प्रभात शुंगलू
पूर्व प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने यूनाइटेड फ्रंट सरकार के दौरान कहा था भारतीय राजनीति में गठबंधन सरकार का दौर अगले बीस साल चलेगा। वीपी सिंह की ये भविष्यवाणी चुनाव दर चुनाव सच साबित हो रहीं क्योंकि राष्ट्रीय पार्टियां दूर दराज वोटरों से दूर होती गयीं और उनकी जगह क्षेत्रीय पार्टियों ने वोटरों की उम्मीदों को उड़ान दी। सेफोलॉजिस्ट की मानें तो पन्द्रहवीं लोकसभा चुनाव के नतीजे भी किसी एक दल या गठबंधन के पक्ष में नहीं होंगे। यानि हंग पार्लियामेंट होगी। यानि 16 मई के बाद जोड़-तोड़ होगी, पाले बदले जायेंगे, नये दोस्त बनेंगे, दोस्त दगा देंगे और दुश्मन दोस्त बनेंगे। एक सीट वाली पार्टी का कद भी बढ़ेगा। उसकी सीट की भी दरकार होगी। जो इस खेल में बाजी मारेगा वो सरकार बनायेगा। राहुल, आडवाणी, करात सब उम्मीद से लबरेज हैं।
पांचवे और आखिरी दौर का मतदान अभी बाकी है मगर कयासों का बाजार गर्म है। किसकी सरकार बनेगी। और मिलियन डॉलर सवाल कौन बनेगा प्रधानमंत्री। ये पहला चुनाव है जिसमें प्रधानमंत्री के कई दावेदार हैं। कुछ ऑफिशियल कुछ अनऑफिशियल। यानि मनमोहन और आडवाणी के अलावा शरद पवार, मुलायम सिंह यादव, राम विलास पासवान, चंद्रबाबू नायडू, नीतीश कुमार, मायावती, जयललिता इत्यादि ये सभी पीएम बनने की कतार में नजर आते हैं। वैसे 1996 में जिस तरह से देवेगौड़ा डार्क हॉर्स बन कर उभरे थे उसने सभी को सन्न कर दिया था। इस बार का डार्क हॉर्स कौन होगा ये देवेगौड़ा को भी नहीं मालूम।
बहरहाल, एक बात तय है। राहुल गांधी प्रधानमंत्री नहीं होंगे। उन्होने और मां सोनिया ने बयार का रूख भांप लिया है। युवराज राहुल एक खिचड़ी सरकार का नेतृत्व नहीं करेंगे। उनकी एंट्री मनमोहन देसाई फिल्म में अमिताभ बच्चन की एंट्री की तरह ग्रैंड, ड्रामेटिक और 70 एमएम होगी। जब कांग्रेस अपने बल पर लोकसभा में 272 सीट जुटा कर लायेगी। वो जब होगा तब होगा। फिलहाल खुद राहुल भी 'मनमोहनजी' से बेहतर विकल्प यूपीए के किसी नेता को नहीं मानते। मगर सहयोगियों में अब ये तेवर चरम पर है कि मैं भी प्रधानमंत्री।
ये सारी वो पार्टियां हैं जो कांग्रेस की तरह करीब साढ़े चार सौ सीटों पर नहीं लड़ रहीं। ये सारी वो पार्टियां हैं जिनमें से कई राष्ट्रीय पार्टियों की गिनती में नहीं आती। इनमें से कुछ पार्टियां ऐसी हैं जिनकी बुनियाद ही गैर कांग्रेसवाद पर टिकी है। इनमें से कई पार्टियां वो हैं जो कांग्रेसी कल्चर की घुटन से निकलकर अपना अपना नया घरौंदा बना चुकी हैं। इनकी अब अपनी सोच है। अपनी लश्कर है। अपना खुला आसमान है। इनमें से ज्यादातर पार्टियां पचास सीट भी नहीं लड़ रहीं। पर इन सब में एक एम्बिशन कुलांचे मार रहा। और वो है पीएम बनने का। ये वो पार्टियां हैं जो अपने स्वार्थ और राजनीतिक लोभ में कांग्रेस के साथ मिलकर काम तो कर सकती हैं पर उसका वर्चस्व नहीं स्वीकार कर सकती।
2009 की एनडीए सिकुड़ कर 7 पार्टियों की टोली रह गयी है। मगर यूपीए में जो घमासान अंदर ही अंदर है उससे उसकी राजनीतिक सेहत का अंदाजा लगाया जा सकता है। यूपीए के अंदर लालू, पासवान और मुलायम का चौथा मोर्चा खुल चुका है। शरद पवार अपनी ढपली पीट रहे। राहुल बाबा नें लेफ्ट से हाथ मिलाने के चक्कर में ममता दीदी को नाराज कर दिया है। डीएमके भी नाराज है कि राहुल बाबा जयललिता से भी दोस्ती की पींगे बढ़ा रहे। आंध्र प्रदेश के चंद्रबाबू नायडू भी राहुल के मुताबिक विकास पुरूष हैं। नीतीश ने भी बिहार