोरी मगर मुख्यमंत्री कांग्रेस का बनवाया। युवराज राहुल गांधी को भी सहयोगियों के लिये कुछ ऐसे ही सैक्रीफाइस का जज्बा पैदा करना पड़ेगा। 1937के यूपी के चुनावों के बाद मुस्लिम लीग को सत्ता की भागीदारी से दूर रखने का इल्जाम नेहरू पर लगा था। मुस्लिम लीगी नेताओं में वहीं से प्रबल हुयी पाकिस्तान की सोच। परपोते को हक है परदादा पर लगे उस दाग को धोने का।
(लेखक IBN7 से जुड़े हैं )
पूर्व प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने यूनाइटेड फ्रंट सरकार के दौरान कहा था भारतीय राजनीति में गठबंधन सरकार का दौर अगले बीस साल चलेगा। वीपी सिंह की ये भविष्यवाणी चुनाव दर चुनाव सच साबित हो रहीं क्योंकि राष्ट्रीय पार्टियां दूर दराज वोटरों से दूर होती गयीं और उनकी जगह क्षेत्रीय पार्टियों ने वोटरों की उम्मीदों को उड़ान दी। सेफोलॉजिस्ट की मानें तो पन्द्रहवीं लोकसभा चुनाव के नतीजे भी किसी एक दल या गठबंधन के पक्ष में नहीं होंगे। यानि हंग पार्लियामेंट होगी। यानि 16 मई के बाद जोड़-तोड़ होगी, पाले बदले जायेंगे, नये दोस्त बनेंगे, दोस्त दगा देंगे और दुश्मन दोस्त बनेंगे। एक सीट वाली पार्टी का कद भी बढ़ेगा। उसकी सीट की भी दरकार होगी। जो इस खेल में बाजी मारेगा वो सरकार बनायेगा। राहुल, आडवाणी, करात सब उम्मीद से लबरेज हैं।
पांचवे और आखिरी दौर का मतदान अभी बाकी है मगर कयासों का बाजार गर्म है। किसकी सरकार बनेगी। और मिलियन डॉलर सवाल कौन बनेगा प्रधानमंत्री। ये पहला चुनाव है जिसमें प्रधानमंत्री के कई दावेदार हैं। कुछ ऑफिशियल कुछ अनऑफिशियल। यानि मनमोहन और आडवाणी के अलावा शरद पवार, मुलायम सिंह यादव, राम विलास पासवान, चंद्रबाबू नायडू, नीतीश कुमार, मायावती, जयललिता इत्यादि ये सभी पीएम बनने की कतार में नजर आते हैं। वैसे 1996 में जिस तरह से देवेगौड़ा डार्क हॉर्स बन कर उभरे थे उसने सभी को सन्न कर दिया था। इस बार का डार्क हॉर्स कौन होगा ये देवेगौड़ा को भी नहीं मालूम।
बहरहाल, एक बात तय है। राहुल गांधी प्रधानमंत्री नहीं होंगे। उन्होने और मां सोनिया ने बयार का रूख भांप लिया है। युवराज राहुल एक खिचड़ी सरकार का नेतृत्व नहीं करेंगे। उनकी एंट्री मनमोहन देसाई फिल्म में अमिताभ बच्चन की एंट्री की तरह ग्रैंड, ड्रामेटिक और 70 एमएम होगी। जब कांग्रेस अपने बल पर लोकसभा में 272 सीट जुटा कर लायेगी। वो जब होगा तब होगा। फिलहाल खुद राहुल भी 'मनमोहनजी' से बेहतर विकल्प यूपीए के किसी नेता को नहीं मानते। मगर सहयोगियों में अब ये तेवर चरम पर है कि मैं भी प्रधानमंत्री।
ये सारी वो पार्टियां हैं जो कांग्रेस की तरह करीब साढ़े चार सौ सीटों पर नहीं लड़ रहीं। ये सारी वो पार्टियां हैं जिनमें से कई राष्ट्रीय पार्टियों की गिनती में नहीं आती। इनमें से कुछ पार्टियां ऐसी हैं जिनकी बुनियाद ही गैर कांग्रेसवाद पर टिकी है। इनमें से कई पार्टियां वो हैं जो कांग्रेसी कल्चर की घुटन से निकलकर अपना अपना नया घरौंदा बना चुकी हैं। इनकी अब अपनी सोच है। अपनी लश्कर है। अपना खुला आसमान है। इनमें से ज्यादातर पार्टियां पचास सीट भी नहीं लड़ रहीं। पर इन सब में एक एम्बिशन कुलांचे मार रहा। और वो है पीएम बनने का। ये वो पार्टियां हैं जो अपने स्वार्थ और राजनीतिक लोभ में कांग्रेस के साथ मिलकर काम तो कर सकती हैं पर उसका वर्चस्व नहीं स्वीकार कर सकती।
2009 की एनडीए सिकुड़ कर 7 पार्टियों की टोली रह गयी है। मगर यूपीए में जो घमासान अंदर ही अंदर है उससे उसकी राजनीतिक सेहत का अंदाजा लगाया जा सकता है। यूपीए के अंदर लालू, पासवान और मुलायम का चौथा मोर्चा खुल चुका है। शरद पवार अपनी ढपली पीट रहे। राहुल बाबा नें लेफ्ट से हाथ मिलाने के चक्कर में ममता दीदी को नाराज कर दिया है। डीएमके भी नाराज है कि राहुल बाबा जयललिता से भी दोस्ती की पींगे बढ़ा रहे। आंध्र प्रदेश के चंद्रबाबू नायडू भी राहुल के मुताबिक विकास पुरूष हैं। नीतीश ने भी बिहार का नक्शा बदल दिया है, इसलिये वो भी राहुल की मोस्ट फेवर्ड विपक्षी नेता की लिस्ट में हैं। तो क्या ये माना जाये राहुल गांधी ने आंध्र प्रदेश, तमिलनाडू और बिहार में कांग्रेस की हार मान ली है। यूपी में राहुल अमेठी, रायबरेली और ब्रिटिश विदेश मंत्री मिलीबैंड के सहारे कितनी सीट जीत लेंगे इसपर कयास लगाना बेकार है। यूपी में तो मुलायम भी साथ नहीं हैं। पवार को उलाहना दे रहे कि जिस दिन हमारे बराबर सीट जीतोगे प्रधानमंत्री बन जाना। यानि यूपीए में राहुल और कांग्रेस अपनी राग अलाप रहे और सहयोगी दूसरी।
इसीलिये राहुल बाबा को संदेह हो रहा यूपीए अपने दम पर क्या सरकार बना पायेगा। और ऊपर से डर ये कि चुनाव बाद कहीं गठबंधन बिखर न जाये। लेफ्ट समुद्र में जाल डाले बैठा है। आडवाणी ने भी हार नहीं मानी है। आखिर जो आज यूपीए और थर्ड फ्रंट में हैं उनमें से कुछ कल वाजपेयी के एनडीए में थे। इसलिये आडवाणी भी उम्मीद का एक छोर कस कर पकड़ कर बैठे हैं।
ये चुनाव आडवाणी के लिये डू और डाई है तो राहुल के लिये भी किसी अग्नि परीक्षा से कम नहीं। इन चुनावों में राहुल कांग्रेस के स्टार प्रचारक साबित हुये। एक लाख किलोमीटर नापे और आंध्र प्रदेश से कश्मीर तक पार्टी का रात दिन प्रचार किया। आडवाणी और सोनिया के मुकाबले लगभग 30 हजार किलोमीटर ज्यादा उड़े। पार्टी ने ब्रांड राहुल गांधी को खूब बेचा। ये बात पार्टी के अंदर अब किसी से नहीं छुपी नही कि वो समय दूर नहीं जब राहुल ही पार्टी का नेतृत्व संभालेंगे और समय रहते देश की कमान भी।
फिलहाल राहुल के लिये सबसे बड़ा इम्तेहान होगा गठबंधन को बचाना। उसके लिये युवराज राहुल को जमीनी हकीकत समझनी पड़ेगी। गठबंधन के जूनियर पार्टनर्स का दर्द समझना होगा। पवार ने महाराष्ट्र में कांग्रेस से ज्यादा सीटें बटोरी मगर मुख्यमंत्री कांग्रेस का बनवाया। युवराज राहुल गांधी को भी सहयोगियों के लिये कुछ ऐसे ही सैक्रीफाइस का जज्बा पैदा करना पड़ेगा। 1937के यूपी के चुनावों के बाद मुस्लिम लीग को सत्ता की भागीदारी से दूर रखने का इल्जाम नेहरू पर लगा था। मुस्लिम लीगी नेताओं में वहीं से प्रबल हुयी पाकिस्तान की सोच। परपोते को हक है परदादा पर लगे उस दाग को धोने का।
(लेखक IBN7 से जुड़े हैं )
पित्ज़ा हट
दिल्ली के निज़ामुद्दीन पुल से बायें मुड़ते ही यह बूढ़ी औरत नज़र आई। मैं दफ्तर जा रहा था। डिवाइडर पर बैठी तपती धूप में इस औरत को एक झोंपड़ी की ज़रूरत तो होगी ही। शायद कुछ खाना भी। नज़र पड़ी प्लास्टिक के उस थैले पर जिसपर
लिखा है पित्ज़ा हट। हट का मतलब तो झोंपड़ी ही है और पित्ज़ा से भूख तो मिट ही जाती है। मैंने गाड़ी रोकी और मोबाइल फोन से ये तस्वीर ले ली।
बब्लू ने वोट नहीं दिया बदनाम पप्पू हो गया
सब वोट न देने वाले वोटर को गरिया रहे हैं। पप्पू बता रहे हैं। बब्लू ने वोट नहीं दिया बदनाम पप्पू को कर दिया। ठीक बात नहीं है। जिनके भी नाम पप्पू हैं वो इनदिनों मुश्किल में हैं। वोट देने के बाद भी बच्चे पप्पू पास या पप्पू फेल चिढ़ाते हैं। इस पर एक स्पेशल रिपोर्ट तैयार की और अलग अलग इलाकों के पप्पुओं से बात की तो व्यथा का अंदाज़ा लगा। कानपुर के पप्पू पनीर वाले हों या राजकोट के मशहूर कपड़ा व्यापारी पप्पू मनदानी या फिर इलाहाबाद के एजी आफिस के सामने चाय की दुकान लगाने वाले पप्पू तिवारी। सब परेशान हैं कि पप्पू ही क्यों बदनाम हैं?
