फिल्म मेट्रो देखी। ढाई घंटे में हर पल हर संबंध एक दूसरे को छलते रहे। शायद यह हकीकत भी हो। पर सारे छल प्रपंच किसी के साथ सिर्फ सोने को लेकर हो अजीब लगते हैं। फिल्मकार यही कहना चाहता था कि संबंध बदल रहे हैं क्योंकि शहर बदल रहा है। और बदलते शहर में सपने पूरे करने का एकमात्र ज़रिया सेक्स संबंध और उसके छलावे हैं। पर इस एक बात को कहने के लिए इतने सारे किरदार क्यों चुने गए? यह बात समझ नहीं आई।
हर कोई किसी नए को ढूंढ रहा है। जिन्हें नहीं मिली है या नहीं मिला है वो भी ढूंढ रहे हैं। संबंध बनाने या उसकी नाकामी से निकलने की छटपटाहट कम लगती है । सोने की जल्दी ज्यादा। और ढेरों बदलती करवटों के बीच तीन झुरमुट बाल वालों का गाना। महानगर के ये सूत्रधार कुछ गा देते हैं। जिंदगी के अतर्विरोध को सामने रख देते हैं। मगर कोई उनके गाने से सबक नहीं सीख रहा है। सुन भी नहीं रहा है। सब एक दूसरे को पकड़ रहे हैं किसी अनजान कोठरी में ले जाकर सेक्स पूर्ति के लिए। सेक्स से प्रमोशन है। वेतन है। और पूरा शहर। फिर इरफान की शानदार एक्टिंग। इरफान इस फिल्म की जान हैं। वो भागते संबंधों को रोकने की कोशिश करते हैं और अंत में खुद घोड़ी दौड़ा कर भाग निकलते हैं । उस लड़की के पीछे जो उन्हें आखिरी वक्त पर बेहतर जीवन साथी नज़र आती है। फिर वो भी भागती है जो अब तक राजी खुशी अपने बॉस के साथ सोती है।
के के मेनन बॉस के रूप में किसी हकीकत को बयां ही कर रहे होंगे जो आजकल के दफ्तरों में होने की अफवाहों पर आधारित है। कुछ प्रतिशत को शत प्रतिशत के रूप में दिखाया गया है। जब वो अपनी पत्नी के सामने स्वीकार करते हैं तो चेहरे का भावहीन बयान बेहतर लगता है। अफसोस न सबक। कह देते हैं कि दो साल से एक लड़की है ज़िंदगी में। जबकि हकीकत में वो लड़की सिर्फ बिस्तर में ही होती है। मेनन कई बार उस लड़की से कहते हैं कि नो इमोशन। सिर्फ सेक्सेशन। वो जिंदगी में कहां होती है। मगर मेनन कहते हैं तो ठीक ही कहते होंगे। शिल्पा भी कह देती हैं कि छह महीने से उनकी ज़िंदगी में एक लड़का है। मगर के के मेनन को लगता है कि लड़का शिल्पा की ज़िंदगी में नहीं उनके बेडरूम में है। और वो शिल्पा को छोड़ देते हैं।
इन सबके बीच दो बूढे लोग प्रेम पात्र के ज़रिये एक रूपक बनते हैं। कि नए नए संबंधों के पीछे मत भागो। फायदा नहीं है। पछताओगे। मगर देर हो जाती है।
मेट्रो की कहानी सेक्सट्रो लगती है। जिसमें सिर्फ सेक्स की तलाश है। उसका फायदा है। नुकसान नहीं। फ्लैट वाले को भी नहीं। उसे भी अफसोस नहीं कि जिसे वो चाहता है वह लड़की उसके खुशी खुशी अपने बॉस के साथ सोती है। वो उसे अपना लेता है। अच्छा लड़का है।
फिल्म में सब कुछ सामान्य है। हो सकता है मेट्रो शहरों में भी यह सामान्य हो गया हो। होगा तभी दिखाया होगा। इरफान न आते तो न जाने फिल्म कैसी लगती । कोंकना सेन ने शानदार अभिनय किया है। मेट्रो देख आइये। संबंधों का पोस्ट मार्डन आपरेशन किया गया है। हद है अभी तक दक्षिणपंथी ताकतों ने क्यों नहीं देखी। या समझ में नहीं आई। मां बेटी और बाप..सब के सब। बाप रे बाप। देख आइये मेट्रो अच्छी फिल्म है भाई।
मेरे भीतर का गांव कब का शहर हो गया है
पनघट के पानी की जगह बिसलरी का बोतल है
किरासन की ढिबरी की जगह जेनरेटर का धुंआ है
मेरे भीतर का गांव कब का शहर हो गया है।
मां की रोटी की जगह हारवेस्ट की डबल रोटी है
मकई के भूजा की जगह हल्दीराम की भुजिया है
मेरे भीतर का गांव कब का शहर हो गया है।
ख़त लिखना बंद है और ई मेल पर संबंध है
दरवाज़े पर आहट नहीं और फोन पर घनघनाहट है
मेरे भीतर का गांव कब का शहर हो गया है।
पगडंडियां टूट गई हैं और नेशनल हाईवे आ गया है
टोले सब मिटा दिए गए हैं और अपार्टमेंट आ गया है
मेरे भीतर का गांव कब का शहर हो गया है।
किरासन की ढिबरी की जगह जेनरेटर का धुंआ है
मेरे भीतर का गांव कब का शहर हो गया है।
मां की रोटी की जगह हारवेस्ट की डबल रोटी है
मकई के भूजा की जगह हल्दीराम की भुजिया है
मेरे भीतर का गांव कब का शहर हो गया है।
ख़त लिखना बंद है और ई मेल पर संबंध है
दरवाज़े पर आहट नहीं और फोन पर घनघनाहट है
मेरे भीतर का गांव कब का शहर हो गया है।
पगडंडियां टूट गई हैं और नेशनल हाईवे आ गया है
टोले सब मिटा दिए गए हैं और अपार्टमेंट आ गया है
मेरे भीतर का गांव कब का शहर हो गया है।
हावड़ा, होर्डिग्स और हार्न
मैं कुछ दिनों के लिए कोलकाता में हूं। अपने पुरानेपन को धकलते हुए महानगर में आदत बदलने का उग्र प्रयास हो रहा है। आप भी कोलकाता आएं या आएं होंगे तो महानगर के चप्पे चप्पे में होर्डिग्स का आक्रमण दिखा होगा। हर दूसरे तीसरे घर पर होर्डिंग्स की होड़ नज़र आती है। हावड़ा स्टेशन से निकलते ही कोलकाता सिमेंट, सरिया, अपार्टमेंट, रेस्त्रां, मोबाइल, बाइक न जाने कितनी चीज़ों के होर्डिग्स के पीछे ढंका मिलेगा। पहले रुपा अंडरवियर और केयो कारपिन और पैराशूट नारियल तेल के होर्डिंग्स वाले कोलकाता में नई होर्डिंग्स ने कब्ज़ा कर लिया है। आप किसी भी गली और चौराहे से निकलिये इस नए यथार्थ से सामना हो ही जाएगा। अंग्रेजी राज के ज़माने से बंगाली बाबू और कम्युनिस्ट राज के ज़माने में दादा बंधु ने संचय और संयम की एक आदत विकसित की थी। जिसमें खर्च के नाम पर सस्ती यात्राएं और सस्ता खान पान शामिल था। काले मोटे फ्रेम का चश्मा और सादी कमीज़ बंगाली नायकों की पहचान हुआ करती थी। आमजन भी उन्हीं की तरह जीता था। अब सब बदल गया है। बाज़ार ने कम्युनिस्ट बंगाल की राजधानी को विभत्स रूप से निशाना बना लिया है। उनका संयम जल्दी टूटे इसलिए होर्डिंग्स का हमला हो गया है।
पुराने मकान ढहा कर ऊंची इमारतें बन रही हैं। पाड़ा अब कालोनी में बदल रहा है। और कालोनी गुड़गांव की तर्ज पर रास बिहारी और आरामबाग की जगह यूरोपीय और बिल्डर कंपनी की कल्पना से उपजे नामों से पहचान पा रही हैं। कोलकाता जल्दी में हैं। एनआरआई बंगाली बाबू भी पंजाब और दिल्ली के एनआरआई की तरह निवेश कर रहे हैं। एक सज्जन ने बताया कि इससे पहले बंगाल के एनआरआई के पास अपने शहर में निवेश के मौके नहीं थे। अब हुए हैं तो दनादन डालर आ रहा है। सदियों से संयम के ज़रिये से जो पैसा बैंकों में था वो उपभोग के लिए दनादन निकल रहा है। पूजा के समय खरीदारी करने वाला बंगाली भद्रलोक और आमलोक अब हर दिन पोलिथीन बैग भर भर कर सामान खरीद रहे हैं। युवाओं के पहनावे बता देते हैं कि कोलकाता अब दिल्ली और मुंबई से अलग नहीं दिखना चाहता। बल्कि उन्हीं की फोटोकापी पहचान हासिल करना चाहता है।
और इसी जल्दी में आपको सड़कों पर हार्न की कानफोड़ू आवाज़ सुनाई देती है। सड़कों पर एसी कारें आ गईं हैं और कार में बैठा आदमी दफ्तर और घर के आलावा कई जगहों पर जल्दी पहुंचने की होड़ में हार्न बजाता मिल जाएगा। हार्न का शोर खूब है। सड़कों पर गाड़ियां हार्न के ज़रिये बात करती हैं। मैं गोल्फ ग्रीन इलाके में रहता हूं। शांत इलाका हुआ करता था। दो साल पहले तक किसी भी इमारत के नीचे एक दो कारें हुआ करती थीं। वो भी मारुति से ज़्यादा नहीं। अब कई कारें नज़र आईं। पार्किंग की मारा मारी शुरू हो गई है। पहले बंगाली भद्रलोक भी बस, मेट्रो और पीली अम्बेसडर टैक्सी का इस्तमाल करता था अब बात बात में अपनी कार निकालता है। दिखावे की संस्कृति आ गई हैं। दिखावा पहले भी था लेकिन इतने बड़े पैमाने पर नहीं।
इन सब के बीच कम्युनिस्ट लाल झंडा भी उतना ही उग्र हो गया है। होर्डिंग्स के बीत वो भी हज़ारों की संख्या में मौजूद है। इन दिनों सीटू का सम्मेलन चल रहा है। जगह जगह तोरण द्वार बने हैं। मगर उनमें पहले की तरह हाथ कि चित्रकारी नहीं है। फ्लेक्स टेक्नॉलजी के ज़रिये तस्वीरें छपी हैं। उपभोक्ताओं के फैलते समुदाय में कम्युनिस्ट मौजूदगी समझ में नहीं आती । क्या पूंजीवादी तरीके से उपभोक्तावादी होकर भी कम्युनिस्ट हुआ जा सकता है? या फिर बंगाल में कम्युनिज़्म का मतलब वोट देने तक ही है। जितना कुछ हो रहा है उसमें सरकार का योगदान कम ही लगता है। शहर की संरचना का योगदान लगता है। दिल्ली, बंगलोर और मुंबई के बाद कोलकाता की खाली जगहों पर बाजार की नजर पड़ी है। वो धक्का मुक्की कर अपने लिए जगह बना रहा है न कि बुद्धदेब सरकार की नीतियों की मेहरबानी से। किसी शहर में पेंटालून का शो रूम, अपार्टमेंट और मेनलैंड चाइना जैसे खान पीने के आलीशान अड्डे लाखों की संख्या में सरकारों की मेहरबानी से नहीं खुलते हैं। वो धकेल धकेल कर जगह बना लेता है। इसीलिए लाखों की संख्या में होर्डिंग्स का हमला है और डेसिबल की सीमा से आगे हार्न बजा रहा है। वो पहले सड़क जाम में फंसता है और फिर जाम से निकलने के लिए बेचैन हो जाता है। कार्ल मार्क्स और लेनिन के एक दिन बरिस्ता कॉफी शाप में दिखे जाने की खबर छपे तो समझिएगा खबर कोलकाता से आई है।
पुराने मकान ढहा कर ऊंची इमारतें बन रही हैं। पाड़ा अब कालोनी में बदल रहा है। और कालोनी गुड़गांव की तर्ज पर रास बिहारी और आरामबाग की जगह यूरोपीय और बिल्डर कंपनी की कल्पना से उपजे नामों से पहचान पा रही हैं। कोलकाता जल्दी में हैं। एनआरआई बंगाली बाबू भी पंजाब और दिल्ली के एनआरआई की तरह निवेश कर रहे हैं। एक सज्जन ने बताया कि इससे पहले बंगाल के एनआरआई के पास अपने शहर में निवेश के मौके नहीं थे। अब हुए हैं तो दनादन डालर आ रहा है। सदियों से संयम के ज़रिये से जो पैसा बैंकों में था वो उपभोग के लिए दनादन निकल रहा है। पूजा के समय खरीदारी करने वाला बंगाली भद्रलोक और आमलोक अब हर दिन पोलिथीन बैग भर भर कर सामान खरीद रहे हैं। युवाओं के पहनावे बता देते हैं कि कोलकाता अब दिल्ली और मुंबई से अलग नहीं दिखना चाहता। बल्कि उन्हीं की फोटोकापी पहचान हासिल करना चाहता है।