का नक्शा बदल दिया है, इसलिये वो भी राहुल की मोस्ट फेवर्ड विपक्षी नेता की लिस्ट में हैं। तो क्या ये माना जाये राहुल गांधी ने आंध्र प्रदेश, तमिलनाडू और बिहार में कांग्रेस की हार मान ली है। यूपी में राहुल अमेठी, रायबरेली और ब्रिटिश विदेश मंत्री मिलीबैंड के सहारे कितनी सीट जीत लेंगे इसपर कयास लगाना बेकार है। यूपी में तो मुलायम भी साथ नहीं हैं। पवार को उलाहना दे रहे कि जिस दिन हमारे बराबर सीट जीतोगे प्रधानमंत्री बन जाना। यानि यूपीए में राहुल और कांग्रेस अपनी राग अलाप रहे और सहयोगी दूसरी।
इसीलिये राहुल बाबा को संदेह हो रहा यूपीए अपने दम पर क्या सरकार बना पायेगा। और ऊपर से डर ये कि चुनाव बाद कहीं गठबंधन बिखर न जाये। लेफ्ट समुद्र में जाल डाले बैठा है। आडवाणी ने भी हार नहीं मानी है। आखिर जो आज यूपीए और थर्ड फ्रंट में हैं उनमें से कुछ कल वाजपेयी के एनडीए में थे। इसलिये आडवाणी भी उम्मीद का एक छोर कस कर पकड़ कर बैठे हैं।
ये चुनाव आडवाणी के लिये डू और डाई है तो राहुल के लिये भी किसी अग्नि परीक्षा से कम नहीं। इन चुनावों में राहुल कांग्रेस के स्टार प्रचारक साबित हुये। एक लाख किलोमीटर नापे और आंध्र प्रदेश से कश्मीर तक पार्टी का रात दिन प्रचार किया। आडवाणी और सोनिया के मुकाबले लगभग 30 हजार किलोमीटर ज्यादा उड़े। पार्टी ने ब्रांड राहुल गांधी को खूब बेचा। ये बात पार्टी के अंदर अब किसी से नहीं छुपी नही कि वो समय दूर नहीं जब राहुल ही पार्टी का नेतृत्व संभालेंगे और समय रहते देश की कमान भी।
फिलहाल राहुल के लिये सबसे बड़ा इम्तेहान होगा गठबंधन को बचाना। उसके लिये युवराज राहुल को जमीनी हकीकत समझनी पड़ेगी। गठबंधन के जूनियर पार्टनर्स का दर्द समझना होगा। पवार ने महाराष्ट्र में कांग्रेस से ज्यादा सीटें बटोरी मगर मुख्यमंत्री कांग्रेस का बनवाया। युवराज राहुल गांधी को भी सहयोगियों के लिये कुछ ऐसे ही सैक्रीफाइस का जज्बा पैदा करना पड़ेगा। 1937के यूपी के चुनावों के बाद मुस्लिम लीग को सत्ता की भागीदारी से दूर रखने का इल्जाम नेहरू पर लगा था। मुस्लिम लीगी नेताओं में वहीं से प्रबल हुयी पाकिस्तान की सोच। परपोते को हक है परदादा पर लगे उस दाग को धोने का।
(लेखक IBN7 से जुड़े हैं )
prabhat ji... achcha vishleshan kiya hai... par ek nayi bat aa rahi hai ki mayawati NDA ko support karegi... varun par NSA galat thahraya jana uski shuruat hai...aur SP kisi b halat me gov me rahna chahegi to UPA uske liye mauka rahega... ab dekhna yah hai ki UPA ya NDA????
ReplyDeleteरविशजी प्रभातजी के विचारों से प्रभावित दीखते हैं. कलियुग में मां पार्वती भी कार्तिकेय के पक्ष में ही रही होंगी :) सतयुग में किन्तु गणेश के पक्ष में :)
ReplyDeleteAccha, Rahul kitna lucky hai, usme Prime minister banane ki sabse badi jo kabliyat hai o hai uska Rajiv & Sonia ka beta hona.Jisa ki Rajiv me uska Indra ka beta hona tha. Vastav me yahi prajatantra hai jaha sabse badi kabliyat raj mata ke kokh se janam lena hai. Kya kare hamari ye kushkismati hai ki Azadi ke badd sare log jo satta pe kabij huye o sare log Sri Sri 420 the, to prajatantra me rajmata or uvraj ka hona achambha nahi. Raj privar ke prachar prasar me NDTV ke prayass ko mera sat-sat pranam. Bhi Congress satta me lutagee to inhe kuch mewa milna hai cahiye. kuch bhi..............