बहुत नाइंसाफी है ये। अंग्रेज़ी के टॉम डिक एंड हैरी की तरह पप्पू, मुन्ना या बब्लू की औकात है। मेरे अंदाज़े में टॉम डिक एंड हैरी यूरोपीय समाज के सबसे प्रचलित पुकार के नाम रहे होंगे। उनकी सर्वसुलभ उपलब्धता के विरोध में ही कोई खास नाम वाले शख्स इनका उपहास करते होंगे। हमारे समाज में भी यही हो रहा है। पहले मोहल्लों में पप्पू मुन्ना और गुड्डू ही पुकार के प्रचलित नाम थे। आज भी होंगे। समाज पूरी तरह से एकदम कभी नहीं बदलता। नया पुराना साथ चलता रहता है। लेकिन अमीर लोगों ने अपने बच्चों के लिए अलग नाम रखे। डॉली, डेज़ी और गोल्डी। ये सब खास नाम होते हैं। इनके बरक्स पप्पू नाम की सर्वसुलभता कमज़ोरी की तरह देखी गई।
जुलाई २००८ में विश्वास मत पर हुई बहस के दौरान राहुल गांधी ने कलावती का ज़िक्र किया तो सब हंसे। विरोध में लालू उठ खड़े हुए और कहा कि कलावती, लीलावती हमारे घर की बेटियों के नाम होते हैं। आप हंसते हैं। अगर यही नाम डम्पी फम्पी होता तो हंसते क्या? सबने हंस दिया। नाम को लेकर कुलीनता बरती जाती है। हैसियत नापी जाती है।
बाबा विलियम शेक्सपीयर को नामों की पीड़ा सताती होगी।तभी कहा होगा व्हाट्स इन ए नेम। पर बाबा विलियम सारे गेम तो नेम में ही है। हम अपने पुकार के नाम को लेकर शर्मिंदा होते रहते हैं। जब बड़े हो जाते हैं तो दफ्तर में बताने से संकोच करते हैं। जब मैंने अपने दफ्तर में लोगों से पूछना शुरू किया तो जवाब मिला कि पहले तुम अपना बताओ। कई लोग इस बात का इंतज़ार करते रहे कि पहले सब बता दें तब अपना बता दें। एक मोहतरमा ने अपना नाम बहुत धीरे से बताया तो एक मोहतरमा ने भीड़ से हटकर दो तीन क्लोज दोस्तों के बीच बताया तो एक मोहतरमा ने बुदबुदाकर बताया।
नाम को लेकर बायस यानी पूवाग्रह हमारे भीतर है। नई बात नहीं है। लेकिन पप्पू पर इतना हमला क्यों। कैडबरी के विज्ञापन में पप्पू पास हो गया के रचनाकार अरशद सरदार से पूछा तो यही कहा कि ये बहुत ही कॉमन नाम है। लेकिन उन्हें भी उम्मीद नहीं थी कि इसके बाद पप्पू हमेशा के लिए नकारेपन से जुड़ जाएगा। पप्पू कांट डांस साला के बाद पप्पू वोट नहीं देता।
चुनाव में सारा ज़ोर हम वोट पर ही डालते हैं। मुद्दों पर कम। हम ये जानना ही नहीं चाहते हैं कि क्यों कोई वोट नहीं देने गया? कोई न कोई कारण रहा होगा।सिर्फ लोकतंत्र के प्रति उदासीनता ही अंतिम कारण नहीं हो सकता। वोट न देना पप्पू होना हो गया।
इलाहाबाद के पप्पू तिवारी ने कहा कि हम तो वोट देने गए थे लेकिन हमारा नाम ही नहीं था। अब बोलिये हम बदनाम हुए न। कानपुर के पप्पू पनीर वाले ने कहा कि हम वोट देकर आए हैं लेकिन आप वोट दीजिए वर्ना मैं बदनाम हो जाऊंगा। मध्यप्रदेश में कुछ लोगों ने हंगामा कर दिया। इन सबके नाम पप्पू हैं। एक की बेटी ने कहा कि सब मेरे पापा को पप्पू कहते हैं। उनके पप्पू नाम का मज़ाक उड़ाते हैं।
मेरी मां ने अपने पोते से मज़ाक किया कि तुम्हारे पापा का नाम पप्पू रख देंगे। उस वक्त स्पेशल रिपोर्ट आ रही थी। मेरे भतीजे ने कहा पप्पू मत रखना। सब मज़ाक उड़ायेंगे। हमें लगता है कि जागरूक करने का कोई और तरीका निकलता। पप्पू को बेकार ही बदनाम किया गया। दिल्ली में बावन तिरेपन फीसदी वोट पड़े तो लोगों ने कहा कि पप्पू विज्ञापन का कमाल है। पश्चिम बंगाल में तो लोगों पचहत्तर फीसदी मतदान किया, क्या वो भी पप्पू विज्ञापन का कमाल था। अगर दिल्ली की ही बात करें तो कुछ हद तक पप्पू विज्ञापन का हाथ हो सकता है, और इसी के कारण लोग वोट देने गए इसकी गहन जांच होनी चाहिए। गए भी तो क्या बावन फीसदी इतना बड़ा प्रतिशत तो नहीं कि जश्न मनायें। आधे लोग तो नहीं निकले न। इस बात के बाद भी कि लोग पप्पू कहेंगे। तो पप्पू विज्ञापन का फायदा क्या हुआ?
इसलिए प्लीज़ पप्पू को छोड़ दीजिए। राजू, गुड्डू, मुन्ना और पिंटू ये सब प्यार के नाम हैं। इनका सम्मान कीजिए। दफ्तर में बताइये कि मैं यहां रॉकी हूं और घर में राजू हूं। शर्मिंदा होना छोड़ दीजिए। पप्पू का मज़ाक मत उड़ाइये।
बहुत नाइंसाफी है ये। अंग्रेज़ी के टॉम डिक एंड हैरी की तरह पप्पू, मुन्ना या बब्लू की औकात है। मेरे अंदाज़े में टॉम डिक एंड हैरी यूरोपीय समाज के सबसे प्रचलित पुकार के नाम रहे होंगे। उनकी सर्वसुलभ उपलब्धता के विरोध में ही कोई खास नाम वाले शख्स इनका उपहास करते होंगे। हमारे समाज में भी यही हो रहा है। पहले मोहल्लों में पप्पू मुन्ना और गुड्डू ही पुकार के प्रचलित नाम थे। आज भी होंगे। समाज पूरी तरह से एकदम कभी नहीं बदलता। नया पुराना साथ चलता रहता है। लेकिन अमीर लोगों ने अपने बच्चों के लिए अलग नाम रखे। डॉली, डेज़ी और गोल्डी। ये सब खास नाम होते हैं। इनके बरक्स पप्पू नाम की सर्वसुलभता कमज़ोरी की तरह देखी गई।
जुलाई २००८ में विश्वास मत पर हुई बहस के दौरान राहुल गांधी ने कलावती का ज़िक्र किया तो सब हंसे। विरोध में लालू उठ खड़े हुए और कहा कि कलावती, लीलावती हमारे घर की बेटियों के नाम होते हैं। आप हंसते हैं। अगर यही नाम डम्पी फम्पी होता तो हंसते क्या? सबने हंस दिया। नाम को लेकर कुलीनता बरती जाती है। हैसियत नापी जाती है।
बाबा विलियम शेक्सपीयर को नामों की पीड़ा सताती होगी।तभी कहा होगा व्हाट्स इन ए नेम। पर बाबा विलियम सारे गेम तो नेम में ही है। हम अपने पुकार के नाम को लेकर शर्मिंदा होते रहते हैं। जब बड़े हो जाते हैं तो दफ्तर में बताने से संकोच करते हैं। जब मैंने अपने दफ्तर में लोगों से पूछना शुरू किया तो जवाब मिला कि पहले तुम अपना बताओ। कई लोग इस बात का इंतज़ार करते रहे कि पहले सब बता दें तब अपना बता दें। एक मोहतरमा ने अपना नाम बहुत धीरे से बताया तो एक मोहतरमा ने भीड़ से हटकर दो तीन क्लोज दोस्तों के बीच बताया तो एक मोहतरमा ने बुदबुदाकर बताया।
नाम को लेकर बायस यानी पूवाग्रह हमारे भीतर है। नई बात नहीं है। लेकिन पप्पू पर इतना हमला क्यों। कैडबरी के विज्ञापन में पप्पू पास हो गया के रचनाकार अरशद सरदार से पूछा तो यही कहा कि ये बहुत ही कॉमन नाम है। लेकिन उन्हें भी उम्मीद नहीं थी कि इसके बाद पप्पू हमेशा के लिए नकारेपन से जुड़ जाएगा। पप्पू कांट डांस साला के बाद पप्पू वोट नहीं देता।
चुनाव में सारा ज़ोर हम वोट पर ही डालते हैं। मुद्दों पर कम। हम ये जानना ही नहीं चाहते हैं कि क्यों कोई वोट नहीं देने गया? कोई न कोई कारण रहा होगा।सिर्फ लोकतंत्र के प्रति उदासीनता ही अंतिम कारण नहीं हो सकता। वोट न देना पप्पू होना हो गया।
इलाहाबाद के पप्पू तिवारी ने कहा कि हम तो वोट देने गए थे लेकिन हमारा नाम ही नहीं था। अब बोलिये हम बदनाम हुए न। कानपुर के पप्पू पनीर वाले ने कहा कि हम वोट देकर आए हैं लेकिन आप वोट दीजिए वर्ना मैं बदनाम हो जाऊंगा। मध्यप्रदेश में कुछ लोगों ने हंगामा कर दिया। इन सबके नाम पप्पू हैं। एक की बेटी ने कहा कि सब मेरे पापा को पप्पू कहते हैं। उनके पप्पू नाम का मज़ाक उड़ाते हैं।
मेरी मां ने अपने पोते से मज़ाक किया कि तुम्हारे पापा का नाम पप्पू रख देंगे। उस वक्त स्पेशल रिपोर्ट आ रही थी। मेरे भतीजे ने कहा पप्पू मत रखना। सब मज़ाक उड़ायेंगे। हमें लगता है कि जागरूक करने का कोई और तरीका निकलता। पप्पू को बेकार ही बदनाम किया गया। दिल्ली में बावन तिरेपन फीसदी वोट पड़े तो लोगों ने कहा कि पप्पू विज्ञापन का कमाल है। पश्चिम बंगाल में तो लोगों पचहत्तर फीसदी मतदान किया, क्या वो भी पप्पू विज्ञापन का कमाल था। अगर दिल्ली की ही बात करें तो कुछ हद तक पप्पू विज्ञापन का हाथ हो सकता है, और इसी के कारण लोग वोट देने गए इसकी गहन जांच होनी चाहिए। गए भी तो क्या बावन फीसदी इतना बड़ा प्रतिशत तो नहीं कि जश्न मनायें। आधे लोग तो नहीं निकले न। इस बात के बाद भी कि लोग पप्पू कहेंगे। तो पप्पू विज्ञापन का फायदा क्या हुआ?