और इसी जल्दी में आपको सड़कों पर हार्न की कानफोड़ू आवाज़ सुनाई देती है। सड़कों पर एसी कारें आ गईं हैं और कार में बैठा आदमी दफ्तर और घर के आलावा कई जगहों पर जल्दी पहुंचने की होड़ में हार्न बजाता मिल जाएगा। हार्न का शोर खूब है। सड़कों पर गाड़ियां हार्न के ज़रिये बात करती हैं। मैं गोल्फ ग्रीन इलाके में रहता हूं। शांत इलाका हुआ करता था। दो साल पहले तक किसी भी इमारत के नीचे एक दो कारें हुआ करती थीं। वो भी मारुति से ज़्यादा नहीं। अब कई कारें नज़र आईं। पार्किंग की मारा मारी शुरू हो गई है। पहले बंगाली भद्रलोक भी बस, मेट्रो और पीली अम्बेसडर टैक्सी का इस्तमाल करता था अब बात बात में अपनी कार निकालता है। दिखावे की संस्कृति आ गई हैं। दिखावा पहले भी था लेकिन इतने बड़े पैमाने पर नहीं।
इन सब के बीच कम्युनिस्ट लाल झंडा भी उतना ही उग्र हो गया है। होर्डिंग्स के बीत वो भी हज़ारों की संख्या में मौजूद है। इन दिनों सीटू का सम्मेलन चल रहा है। जगह जगह तोरण द्वार बने हैं। मगर उनमें पहले की तरह हाथ कि चित्रकारी नहीं है। फ्लेक्स टेक्नॉलजी के ज़रिये तस्वीरें छपी हैं। उपभोक्ताओं के फैलते समुदाय में कम्युनिस्ट मौजूदगी समझ में नहीं आती । क्या पूंजीवादी तरीके से उपभोक्तावादी होकर भी कम्युनिस्ट हुआ जा सकता है? या फिर बंगाल में कम्युनिज़्म का मतलब वोट देने तक ही है। जितना कुछ हो रहा है उसमें सरकार का योगदान कम ही लगता है। शहर की संरचना का योगदान लगता है। दिल्ली, बंगलोर और मुंबई के बाद कोलकाता की खाली जगहों पर बाजार की नजर पड़ी है। वो धक्का मुक्की कर अपने लिए जगह बना रहा है न कि बुद्धदेब सरकार की नीतियों की मेहरबानी से। किसी शहर में पेंटालून का शो रूम, अपार्टमेंट और मेनलैंड चाइना जैसे खान पीने के आलीशान अड्डे लाखों की संख्या में सरकारों की मेहरबानी से नहीं खुलते हैं। वो धकेल धकेल कर जगह बना लेता है। इसीलिए लाखों की संख्या में होर्डिंग्स का हमला है और डेसिबल की सीमा से आगे हार्न बजा रहा है। वो पहले सड़क जाम में फंसता है और फिर जाम से निकलने के लिए बेचैन हो जाता है। कार्ल मार्क्स और लेनिन के एक दिन बरिस्ता कॉफी शाप में दिखे जाने की खबर छपे तो समझिएगा खबर कोलकाता से आई है।
दुनिया के अमीरों कुछ दे सकते हो- मनमोहन
दुनिया के किसी भी लोकतंत्र में राजनीतिक दल द्वारा अमीरों से की गई यह पहली याचना हो सकती है। गरीबों की आवाज़ बन कर सत्ता में आई यूपीए का प्रधानमंत्री अमीरों के आगे हथियार डाल कर मांग रहा है। आप तनख्वाह कम कर दो, शादी में अधिक खर्च मत करो, और लालची मत बनो। चार्वाक विरोधी इस बयान से अमीर आहत हैं। फिर वो अमीर किस लिए बनें। इस पर बहस है।
मनमोहन सिंह ने चार्वाक के इन्हीं संतानों को पैदा करने के लिए नब्बे के दशक में अर्थव्यवस्था का दरवाजा खोला था। तब इन्होंने कहा था कि गरीबी दूर होगी। देश तरक्की करेगा। इस बीच मनमोहन सिंह की तरक्की तो हो गई मगर सबसे शीर्ष पर पहुंच कर लग गया कि गरीबी दूर नहीं हुई है। इनता तो नंबर मिलना ही चाहिए कि प्रधानमंत्री को वोट से पहले ही गरीबों का गुस्सा नजर आ गया है। इसीलिए अमीर बनने के व्यक्तिगत सिद्धांत का प्रतिपादक अर्थव्यवस्था के प्रचारक मनमोहन सिंह अमीर व्यक्तियों से मांग रहे हैं। मांग बढ़ाने के खिलाफ वो मांग पर संयम की बात कर रहे हैं। पता नहीं मनमोहन सिंह जी कम्युनिस्ट हो रहे हैं या कन्फ्यूज़ हो रहे हैं।
लोकतंत्र और व्यक्तिगत पूंजी साम्राज्य में गरीबी दूर करने का ठेका सरकारों को दिया गया है। कंपनियों को अमीर बनने का ठेका दिया गया है। इसीलिए मनमोहन सिंह की सरकार सेज जैसी नीति बनाकर गरीब किसानों की ज़मीन लेती है। विदर्भ के किसानों को मुआवज़ा देकर भूल जाती है। तीन साल में सरकार की नीतियों के नतीजे ज़ीरों से आगे बढ़ते देख मनमोहन सिंह को बात समझ में आ गई है। बस वो इस समझ को दूसरे पर टाल देना चाहते हैं। उनमें कहने की हिम्मत नहीं कि गरीब विरोधी कोई है तो वो सरकार है। गरीबी दूर करने के काम में उनकी सरकार फेल हो गई है। इसलिए बाकी के ढाई साल में अमीरों से चंदा मांग कर गरीबों को दे दिला कर काम चला लें। अर्थशास्त्र फेल हो गया या राजनीति यह शोध का विषय होना चाहिए। मौजूदा हालात में दोनों ही फेल नजर आते हैं। बस किसी में साहस नहीं है नए विकल्प की बात करने की। हम नया सोचना नहीं चाहते मगर नया करने का वक्त आ गया है।
रही बात शादियों में खर्चा कम करने की तो इसमें समाज के साथ सरकार की नाकामी है। मैं करीब हर तीसरे लेख में दहेज की चर्चा कर देता हूं। मुझे भी इसकी जड़ में हिंदुस्तान की लड़कियों की बदतरीन ज़िंदगी के हालात नजर आते हैं। यह सिर्फ अमीर की समस्या नहीं है। सबकी है। इसे दूर करने का कानून है। जिसे लागू करने में सरकार फेल हो गई है। दारोगा को दहेज विरोधी कानून से ज्यादा फायदा पहुंचा है। शादियां सिर्फ अमीरों की वल्गर नहीं होती। वो मेरठ, पटना और मोतिहारी में भी होती हैं। इसका मुद्रा स्फीति से भी लेना देना नहीं। दहेज के लिए होने वाले पूंजी संचय से खास महीनों में बाजार को फायदा होता है। मैं दावे के साथ कहता हूं अगर दहेज न लियें जाएं तो लगन के समय में बाजार गिर जाएगा। माल की खपत कम हो जाएगी। फिर सामाजिक रूप से चैतन्य कोई आमिर खान नुमा संवेदनशील कलाकार टाइटन घड़ी का प्रचार नहीं करेगा। हिंदुस्तान के मर्दों को मर्द बनाने वाला रेमन्ड्स दुल्हे की खास पसंद नहीं पेश करेगा। रेमन्ड जानता होगा कि दुल्हों का सजने का यह शौक लड़की का बाप पूरा करता है। बाद में वही लड़की का बाप अपने बेटे के लिए किसी और लड़की के बाप से यह शौक पूरा करवाता है। फायदा बाज़ार को होता है। इससे हतोत्साहित होकर अक्सर मेरे पिताजी कहते हैं दहेज से पूंजी का सामाजिक वितरण होता है। बैंड बाजे, हलवाई,नाई, पत्तलवाले, इत्र वालों के पास पैसा पहुंचता है। मगर बड़ा हिस्सा बाज़ार ले जाता है। दहेज के ज़रिये एक परिवार की पूंजी दूसरे परिवार में पहुंच जाती है। बेटा या बेटी के पैदा होते ही तय हो जाता है कि परिवार से कितना पैसा जाएगा और कितना आएगा। वो ऐसा इसलिए कह रहे थे कि उन्हें भी लग गया है कि इसका अंत नहीं होने वाला। इसलिए वो इसमें खूबी देख रहे हैं। पिताजी का यह बकवास अर्थशास्त्र किसी काम का नहीं वैसे ही जैसे मनमोहन सिंह की सलाह का कोई मतलब नहीं।
मनमोहन सिंह किसी जात बिरादरी के नेता की तरह अंतिम संस्कार के भोज, शादी, विदाई के वक्त संयम बरतने की अपील कर रहे हैं। सरकार के मुखिया की तरह कुछ कर नहीं रहे हैं। रिलायंस के कार्टेल के सामने क्या मनमोहन सिंह खड़े हो सकते हैं? राजनीति में भी परिवारों का कार्टेल बन रहा है। क्या उसके खिलाफ खड़े हो सकते हैं? मनमोहन सिंह व्यक्तिगत जीवन में संयम से रहते हैं। उनकी बेटियां आज भी साधारण रूप से कालेजों में पढ़ाने जाती हैं। कोई अहंकार नहीं। मगर क्या वो इस व्यक्तिगत कामयाबी को सामाजिक या राष्ट्रिय कामयाबी में बदल सकते हैं? नहीं। वो भाषण दे सकते हैं। सो दे रहे हैं। बहुत ही बेकार भाषण देते हैं। खुद ईमानदार होने पर बधाई। मगर अपराधी, भ्रष्ट नेताओं को मंत्री बनाने की बेबसी पर लानत। मनमोहन सिंह जैसे बेबस ईमानदारों से ऐसे ही भाषणों की उम्मीद की जा सकती है। मर्दाना कमजोरी से बचने के लिए हस्तमैथुन से संयम बरते की सलाह देने वाले सड़कछाप बाबाओं की तरह मनमोहन सिंह के इस भाषण पर बहुत गुस्सा आया है।
मनमोहन सिंह ने चार्वाक के इन्हीं संतानों को पैदा करने के लिए नब्बे के दशक में अर्थव्यवस्था का दरवाजा खोला था। तब इन्होंने कहा था कि गरीबी दूर होगी। देश तरक्की करेगा। इस बीच मनमोहन सिंह की तरक्की तो हो गई मगर सबसे शीर्ष पर पहुंच कर लग गया कि गरीबी दूर नहीं हुई है। इनता तो नंबर मिलना ही चाहिए कि प्रधानमंत्री को वोट से पहले ही गरीबों का गुस्सा नजर आ गया है। इसीलिए अमीर बनने के व्यक्तिगत सिद्धांत का प्रतिपादक अर्थव्यवस्था के प्रचारक मनमोहन सिंह अमीर व्यक्तियों से मांग रहे हैं। मांग बढ़ाने के खिलाफ वो मांग पर संयम की बात कर रहे हैं। पता नहीं मनमोहन सिंह जी कम्युनिस्ट हो रहे हैं या कन्फ्यूज़ हो रहे हैं।
लोकतंत्र और व्यक्तिगत पूंजी साम्राज्य में गरीबी दूर करने का ठेका सरकारों को दिया गया है। कंपनियों को अमीर बनने का ठेका दिया गया है। इसीलिए मनमोहन सिंह की सरकार सेज जैसी नीति बनाकर गरीब किसानों की ज़मीन लेती है। विदर्भ के किसानों को मुआवज़ा देकर भूल जाती है। तीन साल में सरकार की नीतियों के नतीजे ज़ीरों से आगे बढ़ते देख मनमोहन सिंह को बात समझ में आ गई है। बस वो इस समझ को दूसरे पर टाल देना चाहते हैं। उनमें कहने की हिम्मत नहीं कि गरीब विरोधी कोई है तो वो सरकार है। गरीबी दूर करने के काम में उनकी सरकार फेल हो गई है। इसलिए बाकी के ढाई साल में अमीरों से चंदा मांग कर गरीबों को दे दिला कर काम चला लें। अर्थशास्त्र फेल हो गया या राजनीति यह शोध का विषय होना चाहिए। मौजूदा हालात में दोनों ही फेल नजर आते हैं। बस किसी में साहस नहीं है नए विकल्प की बात करने की। हम नया सोचना नहीं चाहते मगर नया करने का वक्त आ गया है।