ReplyDeleteYe Prajatantra hai.........jai ho
आपने फिर वही मुद्दा उठाया कि नेहरू के सिर पर ठीकरा फूटा था पाकिस्तान बनाने की सोच का। ठीक है। सर्वमान्य है। शुंगलू जी राहुल को परदादा का दाग धोने के लिए कह रहे हैं। इसका आशय क्या है कि महाराष्ट्र में बढ़ रही गुंडई के साथ पवार भी खड़े हो सकते हैं और कालान्तर में एक विभाजित "राज्य" की मांग कर सकते हैं?
ReplyDeleteराहुल यदि प्रधानमंत्री बनते हैं तो वास्तव में वह भारत के इतिहास के सबसे कमज़ोर प्रधानमंत्री रहेंगे। मनमोहन सिंह तो बेचारे फोकट में ही बदनाम हो गए। राहुल की 'योग्यता' उनके वक्तव्यों में झलकती है।
ReplyDeleteरवीश भाई,
ReplyDeleteधर्मनिरपेक्षता के विश्वविद्यालय के कुलपति से लेकर प्राध्यापकों और व्याख्याताओ तक के सद् विचार आपके ब्लॉग पर पढने के बाद वाकई मेरे ज्ञान चक्षु खुल गये. ढोंगी, पाखंडी, नौटंकीबाज .. कुमार के लिए ऐसे अलंकरण मेरे मन में आज पहली बार आये. वाकई सियासत में इससे बडा अनर्थ क्या हो सकता है कि नीतीश ने सियासी मगरमच्छों और पत्रकारिता के कुलीन संप्रदाय में शामिल होने का दंभ भरने वाले पत्रकारों द्वारा अछूत करार दिये गये एक राज्य के मुख्यमंत्री से हाथ मिला लिया. मेरे तो तमाम विचार ही बदल गये. आत्मग्लानि की हालत में मैं उन बातों को अपने अन्तर्मन से रगड रगड कर धो पोंछ डालने को बेचैन हूं जो पहले से वहां घर कर चुकी थीं. मैं भूलने को कोशिश कर रहा हूं भागलपुर दंगों के वाकयों को. लेकिन, ये कामेश्वर यादव नाम का शख्स क्यूं नहीं मेरे ख्यालों से हट रहा है. अच्छा ये वही कामेश्वर है जिसके नेतृत्व में भागलपुर में मुसलमानों का कत्लेआम हुआ था. सेक्यूलरिज्म के चैंपियन लालू और सोनिया की संयुक्त सरकार ने ही तो कामेश्वर को को अंगुलिमाल बना दिया था. सेक्लूयर समाज के महावीर परम आदरणीय लालू जी और सोनिया माता की प्रेरणा से ही कामेश्वर का हृदय ऐसा बदला कि पुलिस ने उसे तमाम मुकदमों में क्लीन चिट दे दिया था. राजद, कांग्रेस और हां, वामपंथी दलों की संयुक्त सरकार ने तो उसके हृदय परिवर्तन को खुलेआम सराहा और उसे सांप्रदायिक सौहार्द के लिए सरकारी सम्मान से नवाजा भी. बुरा हो नीतीश का कि कामेश्वर को फिर से सांप्रदायिक बना दिया. सेक्यूलर वीरों के राज में पुलिस ने जिन मामलों में कामेश्वर को बरी कर दिया था उन्हीं मामलों को नीतीश की पुलिस ने फिर से खोलकर अदालत से उसे आजीवन कारावास की सजा दिला दी. मुझे भूलना पडेगा उसे घटना को भी जब गोभी के एक खेत में सौ से ज्यादा लोगों को काट कर दफना दिया गया और लालू की पुलिस ने कोई सबूत न होने का दावा कर तमाम अभियुक्तों को बरी कर दिया था. नीतीश राज में उन तमाम अभियुक्तों को सजा दिलायी गयी. भागलपुर दंगे के ऐसे दो दर्जन मामलों में नीतीश सरकार की ठोस पहल पर मोदी का हाथ मुझे भारी पडता दिख रहा है.