इसलिए प्लीज़ पप्पू को छोड़ दीजिए। राजू, गुड्डू, मुन्ना और पिंटू ये सब प्यार के नाम हैं। इनका सम्मान कीजिए। दफ्तर में बताइये कि मैं यहां रॉकी हूं और घर में राजू हूं। शर्मिंदा होना छोड़ दीजिए। पप्पू का मज़ाक मत उड़ाइये।
मेरा वाला फोरकास्ट- अंदाज़ी टक्कर बनाम अहंकारिता
नतीजे आने तक अब इस हेडेक से गुज़रना होगा। पहले फिल्ड वाले पत्रकार दावा करते थे कि इसको एतना आयेगा और उसको ओतना आएगा। इनके दम पर संपादक दावा करते थे। अब तो अखबार भी दावा करने लगे हैं। टाइम्स ऑफ इंडिया औऱ दूसरे कई अखबार बकायदा छाप रहा है कि हमारे संपादकों की राय में इस राज्य में इस पार्टी को इतनी सीटें मिलेंगी।
अंदाज़ी-टक्कर बिहार की भाषा-बोली में एक अवधारणा की तरह मौजूद है। भोजपुरी में कहते हैं अगर मेरा लह गया तो काम चल जाएगा। पैरवी भिड़ाए थे लहा ही नहीं। बहुत लोग इम्तहान से लेकर दुकान तक में अंदाज़ी-टक्कर के सहारे एकाध नंबर लाते रहे हैं और पुराने नोट चलाते रहे हैं। लेकिन वोट का टाइम आते ही उत्साह इतना बढ़ जाता है कि पत्रकार रिज़ल्ट बताना ज़रूरी समझता है। कुछ नेता तो यह समझ कर फोन कर देते हैं कि हमारे पास उनकी सीट का कोई सर्वे पड़ा हुआ है। बोलेगा कि आप बताइये,आपको तो हमसे ज़्यादा मालूम है।
हर पत्रकार दिल पर हाथ रख कर बोले कि इस ज़्यादा मालूम या अंदाज़ी-टक्कर का आधार क्या है? कई बार कई जगहों पर उनकी बातें सहीं भी हो जाती हैं। तब तो और भी हेडेक हो जाता है। एकाध महीने तक भाई लोग छोड़ते ही नहीं है। देखा कहा था न कि कांग्रेस को दिल्ली में सात सीटें आएगीं। लेकिन ये भाई हरियाणा का ज़िक्र नहीं करेंगे जहां बोले थे कांग्रेस को आठ लेकिन मिली पांच सीटें। वहां कारण बताने लगेंगे।
चुनावी चर्चा का हिस्सा है। भला हो कोर्ट का जिसमें ओपिनियन बाज़ी बंद करा दिया। मैं इस भ्रम में जीना चाहता हूं कि मेरी सोच सर्वे में शामिल दस हज़ार लोगों से बिल्कुल अलग है। ओपिनियन बाज़ी से तंग आ गया था। गलत पर गलत। सही हो गया तो साइंस। गलत हो गया तो स्वींग। हद है भाई। फिर भी ओपिनियन बाज़ी में कुछ तो आधार होता है। ओतना तो पत्रकार लोग भी स्ट्रींगर,दोस्त,रिश्तेदार को फोन करके बोल देता है कि सीवान में लालू की हवा खराब है। ऐसा नहीं कि नहीं बोला जा सकता है। कुछ जगहों के राजनीतिक हालात का अंदाज़ा बिल्कुल किया जा सकता है। लेकिन नतीजे से पहले रिज़ल्ट की घोषणा थोड़ा ज़्यादा है।
इस बीमारी का शिकार हम खुद हो गए थे। बड़ी मु्श्किल से कंट्रोल किये हैं। वैसे ही संस्कार में कई प्रकार के अहंकार घुस आए हैं। अब नए किस्म के अहंकारों के लिए जगह नहीं बची है। लोड नहीं ले सकता। पत्रकारिता में अहंकारिता का कोर्स होना चाहिए।
पत्रकार को मालूम होना चाहिए कि उसे अपनी कामयाबी, नौकरी, एकाध बड़ी स्टोरी से उत्पन्न होने वाले अहंकार से कैसे बचा जाए या कैसे अपने पुराने व्यक्तित्व में समाहित कर निखर जाया जाए। ऐसा क्यों होता है कि जब भी कोई बड़ा काम करते हैं या हो जाता है और जिसकी वाहवाही मिलती है तो तुरंत किसी ऐसे को याद ज़रूर करते थे कि देखा भाई साहब कहते थे कि बुरबक हमीं है न। देखा दिये न।
अहंकारिता की पढ़ाई होनी चाहिए। हमारे पेशे में अहंकारों के कई अच्छे नाम हैं। एक्सक्लूसिव, ब्रेकिंग न्यूज़,फर्स्ट ऑन फलाना ढेमकाना,सबसे पहले आदि आदि। आज कल आइडिया अहंकार का सबसे बड़ा नाम है। मेरा आइडिया है। किसका आइडिया था।
अरे भाई इतने आइंस्टीन पत्रकारिता में है ही तो इतनी दुर्गती काहे हो रही है। आइडिया को लेकर इतना कपंटीशन बढ़ गया है कि पत्रकार खबर कम खोजता है,आइडिया ज़्यादा सोचता है। ट्रिक भिड़ा कर आइडिया दे देता है। ये अहंकार की अभिव्यक्ति का नया मंच है। मेरा वाला आइडिया था। ये मैंने सबसे पहले फलाने जी को बता दिया था।
हम पत्रकार लोग बीमार हो चुके हैं। अहंकार खा रहा है। सूचना और समझ की होड़ कम है। इसके दम पर हिंसक अभिव्यक्तियां ज़्यादा हैं। पत्रकार तो सिर्फ माध्यम है। वो फोटोकोपियर है। वह खोज करता है। आविष्कार नहीं करता। पत्रकारिता में अहंकारिता तो दूर नहीं की जा सकती लेकिन इससे कैसे बचें या कैसे संभाले इसका पाठ ज़रूर पढ़ाया जाना चाहिए। अगर मैं यह लिख रहा हूं तो कत्तई न समझा जाए कि मुझमें अहंकार नहीं है। है और अपने भीतर अहंकार देख पा रहा हूं तभी इसे लिख रहा हूं।
अंदाज़ी-टक्कर बिहार की भाषा-बोली में एक अवधारणा की तरह मौजूद है। भोजपुरी में कहते हैं अगर मेरा लह गया तो काम चल जाएगा। पैरवी भिड़ाए थे लहा ही नहीं। बहुत लोग इम्तहान से लेकर दुकान तक में अंदाज़ी-टक्कर के सहारे एकाध नंबर लाते रहे हैं और पुराने नोट चलाते रहे हैं। लेकिन वोट का टाइम आते ही उत्साह इतना बढ़ जाता है कि पत्रकार रिज़ल्ट बताना ज़रूरी समझता है। कुछ नेता तो यह समझ कर फोन कर देते हैं कि हमारे पास उनकी सीट का कोई सर्वे पड़ा हुआ है। बोलेगा कि आप बताइये,आपको तो हमसे ज़्यादा मालूम है।
हर पत्रकार दिल पर हाथ रख कर बोले कि इस ज़्यादा मालूम या अंदाज़ी-टक्कर का आधार क्या है? कई बार कई जगहों पर उनकी बातें सहीं भी हो जाती हैं। तब तो और भी हेडेक हो जाता है। एकाध महीने तक भाई लोग छोड़ते ही नहीं है। देखा कहा था न कि कांग्रेस को दिल्ली में सात सीटें आएगीं। लेकिन ये भाई हरियाणा का ज़िक्र नहीं करेंगे जहां बोले थे कांग्रेस को आठ लेकिन मिली पांच सीटें। वहां कारण बताने लगेंगे।
चुनावी चर्चा का हिस्सा है। भला हो कोर्ट का जिसमें ओपिनियन बाज़ी बंद करा दिया। मैं इस भ्रम में जीना चाहता हूं कि मेरी सोच सर्वे में शामिल दस हज़ार लोगों से बिल्कुल अलग है। ओपिनियन बाज़ी से तंग आ गया था। गलत पर गलत। सही हो गया तो साइंस। गलत हो गया तो स्वींग। हद है भाई। फिर भी ओपिनियन बाज़ी में कुछ तो आधार होता है। ओतना तो पत्रकार लोग भी स्ट्रींगर,दोस्त,रिश्तेदार को फोन करके बोल देता है कि सीवान में लालू की हवा खराब है। ऐसा नहीं कि नहीं बोला जा सकता है। कुछ जगहों के राजनीतिक हालात का अंदाज़ा बिल्कुल किया जा सकता है। लेकिन नतीजे से पहले रिज़ल्ट की घोषणा थोड़ा ज़्यादा है।
इस बीमारी का शिकार हम खुद हो गए थे। बड़ी मु्श्किल से कंट्रोल किये हैं। वैसे ही संस्कार में कई प्रकार के अहंकार घुस आए हैं। अब नए किस्म के अहंकारों के लिए जगह नहीं बची है। लोड नहीं ले सकता। पत्रकारिता में अहंकारिता का कोर्स होना चाहिए।
पत्रकार को मालूम होना चाहिए कि उसे अपनी कामयाबी, नौकरी, एकाध बड़ी स्टोरी से उत्पन्न होने वाले अहंकार से कैसे बचा जाए या कैसे अपने पुराने व्यक्तित्व में समाहित कर निखर जाया जाए। ऐसा क्यों होता है कि जब भी कोई बड़ा काम करते हैं या हो जाता है और जिसकी वाहवाही मिलती है तो तुरंत किसी ऐसे को याद ज़रूर करते थे कि देखा भाई साहब कहते थे कि बुरबक हमीं है न। देखा दिये न।
अहंकारिता की पढ़ाई होनी चाहिए। हमारे पेशे में अहंकारों के कई अच्छे नाम हैं। एक्सक्लूसिव, ब्रेकिंग न्यूज़,फर्स्ट ऑन फलाना ढेमकाना,सबसे पहले आदि आदि। आज कल आइडिया अहंकार का सबसे बड़ा नाम है। मेरा आइडिया है। किसका आइडिया था।
अरे भाई इतने आइंस्टीन पत्रकारिता में है ही तो इतनी दुर्गती काहे हो रही है। आइडिया को लेकर इतना कपंटीशन बढ़ गया है कि पत्रकार खबर कम खोजता है,आइडिया ज़्यादा सोचता है। ट्रिक भिड़ा कर आइडिया दे देता है। ये अहंकार की अभिव्यक्ति का नया मंच है। मेरा वाला आइडिया था। ये मैंने सबसे पहले फलाने जी को बता दिया था।
हम पत्रकार लोग बीमार हो चुके हैं। अहंकार खा रहा है। सूचना और समझ की होड़ कम है। इसके दम पर हिंसक अभिव्यक्तियां ज़्यादा हैं। पत्रकार तो सिर्फ माध्यम है। वो फोटोकोपियर है। वह खोज करता है। आविष्कार नहीं करता। पत्रकारिता में अहंकारिता तो दूर नहीं की जा सकती लेकिन इससे कैसे बचें या कैसे संभाले इसका पाठ ज़रूर पढ़ाया जाना चाहिए। अगर मैं यह लिख रहा हूं तो कत्तई न समझा जाए कि मुझमें अहंकार नहीं है। है और अपने भीतर अहंकार देख पा रहा हूं तभी इसे लिख रहा हूं।
अधूरी उदास नज़्में-सस्ती शायरी
१.
हमीं से आबाद है दिल्ली
हमीं से बर्बाद है दिल्ली
२.
तुम्हारी यादों में भींग चुका हूं
तुम आना इस बरसात के बाद
किस्सों में तेरी डूब चुका हूं
तुम आना इस बरसात के बाद
३.
इस शहर के जाम में फंस गए हैं
थोड़ा थोड़ा धीरे धीरे सरक रहे हैं
हमीं से आबाद है दिल्ली
हमीं से बर्बाद है दिल्ली
२.
तुम्हारी यादों में भींग चुका हूं
तुम आना इस बरसात के बाद
किस्सों में तेरी डूब चुका हूं
तुम आना इस बरसात के बाद
३.
इस शहर के जाम में फंस गए हैं
थोड़ा थोड़ा धीरे धीरे सरक रहे हैं
भेकुलरिज़्म ज़िंदाबाद
सेकुलर लोग सर्कुलर निकाले हैं। आज से हम सेकुलर नहीं भेकुलर कहलायेंगे। भेकुलर नई राजनीतिक प्रवृत्ति है। भेकुलरिज़्म वो प्रक्रिया है जिसके तहत सारी सेकुलर पार्टियां एक दूसरे को खत्म करने के इरादे से आपस में भिड़ जाती हैं। भिड़ने के कारण ही भेकुलरिज़्म पैदा हुआ है। कांग्रस,राजद,सापा,बसपा,लेफ(लेफ्ट फ्रंट),लोजपा,तृंका,बीजद ये सब भेकुलर दल हैं। आपस में मिलते हैं। भिड़ते हैं और फिर मिलने का आप्शन छोड़ देते हैं। भेकुलरिज़्म में एक और बात होती है। मिल बांट कर तय होता है। यूपीए में पीएम पद का नाम मिल बैठ कर होगा बाद जो बचेगा वो भी मिल बैठ कर बांट लेंगे। भेकुलरिजड्म में एक टारगेट और होता है। आपस में भिड़ कर सेकुलर दलों की संख्या या ताकत कम करना।
सेकुलर होने के लिए कबीर पढ़ना ज़रूरी नहीं है वैसे ही भेकुलर होने के लिए मुस्लिम वोट ज़रूरी नहीं है। भेकुलर होते ही सापा कल्याण सिंह को ले आई। लेफ वाले बीजद के नवीन बाबू को ले आए। कल तक वे कंधमाल में गंध फैला रहे थे आज वे सेकुलर हो गए। तो सेकुलर कभी भी हो सकते हैं। इस टेंशन में मत रहिए कि एक बार बीजेपी के साथ चले गए तो दुबारा सेकुलर नहीं हो सकते हैं। क्योंकि सब सेकुलर इम्प्योर हैं। दो इम्प्योर सेकुलर मिलकर भेकुलर मोर्चा बनाते हैं। लालू जी सेकुलर इसलिए हैं कि वे सेकुलर मोर्चे में रेल मंत्री बन जाते हैं। फिर भेकुलर होके जिसके नेतृत्व में मंत्री बन कर काम करते रहे, उसी की पार्टी को बाबरी मस्जिद गिराने का ज़िम्मेदार ठहरा देते हैं। अब कांग्रेस २००९ में तो ज़िम्मेदार नहीं हुई न। मस्जिद तो १९९२ की गिरी हुई है। तब से है। फिर २००४ में कैसे वो ज़िम्मेदार नहीं थी।
करात जी कह रहे हैं कि कांग्रेस को बाहर करेंगे। उसको सेकुलर मोर्चे की सरकार बनाने में समर्थन देना होगा। काहे भाई कांग्रेस सेकुलर नहीं है का। उसने ठेका ले रखा है कि आप लोग जब मर्ज़ी सरकार से निकल जाइये और समर्थन देने का ठेका हमरा। तो हम भी बोल दिये कांग्रेस को। लिये काहे ला एकनी के सपोर्ट। दे रहिस था तब मना कर देते न जी। विपक्षे में बैठते। वैसे ही आप बैठे ही हुए हैं। सरकार में कौन सा हिला कर रख दिए भाई लोग। सेंटी मत मारिये। करात जी ठीक बोलते हैं। भेकुलरिज़्म वो प्रक्रिया है जिसमें लेफ्ट तय करती है कि कौन सरकार बनायेगा। जिसकी बनती है या बनने वाली है वो तय नहीं कर सकते।
जब सेकुलरवन सभन के इ हाल बा हो तो बकियन न होइ। मोदी जी अलीगढ़ में बोल दीहीन कि गुजरात में मुसलमानों का पर कपिटा सबसे ज़्यादा है। अरे बुरबक बुझे हो जी हमरा। पर कैपिटा बोल रहे थे कि पर कटाई बोल रहे थे। सबसे बेसी तो गुजराते में न मुसलमान मारे गए। हिंदुओं मारे गए( बैलेंस करना पड़ता है न राइटिंग को) उ रिकार्डवा तो बोलते ही नहीं है मोदी जी। पर कैपिटा बेसी है त आप का किये हैं भाई। गांधीनगर में आडवाणी जी मुस्लिम इलाके में जाकर वोट नहीं मांगते। नदीम सैय्यद हैं वहां रहते हैं,वही कह रहे थे। का जाने का बात है। आडवाणी जी त इहे बोल रहे थे कि जो सेकुलर हैं वो स्यूडो हैं। आप कौइची स्यूडो लूडो खेल रहे हैं।
इसीलिए भैया हम कहत रहें कि सांप्रदायिक राजनीति का विरोध करो। लड़ो। लेकिन इहां तो सांप्रदायिक राजनीति का डर दिखा कर भाई लोग भेड़िया आया भेड़िया खेल रहा है। तभी तो कह रहे हैं न इ सेकुलरिज़्म नहीं है। भेकुलरिज़्म है। चुनाव बाद भेकुलर मोर्चा सरकार बना लेगा। फिर सरकार में भिड़ जाएगा। फिर चुनाव हो जाएगा। भक भुक होता रहेगा भेकुलरिज़्म में।
सेकुलर होने के लिए कबीर पढ़ना ज़रूरी नहीं है वैसे ही भेकुलर होने के लिए मुस्लिम वोट ज़रूरी नहीं है। भेकुलर होते ही सापा कल्याण सिंह को ले आई। लेफ वाले बीजद के नवीन बाबू को ले आए। कल तक वे कंधमाल में गंध फैला रहे थे आज वे सेकुलर हो गए। तो सेकुलर कभी भी हो सकते हैं। इस टेंशन में मत रहिए कि एक बार बीजेपी के साथ चले गए तो दुबारा सेकुलर नहीं हो सकते हैं। क्योंकि सब सेकुलर इम्प्योर हैं। दो इम्प्योर सेकुलर मिलकर भेकुलर मोर्चा बनाते हैं। लालू जी सेकुलर इसलिए हैं कि वे सेकुलर मोर्चे में रेल मंत्री बन जाते हैं। फिर भेकुलर होके जिसके नेतृत्व में मंत्री बन कर काम करते रहे, उसी की पार्टी को बाबरी मस्जिद गिराने का ज़िम्मेदार ठहरा देते हैं। अब कांग्रेस २००९ में तो ज़िम्मेदार नहीं हुई न। मस्जिद तो १९९२ की गिरी हुई है। तब से है। फिर २००४ में कैसे वो ज़िम्मेदार नहीं थी।
करात जी कह रहे हैं कि कांग्रेस को बाहर करेंगे। उसको सेकुलर मोर्चे की सरकार बनाने में समर्थन देना होगा। काहे भाई कांग्रेस सेकुलर नहीं है का। उसने ठेका ले रखा है कि आप लोग जब मर्ज़ी सरकार से निकल जाइये और समर्थन देने का ठेका हमरा। तो हम भी बोल दिये कांग्रेस को। लिये काहे ला एकनी के सपोर्ट। दे रहिस था तब मना कर देते न जी। विपक्षे में बैठते। वैसे ही आप बैठे ही हुए हैं। सरकार में कौन सा हिला कर रख दिए भाई लोग। सेंटी मत मारिये। करात जी ठीक बोलते हैं। भेकुलरिज़्म वो प्रक्रिया है जिसमें लेफ्ट तय करती है कि कौन सरकार बनायेगा। जिसकी बनती है या बनने वाली है वो तय नहीं कर सकते।
जब सेकुलरवन सभन के इ हाल बा हो तो बकियन न होइ। मोदी जी अलीगढ़ में बोल दीहीन कि गुजरात में मुसलमानों का पर कपिटा सबसे ज़्यादा है। अरे बुरबक बुझे हो जी हमरा। पर कैपिटा बोल रहे थे कि पर कटाई बोल रहे थे। सबसे बेसी तो गुजराते में न मुसलमान मारे गए। हिंदुओं मारे गए( बैलेंस करना पड़ता है न राइटिंग को) उ रिकार्डवा तो बोलते ही नहीं है मोदी जी। पर कैपिटा बेसी है त आप का किये हैं भाई। गांधीनगर में आडवाणी जी मुस्लिम इलाके में जाकर वोट नहीं मांगते। नदीम सैय्यद हैं वहां रहते हैं,वही कह रहे थे। का जाने का बात है। आडवाणी जी त इहे बोल रहे थे कि जो सेकुलर हैं वो स्यूडो हैं। आप कौइची स्यूडो लूडो खेल रहे हैं।
इसीलिए भैया हम कहत रहें कि सांप्रदायिक राजनीति का विरोध करो। लड़ो। लेकिन इहां तो सांप्रदायिक राजनीति का डर दिखा कर भाई लोग भेड़िया आया भेड़िया खेल रहा है। तभी तो कह रहे हैं न इ सेकुलरिज़्म नहीं है। भेकुलरिज़्म है। चुनाव बाद भेकुलर मोर्चा सरकार बना लेगा। फिर सरकार में भिड़ जाएगा। फिर चुनाव हो जाएगा। भक भुक होता रहेगा भेकुलरिज़्म में।
फ्रस्टेशन में एक ईमानदार भाषण
मेरे प्यारे भाइयों, बहनों और जो रिश्ते में नहीं लगते वो लोग भी।
हम झूठ बोलना चाहते हैं। यही कि आपकी गरीबी दूर होगी। यही कि आपमें से सभी को नौकरी मिलेगी। सबको मकान बनवा के देंगे। सबको गाड़ी देंगे और टीवी भी देंगे। हम एतना काम कर देंगे और आप एगो भोट नहीं दीजिएगा हमरा। मार मार के कचूमर निकाल देंगे आपका। बड़का न भोटर बने हैं। अरे तुमको पास तो एकेगो न भोट है रे। हमको पास तो सब भोटरे का टेंशन है। तुमको तो अपना ही भोट देना है न रे। काहे टेंशन करता है। किसी न किसी को देना है तो हमको दो। सबको दे के देख लिये। बनवा दिहिस मकान तोरा। इ गर्मी में भाषण सुने अइलह लोग। भाषण में का मलाई बंटेगा रे। जानता नहीं है इ पार्टी उ पार्टी एके बतवा बोलता है सब। तू हमको बुरबक मत बनाओ। काम देख के तू भोट दे रहे हो पिछले साठ साल से। कौन सा काम हो गया है रे देश में। एगो रोड तो न बना तुमरे कोलनी में। बिजली आ गई है। मंदिर बन गया है। दंगे की जांच हो गई है। फालतू का पब्लिक है इ सब। भोट देना होगा तो दे देगा, चलिये इहां से। इ सब जमा हुआ कि हमहूं झूठे बोले। कुछ नहीं करेंगे आपके लिए। जैसे इ सब नहीं किया है। हमको भी भोट दीजिए जैसे उ सबको दिये हैं आप लोग।
पोलटिक्स में लबरई(झूठ)का बाज़ार जोत कर रख दिये है। पब्लिक जागरूक हो गई है का तो। टीभी वाला बोल रहिस था।
जागरुक पब्लिक। चलिये भोट दे दीजिएगा। ओकरा बाद तो सोना ही न आप सबको। जब सुतना ही है तो हमको भोट काहे नहीं देते हैं जी। जाइये रैली रैली मत धौगिये। घर बैठिये। बीड़ी छाप है हमरा। याद रहेगा।
हम झूठ बोलना चाहते हैं। यही कि आपकी गरीबी दूर होगी। यही कि आपमें से सभी को नौकरी मिलेगी। सबको मकान बनवा के देंगे। सबको गाड़ी देंगे और टीवी भी देंगे। हम एतना काम कर देंगे और आप एगो भोट नहीं दीजिएगा हमरा। मार मार के कचूमर निकाल देंगे आपका। बड़का न भोटर बने हैं। अरे तुमको पास तो एकेगो न भोट है रे। हमको पास तो सब भोटरे का टेंशन है। तुमको तो अपना ही भोट देना है न रे। काहे टेंशन करता है। किसी न किसी को देना है तो हमको दो। सबको दे के देख लिये। बनवा दिहिस मकान तोरा। इ गर्मी में भाषण सुने अइलह लोग। भाषण में का मलाई बंटेगा रे। जानता नहीं है इ पार्टी उ पार्टी एके बतवा बोलता है सब। तू हमको बुरबक मत बनाओ। काम देख के तू भोट दे रहे हो पिछले साठ साल से। कौन सा काम हो गया है रे देश में। एगो रोड तो न बना तुमरे कोलनी में। बिजली आ गई है। मंदिर बन गया है। दंगे की जांच हो गई है। फालतू का पब्लिक है इ सब। भोट देना होगा तो दे देगा, चलिये इहां से। इ सब जमा हुआ कि हमहूं झूठे बोले। कुछ नहीं करेंगे आपके लिए। जैसे इ सब नहीं किया है। हमको भी भोट दीजिए जैसे उ सबको दिये हैं आप लोग।
पोलटिक्स में लबरई(झूठ)का बाज़ार जोत कर रख दिये है। पब्लिक जागरूक हो गई है का तो। टीभी वाला बोल रहिस था।
जागरुक पब्लिक। चलिये भोट दे दीजिएगा। ओकरा बाद तो सोना ही न आप सबको। जब सुतना ही है तो हमको भोट काहे नहीं देते हैं जी। जाइये रैली रैली मत धौगिये। घर बैठिये। बीड़ी छाप है हमरा। याद रहेगा।
दलों के छोटे नाम- छंद में पढ़े और खूब हंसे
राजद
वाजद
जदयू
जटायु
बीजद
वीजद
रालोद
वालोद
भाजपा
लोजपा
माकपा
भाकपा
पा पा पा
इंका
तृंका
का का का
डीएमके
पीएमके
मणसे
अन्ना डीएमके
के के के
टीडीपी
पीडीपी
बीएसपी
पी पी पी
अकाली
मवाली
झामुमो
मामू
इनेलो
शिसे
वाजद
जदयू
जटायु
बीजद
वीजद
रालोद
वालोद
भाजपा
लोजपा
माकपा
भाकपा
पा पा पा
इंका
तृंका
का का का
डीएमके
पीएमके
मणसे
अन्ना डीएमके
के के के
टीडीपी
पीडीपी
बीएसपी
पी पी पी
अकाली
मवाली
झामुमो
मामू
इनेलो
शिसे
ये पप्पू फेल हो गया
प्रभात शुंगलू
घर के एसी में जो सुकून है वो बाहर पोलिंग बूथ की लाइन में कहां। कौन जाये इस चिलचिलाती धूप में वोट डालने। और फिर मिलेगा भी क्या। कोई नेता हमारा पप्पू बना के चला जायेगा। फिर तो हम यूं ही पप्पू भले। कौन पड़े वोटिंग के इस झंझट में। कुछ ऐसे ही बहाने बनाकर देश का मिडिल क्लास घर बैठ कर न्यू इंडिया के ताने बाने बुनता रहा। मगर वोट करने घर से बाहर नहीं निकला।
अब ये घर से बाहर मोमबत्ती लेकर निकलता है। कैमरे के सामने छाती पीटता है, देश के नेताओं को कैमरे पर अंग्रेजी में कोसता है, सुरक्षा की दुहाई देते हुये सरकार को उलाहना देता है, राजनेताओं की गिरती साख पर अफसोस जताता है। उसक देश प्रेम रात में विदेशी स्कॉच की चंद घूंटों के साथ पेशाब के रास्ते निकल जाता है।
देश का मिडिल क्लास न जाने कब से औंधे मुंह सोया पड़ा है। इसे कुछ भी विचलित नहीं करता। क्योंकि इसे बहुत कुछ बाई डीफॉल्ट मिल रहा। बंगला है गाड़ी है। मल्टीनेश्नल में नौकरी है। मां-बाप साथ नहीं रहते इसलिये उनका खर्चा भी बच जाता है। बच्चे अंग्रेजी स्कूलों में पढ़ रहे। शाम को मस्ती के लिये पीवीआर और पॉपकार्न तो हैं हीं।
इसे क्या मतलब इसके अपार्टमेंट के नुक्कड़ पर सैंकड़ो लोग सड़क किनारे थक हार कर बिना खाये पीये सो जाते हैं। जिनकी किस्मत अच्छी होती ही वो सुबह का सूरज देख पाते हैं वर्ना रातों रात किसी प्राडो और बीएमडब्लू का इंधन बन जाते हैं। इसे क्या मतलब शन्नो को धूप में सजा दिये जाने से उसकी जान चली जाये उसकी बला से। इसे क्या मतलब उसी गली के नुक्कड़ पर किसी की आबरू सरे आम लूट ली गयी है। इसे क्या परवाह इनके बासमती चिकन बिरयानी में आत्महत्या कर चुके हजारों किसानों के परिवार की आह सनी हुयी है। इसे क्या मतलब देश के गांव और छोटे शहरों में लोग आज भी मीलों पीने के पानी के तलाश में निकलते हैं। इसे क्या मतलब कि देश में मजहबी उन्माद फैला कर लोग आज भी संकीर्ण राजनीति खेल रहे। इस मिडिल क्लास को क्या परवाह उन सुरक्षा कर्मियों की जो अपनी जान पर खेल जाते हैं ताकि लोग बेखौफ वोट डाल सकें। इसे क्या मतलब उन सिपाहियों से जो सरहद पर जान पर खेल कर आतंकियों से लोहा ले रहे। इस अंग्रेजीदा मिडिल क्लास को 26\11 भी विचलित नहीं कर पाया। इसकी आत्मा को कोई नहीं झकझोर सकता। मंगल पांडे भी नहीं।
मंगल पांडे ने एक सोती कौम को जगाया। अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह की अलख जो उसने भड़कायी वो स्वतंत्रता आंदोलन में आने वाली पीढ़ीयों के लिये मिसाल बनी। लेकिन आजादी के जश्न में विद्रोह की गुंजाइश ही नहीं बची। विद्रोह की तीली सुलगाने के लिये जरूरी मुद्दे नहीं बचे जो कभी मंगल पांडे के पास 1857 में थे या अंग्रेजों भारत छोड़ो नारा देने वाले गांधी के पास 1942 में। देश को पूरे तीस साल लगे ये समझते कि उनकी आजादी तो एक सड़ी गली सोच के पिंजरे में कैद थे। आजादी का मतलब वो नहीं जो इंदिरा गांधी मीसा लगा कर उनपर थोपने की कोशिश कर रही थी। जन आक्रोश उभरा। गांधी के अनुयायी जय प्रकाश ने युवाओं को संगठित किया और हिंदुस्तान को इंदिरा गांधी के जनरल डायर टाइप शासन से मुक्ति दिलायी।
लगभग दस साल बाद बोफोर्स दलाली के नाम पर देश फिर उद्वलित हुया। वीपी सिंह नें भ्रष्टाचार नाम के इस दानव का वध करने की ठानी। राजीव गांधी की गद्दी जाती रही। लेकिन आज करप्शन की बहस ड्राइंग रूम से भी गायब हो चुकी है। अंग्रेजीबाज मिडिल क्लास लोग भी मार्केट पर डिसकशन करते हैं। सेन्सेटिव इंडेक्स के लुढ़कने और चढ़ने पर हाय तौबा मचाते हैं। बात होती है दलाली और दलालों की। एटीएम की और शेयर्स की। हुन्डई और हौंडा की लेटस्ट मॉडल की। पीवीआर में नये सिनेमा की। रितु बेरी के नये डिजाइन की। पीज्जा और कोक के कॉम्बो की। शहर के नये इटैलियन और मेक्सिकन रेस्तरां की। बाजार में उतरे लेटस्ट होम थियेटर सिस्टम और डीवीडी की। सैससंग और मोटोरोला के अनेकानेक मैगापिक्सल कैमरा वाले मोबाइल सेट की। लार्ज स्क्रीन वाले टीवी सेट की। ताकि आईपीएल की चियर गर्ल्स की सेक्स अपील को ढंग से परखा जा सके। ये सब भटकाव क्या कम हैं जो हर पांच साल में चुनाव आ जाते हैं। क्या छुट्टी का मतलब आदमी अपने सारे काम ताक पर रख कर बाहर वोट डालने निकले। हाउ एलएस। यानि वोट डालना लो स्टैन्डर्ड है। इनकी शान के खिलाफ।
अमेरिका में भी राष्ट्रपति चुनावो की पोलिंग का औसत 63 फीसदी से घट के 55 फीसदी पर आ गया है। 21वीं शताब्दी में हमने अमेरिका से कहीं तो बराबरी की। वो सबसे पुराना लोकतंत्र है। वो दुनिया का सबसे अमीर देश है। वहां सुख, सुविधा
और संपन्नता है। वहां बिना वोट डाले ही सब कुछ मिल रहा। सबसे बड़े लोकतंत्र हिंदुस्तान में आज भी देश की एक चौथाई जनता भुखमरी के कगार पर है। लेकिन मिडिल क्लास भौंडे भौतिकवाद और रियेलिटी शो में ही असली भारत ढूंढ रहा। वो अर्ध सत्य का लबादा ओढ़े औंधा पड़ा है। उसे बदलाव नहीं चाहिये। वो मंगल पांडे को भूल चुका है। ये पप्पू रह कर ही खुश हैं।
(लेखक IBN7 न्यूज चैनल से जुड़े हैं)
घर के एसी में जो सुकून है वो बाहर पोलिंग बूथ की लाइन में कहां। कौन जाये इस चिलचिलाती धूप में वोट डालने। और फिर मिलेगा भी क्या। कोई नेता हमारा पप्पू बना के चला जायेगा। फिर तो हम यूं ही पप्पू भले। कौन पड़े वोटिंग के इस झंझट में। कुछ ऐसे ही बहाने बनाकर देश का मिडिल क्लास घर बैठ कर न्यू इंडिया के ताने बाने बुनता रहा। मगर वोट करने घर से बाहर नहीं निकला।
अब ये घर से बाहर मोमबत्ती लेकर निकलता है। कैमरे के सामने छाती पीटता है, देश के नेताओं को कैमरे पर अंग्रेजी में कोसता है, सुरक्षा की दुहाई देते हुये सरकार को उलाहना देता है, राजनेताओं की गिरती साख पर अफसोस जताता है। उसक देश प्रेम रात में विदेशी स्कॉच की चंद घूंटों के साथ पेशाब के रास्ते निकल जाता है।
देश का मिडिल क्लास न जाने कब से औंधे मुंह सोया पड़ा है। इसे कुछ भी विचलित नहीं करता। क्योंकि इसे बहुत कुछ बाई डीफॉल्ट मिल रहा। बंगला है गाड़ी है। मल्टीनेश्नल में नौकरी है। मां-बाप साथ नहीं रहते इसलिये उनका खर्चा भी बच जाता है। बच्चे अंग्रेजी स्कूलों में पढ़ रहे। शाम को मस्ती के लिये पीवीआर और पॉपकार्न तो हैं हीं।
इसे क्या मतलब इसके अपार्टमेंट के नुक्कड़ पर सैंकड़ो लोग सड़क किनारे थक हार कर बिना खाये पीये सो जाते हैं। जिनकी किस्मत अच्छी होती ही वो सुबह का सूरज देख पाते हैं वर्ना रातों रात किसी प्राडो और बीएमडब्लू का इंधन बन जाते हैं। इसे क्या मतलब शन्नो को धूप में सजा दिये जाने से उसकी जान चली जाये उसकी बला से। इसे क्या मतलब उसी गली के नुक्कड़ पर किसी की आबरू सरे आम लूट ली गयी है। इसे क्या परवाह इनके बासमती चिकन बिरयानी में आत्महत्या कर चुके हजारों किसानों के परिवार की आह सनी हुयी है। इसे क्या मतलब देश के गांव और छोटे शहरों में लोग आज भी मीलों पीने के पानी के तलाश में निकलते हैं। इसे क्या मतलब कि देश में मजहबी उन्माद फैला कर लोग आज भी संकीर्ण राजनीति खेल रहे। इस मिडिल क्लास को क्या परवाह उन सुरक्षा कर्मियों की जो अपनी जान पर खेल जाते हैं ताकि लोग बेखौफ वोट डाल सकें। इसे क्या मतलब उन सिपाहियों से जो सरहद पर जान पर खेल कर आतंकियों से लोहा ले रहे। इस अंग्रेजीदा मिडिल क्लास को 26\11 भी विचलित नहीं कर पाया। इसकी आत्मा को कोई नहीं झकझोर सकता। मंगल पांडे भी नहीं।
मंगल पांडे ने एक सोती कौम को जगाया। अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह की अलख जो उसने भड़कायी वो स्वतंत्रता आंदोलन में आने वाली पीढ़ीयों के लिये मिसाल बनी। लेकिन आजादी के जश्न में विद्रोह की गुंजाइश ही नहीं बची। विद्रोह की तीली सुलगाने के लिये जरूरी मुद्दे नहीं बचे जो कभी मंगल पांडे के पास 1857 में थे या अंग्रेजों भारत छोड़ो नारा देने वाले गांधी के पास 1942 में। देश को पूरे तीस साल लगे ये समझते कि उनकी आजादी तो एक सड़ी गली सोच के पिंजरे में कैद थे। आजादी का मतलब वो नहीं जो इंदिरा गांधी मीसा लगा कर उनपर थोपने की कोशिश कर रही थी। जन आक्रोश उभरा। गांधी के अनुयायी जय प्रकाश ने युवाओं को संगठित किया और हिंदुस्तान को इंदिरा गांधी के जनरल डायर टाइप शासन से मुक्ति दिलायी।
लगभग दस साल बाद बोफोर्स दलाली के नाम पर देश फिर उद्वलित हुया। वीपी सिंह नें भ्रष्टाचार नाम के इस दानव का वध करने की ठानी। राजीव गांधी की गद्दी जाती रही। लेकिन आज करप्शन की बहस ड्राइंग रूम से भी गायब हो चुकी है। अंग्रेजीबाज मिडिल क्लास लोग भी मार्केट पर डिसकशन करते हैं। सेन्सेटिव इंडेक्स के लुढ़कने और चढ़ने पर हाय तौबा मचाते हैं। बात होती है दलाली और दलालों की। एटीएम की और शेयर्स की। हुन्डई और हौंडा की लेटस्ट मॉडल की। पीवीआर में नये सिनेमा की। रितु बेरी के नये डिजाइन की। पीज्जा और कोक के कॉम्बो की। शहर के नये इटैलियन और मेक्सिकन रेस्तरां की। बाजार में उतरे लेटस्ट होम थियेटर सिस्टम और डीवीडी की। सैससंग और मोटोरोला के अनेकानेक मैगापिक्सल कैमरा वाले मोबाइल सेट की। लार्ज स्क्रीन वाले टीवी सेट की। ताकि आईपीएल की चियर गर्ल्स की सेक्स अपील को ढंग से परखा जा सके। ये सब भटकाव क्या कम हैं जो हर पांच साल में चुनाव आ जाते हैं। क्या छुट्टी का मतलब आदमी अपने सारे काम ताक पर रख कर बाहर वोट डालने निकले। हाउ एलएस। यानि वोट डालना लो स्टैन्डर्ड है। इनकी शान के खिलाफ।
अमेरिका में भी राष्ट्रपति चुनावो की पोलिंग का औसत 63 फीसदी से घट के 55 फीसदी पर आ गया है। 21वीं शताब्दी में हमने अमेरिका से कहीं तो बराबरी की। वो सबसे पुराना लोकतंत्र है। वो दुनिया का सबसे अमीर देश है। वहां सुख, सुविधा
और संपन्नता है। वहां बिना वोट डाले ही सब कुछ मिल रहा। सबसे बड़े लोकतंत्र हिंदुस्तान में आज भी देश की एक चौथाई जनता भुखमरी के कगार पर है। लेकिन मिडिल क्लास भौंडे भौतिकवाद और रियेलिटी शो में ही असली भारत ढूंढ रहा। वो अर्ध सत्य का लबादा ओढ़े औंधा पड़ा है। उसे बदलाव नहीं चाहिये। वो मंगल पांडे को भूल चुका है। ये पप्पू रह कर ही खुश हैं।
(लेखक IBN7 न्यूज चैनल से जुड़े हैं)
महंगाई पर चिरकुट शायरी
१.
चीनी महंगी हो गई है
आटा भी दाल हो गया है
ख़र्चा बढ़ाकर भेजना बेटा
मां का बुरा हाल हो गया है।
२
रोड पर पिट रहे हैं मां बाप
फीस के दस रुपये बचाने को
हज़ारों उड़ा रहे हैं नेता जी
इलेक्शन में वोट पाने को
चीनी महंगी हो गई है
आटा भी दाल हो गया है
ख़र्चा बढ़ाकर भेजना बेटा
मां का बुरा हाल हो गया है।
२
रोड पर पिट रहे हैं मां बाप
फीस के दस रुपये बचाने को
हज़ारों उड़ा रहे हैं नेता जी
इलेक्शन में वोट पाने को
पॉश इलाकों से निकलता बीएसपी का हाथी
उत्तरप्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती ने भी दिल्ली तक पहुंचने के लिए बीएसपी को झोंक दिया है। सब अटकलें लगा रहे हैं कि कितनी सीटें आ जायेंगी जिससे मायावती तीसरे मोर्चे को पीएम पद की दावेदारी के लिए मना सकें। लखनऊ से दिल्ली चलों के रास्ते में बीएसपी ने उन सबको साथ ले लिया है जिनके आने से पार्टी की गाड़ी की रफ्तार बढ़ती हुई लगती है। कांशीराम ने जितना प्रयोग किया उससे कहीं ज़्यादा मायावती प्रयोग कर रही हैं।
उसी की एक झलक मिली पश्चिम दिल्ली से बीएसपी के उम्मीदवार दीपक भारद्वाज से मिलकर। भारद्वाज हाल ही में बीएसपी में शामिल हुए हैं। खुल कर कहते हैं कि वे विश्व हिंदू परिषद में रहे हैं। गौ रक्षा आंदोलन की मदद करते रहे हैं। आर्यसमाजी हैं। आर्यसमाज कर्मकांड और जात पात में यकीन नहीं करता। मायावती ने ब्राह्मणों को जोड़ा तो उनके साथ साथ पार्टी में कई नई चीज़ें जुड़ रही हैं। भारद्वाज कहते हैं कि आर्यसमाज और बीएसपी की विचारधारा एक है।
दीपक भारद्वाज की चर्चा मीडिया में इसलिए नहीं हुई बल्कि इसलिए हुई कि उनके पास छह सौ करोड़ रुपये की संपत्ति है। उनके घऱ की यज्ञशाला में कांशीराम और अंबेडकर की तस्वीर एक बदलाव को बताती है लेकिन सवाल भी उठाती है कि वीएचपी से आया शख्स बीएसपी का कितना होगा। गाज़ियाबाद से बीएसपी के उम्मीदवार अमरपाल शर्मा उम्मीदवारी का पर्चा भरने के लिए मिथुन लग्न का इंतज़ार करते हैं। ज़ाहिर है बीएसपी सिर्फ अपनी मूल विचारधारा के सहारे नहीं बढ़ सकती। उसे कई विचारधाराओं को लेकर चलना होगा। बहुजन समाज को सर्वजन समाज में मिलाने के बाद अब ऐसे तत्वों को रोकना मुश्किल होगा।
कोई भी पार्टी सिर्फ विचारधारा के बल पर नहीं बढ़ सकती। एक मोड़ आता है जब मूल विचारधारा को थोड़ा किनारे करना पड़ता है। भारतीय जनता पार्टी को भी एनडीए बनाने के लिए करना पड़ा था। कांग्रेस को भी करना पड़ा। विश्वनाथ प्रताप सिंह को भी कांग्रेस को रोकने के लिए दक्षिण और वाम का सहारा लेना पड़ा था। बीएसपी को भी यही करना पड़ रहा है। पार्टी भले ही देश भर में सबसे अधिक सीटों पर चुनाव लड़ रही है लेकिन वो एक गठबंधन बना रही है।
बीएसपी में अब वो लोग भी आ गए हैं जो कभी पार्टी को चंदा नहीं देते थे। पार्टी ने पांच छह उम्मीदवार ऐसे उतारे हैं जिनके कारोबार को जोड़ दें तो चार पांच हज़ार करोड़ तक जा पहुंचता है। पुणे से बीएसपी के उम्मीदवार डी एस कुलकर्णी की कंपनी का कारोबार १८०० करोड़ रुपये का है। मेरठ से उम्मीदवार मलूक नागर का अपना डेयरी का व्यवसाय है। गौतमबुद्धनगर से उम्मीदवार सुरेंद्र सिंह नागर पारस मिल्क के मालिक हैं। पारस ग्रुप का कारोबार एक हज़ार करोड़ रुपये का है।
इन सबमें खास बात ये है कि ये सभी उन इलाकों में रहते हैं जिन्हें पॉश कहा जाता है। सुरेंद्रसिंह नागर दक्षिण दिल्ली के सबसे पॉश इलाकों में से एक न्यू फ्रैंड्स कालोनी में रहते हैं। मेरठ के उम्मीदवार मलूक नागर का मकान वसंत विहार में हैं। इनके मकान की कीमत सवा करोड़ बताई गई है। दक्षिण दिल्ली से बीएसपी के उम्मीदवार कंवर सिंह तंवर छत्तरपुर फार्म हाउस के इलाके में रहते हैं। सत्तर अस्सी लाख की ऑडी कार में चलते हैं। यानी बीएसपी के उम्मीदवार अब उन इलाकों से भी आने लगे हैं, जहां देश का कुलीन तबका रहता है। जो अपनी पार्टियों में बीएसपी का मज़ाक उड़ाता है। अब उसी का पड़ोसी बहन कुमारी मायावती के नारे लगा रहा है। सुरेंद्र नागर ने तभी कहा कि मायावती तो पारस मिल्क से भी बड़ी ब्रांड हैं।
इस बदलाव को समझना होगा। सकारात्मक और नकारात्मक दोनों तरह से। ये वो उद्योगपति हैं जो पूरी तरह से कुलीन उद्योगपति नहीं हुए हैं। मलूक नागर और सुरेंद्र सिंह नागर का दूध का कारोबार ऐसा है कि उन्हें ग्रामीण इलाके से जुड़ा रहना पड़ता है। कंवर सिंह तंवर की ज़मीन जायदाद भी दिल्ली के गांवों में हैं। सत्संग भवन, धर्मशाला, फ्री की दवा आदि बांटने जैसे सामाजिक काम करने के कारण इनकी प्रतिष्ठा है। और पैसे वाले होने के कारण ये सभी अभी तक बीजेपी और कांग्रेस के काम आया करते थे। बल्कि कुछ तो इन दलों में औपचारिक रूप से शामिल भी थे। मायावती ने इन्हें बीएसपी में हिस्सेदार बना दिया है। दूसरी पार्टी में इनकी हैसियत मददगार की थी। ये एक बड़ा बदलाव है। बीएसपी का चेहरा बदल रहा है। उद्योगपति पार्टी में आ रहे हैं। ऑडी, प्राडो और लैंड क्रूज़र जैसी लाखों करोड़ों की कारों पर चलते हैं और खुल कर बताते हैं कि पांच या दस करोड़ का टैक्स भी भरते हैं।
अब सवाल यह है कि इससे बीएसपी को कितना फायदा हो रहा है। अगर ये जीत जाते हैं तो बीएसपी इनकी खामियों को नहीं देखेगी। अगर ये नहीं जीत पाते हैं तो बीएसपी को सोचना पड़ेगा कि सर्वजन बनने में कहीं बहुत जल्दी तो नहीं कर दी। बिना किसी वैचारिक तैयारी के सामाजिक समीकरणों को कब तक टिकाये रखा जा सकेगा। बीएसपी को आंदोलन समझ कर ताकत देने वाले अपने कार्यकर्ताओं पर पूरा भरोसा होगा लेकिन क्या वो इन उद्योगपतियों या सर्वजनों की निष्ठाओं पर भी उतना ही भरोसा करती है। मायावती को नंबर चाहिए। चार बार लखनऊ से राज चलाकर एक बार वो दिल्ली से राज करना चाहती हैं। एक्सप्रेस वे पर उनका हाथी दौड़ रहा है। ब्रेक लगाने की गुज़ाइश नहीं है। तभी तो मायावती को कहना पड़ता है कि मुख्तार अंसारी गरीबों के मसीहा हैं। बीएसपी बड़ी हो रही है तो अब पार्टी में कई लोग बीएसपी से भी बड़े हो रहे हैं।
उसी की एक झलक मिली पश्चिम दिल्ली से बीएसपी के उम्मीदवार दीपक भारद्वाज से मिलकर। भारद्वाज हाल ही में बीएसपी में शामिल हुए हैं। खुल कर कहते हैं कि वे विश्व हिंदू परिषद में रहे हैं। गौ रक्षा आंदोलन की मदद करते रहे हैं। आर्यसमाजी हैं। आर्यसमाज कर्मकांड और जात पात में यकीन नहीं करता। मायावती ने ब्राह्मणों को जोड़ा तो उनके साथ साथ पार्टी में कई नई चीज़ें जुड़ रही हैं। भारद्वाज कहते हैं कि आर्यसमाज और बीएसपी की विचारधारा एक है।
दीपक भारद्वाज की चर्चा मीडिया में इसलिए नहीं हुई बल्कि इसलिए हुई कि उनके पास छह सौ करोड़ रुपये की संपत्ति है। उनके घऱ की यज्ञशाला में कांशीराम और अंबेडकर की तस्वीर एक बदलाव को बताती है लेकिन सवाल भी उठाती है कि वीएचपी से आया शख्स बीएसपी का कितना होगा। गाज़ियाबाद से बीएसपी के उम्मीदवार अमरपाल शर्मा उम्मीदवारी का पर्चा भरने के लिए मिथुन लग्न का इंतज़ार करते हैं। ज़ाहिर है बीएसपी सिर्फ अपनी मूल विचारधारा के सहारे नहीं बढ़ सकती। उसे कई विचारधाराओं को लेकर चलना होगा। बहुजन समाज को सर्वजन समाज में मिलाने के बाद अब ऐसे तत्वों को रोकना मुश्किल होगा।
कोई भी पार्टी सिर्फ विचारधारा के बल पर नहीं बढ़ सकती। एक मोड़ आता है जब मूल विचारधारा को थोड़ा किनारे करना पड़ता है। भारतीय जनता पार्टी को भी एनडीए बनाने के लिए करना पड़ा था। कांग्रेस को भी करना पड़ा। विश्वनाथ प्रताप सिंह को भी कांग्रेस को रोकने के लिए दक्षिण और वाम का सहारा लेना पड़ा था। बीएसपी को भी यही करना पड़ रहा है। पार्टी भले ही देश भर में सबसे अधिक सीटों पर चुनाव लड़ रही है लेकिन वो एक गठबंधन बना रही है।
बीएसपी में अब वो लोग भी आ गए हैं जो कभी पार्टी को चंदा नहीं देते थे। पार्टी ने पांच छह उम्मीदवार ऐसे उतारे हैं जिनके कारोबार को जोड़ दें तो चार पांच हज़ार करोड़ तक जा पहुंचता है। पुणे से बीएसपी के उम्मीदवार डी एस कुलकर्णी की कंपनी का कारोबार १८०० करोड़ रुपये का है। मेरठ से उम्मीदवार मलूक नागर का अपना डेयरी का व्यवसाय है। गौतमबुद्धनगर से उम्मीदवार सुरेंद्र सिंह नागर पारस मिल्क के मालिक हैं। पारस ग्रुप का कारोबार एक हज़ार करोड़ रुपये का है।
इन सबमें खास बात ये है कि ये सभी उन इलाकों में रहते हैं जिन्हें पॉश कहा जाता है। सुरेंद्रसिंह नागर दक्षिण दिल्ली के सबसे पॉश इलाकों में से एक न्यू फ्रैंड्स कालोनी में रहते हैं। मेरठ के उम्मीदवार मलूक नागर का मकान वसंत विहार में हैं। इनके मकान की कीमत सवा करोड़ बताई गई है। दक्षिण दिल्ली से बीएसपी के उम्मीदवार कंवर सिंह तंवर छत्तरपुर फार्म हाउस के इलाके में रहते हैं। सत्तर अस्सी लाख की ऑडी कार में चलते हैं। यानी बीएसपी के उम्मीदवार अब उन इलाकों से भी आने लगे हैं, जहां देश का कुलीन तबका रहता है। जो अपनी पार्टियों में बीएसपी का मज़ाक उड़ाता है। अब उसी का पड़ोसी बहन कुमारी मायावती के नारे लगा रहा है। सुरेंद्र नागर ने तभी कहा कि मायावती तो पारस मिल्क से भी बड़ी ब्रांड हैं।
इस बदलाव को समझना होगा। सकारात्मक और नकारात्मक दोनों तरह से। ये वो उद्योगपति हैं जो पूरी तरह से कुलीन उद्योगपति नहीं हुए हैं। मलूक नागर और सुरेंद्र सिंह नागर का दूध का कारोबार ऐसा है कि उन्हें ग्रामीण इलाके से जुड़ा रहना पड़ता है। कंवर सिंह तंवर की ज़मीन जायदाद भी दिल्ली के गांवों में हैं। सत्संग भवन, धर्मशाला, फ्री की दवा आदि बांटने जैसे सामाजिक काम करने के कारण इनकी प्रतिष्ठा है। और पैसे वाले होने के कारण ये सभी अभी तक बीजेपी और कांग्रेस के काम आया करते थे। बल्कि कुछ तो इन दलों में औपचारिक रूप से शामिल भी थे। मायावती ने इन्हें बीएसपी में हिस्सेदार बना दिया है। दूसरी पार्टी में इनकी हैसियत मददगार की थी। ये एक बड़ा बदलाव है। बीएसपी का चेहरा बदल रहा है। उद्योगपति पार्टी में आ रहे हैं। ऑडी, प्राडो और लैंड क्रूज़र जैसी लाखों करोड़ों की कारों पर चलते हैं और खुल कर बताते हैं कि पांच या दस करोड़ का टैक्स भी भरते हैं।
अब सवाल यह है कि इससे बीएसपी को कितना फायदा हो रहा है। अगर ये जीत जाते हैं तो बीएसपी इनकी खामियों को नहीं देखेगी। अगर ये नहीं जीत पाते हैं तो बीएसपी को सोचना पड़ेगा कि सर्वजन बनने में कहीं बहुत जल्दी तो नहीं कर दी। बिना किसी वैचारिक तैयारी के सामाजिक समीकरणों को कब तक टिकाये रखा जा सकेगा। बीएसपी को आंदोलन समझ कर ताकत देने वाले अपने कार्यकर्ताओं पर पूरा भरोसा होगा लेकिन क्या वो इन उद्योगपतियों या सर्वजनों की निष्ठाओं पर भी उतना ही भरोसा करती है। मायावती को नंबर चाहिए। चार बार लखनऊ से राज चलाकर एक बार वो दिल्ली से राज करना चाहती हैं। एक्सप्रेस वे पर उनका हाथी दौड़ रहा है। ब्रेक लगाने की गुज़ाइश नहीं है। तभी तो मायावती को कहना पड़ता है कि मुख्तार अंसारी गरीबों के मसीहा हैं। बीएसपी बड़ी हो रही है तो अब पार्टी में कई लोग बीएसपी से भी बड़े हो रहे हैं।