रही बात शादियों में खर्चा कम करने की तो इसमें समाज के साथ सरकार की नाकामी है। मैं करीब हर तीसरे लेख में दहेज की चर्चा कर देता हूं। मुझे भी इसकी जड़ में हिंदुस्तान की लड़कियों की बदतरीन ज़िंदगी के हालात नजर आते हैं। यह सिर्फ अमीर की समस्या नहीं है। सबकी है। इसे दूर करने का कानून है। जिसे लागू करने में सरकार फेल हो गई है। दारोगा को दहेज विरोधी कानून से ज्यादा फायदा पहुंचा है। शादियां सिर्फ अमीरों की वल्गर नहीं होती। वो मेरठ, पटना और मोतिहारी में भी होती हैं। इसका मुद्रा स्फीति से भी लेना देना नहीं। दहेज के लिए होने वाले पूंजी संचय से खास महीनों में बाजार को फायदा होता है। मैं दावे के साथ कहता हूं अगर दहेज न लियें जाएं तो लगन के समय में बाजार गिर जाएगा। माल की खपत कम हो जाएगी। फिर सामाजिक रूप से चैतन्य कोई आमिर खान नुमा संवेदनशील कलाकार टाइटन घड़ी का प्रचार नहीं करेगा। हिंदुस्तान के मर्दों को मर्द बनाने वाला रेमन्ड्स दुल्हे की खास पसंद नहीं पेश करेगा। रेमन्ड जानता होगा कि दुल्हों का सजने का यह शौक लड़की का बाप पूरा करता है। बाद में वही लड़की का बाप अपने बेटे के लिए किसी और लड़की के बाप से यह शौक पूरा करवाता है। फायदा बाज़ार को होता है। इससे हतोत्साहित होकर अक्सर मेरे पिताजी कहते हैं दहेज से पूंजी का सामाजिक वितरण होता है। बैंड बाजे, हलवाई,नाई, पत्तलवाले, इत्र वालों के पास पैसा पहुंचता है। मगर बड़ा हिस्सा बाज़ार ले जाता है। दहेज के ज़रिये एक परिवार की पूंजी दूसरे परिवार में पहुंच जाती है। बेटा या बेटी के पैदा होते ही तय हो जाता है कि परिवार से कितना पैसा जाएगा और कितना आएगा। वो ऐसा इसलिए कह रहे थे कि उन्हें भी लग गया है कि इसका अंत नहीं होने वाला। इसलिए वो इसमें खूबी देख रहे हैं। पिताजी का यह बकवास अर्थशास्त्र किसी काम का नहीं वैसे ही जैसे मनमोहन सिंह की सलाह का कोई मतलब नहीं।
मनमोहन सिंह किसी जात बिरादरी के नेता की तरह अंतिम संस्कार के भोज, शादी, विदाई के वक्त संयम बरतने की अपील कर रहे हैं। सरकार के मुखिया की तरह कुछ कर नहीं रहे हैं। रिलायंस के कार्टेल के सामने क्या मनमोहन सिंह खड़े हो सकते हैं? राजनीति में भी परिवारों का कार्टेल बन रहा है। क्या उसके खिलाफ खड़े हो सकते हैं? मनमोहन सिंह व्यक्तिगत जीवन में संयम से रहते हैं। उनकी बेटियां आज भी साधारण रूप से कालेजों में पढ़ाने जाती हैं। कोई अहंकार नहीं। मगर क्या वो इस व्यक्तिगत कामयाबी को सामाजिक या राष्ट्रिय कामयाबी में बदल सकते हैं? नहीं। वो भाषण दे सकते हैं। सो दे रहे हैं। बहुत ही बेकार भाषण देते हैं। खुद ईमानदार होने पर बधाई। मगर अपराधी, भ्रष्ट नेताओं को मंत्री बनाने की बेबसी पर लानत। मनमोहन सिंह जैसे बेबस ईमानदारों से ऐसे ही भाषणों की उम्मीद की जा सकती है। मर्दाना कमजोरी से बचने के लिए हस्तमैथुन से संयम बरते की सलाह देने वाले सड़कछाप बाबाओं की तरह मनमोहन सिंह के इस भाषण पर बहुत गुस्सा आया है।
भैंस का पुनर्मूल्यांकन
हमारे समाज में भैंस का जितना सामाजिक अनादर हुआ है। उतना किसी भी पालतू और फालतू जानवर का नहीं हुआ है। कोई काला है या काली है तो भैंस, भैसे जैसा है या जैसी है। रंग भेदी सोच भैंस पर बहुत ज़ुल्म करती है। कभी आपने सोचा है भैंस किसी का क्या बिगाड़ती है?
महमूद का वो गाना याद आता है- मेरे भैंस को डंडा क्यों मारा वो भैंस तो चारा चरती थी। तेरे बाप का वो क्या करती थी। कुछ ऐसा ही गाना था। यहां भी भैंस बेचारगी की अवस्था में आवारगी की सज़ा पाती नज़र आती है। गीतकार कवि उसकी निश्चलता को नहीं देख पाता । वो सिर्फ बेचारगी देखता है। कई बार तटस्थ लोग मुझे भैंस लगते हैं। दफ्तर आते हैं । चुपचाप काम करके बिना इतिहास को बताए घर चले जाते हैं। ऐसे भैंस नुमा लोगों की दुनिया दुश्मन। कोई उसके रंग पर तो कोई उसकी सोच पर हंसता रहता है। कोई सीधा समझ उसे हिस्सेदारी से बाहर कर देता है।
जबकि शालीन जानवारों में एक है भैंस। आप खेलते दौड़ते उसकी पीठ पर चढ़ जाइये। कुछ नहीं बोलेगी। वह चरती रहती है और चलती रहती है। कई बार बच्चे उसकी सींग पकड़ माथे पर लात धर पीठ पर चढ़ते हैं। तब भी भैंस कुछ नहीं कहती है। वह अपना काम करती रहती है। मुझे लगता है महात्मा गांधी को अंहिसा का दर्शन भैंस से मिला होगा। भैंस की सहिष्णुता का फल है उसका दूध। कहते हैं भैंस की दूध में ताकत होती है। भैंस भी वही काम करती है जो गाय करती है। पर गाय को इतना सम्मान क्यों? क्या सिर्फ रंग के कारण वह हंसी की पात्र हो गई? क्या भैंस दलित है और गाय ब्राह्मण? भैंस के नखरे नहीं होते। तेज़ गर्मी में वह कीचड़ में भी धंस जाती है। गाय की तरह किनारा नहीं करती। भैंस मांग नहीं करती। मांग की पूर्ति करती है। गाय की तरह। गाय को कितना संभाल कर रखा जाता है जबकि भैंस को दुत्कार कर।
भैंस का सामाजिक ओहदा क्या है? ओहदा या जगह। गांधी की सहिष्णुता दर्शन है और भैंस की सहिष्णुता मूर्खता। भैंस से दर्शन चुराने के बाद भी कांग्रेस ने चुनाव चिन्ह गाय बछड़े को बनाया । भैंस को नहीं। उसकी इतनी बड़ी मूर्खता कि बीन बजाते रहिए कोई फर्क नहीं पड़ता। क्या पता भैंस बीन बजते ही आनंद में डूब जाती होगी। वह कुछ भी ऐसा नहीं करना चाहती होगी जिससे बीन बजाने वाले की साधना भंग हो। लेकिन हमने उसकी इस एकाग्रता का कितना मज़ाक उड़ाया है। भैंस के पुनर्मूल्यांकन का वक्त आ गया है। हम भैंस के बारे सोचें। उसकी शालीनता से सीखें । न कि मज़ाक उड़ाए। हो सके तो हमें भैंस की तरह बनना चाहिए। चुपचाप काम करना चाहिए। चरना चाहिए और कोई मांगे तो दूध देकर कीचड़ में धंस जाना चाहिए। अहंकार की गर्मी अपने आप निकल जाएगी।
महमूद का वो गाना याद आता है- मेरे भैंस को डंडा क्यों मारा वो भैंस तो चारा चरती थी। तेरे बाप का वो क्या करती थी। कुछ ऐसा ही गाना था। यहां भी भैंस बेचारगी की अवस्था में आवारगी की सज़ा पाती नज़र आती है। गीतकार कवि उसकी निश्चलता को नहीं देख पाता । वो सिर्फ बेचारगी देखता है। कई बार तटस्थ लोग मुझे भैंस लगते हैं। दफ्तर आते हैं । चुपचाप काम करके बिना इतिहास को बताए घर चले जाते हैं। ऐसे भैंस नुमा लोगों की दुनिया दुश्मन। कोई उसके रंग पर तो कोई उसकी सोच पर हंसता रहता है। कोई सीधा समझ उसे हिस्सेदारी से बाहर कर देता है।
जबकि शालीन जानवारों में एक है भैंस। आप खेलते दौड़ते उसकी पीठ पर चढ़ जाइये। कुछ नहीं बोलेगी। वह चरती रहती है और चलती रहती है। कई बार बच्चे उसकी सींग पकड़ माथे पर लात धर पीठ पर चढ़ते हैं। तब भी भैंस कुछ नहीं कहती है। वह अपना काम करती रहती है। मुझे लगता है महात्मा गांधी को अंहिसा का दर्शन भैंस से मिला होगा। भैंस की सहिष्णुता का फल है उसका दूध। कहते हैं भैंस की दूध में ताकत होती है। भैंस भी वही काम करती है जो गाय करती है। पर गाय को इतना सम्मान क्यों? क्या सिर्फ रंग के कारण वह हंसी की पात्र हो गई? क्या भैंस दलित है और गाय ब्राह्मण? भैंस के नखरे नहीं होते। तेज़ गर्मी में वह कीचड़ में भी धंस जाती है। गाय की तरह किनारा नहीं करती। भैंस मांग नहीं करती। मांग की पूर्ति करती है। गाय की तरह। गाय को कितना संभाल कर रखा जाता है जबकि भैंस को दुत्कार कर।
भैंस का सामाजिक ओहदा क्या है? ओहदा या जगह। गांधी की सहिष्णुता दर्शन है और भैंस की सहिष्णुता मूर्खता। भैंस से दर्शन चुराने के बाद भी कांग्रेस ने चुनाव चिन्ह गाय बछड़े को बनाया । भैंस को नहीं। उसकी इतनी बड़ी मूर्खता कि बीन बजाते रहिए कोई फर्क नहीं पड़ता। क्या पता भैंस बीन बजते ही आनंद में डूब जाती होगी। वह कुछ भी ऐसा नहीं करना चाहती होगी जिससे बीन बजाने वाले की साधना भंग हो। लेकिन हमने उसकी इस एकाग्रता का कितना मज़ाक उड़ाया है। भैंस के पुनर्मूल्यांकन का वक्त आ गया है। हम भैंस के बारे सोचें। उसकी शालीनता से सीखें । न कि मज़ाक उड़ाए। हो सके तो हमें भैंस की तरह बनना चाहिए। चुपचाप काम करना चाहिए। चरना चाहिए और कोई मांगे तो दूध देकर कीचड़ में धंस जाना चाहिए। अहंकार की गर्मी अपने आप निकल जाएगी।
आस्था की ठेसता
मेरी प्यारी आस्था
चंद्रमोहन की कूची से जाने अनजाने में ठेस लगी मुझे डर लग रहा है। जब भी तुम्हें ठेस लगती है राजनीति हिंसक हो जाती है। आस्था तुम कौन हो? कुछ बताओ तो। क्या तुम उनके दिलों में भी रहती हो जो राजनीति को भ्रष्टाचार का ज़रिया बनाते हैं? क्या तुम उन लोगों को भी ठेस पहुंचाती हो जिनकी कारगुज़ारियों से गुजरात में हजारों लोग उजड़ गए। गोधरा के भी और गोधरा के बाहर भी। तुम्हारी ठेसता कहां थी? आस्था तुम सहिष्णुता से डाह करती हो। हैं न? वर्ना तुम मोदी को बताती कि मुझे ठेस लग जाए तो सहिष्णुता को याद करना।
आस्था तुम तानाशाह हो। एक तो बिना बताए न जाने किस किस के दिलों में रहती है। अपने होने का प्रमाण तभी देती हो जब कोई तुम्हें ठेस लगने के नाम पर किसी कलाकार को जेल भेज देता है और कोई किसी को मार देता है। चंद्रमोहन को दुर्गा की नहीं आस्था तुम्हारी तस्वीर बनानी चाहिए। उसकी कूची कुछ यूं तस्वीर बनाएगी। मनुष्य के ह्रदय प्रदेश में खून की प्यासी जिह्वा। या तलवार लिए किसी का पीछा करती सनक। आस्था तुम ऐसी ही हो। बस कोई तुम्हारी तस्वीर नहीं बनाता।
पांच हज़ार साल से दलितों को लतियाया गया तब तुम्हारी ठेसता कहां थी? क्या तब भी तुम मचली? जब खैरलांजी में एक दलित परिवार को जला कर मार दिया गया तब तुम किस समुदाय को ठेस पहुंचा रही थी? मैं बताता हूं। तुम छुप गई थी। दलितों की आत्मा तुम्हें ढूंढ रही थी। मगर तुमने एक भी दलित का साथ नहीं दिया।
आस्था मैं तुम्हें कूटना चाहता हूं। लातों से नहीं। मैं तुम्हारे नाम पर हिंसा करने वालों की पांत में नहीं आना चाहता। मैं अपने भीतर मौजूद आस्था को कूटना चाहता हूं। ऐसी मौकापरस्त आस्था को रखना नहीं चाहता। कभी ग़रीबों की आस्था देखी है? क्यों यह किसी राजनीतिक दल के साथ ही दिखाई देती है? अभी हरियाणा के बहादुरगढ़ में एक दहेज हत्या की स्टोरी करने गया था। महिला को बीच रात मोहल्ले के चौक पर जला दिया गया। किसी की आस्था को चोट नहीं पहुंची। मैंने पड़ोसियों से पूछा कि कुछ तो बोलिये। इतना तो कह ही सकते हैं कि गलत हुआ। मगर आस्था तुम कहां भाग गई पता नहीं चला। तुम सिर्फ कलाकारों के बहाने, धार्मिक तस्वीरों को लेकर ही क्यों भड़कती रहती हो? क्या और मुद्दे तुम्हारी सूची में शामिल नहीं हैं?
आस्था, अब मैं तुम्हें समझने लगा। तुम ख़ून की प्यासी हो। इस प्यास को बुझाने के लिए तुम किसी दल की ताकत का इस्तमाल करती है। किस पांच हज़ार साल की दुहाई दिलवाती हो तुम। उसी पांच हज़ार साल में जो बुराइयां रहीं है उन पर पर्दा डालने का काम तो नहीं कर रही।
मेरी प्यारी आस्था, अगर तुम मेरे भीतर कहीं हो तो जाओ। मैं तुम्हारी ठेसता को तजना चाहता हूं। तुम रास्ते की ठोकर हो। ठेस लगती रहे। मुझे कोई गुरेज़ नहीं। तुम्हारी ठेसता से डर लगता है। ठेसता कोई शब्द नहीं। पर तुम्हारे नाम पर कोई किसी को जेल में ठूंसता है तो मुझे तुम्हारे भीतर की ठेसता नज़र आती है।
चंद्रमोहन की कूची से जाने अनजाने में ठेस लगी मुझे डर लग रहा है। जब भी तुम्हें ठेस लगती है राजनीति हिंसक हो जाती है। आस्था तुम कौन हो? कुछ बताओ तो। क्या तुम उनके दिलों में भी रहती हो जो राजनीति को भ्रष्टाचार का ज़रिया बनाते हैं? क्या तुम उन लोगों को भी ठेस पहुंचाती हो जिनकी कारगुज़ारियों से गुजरात में हजारों लोग उजड़ गए। गोधरा के भी और गोधरा के बाहर भी। तुम्हारी ठेसता कहां थी? आस्था तुम सहिष्णुता से डाह करती हो। हैं न? वर्ना तुम मोदी को बताती कि मुझे ठेस लग जाए तो सहिष्णुता को याद करना।
आस्था तुम तानाशाह हो। एक तो बिना बताए न जाने किस किस के दिलों में रहती है। अपने होने का प्रमाण तभी देती हो जब कोई तुम्हें ठेस लगने के नाम पर किसी कलाकार को जेल भेज देता है और कोई किसी को मार देता है। चंद्रमोहन को दुर्गा की नहीं आस्था तुम्हारी तस्वीर बनानी चाहिए। उसकी कूची कुछ यूं तस्वीर बनाएगी। मनुष्य के ह्रदय प्रदेश में खून की प्यासी जिह्वा। या तलवार लिए किसी का पीछा करती सनक। आस्था तुम ऐसी ही हो। बस कोई तुम्हारी तस्वीर नहीं बनाता।
पांच हज़ार साल से दलितों को लतियाया गया तब तुम्हारी ठेसता कहां थी? क्या तब भी तुम मचली? जब खैरलांजी में एक दलित परिवार को जला कर मार दिया गया तब तुम किस समुदाय को ठेस पहुंचा रही थी? मैं बताता हूं। तुम छुप गई थी। दलितों की आत्मा तुम्हें ढूंढ रही थी। मगर तुमने एक भी दलित का साथ नहीं दिया।
आस्था मैं तुम्हें कूटना चाहता हूं। लातों से नहीं। मैं तुम्हारे नाम पर हिंसा करने वालों की पांत में नहीं आना चाहता। मैं अपने भीतर मौजूद आस्था को कूटना चाहता हूं। ऐसी मौकापरस्त आस्था को रखना नहीं चाहता। कभी ग़रीबों की आस्था देखी है? क्यों यह किसी राजनीतिक दल के साथ ही दिखाई देती है? अभी हरियाणा के बहादुरगढ़ में एक दहेज हत्या की स्टोरी करने गया था। महिला को बीच रात मोहल्ले के चौक पर जला दिया गया। किसी की आस्था को चोट नहीं पहुंची। मैंने पड़ोसियों से पूछा कि कुछ तो बोलिये। इतना तो कह ही सकते हैं कि गलत हुआ। मगर आस्था तुम कहां भाग गई पता नहीं चला। तुम सिर्फ कलाकारों के बहाने, धार्मिक तस्वीरों को लेकर ही क्यों भड़कती रहती हो? क्या और मुद्दे तुम्हारी सूची में शामिल नहीं हैं?
आस्था, अब मैं तुम्हें समझने लगा। तुम ख़ून की प्यासी हो। इस प्यास को बुझाने के लिए तुम किसी दल की ताकत का इस्तमाल करती है। किस पांच हज़ार साल की दुहाई दिलवाती हो तुम। उसी पांच हज़ार साल में जो बुराइयां रहीं है उन पर पर्दा डालने का काम तो नहीं कर रही।
मेरी प्यारी आस्था, अगर तुम मेरे भीतर कहीं हो तो जाओ। मैं तुम्हारी ठेसता को तजना चाहता हूं। तुम रास्ते की ठोकर हो। ठेस लगती रहे। मुझे कोई गुरेज़ नहीं। तुम्हारी ठेसता से डर लगता है। ठेसता कोई शब्द नहीं। पर तुम्हारे नाम पर कोई किसी को जेल में ठूंसता है तो मुझे तुम्हारे भीतर की ठेसता नज़र आती है।
उत्तर प्रदेश- मनुवाद से मायावाद २
मायावाद लेख पर आईं प्रतिक्रियाओं से लगता है बहस की संभावना बाकी है। निश्चित तौर पर इसे आशंकाओं के साथ देखा जाना चाहिए। मगर आशंकाओं के कारण संभावनाओं को नकारना भी नहीं चाहिए। मायावती उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री बनी हैं तो यह सिर्फ सामाजिक समीकरणों की खोज नहीं है बल्कि एक दलित का आत्मविश्वास है। वो अलग हुआ क्योंकि सवर्णों और पिछड़ों ने दलितों को दबाया। तीन तीन बार आधे अधूरे कार्यकाल के बावजूद पिछले पंद्रह साल में मायावती में एक बड़ा बदलाव आया। वो यह कि मैं एक दलित की बेटी और मेरी पार्टी दलितों की तो क्या आप सवर्ण मुझसे हाथ मिलायेंगे? यही अंदाज़ है मायावती का । एक दलित जिसे कोई छूता नहीं था उसने हाथ मिलाने की पेशकश कर दी। यह सिर्फ चुनावी अवसरवादिता नहीं है। बल्कि आत्मविश्वास है। और यही इस चुनाव का एक सबक भी। कब ऐसा हुआ है कि दलित ने हाथ बढ़ाया और सवर्णों ने लपक लिया।
मगर इस आत्मविश्वास के लिए मायावती को इंतज़ार करना पड़ा। मनुवाद पर हमला बोल कर पहले दलितों को जगाया। फिर पिछड़ों से हाथ मिलाकर सवर्णों खासकर ब्राह्मणों को राजनीतिक रूप से महत्वहीन बना दिया। इसी दौरान आधू अधूरी सत्ता के कारण दलितों की हैसियत गांव के टोले में भी बढ़ गई। और जब उसने हाथ बढ़ा दिया तो ब्राह्मणों ने मिलाने में संकोच नहीं की। मैंने चुनाव प्रचार के दौरान देखा है कि किस तरह ब्राह्मणों के घर पर जाटव चाय पी रहे हैं। साथ खाना खा रहे हैं। एक बड़े स्तर पर अस्पृश्यता खत्म हो रही थी। इतिहास में पहली बार हुआ कि जब ब्राह्मणों को लगा कि उन्हें महत्व कोई दिला सकता है तो वो दलितों की पार्टी बीएसपी ही है। कांग्रेस या बीजेपी नहीं। पांच हजार साल तक ब्राह्मणवादी सोच ने दलितों को रास्ता तक नहीं दिया। बीस साल में दलितों ने लोकतांत्रिक राजनीति के ज़रिये मनुवादी सत्ता का क्रम बदल दिया। क्या यह बड़ी घटना नहीं है?
ठीक है कि माया के मंत्रिमंडल में आपराधिक छवि के लोग हैं। ठीक हैं कि माया के मंत्रिमंडल के कई सदस्य बेदाग नहीं हैं। लोकतंत्र की मौजूद बुराइयों से वो कैसे बच सकती हैं। भ्रष्टाचार के आरोप हैं मगर उसी प्रदेश की जनता ने उन्हें गुण्डों को भगाने के लिए वोट दिए हैं। उनके पास जो हैं उसी में से इस्तमाल हो रहा है। मगर इसकी खूब और पूरे मन से आलोचना होनी चाहिए।
लेकिन आलोचना के क्रम में हम अपनी नज़र को वो न देखने दें जो साफ दिख रहा है तो समस्या है। अब यह भी तो देखिये कि मायावती कितनी बदल गईं हैं । ग्यारह मई की शाम पहली प्रेस कांफ्रेस में मायावती अकेले नहीं आईं थीं। तीन पुरुषों को लेकर बैठी थीं। सबसे पहले उन्होंने सतीश मिश्रा की तारीफ की, फिर नसीमुद्दीन सिद्दीकी की और बाबू सिंह कुशवाहा की। कहा कि इन तीनों ने बहुत मेहनत की है। क्या सोनिया गांधी बहुमत मिलने पर किसी प्रेस कांफ्रेस में अहमद पटेल और अंबिका सोनी को लेकर बैठेंगी? लोकतांत्रिक कौन है? मायावती पहले नहीं होंगी लेकिन अब हो गईं हैं। उनमें आए इसी बदलाव के कारण आज यह बड़ा समीकरण बन सका। उन्होंने मंत्रियों को जश्न मनाने से मना कर दिया ताकि कहीं यह संदेश न जाए कि यह सिर्फ बीएसपी की खुशी है।
रही बात मौका देख कर सवर्णों के भाग जाने की तो वह भी हो सकता है। मगर वो ब्राह्मण विधायक क्या यह भूल पाएंगे कि उन्होंने जाटवों को घर बुलाकर चाय पिलाई। उनकी गलियों में गए। क्या वो गंगा स्नान करेंगे। गोबर से खुद को लिपेंगे। दल बदल जाने के बाद भी चार महीने के लिए ही सही एक तरह की सामाजिक प्रयोगशाला में उनके जो भी अनुभव रहेंगे वो हिंदुस्तान की जातिगत सोच को लचीला बनाएंगे। मायावती को इतना श्रेय मिलना चाहिए। हर दल सत्ता के लिए ही राजनीति करता है।
मगर इस आत्मविश्वास के लिए मायावती को इंतज़ार करना पड़ा। मनुवाद पर हमला बोल कर पहले दलितों को जगाया। फिर पिछड़ों से हाथ मिलाकर सवर्णों खासकर ब्राह्मणों को राजनीतिक रूप से महत्वहीन बना दिया। इसी दौरान आधू अधूरी सत्ता के कारण दलितों की हैसियत गांव के टोले में भी बढ़ गई। और जब उसने हाथ बढ़ा दिया तो ब्राह्मणों ने मिलाने में संकोच नहीं की। मैंने चुनाव प्रचार के दौरान देखा है कि किस तरह ब्राह्मणों के घर पर जाटव चाय पी रहे हैं। साथ खाना खा रहे हैं। एक बड़े स्तर पर अस्पृश्यता खत्म हो रही थी। इतिहास में पहली बार हुआ कि जब ब्राह्मणों को लगा कि उन्हें महत्व कोई दिला सकता है तो वो दलितों की पार्टी बीएसपी ही है। कांग्रेस या बीजेपी नहीं। पांच हजार साल तक ब्राह्मणवादी सोच ने दलितों को रास्ता तक नहीं दिया। बीस साल में दलितों ने लोकतांत्रिक राजनीति के ज़रिये मनुवादी सत्ता का क्रम बदल दिया। क्या यह बड़ी घटना नहीं है?
ठीक है कि माया के मंत्रिमंडल में आपराधिक छवि के लोग हैं। ठीक हैं कि माया के मंत्रिमंडल के कई सदस्य बेदाग नहीं हैं। लोकतंत्र की मौजूद बुराइयों से वो कैसे बच सकती हैं। भ्रष्टाचार के आरोप हैं मगर उसी प्रदेश की जनता ने उन्हें गुण्डों को भगाने के लिए वोट दिए हैं। उनके पास जो हैं उसी में से इस्तमाल हो रहा है। मगर इसकी खूब और पूरे मन से आलोचना होनी चाहिए।
लेकिन आलोचना के क्रम में हम अपनी नज़र को वो न देखने दें जो साफ दिख रहा है तो समस्या है। अब यह भी तो देखिये कि मायावती कितनी बदल गईं हैं । ग्यारह मई की शाम पहली प्रेस कांफ्रेस में मायावती अकेले नहीं आईं थीं। तीन पुरुषों को लेकर बैठी थीं। सबसे पहले उन्होंने सतीश मिश्रा की तारीफ की, फिर नसीमुद्दीन सिद्दीकी की और बाबू सिंह कुशवाहा की। कहा कि इन तीनों ने बहुत मेहनत की है। क्या सोनिया गांधी बहुमत मिलने पर किसी प्रेस कांफ्रेस में अहमद पटेल और अंबिका सोनी को लेकर बैठेंगी? लोकतांत्रिक कौन है? मायावती पहले नहीं होंगी लेकिन अब हो गईं हैं। उनमें आए इसी बदलाव के कारण आज यह बड़ा समीकरण बन सका। उन्होंने मंत्रियों को जश्न मनाने से मना कर दिया ताकि कहीं यह संदेश न जाए कि यह सिर्फ बीएसपी की खुशी है।
रही बात मौका देख कर सवर्णों के भाग जाने की तो वह भी हो सकता है। मगर वो ब्राह्मण विधायक क्या यह भूल पाएंगे कि उन्होंने जाटवों को घर बुलाकर चाय पिलाई। उनकी गलियों में गए। क्या वो गंगा स्नान करेंगे। गोबर से खुद को लिपेंगे। दल बदल जाने के बाद भी चार महीने के लिए ही सही एक तरह की सामाजिक प्रयोगशाला में उनके जो भी अनुभव रहेंगे वो हिंदुस्तान की जातिगत सोच को लचीला बनाएंगे। मायावती को इतना श्रेय मिलना चाहिए। हर दल सत्ता के लिए ही राजनीति करता है।
उत्तर प्रदेश- मनुवाद से मायावाद
लखनऊ में ग्यारह मई को ज़बर्दस्त उमस औऱ गर्मी थी। पसीने और तेज धूप से जान जा रही थी। मगर शाम को मौसम अच्छा हो गया। तेज आंधी चली, कुछ पेड़ गिरे और बारिश हो गई। बीएसपी की ऐतिहासिक जीत का भी कुछ ऐसा ही हाल रहा। सालों तक दलित एजेंडे की उमस और गर्मी, फिर ब्राह्मणों और मुसलमानों के आने से बढ़ती धूप और ग्यारह मई को कुछ पुराने समीकरणों के पेड़ों के उखड़ जाने के बाद नतीजे की बारिश। राजनीति का मौसम अच्छा हो गया।
जातिवाद में धंसे उत्तर प्रदेश की जनता ने अपने जातिगत पापों का प्रायश्चित पूरा कर लिया। एक दलित की बेटी को अपना नेता मान लिया। जात पात को ढोने वाले ब्राह्मण उस दलित की टोली में चले गए जहां न जाने की लिए उन्होंने सदियों तक एक रेखा खींच रखी थी। हमने देखा था कि कैसे पंडित की बेटी घर आए बीएसपी के जाटव कार्यकर्ताओं के लिए रोटी बना रही थी। गुजरात के दंगे और बीजेपी से मिल जाने की अफवाहों को किनारे कर मायावती के साथ आ रहे थे। किसी को अंदाज़ा नहीं था। मुसलमान, ब्राह्मण और यूपी की जनता चुपचाप बदलने लगे। अच्छे शासन के लिए भी मायावती को वोट मिले हैं। लोगों का विश्वास हासिल हुआ कि मायावती यूपी के गुंडों का दम निकाल सकती हैं।
जो लोग जातिगत राजनीति की सीमा बता रहे थे उन्हें इसकी संभावना नज़र ही नहीं आई। जब खैरलांजी जैसी घटना हो रही हो, एक दलित को शादी के लिए घोड़ी पर चढ़ने से मना किया जा रहा हो उसी समय में देश के एक बड़े राज्य में ब्राह्मण अपने लिए एक दलित नेतृत्व स्वीकार कर रहा था। यह राजनीतिक बदलाव सामाजिक बदलावों के चलते भी आया है। ब्राह्मण अगर अपनी जातिगत मान्यताओं में जकड़े रहते तो इतनी बड़ी संख्या में बीएसपी को जीत नहीं मिलती। कांग्रेस में ब्राह्मणों से छिटक कर दलित बीएसपी में गए ही इसलिए थे क्योंकि कांग्रेस और बीजेपी में उनके वर्चस्व से जातिगत बू आती थी। उनकी संख्या थी मगर नेतृत्व नहीं। दलित अपनी संख्या के दम पर चुनौती देना चाहते थे। मगर उनकी संख्या की एक सीमा थी। लिहाज़ा दलितों ने ब्राह्मणों से हाथ मिलाया। यह सिर्फ दो संख्या का जोड़ नहीं है। बिना सामाजिक बदलाव के संभव नहीं था। क्यों ब्राह्मण अपनी जातिगत भावों को छोड़ दलित के साथ चलता? क्या सिर्फ विधायक बनने के लिए? क्या विधायक बनना उसके तमाम जातिगत पूर्वाग्रहों से ज़्यादा महत्वपूर्ण है? फिर रोटी बेटी की बात कहां चली गई? क्या एक ही जीप में दलितों के साथ बैठकर विधायक बनने का सपना देखते वक्त ब्राह्मण उम्मीदवारों की जातिगत मान्यताएं नहीं टूटी होंगी? नहीं भी टूटीं होगी तो क्या बीएसपी के ब्राह्मण विधायक हिम्मत कर पायेंगे अपने पूर्वाग्रहों को ज़ाहिर करने की। क्या सतीश मिश्रा ने सिर्फ विधायक बनने का सपना दिखाया होगा? क्या उन्होंने यह नहीं कहा होगा कि अपनी मान्यताओं को छोड़िये। ब्राह्मण के नाम पर कांग्रेस बीजेपी में सड़ने से क्या फायदा? क्या यह बेहतर नहीं होगा कि दलित को नेता मानकर ब्राह्मण सामाजिक परिवर्तन में हिस्सेदार बन जाएं । मायावती ने यह काम किया उन्हें श्रेय मिलना चाहिए। जो लोग मायावती को विज़न वाली नेता नहीं मानते हैं उन्हें अपनी नज़र बदलनी चाहिए। मगर साथ साथ उन ब्राह्मणों की तरफ भी देखना चाहिए जो बदल रहे हैं। ठीक है कि बीएसपी के ब्राह्मण विधायकों में कई ऐसे हैं जो संघ और बीजेपी के हैं। मगर अब उन्हें अपनी पुरानी मान्यताएं छोड़नी होगी। वर्ना बीएसपी में दाल नहीं गलेगी। निश्चित तौर पर वो बीएसपी में संघ का एजेंडा चलाने का ख्वाब नहीं देख सकते।
इससे यह भी साफ हो गया कि संघ की कोई विचारधारा नहीं है। वो सिर्फ संघ में रह कर राजनीतिक करने तक सीमित है। संघ के लोग बीएसपी में जाकर अब दलित राजनीति और अंबेडकर की किताबें पढ़ेंगे। यह अंबेडकर की जीत है और संघ की हार।
फिलहाल दलित राजनीति की इस ऐतिहासिक कामयाबी पर अखबारों में छपने वाले उनके लेख ज़रूर पढ़े जो कल तक बीएसपी को एक सौ साठ से अधिक सीट नहीं दे रहे थे। जिन्हें नहीं दिख रहा था कि उत्तर प्रदेश में जातिगत ढांचे के भीतर नए जातिगत समीकरण बन रहे हैं। इस समीकरण के बनने में कुछ जातिगत मान्यताएं टूट रही हैं। पंकज पचौरी कहते हैं जातिगत राजनीति का लोकतांत्रिकरण हो रहा है।
जातिवाद में धंसे उत्तर प्रदेश की जनता ने अपने जातिगत पापों का प्रायश्चित पूरा कर लिया। एक दलित की बेटी को अपना नेता मान लिया। जात पात को ढोने वाले ब्राह्मण उस दलित की टोली में चले गए जहां न जाने की लिए उन्होंने सदियों तक एक रेखा खींच रखी थी। हमने देखा था कि कैसे पंडित की बेटी घर आए बीएसपी के जाटव कार्यकर्ताओं के लिए रोटी बना रही थी। गुजरात के दंगे और बीजेपी से मिल जाने की अफवाहों को किनारे कर मायावती के साथ आ रहे थे। किसी को अंदाज़ा नहीं था। मुसलमान, ब्राह्मण और यूपी की जनता चुपचाप बदलने लगे। अच्छे शासन के लिए भी मायावती को वोट मिले हैं। लोगों का विश्वास हासिल हुआ कि मायावती यूपी के गुंडों का दम निकाल सकती हैं।
जो लोग जातिगत राजनीति की सीमा बता रहे थे उन्हें इसकी संभावना नज़र ही नहीं आई। जब खैरलांजी जैसी घटना हो रही हो, एक दलित को शादी के लिए घोड़ी पर चढ़ने से मना किया जा रहा हो उसी समय में देश के एक बड़े राज्य में ब्राह्मण अपने लिए एक दलित नेतृत्व स्वीकार कर रहा था। यह राजनीतिक बदलाव सामाजिक बदलावों के चलते भी आया है। ब्राह्मण अगर अपनी जातिगत मान्यताओं में जकड़े रहते तो इतनी बड़ी संख्या में बीएसपी को जीत नहीं मिलती। कांग्रेस में ब्राह्मणों से छिटक कर दलित बीएसपी में गए ही इसलिए थे क्योंकि कांग्रेस और बीजेपी में उनके वर्चस्व से जातिगत बू आती थी। उनकी संख्या थी मगर नेतृत्व नहीं। दलित अपनी संख्या के दम पर चुनौती देना चाहते थे। मगर उनकी संख्या की एक सीमा थी। लिहाज़ा दलितों ने ब्राह्मणों से हाथ मिलाया। यह सिर्फ दो संख्या का जोड़ नहीं है। बिना सामाजिक बदलाव के संभव नहीं था। क्यों ब्राह्मण अपनी जातिगत भावों को छोड़ दलित के साथ चलता? क्या सिर्फ विधायक बनने के लिए? क्या विधायक बनना उसके तमाम जातिगत पूर्वाग्रहों से ज़्यादा महत्वपूर्ण है? फिर रोटी बेटी की बात कहां चली गई? क्या एक ही जीप में दलितों के साथ बैठकर विधायक बनने का सपना देखते वक्त ब्राह्मण उम्मीदवारों की जातिगत मान्यताएं नहीं टूटी होंगी? नहीं भी टूटीं होगी तो क्या बीएसपी के ब्राह्मण विधायक हिम्मत कर पायेंगे अपने पूर्वाग्रहों को ज़ाहिर करने की। क्या सतीश मिश्रा ने सिर्फ विधायक बनने का सपना दिखाया होगा? क्या उन्होंने यह नहीं कहा होगा कि अपनी मान्यताओं को छोड़िये। ब्राह्मण के नाम पर कांग्रेस बीजेपी में सड़ने से क्या फायदा? क्या यह बेहतर नहीं होगा कि दलित को नेता मानकर ब्राह्मण सामाजिक परिवर्तन में हिस्सेदार बन जाएं । मायावती ने यह काम किया उन्हें श्रेय मिलना चाहिए। जो लोग मायावती को विज़न वाली नेता नहीं मानते हैं उन्हें अपनी नज़र बदलनी चाहिए। मगर साथ साथ उन ब्राह्मणों की तरफ भी देखना चाहिए जो बदल रहे हैं। ठीक है कि बीएसपी के ब्राह्मण विधायकों में कई ऐसे हैं जो संघ और बीजेपी के हैं। मगर अब उन्हें अपनी पुरानी मान्यताएं छोड़नी होगी। वर्ना बीएसपी में दाल नहीं गलेगी। निश्चित तौर पर वो बीएसपी में संघ का एजेंडा चलाने का ख्वाब नहीं देख सकते।
इससे यह भी साफ हो गया कि संघ की कोई विचारधारा नहीं है। वो सिर्फ संघ में रह कर राजनीतिक करने तक सीमित है। संघ के लोग बीएसपी में जाकर अब दलित राजनीति और अंबेडकर की किताबें पढ़ेंगे। यह अंबेडकर की जीत है और संघ की हार।
फिलहाल दलित राजनीति की इस ऐतिहासिक कामयाबी पर अखबारों में छपने वाले उनके लेख ज़रूर पढ़े जो कल तक बीएसपी को एक सौ साठ से अधिक सीट नहीं दे रहे थे। जिन्हें नहीं दिख रहा था कि उत्तर प्रदेश में जातिगत ढांचे के भीतर नए जातिगत समीकरण बन रहे हैं। इस समीकरण के बनने में कुछ जातिगत मान्यताएं टूट रही हैं। पंकज पचौरी कहते हैं जातिगत राजनीति का लोकतांत्रिकरण हो रहा है।
आरक्षण सबसे कारगर
हमारे देश में आरक्षण पर होने वाली बहसें खेमेबाज़ी से अलग नहीं रही हैं। हम दो फ्रेम लेकर चलते हैं। आरक्षण नहीं होना चाहिए और दूसरा आरक्षण होना चाहिए। लेकिन हम कभी यह मूल्यांकन नहीं करते कि आरक्षण का फायदा क्या हुआ? क्या यह नीति अन्य सरकारी नीतियों की तरह हैं जिसका कोई फायदा नहीं? हम पहले यह क्यों नहीं देखते कि आरक्षण से समाज को क्या लाभ हुआ?
मैं कहता हूं दुनिया में आरक्षण जैसी कारगर संवैधानिक नीति नहीं बनी है। सिर्फ पचास साल में इसकी वजह से लाखों दलित इस हालत में पहुंच गए जिन्हें पांच हज़ार साल से किसी लायक नहीं छोड़ा गया था। युगों का पिछड़ापन और आधी सदी का विकास सिर्फ एक नीति से हुआ है। आरक्षण एक आश्चर्य है।
जिस कांशीराम या मायावती को आप देखते हैं वो सभी आरक्षण की देन रहे हैं। वो नहीं तो उनका परिवार। जिसके सहारे वो स्वतंत्र राजनीति करने में सक्षम रहे। गांधी, नेहरू,लोहिया और वाजपेयी की राजनीतिक धारा के सामने अपनी एक नई धारा खड़ी कर दी। दलितों के पास अपनी राजनीतिक आवाज़ है।
राजनीतिक बदलाव इसलिए महत्वपूर्ण है कि आज़ादी के सैंतीस साल बाद बीएसपी का जन्म होता है। तब तक आरक्षण से लाभ पाए पहली पीढ़ी के ही दलित सक्षम हो सके थे। उनकी सामाजिक हैसियत धीरे धीरे बदल रही थी। मगर राजनीतिक दलों का रवैया नहीं। वो किसी के कहने पर वोट देने वाले सामाजिक तबके के रूप में धकियाये जाते रहे। लेकिन अब उनकी राजनीतिक आवाज़ है। बीएसपी में या दूसरे दलों में भी। इसकी ताकत कहां से आई? सिर्फ आरक्षण से।
कल्पना कीजिए। आज़ादी के पहले तक गांव के चमर टोली में रहने वाला दलित आज अगर दिल्ली के पटपड़गंज में अपनी हाउसिंग सोसायटी में रह रहा है तो इसे आरक्षण का चमत्कार कहा जाना चाहिए। चमर टोली के इन अछूत नागरिकों के पास क्या था? ज़मीन न रास्ता। वैसे आज भी शादी के वक्त दलित जब शादी के लिए घोड़ी चढ़ता है तो गोली चल जाती है। आज़ादी से पहले का हाल सोचिए। इनके पास कपड़े तक नहीं थे। अच्छा खाना नहीं था। सामाजिक सम्मान कितना था ज़रा ईमानदारी से सोचिएगा। क्या आपने कभी दलित के घर खाना खाया है? कुछ ने खाया होगा मगर सबने नहीं। क्यों? खा सकते हैं? कितने लोग हैं जो उच्च जाति के हैं उनके गांव के चमर टोली वाले हम उम्र नौजवान उनके दोस्त हैं? नौकरी या कालेज की दोस्ती छोड़िये। मैं कुछ लोगों की बात नहीं कर रहा हूं जिनके दलित दोस्त हैं और वो दलितों के यहां खाते पीते हैं।
दलितों के पास ज़ीरो था। आरक्षण ने ज़ीरो को भर दिया है। वे अब संख्या हैं। शून्य नहीं। उनके अपने मकान हैं। गाड़िया हैं। उनके बच्चे अच्छे स्कूलों में पढ़ रहे हैं। दलित साहित्य की परंपरा है। उनकी क्रयशक्ति से बाज़ार को सहारा मिलता है। उनकी उन्नति से भारत को दुनिया में मान कि हमने दलितों को जाति के आधार पर सताना संवैधानिक रूप से बंद कर दिया है। सामाजिक रूप से भी बंद हुआ है मगर उसका आयतन बहुत कम है। क्या हमें आरक्षण पर गर्व नहीं करना चाहिए?
क्या आरक्षण के विरोधियों को इस पर संतोष नहीं होना चाहिए कि इस नीति का सही पालन न होने पर भी इतना बदलाव आ गया है। रही बात क्रिमी लेयर की तो इसका भी समाधान हो जाएगा। पहले खैरलांजी जैसी घटना बंद हो जाए। हाल ही में मध्य प्रदेश के सागर में एक दलित युवक को शादी के लिए घोड़ी चढ़ने से मना कर दिया गया। उसी दिन अभिषेक बच्चन की भी घोड़ी चढ़ी थी। लेकिन उस युवक ने बिना किसी राजनीतिक मदद के अपने संवैधानिक अधिकारों का हवाला देते हुए एसपी से सुरक्षा की मांग की। और घोड़ी चढ़ कर गया। इस घटना के बाद कितने सवर्ण प्रगतिशील और महानगर के जातिविहीन समाज में रहने वालों को शर्म आई? क्या हमने सोचा कि इस लड़के की शादी नहीं होती अगर आरक्षण नहीं होता।
तो क्या हम मानेंगे कि आरक्षण के कारण हमारे सामाज में कुछ हद तक कईयों को बराबरी तक आने का मौका मिला। जिनसे यह मौका सिर्फ जाति के नाम पर छिन लिया गया था। क्या हम आरक्षण का विरोध करते वक्त सिर्फ अपनी नौकरी पर किसी के दावे तक ही सोचते हैं या फिर चमर टोली के उन लड़कों की भी जो हमारी तरह हैं। मगर उनके पास हमारे जैसे मौके नहीं।
आरक्षण पर बहस राजनीतिक तक सीमित नहीं होनी चाहिए। इसके सामाजिक पहलुओं पर भी गौर करना चाहिए। इतनी तेज़ी से किसी वर्ग की सामाजिक हैसियत बदल देने की कोई और नीति हो तो बताइयेगा। नौकरी में नहीं और पढ़ाई में आरक्षण की बात नहीं कीजिएगा। क्योंकि अब लोग पढ़ाई में भी आरक्षण का विरोध कर चुके हैं। जब नौकरी में आरक्षण का विरोध कर रहे थे तब यही लोग कह रहे थे कि पढ़ाई में दे कर समान अवसर बनाओ। ठीक है विरोध करने की आज़ादी है। मगर आप विरोध के अपने तर्कों में यह भी शामिल कर लें कि आरक्षण की नीति गलत है और इससे दलितों को कोई फायदा नहीं हुआ है तो आरक्षण विरोधी बहस सार्थक हो सकेगी। अगर नहीं तो यह मान लेने में क्या हर्ज़ है कि आरक्षण सबसे कारगर है।
मैं कहता हूं दुनिया में आरक्षण जैसी कारगर संवैधानिक नीति नहीं बनी है। सिर्फ पचास साल में इसकी वजह से लाखों दलित इस हालत में पहुंच गए जिन्हें पांच हज़ार साल से किसी लायक नहीं छोड़ा गया था। युगों का पिछड़ापन और आधी सदी का विकास सिर्फ एक नीति से हुआ है। आरक्षण एक आश्चर्य है।
जिस कांशीराम या मायावती को आप देखते हैं वो सभी आरक्षण की देन रहे हैं। वो नहीं तो उनका परिवार। जिसके सहारे वो स्वतंत्र राजनीति करने में सक्षम रहे। गांधी, नेहरू,लोहिया और वाजपेयी की राजनीतिक धारा के सामने अपनी एक नई धारा खड़ी कर दी। दलितों के पास अपनी राजनीतिक आवाज़ है।
राजनीतिक बदलाव इसलिए महत्वपूर्ण है कि आज़ादी के सैंतीस साल बाद बीएसपी का जन्म होता है। तब तक आरक्षण से लाभ पाए पहली पीढ़ी के ही दलित सक्षम हो सके थे। उनकी सामाजिक हैसियत धीरे धीरे बदल रही थी। मगर राजनीतिक दलों का रवैया नहीं। वो किसी के कहने पर वोट देने वाले सामाजिक तबके के रूप में धकियाये जाते रहे। लेकिन अब उनकी राजनीतिक आवाज़ है। बीएसपी में या दूसरे दलों में भी। इसकी ताकत कहां से आई? सिर्फ आरक्षण से।
कल्पना कीजिए। आज़ादी के पहले तक गांव के चमर टोली में रहने वाला दलित आज अगर दिल्ली के पटपड़गंज में अपनी हाउसिंग सोसायटी में रह रहा है तो इसे आरक्षण का चमत्कार कहा जाना चाहिए। चमर टोली के इन अछूत नागरिकों के पास क्या था? ज़मीन न रास्ता। वैसे आज भी शादी के वक्त दलित जब शादी के लिए घोड़ी चढ़ता है तो गोली चल जाती है। आज़ादी से पहले का हाल सोचिए। इनके पास कपड़े तक नहीं थे। अच्छा खाना नहीं था। सामाजिक सम्मान कितना था ज़रा ईमानदारी से सोचिएगा। क्या आपने कभी दलित के घर खाना खाया है? कुछ ने खाया होगा मगर सबने नहीं। क्यों? खा सकते हैं? कितने लोग हैं जो उच्च जाति के हैं उनके गांव के चमर टोली वाले हम उम्र नौजवान उनके दोस्त हैं? नौकरी या कालेज की दोस्ती छोड़िये। मैं कुछ लोगों की बात नहीं कर रहा हूं जिनके दलित दोस्त हैं और वो दलितों के यहां खाते पीते हैं।
दलितों के पास ज़ीरो था। आरक्षण ने ज़ीरो को भर दिया है। वे अब संख्या हैं। शून्य नहीं। उनके अपने मकान हैं। गाड़िया हैं। उनके बच्चे अच्छे स्कूलों में पढ़ रहे हैं। दलित साहित्य की परंपरा है। उनकी क्रयशक्ति से बाज़ार को सहारा मिलता है। उनकी उन्नति से भारत को दुनिया में मान कि हमने दलितों को जाति के आधार पर सताना संवैधानिक रूप से बंद कर दिया है। सामाजिक रूप से भी बंद हुआ है मगर उसका आयतन बहुत कम है। क्या हमें आरक्षण पर गर्व नहीं करना चाहिए?
क्या आरक्षण के विरोधियों को इस पर संतोष नहीं होना चाहिए कि इस नीति का सही पालन न होने पर भी इतना बदलाव आ गया है। रही बात क्रिमी लेयर की तो इसका भी समाधान हो जाएगा। पहले खैरलांजी जैसी घटना बंद हो जाए। हाल ही में मध्य प्रदेश के सागर में एक दलित युवक को शादी के लिए घोड़ी चढ़ने से मना कर दिया गया। उसी दिन अभिषेक बच्चन की भी घोड़ी चढ़ी थी। लेकिन उस युवक ने बिना किसी राजनीतिक मदद के अपने संवैधानिक अधिकारों का हवाला देते हुए एसपी से सुरक्षा की मांग की। और घोड़ी चढ़ कर गया। इस घटना के बाद कितने सवर्ण प्रगतिशील और महानगर के जातिविहीन समाज में रहने वालों को शर्म आई? क्या हमने सोचा कि इस लड़के की शादी नहीं होती अगर आरक्षण नहीं होता।
तो क्या हम मानेंगे कि आरक्षण के कारण हमारे सामाज में कुछ हद तक कईयों को बराबरी तक आने का मौका मिला। जिनसे यह मौका सिर्फ जाति के नाम पर छिन लिया गया था। क्या हम आरक्षण का विरोध करते वक्त सिर्फ अपनी नौकरी पर किसी के दावे तक ही सोचते हैं या फिर चमर टोली के उन लड़कों की भी जो हमारी तरह हैं। मगर उनके पास हमारे जैसे मौके नहीं।
आरक्षण पर बहस राजनीतिक तक सीमित नहीं होनी चाहिए। इसके सामाजिक पहलुओं पर भी गौर करना चाहिए। इतनी तेज़ी से किसी वर्ग की सामाजिक हैसियत बदल देने की कोई और नीति हो तो बताइयेगा। नौकरी में नहीं और पढ़ाई में आरक्षण की बात नहीं कीजिएगा। क्योंकि अब लोग पढ़ाई में भी आरक्षण का विरोध कर चुके हैं। जब नौकरी में आरक्षण का विरोध कर रहे थे तब यही लोग कह रहे थे कि पढ़ाई में दे कर समान अवसर बनाओ। ठीक है विरोध करने की आज़ादी है। मगर आप विरोध के अपने तर्कों में यह भी शामिल कर लें कि आरक्षण की नीति गलत है और इससे दलितों को कोई फायदा नहीं हुआ है तो आरक्षण विरोधी बहस सार्थक हो सकेगी। अगर नहीं तो यह मान लेने में क्या हर्ज़ है कि आरक्षण सबसे कारगर है।
अंग्रेज़ी से साक्षात्कार- पार्ट टू
गांव छूटने लगा। गांव और दिल्ली के बीच मेरा शहर पटना। इस बीच उन्नीस सौ तिरासी आ गया । कपिल देव की टीम विश्व कप जीत गई। हम सब खुशी के मारे पागल हो गए थे। मैं कपिल देव बनना चाहता था। दिन रात कपिल के ही सपने आते थे। मगर एक गेंद ठीक से नहीं फेंक पाने की हताशा परेशान कर रही थी। सपने में कपिल और पिच पर कपिल का घटिया फोटोकॉपी संस्करण। मैं । लोगों ने टीम में शामिल करना बंद कर दिया। मैं टुवेल्थ मैन हो गया। थर्ड मैंन से छूटी गेंदों को पकड़ कर खुश हो लेता था।
तभी क्रिकेट के अलावा कपिल के एक विज्ञापन से कुछ रास्ता दिखा। रैपिडेक्स इंग्लिश स्पिकिंग कोर्स । मैं यही सोचता रहता था कि विश्व विजेता टीम का कप्तान, हरियाणा के किसान का एक बेटा कैसे बिना अंग्रेजी के विव रिचर्ड से बात करता होगा । माइक गैटिंग और डेविड गावर जब कपिल को बधाई देते होंगे तो कपिल क्या कहते होंगे। क्या वाकई कपिल को रैपिडेक्स के कारण अंग्रेजी आ गई थी। रैपिडेक्स का विज्ञापन उम्मीद की किरण की तरह नज़र आता था। दुनिया का सबसे शक्तिशाली ऑलराउंडर और बिना अंग्रेजी के..मेरा खोया आत्मविश्वास वापस आने लगा था। रैपिडेक्स खरीदा जा चुका था। लेकिन रैपिडेक्स दिल्ली जाने के लिए नहीं अंग्रेजी सीख कर गांव लौटने के लिए खरीदा गया था।
रैपिडेक्स के सारे अभ्यास कर लिए । रटने के तर्ज पर। दोस्तों को पता नहीं था मैं रैपिडेक्स पढ़ता हूं। धीरे धीरे पता चलता गया कि रैपिडेक्स भी गोल्डन पासपोर्ट या किसी कुंजी की तरह ब्राउन कवर में छुपा कर रखने की चीज़ है। मगर यह पासपोर्ट से अलग था। क्योंकि पासपोर्ट से अंग्रेजी में पास हो सकते थे और रैपिडेक्स से अंग्रेजी बोल सकते थे। मैं सोमवार को कलकत्ता जाऊंगा। इस वाक्य को अंग्रेजी में बोल सकते थे। मगर वजन और आकार के कारण रैपिडेक्स कोर्स की किताबों में घुलमिल नहीं पाता था। वो अलग दिखता था। लोगों की नज़र पड़ जाती थी कि ये कौन सी किताब है। इसलिए उसे तकिये के नीचे रखता था। अक्सर पढ़ने से पहले कमरे का दरवाज़ा बंद कर देता था।
लेकिन दोस्तों से बिना बताये अंग्रेजी सीखने का अभ्यास कोई चमत्कार नहीं कर सका। एक दिन मेरा दोस्त अविनाश वॉकमैन ले आया। ये कोई सत्तासी अठासी की बात होगी। उसने कान में हेडफोन लगा दिया। मैं हैरान हो गया। बोला अविनाश ये तो अंग्रेजी का गाना है। अंग्रेजी में गाना भी होता है क्या? सारे दोस्त हंसने लगे। अविनाश ने कहा- तुम को पता ही नहीं अंग्रेजी में गाना होता है। मैंने कहा- नहीं। हम जीवन में बहुत कुछ नहीं जानते हैं। वो सब कुछ भी जिसके बारे में लगता है दुनिया जानती है। यही वो वक्त था जब मुझे पता चल गया कि अंग्रेजी एक भाषा है। पेपर वन और टू नहीं।
मां से ज़िद कर दुबारा ट्यूशन मास्टर रख लिया। नेस्फिल्ड और रेन एंड मार्टिन ग्रामर की किताब। सत्तर के दशक तक बिहार के गांव गांव में नेस्फिल्ड ग्रामर की किताब गीता और रामायण की तरह मौजूद हुआ करती थी। मगर अस्सी तक नेस्फिल्ड पुराना हो गया। रेन एंड मार्टिन का ज़माना आ गया था। मैंने अपने पिता से सिर्फ दो ही चीज़ मांगी। बीबीसी सुनने के लिए रेडियो और अंग्रेजी सीखने के लिए रेन एंड मार्टिन की ग्रामर बुक। लाल रंग की किताब हाथ में आते ही आंखें चौंध गईं। तभी पिता जी ने ताना कस दिया। शायद वो किताब पर खर्च हुए पैसे से खिन्न थे। बोले अंग्रेजी सीखेंगे। क्या कीजिएगा। लेकिन अब मुझे पता था कि अंग्रेजी सीख कर बोल सकता हूं और गाने सुन सकता हूं। तभी चाचा जी ने मुज़फ्फरपुर का अंग्रेजी में स्पेलिंग पूछ लिया। एक जे या ज़ेड की कमी के कारण उन्होंने कहा कि तुम्हारी छड़ी से पिटाई होनी चाहिए।
दोस्तों बहुत दुख के साथ कहना पड़ रहा है कि रैपिडेक्स और रेन एंड मार्टिन दोनों मुझे अंग्रेजी नहीं सीखा सके। दो ट्यूशन मास्टरों को भी इस नाकामी का श्रेय लेना चाहिए। वो भी नहीं सीखा सके। इस बीच हिंदी के एक शब्द का हिज्जे ग़लत लिखने पर मेरा दोस्त चिल्ला उठा- तुम्हें हिंदी नहीं आती। भाषा को लेकर मेरा आत्मविश्वास ख़त्म हो गया। अब मैं पन्ने को हाथ से ढंक कर हिंदी लिखने लगा । कहीं मेरी ग़लत स्पेलिंग पर किसी की नज़र न पड़ जाए। स्कूल के फेलियर छात्रों में गिने जाने के कारण नाकामी बर्दाश्त करने की ग़ज़ब की शक्ति थी। मगर दो दो भाषाओं की नाकामी से मेरा हौसला टूट गया।
तभी क्रिकेट के अलावा कपिल के एक विज्ञापन से कुछ रास्ता दिखा। रैपिडेक्स इंग्लिश स्पिकिंग कोर्स । मैं यही सोचता रहता था कि विश्व विजेता टीम का कप्तान, हरियाणा के किसान का एक बेटा कैसे बिना अंग्रेजी के विव रिचर्ड से बात करता होगा । माइक गैटिंग और डेविड गावर जब कपिल को बधाई देते होंगे तो कपिल क्या कहते होंगे। क्या वाकई कपिल को रैपिडेक्स के कारण अंग्रेजी आ गई थी। रैपिडेक्स का विज्ञापन उम्मीद की किरण की तरह नज़र आता था। दुनिया का सबसे शक्तिशाली ऑलराउंडर और बिना अंग्रेजी के..मेरा खोया आत्मविश्वास वापस आने लगा था। रैपिडेक्स खरीदा जा चुका था। लेकिन रैपिडेक्स दिल्ली जाने के लिए नहीं अंग्रेजी सीख कर गांव लौटने के लिए खरीदा गया था।
रैपिडेक्स के सारे अभ्यास कर लिए । रटने के तर्ज पर। दोस्तों को पता नहीं था मैं रैपिडेक्स पढ़ता हूं। धीरे धीरे पता चलता गया कि रैपिडेक्स भी गोल्डन पासपोर्ट या किसी कुंजी की तरह ब्राउन कवर में छुपा कर रखने की चीज़ है। मगर यह पासपोर्ट से अलग था। क्योंकि पासपोर्ट से अंग्रेजी में पास हो सकते थे और रैपिडेक्स से अंग्रेजी बोल सकते थे। मैं सोमवार को कलकत्ता जाऊंगा। इस वाक्य को अंग्रेजी में बोल सकते थे। मगर वजन और आकार के कारण रैपिडेक्स कोर्स की किताबों में घुलमिल नहीं पाता था। वो अलग दिखता था। लोगों की नज़र पड़ जाती थी कि ये कौन सी किताब है। इसलिए उसे तकिये के नीचे रखता था। अक्सर पढ़ने से पहले कमरे का दरवाज़ा बंद कर देता था।
लेकिन दोस्तों से बिना बताये अंग्रेजी सीखने का अभ्यास कोई चमत्कार नहीं कर सका। एक दिन मेरा दोस्त अविनाश वॉकमैन ले आया। ये कोई सत्तासी अठासी की बात होगी। उसने कान में हेडफोन लगा दिया। मैं हैरान हो गया। बोला अविनाश ये तो अंग्रेजी का गाना है। अंग्रेजी में गाना भी होता है क्या? सारे दोस्त हंसने लगे। अविनाश ने कहा- तुम को पता ही नहीं अंग्रेजी में गाना होता है। मैंने कहा- नहीं। हम जीवन में बहुत कुछ नहीं जानते हैं। वो सब कुछ भी जिसके बारे में लगता है दुनिया जानती है। यही वो वक्त था जब मुझे पता चल गया कि अंग्रेजी एक भाषा है। पेपर वन और टू नहीं।
मां से ज़िद कर दुबारा ट्यूशन मास्टर रख लिया। नेस्फिल्ड और रेन एंड मार्टिन ग्रामर की किताब। सत्तर के दशक तक बिहार के गांव गांव में नेस्फिल्ड ग्रामर की किताब गीता और रामायण की तरह मौजूद हुआ करती थी। मगर अस्सी तक नेस्फिल्ड पुराना हो गया। रेन एंड मार्टिन का ज़माना आ गया था। मैंने अपने पिता से सिर्फ दो ही चीज़ मांगी। बीबीसी सुनने के लिए रेडियो और अंग्रेजी सीखने के लिए रेन एंड मार्टिन की ग्रामर बुक। लाल रंग की किताब हाथ में आते ही आंखें चौंध गईं। तभी पिता जी ने ताना कस दिया। शायद वो किताब पर खर्च हुए पैसे से खिन्न थे। बोले अंग्रेजी सीखेंगे। क्या कीजिएगा। लेकिन अब मुझे पता था कि अंग्रेजी सीख कर बोल सकता हूं और गाने सुन सकता हूं। तभी चाचा जी ने मुज़फ्फरपुर का अंग्रेजी में स्पेलिंग पूछ लिया। एक जे या ज़ेड की कमी के कारण उन्होंने कहा कि तुम्हारी छड़ी से पिटाई होनी चाहिए।
दोस्तों बहुत दुख के साथ कहना पड़ रहा है कि रैपिडेक्स और रेन एंड मार्टिन दोनों मुझे अंग्रेजी नहीं सीखा सके। दो ट्यूशन मास्टरों को भी इस नाकामी का श्रेय लेना चाहिए। वो भी नहीं सीखा सके। इस बीच हिंदी के एक शब्द का हिज्जे ग़लत लिखने पर मेरा दोस्त चिल्ला उठा- तुम्हें हिंदी नहीं आती। भाषा को लेकर मेरा आत्मविश्वास ख़त्म हो गया। अब मैं पन्ने को हाथ से ढंक कर हिंदी लिखने लगा । कहीं मेरी ग़लत स्पेलिंग पर किसी की नज़र न पड़ जाए। स्कूल के फेलियर छात्रों में गिने जाने के कारण नाकामी बर्दाश्त करने की ग़ज़ब की शक्ति थी। मगर दो दो भाषाओं की नाकामी से मेरा हौसला टूट गया।
अंग्रेज़ी से साक्षात्कार- पार्ट वन
उन्नीस सौ नब्बे । मगध एक्सप्रैस से दिल्ली आने से पहले तक अंग्रेज़ी भाषा का मतलब मेरे लिए सिर्फ विषय था । पेपर वन औऱ पेपर टू । क्लास में मैं डब्ल्यूईआरई को वेयर बोलता था । हमारी एक टीचर ने कहा कि वेयर नहीं वर बोलो । बहुत कोशिश करता रहा वर बोलने की । जब बोलना आ गया तो सोचा इसका उपयोग क्या हो सकता है ? भीतर से जवाब मिला छोड़ो वेयर वर होकर तभी सार्थक है जब मैं अंग्रेजी में पास होने लायक हो जाऊं । गणित के अलावा अंग्रेज़ी के दोनों पेपर ऐसे थे जिनकी पिच पर मैं क्लिन बोल्ड हो जाया करता था । पर इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता था । काउ इज़ ए फोर फुटेड एनिमल रट कर काम चल जाता था । गोल्डन पासपोर्ट (कुंजी) में छपे आनस्टी इज़ द बेस्ट पोलिसी रट कर लिख देता था । पास मार्क से एक नंबर कम मिलता था । कोई बात नहीं । वैसे गाइड बुक को भूरे कवर में ही रखा जाता था । ताकि घर आने वाले दोस्तों और मेहमानों को पता न चले कि हम अंग्रेजी और गणित में गाइड पढ़कर पास होते हैं । कुंजी पढ़ने वाले छात्रों की अलग मनोदशा होती है । वह पास तो हो जाता होगा मगर तेज विद्यार्थी की तरह छात्रों के बीच स्वाभिमान से विचरण नहीं कर पाता होगा । शार्टकर्ट तरीके से पास कराने के बाद भी गाइड आपके मन में लंबे समय तक के लिए चोर बिठा देता है । कमज़ोर छात्रों का यह मज़बूत हथियार हमेशा के लिए उन्हें बिखेर देता है ।
पता नहीं बाकी छात्रों को अंग्रेजी कैसे आ गई । मुझे तो प्रिपोज़िशन ने बहुत परेशान किया । इसका पोज़िशन मालूम होता तो शायद अंग्रेजी के प्रोफेसर भीम भंटा राव हो गए होते । नहीं हुए । आर्टिकल और टेन्स ने भी कम अडंगा नहीं डाला । इतने सारे टेन्स और डू, डन, डीड । बाप रे । समझ में नहीं आता था कब डू करें । कब डन हो गया और कब डीड कर दिया। मगर यह तनाव व्यक्तिगत था । तब के माहौल में अंग्रेजी अपनी सार्वभौमिकता के साथ मौजूद नहीं थी । या हमें पता नहीं था कि दुनिया में कहीं अंग्रेजी बोली जाती है । या अंग्रेजी बोलने से बाबू लाट साहब हो जाते हैं । मेरे सारे रिश्तेदार क्लर्क से लेकर एकाध जूनियर इंजीनियर थे । हम इन्हें साहब ही समझते थे मगर किसी को अंग्रेजी नहीं आती थी ।
बहुत मुश्किल से मां से विनती कर एक अंग्रेजी का ट्यूशन कर लिया । कुछ नहीं हुआ । हर गलत ट्रांसलेशन पर एक चांटा । कान उमेठ कर पीठ पर धम्म से एक मुक्का । उन दिनों में बहस नहीं होती थी कि छात्र की पिटाई गलत है और इससे उसका आत्मविश्वास टूट जाता है । दिल्ली आकर हिंदुस्तान टाइम्स के फ्रंट पर एक लड़की की तस्वीर छपी थी जिसे मास्टर ने मारा था । तब लगा कि अच्छा ये गलत भी है । पर इस बहस से पहले न जाने कितने मास्टर कितने रवीश कुमारों की धुनाई कर निकल गए । खैर मास्टर साहब बोलते पास्ट परफेक्ट टेन्स हीं नहीं समझ पाते हो । क्या लिखोगे । एक बहुत प्रसिद्द अनुवाद था । मेरे स्टेशन पहुंचने से पहले गाड़ी जा चुकी थी । अक्सर चाचा इसका ट्रांसलेशन पूछ कर दस लोगों के बीच में आत्मविश्वास का कचरा कर देते थे । पहली बार अहसास हुआ कि मैं अंग्रेजी के कारण गांव जाने से घबराने लगा हूं । गांव पहुंचते ही तब ऐसे अनुवाद प्रकरणों से गांव और शहर की प्रतिभा में तुलना हुआ करती थी । मैं अक्सर फेल हो जाता था । एक बार गोल्डन पासपोर्ट से उसका अनुवाद लिख कर ले गया । रास्ते भर रटता था । नो सूनर हैड आय रिच्ड द स्टेशन द ट्रेन हैड लेफ्ट । ऐसा कुछ अनुवाद था । आज भी सही नहीं लिख सकता । बहरहाल उसके बाद भी चाचा जी के सामने नहीं बोल पाया । चाचा के अलावा एक मास्टर जी ने भी परेशान किया । जब भी वह बांध की ढलान से उतरते अपनी सायकिल रोक देते । और ऊंची आवाज़ में बोलने लगते । व्हेन डीड यू कम फ्राम पटना ? व्हाट इज़ योर फादर नेम्स ? यह लाइन ठीक ठीक याद है । घबराहट में इसका जवाब नहीं दे पाता । मिट्टी में सने मेरे बाकी दोस्त बहुत उम्मीद से देखते थे कि शहर में पढ़ता है जवाब दे देगा । मेरी नाकामी से संतुष्ट होकर मास्टर जी अपनी सायकिल बढ़ा देते थे । मैं गांव के अपने घर से तब तक नहीं निकलता था जब तक यह देख न लूं कि मास्टर जी स्कूल के लिए चले गए हैं । अंग्रेजी से घबराहट होने लगी ।
हर गर्मी में गांव न जाने का बहाना करने लगा । मेरा पूरा परिवार गर्मियों में गांव जाकर रहता था । मैं अब शहर में रहने लगा । मैं अंग्रेजी के कारण गांव के लड़कों के सामने कमतर नहीं होना चाहता था । मुझे मेरे गांव से किसी महत्वकांझा ने नहीं बल्कि अंग्रेजी ने अलग कर दिया । इंदिरा गांधी पर गोल्डन पासपोर्ट और भारती गाइड में छपे लेख को मिला कर रट गया । वेयर देयर इज़ अ विल देयर इज़ वे । जहां चाह है वहीं राह है । बहुत कुछ रटता रहा । लेकिन अंग्रेजी सिर्फ इम्तहानों में पास होने वाली भाषा बनी रही । हम अंग्रेजी के क्लास में वर्ड्सवर्थ की कविताएं हिंदी में समझा करते थे । शी ड्वेल्ट अमंग्स्ट अनट्रोडन वे । लुसी निर्जन रास्तों के बीच रहती है । ठीक ठीक याद नहीं मगर कुछ ऐसे ही पढ़ाया जाता था । सिर्फ इम्तहान खालिस अंग्रेजी में होते थे ।
तभी ख्याल आया टाइम्स आफ इंडिया लेने का । देश के कई घरों में पहली बार यह अखबार ख़बरों के लिए नहीं मंगाया गया । बल्कि अंग्रेजी सीखने के लिए मंगाया गया । पढ़ते रहने से आदत बनेगी । किसी ने कहा संपादकीय पढ़ो । हर संपादकीय को अंडरलाइन कर पढ़ा । डिक्शनरी लेकर अखबार पढ़ता था । मगर दोस्तों अखबार तो आ गया लेकिन अंग्रेजी नहीं आई । पटना शहर में जब नवभारत टाइम्स बंद हुआ तो मेरे एक टीचर ने कहा था । हिंदी का ज़माना चला गया । उल्लू तुम्हे अंग्रेजी सीखनी ही पड़ेगी । उसके बाद से टाइम्स आफ इंडिया को जब भी देखता घबरा जाता था । अंग्रेजी हिंदी को बंद कर देगी तो मेरा क्या होगा ? धर्मयुग दिनमान पहले ही बंद हो चुके थे । पड़ोस में चर्चा होने लगी थी कि अंग्रेजी सीखनी चाहिए । आगे की कहानी अगली कई किश्तों में लिखूंगा । जारी.....
जितेंद्र चौधरी ने भी टिप्पणी में अंग्रेजी से जुड़ा एक संस्मरण लिखा है । पढ़ना आवश्यक है
पता नहीं बाकी छात्रों को अंग्रेजी कैसे आ गई । मुझे तो प्रिपोज़िशन ने बहुत परेशान किया । इसका पोज़िशन मालूम होता तो शायद अंग्रेजी के प्रोफेसर भीम भंटा राव हो गए होते । नहीं हुए । आर्टिकल और टेन्स ने भी कम अडंगा नहीं डाला । इतने सारे टेन्स और डू, डन, डीड । बाप रे । समझ में नहीं आता था कब डू करें । कब डन हो गया और कब डीड कर दिया। मगर यह तनाव व्यक्तिगत था । तब के माहौल में अंग्रेजी अपनी सार्वभौमिकता के साथ मौजूद नहीं थी । या हमें पता नहीं था कि दुनिया में कहीं अंग्रेजी बोली जाती है । या अंग्रेजी बोलने से बाबू लाट साहब हो जाते हैं । मेरे सारे रिश्तेदार क्लर्क से लेकर एकाध जूनियर इंजीनियर थे । हम इन्हें साहब ही समझते थे मगर किसी को अंग्रेजी नहीं आती थी ।
बहुत मुश्किल से मां से विनती कर एक अंग्रेजी का ट्यूशन कर लिया । कुछ नहीं हुआ । हर गलत ट्रांसलेशन पर एक चांटा । कान उमेठ कर पीठ पर धम्म से एक मुक्का । उन दिनों में बहस नहीं होती थी कि छात्र की पिटाई गलत है और इससे उसका आत्मविश्वास टूट जाता है । दिल्ली आकर हिंदुस्तान टाइम्स के फ्रंट पर एक लड़की की तस्वीर छपी थी जिसे मास्टर ने मारा था । तब लगा कि अच्छा ये गलत भी है । पर इस बहस से पहले न जाने कितने मास्टर कितने रवीश कुमारों की धुनाई कर निकल गए । खैर मास्टर साहब बोलते पास्ट परफेक्ट टेन्स हीं नहीं समझ पाते हो । क्या लिखोगे । एक बहुत प्रसिद्द अनुवाद था । मेरे स्टेशन पहुंचने से पहले गाड़ी जा चुकी थी । अक्सर चाचा इसका ट्रांसलेशन पूछ कर दस लोगों के बीच में आत्मविश्वास का कचरा कर देते थे । पहली बार अहसास हुआ कि मैं अंग्रेजी के कारण गांव जाने से घबराने लगा हूं । गांव पहुंचते ही तब ऐसे अनुवाद प्रकरणों से गांव और शहर की प्रतिभा में तुलना हुआ करती थी । मैं अक्सर फेल हो जाता था । एक बार गोल्डन पासपोर्ट से उसका अनुवाद लिख कर ले गया । रास्ते भर रटता था । नो सूनर हैड आय रिच्ड द स्टेशन द ट्रेन हैड लेफ्ट । ऐसा कुछ अनुवाद था । आज भी सही नहीं लिख सकता । बहरहाल उसके बाद भी चाचा जी के सामने नहीं बोल पाया । चाचा के अलावा एक मास्टर जी ने भी परेशान किया । जब भी वह बांध की ढलान से उतरते अपनी सायकिल रोक देते । और ऊंची आवाज़ में बोलने लगते । व्हेन डीड यू कम फ्राम पटना ? व्हाट इज़ योर फादर नेम्स ? यह लाइन ठीक ठीक याद है । घबराहट में इसका जवाब नहीं दे पाता । मिट्टी में सने मेरे बाकी दोस्त बहुत उम्मीद से देखते थे कि शहर में पढ़ता है जवाब दे देगा । मेरी नाकामी से संतुष्ट होकर मास्टर जी अपनी सायकिल बढ़ा देते थे । मैं गांव के अपने घर से तब तक नहीं निकलता था जब तक यह देख न लूं कि मास्टर जी स्कूल के लिए चले गए हैं । अंग्रेजी से घबराहट होने लगी ।
हर गर्मी में गांव न जाने का बहाना करने लगा । मेरा पूरा परिवार गर्मियों में गांव जाकर रहता था । मैं अब शहर में रहने लगा । मैं अंग्रेजी के कारण गांव के लड़कों के सामने कमतर नहीं होना चाहता था । मुझे मेरे गांव से किसी महत्वकांझा ने नहीं बल्कि अंग्रेजी ने अलग कर दिया । इंदिरा गांधी पर गोल्डन पासपोर्ट और भारती गाइड में छपे लेख को मिला कर रट गया । वेयर देयर इज़ अ विल देयर इज़ वे । जहां चाह है वहीं राह है । बहुत कुछ रटता रहा । लेकिन अंग्रेजी सिर्फ इम्तहानों में पास होने वाली भाषा बनी रही । हम अंग्रेजी के क्लास में वर्ड्सवर्थ की कविताएं हिंदी में समझा करते थे । शी ड्वेल्ट अमंग्स्ट अनट्रोडन वे । लुसी निर्जन रास्तों के बीच रहती है । ठीक ठीक याद नहीं मगर कुछ ऐसे ही पढ़ाया जाता था । सिर्फ इम्तहान खालिस अंग्रेजी में होते थे ।
तभी ख्याल आया टाइम्स आफ इंडिया लेने का । देश के कई घरों में पहली बार यह अखबार ख़बरों के लिए नहीं मंगाया गया । बल्कि अंग्रेजी सीखने के लिए मंगाया गया । पढ़ते रहने से आदत बनेगी । किसी ने कहा संपादकीय पढ़ो । हर संपादकीय को अंडरलाइन कर पढ़ा । डिक्शनरी लेकर अखबार पढ़ता था । मगर दोस्तों अखबार तो आ गया लेकिन अंग्रेजी नहीं आई । पटना शहर में जब नवभारत टाइम्स बंद हुआ तो मेरे एक टीचर ने कहा था । हिंदी का ज़माना चला गया । उल्लू तुम्हे अंग्रेजी सीखनी ही पड़ेगी । उसके बाद से टाइम्स आफ इंडिया को जब भी देखता घबरा जाता था । अंग्रेजी हिंदी को बंद कर देगी तो मेरा क्या होगा ? धर्मयुग दिनमान पहले ही बंद हो चुके थे । पड़ोस में चर्चा होने लगी थी कि अंग्रेजी सीखनी चाहिए । आगे की कहानी अगली कई किश्तों में लिखूंगा । जारी.....
जितेंद्र चौधरी ने भी टिप्पणी में अंग्रेजी से जुड़ा एक संस्मरण लिखा है । पढ़ना आवश्यक है