नीतीश अब भला कैसे सेक्लूयर हो सकते हैं. मुसलमानों के साथ ठगी करने में वाकई आपका कोई सानी नहीं है. सूबे में पिछले तीन सालों में एक भी दंगा नहीं हुआ तो क्या हुआ आपने मोदी से हाथ तो मिलाया है. मुसलमानों बच्चों की पढाई के भारी वजीफा देने से कुछ नहीं होता है. ना ही तलाकशुदा मुस्लिम महिलाओं को पेंशन देने से. मदरसों में आधुनिक शिक्षा देने के लिए भारी राशि देने या वहां के शिक्षकों को नियमित वेतन देने से भी आप सेक्लूयर नहीं हो सकते. रही बात भागलपुर दंगे के पीड़ितों को पेंशन देने की तो उससे भी आपको सेक्यूलरिज्म का सर्टिफिकेट नहीं मिल सकता है.
रवीश भाई, मुझसे वाकई बड़ी भूल हो गयी थी. आपके विचारों ने तो जैसे मेरा वैचारिक पुनर्जन्म करा दिया है. मैं समझ गया कि इस देश में नरेंद्र मोदी से हाथ मिलाना सबसे बड़ा पाप है. अपने कॉमरेडों ने भी इसी गूढ़ रहस्य को समझा, परखा और जाना है. तभी तो नंदीग्राम में मुसलमानों के साथ हैवानिय़त को भी कंपा देने वाले जुल्म किये (महाश्वेता देवी तो ऐसा ही कहती हैं), लेकिन ना तो लक्ष्मण सेठ और ना ही बुद्धदेव भट्टाचार्य अछूत हुए. मोदी से हाथ नहीं ना मिलाया.
वाकई बदनाम बिहार में कानून व्यवस्था को सुधारने से कुछ नहीं होता. दूसरे दलों को छोडिये अपने ही दल के सुनील पांडेय और मुन्ना शुक्ला जैसे बाहुबली विधायकों को सजा दिलाने से भी कुछ नहीं होता. तीन साल में ३० हजार से अधिक अपराधियों को सजा दिलाने से भी कुछ नहीं हो सकता. बिहार की जर्जर सडकों को चमकाना बेमानी है, किसानों के लिए खजाना खोल देना व्यर्थ है. मूल तो मोदी है.
परमसत्य यही है, आप लालू यादव की तरह बिहार को बर्बादी के गर्त में पहुंचाइये, सोनिया-मनमोहन की तरह क्वात्रोची को क्लीन चिट दिलाइये, कॉमरेडों की तरह बंगाल में मुसलमानों की हालत की पोल खोलती सच्चर कमिटी की रिपोर्ट को गगनभेदी नारों से छुपाइये लेकिन मोदी से हाथ नहीं मिलाइये. आप सेक्यूलरिज्म के नाम पर वैसे नेताआप सेक्यूलरिज्म के नाम पर वैसे नेताओं को भी गले लगाईये जिन्होंने अल्पसंख्यक होने का बेजा इस्तेमाल कर देश के खिलाफ जब मौका पाया तब जहर उगला, लेकिन मोदी की परछाई से भी दूर रहिये.
लेकिन रवीश जी मुझे तो ये भी याद नहीं आ रहा है कि नीतीश कुमार ने कब कहा था कि नरेंद्र मोदी को बिहार में नहीं आने देंगे. आपकी यादाश्त तो काफी अच्छी है, जरा मेरी मदद करने के लिए ये भी बता देते कि कब नीतीश ने कहा कि वो मोदी के साथ मंच पर नहीं आयेंगे. क्या नीतीश ने कभी कहा कि चूकि नरेंद्र मोदी एन डी ए में हैं तो वो एन डी ए से हट जायेंगे. हां, नीतीश ने इतना जरूर कहा कि नरेंद्र मोदी से उनके वैचारिक मतभेद हैं और वो कायम रहेंगे.
रवीश जी आप बड़े पत्रकार हैं. टी वी पर एन डी ए की रैली का लाइव फुटेज देख रहे होंगे. मुझे भरोसा है कि आपने देखा होगा कि नरेंद्र मोदी ने नीतीश का हाथ लगभग जबरिये तरीके से पकड़ कर उठाया था. तो क्या नीतीश को उस समय मोदी से कुश्ती लड लेना चाहिये था.
खैर, आपकी प्रेरणा से ही सही मैंने मोदी रहस्य को आज जान तो लिया. वैचारिक शुद्रता से ब्राह्मणत्व की ओर मेरे कदम आज आपकी प्रेरणा से ही उठे हैं.
धन्यवाद
के पी
मौका देखकर तो सियार भी रंग बदल लेते हैं। फिर ये तो नेता हैं।
ReplyDelete-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }